संस्कृत काव्य में किसका वर्णन आवश्यक है? - sanskrt kaavy mein kisaka varnan aavashyak hai?

 कविता की  परिभाषा क्या है ? उसके लक्षण क्या है ? इस पर प्राचीन काल से ही विभिन्न विद्वानों ने चिंतन-मनन कर उत्तर देने का प्रयास किया है। इस पोस्ट में संस्कृत आचार्यों से लेकर आधुनिक और पाश्चात्य विद्वानों द्वारा जो  काव्य के लक्षण बताए गए हैं। उनको प्रस्तुत किया गया है। उम्मीद है यह पोस्ट कविता के संदर्भ में आपकी समझ को विकसित करनें में सहयोग करेगा।

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संस्कृत काव्य में किसका वर्णन आवश्यक है? - sanskrt kaavy mein kisaka varnan aavashyak hai?
काव्य लक्षण और परिभाषा । शिक्षा विचार । Kavya Lakshan Aur Paribhasha । Shiksha Vichar

 काव्य-लक्षण

  • काव्य का लक्षण अथवा परिभाषा क्या है ? इसे मानसिक आधार पर अव्याप्ति तथा अतिव्याप्ति दोषों से रहित यथावत् प्रस्तुत करना अति कठिन है। प्राचीन काल से ही काव्यशास्त्रियों ने इसे अपने-अपने युग में तर्क की कसौटी पर कसा तथा प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से इसका उत्तर देने का प्रयास किया, परंतु फिर भी इसमें किसी न किसी बात के कारण वह खरापन नहीं आ पाता है जिसकी अपेक्षा की जाती है। उनमें कोई-न-कोई असमानता दिखाई देती है और उनमें न्यूनाधिक भेद की झलक पड़ती है। क्योंकि किसी विशेष विद्वान की परिभाषा सार्वकालिक नहीं होती अपितु वह अपने ही युग की आवाज होती है। हाँ इन लक्षणों का सम्यक् अध्ययन करने से इसके वास्तविक स्वरूप का निर्धारण किया जा सकता है। 

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भारतीय विद्वानों एवं आचार्य ने काव्य के लक्षणों अथवा परिभाषा को वैज्ञानिक ढंग से देने का प्रयास किया है। नाट्यशास्त्र के प्रणोता आचार्य भरत मुनि ने अभिनय के वाचिक तत्व से लेकर इसका लक्षण बताया-

मृदुललितपदाढय गूढ़शब्दार्थहीन

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जनपदसुखबोध्यम् युक्तिमन्नत्ययोज्यम्।

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बहुकृतरसमार्गम् संधिसधानयुक्तम्

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स भवति शुभकाव्यं नाटकप्रेक्षकाणाम्।।

नाट्यशास्त्र में शुभ काव्य का लक्षण स्थापित करते हुए भरतमुनि ने दर्शकों की दृष्टि से विचार किया है और यह कहा है कि नाटक में प्रयुक्त भाषा सुकुमार और ललित शब्दों से संयुक्त होनी चाहिए, शब्दों का सम्पूर्ण अर्थ सरलतापूर्वक व्यक्त होना चाहिए, काव्य भाषा की कसौटी 'सहृदय' का बोध होता है, इसलिए जिस भाषा को वह समझ सके उसी का प्रयोग होना चाहिए, नृत्य के साथ उस भाषा की गति होनी चाहिए, उसमें रसानुकूल शब्दावली का व्यवहार होना चाहिए, नाट्य संधियो के संदर्भ में सरल संधियों का व्यवहार होना चाहिए। यदि ऐसा काव्य लिखा जाए तो वह दर्शकों के लिए सुबोध और शुभ होगा।

स्पष्ट है कि भरतमुनि ने 'काव्य के नहीं', 'उत्कृष्ट काव्य' के लक्षण बताए हैं और वह भी केवल नाटक के संदर्भ में। इसीलिए उनका ध्यान कवि और नाटककार की ओर इतना नहीं गया जितना दर्शक अथवा श्रोता की ओर। फिर भी अत्यंत प्राचीन काव्य-लक्षण होने के नाते नाट्यशास्त्र की उक्त करिकाओं का विशेष महत्व है।

भरत के पश्चात् अग्निपुराण आते हैं। अग्निपुराण के निर्माणकाल के विषय में यद्यपि विद्वन एकमत नहीं है, फिर भी अग्निपुराण ने सभी पुराणों का सार अथवा निचोड़ प्रस्तुत कर इसका निर्माण किया, जिसमें एक प्रकरण काव्यशास्त्र पर भी है, जिसमें काव्य का लक्षण अपनी महत्ता लिए हुए है-

शास्त्रे शब्दप्रधानत्वमितिहासेषु निष्ठता,

अभिधाया: प्रधानत्वात् कांव्य ताभ्यां विभिद्यते।

शास्त्र में शब्द की प्रधानता होती है। इसका अर्थ यह है कि शास्त्रकार का ध्यान प्रत्ययवाची (ज्ञान) शब्द के ऊपर रहता है और इतिहासकार का ध्यान तथ्य कथन की ओर रहता है। इसके विपरित कवि का ध्यान शब्द और अर्थ क्रीड़ा पर रहता है। इसलिए शास्त्र और इतिहास से काव्य अलग हो जाता है। अग्निपुराण ने एक और लक्षण दिया है जो काव्य के लिए महत्वपूर्ण स्थान रखता है-

संक्षेपाद् वाक्यमिष्टार्थव्यवचिछन्ना पदावली।

काव्यं स्फुरदलंकार गुणवद्दोषवर्जितम्।।

अर्थात् अलंकार तथा गुण-युक्त एंव दोष-रहित और संक्षेप में इष्ट अर्थ को प्रकट करने वाली पदावली काव्य कहलाती है।

  • भामह प्रथम आचार्य हैं जिन्होंने काव्य का लक्षण स्पष्ट शब्दों में दिया है- 'शब्दार्थों सहितौ काव्यम्।' अर्थात् शब्द और अर्थ- दोनों के साहित्य को काव्य कहते हैं। इसका अभिप्राय यह है कि केवल शब्द काव्य नहीं होता और न केवल अर्थ काव्य होता है। दोनों का सम्मिलित रूप ही काव्य कहलाता है। यह परिभाषा अत्यंत व्यापक है, क्योंकि इसके क्षेत्र में काव्य के अतिरिक्त शास्त्र, इतिहास, वार्तालाप आदि सभी समा जाते हैं। इसी कारण इसमें अतिव्याप्ति दोष है। यह काव्य के अत्यंत व्यापक एवं वाह्य स्वरूप का स्पष्टीकरण करती है। इस लक्षण अथवा परिभाषा को देने का एक लंबा इतिहास है क्योंकि भामह के युग में केवल शब्दों को काव्य कहने वाले लोग विद्यमान थे। उन्हीं का खंडन करने के लिए भामह ने शब्द और अर्थ के साहित्य को काव्य कहा।

इसी प्रकार आचार्य रुद्रट ने भी भामह की भांति शब्द और अर्थ के समन्वय को ही काव्य माना है-

'ननु शब्दार्थो काव्यम्।'

इसके पश्चात आचार्य दण्डी का काव्य लक्षण इस प्रकार है-

'शरीर तावद् इष्टार्थ-व्यवच्छिन्ना पदावली।'

अर्थात् अभिप्रेत अर्थ को व्यक्त करने वाली सुसज्जित पदावली ही काव्य का शरीर है।

दण्डी की यह परिभाषा व्यापक नहीं है। काव्य के मूल तत्व की उपेक्षा होने के कारण यह अपूर्ण भी है। हां, जहां भामह ने पदावली और अर्थावली को काव्य कहा है। वहां दण्डी ने पदावली को काव्य का शरीर कह दोष से कुछ परे हटा दिया है। इसके साथ यह है अग्निपुराण के लक्षण का भी संशोधित रूप है क्योंकि इसमें 'संक्षेपात्' और 'वाक्य' इन दो शब्दों को केवल हटाया गया है। इसका अभिप्राय यह है कि 'व्यच्छिन्न' तथा 'पदावली' पदों में ही 'संक्षेपात्' और 'वाक्य' के अर्थ निकल आते हैं।

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दण्डी के समान आचार्य वामन ने भी काव्य का लक्षण स्वतंत्र रूप से कहीं किया परंतु उन्होंने काव्य में अलंकारों तथा गुणों का योग करके इस दिशा में एक मौलिक योग प्रदान किया। वह काव्य को तभी सुंदर तभी मानते हैं जब उसमें गुण और अलंकार का तारतम्य हो। उन्होंने गुण को काव्य-शोभा का कर्त्ता माना और अलंकार को उसके द्वारा उत्पन्न शोभा का उत्कर्ष स्वरूप। संस्कृत आचार्यों में इस प्रकार काफी मतभेद रहा है। परंतु इससे बढ़कर वामन का यह सिद्धांत मान्य रहा-

'रीतिरात्मा काव्यस्य।'

अर्थात काव्य की आत्मा रीति है। सामान्यत: रीति को काव्य का शरीर कहा जाता है क्योंकि इसका संबंध पद-संघटना और शैली से है। वामन देहवादी आचार्य थे। इसलिए वह शरीर को ही आत्मा मान बैठे।

आचार्य वामन के पश्चात आचार्य आनंद वर्धन ने अपने ग्रंथ ध्वन्यालोक में शब्द और अर्थ को काव्य का शरीर बता कर काव्य की आत्मा ध्वनि स्वीकार की है- 'काव्यास्यात्मा ध्वनिरिति।'  ध्वनि के अंतर्गत रस, वस्तु और अलंकार तीनों का अंतर्भूत किया गया है। अतः ध्वनि की व्यापकता अधिक है यदि एक और इसमें रस आदि की मात्रा है जो काव्य के आंतरिक पक्ष से संबंधित है तो दूसरी और काव्य की शैली वाह्य पक्ष से। यह परिभाषा भारतीय काव्यशास्त्र में सम्मानित रही है। ध्वनि के स्थान पर आगे चलकर रस शब्द रख दिया गया। ध्वनि को काव्यात्मा कहना सर्वथा उचित है।

आचार्य कुंतक ने  रमणीयता से विशिष्ट न तो अकेला शब्द ही काव्य और न अकेला अर्थ ही काव्य माना है। इन दोनों के सहित भाव का नाम काव्य है परंतु इन्होंने भामह के शब्द और अर्थ का अभिप्राय 'चारुता' और 'वक्रता' दिया है। उनके मतानुसार ये दोनों- शब्द और अर्थ- काव्य में परस्पर होड़ लगाए रहते हैं। इन्होंने आह्लादकारक, कवि-व्यापार से युक्त सुंदर रचना में व्यवस्थित शब्द और अर्थ को काव्य कहा है-

'शब्दार्थो सहितौ वक्रकविव्यापारशालिनि।

बन्धे व्यवस्थितौ काव्यम्।'

अर्थात् वक्रोक्ति सहित शब्द और अर्थ का साहित्य ही काव्य है। कुंतक की यह परिभाषा सर्वांगपूर्ण होने पर भी ग्रंथ के लुप्त हो जाने के कारण प्रतिष्ठित ना हो सकी। इसमें शब्द और अर्थ की परस्पर स्पर्धा वक्रता की ओर संकेत करके शरीर और आत्मा दोनों का उल्लेख कर दिया गया है किंतु वक्रता पर अधिक बल दिया है और उसे काव्य सौंदर्य में वाह्य और आंतरिक रुप में समाविष्ट किया है और वक्रोक्ति को काव्य की आत्मा माना है-

'वक्रोक्ति काव्य-जीवितम्'

संस्कृत काव्यशास्त्र के समन्वयवादी आचार्य मम्मट का काव्य-लक्षण यह है-

'तददोषौ शब्दार्थो सगुणावनलंकृति पुन: क्वापि।'

अर्थात् काव्य दोष रहित और गुण सहित शब्द और अर्थ का समूह है वह अलंकृत भी होता है किंतु कहीं-कहीं अनलंकृत भी होता है।

इस परिभाषा में काव्य को निर्दोष कहा गया है लेकिन उसका सर्वथा निर्दोष होना संभव नहीं दूसरी ओर निर्दोषता को हम काव्य का अनिवार्य तत्व नहीं कह सकते। इसी प्रकार काव्य का सदैव अलंकृत होना भी आवश्यक नहीं। यही सोचकर मम्मट ने उसे कहीं-कहीं अनलंकृत भी माना।

उनके इस वक्तव्य पर अलंकारवादियों की तीव्र प्रतिक्रिया दिखाई पड़ती है। उनका कहना है कि जो काव्य को अनलंकृत कह सकते हैं, वे अग्नि को तापहीन भी कह सकते हैं। जैनाचार्य हेमचंद्र का काव्य-लक्षण उनके ग्रंथ 'काव्यानुशासन' में इस प्रकार मिलता है-

'अदोषौ सगुणौ सांलकारौ च शब्दार्थो काव्यं।'

अर्थात् निर्दोष, गुण-सहित और अलंकार सहित शब्द और अर्थ का समूह काव्य कहलाता है आचार्य मम्मट की परिभाषा में 'अनलंकृत' शब्द विवाद का विषय था आचार्य हेमचंद्र ने उसके स्थान पर 'सालंकरौ' शब्द का प्रयोग कर दिया इससे अलंकार वादी पक्ष का भी ग्रहण हो गया। आचार्य विश्वनाथ ने अपने 'साहित्यदर्पण' में यह काव्य- लक्षण दिया-

'वाक्यं रसात्मक काव्यम्।'

विश्वनाथ के अनुसार वह वाक्य काव्य है जिसकी आत्मा रस है। इस पक्ष में विभावन सामग्री का विशेष महत्व होता है। वही काव्य का कलेवर है। इस प्रकार विश्वनाथ की परिभाषा तात्विक और सर्वांगपूर्ण ठहरती है। वाक्य के अंतर्गत शब्द और अर्थ दोनों का ग्रहण होना चाहिए। शब्द छोटा भी हो सकता है और बड़ा भी। छोटे मुक्तकों की गणना साधारण वाक्यों में हुई और बड़े प्रबंध काव्यों को महाकाव्य कहा गया है। इस प्रकार परिभाषा का प्रत्येक शब्द गुण को ग्रहण कर रस के अंतर्गत ही समझा जाना चाहिए और अलंकारों का अंतर्भाव विभावन व्यापार में हो जाएगा।

पंडितराज जगन्नाथ संस्कृत काव्यशास्त्र परंपरा के अंतिम आचार्य हैं। इन्होंने अपने पूर्ववर्ती आचार्यों के मतों का भी बहुत कुछ खंडन किया है पर अपने ग्रंथ 'रसगंगाधर' में रमणीय अर्थ का प्रतिपादन करने वाले शब्द को काव्य माना है- 'रमणीयार्थप्रतिपादक: शब्द: काव्यम्।' रमणीय अर्थ का प्रतिपादक या सूचक शब्द जो काव्य कहलाता है। वह लोकोत्तर चमत्कार जनक होता है। लोकोत्तर चमत्कार से अभिप्राय है आनंद का वह अनुभव जिसे शास्त्रों में रस कहा गया है।

शब्द को काव्य सिद्ध करने के लिए पंडितराज जगन्नाथ ने बड़ा परिश्रम किया किंतु जैसा परिभाषा से स्पष्ट है वही शब्द काव्य हो सकता है। जो रमणीय अर्थ का प्रतिपादक हो। अर्थ की उपेक्षा करना उनके लिए संभव नहीं था।

संस्कृत आचार्यों के पश्चात हिंदी आचार्यों ने भी काव्य-लक्षण पर अपने विचार व मत प्रकट किए हैं परंतु उनमें मौलिकता कम देखने को मिलती है। रीतिकालीन हिंदी काव्य में प्राप्त लक्षणों में अधिकांश लक्षण संस्कृत के लक्षणों पर आधारित हैं या अनुवाद मात्र हैं और आधुनिक लक्षणों पर अंग्रेजी का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। फिर भी आचार्य केशवदास का काव्य-लक्षण संस्कृत के लक्षणों पर आधारित होते हुए भी अपनी मौलिकता लिए हुए है।आचार्य केशवदास ने काव्य की कोई परिभाषा नहीं दी पर वह काव्य की शोभा अलंकार से मानते हैं-

'जदपि सुजाति सुलच्छनि, सुबरन सरस सुवृत्त।

भूषण बिन न बिराजई, कविता बनिता मित्त।।'

केशव के विचार से रस, छंद, शब्द-सौंदर्य के साथ अलंकार होना आवश्यक है।

इसी प्रकार अन्य रीतिकाल आचार्यों- चिंतामणि, कुलपति मिश्र, देव, श्री पति आदि ने अपने-अपने काव्य-लक्षण बताए हैं किंतु वे संस्कृत काव्य लक्षणों पर आधारित हैं। जो कि इस प्रकार हैं।

श्री पति-

 यदपि दोष बिनु गुन सहित, अलंकार सो लीन।

 कविता बनिता छवि नहीं, रस बिन तदपि प्रवीन।।

चिंतामणि- 

सगुन अलंकारन सहित, दोष रहित जो होइ।

शब्द अर्थ वारौ कवित, बिबुध कहत सब कोई।।

कुलपति मिव्र- 

दोष रहित अरु गुन सहित, कछुक अल्प अलँकारा।

सबद अरथ सो कवित है, ताको करो विचार।।

सूरति मिश्र-

बरनन मनरंजन जहाँ, रीति अलौकिक होइ।

निपुन कर्म कवि जो जु तिहिं, काव्य कहत सब कोइ।।

कवि देव-

सब्द जीव तिहि अरथ मन, रसमय सुजस सरीर।

चलत वहै जुग छंद गति, अलंकार गंभीर।।

सोमनाथ-

सगुन पदारथ दोष बिनु, पिंगल मत अविरुद्ध।

भूषण जुत कवि कर्म जो, सो कवित्त कहि सुद्ध।।

भिखारीदास-

रस कविता को अंग, भूषन हैं भूषन सकल।

गुन सरूप औ रंग, दूशन करै करुपता।।

आधुनिक आचार्यों के काव्य-लक्षण यद्यपि पाश्चात्य काव्य-लक्षणों से प्रभावित हैं, किंतु फिर भी उनमें कुछ मौलिकता दीख पड़ती है। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी काव्य के संबंध में उल्लेख करते हुए उसके विभिन्न पक्षों पर अपने विचार प्रकट करते हैं- 

  • "अंतः करण की वृत्तियों के चित्र का नाम कविता है। शिक्षित कवि की उक्तियों में चमत्कार का होना परम आवश्यक है। यदि कविता में चमत्कार नहीं, कोई विलक्षणता नहीं, तो उससे आनंद की प्राप्ति नहीं हो सकती।" 

यह परिभाषा एकांगी और स्पष्ट जान पड़ती है। हिंदी साहित्य के मूर्द्धन्य आलोचक आचार्य रामचंद्र शुक्ल की परिभाषा मैं बहुत कुछ मौलिकता मिल जाती है। उन्होंने अपनी पुस्तक चिंतामणि में लिखा है-

  • "जिस प्रकार आत्मा की मुक्तावस्था ज्ञान दशा कहलाती है उसी प्रकार हृदय के मुक्त अवस्था रस दशा कहलाती है। हृदय की इसी मुक्ति के लिए मनुष्य की वाणी जो शब्द विधान करती है उसे कविता कहते हैं।"

यह परिभाषा रस को काव्य के लिए आवश्यक मानती है। क्योंकि चमत्कार पूर्ण काव्य में मन को चमत्कृत तथा प्रसन्न करने की विशेषता होती है। जबकि भावात्मक काव्य में हृदय को मुक्तावस्था में लाने की शक्ति होती है। ऐसी दशा में काव्य का यह लक्षण भी पूर्ण व्यापक  नहीं माना जा सकता है।

पश्चिम में भी अनेक विद्वानों, कवियों, आलोचकों तथा सहृदयों ने काव्य के लक्षण दिए हैं परंतु इन लक्षणों में काव्य का स्वरूप उसी प्रकार बंध नहीं पाया है जिस प्रकार भारतीय काव्य-लक्षणों में। इन पाश्चात्य विद्वानों में प्लेटो, अरस्तु, ड्राइडन, मैथ्यू आर्नाल्ड, वर्डसवर्थ, कॉलरिज, शैली आदि प्रसिद्ध हैं।

पश्चात काव्यशास्त्र के आद्याचार्य प्लेटो काव्य को सौंदर्यशास्त्र अथवा काव्यशास्त्र की दृष्टि से ना देख कर दार्शनिक और समाज सुधारक की दृष्टि से देखते हैं। अतः वह काव्य को अनुकृति की अनुकृति मानते हैं। उनके मतानुसार भौतिक पदार्थ स्वयं ही सत्य की अनुकृति है। फिर काव्य तो इन भौतिक पदार्थों की भी अनुकृति होता है। अतः वह अनुकरण का अनुकरण होने के कारण त्याज्य है। वस्तुतः प्लेटो का यह मत एकांगी है। इसीलिए उन्होंने उसके केवल असुंदर पक्ष को देखा और ऐसे भावों का संप्रेषण करने के कारण हेय और त्याज्य कहा।पाश्चात्य काव्यशास्त्र के जनक अरस्तु ने काव्यशास्त्रीय दृष्टि से काव्य की परिभाषा इस प्रकार दी है-

"Poetry is an art. Art is imitation of nature."

अर्थात् 

काव्य एक  कला है और कला प्रकृति का अनुकरण है। 

इसमें प्रकृति से अरस्तु का अभिप्राय वाह्य जड़ जगत (पर्वत, नदी, पशु-पक्षी आदि) और अंतर्जगत( मानव-भाव, काम, क्रोध आदि) दोनों ही थे और अनुकरण से उनका अभिप्राय 'यथावत् प्रत्यकंन' नहीं था अपितु संवेदना, अनुभूति, कल्पना आदि के योग से पुनः सर्जन करना था। परंतु यह काव्य लक्षण अपने आप में स्पष्ट और अर्थ व्यक्त है।

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अभिजात्यवादी आचार्य ड्राइडन ने काव्य की दो परिभाषाएं दी। पहली यह है-

"Poetry is an articulate music."

 अर्थात् 

कविता स्पष्ट संगीत है। 

यह परिभाषा नितांत अनुपयुक्त है क्योंकि इसमें काव्य के वाह्य पक्ष के केवल एक अंग संगीत तत्व पर बल दिया गया है। दूसरी परिभाषा है-

 "Poetry is an imitation of nature by pathetic and numerous speech."

यह परिभाषा भी मौलिक न होकर अरस्तु की परिभाषा पर आधारित है। इसमें केवल भाषा के साथ दो विशेषण pathetic और  numerous जोड़ दिए गए हैं। अतः परिभाषा में भी काव्य के वाह्म पक्ष पर बल दिया गया है और आत्म तत्व की ओर ध्यान नहीं दिया गया। डॉ. जॉनसन कविता को छंदोमयी वाणी कहते हैं-

"Poetry is a metrical composition."

यह परिभाषा कविता का लक्षण न बता कर पद्य(verse) का लक्षण बताती है। डॉ. जॉनसन की दूसरी परिभाषा है-

"Poetry is the art of uniting pleasure with truth by calling imagination to the help of reason." 

अर्थात् 

कविता वह कला है जो कल्पना की सहायता से विवेक द्वारा सत्य और आनंद का संयोजन करती है। 

इस परिभाषा में काव्य के सभी तत्वों सत्य, आनंद, कल्पना, विवेक को एक साथ मिलाया गया है किंतु फिर भी काव्य का स्वरूप स्पष्ट नहीं हो पाया है। वस्तुतः इसमें कविता के कलात्मक पक्ष पर अधिक बल दिया गया है।मैथ्यू आर्नल्ड का काव्य-लक्षण इस प्रकार है-

"Poetry is the criticism of life under the conditions fixed for such a criticism by the laws of poetic truth and poetic beauty."

अर्थात् 

काव्य-सत्य तथा काव्य-सौंदर्य के सिद्धांतों द्वारा निर्धारित उपबंधों के अधीन जीवन की आलोचना का नाम काव्य है।

यह परिभाषा लेखक के निजी आदर्श का घोतक है तथा जीवन और विचार तत्व पर बल देती है। इस प्रकार यह परिभाषा अव्याप्ति, अतिव्याप्ति, अस्पष्टता आदि से पूर्ण है। प्रसिद्ध कवि मिल्टन काव्य की परिभाषा इस प्रकर देते हैं-

"Poetry should be simple, sensuous and impassioned."

अर्थात् 

कविता सरल, ऐंद्रिय तथा रागात्मक होनी चाहिए।

इस लक्षण में कविता के तत्वों की बात न कर उसके गुणों की ओर संकेत किया गया है। अतः इससे भी काव्य का संपूर्ण स्वरूप प्रकट नहीं होता। रोमांटिक कवि वर्डस्वर्थ काव्य की परिभाषा इस प्रकार देते हैं-

"Poetry is the spontaneous overflow of powerful feelings. It takes it's origin from emotion recollected in tranquility."

अर्थात् 

कविता शांति के क्षणों में स्मरण किये  हुए प्रबल मनोवेगों का सहज उच्छलन है। यह परिभाषा अत्यंत प्रभावशाली है परंतु पूर्णतः निर्दोष नहीं है।

  • अंग्रेजी के समृद्ध आलोचक एंव कॉलरिज 'उत्तम शब्दों के उत्तम रचना-विन्यास को' कविता कहते हैं- Best words in best order. परंतु इससे काव्य का स्वरूप स्पष्ट दिखायी पड़ती है। It(poetry) is the excitement of  emotion for the purpose of immediate pleasure through the medium of beauty.

चैम्बर्स डिक्शनरी (chamber's Dictionary) में कविता की परिभाषा इस प्रकार दी है-

"Poetry is the art of expressing in melodious words, thoughts which are the creations of imagination and feelings. 

अर्थात् 

कल्पना और अनुभूति से उत्पन्न विचारों को मधुर शब्दों में अभिव्यक्त करने की कला कविता है।

हिंदी साहित्य के आधुनिक आलचकों एवं साहित्यकारों के अनुसार-

छायावादी कवि जयशंकर प्रसाद काव्य को आत्मा अनुभूति मानते हैं :  "काव्य आत्मा की संकल्पना आत्मक अनुभूति है जिसका संबंध विश्लेषण विकल्प या विज्ञान से नहीं है वह एक प्रेमी प्रेम रचनात्मक ज्ञान धारा है।"

महादेवी काव्य को व्यापक अनुभूति मानती हुई लिखती हैं :

"कविता हमारे व्यष्टि-सीमित जीवन को समष्टि-व्यापक जीवन तक फैलाने के लिए व्यापक सत्य को अपनी परिधि में बांधती है।"

  • आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी भावावेग, कल्पना और पद लालित्य को कविता मानते हैं। द्विवेदी के काव्य-लक्षण में संस्कृत के सभी आचार्यों के काव्य लक्षणों का समाहार हो जाता है।
  • आचार्य गुलाबराय का काव्य लक्षण भी भारतीय एवं पाश्चात्य काव्य लक्षणों का समन्वय है। उनकी दृष्टि में : काव्य संसार के प्रति कवि की भाव प्रधान मानसिक प्रतिक्रियाओं की श्रेय को प्रेय  देने वाली अभिव्यक्ति है।

इसी प्रकार आचार्य नंददुलारे वाजपेयी ने भी पूर्वी और पश्चिमी काव्य लक्षणों से समन्वित लक्षण दिया है :

"काव्य तो प्राकृत मानव अनुभूतियों का नैसर्गिक कल्पना के सहारे ऐसा सौंदर्यमय चित्रण है। जो मनुष्य मात्र में स्वभावतः  अनुरूप भावोच्छवास और सौंदर्य संवेदन उत्पन्न करता है।"

  • वस्तुतः भारतीय काव्यशास्त्र के इतिहास में आदि काल से लेकर अद्यावधि तक काव्य परिभाषित हो रहा है किंतु काव्य परंपरा की गत्यात्मकता की भांति काव्य के लक्षणों की आवश्यकता बनी रहती है। इस संदर्भ में महादेवी वर्मा का कथन उपयुक्त जान पड़ता है :

"कविता मनुष्य के हृदय के समान पुरातन है परंतु अब तक उसकी कोई ऐसी परिभाषा नहीं बन सकी जिसमें तर्क वितर्क की संभावना नहीं रही हो धुंधले अतीत भूत से लेकर वर्तमान तक.... जो कुछ काव्य के रूप में और उसकी उपयोगिता के संबंध में कहा जा चुका है। वह परिणाम में कम नहीं परंतु अब तक न मनुष्य के हृदय का पूर्ण परितोष हो सका है और न ही उसकी बुद्धि का समाधान।"

संदर्भ ग्रंथ

  • -काव्यशास्त्र-मार्गदर्शन - कृष्ण कुमार गोस्वामी, प्रकाशक-एस.ई.एस. एण्ड क., प्रथम संस्करण, 1970
  • -काव्यशास्त्र के सिद्धांत-डॉ. जगतसिंह बिष्ट, तक्षशिला प्रकाशश।

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संस्कृत काव्यों में किसका वर्णन आवश्यक है?

इसमें कवि के वंश का वर्णन होता है और कहीं कहीं प्राचीन कवियों का इतिवृत्त पद्य में होता है। कथा के विभाग आश्वास कहलाते हैं। आश्वास के प्रारम्भ में आने वाली घटनाओं को आर्या और वक्त्र छन्दों में प्राधान्य रूप से लक्षित किया जाता है।

संस्कृत काव्य क्या है?

संस्कृत में काव्य किसे कहते हैं कवि के कर्म को काव्य कहते है। किसी विषय का चमत्कारपूर्ण वर्ण करने वाला विद्वान 'कवि' कहलाता है और उसकी कृति (रचना) को काव्य कहते हैं। इसी अभिप्राय को व्यक्त करते हुए मम्मट ने कहा है कि लोकोत्तरवर्णन में निपुण कवि का कर्म कृति काव्य है।

संस्कृत आचार्यों ने काव्य के स्वरूप की चर्चा करते हुए क्या खोजने का प्रयास किया?

संस्कृत साहित्य में काव्यशास्त्र के लिए अलंकारशास्त्र, काव्यालंकार, साहित्यविद्या, क्रियाकल्प आदि शब्दों के प्रयोग मिलते हैं। इनमें अलंकारशास्त्र शब्द सर्वाधिक प्रचलित माना जाता है। भामह, वामन तथा उद्भट आदि प्राचीन आचार्यों ने काव्यविवेचन से सम्बद्ध ग्रन्थों के नाम में काव्यालंकार शब्द का प्रयोग किया है।

संस्कृत काव्य शास्त्र के पहले आचार्य कौन थे?

संस्कृत के काव्यशास्त्रीय उपलब्ध ग्रंथों के आधार पर भरतमुनि को काव्यशास्त्र का प्रथम आचार्य माना जाता है। उनका समय लगभग 400 ईसापूर्व से 100 ईसापूर्व के मध्य समय माना जाता है। इस परंपरा के अंतिम आचार्य पंडितराज जगन्नाथ है इनका समय 17 वी शती है।