17वीं सदी का संकट क्या है? - 17veen sadee ka sankat kya hai?

प्रश्न 1. आप सत्रहवीं शताब्दी के यूरोपीय संकट से क्या समझते हैं? इस संकट की उत्पत्ति के बारे में चर्चा कीजिए।प्रश्न 2. यूरोप में प्रबोधन काल के मुख्य विचारों पर एक टिप्पणी लिखिए।प्रश्न 3. सत्रहवीं शताब्दी में खगोल-शास्त्र और भौतिकी के विकास में प्राकृतिक दार्शनिकों के योगदान का वर्णन कीजिए?प्रश्न 4. पश्चिमी यूरोप के उद्योगीकरण में औपनिवेशिक व्यापार की भूमिका की विवेचना कीजिए।प्रश्न 5. ओलिवर क्रामवेल और अंग्रेजी क्रान्ति में उनकी भूमिका पर एक टिप्पणी लिखिए।प्रश्न 6. सुधार और प्रति-सुधारप्रश्न 7. पूर्व आधुनिक यूरोप में आद्य-उद्योगीकरणप्रश्न 8. वाणिज्यवादप्रश्न 9. अमेरिका में उपनिवेशीकरण की प्रकृतिप्रश्न 10. तर्कवादBHIC 108 Free Assignment In Hindi jan 2022प्रश्न 1. आप सत्रहवीं शताब्दी के यूरोपीय संकट से क्या समझते हैं? इस संकट की उत्पत्ति के बारे में चर्चा कीजिए।

उत्तर प्रत्येक इतिहासकार का संकट की तिथि तथा प्रबलता के बारे में पृथक मत हैं जो एक क्षेत्र से दसरे क्षेत्र पर निर्भर करता है। उस विषय के बारे में आम मान्यता है कि यूरोपीय संकट सत्रहवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में विकसित हुआ।

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कुछ समकालीन विद्वान उपद्रवों और विद्रोहों की लम्बी सूची प्रस्तुत करते हैं जिससे शहरी अर्थव्यवस्था और व्यापार में संकट उत्पन्न हुआ जिसके फलस्वरूप आर्थिक मंदी, जनसंख्या में गिरावट, सामाजिक अशान्ति और व्यापक पैमाने पर युद्ध हुए।

अस्सी वर्षीय काल (1582-1662) ने परे नीदरलैंडस में स्पेन के शासन के विरुद्ध जगह-जगह उपद्रव अनुभव किए गये। इसका प्रभाव यूरोप के अन्य क्षेत्रों पर भी महसूस किया गया।

तीस वर्षीय युद्ध (1618-1648) ने मध्य यूरोप के कई राज्यों में, फ्रांस तथा स्पेन में विध्वंस फैलाया। फ्रांस में विद्रोहों और उपद्रवों का निरन्तर सिलसिला आरम्भ हुआ जिसकी शुरुआत आकीतेन प्रान्त में गाबेल (नमक) कर के विरुद्ध हुई।

सन् 1590 और 1620 के दशकों में व्यापक कृषक विद्रोह, न्यू पिओद (1637) तथा सम्पूर्ण आन्तरायिक क्रोकुआन्त कृषक विद्रोहों ने फ्रैंच शासकों के लिए गंभीर समस्या उत्पन्न कर दी थी।

नू पीओद कर – विरोधी विद्रोह था जो नौरमांदी में हुआ। एक अन्य विद्रोह पेरीगम में भड़का जिसमें 30,000 से अधिक सशस्त्र किसानों ने विद्रोह किया जो राजा के विरुद्ध न होकर अधिक कर तथा सरकारी कर तथा अधिकारियों के विरोध में था। BHIC 108 Free Assignment In Hindi

फ्रोन्द (1647-1652) मुख्य राजनीतिक आन्दोलन था जिससे फ्रांस में गहरे सामाजिक संकट की मौजूदगी का अहसास होता है। फ्रोन्द विद्रोह में फ्रांस के निरंकुश शासकों की बढ़ती हुई शक्ति का विरोध किया गया।

इसलिए विद्रोहकारी कुलीन वर्ग ने पार्लेमा (प्रशासनिक तथा न्यायिक संस्था) की शक्तियों को मजबूत बनाने का प्रयत्न किया जिससे वो सर्वोच्च संस्था बन जाए।

लेकिन यह विद्रोह असफल हो गया और उसके उपरान्त बूरबाँ वंश ने न केवल अपनी स्थिति सुधार ली बल्कि लुई XIV के शासन में अपने निरंकुश शासन को और सशक्त कर लिया।

लगभग इसी समय इंग्लैंड भी गृहयुद्ध (1642-49) में फंसा था जिसमें स्टुअर्ट वंश के शासक चार्लस I को संसद के समर्थकों द्वारा फांसी दी गयी।

तत्पश्चात्, 1660 तक राजनीतिक प्रयोग चलते रहे परन्तु राजनीतिक विवाद 1688-89 की क्रांति तक नहीं सुलझाए जा सके। बोरिस पोर्चनेब ने फ्रांस के फ्रोन्द विद्रोह को इंग्लैंड की 1640 की बुर्जुवा क्रांति के रूपान्तर के रूप में प्रस्तुत किया है और 1789 की क्रांति का अवसान माना है।

इसी काल में भूमध्यसागर के क्षेत्र में भी कई विद्रोह हुए। इसमें कैतालोनिया, नेपल्स तथा पुर्तगाल के विद्रोह शामिल हैं, जिन्होंने स्पेन के साम्राज्य में संकट उत्पन्न किया।

स्पेन में 1640 के दशक का कृषक विद्रोह बार्सेलोना में फैला, कस्तीलवासियों को अपने क्षेत्र से बाहर निकालने का काम शुरू किया और वायसराय को मार दिया।

इटली में नेपल्स विद्रोह (जुलाई 1647) खाद्य की कमी, करों का भार और प्रशासनिक अयोग्यता के कारण हुआ था। थोड़े समय के लिए नेपल्स् मसानिचेलो के नेतृत्व में और फ्रांस के संरक्षण में गणतंत्र बन गया परन्तु स्पेन ने उसे पुनः जीत कर लिया।BHIC 108 Free Assignment In Hindi

यूरोप कुछ अन्य भागों में इधर-उधर उपद्रव हुए जैसे कि स्विज़रलैंड में कृषक विद्रोह (1653), युकरेन विद्रोह (1648-54). रूस में विद्रोह (1672), हंगरी में कुरुओज़ आन्दोलन, आइरिश विद्रोह (1641 तथा 1689) तथा नीदरलैंडस् में राजमहल क्रांति।

इस प्रकार क्रांतिकारी घटनाक्रम, राजनीतिक और सामाजिक प्रतिवाद के फलस्वरूप कई लेखक मानते हैं कि तमाम यूरोप में व्यापक संकट था, जिनकी उत्पत्ति अलग-अलग थी परन्तु इनमें कुछ समानताएँ भी नज़र आती हैं।

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प्रश्न 2. यूरोप में प्रबोधन काल के मुख्य विचारों पर एक टिप्पणी लिखिए।

उत्तर प्रबोधन के विचार उभरते आधुनिक विश्व के लिए इतने शक्तिशाली और उपयुक्त साबित हुए कि प्रबोधन मानवता के इतिहास में एक सबसे बड़ा बौद्धिक मील का पत्थर बन गया।

आधुनिक विश्व का प्रबोधन के साथ इतनी घनिष्टता से उल्लेख किया जाता है कि इसे प्रबोधन के पश्चात् का विश्व भी माना जाता है।

इन विचारों में प्रकृति, मानव, विश्व, समाज, अर्थव्यवस्था, राज्य, अन्तर्राष्ट्रीय सम्बंध और मानव स्वतंत्रता पर दीर्घकालीन दृष्टिकोण शामिल था।

पश्चिमी दुनिया में प्रबोधन के विचारकों ने ईसाई धर्म और विचार और सदियों पुरानी सोच से उत्पन्न परम्परागत विचारों पर सवाल उठाए।BHIC 108 Free Assignment In Hindi

इस प्रकार फिलोसोफ (फ्रांसीसी प्रबोधन विचारक) ने राजनीति और समाज के सभी स्तरों पर धर्म-निरपेक्षीकरण पर बल दिया और चर्चा की स्थापित सत्ता को चुनौती दी।

उन्होंने तर्कसंगत आधार पर व्यक्तिगत सोच पर जोर दिया और बिना किसी सोच के पीढ़ी-दर-पीढ़ी चले आ रहे पारम्परिक विचारों और प्रथाओं पर सवाल उठाए। एक अन्य स्तर पर उन्होंने अमेरिका और अन्य स्थानों पर यूरोपीय लोगों द्वारा व्यापक रूप से स्थापित दासता की संस्था पर हमला किया।

हालांकि संगठित धर्मों, विशेष रूप से कैथोलिक धर्म, के प्रति आलोचनात्मक होने के आलोचनात्मक होने के बावजूद प्रबोधन विचारक धर्म विरोधी नहीं थे।

कुछ को छोड़कर जैसे कि डी हालबारव (1723-89) और क्लॉड हेल्वेशियस (1715-1771), अधिकांश प्रबोधन विचारक ईश्वर के अस्तित्व में यकीन रखते थे। हालांकि उनका ईश्वर तर्कशील और हस्तक्षेप ना करने वाला था।

प्रबोधन विचारकों में से कई ने दैववाद पर विश्वास किया जिसका अर्थ था कि ब्रह्मांड का निर्माता भगवान था लेकिन वह ब्रह्मांड या मानव समाज की कार्यप्रणाली में हस्तक्षेप नहीं करता।

दैववाद में तर्कशक्ति और विश्वास का एक सुखद मिश्रण बनाया गया। दैववादियों के लिए ये सम्भव था कि वे प्रकृति और मानव समाज का विश्लेषण तर्कसंगत और वैज्ञानिक दृष्टि से करें जबकि साथ-साथ मूल निर्माता (ईश्वर) पर अपना विश्वास भी बनाए रखें।

पारम्परिक सत्ता के प्रति संदेह, यहाँ तक कि अस्वीकृति, प्रबोधन की पहचान थी। यह सोचा गया कि सार्वभौमिक तर्कशक्ति, जिसे दुनिया को समझने का तरीका माना जाता था, प्रत्येक व्यक्ति द्वारा लागू किया जाना चाहिए।

यह विश्वास था कि सभी मनुष्य सहज रूप से अच्छे और तर्कसंगत थे। यदि उचित वैज्ञानिक विश्लेषण लागू किया जाता तो पूरी दुनिया को पूरी तरह से समझना सम्भव था। तर्कशक्ति और विज्ञान के उपयुक्त उपयोग किए जाने पर निरंतर विकास और प्रगति हो सकती थी।BHIC 108 Free Assignment In Hindi

कुछ प्रबोधन के विचारकों ने लोकप्रिय सम्प्रभुता और कानून के शासन पर भी जोर दिया। हालांकि कई दार्शनिकों को राजाओं और कुलीनों द्वारा संरक्षण दिया गया था,और उन्होंने राजतंत्र की संस्था को अस्वीकृत नहीं किया।

वे शासकों के हाथों में बैलगाम शक्तियों की धारणा के खिलाफ थे, चाहे वे सम्राट हो या अन्य।

अपने समग्र रुझान में, प्रबोधन साम्राज्यवाद विरोधी था और कई विचारकों ने हिंसा और शोषण पर आधारित उपनिवेशिक शासन की कड़ी निंदा की।

उनमें से कुछ ने, जैसे कि दिदरो, रेनाल, हर्डर और कंडोरसे ने औपनिवेशिक क्षेत्रों में यूरोपीय लालच, अहंकार, हिंसा और क्रूर व्यवहार की बहुत दृढ़ता से निंदा की।

प्रबोधन विचारक अपने समय की सत्ता की निरंकुश प्रकृति के खिलाफ थे और वे कानून के शासन की वकालत करते थे और शासकों के अन्दर सद्गुणों को पनपते देखना चाहते थे।

हालांकि वे लोकप्रिय सम्प्रभुता में विश्वास करते थे लेकिन लोकतन्त्र या जनशक्ति में नहीं। उनके लिए, स्वतंत्रता केवल कानूनी रूप से गठित अधिकारियों की कानूनी कार्यवाहियों में निहित थी (ब्लैक 1990 214) समानता को कानून के सम्मुख समानता के रूप में माना गया और सामाजिक या आर्थिक रूप में नहीं।

वे सम्पत्ति को व्यक्तिगत अधिकार के रूप में मानते थे और विभिन्न वर्गों में समाज के विभाजन को स्वाभाविक मानते थे।BHIC 108 Free Assignment In Hindi

तर्क की प्रधानता, हठधर्मिता की सोच को अस्वीकृति, व्यक्तिगत समझ पर जोर, प्रगति का विचार, पूर्व आधुनिक विश्व की तुलना में आधुनिक विश्व की श्रेष्ठता, यह धारणा कि मानव प्रकृति हर जगह एक जैसी थी और उसके परिणामस्वरूप जन्मी सार्वभौमिकता प्रबोधन के सबसे महत्वपूर्ण विचार थे।

यद्यपि प्रबोधन विचारकों ने शक्तिशाली सत्ता विरोधी विचारों का प्रसार किया, परन्तु यह ज्यादातर बौद्धिक स्तर पर किया गया था। वे कार्यकर्ता और व्यवहारिक क्रांतिकारी नहीं थे और उन्होंने विद्रोहों का नेतृत्व नहीं किया।

उन्होंने अपने विचारों को प्रसारित करने के लिए कलम, कागज और छापेखाने का इस्तेमाल किया। उनके संचार के माध्यम ‘पत्र, अप्रकाशित पांडुलिपियाँ, पुस्तकें, पत्रिकाएँ, विवरणीकाएँ और उपन्यास, कविता, नाटक, साहित्यक और कला आलोचना और राजनैतिक दर्शन’ थे (मैरीमेन 2010 : 316)।

सत्रीय कार्य-2

प्रश्न 3. सत्रहवीं शताब्दी में खगोल-शास्त्र और भौतिकी के विकास में प्राकृतिक दार्शनिकों के योगदान का वर्णन कीजिए?

उत्तर निकॉलस कोपरनिकस (1473-1543) ने अरस्तु और टॉलमी के विचारों को ध्वस्त कर दिया। अपनी पुस्तक ऑन द रिवोन्यूशन ऑफ द हेवनली सफीयर्स (साथी खगोलविदों के द्वारा अपमान की आशंका के कारण 1543 में मरणोपरांत प्रकाशित) में, कोपरनिकस ने सुझाव दिया कि सूर्य ब्रह्मांड का केन्द्र था और पृथ्वी तथा अन्य ग्रह इसके चारों ओर गोलाकार कक्षाओं में घूमते थे।

इस “सूर्य-केन्द्रित’ अवधारणा में कहा गया था कि पृथ्वी नहीं बल्कि सूर्य ब्रह्मांड का केन्द्र है। यह उस समय की प्रमुख सोच के विपरीत था और इस विचार ने इस विषय पर सैकड़ों वर्षों की पारम्परिक शिक्षाओं को चुनौती दी।

कोपरनिकस की पुस्तक के बड़े वैज्ञानिक और धार्मिक परिणाम हुए। जब उन्होंने पृथ्वी को सिर्फ एक अन्य ग्रह के रूप में माना तो यह धारणा नष्ट हुई कि सांसारिक दुनिया स्वर्गीय दुनिया से अलग थी।

कोपरनिकस के विचारों ने विज्ञान के क्षेत्र में दूसरे वैज्ञानिकों को भी प्रभावित किया। एक डेनिश खगोल-शास्त्री, टाइको ब्राहे (1546-1601) ने एक वेधशाला का निर्माण किया और तारों और ग्रहों की स्थिति पर लगातार बीस वर्षों तक आँकड़ें इकट्ठा करके आधुनिक खगोल विज्ञान के अध्ययन के लिए मंच तैयार किया।

उनका सबसे बड़ा योगदान भारी मात्रा में आँकड़ों का संग्रह था, फिर भी उनके गणित के सीमित ज्ञान ने ब्राहे को आँकड़ों को सूझ-बूझ से इस्तेमाल करने से रोका। BHIC 108 Free Assignment In Hindi

बाद में जोहान्स केपलर (1571-1630), जो एक जर्मन खगोल शास्त्री और ब्राहे के सहायक थे, के द्वारा इन आँकड़ों का उपयोग कोपरनिकस के विचार का समर्थन करने के लिए किया गया और उन्होंने यह स्थापित किया कि ग्रह सूर्य के चारों तरफ अण्डाकार कक्षाओं में घूमते हैं,

न कि गोलाकार कक्षाओं में। केपलर के ग्रहों की गति के तीन नियम गणितीय गणनाओं पर आधारित थे और उन्होंने सूर्य केन्द्रित ब्रह्मांड में ग्रहों की चाल की सटीक भविष्यवाणी की थी।

उनके कार्य ने अरस्तु और टॉलेमी की पुरानी मान्यताओं और व्यवस्थाओं को ध्वस्त कर दिया। वैज्ञानिक शब्द 1840 में गढ़ा गया था हालांकि सत्रहवीं सदी की प्रतिष्ठा महान वैज्ञानिक विकास के युग के रूप में है। यह गैलीलियो, केपलर, बेकन, पास्कल, देकार्त और न्यूटन की शताब्दी थी।

लेकिन ये लोग स्वयं को प्राकृतिक दार्शनिक कहते थे। जोहान्स केपलर (1571-1630) ऐसे समय में रहे जब खगोल-विज्ञान और ज्योतिष को संयुक्त रूप से ही देखा जाता था।

जर्मनी में पैदा हुए जोहान्स केपलर एक धर्मनिष्ठ ईसाई (एक भावुक लूथरन) थे, जिनको उनके अपने धार्मिक विश्वास ने विज्ञान का अध्ययन करने के लिए प्रेरित किया था।

उनका यकीन था कि ईश्वर ने एक बुद्धिमान योजना के तहत दुनिया का निर्माण किया था और ईश्वर द्वारा प्रदत बुद्धि या तर्कशक्ति के माध्यम से यह ईश्वर की योजना मनुष्यों को सुलभ थी, प्राप्य थी।

केपलर का मानना था कि यह दुनिया एक निर्माता द्वारा बनाई गई थी जिसने व्यवस्था और स्वर-संगति (संगीत स्वर का मेल की भाँति) और ज्यामितिय प्रारूप का उपयोग किया था।

उनकी सोच थी कि उनकी आकाशीय भौतिकी ने केवल ब्रह्मांड के लिए ईश्वर की ज्यामितिय योजना को ही उजागर किया था। BHIC 108 Free Assignment In Hindi

इसी तरह गैलीलियो गैलिली (1564-1642) भी विज्ञान के कई अलग-अलग क्षेत्रों से परिचित थे। उन्होंने सिर्फ एक ही विशिष्ट पेशे को नहीं चुना।

वह तम्बूरा या वीणा और ऑर्गन बजा सकते थे और चित्रकारी भी अच्छी कर सकते थे। उन्होंने चिकित्सा का अध्ययन किया, गणित को खंगाला और ज्यामिती की प्रशंसा की। उनकी धर्मशास्त्र में भी रुचि थी।

1608 में यूरोप में कम शक्तिशाली टेलीस्कोप प्रयोग में थे जिन्हें स्पाईग्लास के नाम से जाना जाता था। इनके आविष्कार का श्रेय हालैंड के एक निवासी हैस लिपरशी को दिया जाता है।

इन प्रांरभिक दूरबीनों की आवर्धन शक्ति बहुत सीमित थी। लेकिन इनके वश में एक बाजार था। गैलीलियो एक नये ऑप्टिकल उपकरण के रूप में इस आविष्कार के बारे में जानते थे।

उन्होंने ज्यादा आवर्धन शक्ति वाली बेहतर दूरबीनों का निर्माण शुरू किया। उनकी पहली दूरबीन ने केवल आठ गुना आवर्धन शक्ति तक का सुधार किया लेकिन उनकी दूरबीन में लगातार सुधार हुआ।

गैलीलियों की दूरबीन अब सामान्य दृष्टि से लगभग दस गुणा आवर्घन करने में सक्षम थी हालांकि इसमें दृश्य का क्षेत्र सीमित ही था।

गैलीलियो द्वारा इस उपकरण की सहायता से किये गये पर्यवेक्षणों से ही चन्द्रमा के पर्वतों और खड्डों और बृहस्पति के चन्द्रमाओं की खोज हुई। ब्रह्मांड के सूर्य केन्द्रित होने को सिद्ध करने वाले शुक्र ग्रह के चरणों का वर्णन और सौर कलंक के चित्र भी इन पर्यवेक्षणों का ही परिणाम थे।

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प्रश्न 4. पश्चिमी यूरोप के उद्योगीकरण में औपनिवेशिक व्यापार की भूमिका की विवेचना कीजिए।

उत्तर एडम स्मिथ ने द वेल्थ ऑफ नेशन्स में लिखा था कि ‘अमेरिका की खोज और आशान्तरिप से होकर पूर्वी इंडीज के लिए मार्ग की खोज मानव जाति के इतिहास में दर्ज की गई दो सबसे बड़ी और महत्वपूर्ण घटनाएँ हैं।

स्पेन का साम्राज्य यूरोप में चाँदी, सोना, नई फसलों और वस्तुओं को लाया। वेस्टइंडीज, अमेरिका के दक्षिणी उपनिवेश, क्यूबा और ब्राजील में सस्ती श्रम की माँग के कारण गुलामों का व्यापार फला-फूला।

1700 के बाद अमेरिका के दक्षिण भागों में अफ्रीकी गुलामों ने कुल आबादी के लगभग 2/5वें हिस्से का गठन किया। वेस्टइंडीज में दास आधारित चीनी का उत्पादन एक शताब्दी से भी अधिक समय तक स्पेनिशवासियों, फ्रांसीसियों और ब्रिट्रिश के लिए महत्वपूर्ण था।

कुछ विद्वानों ने ब्रिट्रिश औद्योगिक क्रान्ति के लिए आवश्यक पूँजी के प्रारंभिक संचय में वेस्टइंडीज के योगदान पर प्रकाश डाला है।BHIC 108 Free Assignment In Hindi

अमेरिका के दक्षिणी राज्यों में कपास की खेती के विस्तार ने ब्रिटेन और अमेरिका में पूंजीवाद के उदय में योगदान दिया।

लगभग सभी गुलामों का आधा भाग – 46 प्रतिशत – 1492 और 1888 के बीच बेचे गए गुलाम 1780 के बाद के वर्षों में वहाँ लाए गए जब ब्रिटिश औद्योगिक क्रांति तेजी से आगे बढ़ी।

18वीं शताब्दी में अनेक समकालीनों का मानना था कि 1760 और 1770 के दशकों में उपनिवेशों के मामले में फ्रासीसी अंग्रेजों से बेहतर थे।

हाइति में क्रांति आने से पहले तक सेन्ट डोमिग्यू दुनिया के सबसे संपन्न क्षेत्रों में से एक था। 1789 की फ्रांसीसी क्रांति के साथ इसने कई दशकों तक फ्रांस के विकास को पीछे धकेल दिया।

अंग्रेजों की अन्तिम सफलता 17वीं शताब्दी के मध्य के नौ परिवहन अधिनियमों के सफल उपयोग पर आधारित थी जिसके द्वारा इसने अपने उपनिवेशों के साथ व्यापार पर एकाधिकार बना लिया।

ब्रिटिश उपभोक्ता को इस वाणिज्यवादी नीति की एक कीमत चुकानी पड़ी लेकिन इसने ब्रिटिश जहाजरानी की प्रतिस्पर्धात्मक धार को बढ़ा दिया। वाणिज्यवादी नीतियों ने ब्रिटिश नौ-सेना और सामुद्रिक शक्ति को मजबूत बनाया।BHIC 108 Free Assignment In Hindi

एडम स्मिथ ने महसूस किया कि अंग्रेजों ने भौतिक लाभ की तलना में प्रतिरक्षा को अधिक महत्व दिया। स्पेनिश और पुर्तगालियों ने अपनी प्रारंभिक लाभप्रद स्थिति को गँवा दिया।

हालांकि क्यूबा चीनी के सबसे महत्वपूर्ण उत्पादकों में से एक रहा। डच सैन्य रूप से कमजोर थे और उन्होंने अमेरिका में व्यापारिक सफलता पर अधिक ध्यान केन्द्रित किया, हालांकि वे इंडोनेशिया में अपना प्रभुत्व स्थापित करने में सक्षम रहे।

फ्रांसीसी, जो अंग्रेजों के सबसे बड़े प्रतिद्वन्द्वी थे, अन्ततः 19वीं शताब्दी की शुरुआत में उनकी शक्ति क्षीण हो गई थी।

1451 और 1790 के बीच यूरोपीय उपनिवेशवादियों द्वारा आयात किये गये 6,658,400 दासों में से केवल 802,800 काले दासों को स्पेनिश अमेरिका में भेजा गया था

जो कुल दासों का लगभग 12 प्रतिशत था। मैक्सिको और पेरू में, पर्याप्त मूलनिवासी इंडियन आबादी के साथ थे, उनकी भूमिका बहुत कम महत्वपूर्ण थी और उन्होंने शहरों में घरेलू श्रम और कारीगरों के रूप में काम किया।

निम्न क्षेत्रों और तटीय क्षेत्रों में दास अधिक महत्वपूर्ण थे क्योंकि इन क्षेत्रों में एमरीइंडियन्स का बड़ी तादाद में विनाश हुआ था।

18वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में कोलम्बिया, वेनेजुएला और ग्वाटेमाला में चीनी, चावल, कपास और कोको का उत्पादन करने वाले दास आधारित बागान विकसित हुए, लेकिन 19वीं शताब्दी में वे पतनशील थे।

18वीं शताब्दी में पश्चिम अफ्रीका से लगभग 50 लाख दासों का निर्यात किया गया। 16वीं शताब्दी के बाद से, सशस्त्र यूरोपीय पूंजीपतियों और यूरोपीय राज्यों के संयुक्त बल ने युद्ध पूंजीवाद का निर्माण किया जिसके कारण औद्योगिक क्रांति हुई। BHIC 108 Free Assignment In Hindi

राज्य को वैश्विक बाजारों का निर्माण करना था और उन्हें संरक्षित रखना था, साथ ही साथ उसे भूमि में निजी सम्पत्ति के अधिकारों को बनाना और बलपूर्वक लागू करवाना था।

इसे लम्बी दूरियों पर अनुबंध करवाने थे, लोगों पर कर लगाना था और एक ऐसा ढाँचा तैयार करना था जो मजदूरी भुगतान के माध्यम से श्रम को जुटा सके।

प्रश्न 5. ओलिवर क्रामवेल और अंग्रेजी क्रान्ति में उनकी भूमिका पर एक टिप्पणी लिखिए।

उत्तर सभी व्यवहारिक उद्देश्यों के लिए गृह-युद्ध कॉमनवेल्थ के गठन के साथ समाप्त नहीं हुआ। क्रोमवेल को पहले से चले आ रहे मसलों से निपटना पड़ा और यद्यपि राजा को हटा दिया गया था लेकिन यह नहीं कहा जा सकता कि राजभक्तों की चुनौती खत्म हो गयी थी,

जैसा कि घटनाएँ दिखलाएँगी। उनका व्यक्तित्व निश्चित रूप से उस अवधि में हावी रहा, जितना कि पहले चरण में राजा का रहा था। एक सामान्य जन और कृषक वर्ग का होने से उनकी सहानुभूति उन लक्ष्यों के प्रति थी जो संसद ने अपने लिए निर्धारित किए थे।

उन्होंने जो समझौते किए वे शक्तियों के संतुलन द्वारा निर्धारित किए गए थे, ना कि उनके अपने स्वयं के झुकाव से। इस अर्थ में वह अपने लिए निरकुंश शक्ति के समर्थक नहीं थे जैसा उनसे पहले के राजा रहे थे।

भले ही उन्होंने एक तानाशाह की तरह शासन किया, लेकिन उन्हें अपने शासन के लिए दिव्य मंजूरी या उससे जुड़े अनुष्ठानों और उपाधियों का उपयोग करने से परहेज था।

ओलिवर क्रोमवेल ने संसदीय मंजूरी की परवाह किए बिना शासन किया लेकिन उन्होंने राजतन्त्र की अनेक नीतियों को उलट दिया और नये कुलीन वर्ग और मध्यम वर्गों के हितों का ध्यान रखा।

1649 में उन्होंने आयरिश विद्रोह को कुचल दिया और 1650-51 में स्कॉटलैंड को जीत लिया और इस प्रकार राजतन्त्र का समर्थक मानी जाने वाली शक्तियों को पराजित कर दिया और इसके बाद उसने डच गणराज्य और स्पेन के साथ युद्ध किया। BHIC 108 Free Assignment In Hindi

विद्रोह के दौरान धार्मिक नीति और वित्त के मामलों पर मतभेदों के कारण क्रोमवेल ने 1653 में अवशेष संसद को भंग कर दिया।

उन्होंने अपनी पसंद के 140 लोगों के साथ एक नयी संसद का निर्माण किया लेकिन जल्द ही उसे भी भंग कर दिया और राजा के पद से अंतर करते हुए स्वयं को ‘लार्ड प्रोटक्टर’ की उपाधि से नवाजा।

प्रोटेक्टोरेट के पास एक संविधान था जिसे इन्सट्रमेन्ट ऑफ गवर्नमेन्ट कहा जाता था और लार्ड प्रोटेक्टर और काउंसिल ऑफ स्टेट की शक्ति में सहभागिता थी।

इसके द्वारा बनाई गई संसद में इंग्लैंड के अलावा स्काटलैंड और आयरलैंड के प्रतिनिधि शामिल थे। वे निजी संपत्ति के आधार पर एक बहुत ही प्रतिबन्धित मताधिकार द्वारा चुने गये थे।

उस समय इसका अर्थ अनिवार्य रूप से यह था कि प्रतिनिधि नये अभिजात्य वर्ग सहित भू-अभिजात्य वर्ग से ही होंगे। संसद अब संवैधानिक रूप से कानून बना सकती थी और कर लगा सकती थी।

इसने इंग्लैंड में पहला लिखित संविधान माना जाने वाला संविधान बनाया। नये अभिजात्य वर्ग और निजी संपत्ति के विशेषाधिकार को सुदृढ करते हुए वे चर्च, राजभक्तों और राजा के अधिकारियों की भूमियों की बहुत सी बिक्री हुई।

1651 के नौ-परिवहन अधिनियमों ने वाणिज्यिक पूंजी और औपनिवेशिक हितों को बढ़ावा देने में मदद की।

कॉमनवेल्थ के दौरान गृह-युद्ध समाप्त नहीं हुआ था। नई आदर्श सेना और इसके वर्चस्व ने इसके शुद्धिकरण और संरचना में बदलाव के बावजूद, कॉमनवेल्थ के दौरान इसे एक महत्वपूर्ण राजनैतिक शक्ति बना दिया था।

इसने आयरिश और स्कॉटस के विद्रोह को कुचलने में मदद की थी, और इसने संसद के पक्ष से राजभक्त सेनाओं से लड़ाई लड़ी थी। BHIC 108 Free Assignment In Hindi

धर्म के संदर्भ में, क्रोमवेल ने प्यूरिटन्स का पक्ष लिया था क्योंकि कैथोलिकों को चार्ल्स I और जेम्स I का पक्षधर माना गया था और इसी तरह एंगलीकन चर्च को सोलहवीं सदी में राजतन्त्रीय राष्ट्र-राज्य के टयूडर्स द्वारा सुदृढ़ीकरण और सामाजिक-धार्मिक ऐसे गठबंधन,

जो भू-संपत्तिवान और दरबार की महत्वपूर्ण पदवियों पर आधारित था और सत्रहवीं सदी तक चलता रहा, का समर्थक माना गया था।

प्रश्न 6. सुधार और प्रति-सुधार

उत्तर- यूरोप में आधुनिक युग के प्रारंभ के साथ-साथ जो परिवर्तन प्रारंभ हुए उनमे पुनर्जागरण और धर्मसुधार आंदोलनो का विशेष महत्व है। धर्म सुधार आन्दोलन सोलहवीं सदी मे प्रारंभ हुए। मार्टिन लूथर को धर्मसुधार आंदोलन का प्रणेता माना जाता है।

पुनर्जागरण के परिणामस्वरूप यूरोप के धार्मिक क्षेत्रों मे महत्वपूर्ण परिवर्तनो की माँग होने लगी। धार्मिक क्षेत्रों मे परिवर्तनो की माँग को ही धर्म सुधार आन्दोलन कहा जाता है।

हेज के अनुसार ” वस्तुतः 16 वीं सदी के आरंभ में बौद्धक जागृति के फलस्वरूप बहुसंख्यक ईसाई कैथोलिक चर्च के कटु आलोचक थे और चर्च की संस्था मे मूलभूत परिवर्तन चाहते थे।

इसी सुधारवादी प्रयास के फलस्वरूप जो धार्मिक आन्दोलन हुआ और ईसाई धर्म के जो नवीन धार्मिक सम्प्रदाय अस्तित्व मे आये, वह सामूहिक रूप से धर्म सुधार आंदोलन कहलाते है।”

धर्म सुधार आन्दोलन की व्याख्या करते हुए रॉबर्ट इरगैंग ने लिखा है, “धर्म सुधार आन्दोलन एक जटिल और सुदूरगामी आन्दोलन था। BHIC 108 Free Assignment In Hindi

यह आन्दोलन मध्य युग की सभ्यता के विरुद्ध एक साधारण प्रतिक्रिया मात्र था, परन्तु इसने विभिन्न राष्ट्रों के जीवन को अत्यधिक प्रभावित किया। इसका प्रमुख कारण यह था कि “सभी मनुष्य कला व साहित्य की अपेक्षा धर्म में अधिक रुचि रखते थे।

इस आन्दोलन ने मध्ययुगीन कैथोलिक धर्म का परित्याग करने तथा आदिम ईसाई धर्म अर्थात् ईसा मसीह, सेण्ट पॉल और ऑगस्टाइन के उपदेशों की महत्ता को स्वीकार करने पर बल दिया और इस प्रकार आधुनिक विकास के लिए मार्ग प्रशस्त किया।

यह आन्दोलन प्रारम्भ में एक धार्मिक आन्दोलन मात्र था, किन्तु शीघ्र ही इस आन्दोलन में सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक एवं बौद्धिक पहलू भी सम्मिलित हो गए, जिनका धर्म से अत्यन्त दूर का सम्बन्ध था।”

प्रतिवादी धर्म सुधार आंदोलन को सफल बनाने के लिए निम्नलिखित उपाय किए गए थे…

• इटली के ट्रॅट नामक जगह पर एक कैथोलिक धर्म सभा का आयोजन किया गया। उसमें कैथोलिक धर्म से संबंध रखने वाले अनेक विद्वानों को बुलाया गया और आपस में गहन चिंतन किया गया।

इस सभा में सिद्धांत और सुधार संबंधी दो तरह के फैसले लिए गए। सुधारात्मक उपायों के अंतर्गत चर्च के पदों की बिक्री समाप्त खत्म कर दी गई और पादरियों को सख्त निर्देश दिया गया कि वह अपनी मर्यादा में रहकर आदर्श जीवन बिताएं। पादरियों की शिक्षा का भी उचित प्रबंध किया गया।

• धार्मिक न्यायालय की स्थापना की गई ताकि प्रोटेस्टेंटवादियों को रोका जा सके। कैथोलिक धर्म के लचर व्यवस्था का पता लगाने तथा नास्तिक और धर्म विरोधी लोगों को कठोर सजा देने की वयवस्था की गयी हैं

• सोसाइटी ऑफ जीसस की स्थापना की गई और इस सोसाइटी से जो प्रशिक्षण प्राप्त कर लेता था उसे अनेक तरह के विशिष्ट कार्य दिए जाते थे।

यह कार्य पादरी, डॉक्टर, शिक्षक आदि के होते थे। इस संस्था के सारे सदस्यों को अनुशासन में रहकर कैथोलिक धर्म की निस्वार्थ सेवा करने के लिए प्रेरित किया जाने लगा तथा उन्हें पवित्रता और आदर्श जीवन जीने के लिये विशेष जोर दिया जाने लगा।BHIC 108 Free Assignment In Hindi

उन्हें पोप के प्रति अपनी आस्था प्रकट करनी होती थी और पोप के नाम की शपथ लेनी होती थी। इस सोसायटी के अनेक सदस्यों को कैथोलिक धर्म का प्रचार प्रसार करने के लिए विश्व के अनेक देशों में भेजा गया।

प्रश्न 7. पूर्व आधुनिक यूरोप में आद्य-उद्योगीकरण

उत्तर आद्य-औद्योगीकरण एक धारणा थी जिसने उन घरेलू उद्योगों के विकास का संकेत दिया जो दूर के बाजारों के लिए वस्तुओं का उत्पादन करते थे। इस तरह के उद्योगों का विकास यूरोप के कई क्षेत्रों में सोलहवीं और उन्नीसवीं शताब्दी के बीच देखा गया था।

ये तथाकथित आद्य उद्योग ज्यादातर गामीण इलाकों में उभरे थे, जहाँ वे कृषि के साथ-साथ पनपते हैं। उन्होंने किसी उन्नत तकनीकी का इस्तेमाल नहीं किया।

इस तरह के उद्योगों में कारखाना-निर्माण के रूप में श्रम शक्ति को भी केन्द्रीयकृत नहीं किया गया था। प्रारम्भिक आधुनिक यूरोप में घरेलू क्षेत्र में,

इस व्यापक औद्योगिक विकास ने लम्बे समय से अध्ययन के विषय में रुचियाँ जगाई हैं हालांकि यह एक विवादास्पद विषय भी था।

लेकिन 1970 के दशक में इसमें फिर से रुचि जगी और शोधकर्ताओं ने आद्य-इंडस्ट्री’ पर ध्यान केन्द्रित किया। यह सामंतवाद से पूँजीवाद में संक्रमण और कारखानों के रूप में औद्योगीकरण का एक स्पष्टीकरण बन गया।

प्रश्न 8. वाणिज्यवाद

उत्तर यूरोप के विस्तार और वाणिज्यवाद के बीच एक सम्बंध था। यदि हम आर्थिक विचार के इतिहास को देखें तो किसी समय के आर्थिक विचारों और नीतियों के बीच समानताओं को रेखांकित करना सम्भव है।

जिस तरह विभिन्न राज्यों में नीतियों के बीच कुछ अन्तर थे, लेकिन कुछ समानताएँ भी थी जो हमें उन नीतियों को वाणिज्यवादी के रूप में चिह्नित करने और एक निश्चित विचार से जोड़कर देखने की अनुमति देती है।

इसलिए नीतियों के जोर और वकालत में अन्तर के बावजूद भी अध्ययन के तहत् अवधि के आर्थिक विचारों में कुछ समानताएँ हैं, जो हमें उन विचारों को वाणिज्यवाद के रूप में चिह्नित करने की अनुमति देती हैं।

अठारहवीं शताब्दी के मध्य से इन विचारों और नीतियों की आलोचना और सैद्धान्तिक सम आलोचना उभरी जिसे अहस्तक्षेप का विचार और नीति के रूप में जाना जाने लगा।

दोनों के बीच नीतियों में विषमता को मौटे रूप से एकाधिकार और व्यापार के नियन्त्रण और मुक्त व्यापार के रूप में देखा जा सकता है। BHIC 108 Free Assignment In Hindi

दोनों पूंजी संचय के व्यापक हितों के अन्तर्गत अलग-अलग दृष्टिकोण से, उभरते और विकसित पूंजीवाद के अलग-अलग चरणों के प्रतिबिंब हैं।

पूंजीवाद को आवश्यकता थी कि यह जो उत्पादन करता था उसे वस्तुओं में बदल दिया जाए अर्थात् ऐसे उत्पाद और यहाँ तक कि श्रम को भी, जिन्हें बाजार में बेचा जा सकता था,

ताकि उत्पाद को इसके उत्पादन की लागत से अधिक कीमत पर बेचा जा सके। इसके लिए उत्पादन की प्रणाली और उत्पादन प्रक्रिया के संगठन में बदलाव की आवश्यकता थी।

यह अचानक नहीं हुआ था, यह एक क्रमिक ऐतिहासिक प्रक्रिया थी, जैसा कि अब हम देख सकते हैं, हालांकि इतिहास में उस समय परिवर्तन की गति पहले की तुलना में तेज थी।

इस प्रक्रिया में शामिल सभी बदलाव अर्थव्यवस्था के मौजूदा चरण में नहीं उभर सकते थे, हालांकि उनमें से काफी संख्या ने ऐसा किया था।

लेकिन उस अवस्था में अधिक प्रभाव बाहरी प्रेरणा का था यानि व्यापार और वाणिज्य का, जो उत्पादन प्रक्रिया का हिस्सा बन गया। इस इकाई में हम इस चरण पर ध्यान केन्द्रित कर रहे हैं जिसे वाणिज्यवाद कहा जा सकता है।

प्रश्न 9. अमेरिका में उपनिवेशीकरण की प्रकृति

उत्तर 1607 में एक अंग्रेजी व्यापारिक कम्पनी, लंदन की वर्जीनिया कम्पनी ने जेम्सटाउन में उत्तरी अमेरिका में पहली स्थायी बस्ती शुरू की थी। इसमें बसने वालों का जीवन आसान नहीं था।

कठोर जलवायु, जंगली अदम्य भूमि के अलावा यहाँ बसने वालों को बीमारियों, भूखमरी और मूल निवासियों की घोर शत्रुता का भी सामना करना पड़ा था।BHIC 108 Free Assignment In Hindi

इस उपनिवेश की सफलतापूर्वक स्थापना कोई छोटी उपलब्धि नहीं थी। वर्जीनिया कम्पनी ने एक शाही चार्टर के तहत काम किया जिसे किंग जेम्स द्वारा प्रदान किया गया था।

इसमें सबसे प्रथम बसने वाले निवासियों को आश्वासन दिया गया था कि उनको वे सभी स्वतंत्रताएँ, अधिकार और प्रतिरक्षाएँ प्राप्त होंगी जो इंग्लैंड में पैदा हुए और रहने वाले लोगों को प्राप्त थी।

यूरोप से आकर बसने वाले निवासियों के लिए मूल-निवासियों की शत्रुता का एक प्रमुख कारण सम्पत्ति के बारे में उनका दृष्टिकोण था जिसे आप पाठ्य-पेटी 1 में देख सकते हैं।

पाठ्य-पेटी-1 अमेरिकी मूल निवासियों का परिप्रेक्ष्यः “किसी भी जन जाति को अजनबियों को और एक दूसरे को बेचने का अधिकार नहीं है —- एक देश को बेचें! फिर वायु, महान समुद्र और साथ ही साथ पृथ्वी को क्यों नहीं बेचते? क्या महान आत्मा ने उन सभी को अपने बच्चों के उपयोग के लिए नहीं बनाया?”

यूरोपीय लोगों का परिप्रेक्ष्य : “सम्पत्ति का अधिकार हमारी प्राकृतिक इच्छाओं पर आधारित है, उन साधनों पर आधारित है, जिनके साथ हम इन इच्छाओं की पूर्ति करने के लिए सम्पन्न हैं, और अन्य संवेदी मनुष्यों के समक्ष अधिकारों का उल्लंघन किये बिना उन साधनों द्वारा हम प्राप्त करते हैं।

वर्जीनिया कम्पनी विफल हो गई और जेम्सटाउन 1623 में (ब्रिटिश राज के स्वामित्व में) एक शाही उपनिवेश बन गया। हालांकि, अमेरिका में उपनिवेशों के कार्य-संचालन और उनकी व्यवस्था से यह साफ झलकता है कि कैसे हमारे अपने उपनिवेशवाद के अनुभव से अलग, उपनिवेशवाद की प्रकृति अमेरिका में कितनी भिन्न थी।

वर्जीनिया कम्पनी ने अमेरिका में बसने वाले उपनिवेशवादियों को अपनी स्वयं की भूमि (सम्पत्ति के स्वामित्व) की अनुमति दी और हाउस ऑफ बर्गेस नाम की एक संस्था का निर्माण भी किया।

यह चुने हुए प्रतिनिधियों का एक समूह था जिसे उपनिवेश के लिए निर्णय लेने और कानून पारित करने का अधिकार था (यानि एक प्रकार का स्वशासन बसाए गये लोगों को दिया गया था) और स्वभाविक रूप से जब सम्राट ने हॉउस ऑफ बर्गेस को समाप्त किया, तब उन्होंने उसका विरोध किया था।

प्रश्न 10. तर्कवाद

उत्तर तर्कवाद को आमतौर पर सोचने की पद्धति के रूप में माना जाता है जो इस बात पर बल देता है कि शुद्ध तर्क हमारे ज्ञान के एक स्रोत के रूप में हमारे ठोस अनुभवों द्वारा प्रतिबंधित हुए बिना कार्य कर सकता है।

तर्कवाद ‘मानव संज्ञानात्मक शक्तियों की कल्पना करता है जो शुद्ध प्रज्ञा, इन्द्रियों और कल्पना के रूप में प्रतिष्ठित की जा सकती हैं। BHIC 108 Free Assignment In Hindi

शुद्ध प्रज्ञा वह शक्ति थी जिसने मानव को ज्ञान प्राप्त करने में सक्षम बनाया। तर्कवाद को इस तरह के दृष्टिकोण के रूप में परिभाषित किया जा सकता है कि वास्तविकता की प्रकृति के बारे में ज्ञान पुष्ट आधार पर प्राप्त सत्यकल्पना और इन्द्रियों से स्वतन्त्र संचालित शुद्ध प्रज्ञा द्वारा प्राप्त किया जा सकता है।’

(न्यू डिक्शनरी ऑफ आइडिया, पृष्ठ 209)1 तर्कवाद स्पष्ट रूप से या निस्संदेह यह मानता है कि सत्य और वास्तविकता के स्वरूप को ए प्राइओरी अर्थात् पूर्व सिद्ध तर्क के माध्यम से समझना संभव था।

यह तर्क इन्द्रिय अनुभवों से स्वतंत्र था। महान यूनानी दार्शनिक प्लेटो को तर्कवाद का प्रवर्तक माना जाता है। बाद में, ईसाई दार्शनिक सेंट ऑगस्टीन ने प्लेटो को ईसाई सोच के साथ संश्लेशित किया।

सत्रहवीं शताब्दी के दौरान तर्कवाद सबसे शक्तिशाली धाराओं में से एक के रूप में उभरा । आधुनिक समय में रेने देकार्त (1596-1650), जो एक फ्रांसीसी दार्शनिक थे,

उन्होंने तर्कवाद के मुख्य विचारों को सूत्रबद्ध किया यद्यपि तर्कवाद बहुत पहले से मौजूद था और बाद में जारी रहा, परन्तु दर्शनशास्त्र में तर्कवादी धारा की अवधि आमतौर पर 1637 (देकार्त की रचना डिस्कोर्स ऑन मैथड) से 1716 (लेबनीज की मृत्यु तक) माना जाता है।BHIC 108 Free Assignment In Hindi