16वीं सदी के प्रारम्भ में यूरोप में एक ऐसा आन्दोलन प्रारम्भ हुआ जिससे धार्मिक क्षेत्र में रोमन चर्च की सैकडों वर्षो से चली आ रही सार्वभौम सत्ता छिन्न-छिन्न हो गई। ईसाई धर्म की एकता भंग हो गई एवं वह कई सम्प्रदायों में विभाजित हो गया। इस व्यापक एवं प्रभावपूर्ण आन्दोलन को धर्म सुधार आन्दोलन (Dharm sudhar Andolan) कहा जाता था। Show
इतिहासकार ‘गीजो’ ने लिखा है कि “इस आन्दोलन ने मानसिक एवं आध्यात्मिक क्षेत्रों मे प्रतिष्ठित निरंकुशता का अन्त कर मानव मस्तिष्क की स्वतंत्रता स्थापित की”। एच.ए.एल.फिशर ने लिखा है- “साधारण: धर्म सुधार की संज्ञा 16वीं शताब्दी की धार्मिक क्रान्ति को दी जाती है, जिसने यूरोप ने अनेक राष्ट्रों को रोम के चर्च से अलग कर दिया”। इस प्रकार यह साधारण सुधार आन्दोलन होकर क्रान्ति कही जा सकती है। आधुनिक युग के प्रारम्भ में धर्म सुधार आन्दोलन एक बड़ी महत्वपूर्ण घटना मानी जाती है। 1517 से 1648 ई. तक का काल वस्तुत: धर्म सुधार का युग था। इस युग का प्राय: सभी घटनाएँ धर्म सुधार आन्दोलन द्वारा किसी न किसी रूप मे प्रभावित हुई। धर्म सुधार आन्दोलन के कारणधर्म सुधार आन्दोलन के कारणों का निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत अध्ययन किया जा सकता है- (i) धार्मिक कारण
(ii) राजनैतिक कारण
(iii) आर्थिक कारण
(iv) सांस्कृतिक कारण
(v) तात्कालिक कारण
संक्षेप मे हम सकते हैं कि धर्म सुधार आन्दोलन जो यूरोप को आधुनिक रूप प्रदान करने वाला एक महत्वपूर्ण कारण था, धार्मिक, राजनैतिक, आर्थिक एव तात्कालिक समस्याओं का परिणाम था। इसने धर्म को प्रशासन से पूर्णत: अलग कर दिया तथा जनमानस के स्वतंत्र विकास का सुअवसर प्रदान किया। इन सभी के कारण यूरोप में धर्म सुधार आन्दोलन एक महत्वपूर्ण घटना थी। जर्मनी में धर्म सुधार आन्दोलन16वीं सदी के प्रारम्भ में कैथेलिक चर्च के घोर अनैतिकता, आदर्शहीनता एवं अन्य बुराइयाँ व्याप्त थीं। इस कारण धर्म सुधार आन्दोलन अनिवार्य था। यदि समय रहते चर्च के दोषों को दूर कर पोप एवं राजकीय सत्ता में सन्तोषजनक समझौता हो जाता तो सम्भवत: आन्दोलन टल जाता। उस समय समस्त शासक वर्ग कैथोलिक चर्च का सहयोग चाहते थे। इसी अभिप्राय से 1516 ई. मे पोप एवं फ्रांसीसी नरेश फ्रांसीस प्रथम में एक धार्मिक सहझौता हुआ था, परन्त्ुा जर्मनी में धर्म सम्बंधी दोष अधिक व्यापक थे। वहाँ कोई सार्वभौम सत्ता भी नहीं थी जिससे चर्च सम्बंधी समझौता हो सकता। जर्मनी छोटे-बडें तीन सौ राज्य का समूह था। इसमें कुछ राज्य तो समझौते के पक्ष में थे, परन्तु अधिक राज्य पोप की सत्ता से मुक्त हो चर्च की सम्पत्ति पर अधिकार करने, पवित्र रोमन सम्राट के विरूद्ध शक्ति संचय करने एवं अपनी जनता की सुधार सम्बंधी माँगों को दूर करने में तत्पर थे। इन कारणों से आन्दोलन का विस्फोट जर्मनी में ही हुआ। See also 1789 मे फ्रांसीसी क्रांति के कारण एवं प्रभाव | france ki kranti kab hui मार्टिन लूथर ( 1483- 1546 ई.)मार्टिन लूथर का परिचय- लूथर का जन्म 1483 ई. में यूर्रिजया नामक स्थान में हुआ था। उसने कानून और धर्म की शिक्षा एरफर्ट विश्वविद्यालय में प्राप्त की। कालान्तर में वह एक भिक्षु हो गया। 1510 ई. में वह रोम गया और वहाँ पर उसने पोप तथा पादरियों के भ्रष्ट जीवन का प्रत्यक्षीकरण किया। इस भ्रष्टाचार को देखकर उसके हृदय पर गहरी ठेस लगी। उसने तुरन्त ही निश्चय कर लिया कि वह पोप के विरूद्ध एक धार्मिक क्रान्ति करेगा। इसी भावना से प्रेरित होकर 1517 ई. में उसने विटेनबर्ग में पोप के क्षमा पत्रों के विक्रय का खुलकर विरोध किया। उसने क्षमा पत्रों के विरोध में 95 अकाट्य तर्क लिखकर गिरजाघर के फाटक पर टाँग दिये। इनमें पोप तथा तैत्सेल का घोर विरोध किया गया था। जर्मन जनता लूथर के इन तर्को से अत्यधिक प्रभावित हुई और धार्मिक संघर्ष को तीव्र गति मिली। परिणामत: जर्मनी में ही प्रोटेस्टेन्ट चर्च की स्थापना की गई। मार्टिन लूथर के 95 सूत्रों के महत्व के सम्बंध में हेज ने लिखा है, “लूथर के 95 सिद्धान्तों ने जो कि क्षमा पत्रों के विरोध में लिखे गये थे, एक प्रकार की सार्वभौमिक क्रान्ति जर्मनी में पोप और उसके कैथोलिक धर्म के विरूद्ध प्रारम्भ कर दी और एक प्रकार से प्रोटेस्टेन्ट धर्म की नींव को सुदृढ़ कर दिया”। लूथर के सिद्धान्त- संक्षेप में लूथर ने धार्मिक क्षेत्र में जो सिद्धान्त प्रतिपादित किये थे वे इस प्रकार है।
लूथर तथा जर्मनी का धार्मिक आन्दोलनलूथर के धार्मिक आन्दोलन के प्रसार काल में किसानों को भू-स्वामियों के अनुचित कर-भार का शिकार होना पड़ रहा था। उनसे बेगार भी ली जाती थी। लूथर के सिद्धान्तों ने कृषकों में यह प्रेरणा उत्पन्न कर दी कि भू-स्वामियों के अत्याचारों को समाप्त कर देना चाहिए। उनका यह विश्वास था कि लूथर इस कार्य में उनका सहायक बनेगा। परिणामत: कृषकों ने भूपतियों के विरूद्ध प्रारम्भ कर दिया और जर्मनी में गृह युद्ध की समस्या ने विकराल रूप धारण कर लिया। लूथर इन विद्रोही कृषकों का साथ न दे सका। क्योंकि वह विरोध की उग्रता को नापसन्द करता था। और शांतिपूर्ण साधनों का अनुगमन करना चाहता था। वह धर्म को साधन बनाने वालों का घोर विरोधी था और इसे साध्य के रूप में ही रखना चाहता था। इसी कारण लूथर ने कृषकों का साथ न देकर आन्दोलन को शांत करने के लिये सामन्ती भू-स्वामियों और राजा का साथ दिया। उसके इस व्यवहार से किसानों का आन्दोलन असफल रहा और उसकी इस नीति ने स्वयं अपने आन्दोलन को भी अशक्त बना दिया। इससे लूथर की प्रतिष्ठा को भी धक्का लगा। अब वह मध्यम वर्ग एवं राज शक्ति के ऊपर ही निर्भर रहने लगा। ग्रान्ट महोदय के ये शब्द उसकी वास्तविक स्थिति पर स्पष्ट प्रकाश डालते हैं, “लूथर ने एक जन प्रिय नेता के रूप में अपनी ख्याति खो दी और उसका आन्दोलन अति निर्धन जनता के विशाल समूह के कन्धों से पृथक हो गया। इस समय से उसे मध्यम वर्ग और नियुक्त अधिकारियों के ऊपर अधिक निर्भर रहना पड़ा”। जिस समय जर्मनी की जनता अनेक आन्दोलनों में व्यस्त थी उसी काल में सम्राट चार्ल्स V फ्रांस में युद्धरत था। चार्ल्स V ने फ्रांस के शासक फ्रांसिस I को पराजित तो कर दिया था, परन्तु संधि की धराएँ अधिक कठोर होने के कारण फ्रांस का सम्राट उन्हें स्वीकार न कर रहा था। उसने पुन: विद्रोह कर दिया तथा इंग्लैण्ड के राजा हेनरी VIII तथा पोप को अपने पक्ष में कर लिया। मार्टिन लूथर ने इस समय चार्ल्स V की डटकर सहायता की। उसने 1527 ई. में रोम पर अभियान प्रारम्भ कर दिया और आक्रमण के द्वारा पोप तथा फ्रांसिस I को नत शिर होने के लिये विवश कर दिया। इस राजनैतिक परिस्थितियों ने जर्मनी के धर्म सुधार आन्दोलन मे महत्वपूर्ण परिवर्तन उपस्थित किए। जर्मनी में वहाँ की स्थिति पर विचार करने के लिये 1526 ई. मे एक सभा की गई जिनमें धार्मिक आन्दोलन के विषय में कोई भी निर्णय नहीं लिया गया। यह सभा स्पीयर में हुई थी। दूसरी सभा 1526 ई. में की गई, जिसमें लूथर के मित्र ‘किलित मेला कथन’ ने कुछ सिद्धान्त प्रस्तुत किए जिनके द्वारा समझौता सम्भव था, परन्तु कट्टर पोपवादी कैथोलिकों की दुराग्रहपूर्ण शर्तो के कारण कोई भी निर्णय न लिया जा सका। कैथोलिकों ने वामर्स के निर्णय का प्रमाणीकारण किया, परन्तु लूथर के समर्थकों ने उनके प्रमाणीकरण का विरोध किया। इसी विरोध के कारण लूथर का आन्दोलन ‘प्रोटेस्टेंट’ कहलाया। इस आन्दोलन के सिद्धान्त फिलिप मेला कथन के सिद्धान्तों पर आधारित थे। जर्मनी का सम्राट चार्ल्स V प्रोटेस्टेंट सम्प्रदाय के विपक्ष में था। अत: इस सम्प्रदाय के समर्थकों ने अपना एक संघ बनाया जिसे ‘माल कालडेन’ का संघ कहते थे। इधर सम्राट इटली के युद्धों मे सलग्न था। अत: इस संघ के विरूद्ध विशेष कार्यवाही न कर सका। परिणामत: लूथर जर्मनी मे सफलता से फैलमा गया। इसी बीच मार्टिन लूथर की 1546 ई. में मृत्यु हो गई। यह अपने कार्य को अपने अनुयायियों पर छोड़ गया और कालांतर में होने वाले भयंकर रक्तपात को देखने से बच गया, जिससे वह स्वयं डरा करता था। लूथर का प्रभाव-धर्म सुधार आन्दोलन में भाग लेने के कारण लूथर जर्मनी मे लोकप्रिय हो गया। उसमें अदम्य साहस था। उसके शिष्य अपने दृढ़ विश्वास के लिये प्रसिद्ध थे। उसके सिद्धान्तों का परिणाम यह हुआ कि जर्मनी में नवीन चेतना की लहर दौड़ गई। विवश होकर अन्त में सम्राट को देश छोडना पड़ा। इस प्रकार लूथर के कारण जर्मनी में धर्म सुधार आन्दोलन को सफलता मिली। See also उपनिवेशवाद का प्रारम्भ | Upniveshvad kya hai in hindi लूथर की सफलता के कारणलूथर की सफलता के निम्नलिखित कारण थे-
इंग्लैण्ड में धर्म सुधार आन्दोलनयूरोप के अन्य देशों की भॉंति इंग्लैण्ड के निवासी भी कैथोलिक धर्म के अनुयायी थे। इंग्लैण्ड के चर्च पर पोप क सत्ता स्थापित थी। उसकी आज्ञाओं का उल्लघंन कोई भी निवासी नहीं कर सकता था। इंग्लैण्ड में 16वीं शताब्दी में एक नवीन चर्च की स्थापना हुई। इसे आंग्लिकन चर्च कहा जाता है। इसका विकास हुआ। इंग्लैण्ड का शासक हेनरी अष्टम कैथोलिक धर्म का अनुयायी हो गया। उसने कैथोलिक धर्म विरोधी पुस्तकें सेन्टपाल के गिरजाघर के मैदान में जलाने की आज्ञा दी। 1521 ई. में उसने लूथर वाद के विरोध में पुस्तक लिखी, परन्तु कुछ व्यक्तिगत कारणों से वह पोप विरोधी हो गया। उसने पोप से सम्बंध तोड़ लिये। इंग्लैण्ड में राष्ट्रीय चर्च की स्थापना हुई। यही से सुधार आन्दोलन का सूत्रपात हुआ। इंग्लैण्ड में धर्म सुधार आन्दोलन के कारण
गोवर लांगलैण्ड, सौसर आदि चर्च के कट्टर विरोधी थे, परन्तु आलोचकों में चर्च विरोधी जानवाइक्लिफ प्रमुख था। उसने कहा दुराचारी का आदेश प्रभु का आदेश नही बन सकता, क्योंकि चर्च के धर्माधिकारियों का जीवन पवित्र और शुद्ध नहीं है। उसने चर्च के अनेक कर्मकाण्डों का विरोध किया। उसके अनुयायी लोलार्ड कहलाते थे। चर्च ने उसे विरोधी कहा परन्तु उसने जो ज्ञान इंग्लैण्ड को दिया उसे इंग्लैण्ड के लोग भूल नहीं सकते। 16वीं शताब्दी के इरासमय, थामस, मूर जान कालेट जैसे सुधारवादी हुए। 1514 में रिचर्ड ह्यूम ने इच्छा पत्र शुल्क बन्द कर दिया। उसे सेन्टपाल के गिरजाघर में बन्द किया गया जहाँ उसकी मृत्यु हुई। हेनरी अष्टम के शासनकाल में यह घोषित किया कि न्यायालयों में धर्मधिकारियों पर मुकादमा चलाया जा सकता है। चर्च के पादरी उसे भी दण्डित करना चाहते थे। वे हेनरी अष्टम के संरक्षण के कारण ऐसा नहीं कर सके।
1527 में हेनरी अष्टम ने अपनी पत्नी कैथोरिन का तलाक देकर ऐनीबोलन नामक प्रेमिका से विवाह करना चाहता था। उसने पोप से प्रार्थना की परन्तु पोप ने तलाक की अनुमति नहीं दी। अत: हेनरी अष्टम ने पोप से सम्बंध-विच्छेद किये। धर्म सुधार आन्दोलन का कारण सिर्फ कैथोरिन को तलाक ही था। इस तरह इंग्लैण्ड में धर्म सुधार आन्दोलन व्यक्तिगत कारणों से हुआ हेनरी के उत्तराधिकारी एडवर्ड षष्टम के शासनकाल में एग्लीकन चर्च ने प्रोटेस्टेंट स्वरूप धारण किया। उसके संरक्षक समरसैट और क्रेमर ने नई प्राथना पुस्तक प्रकाशित की। चर्च ने नई उपासना और पूजा की विधि लागू की। एडवर्ड के संरक्षक नार्थम्बरलैण्ड ने सुधार के कार्य जारी रखे। See also 1815 की वियना कांग्रेस की मुख्य समस्याओं एवं निर्णय | Vienna Congress in Hindi मेरी ट्यूडर के काल में धर्म सुधार आन्दोलन को धक्का लगा। उसने पोप के साथ सम्बंध स्थापित किया। एलिजाबेथ और धर्म सुधार आन्दोलनएलिजाबेथ का शासनकाल ( 1558 से 1603 ई.) था। उसके समय में एंग्लिकन चर्च ने अपना स्वरूप धारण किया। उसकी नजर में राष्ट्रहित जरूरी था। उसने एंग्लिकन चर्च की स्वतंत्रता स्थापित की। उसने उदार और समझौतावादी नीति के चलते हुए इंग्लैण्ड में राष्ट्रीय चर्च को महत्व दिया और कानूनी आधार प्रदान किया। प्रार्थना पुस्तक में से कैथोलिकों के लिये घातक परिच्छेद निकाल दिये। स्वेच्छानुसार लोग किसी भी धार्मिक मार्ग को अपना सकते थे। केवल पोप के प्रभुत्व को पूरी तरह नकारा गया था। पोप के आधिपत्य को मानने वाले व्यक्ति कठोरदण्ड के भागी होते थे। रोमन पोप को अस्वीकृत किया गया था, किन्तु कैथोलिक धर्म के सिद्धान्तों को बनाये रखा। फिशर के अनुसार, “प्रशासनिक दृष्टि से एंग्लिकन चर्च का स्वरूप ‘इटेस्टियन’ कर्म-काण्ड की दृष्टि से रोमन और सिद्धान्तों की दृष्टि से कैल्विनवादी थी”। यानी धर्म शास्त्रीय दृष्टि से इंग्लैण्ड के धर्म सुधार पर काल्विनवादी प्रभाव देखा जा सकता है। इंग्लैण्ड में राष्ट्रीय चर्च की स्थापना को आंग्लिकनवाद के नाम से पुकारा जाता है। धर्म सुधार आन्दोलन के प्रभाव और परिणाम 16वीं शताब्दी के आरम्भ से 17वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध तक यूरोप में व्यापक धार्मिक परिवर्तन हुए। प्रोटेस्टेंट सम्प्रदाय का अभ्युदय हुआ। प्रतिक्रियास्वरूप कैथोलिक सुधार आन्दोलन हुआ। यूरोप के इतिहास में यह एक आश्चर्यजनक घटना मानी जाती है। यह एक उथल-पुथल का युग था। यूरोप के राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक जीवन पर धर्म सुधार आन्दोलन पर निम्नाकिंत का प्रभाव पड़ा।
लूथरवाद जर्मनी राष्ट्रीयता कैल्विनवाद डच राष्ट्रीयता और आंग्ल ब्रिटिश चर्च राष्ट्रीयता के विकास में सहायक हुए।
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प्रमुख धर्म सुधारक कौन था?प्रमुख धर्म सुधारक
प्रारम्भिक सुधारकों ने आगे चलकर मार्टिन लूथर जैसे सुधारकों के लिए सशक्त पृष्ठभूमि तैयार की।
धर्म सुधार आंदोलन की शुरुआत कब हुई?(34) धर्म-सुधार आन्दोलन की शुरुआत 16वीं सदी में हुई. (35) धर्म-सुधार आन्दोलन का प्रवर्तक मार्टिन लूथर था. जो जर्मनी का रहनेवाला था.
इंग्लैंड में धर्म सुधार के क्या कारण थे?धर्म सुधार का यह कारण व्यक्तिगत था। हेनरी अष्टम ने कैथोलिकों और प्रोटेस्टेंटों दोनों को दंडित किया। उसने कैथोलिकों को इसलिए दंडित किया कि वे उसे चर्च का प्रमुख और सर्वेसर्वा नहीं मानते थे और प्रोटेस्टेंटों को इसलिए दंडित किया किया कि वे कैथोलिक धर्म के सिद्धांतों को नहीं मान ते थे।
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