सर्वोच्च न्यायालय की न्यायाधीश की नियुक्ति कौन करता है? - sarvochch nyaayaalay kee nyaayaadheesh kee niyukti kaun karata hai?

Bharat Ke Mukhya Nyayadheesh Ki Niyukti Kaun Karta Hai

GkExams on 11-02-2019

संविधान में 30 न्यायधीश तथा 1 मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति का प्रावधान है। उच्चतम न्यायालय के सभी न्यायाधीशों की नियुक्ति भारत के राष्ट्रपति द्वारा उच्चतम न्यायालय के परामर्शानुसार की जाती है। सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश इस प्रसंग में राष्ट्रपति को परामर्श देने से पूर्व अनिवार्य रूप से चार वरिष्ठतम न्यायाधीशों के समूह से परामर्श प्राप्त करते हैं तथा इस समूह से प्राप्त परामर्श के आधार पर राष्ट्रपति को परामर्श देते हैं।

अनु 124 के अनुसार मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति करते समय राष्ट्रपति अपनी इच्छानुसार सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की सलाह लेगा। वहीं अन्य जजों की नियुक्ति के समय उसे अनिवार्य रूप से मुख्य न्यायाधीश की सलाह माननी पडेगी
सर्वोच्च न्यायालय एडवोकेट्स आन रिकार्ड एसोसिएशन बनाम भारत संघ वाद 1993 मे दिये गये निर्णय के अनुसार सर्वोच्च न्यायालय, उच्च न्यायालय के जजों की नियुक्ति तथा उच्च न्यायालय के जजों के तबादले इस प्रकार की प्रक्रिया है जो सर्वाधिक योग्य उपलब्ध व्यक्तियों की नियुक्ति की जा सके। भारत के मुख्य न्यायाधीश का मत प्राथमिकता पायेगा। उच्च न्यायपालिका मे कोई नियुक्ति बिना उस की सहमति के नहीं होती है। संवैधानिक सत्ताओं के संघर्ष के समय भारत के मुख्य न्यायाधीश न्यायपालिका का प्रतिनिधित्व करेगा। राष्ट्रपति भारत के मुख्य न्यायाधीश को अपने मत पर फिर से विचार करने को तभी कहेगा जब इस हेतु कोई तार्किक कारण मौजूद होगा। पुनः विचार के बाद उसका मत राष्ट्रपति पर बाध्यकारी होगा यद्यपि अपना मत प्रकट करते समय वह सुप्रीम कोर्ट के दो वरिष्ठम न्यायधीशों का मत जरूर लेगा। पुनःविचार की दशा मे फिर से उसे दो वरिष्ठम न्यायधीशों की राय लेनी होगी वह चाहे तो उच्च न्यायालय/सर्वोच्च न्यायालय के अन्य जजों की राय भी ले सकता है लेकिन सभी राय सदैव लिखित में होगी
बाद में अपना मत बदलते हुए न्यायालय ने कम से कम 4 जजों के साथ सलाह करना अनिवार्य कर दिया था। वह कोई भी सलाह राष्ट्रपति को अग्रेषित नहीं करेगा यदि दो या ज्यादा जजों की सलाह इसके विरूद्ध हो किंतु 4 जजों की सलाह उसे अन्य जजों जिनसे वो चाहे, सलाह लेने से नहीं रोकेगी।

न्यायाधीशों की योग्यताएँ

  • व्यक्ति भारत का नागरिक हो।
  • कम से कम पांच साल के लिए उच्च न्यायालय का न्यायाधीश या दो या दो से अधिक न्यायालयों में लगातार कम से कम पांच वर्षों तक न्यायाधीश के रूप में कार्य कर चुका हो। अथवा
  • किसी उच्च न्यायालय या न्यायालयों में लगातार दस वर्ष तक अधिवक्ता रह चुका हो। अथवा
  • वह व्यक्ति राष्ट्रपति की राय में एक प्रतिष्ठित विधिवेत्ता होना चाहिए।

किसी उच्च न्यायालय के न्यायाधीश या फिर उच्चतम न्यायालय या उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश को उच्चतम न्यायालय के एक तदर्थ न्यायाधीश के रूप में नियुक्त किया जा सकता है !

  • यहाँ पर ये जानना आवश्यक है की उच्चतम न्यायालय का न्यायाधीश बनने हेतु किसी भी प्रदेश के उच्च न्यायालय में न्यायाधीश का पांच वर्ष का अनुभव होना अनिवार्य है ,

और वह 62 वर्ष की आयु पूरी न किया हो ,वर्तमान समय में CJAC निर्णय लेगी

कार्यकाल

उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों की सेवानिवृत्ति की आयु 65 वर्ष होती है। न्यायाधीशों को केवल (महाभियोग) दुर्व्यवहार या असमर्थता के सिद्ध होने पर संसद के दोनों सदनों द्वारा दो-तिहाई बहुमत से पारित प्रस्ताव के आधार पर ही राष्ट्रपति द्वारा हटाया जा सकता है।

सम्बन्धित प्रश्न



Comments Nupur pal on 25-11-2022

Uchhtam nyayalay ke mukhya nyayadhish ki niyukti Kaun karta hai use pad se hatane ki prakriya bataiye

Sk on 24-10-2021

President ko kon niyukt karta hai

KAMLESH GURJAR on 21-07-2021

Memorandum of prosessor क्या है

Ramgopal on 05-03-2020

High court k judge ke neukti kon Marta h

Jyoti on 05-12-2019

Uchatam nyayalaya ke nyayadhish ko Niyukti Kaun Karta Tha

Shankar Lal on 13-01-2019

Bharat ke mukhy nyayadhish ki Niyukti Kaun karta hai

निकेत on 24-09-2018

राष्ट्रपति


विशेष: जजों की नियुक्ति कौन करे...न्यायपालिका या कार्यपालिका?

संदर्भ एवं पृष्ठभूमि
हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय के कॉलेजियम ने दो नाम सर्वोच्च न्यायालय में बतौर जज नियुक्ति के लिये सरकार को भेजे थे। सरकार ने उनमें से इंदु मल्होत्रा का नाम तो स्वीकार कर लिया, लेकिन जस्टिस के.एम. जोसेफ का नाम पुनर्विचार के लिये कॉलेजियम को वापस भेज दिया। इस प्रकरण के बाद जजों की नियुक्ति से जुड़ी कॉलेजियम व्यवस्था फिर विवादों के घेरे में है। विवाद में एक तरफ सरकार है, जो कॉलेजियम व्यवस्था को लेकर बिलकुल भी सहज नहीं है...और दूसरी तरफ है सर्वोच्च न्यायालय, जो हर हाल में कॉलेजियम व्यवस्था को बरकरार रखना चाहता है। 

संविधान का संरक्षक है सर्वोच्च न्यायालय 

  • भारत का सर्वोच्च न्यायालय भारत का शीर्ष न्यायिक प्राधिकरण है जिसे भारतीय संविधान के भाग 5 अध्याय 4 के तहत स्थापित किया गया है। 
  • संघात्मक शासन के अंतर्गत सर्वोच्च, स्वतंत्र और निष्पक्ष न्यायालय का होना आवश्यक है। भारत में भी संघात्मक शासन व्यवस्था है और इसलिये यहाँ भी एक संघीय न्यायालय का प्रावधान है, जिसे सर्वोच्च न्यायालय कहते हैं। 
  • सर्वोच्च न्यायालय को संविधान का व्याख्याता, अपील का अंतिम न्यायालय, नागरिकों के मूल अधिकारों का रक्षक, राष्ट्रपति का परामर्शदाता, लोकतंत्र का प्रहरी और संविधान का संरक्षक माना गया है। 
  • भारतीय संविधान के अनुसार सर्वोच्च न्यायालय की भूमिका संघीय न्यायालय और भारतीय संविधान के संरक्षक की है।

क्या कहता है अनुच्छेद 124?

  • संविधान के अनुच्छेद 124 में सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश व अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति का प्रावधान किया गया है। 
  • इसके तहत राष्ट्रपति सर्वोच्च न्यायालय और राज्यों के उच्च न्यायालयों के कुछ न्यायाधीशों से परामर्श करने के पश्चात् सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति करेगा। 
  • इसी अनुच्छेद में यह भी प्रावधान है कि मुख्य न्यायाधीश के अलावा किसी अन्य न्यायाधीश की नियुक्ति में भारत के मुख्य न्यायाधीश से सलाह अवश्य ली जाएगी। 

चूंकि संविधान में सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति को लेकर अलग से कोई प्रावधान नहीं किया गया है, इसीलिये दो अपवादों (1973 में जस्टिस ए.एन. रे और 1977 में जस्टिस एम.यू. बेग को वरिष्ठता क्रम को नज़रअंदाज़ कर मुख्य न्यायाधीश बनाया गया था) को छोड़कर सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठतम न्यायाधीश को इस पद पर नियुक्त किये जाने की परंपरा अब तक चली आ रही है।

(टीम दृष्टि इनपुट)

वर्तमान में क्या है विवाद का मुद्दा?
उल्लेखनीय है कि जस्टिस के.एम. जोसेफ और इंदु मल्होत्रा के संबंध में सर्वोच्च न्यायालय कॉलेजियम की फाइल 22 जनवरी को कानून मंत्रालय को मिली थी, जिस पर सरकार ने तत्काल कोई निर्णय नहीं लिया था। अतः सर्वोच्च न्यायालय ने एक बार फिर केंद्र सरकार से इनकी नियुक्ति को मंजूरी देने का आग्रह किया था। 

केंद्र सरकार ने जस्टिस के.एम. जोसेफ की पदोन्नति रोके रखने का फैसला किया है, जो उत्तराखंड उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश हैं। अब सर्वोच्च न्यायालय कॉलेजियम को तय करना है कि सरकार को क्या जवाब दिया जाए। अभी जो व्यवस्था चल रही है उसके तहत केंद्र सरकार कॉलेजियम की सिफारिश को वापस भेज सकती है, क्योंकि ऐसा करना उसके अधिकार क्षेत्र में है। लेकिन यदि कॉलेजियम दोबारा इसी सिफारिश को सरकार के पास भेजता है तो सरकार उसे मानने के लिये बाध्य होगी।

क्या आपत्ति जताई है सरकार ने?
कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने देश के मुख्य न्यायाधीश और कॉलेजियम के प्रमुख दीपक मिश्रा को पत्र लिखकर निम्नलिखित तीन कारण बताए कि क्यों जस्टिस के.एम. जोसेफ़ को सर्वोच्च न्यायालय में जज नहीं बनाया जाना चाहिये... 

  1. जस्टिस के.एम. जोसेफ का नाम प्रांतीय-जातीय प्रतिनिधित्व और वरीयता के सिद्धांत के प्रतिकूल बताते हुए यह कहते हुए वापस कर दिया गया कि केरल से दो जज पहले ही सर्वोच्च न्यायालय में हैं। 
  2. जस्टिस के.एम. जोसेफ वरीयता क्रम में देश में 42वें नंबर पर हैं, जो काफी नीचे है। देश में विभिन्न उच्च न्यायालयों के 11 जज उनसे सीनियर हैं। 
  3. सर्वोच्च न्यायालय में अनुसूचित जाति या जनजाति का कोई प्रतिनिधित्व नहीं है।

इसके अलावा सरकार ने यह भी कहा कि सर्वोच्च न्यायालय में कोलकाता, छत्तीसगढ़, राजस्थान, गुजरात, उत्तराखंड, झारखण्ड, जम्मू-कश्मीर, सिक्किम, मणिपुर और मेघालय उच्च न्यायालय का प्रतिनिधित्व नहीं है। 

ऐसे में यह प्रश्न एक बार फिर उठ खड़ा हुआ है कि जजों की नियुक्ति कौन करे?...और कैसे?

कॉलेजियम क्या है? 

  • देश में सर्वोच्च न्यायालय तथा सभी हाईकोर्ट में जजों की नियुक्ति तथा तबादलों का फैसला कॉलेजियम करता है। 
  • हाईकोर्ट के कौन से जज पदोन्नत होकर सर्वोच्च न्यायालय जाएंगे यह फैसला भी कॉलेजियम ही करता है। 
  • 1990 में सर्वोच्च न्यायालय के दो फैसलों के बाद 1993 में यह व्यवस्था बनाई गई थी। 
  • उल्लेखनीय है कि कॉलेजियम व्यवस्था का उल्लेख न तो मूल संविधान में है और न ही उसके द्वारा संशोधित किसी प्रावधान में।

वर्तमान में कॉलेजियम व्यवस्था के अध्यक्ष मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा हैं और जस्टिस जे. चेलमेश्वर, जस्टिस रंजन गोगोई, जस्टिस मदन बी. लोकूर और जस्टिस कुरियन जोसेफ इसके सदस्य हैं। 

  • कॉलेजियम व्यवस्था को लेकर विवाद इसलिये है क्योंकि यह व्यवस्था नियुक्ति का सूत्रधार और नियुक्तिकर्त्ता दोनों स्वयं ही है। इस व्यवस्था में कार्यपालिका की भूमिका बिल्कुल नहीं है या है भी तो केवल नाममात्र की।

लंबे समय से चला आ रहा है टकराव

  • जस्टिस के.एम. जोसेफ का नाम कॉलेजियम को वापस लौटाने के बाद एक बार फिर कार्यपालिका यानी सरकार और न्यायपालिका के  बीच लंबे समय से चली आ रही खींचतान सतह पर आ गई है। 

सरकार के तर्क 

  • सरकार की तरफ से प्रायः यह तर्क दिया जाता है कि निष्पक्ष न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिये न्यायपालिका सरकार पर विश्वास नहीं करती है।  
  • शासन का काम उनके पास रहना चाहिये, जो शासन करने के लिये निर्वाचित किये गए हों।
  • न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच शक्ति के पृथक्करण के सिद्धांत का हवाला देते हुए सरकार कहती है कि शक्ति के पृथक्करण का सिद्धांत न्यायपालिका के लिये भी उतना ही बाध्यकारी है, जितना कार्यपालिका के लिये। 

संसदीय समिति कर चुकी है सरकार का समर्थन 
न्यायाधीशों की नियुक्ति पर सरकार और सर्वोच्च न्यायालय के बीच टकराव को लेकर वर्ष 2016 में एक संसदीय समिति ने कहा था कि उच्चतर न्यायपालिका में न्यायाधीशों की नियुक्ति निश्चित रूप से कार्यपालिका का कार्य है। इस समिति ने सरकार से संविधान की मूल भावना की इस विकृति को पलटने के लिये उचित कदम उठाने को कहा था। विधि एवं कार्मिक संबंधी संसद की स्थायी समिति ने कहा कि संविधान की मूल भावना में आई यह विकृति सर्वोच्च न्यायालय के कई आदेशों से उत्पन्न हुई है, जिसने  कॉलेजियम प्रणाली को जन्म दिया। इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया था कि संविधान संशोधन की वैधता से जुड़े मामलों की सुनवाई पर सर्वोच्च न्यायालय के 5 के बजाय न्यूनतम 11 न्यायाधीशों को सुनवाई करनी चाहिये। इसके अलावा संविधान की व्याख्या से जुड़े मामलों की सुनवाई 7 न्यायाधीशों से कम वाली पीठ को नहीं करनी चाहिये।

(टीम दृष्टि इनपुट)

न्यायपालिका के तर्क

  • इस मुद्दे पर न्यायपालिका तर्क देती है कि कोई भी शाखा (विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका) सर्वोच्चता का दावा नहीं कर सकती। 
  • सर्वोच्च न्यायालय संवैधानिक संप्रभुता में विश्वास करता है और उसका पालन भी करता है। 
  • स्वतंत्र न्यायपालिका को न्यायिक समीक्षा की शक्ति के साथ संतुलन स्थापित करने के लिये संविधान के अंतिम संरक्षक की शक्ति दी गई है, ताकि इस बात को सुनिश्चित किया जा सके कि संबंधित सरकारें कानून के प्रावधान के अनुसार अपने दायरे के भीतर काम करें। 
  • सर्वोच्च न्यायालय किसी भी तरह की नीति लाने के पक्ष में नहीं है, लेकिन जिस क्षण नीति बन गई, तो इसकी व्याख्या करने और इसे लागू किया जाए या नहीं, यह देखने का अधिकार अवश्य है। 
  • संविधान ने न्यायपालिका को जो अधिकार सौंपे हैं, वह उसी का पालन कर रही है। न्यायपालिका तभी हस्तक्षेप करती है, जब कार्यपालिका अपने संवैधानिक कर्त्तव्यों का निर्वहन करने में विफल रहती है। 
  • संविधान के तहत न्यायपालिका की एक भूमिका है और वे कार्यपालिका से निश्चित तौर पर सवाल पूछ सकती है। 

कौन सर्वोच्च?...सरकार या...?
वर्ष 1973 में चर्चित केशवानंद भारती मामले में सर्वोच्च न्यायालय की 13 जजों की संविधान पीठ अपने फैसले में यह स्पष्ट कर चुकी है कि भारत में संसद  नहीं, बल्कि संविधान सर्वोच्च है। अपने इस ऐतिहासिक फैसले में अदालत ने टकराव की किसी भी स्थिति को खत्म करने के लिये संविधान के मौलिक स्वरूप का सिद्धांत भी पारित किया था, जिसके अनुसार संसद ऐसा कोई संशोधन नहीं कर सकती, जो संविधान की मूल संरचना के प्रतिकूल हो। इसके साथ ही न्यायिक पुनरावलोकन के अधिकार के तहत संसद द्वारा किये गए किसी संशोधन से संविधान की मूल संरचना प्रभावित होने की जाँच करने के लिये भी न्यायपालिका स्वतंत्र है।

मेमोरेंडम ऑफ प्रोसीज़र 
राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग को रद्द करते हुए सर्वोच्च न्यायालय उच्च न्यायपालिका में नियुक्तियों में पारदर्शिता के लिये मेमोरेंडम ऑफ प्रोसीज़र (Memorandum of Procedure-MoP) बनाने को तैयार हो गया था। 

  • MoP तैयार करने का आदेश सर्वोच्च न्यायालय ने 16 दिसंबर,  2015 को दिया था।
  • उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय में जजों की नियुक्तियों के संबंध में पिछले दो वर्षों से सर्वोच्च न्यायालय और सरकार MoP को अंतिम रूप देने का प्रयास कर रहे हैं।
  • तब से अब तक MoP का मसौदा राष्ट्रीय सुरक्षा और सचिवालय जैसे कुछ मुद्दों को लेकर कॉलेजियम और केंद्र सरकार के बीच अटका हुआ है। 
  • सरकार चाहती है कि उसे देश की सुरक्षा के नाम पर कॉलेजियम की किसी भी सिफारिश को खारिज करने का अधिकार हो...सर्वोच्च न्यायालय और हाईकोर्ट में नियुक्ति सचिवालय हो... नियुक्ति की सिफारिश करने से पहले उसे स्क्रीनिंग कमेटी को दिखाया जाए।
  • उल्लेखनीय है कॉलेजियम व्यवस्था में यह निहित है कि राष्ट्रीय सुरक्षा और जनहित के नाम पर सरकार किसी जज की नियुक्ति की सिफारिश को वापस भेजेगी तो कॉलेजियम का फैसला अंतिम होगा।
  • सर्वोच्च न्यायालय यह कह चुका है कि सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट ऑन रिकार्ड एसोसिएशन व अन्य बनाम भारत सरकार मामले के फैसले के बाद MoP न होने के कारण उच्च न्यायालयों तथा सर्वोच्च न्यायालय में जजों की नियुक्ति को चुनौती देना आधारहीन है। 
  • सर्वोच्च न्यायालय चाहता है कि जनहित में MoP तैयार होने में और विलंब न हो। शीर्ष अदालत ने इसके लिये कोई समय सीमा नहीं तय की है, लेकिन चाहता है कि MoP को अनिश्चितकाल तक लंबित नहीं रखा जाए। 
  • विदित हो कि एक मामले में MoP के बिना उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय में जजों की नियुक्ति को उच्च न्यायालय में चुनौती दी गई थी, जहाँ याचिका खारिज़ होने के बाद सर्वोच्च न्यायालय में अपील की गई थी। 
  • सर्वोच्च न्यायालय ने याचिका में दिये गए इस तर्क से सहमति जताई थी कि MoP को एक मैकेनिज्म देना चाहिये ताकि उच्च न्यायालय में मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति में देरी न हो।
  • न्यायालय ने यह भी कहा कि इसमें कोई संदेह नहीं कि पद रिक्त होने से पहले ही कॉलेजियम द्वारा नियुक्ति की प्रक्रिया शुरू कर देनी चाहिये ताकि इन रिक्तियों को समय पर भरा जा सके।
  • विदित हो कि सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट ऑन रिकार्ड एसोसिएशन व अन्य बनाम भारत सरकार, 1993 के फैसले के मुताबिक बने MoP के पैरा 5 के तहत उच्च न्यायालय में कार्यकारी मुख्य न्यायाधीश  का कार्यकाल एक महीने से ज्यादा नहीं होना चाहिये।
  • फिलहाल जो MoP है, वह 1993 के बाद केंद्र सरकार के न्याय विभाग द्वारा बनाया गया था और सर्वोच्च न्यायालय के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश ने इसका अनुमोदन किया था। 
  • इसमें जजों की नियुक्ति प्रक्रिया का उल्लेख है, जिसमें संलग्न डॉक्यूमेंट के साथ उम्मीदवारों की व्यक्तिगत जानकारी और एफिडेविट भरे जाते हैं। अब जो MoP बनाया जा रहा है उसमें जजों की पात्रता शर्तों के तहत राष्ट्रीय सुरक्षा का प्रावधान जोड़ने तथा सर्वोच्च न्यायालय और प्रत्येक उच्च न्यायालय में
  • एक सचिवालय बनाने पर भी सहमति बन गई है। 
  • यह सचिवालय शीर्ष न्यायालय के जजों तथा प्रत्येक उच्च न्यायालय में जजों के डेटाबेस को रखने और जजों की नियुक्ति में कॉलेजियम की मदद करेगा।

(टीम दृष्टि इनपुट)

121वाँ संविधान संशोधन (राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग) 
गौरतलब है कि वर्ष 2014 में केंद्र सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्तियों और स्थानान्तरण के लिये 121वाँ संविधान संशोधन कर राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम बनाया था। 

  • वर्ष 2015 में सर्वोच्च न्यायालय ने इस अधिनियम को यह कहते हुए असंवैधानिक करार दिया था कि ‘राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग’ अपने वर्तमान स्वरूप में न्यायपालिका के कामकाज में सीधा हस्तक्षेप है।
  • उल्लेखनीय है कि न्यायाधीशों की नियुक्ति करने वाले इस आयोग की अध्यक्षता भारत के मुख्य न्यायाधीश को करनी थी। इसके अलावा, सर्वोच्च न्यायालय के दो वरिष्ठ न्यायाधीश, केन्द्रीय विधि मंत्री और दो जानी-मानी हस्तियाँ भी इस आयोग का हिस्सा थीं।
  • आयोग में जानी-मानी दो हस्तियों का चयन तीन सदस्यीय समिति को करना था, जिसमें प्रधानमंत्री, मुख्य न्यायाधीश और लोकसभा में नेता विपक्ष या सबसे बड़े विपक्षी दल के नेता शामिल थे।आयोग के संबंध में एक दिलचस्प बात यह थी कि अगर आयोग के दो सदस्य किसी नियुक्ति पर सहमत नहीं हुए
  • तो आयोग उस व्यक्ति की नियुक्ति की सिफ़ारिश नहीं करेगा।

निष्कर्ष: कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच मतभेदों का सार्वजनिक होना लोकतंत्र के लिये नुकसानदायक है। संसदीय लोकतंत्र में कार्यपालिका और न्यायपालिका के अपने-अपने अधिकार हैं। संविधान के तहत दोनों की सुपरिभाषित भूमिकाएँ हैं और अदालतों की भूमिका अंततः विधि का शासन सुनिश्चित कराने की है। न्यायपालिका और कार्यपालिका दोनों अपना-अपना काम करती हैं। विधायिका कानून बनाती है और इसे लागू करना कार्यपालिका का और विधायिका द्वारा बनाए गए कानूनों के संविधान सम्मत होने की जाँच करना न्यायपालिका का काम है।

न्यायपालिका देश के सर्वाधिक प्रतिष्ठित संस्थानों में से एक है और लोगों के मन में इसकी स्वतंत्रता तथा निष्पक्ष न्याय के प्रति इसकी प्रतिबद्धता पर अटूट विश्वास है। हाल ही में जजों की नियुक्ति को लेकर न्यायपालिका और सरकार के बीच व्यवधान सामने आया है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि शक्ति पृथक्करण जैसा बुनियादी सिद्धांत विवाद का विषय बना हुआ है, जबकि इस गंभीर मुद्दे पर सार्वजनिक बहस से बचा जाना चाहिये। कार्यपालिका व न्यायपालिका के बीच यह टकराव लोकतंत्र के हित में नहीं है, क्योंकि इससे पहले से ही उलझी परिस्थितियों के और उलझने का अंदेशा रहता है।