दशरूपककार के अनुसार अर्थ प्रकृतियों की संख्या कितनी है - dasharoopakakaar ke anusaar arth prakrtiyon kee sankhya kitanee hai

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हिन्दी दशरूपक 


भाचायं धनञ्जयविरचित संसत दशरूपकम्‌" तथा धनिक छत 
उसकी “अवलोक, टीका का व्याल्यात्मक हिन्दी अनु वाद 


अनुवादक 
ड° गोविन्द प्रिगुणायत एम ० ए०, पीं एच > डी° 
` अध्यन संस्कृत विभाग, के० जी के कालेज, मुरादाबाद 


न करकं 
साहित्य निकेतन 
कानपुर 








हिन्दी दशरूपकं 


दशरूपक ओर उसकी हिन्दी व्याख्या 


अनुवादक ओर व्याख्याकार ` 
डा० गोविन्द्‌ त्रिगुणायत एम ० ए० पी° यच० डी ° 
अध्यत्त संस्कृत विभाग, के जौ०|के० कालेज, मुरादाबाद 





प्रकारक 
साहित्य निकेतन . 
कानपुर 











मूल्य ५॥) 
सजिल्द्‌ ६।} 


सुद्रक :-- भरी प्रेमचन्द्‌ मेहरा, न्यु एरा प्रेस, इलाहाबाद्‌ । 





धनञ्जयप्रणीतं दशरूपकम्‌ 
आनन्दाख्यया हिन्दी व्याख्यया 
विभूषितम्‌ 


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पूज्यपाद गुरुवर स्व ० प॑० चन्द्रशेखर 
पाण्डेयजी की पुख्यस्परतिःको 
सादर समपित 





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हिन्दी दशरूपकं 


विषय-सूची 
प्राक्रयन १-२ 
भूमिका ३-३२ 
प्रथम प्रकाश-उस्तु निरूपण १--७३ 


मङ्गलाचरण १, रचना का उदेश्य २; नाव्य के पर्याय ‰, नाव्य के{मेद ‰, 
नाव्य के मेदक ८, वस्तु के मेद ८, इतिदृत्त के फल १२) फलसाधन की 
प्रक्रिया १३, अथै प्रडृतियों का उपसंहार १४, कार्यावस्था १४, संधि- 
परिचय १७, मुखसंधि ओर उसके भेद्‌ १८, भरति्ुल स संधि ओर उसके 
मेद्‌ २८, गं संधि ओर उशके मेद्‌ ३७, अवमशं संधि ञ्मर उसे भेद्‌ ७५ 
निर्वहण संधि श्नौर उखके भेद्‌ ५७, अंगो के प्रयोजन ६६; समपंण की इष्टि 
से वस्तु के मेद्‌ ६७, नाव्यधमे की इष्टि से वस्तु के भेद्‌ ७१, उपसंहार ७३ । 

२, द्वितीय भकाश--नायक नायिका भेद्‌ ७४- १३६ 
नायक के सामान्य लक्ण ७४, नायक के मेद्‌ ७८, नायक के भेद ८४, 
नायक के सहायक ठम, नायक के सात्विक गुण ८३, नायिका मेद्‌ &२, 
स्वकीया का सामान्य लक्तण ज्नौर भेद ६३) परकोया नायिका १०३, 
साधारण खी १०४, नायिकाञओं के दूसरे भेद १०६ नायिका की सहायि- 
कार्ण १११, अलंकार ११२, नायक के सहायक १२३१ बृत्ति निरूपण १२७, 
कौशिकी त्ति १२९, सात्वती इृत्ति १२६, आरभटी इत्ति १३१) पाठ्य 
१३४, आमंत्रण १३४, उपसंहार १३५ । 


३. वतीय प्रकाश-नाटक १३७--१६५ 
भरती इत्ति १३६६, नाटकं १७६, प्रकरण १९४) नाटिका १९६, भाण 
१९८, प्रहसन १६०), डिम १६१, व्यायोग १६१, खमवकार १६२, वथ 
१६३, अङ्क १६४, दैहाष्टग १६७) उपखहार १६९ । 

४, चतुथं प्रकाश--एस १६६-- २४७ 
विभाव १६७, अनुभाव १६६, व्यभिचारी भाव १७२; स्थायो भाव, १३६, 
रख श्नौर स्थायो-भाव का काञ्य से सम्बन्ध २०४, काभ्य से आनन्दाजुमूति 
की प्रक्रिया २१७, उपसंहार २२०; श्ंगार २२१) वीर २३६ वीभस्ख २४०) 
सेद २४२, हास्य २४३, अहुत २४४, भयानक २४९) कठ्ण २४६१ अन्य 
रखों नौर भावों का अन्तभांव २४६, अथ का उपसंहार २४७ । 


तनयः ~ <~ = 














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प्रकथनं 


दशरूपक नास्य विषय का एक डा मद्पूरं ्रन्थ है । इसके रचयिता 
ग्राचायं घनज्ञय है । इसमे लगभग ३०० कारिकां है । इनमे रूपक सम्बन्धी 
समस्त श्रावश्यक बातें प्र्िष्ठित कर दी गई है। विद्वान्‌ ग्राचार्य ने ग्रपने 
पूवां चार्यो के मतो का पुनःस्थापन ही नहीं किया रै, वरन्‌ श्रपने मौलिक सिद्धांत 
भी प्रतिपादित किये हे। यह ्रन्थं श्रपनी संक्ञिक्तता, मौलिकता, विषय प्रतिपादन 
की साङ्गता ग्रौर सुबोधता के लिए प्रसिद्ध है। इतना होते हुए भी विद्वान्‌ 
लोग इसके वृतम श्रध्ययन की श्रोर बहुत कम प्रवृत्त हूर दै। यही कारण है 
किं जिप् ्रन्थं की सैकड़ों रीकाएं उपलन्ध होनी चाहिए थी, उसकी श्र[ज केवल 
दो एक टीका ही प्राप ह । दो-चार के उल्लेख प्राचीन प्रथो मं मिल जाति 
ह । इनमें सवसे श्रधिक प्रसिद्ध श्रौर पांडित्यपूणं धनिक की श्रवलोक' टीका 
हे । यह टीका दी इस समय दशरूपक के श्रध्यथन का श्राधार बनी हई है । 
स्च तो यहदहैकिं यदि यह टीकान होती तो मूल ग्रन्थ के बहत से श्रौ को 
समना श्रसम्भव नहीं तो कठिन श्रवश्य हो जाता । इतना होते हए मी इस 
टीका को हम पूणं नदीं कह सकते ह । यह बहुत सुबोध श्रौर बालोपयोगी भी 
नहीं है तभी तो दरसिंह परिडत को इस टीका कौ भी टीका लिखनी पड़ी यी । 
किन्तु दुर्भाग्यवश श्राज वह उपलब्ध नहीं है। दशरूपक की एक टीका श्रौर 
प्रा्तहै। किन्तु श्रभी तक वह मुद्रित होकर प्रकाश मं नहीं रई है। 
इसका विस्तृत विवरण ° राधवन ने श्रपने एक लेख म किया है । इसके 
लेखक बहुरूप मिश्च नामक कोई श्राचय॑ये। इनके श्रतिरिक्त संस्कृत मेँ 
दशसूपक की दो टीकर श्रौर लिखी गई थीं । श्राजकल वे श्रप्राध्य है । कु 
प्राचीन ग्रंथों मे उनका नामोह्ल्ेख मात्र मिलता है । एक टीका किष देवपाणि 
नामक श्राचाययं ने लिखी थी । इसका उल्लेख रंगनाथजी ने श्रपनी विक्रमो- 
वंशौय की टीकोमें किया हे । एक दूरी टीका का उल्लेव भी ऊुच्ठ अन्धो मे 
मिलता है । इसके रचयिता कोई कुरविराम नामक विद्वान्‌ ये । इस प्रकार इम 
देखते है कि ६०० वर्ष मे इस प्रन्थ की नौ टीका मी नदीं लिखी गहं । वास्तव 
मे इश ग्रन्थ की जितनी विवेचना श्रौर व्याख्या की जानी चाहिए थी, न 
की गई । । 
पाश्चात्य विद्धानोने भी दशल्पक के श्रध्ययन कौ श्रोर ध्यान नहीं दिया। 
श्रमेरिकन विद्वान्‌ दास महोदयने बहुत प्रथत करके इसका एक त्रं णरेजी श्रनु- 








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वाद प्रस्तुत भी किया । किन्तु बह श्रपणं श्रसफल श्रौर त्रश्ुद्ध ही रहा । किर 
मी यह ग्रन्थ बहुत दिनों तक संस्कृत के श्र गरेजी ङ्ग के विद्वानों के लिए दश- 
रूपक के श्रध्ययन का श्राधार बनारदा। श्रव वह भी श्रप्राप्त है। दशरूपक 
के एक-एक श्रध्याय को लेकर भी कु ग्रँगरेजी टीकार्णँ लिखी गई थीं किन्तु 
श्रधिकारी विद्धो केद्वारा न लिखी जाने के कारण लोकप्रियता को नदीं प्रास 
ही सकीं। हिन्दी मे इसके श्रनुवाद या व्याख्या करने का साहस श्रभी तक 
क्रिसी भी विद्वान्‌ ने नहीं क्रिया है । फलस्वरूप यह ग्रन्थ दुर्बोँघदही बना रहा । 
इसकी सुबोध हिन्दी टीका के श्रभावकी श्रनुभूति भारत के विद्वानों श्रौर 
विद्या्थिर्योको बुरी तरदसेहोरदीदहै। इस लेखक ने उस श्रभाव की पूतिं 
करने का प्रयास किया है। वह श्रपने प्रयास मँ कहाँ तक सफल हृश्रा इसका 
निश्चय तो विद्वान्‌ लोग दही करगे किन्तु उसे यदह संकोच नदीं है कि उसने 
्रन्थ को यथाशक्ति पूणं बनने की चेष्टा की है। इसमे धनज्ञय की कारिकाच्रो 
ग्रौर धनिक की श्रवलोक टीका का छायानुवादतो दिया दही गया दहै; साथ- 
साथ श्रावश्यकतानुकूल दुरूद श्रंशों की स्पष्ट व्याख्या भीकर दी गड है| ग्रन्थं 
के प्रारम्भ मे एक छात्रोपयोगी सुबोध एवं संक्षि भूमिका भी जोड दी गई है । 
इस भूमिका मेँ लेखक श्रोर टीकाकार का परिचय, उनका समय श्रौर दशरूपक 
के प्रतिपाद्य विषय ्रादि पर सरल विश्लेषणात्मक शैली मेँ प्रकाश डाला गया 
है। यह विवेचन भी पूणंतया दशरूपक श्रौर उसकी श्रवललोकं टीका पर ही 
त्राघारित है । | 

इस ग्रन्थ की रचना में मेरी सबसे श्रधिकर सहायता मेरे भित्र श्रर मेरी दही 
देख~रेख मे शोध कायं करनेवाले परि्डित श्री रामसागर त्रिपादी एम° ए. 
व्याकरणाचाये ने की हे । मे उनका हदय से श्राभारी ह । भूमिका लिखने में 
मने भी कशे महोदय श्रौर ° ड साहब के अ्न्थों का पूरा उपयोग किया है । 
मे उनका हदय से ऋणी हू । । 

बहुत प्रयल्ल करने पर भी मन्थ मे बहूत सी मुद्रण सम्बन्धी श्रशुद्धियाँ रह 
गई । इनका परिहार श्रव दूरे संस्करणमें दही किया जा सकेगा । आशा दहै 
विद्वान्‌ पाठक इनके लिए हमे चेमा करगे । 











भूमिका 
ग्रन्थकार का परिचय 


संस्कृत मे नास्य -विषय को लेकर लिखे गये ग्रन्थो में दशरूपक का स्थान 
वड़ा महश्त्पूशं है । नास्यशाखर के बाद यही एक एेसा ग्रन्थ है जिसमे नास्य- 
विषय सम्बन्धी समस्त सामग्री का सरल एवं बोधगम्य शैली म विवेचन किया 
गया है। फिर मी इसे हम संग्रह-मन्थ नहीं कह सक्ते । यह एक प्रौढ श्रौ 
मौलिक स्वना दै । प्राचीन आ्राचार्योौः के मतोँका इसमे प्रतिमा के साथ पुन- 
प्रस्थापन किया गया है । साथ-दी-साथ लेखक ने श्रपने मतो का प्रतिपादन मी 
यथास्थान किया है । श्रपनी इस मौलिकता श्रौर शेलीगत सरलता के कारण 
ही यह न्थ इतना लोकप्रिय है । 

श्रव थोड़ा सा दशरूपक के रचयिता श्रौर उसके रीकाकार का परिचय 
दे देना चाहिए । दशरूपक के रचयिता श्राचायं धनञ्जय थे । यह बात उसके 


ही निम्नलिखित श्लोक से प्रगट होती है -- 
विष्णो सुतेनापि धनञ्जयेन, 
विद्न्मनोरागनिबन्धहेतुः । 


आविष्कृतं मज्‌ महीश गोष्टी; 
बैद्ग््य भाजा दशरूपमेतत्‌ ॥ 
छर्थात्‌ श्री विष्णु परिडत के पुत्र धनञ्ञथ ने विद्वानों के मनोविनोदार्थ 
महाराज मज्ख॒ की सभागोष्ठी मेँ वैदर्ध्य प्रदशंन कै हैत इस दशरूपक ग्रन्थ की 
रचना की थी । इससे स्पष्ट प्रकट है कि दशरूपक का मूल ग्रन्थ श्राचायं धनज्ञय 
रचित है । दशरूपक की कारिकाश्रों पर श्रवलोक नामक एक श्रत्यन्त प्राचीन 
टीका मी मिलती है । इस टीका के प्रणेता सम्भवतः श्रा चार्यं धनज्ञय के श्रनुज 
त्राचार्यं धनिक ये । यह बात श्रवलोक टीका की समाति पर लिखे गये श्रधो- 
लिखित श्लोक से प्रकर है-- 
इति श्रीविष्णसनो धनिकस्य कृतौ । 
दशरूपांवलोके रस विचारों नाम चतुथः प्रकाशः ॥ 
 श्र्थात्‌ विष्णु के पुत्र धनिक द्वारा रचित दशरूपक की श्रवलोक रीका मे 
रस विचार नामक चतुथं प्रकाश समाप्त होता है । इससे स्पष्ट प्रगट है किं घन. 
ज्ञ शरोर धनिकं दोनों ही विद्वान्‌ कसो विष्णुं पशडइत नामऱ श्राचा्येके पुत्रये। 








९ ४.9 


धनिक श्रौर धनज्ञय के विषय मँ एक भ्रान्ति श्रौर प्रचलित है। बहुत से 
प्राचीन विद्वान्‌ धनज्ञय श्रौर धनिक दोनों को एक ही मानतेथे। उनकी दृष्टि 
म दोनों ही नाम सम्भवतः एक ही व्यक्ति के थे। एेसे विद्वानों मे साहित्य दपेण- 
कार विश्वनाथं प्रतापरद्रीय यशोभूषण के रचयिता विद्याधर प्रमुख है । उन्दने 
दशरूपक की कारिका धनिक के नाम से उद्धृत कीरै। हमारी सममं 
धनज्ञय श्रौर धनिक दोनों अअरलग-ग्रलग व्यक्तिये श्रौर भाई-माई भीथे। 
षस मत की पुष्टिम निम्नलिखित तक दिये जा सकते ह :- 


(१) जब मूल भ्रन्थ के रचयिता की बात की गई है तब केवल धनञ्जय 
का ही उल्लेख किंया गया है । इसी प्रकार टीका की समाप्ति पर केवल टीका- 
कार धनिक का उल्लेख किया गया है । यदि दोनों व्य्तं एक ही होते तो 
फर दशरूपक म कोई न कोई श्लोक एेसा श्रवश्य होता जिससे यह स्पष्ट होता 
कि धनिक श्रौर धनञ्जय एक ही व्यक्ति के नाम ये) इस प्रकार का कोई उल्लेख 
न होने के कारण दोनों को श्रलग-ग्रलग मानना दी उचित हे। 

(२) कु लोग यद्‌ तकं दे सकते ह किं दशरूपक मँ दो स्थलों पर विष्णु 
परिडित के पुत्र का दो मिन्न-भिन्न नामों से उल्लेख किया गया है । एक स्थल 
पर उनका नाम धनज्ञय दिया गया श्रौर दूसरी जगह धनिकः; किन्तु यह तकं 
सशक्त नदीं है। दोनामोँकाएकदहीपितासे सम्बन्धित होना इस बात का 
प्रमाण नदीं हो सकता कि वे दोनों नाम उसके एक ही पुत्र के होगे | एक व्यक्ति 
केदोपुत्रभीहो सकतेदह। यदि कारिकाश्रों के रचयिताके स्पमेंही दोनों 
नामों का उल्लेख किया गया होता तो कुञ्छ सम्भावना भी दहो सकती थी कि 
शायद दोनों नाम एक ही व्यक्तिके हो । किन्तु दशरूपक मे एक नाम के व्यक्ति 
को मूल ग्रन्थं का रचयिता बताया गया है श्रौर दूसरे व्यक्ति को केवल टीका 
का प्रणेता कहा गयादहै। श्रत्व दोनोँनाम एकी व्यक्ति के नदींहो 
सकते | 


(३) कारिकाश्रं श्रौर उनकी टीकाश्रों का यदि ध्यानपूवंक च्रध्ययन फिया 


` जाय तो एेसा प्रतीत होता है, कि टीकाकार कीं मूलग्रन्थं के लेखक के मतोँ से 


पूणं सहमत नहीं है । रेते स्थलों पर उसने श्रपने दृष्टिकोण को भी स्पष्ट कर 
दिया है। 

(४) धनिक ने श्रपनी रीका में जहां कीं धनज्ञय के मत का समर्थेन किया 
है वहाँ उन्दने श्रपने लिए एक वचन का प्रयोग न करके बहुवचन का प्रयोग 
कियादहै जैसे एक कारिका की टीका. करते हए वे लिखते ई “सवथा 
नाटकादावामिनयातमनि स्थायित्व श्रस्माभिः निषिध्यते” । यहाँ श्रस्माभिः शब्द 


॥ + ५ + र) 4 (^... 
0 ॐ =` न््ी & ॥) । म 2 1) ॥ 





[रा 


(~ 


वष्ट चोतित करता है कि घनिक श्रपना ग्रौर श्रपने मूलग्रन्थं लेखक दोनों के 
मतों का समर्थेन कर रहै दै | 
(५) धनिक श्नौर घनज्ञथ के समय मँ बहुत बड़ा श्रन्तर नहीं है । कारि- 
कान की रचना महाराज मुञ्च के समय मे हुई थी । मशरान सुख का राञ्या- 
रोण समय जैसा कि च्रागे के विवेचन से प्रकट हो जायगा लगभग 8६७४ ३० 
के माना जाना चाहिए । ग्रतः दशरूपक की कारिकाश्रों कौ रचना इसके वाद्‌ 
ही हरै होगी । सुज्ञ ने लगभग ६६४ ई० तकं राज्य किया होग।, क्योकि तेलप 
द्वितीय ने इसी समय के श्रास-पास उसकी हत्या की थी । श्रतएव दशरूपक की 
रचना भी ६७४ से लेकर ६६४ ६० के बीच मेँ हूर होगी । ्रवलोक टीका कौ 
रचना कुछ दिनों बाद हई होगी । श्रवलोक टीका मे धनिक ने नवसाहसाङ्क 
चरित का एक श्लोक उद्धृत किया है । नवसाहसाङ्क चरित की रचना सिन्धु- 
राज के समयमे है थी । सिन्धुराज महाराज सुज्ञ के बाद्‌ ही सिहाषनारूढ्‌ 
हुए ये । यदि सिन्धुराज ने दस-पनद्रह वषै भी राञ्य किया होगा तो भी धनिक 
को धनञ्जय का श्रनुज मानने मे बाधा नदीं पड़ती । श्रनुज श्रौर श्रग्रज में दस- 
बारह वषं का श्रन्तर बहुत नदीं है। हो सकता है सिन्धुराज के शासन के 
प्रारम्भमे ही टीका लिखी गहैहो तो दोनों मेश्नौर मी कम श्रन्तर हृश्रा। जो 
भीहोसमयकीदृष्टिसे मी दोनों माई ही ठहरते दहै। 
दशरूपक का रचना-काल- दशरूपक भारतीय नास्य-शाख्ल का एक 
सुन्दर ्रन्थ है । इसकी रचना महाराज मंज के सभा परिडत श्रौर कवि धनञ्जय 
ने की थी । यह बात दशरूपक के ही निम्नलिखित श्लोक से प्रकट हैः-- 
विष्णाः सुतेनापि धनञ्जयेन 
विद्रन्मनोराग निबन्ध हेतुः । 
मा विष्कृतं मंजु महीश गेष्टी 
वेदग्धभाजा दृशरू पमेतत्‌ ॥ 
यह महाराज मुज्ञ वाग्पति राज मी कहलाते ये। यह बात भी दशरूपक 
केही एक उद्धरण से प्रकट होती दहै। धनिक ने निम्नलिखित पद्यको एक 
स्थल पर तो सुञ्ञके नाम से उदृधृतक्रिया दै श्रौर दूसरे स्थल पर वाग्पति 
राज के । | 
अणय कुपितां दृटा देवीं ससंभ्रमबिरिमत- 
स्त्रिभ्ुवनगुर्‌ भीत्या सद्यः म्र णामपरोाऽभवत्‌ । 
नमितशिरसा गंगा लोके तया चरणाहता 
~ भवतु भवतस्य्तस्थे तद्विलक्तमवस्थितम्‌ ॥ 
द्रव विचारणीय यह है किं वाग्पति राजके नाम से प्रसिद्ध महाराज सुज्ञ 





------~ क = 


र 


ि ~ न अकि 








(९ ) 


का शासन-काल कब से कब तक था} महाराज मुज्ञ मालव के एक परमारवंशी 
राजा थे । इनकी चचां हमें निभ्रलिखित स्थलों पर मिलती है । 

(१) एषीप्रेफिका इरि्डिका-वाल्यूम १-प० २२२-२३८ इस स्थल पर 
बुलर साहब ने मालवा के राजाश्रों का निदेश उदययुर प्रशस्ति के श्राधार पर 
कियादहै। . 

(२) एपीम्रेफिका इण्डिका-- वाल्युम २-परं० १८०-६४ इस स्थल पर 
कीलहानं नामक विद्धान्‌ ने नागपुर प्रशस्ति के श्राधार पर मालवा के परिमार 
राजाश्रं की वंशावली का उल्लेख किया है | 

 आलोचना-एपीम्रेफिका इणिडका के उपयुक्त दोनों स्थलों पर परमार- 
वंशी मालव राजाश्रौ की वंशावलियाँं लगभग एकसीदहै। वंशवृक्तके ठङ्ग 
पर उनका निरदंश हम इस प्रकार कर सकते ईै-- 
उपेन्द्र 


| 
वैरिसिंह प्रथम 


ध मुज्ञ सिन्धुराज (नवसदसाङ्क) 


५ कन म मौज 

इस वंशवृक्त के ग्राधार पर हम वाग्पतिराज श्रौर सिन्धुराज को एक प्रकार 
से समकालीन मान सकते हँ । महाराज भोज इनके एक पीढी बाद हुए ये । 
इसका श्रथ हूश्रा कि वागतिराज का समय महाराज भोज से कुक १दते होगा । 
महाराज भोज का समय एलबरूनीकत इरिडया मे १०३० ई० माना गया है 
(इरिडयन इन्टीम्वेरी माग £ प्रृ° ५३-५४) । मोज का उत्तराधिकारी जयर्धिंह 
था | जयतिंह का दानपत्र १०५५ ई० कारहै। इससे यह प्रकट होतादहै किं 
भोज ने लगमग १०५० के श्रा्-पास्र तक शासन कियाथा। श्रव ह्मे यह 
देखना दै किं इनके शसन का प्रारम्भिक काल क्या हो सकता है। इसके लिए 
हमे निश्रलिखत घटना श्रोर बातो पर विचार करना होगा :- 

(१) वाग्पतिराज का ६७४ ३० का एक शिलालेख । ईस शिलालेख में 
लिखा है कि उसने श्रहिक्षत्र देश से श्राये हुए किंसी धनिकं परिडत केँ पुत्र 
वसंताचार्य को कु प्रथ्वी दान दौ थी। 

(२) ६७६ ई० का एक ॒लेखपन्न-इसने लिखा है करि वापतिराज ने 
उज्जयिनी की वसंतदेवी के नाम एक गांव समपित मिया था। 

उपर्युक्त दोनों उल्लेखो से प्रगट है किं वाक्पतिराज ६७४ से ६७६ के बीच 








४ ® 


मे सिंह्यसनारूढृ हो चुका होगा, क्योकि इष प्रकारके दान देनेमें व्ह तभी 
समथ हो सकेता था । श्रव्र देखना यह है किं उसके शासन की श्नन्तिमि सीमा 
क्या है । इसका निश्चय करने में निश्नलिखित दो बातें सहायक ई :-- ` 

(१) तैलप द्वारा वाक्पतिराज की हत्या | 

(२) सुभाषित रत्न संदोह म दी गई मुज्ञ की वणना । 

इण्डियन एन्टेक्वेरी भाग ३६ प° १७० पर लिखा है किं तैलप द्वितीय 
ने वाक्पतिराज को पराजित कर उर्की हध्याकी थी | तैलप द्वितीय का 
मत्यु काल ६६७ श्रौर ६६८ ई° के ग्रास-पास माना जाता है। इससे यह 
निश्चित हो जातादहै कि वाक्पतिराज की हत्या ६९७ से पते की गद 
होगी । श्रमितगति नामक किसी कविने सुभाषित संदोह की रचना मुज्ञ 
के राज्यकालमेंकीथी। इस अन्यका रचनाकाल विक्रम सण १०५० तद्‌- 
नुसार ६६२३ या ६४ ई दिया हूग्राहै। इससे प्रगटदहेकिमुञ्ञ की मृच्यु 
६६३ या ६६४ ई० से पिले किसी प्रकार नहीं मानी जा सकती] इस प्रकार 
मुज्ञ का समय ६७४ से ६६४ ई० निश्चित होता है । दशरूपक की कारिकार्णं 
इन्दी दोनों सनो के बीच किसी समय हर होंगी । दशरूपक की रचना सुज्ञ 
महाराज की सभागोष्टी के लिए हू थी। श्रतएव उसकी रचना उसके 
शासन के स्वणं युग मेही हई होगी, क्योकि राज्यम बाह्म श्रौर श्रान्तरिक 
शान्ति स्थापित करके ही कोई भी राजा कला की उन्नति मे सहयोग देता 
है | श्रत दशरूपक का रचनाकाल लगभग ६८५ ई° के आस-पास के 
निश्चित किया जाना चाहिए । 

श्रवन थोड़ा-सा श्रवलोक रीकाके रचनाकाल पर विचार कर लनां 
चाहिए । टीका के रचनाकाल को निशिचित करने के लिए रीकाकार के समय 
पर विचार कर लेना मी श्रावश्यक है । धनिक ने त्रपनी अवलोक टीकामें 
ग्रनेक प्रथो से श्लोक उद्धत ज्रियि ईै। इन प्रथो मेँ निम्नलिखित ग्रंथ 
उक्तका खमय निश्चित करने मे सहायक सिद्ध हो सकते है | 

(१) नवसाहसाङ्क चरित । 

(२) विद्धशाल भंजिका । 

(३) कपूर मंजरी । 

इन तीनों मेँ भी सवते मदत्वपूणं ग्रंथ नवसाहसाङ्क चरित है। यह एक 
सुन्दर महाकान्य है । इकी रचना महराज सिन्धुराज की श्राज्ञा से किसी 
पद्मगुस्र नामक कवि ने की थी। यह बात उसी की निम्नलिखित पक्ति से 
प्रगट होती है :- 

“नैते कवीन्द्र; कति काभ्यबन्धे तदेष रा्ञा किमहं नियुक्त 








( ध ) 


उसी के श्रन्तिमपद्‌मँ मी इस प्रकार लिखा है :- 
शयच्चापलं किमपि मन्द्‌ धिया मयेवभासूत्रितं नरपते नवसाहसाङ्कं । 
आज्ञेव हेतु रिहि ते सयनीकृतो राजन्य मौलिकुसुमः न कवित्वं दपः, ॥ 
सिन्धुराज वाक्पतिराज के बाद सिंहासनारूढ्‌ हुए थे । वाक्पतिराज 
का शासनकाल सन्‌ ६६४ तक माना गया है । श्रतएव स्पष्टदहै किं धनिक ने 
ग्रवलोक रीका सिन्धुराज के शासन-काल मंदी लिखी होगी । बुहलर महोदय 
ने उदयपुर प्रशस्ति के श्राघार पर लिखा हे करि धनिक उत्पलराज या वाकूपति- 
राज के महासाभ्यपाल ये । यदि यह बात सत्यदहै तो धनिक मुज्ञ महाराज के 
शासनकाल में ही श्रच्छी प्रतिष्ठा श्रौर वयस्‌ प्राप्त कर चुके होगे | श्रतः 
श्रवलोक रीका उन्होने सिन्धुराज ॐ शासनकाल के प्रारम्भमें लिखी होगी । 
सिषुराज का शासनकाल सन्‌ १६६४ से प्रारम्भ हृग्रा होगा । उन्होने श्रव- 
लोक टीका सन्‌ ६६४ से लेकर सन्‌ १००० द° के बीच में रची होगी। यहाँ पर 
योड़(-सा विच।र धनिक परित वाली बात पर भी कर लिया जाय । वाकूपति- 
सज काएक सन्‌ ६७४ ई०° का शिलालेख प्राप्त हुश्रादै। इस शिला- 
लेख मेँ लिखा है क्रि उसने श्रटित्तृत्रदेशसेश्राए हुए किसी धनिक परिडित 
के पुत्र वसन्ताचा्य को कूच प्रथ्वी दानम दी थी। मेरी समकर मेँ श्रवलोक 
टीकाकार धनिक ओ्रौर वसन्ताचा्यं के पिता धनिक एक ही ये| कर्योकिं धनिके 
नाम इतना प्रचलित नहीं रहा है किं एक समय में बहुत से धनिक नाम के व्यक्ति 
प्रसिद्ध रहे हो । मेरी सममे वषन्ताचायय धनिक के सुयोग्य पुत्र ये। गुण- 
ग्राही राजा वाकुपति ने पारिडत्य से प्रसन्न हो दान दिया हो। दान के समय 
वसंताचार्य २० वष के लगभग रहे ही हौँगे। उस समय पिता कौ श्राय लगभग 
४५ वषे की रही होगी । इस दष्ट से यदं निश्चित होता हे किं धनिक ने लगभग 
६५ वषं की श्रवस्था मे गश्रपनी टीका का प्रणयन करिया होगा । इस प्रकार धनिक 
परिडत श्रौर धनिक को एक मानने मे कोई बाधा नहीं पड़ेगी । 
दशरूपक के प्रतिपाद्य विषय -त्रब हम त्रत्यन्त संप मे दशरूपक के 
प्रमुख प्रतिपाद्य विषयों का विवेचन कर देना चाहते ह । उसके प्रमुख विवेच्य 
विषय निम्नलिखित द :-- 
(१) नार्य, चत्य श्रौर वत्त । 
(२) वस्तु का विश्लेषण ग्रौर विन्यास क्रम । 
(३) दशरूपकं का स्वरूप निरूपण । 
(४) नायक श्रौर नायिका मेर तथा उनङ्गौ विशेषता । 
(५) नास्च वृत्तियां । 
(६) नायके के पूवं मेँ प्रथुक्त किये जनेवाली विशेषताश्‌। 
(७) रस सिद्धान्त । 








(८ ~) 


इनमे से प्रथम, द्वितीय श्रौर सक्षम विशेष विचारणीय हैँ । क्योकि यह 
विषय मौलिक दृष्टिकोण के साथ प्रतिपादित किये गये ह । हम यहाँ इन्दी पर ` 
विचार करगे । शेष का श्रध्ययन पुस्तक से करिया जा सकता हे । 


/ नाट्य, वत्य ओर टृत्त 


नास्यशाखर के ग्रंथों में प्रायः इन तोनों की चचां मिलती है। किन्तु इष 
चर्चा का श्रेय दशरूपककार को ही है क्योकि दशरूपक के पूव के प्रंथोमें इन 
प॒र कीं मी शाख्रीय ढज्ग से विवेचन नहीं करिया गया है। नास्यशाछ् में यह 
विषय स्पशं करके छोड़ दिया गया दै । उसके श।ख्रीय विवेचन की उपेक्ता की 
गई है । दशरूपक के श्रनुकरण पर धनज्ञय श्रौर धनिक के परवती श्राचायोँ 
ने इस विषय का श्रच्छा विवेचन क्रिया है। इन श्राचा्थी में भाव- 
प्रकाश्च के रचयिता शारदातनय, प्रतपर्द्रदेव यशोभूषण के .प्रशेता विद्या- 
नाथ, संगीत रत्नाकर के प्रणेता "निःशङ्क शाङ्गदेव' श्रादि प्रमुख है । इसके 
श्रतिरिक्त सादि्यदपंण-नास्यदपण, सिद्धान्त-कोमुदी श्रादि प्रन्थों में मी इस 
विषय पर प्रकाश डाला गया हे। 


“नार्यः की ठयुत्पत्ति -नास्य शग्द्‌ की व्युलत्ति के सम्बन्ध मे विद्वानों मं 
थोड़ा मतमेद दै । नाय्यदर्षण में (प° रर) मे रामचन्द्र ने इसकी युत्ति 
नाद्‌ धाठु से मानी है । नाय्य सवसव दीपिका मँ मूल धातु नट मानी गई है। 
उनके मतानुसार नार्य शब्द नय्‌ धातु से दी सम्पन्न हुत्रा ह | बेवर साहब ने 
नास्यदौपिका सर्वस्व के मत को स्वीकार करते दए उसमें थोड़ा-सा परिष्कार किया 
ह । उनशा कहना है किं नट्‌ घातु वृत्‌ घातु का प्राकृत रूप है । कु लोगो कौ 
धास्णा है कि मूल धातु तो दत्‌ ही है किन्तु उसका श्रादेशनट्‌ मेहो जाताहे 
मन्कद साह ने त्रपनी 765 ° 380510६ [72719 नामक पुस्तक में 
बेर के मत का खण्डन करते हृए लिखा है कि प्राकृत के साहित्य मेँ कदी भी 
चत्‌ घाठु का नट्‌ रूप नहीं मिज्ञता । उनके मतानुसार मूल धातु खत दी है । 
यह धातु ऋण्वेद्‌ तक मेँ प्रयुक्त हई है । मेरी श्रपनी धारणा है कि नास्य शब्द 
नट्‌ घाठुसेवनादहै। यह भ्वादिकीधातुहै इसका श्र्थं श्रमिनय करना 


होता ह । 


नास्य के स्वरूप को धनज्ञय श्रौर धनिक दोनों ने ही विस्तार से समाने 
कीचेष्याकी है उन दोनो के मतानुसार नास्य मे निम्नलिखित विशेषतां 
होती ई :- 
र्‌ 





१.९ ~) 
(१) नास्य में नायको की धीरोदात्तादि श्रवश्थाश्रंकाश्रौर उनकी वेश 


. सचना श्रादि का अनुकरण प्रधान रहता है ।# 


(२) उसमें श्रंगों के संचालन की विविध कलार्प भी दिखाई पड़ती ई । 

(३) नास्य को रूपक भी कदते हैँ क्योकि यह देखा जाता है । इसकी यह 
चान्ञुष प्रव्यक्ता इसकी तीसरी प्रधान विशेषता ह । ९ 

(४) नास्य रसाश्चित होता ३ै।$ 

(५) सात्विक श्रभिनय की बहुलता होती है । 

(६) नास्य मे वाक्याथ का श्रभिनय होता है । 

रत्य- यह शब्दः धरती गात्रविक्षेपे इस धातु से क्यप प्रत्यय लगकर 
सम्पन्न हुश्रा है। दत्य के स्वरूप को खष्ट करते हए दशरूपककार ने लिखा हे । 

अन्यद्धावाश्रयं नृत्यम्‌ 

इस कारिका की रीकामे धनिकमे द्रस्य की निम्नलिखित विशेषतां 
ध्वनित की ह :ः- 

(१) श्चस्य मे" भावों का श्रनुकरण प्रधान रईता है । 

(२) इसमे श्राङ्किक श्रभिनय की ही प्रधानता रहती ह । 

(३) दत्य मे पदार्थं का त्रभिनय र्ता है । 


नाट्य शौर नृत्य की तुलना 


नास्य श्रौर व्रस्य दोनों श्रापस मे इतने मिल्नते-जुलते द किं लोगों को भ्रम 
हो जाताहैकिंदोनोंए्क दी वस्तुर। किन्तु दोनों कुठ बातों म समान 
होते हए. भी एक दूसरे से सवथा भिन्न होते है । 


समानता 


(१) नास्य श्रौर वर्य दोनोँमेदी त्रंगोँका कलात्मकं ढंग से संचालन 
करना पड़ता हे । 
(२) नाय्य श्रौर दत्य दोनों ही श्रनुकरणातमक होते द । एक मँ च्रव- 


` स्थाश्रं का श्रनुकरण किया जाता है, दुखरे मे भावों का। 


अन्त्र 
(१) नास्य रसाश्रित हयोत्ता है। रसकेश्रंग होते है विभावः अ्रनुभाव 
संचारी श्रादि। विभाव के मी दो पत्ञ प्रधान होते ईै--्रालम्बन ग्रौर उद्दीपन । 


ॐ अवस्था नुङृति नाव्यम्‌ । 
९ रूपकं तत्समारोपात्‌ । 
¢ दशैव रसाश्रयम्‌ । 





| > 





(९ - 


नास्य मेँ इन सभी का श्रनुकरण किया जाता है। इसके श्रतिरिक्त नास्य में 
वाक्य का श्रमिनय प्रधान रहता है । रस-निष्पत्ति के लिए विभाव इत्यादि का 
संयोग श्रनिवायं होता है। विभाव इत्यादि का परिणाम स्वदापदा्थं के ` 
श्रधीन हृश्रा करता है। उन पदार्थो से जो वाक्याथ बनता है वही रस-निष्पत्ति 
कात हूुश्रा करता है। इस प्रकार नास्यमे वाक्यां का च्रमभिनय करते हुए 
रसकाश्रा्रय लिया जाता है। इसके विपरीत रत्य भावाभित होता है। 
उसमे केवल भावों का श्ननुकरणात्मक प्रदशन किया जाता है । इसीलिए नास्य, 
मँ कथोपकथन भी पाये जाते ईह । किन्तु द्य मँ इनकी श्रपेक्ञा नहीं होती है । 

(२) दत्य मे केवल श्राङ्किक श्रमभिनय की प्रधानता रहती है किन्तु नास्य 
मे श्राङ्किक श्रमिनय के साथ-साथ सात्विकं श्रभिनय कोमी विशेष महच्च 
दिया जाता है। 


(३) दव्य में काव्य का सभ््रन्ध नहीं होता श्रौर उसमें कोई सुनने की 
बात भी नदीं होती । इसीलिए प्रायः लोग कहा करते है कि गत्य केवल देखने 
को वस्तु है; किन्तु नास्यमें देखने के साथ-साथ कुठ सुनने कीसामग्रीभी 
होती है । यह दोनो में मौलिक मेद है। 

(४) दत्य मे पदार्थं का श्रमिनय प्रस्तुत किया जाता है। इसके विपरीत 
नास्य में वाक्य के अ्रमिनय को प्रधानता दी जाती है। 


नृत्य ओर नृत्त का तुल्लनातमक विवेचन 


श्रव॒ यथोडा-सा विचार दृत्यं श्रौर टत्त,के स्वरूपों पर॒ तुलनात्मक 
ठङ्गसे कर लेना चादिए । यों तो दत्य श्रौर एत्त दोनों ही शब्द चत्‌ नामक 
एक दहीषातुसे बने किन्तु दोनों के स्वरूपो मेँ परस्पर बड़ा अ्रन्तर है| वत्य 
का स्वरूप हम ऊपर स्पष्ट कर चुके है यहाँ पर टृत्तके स्वरूप पर थोड़ासा 
प्रकाश डाल देना चाहते ह। दत्य को स्पष्ट करते हुए दशरूपककार ने 
लिखादहै। ` 

नृत्तं ताल लयाश्रयम्‌ । 

श्रथत्‌ चत्त उसे कहते दै ज ताल शरोर लय के श्राधित हो। वत्तमें 

ताल श्रौर लय के श्रनुरूप गात्र विक्षेपण किया जाता हे। 


नृत्य ओर नृत्त की तलना 


समानतार्णे-(१) श्रज्गों का विन्तेप दोनों मेदी श्रपे्तित सममा 
जाता है। 
(२) दोनो ही नाटक के श्रभिनय की षफ़लत। मँ सहायक होते है| दय 





~ १द- ) 


देदी गर है। यह सूचना लता ओर नायिका फे समान दिशेषणोंके आधार 
पर प्राक्त होती है। अतएव यह समासोक्ति मूलक पताका स्थानक का 
उदाहरण है । 
इख प्रकार इतिवृत्त के तीन भेद हो गये-एक प्कार का आधिकारिक 
रदो प्रकार के प्रासङ्गिक। 
प्रख्यातोत्पादयय मिश्रत्व भेदान्त्रधापि तन्त्रिधा | 
प्रख्यातमितिहासादेरुत्पाद्यं कविकल्पितम्‌ ॥१५॥ 
मिश्रं च सङ्करा ताभ्यां दिव्यमर्त्यादि भेदतः। 


[इन तीनों में प्रत्येक के तीन-तीन भद्‌ होते हैँ (१) प्रख्यात, (२) उत्पाद्य 
ओर (३) मिश्च । (१) इतिहास इत्यादि से ली हृदं कथा वस्तु को प्रख्यात 
इतिदृत्त कहते हँ । (२) कवि कल्पित कथा वस्तु को उत्पाद्य इतिडृत्त कहते हँ 
ओर (३) मख्यात तथा उत्पाद्य इन दोनों प्रकार के इतिडृत्तों के सङ्कट से मिश्र- 
इतिवृत्त कहा जाता है। इन सब में प्रत्येक केदिव्य ओर मव्य येदो 
भेद होते है ।] | 

इस प्रकार इतिदृत्त के कुल मिलाकर १८ भेद होतेह | प्रख्यात इति 
बृत्त के उदाहरण जैसे अभित्ञान शाकुन्तल, वेणीं संहार, उत्तर रामचरित 
इत्यादि । उत्पाद्य देतिद्रृत्ति के उदाहरण जैसे-मालतीमाधव, कादम्बरी इत्यादि । 
मिश्च इतिदत्त का उदाहर णजैसे हषं चरित इत्यादि । (हषं चरित मे प्रारम्भ सर- 
श्वती को दुवांसा का शाप श्रौर उनका मत्यलोक में ` अवतार इत्यादि की कथा 
उत्पाद्य इतिवत्त के अन्दर आती हे ओर हषं का चरित्र परस्तात इतिवत्त है । 
हषे के चरित्र मे भी वार्ण आतपन्त्र की कथा इत्यादि उस्पा्य ही दै ।) दिव्य 
कथा वस्तु का उदाहरण जैसे कुमारसम्भव; मत्यै का उदाहरण जैसे रघुवंश । 
इसी प्रकार अन्य भेदो के भी उदाहरणों को समना चाहिये । 


इतिचृत्त के फल 


कायं त्रिवगस्तच्छुद्ध मेकानेकानुवन्धि च ॥१६॥ 

[उस इंतिवत्त का फल त्रिवगं सिद्ध ह । वह॒ तीन प्रकार का होता है या 
तो एकानुवन्धि या अनेकानुवन्धि ।| 

नाव्यका फल होता हे धम अथं अओौर काम इन तीनों वर्गों को सिद 
करना । इन तीनों मे यातो कोई एकं ही शद्ध प्रयोजन होता है या कोई मिक्ञे 
हये दो फल होते हँ या तीनों ही मिले फल होते हैँ । इस प्रकार फल के भी 
तीन भेद्‌ हो जाते ह- एकानुवन्धि, + द्वयनुवन्धि अर त्र्यजुवन्धि । नाव्य-शाख्र 
की भाषा मे इतिवृत्त के फल को कार्यं कहते ह । 








फल साधन की प्रक्रिया 
स्वल्पोदृष्टस्तु तद्धेतुर्बौजं विस्तार्यनेकधा । 

[काय को सिद्ध करनेवाला जो हेतु प्रारम्भ म बहुत ही | मे 
निदिष्ट किया गया हो रौर जिसका नाव्य के अग्रीय भाग .म अनेक प्रकार से 
विस्लार होनेवाला हो उसे बीज कहते है ।] 

जिस प्रकार बीज प्रारम्भ म बहुत छोटा होता दहै। अौर वाद म विस्तृत 
होकर वृक्का रूप धारण कर ज्ञेता है उसी प्रकार नाव्य बीजभी प्रारम्भ मँ 
बहुत संतप्त होता है किन्तु बाद्‌ मे अनेक भकारसे विस्तृत होकर नाटक 
हेत्यादि का रूप धारण कर लेता है । तते रल्लावली मे वत्सराज का रावली 
की प्राति मेहतु है दैव की अनुकूलता के साथ यौगन्धरायण का कार्यं व्यापार 
जो कि विष्कम्भके ही बीज रूप मँ रख दिया गया है--अभिञुख विधाता 
दूसरे दीप से भी महासागर के मध्यसे भी ओर दिशां के दोर से भी अभीष्ट 
वस्तु कोले आकर शीघ्र ही संघटित कर देता है। यहाँ से लेकर--“यौगन्ध- 
राय ण--यद्यपि यह कायं स्वामी की वृद्धिकेलियिही प्रारम्भ किया गयाहै 
ञ्नीर देवने भी इसमे अपने हाथ का सहारा दे दिया है, यह सच है कि इसके 
सिद्ध होने मेँ कोई सन्देह नहीं है; किन्तु फिर भी बिना स्वामी की अनुमति 
लिए अपनी इच्छासेही सारा कायै कर उठानेके कारणम स्वामीसे डर हीं 
रहा हूँ । य्ह तक नाव्य बीज का निर्दश कर दिया गया हे। 

अथवा दूसरा उदाहरण जैसे वेणी संहार मेँ द्रौपदी के केश संयमन के लिए 
उत्पन्न होनेवाले भीम केक्रोधसे बढ़ा हुश्च युधिष्टिर का उत्साह दही नाव्यका 
वीज है जिसका उद्ञेख नाव्यके प्रारम्भे ही कर दिया गयादहै। इस बीज के 
कदे एक भेद होते है जैसे महाकायं का बीज अवान्तर कायै का बीज इत्यादि । 
अवान्तर कायं के बीज को विदु भी कहते है । 

विदु की परिभाषा यह है :-- 

अवान्तराथे विच्छेदे विन्दुरच्छेद्‌ कारणम्‌ ॥१५॥ 

[जहां प्र अवान्तर अथ॑ का विच्छेद हो गया हो वहां पर जो हेतु अवि- 
च्छेद मँ कारण होता है अर्थात्‌ कथावस्तु को आगे बढाता है उसदहेतुकोर्विढु 
कहते हैँ ।| 

जैसे रत्नावली मे अनङ्ग-- पूजा एक अवान्तर प्रयोजन है । उसके समाक 
हो जाने पर कथा के अथ॑॑विच्छेद्‌ हो जनेवाला था। उसी समय वैत्तानिक 
लोगोंने चंदर वणंन करते हश्‌ कहा --"यह राजसमूह चंदकिरणों के समान 
उद्यन के चरणों की प्रतीक्ता कर रहा है । सागरिक--(सुनकर) च्यायेवेही 





# 


| ( श ) 
| महाराज उद्यन हँ जिनके लिए पिताजी ने सुक्को प्रदान किया हे । इत्यादि | 
| इस प्रकार चद्र वणेन मे महाराज उद्यन का नामल्ञे लेने से सागरिका के चित्त + 


म उद्यन के प्रति प्रेम उत्पन्न हो जाता है ओर सागरिका ओर उद्यन कै प्रेम 
| का बीजीरोपण हो जातादहे। इससे कथा आगेको बदु जातीहै। यही विदु 
| कहलाता है । जिस अकार तैल विदु जल मेँ फैल जाता है उसी प्रकार नाव्य- 
| विहु भी अभिम कथा-भागमें ैलता चला जाताहे। इसीलिए इसे विन्दु 
| कहते हे । 

| अथं प्रकृतियों का उपहार 


| ऊपर प्र सङ्गवश पताका इत्यादि का उज्ञेख बिना क्रमकेदही किया गया हे। 
यहो पर क्रमपूर्व॑क उनका उपसंहार किया जा रहा है :-- 
| बीज विन्दु पताकाख्य प्रकरी कायेलद्धणाः। 
| अथे प्रकृतयः पच्चता एताः परिकीर्तिताः ॥१८॥ 
| [ये बीज विदु पताका प्रकरी ओर काये , नामवाली ये पांच अथै प्रकृति 
बतला गह हँ । उस सभी के उपर ल्ण भी दे दिया गया है ।] 

अथं प्रकृति शब्द का अथं हे प्रयोजन की सिद्धि में देतु अथ-प्रयोजनः प्रकृति- 
सिद्धिम हेतु। आधिकारिक कथा-वस्तु के निर्वाह मे जिन तत्वों से सहायता 
मिलती दै उन्दं अथं प्रकृति कहते हैँ । बीज के द्वारा आधिकारिक कथा-वस्तु के ` 
उद्गम मेँ सहायता मिलती हे, विदु से विच्छिन्न कथा-वस्तु को आगे बढ़ाया हे; 
पताका ओर प्रकरी इन दोनों अथं प्रकृतियों के आधार पर प्रासङ्गिकं कथा-वस्तु 
के द्वारा मुख्य कथा-वस्तु का उपकार क्रिया जाता है ओभौर काय॑ (फल) के आधार 
पर कथा-वस्तु का उपसंहार क्रिया जातादहै। इस प्रकार येर्पाच र्थं प्रकृति 
आधिकारिक इतिवत्त के विकास मे सहायक होती है । च 


कायावस्था 


जव साधक धर्म, अथ, काम इन तीनों की अथवा इनमें किली एक अथवा किन्हीं 
दोकीप्रा्षिकी चेष्टा करता है उस समय उसके समस्त क्रिया कलापो म एक 
निश्चित क्रम रहा करता है । पहले साधक किसी फल की भ्रास्ति के लिए दद्‌ निश्चय 
करता है; जब उसे फल प्राप्ति सुगमतापूवंक होती हुई दटिगत नहीं होती तव वह 
बड़ी ही तीता के साथ कायम लग जाता है; मागं म विन्न भी उपस्थित होते ~ 
|. हैँ, उनके भरतिकार के लिए प्रयत्न किया जाता है उस समय साध्य सिद्धि दोनों 
|  ओरकी खींचातानी मे पडकर संदिग्ध दहो जाती दहै; धीरे-धीरे विघ्ोंका नाश 
| होने लगता है ओर फल प्राति निरिचत हो जाती है ओर श्रत मे समस्त फल 


त जा कहि क 


~ जकन ~ 





( १५ ) 


 ्ा्ठहो जाता है । यही कायं कौ अवस्था का करम हृश्आा करता है । इस यकार 
 कायौवस्था पांच भागों मे विभाजित की जाती है । उनके नामयेहें;- 
अवस्थाः पच्च कायस्य प्रारब्धस्य फलाथिभिः। 
आरम्भ यत्नप्राप्त्याशा नियतापि फलागमाः ॥१९॥ 

[फल चाहनेवालों के द्वारा प्रारम्भ क्यिहुए कायं कर्पा अवस्था 
होती हँ (५) आरम्भ, (२) यत्न, (३) प्रत्याशा, (४)°नियतास्ि ओर (९) 
फलागम ।| 

(१) इनके करमशः लक्षण ये हैँ :-- 

श्ओत्सुक्यमात्रमारम्भः फललाभाय भूयसे । 


[बहुत बड़ फल की भ्रासि के लिए जहां केवल उत्कण्ठा ही होती है उसे 
आरम्भ कहते हें ।] | 

आशय यह हे जहाँ पर में यह कायै करेगा । इस प्रकार अध्यवसाय ही 
विद्यमान होता है वह प्रयत के रूप मे परिणत नहीं होता तब काय॑॑की उस 
अवस्था को आरम्भ कहते हे ¦ जैसे रत्नावली मँ वत्सराज उद्यन की विद्धि सचि- 
वायत्त हे । वहां पर उनके काय का प्रारम्भ उनके सचिव यौगन्धरायण के सुख 
से दिखला दिया गया है -- “यह कां स्वामी की बृद्धि के लिए ही भरारम्भ किया 
गया है ओर दैव भौ इसमें सहारा दे रहा है ।' इत्यादि । यहाँ पर फल प्रापि 
के लिए उक्कर्ठा ओर अध्यवसाय की ही सत्ता है अभी तक प्रय का प्रारम्भ 
नहीं हु्रा है । अतएव कायै का इस अवस्था को आरम्भ कहते है । 

(२) प्रयल्न का लक्षण यह है :-- 

प्रयत्नस्तु तद्प्राप्रौ व्यापारोऽतित्वरान्वितः ॥२०॥ 

[फल के प्राक्च न होने पर अस्यत शीघ्रता के साथ जो कायै किया जाता है 
उसे प्रयल्ञ कते हँ ।] 

जब फल सरलतापूवंक भश्च नहीं हो सकता है तव अत्यंत शीघ्रता कै 
साथ उसमे उपाय की ` योजना की जाती है। उस विशेष प्रकार की उपाय 
संयोजन रूप चेष्टा को प्रयत कहते हे । जैसे रलावली मेँ अनङ्ग-पूजन के अवसर 
पर सागरिका वर्सराज के दशन कर चुकी है ओर उसके अंतःकरण मे उत्कर 
अनुराग जागत हो चुका है । किंतु उसे कोई सरलतापूर्वक उदयन का समागम 
सुलभ प्रतीत नहीं होता । अतएव बह उदयन का चिन्न बनाती हे अर उसके 
द्वारा अपनी दशंनाभिलाषा को शांत करना चाहती है--““तथापि दशन का कोई 
दूसरा उपाय नहीं है अतएव जैसे-तेसे चित्र बनाकर ्रपना अभीष्ट प्राक्त करगी |” 
बाद्‌ म वही चित्र दोनों के समागम मेँ निमित्त हदोताहै। इस प्रकारे प्रथम 











( € ) 
अव्रस्था को उत्कण्ठा भ्यापौरं से संयुक्त होकर द्वितीय अरथा मे प्रयज कौ रूप 
धारण कर लेती ह ।. | 

(३) प्राष्स्याशा का लक्षण :-- 

"उपायापाय शङ्काम्यां प्राप्त्याशा प्राप्रि सम्भवः !' 

[जहां पर परासि की सम्भावना उपाय श्चौर विच्च शङ्का इन दोनों से आक्रांत 
दो उसे प्राप्त्याशा कहते हें ।] | 

जहां पर उपाय भी विद्यमान हो ओर विघ्र की शङ्का भो विद्यमान हो तथा 
इन्दी दोनों की खीचातानी म फल प्रासि फे निरचय का निर्धारण न किया जा 
सके उस अवस्था को प्राप्त्याशा कहते हँ । जैसे रत्ावली के तीसरे अङ्क मेँ वेष 
परि-वतंन ओर अभिखरण इत्यादि समागम के उपाय विद्यमान हे ओर साथ जं 
दी. वासवदत्ता रूपी विष्न की आशङ्का भी विद्यमान है । “राजा सागरिका का 
आकस्मिक समागम तो अनभ्र बृष्टि के समान है । विदूषक --यह है तो ेसा 
ही यदि कीं अकाल वातावली के समान देवी वासवदत्ता अन्यथा न कर दे |” 
इत्यादि मेँ उपाय रौर अपाय-शङ्का इन दोनों की सत्ता दिखलाई गर हे । 


इससे सागरिका के समागम की फल प्रासि सन्दिग्ध हो जाती है । कायं की इस 
अवस्था को प्राप्त्याशा कहते हैँ । 


(४) नियतासि का लक्षण :-- 
अपायाभावतः प्रापि्नियताप्निः सुनिश्चिता।॥२१॥ 
[अपाय केन होने के कारण जहाँ पर फल थ।सि पूर्णरूप से निरिचत हो 
उसे नियतासि कहते हें ।] 
जेते--'विदृषक-सागरिका का जीवन दुष्कर हो जावेगा ।› इख उपक्रम के 
साथ 'उपाय क्यों नहीं सोचते ।' यह कहकर वाद्‌ मे “राजा ने कहा--्ह 
भित्र देवी को प्रसन्न करने से भिन्न ओर कोद उपाय ही सुमे नहीं दिखाई देता । 
यह कथन अभ्रिम कथानक का बिन्दु है । सागरिका ओर राजा के समागम मँ 
सबसे. बड़ा विध्न वासवदत्ता ह । वासवदत्ता कों मनाकर वि्न-निवारश की 
सम्भावना उत्पन्न हो गद ह जिससे फल प्राति भी निरिचत्‌ हो गद है । अतएव 
यहां पर नियतास्ि नामकं कायं की अवस्था है । 
(५) फलागम का लक्तण :-- 
समग्रफलसम्पत्तिः फलयोगो यथोदितः 
[जैसा फल अभीष्ट हो उसका पूणं रूप से प्राप हो जाना फलयोग या 
फलागम कहलाता है || | 


जेसे रत्नावली मँ रतावली की प्राति ्नौर चक्रवतित्व को परासि फलागम 
नामक अवस्था के ्न्तगेत आती हें । 





(८ & ) 


सन्धि-परिचय 
ऊपर पांच अथै प्रकृतियों ओर पाच कायं की अवस्थान्नों का वर्णन किया 
जा चुका ह । इमके क्रमिक संयोग से पांच सन्धियों का जन्म होता है । सन्धि 
शब्द्‌ का अथ है सन्धान करना या ठीकरूपने लाना। किसी कथानक का 
टीकरूपमे निवह करने के लिपु उसको भागों मे विभक्त कर जेना चाहिए । 
ष कथानकका सन्धान दीक रूप मंँहोजातादहै। सन्धिका लक्तण 
यह है :-- 
अथं प्रकृतयः पच्र पच्वावस्थासमन्विताः ॥२२॥ 
यथासंख्येन जायन्ते मुखाद्याः पच्च सन्धयः.॥ 
[पांच प्रकार की अथं प्रकृतियों का करमशः पाँच प्रकार की अवस्थां से 
समन्वय होने पर मुख इत्यादि पाँच सन्धिं उत्पन्न होती हैँ ।] 
सन्धि का सामान्य लक्षण यह है :-- 
अन्तरेकाथंसम्बन्धः सन्धिरेकान्वये सति ॥२३॥ 
[एक ही मे अन्वय होने पर एक अवान्तर अथं के साथ सम्बन्ध होना 
सन्धि कहलाता हे ।] 
शक नाटक मे कद्र एक कथांश होते हँ । उन कथांशों के प्रयोजन भी प्रथक- 
पथक्‌ हुञ्रा करते हैँ । एक ही प्रयोजन से जहाँ कई एक कथांश परस्पर अन्वित 
हों वहां पर उन कर्थांशों का उस अवान्तर प्रयोजन सम्बन्ध होना ही संधि 
कहलाता हे । 
संधियों के नाम येह :-- 
मुखप्रतिमुखे गभः सावमर्शोपसंहतिः। 
[खख, भरतिञुख, गर्भ, अवमशं श्नौर उपसंहृति ये पांच संधि होती हें । ] 
बीज, विदु, पताका, मकरी ओओर कायं इन पांच अथं मरकृतियों का जब. 
क्रमशः आरम्भ, यल्ल, मत्याशा, नियताक्चि ओर फलागम इन पाच कायं की 
्रवस्थाश्नों से संयोग होता ै तव क्रमशः सुख, पतिुख, गर्भ, अवमर्शं रौर 
निर्वहण नामक्‌ पाँच संधियां बनती हँ । नाव्यशाख मे लिखा दै कियेरपाँच 
संधियांँ मुख्य होती हैँ । इनके अतिरिक्त २१ पकार की अन्य संधियों का भी 
वहां षर उर्जेख किया गया है । किंतु वे संधिर्याँ इन्हीं पाच संधियों के आधीन 
रहती है रौर इन्दी की सहायक होकर आती है । इन संधियों म मल्येक के 
अनेक अंग भी होतेह। शाख्रकारों कामतदहै क इन संधि ओर संध्यज्ों से 
कथानक के निर्वाह करने मे सहायता ज्ञेनौ चादिए्‌ । यदि इनसे कथानक का 
नि्वाह"्टीकरूप मेहोजाता दोतो इनका प्रयोग अविकल रूपम करना 


र 











(८ श्= ) 


चाहिए । किंतु यदि इनसे कथानक मे भ्याघात उपस्थित हो तो इन संधियों के 
प्रयोग म यथा स्थान परिवत॑न या परित्याग कर क्तेना चाहिए । इनका निर्वाह 
शाख मर्यादा-पालन की दृष्टि से कभी नहीं करना चाहि९। नाव्यशास्त्र मे अव- 
मा के लिए विमर्श अर उपसंहृति ऊ लिए निर्वंहरण शब्द्‌ का प्रयोग किया 
गया है । शाख का नियम ह कि जह पर पाचों संधिं मे किसी एक संधि का 
दोढना अभीष्ट हो वहौँ गम संधि को छोड़ देना चाहिए । अर्थात्‌ वहां पर 
आरम्भ अर प्रय दिखलाकर सफलता की आशा दिखलानी चादिषु ओर उसके 
बाद फल भि दिखलरा देनी चादिए । यदि दो संधियों का छोडना अभीष्ट 
हो तो गभ॑ अर विमर्शं को छोड देना चाहिए ओर आरम्भ तथा प्रयल दिखला- 
कर तत्काल फल प्रासि दिखला देनी चाहिए । यदि तीन सन्धियों का 
परित्याग करना हो तो प्रति मुख गभं अर विमशं को छोडना चाहिए अथात्‌ 
आरम्भ के बाद्‌ एकदम फल प्रा दिखला देनी चाहिये । कवि को चाहिये कि 
सर्वदा रस-परतंत्र ही रहे । रस का विचार छोडकर कभी भी सन्धि भ्नौर सन्धि 
के अङ्गो का सङ्कटन न करे। 


एुखशषन्धि शौर उसके भेद 
सुखसन्धि का लक्तण यह हे :-- 
मुखंबीजसमुखत्तिर्नानाथैरससं भवा ॥२४॥ 
अङ्गानि द्वाद शैतस्यवबीजारम्भ समन्वयात्‌ । 

[जहां पर नाना अथे ओरं रस को उत्पन्न करनेवाली बीज नामक प्रथम 
थं प्रकृति की उत्पत्ति हो उसे मुख सन्धि कहते हँ । वीज ओर ्रारम्भ के 
समन्वय से उख मुख सन्धि के बारह मेद्‌ होतेहं।] 

वीजोत्पत्ति नाना प्रकार के अर्थौ यौर नाना प्रकार के रसों के उत्पन्न करने 
म प्रथक्‌ -पथक्‌ कारण हुञ्ा करती है । अर्थं से नाना प्रकार के. प्रयोजनों कां 
उदानं हो जाता है । आशय यह है कि वीजोत्पत्ति धम, अथं ओर काम इनं 
तीनों प्रयोजनों मे किसी एक दौ अथवा तीनों की उत्पन्न करनेवाली होनी 
चाहिये या केवल रसो की उन्न करनेवाली होनी चाहिये अथवा अथं अयौ 
रस इन दोनों की उत्पन्न करनेवाली होनी चाहिये । यह अनिवार्य नहीं है किं 
मयोजन ओर रस दोनों की उस्यत्ति प्रस्येक स्थान पर अवश्य हो। प्रहसन 
इत्यादि मे ध्म, अथं ओर काम इन तीनों प्रयोजनों मेँ एक भी नहीं होता; वहाँ 
पर वीजोत्पत्ति केवल हास्य रस मेँहीहेतु हुआ करती है । वहां पर भी सुख 
सन्धि कही ही जाती है; यदि प्रयोजन नौर रस दोनों की हेतंता अनिवाय॑ होती 
तो वहां पर मुख-सन्धि कही ही न जाती अतएव किसी एक की ही हेतुता अनि- 
वाय है दोनों की नहीं । 


( ‹द्् 


मुख सन्धि के बारह शङ्खो केनामयेहैं:-- 
उपत्तेपः, परिकरः, परिन्यासोविलोभनम्‌ ।॥२५॥ 
उक्तिः प्राप्तिः समाधानं विधानं परिभावना । 
उद्भ द्‌ भेद करणान्यन्वथाँन्यथलन्तणम्‌ ॥२६॥ 
[उपक्तेप इत्यादि सुखसन्धि के १२ अङ्ग होते हँ । इनके नाम से ही इनका 
लक्तण प्रगट हो जाता है । फिर भी सुगमता की दष्टिसे इनके लक्णए बनाये 
जा रहे हैँ ।] 
(१) उपकेप-- 





व जन्यास उपक्षेप 


[नाव्य द्वीज को स्पष्ट शब्दों म रख देने को ,उपततेप कहते हे ।] उपकतेप 
शब्द्‌ का अथ है रख देना । 

से रत्नावली मँ दैव की अनुकूलता रौर यौगन्धरायण का व्यापार ही 
नाव्य-बीज है । इसको नाव्य के प्रारम्भमें ही यौगन्धरायण के मुख से कहला 
दिया गया है :- ; ० ¦ 


दरीपानन्यस्मादपि, मध्यादपि जलनिषेदिशोऽप्यन्तात्‌ । 
त्रानीय फटिति षटयाति विधिरभिमतमभिमुखीभूतः ॥ 


“अनुकूलता दैव को भ्रा्र होनेवाला दैव दूसरे द्वीपां से भी, समुद्र के मध्य 
से भी नौर दिशाओं के द्योर से मी अभीष्ट वस्तु फो लाकर शीघ्र ही सञ्घटित 
कर'देता है । 

यहाँ पर यौगन्धरायण ने वत्सराज के ` द्वारा रावली ;की प्राि मेहेतु 
भूत दैव की अनुकूलता रौर अपने व्यापार को वीज के रूपमे उपर्तिक्च कर 
दिया है । इसीलिये यहां पर उख सन्धि का उपत्तेप नामक अङ्ग है । 

(२) परिकर :-- 


तद्वाहल्यं परिक्रिया 


[वीज की बहुलता को परिकर कहते हँ ।] 

से रत्नावली मे उपयुक्त वीजोपन्यास के बाद म लिखा है “नही-- 
तो यह कैसे हो सकत था .कि सिद्धो की भविष्यवाणी पर विश्वास 
करके ने निस सिहलराज की पुत्री की प्राथैना अपने स्वामी के लियेकीथी, 
जहाज कै टूट जाने पर, समुद्र मँ उसके इव कर उद्धलने पर एकं तख्ता मास हो 
जाता छर यह भी कैसे हो सकता था किं कौशाम्बी का व्यापारी सिहल से 
लौटते हये उसकी उख दशा मे रक्ता करता ओर रलमाला के द्वारा पहिचान 











ऋ. 


कर यहाँ ले आता । (प्रसन्नता-पूवक) अभ्युदय सवथा स्वामी का स्पशंकर रहे 
ह (विचार कर) । इत्यादि । 

यहाँ पर दैव की अनुकूलता अओभौर यौगन्धरायण के व्यापार रूप वीज को 
ही अधिक बढ़ाकर कहा गया हे । 

(३) परिन्यास :-- 


‹ तन्निष्पत्तिः परिन्यासः- 

[जिस वीजोत्पत्ति को बढ़ाकर कहा गया था उसकी दी सिद्धि परिन्यास 
कहलाती है ।| 

जैसे रलावली मे ही लिखा है :- 

प्रारम्भेऽस्मिन्‌ स्याभिनोवृद्धि हेतौ । दैवे चेथंदत्त दस्तावलम्बे 

सिद्धे भ्रान्तिनांस्ति सत्यं तथापिस्व॑च्छाचारी भीतपएवास्मिमतुः ॥ 

"यह कार्यं मेने एेसा मरारम्भ कियादहैजो स्वामी कीब्द्धिमेंदहेतु रै ओर 
देव भी इसमे इस मकार सहारा दे रहा है। इस प्रकार यह सच है किस 
कायै की सिद्धि नें कचं भीं संदेहे नहीं है । किंतु रिरि भी स्वामी की अनुजति के 
बिना मैने जो स्वेच्छापूर्वकं आचरण किया है उससेमे स्वामी से डरदही 
रहा हू ' 

यर्म पर वीज का उपसंहार किया गया है रौर यौगंधरायण के स्यापार 
तथा दैव की सहायता की आशा प्रगट की गदं है । अतएव यहाँ पर परिम्यास 
नाम का मुखाङ्ग है । । 


(४) विलोभन :-- 


णा स्यानं विलोभनम्‌ ॥२७॥ ` 
[गुणो के वणन करने को विलोभन कहते हँ ।] 
जैसे : लावली ञे वैतालिक ने चंदर ञ्रौर उद्यन के गुणों का एक साथ इस प्रकार 
वंन किया हे :-- 
श्रास्तापास्त समस्तभासि नभसपारं प्रयातेरवा- 
वास्थानीं समये समं वरपंजनः सायन्तने सम्पतन्‌ ॥ 
सम्प्रत्येषं  सरोरदयुतरिसुषः पादांस्तवासेवितुम्‌ । 
प्री्युत्कषे कृतो दशामुदी यनस्येरिवोदीक्ञते ॥ 
इस शाम के समयमे सूर्य आकाश के पार पहु गया है मौर उसकी 
सारी दीकषि अस्ताचल ने छीन ली है। इस समय सारा राज-समूह एक खाथ 
सभ. भवन की ओर शीप्रता-पूर्वक बढता चला आ रहा है । वह राज-समूह 
आप उदयन के उन चरशणोंकी सेवा करने की म्रतीक्ता कर रहा है जो अधने 





( ~ -क 


सौन्दर्य से कमलो की शोभा को नष्ट क्रमे बाते है नौर जो उन राजां के 
अन्तःकरण में प्रेम के उत्कर्षं को उत्पन्न करने वाजे है मानों वे कमलो की 
कान्ति का अपहरण करने वाले ओओौर हदय मेँ प्रेम के उत्कषै को उत्पन्न करने 
वाले चन्द्रं के चरणों (किरणों) के सेवन करने की प्रतीक्ञा कर रहे हों ।' 

यह पर वैतालिक ने चन्द्र के समान वत्सराज के गुणो का वणंन किया है 
जिसको सुनकर सागरिका के चित्त मे अनुराग का वीजारोपण हो गया है । 
यह अनुराग समागम कादहेतुहै। इस प्रकार अनुराग रूप बीज के अनुकूल 
ही सागरिका को वत्सराज के गुणों के प्रति लोभ दिलाया गया है! अतएव 
यह पर विलोभन नाम का सुखाङ्ग है । 

दूखरा उदाहरण जैसे वेण संहार मे भीमसेन कह रहे हे : - 

मन्थायस्ताणंवाम्भः प्लुत कुहर वलन्मन्दरध्वन धीरः, 

कोणाघातेषु गज॑त्लय धषनघटान्योन्य सङ्घट्टचणएडः । 

कृष्णक्रोधाग्रदूतः कुरुकुल निघनोत्पात निषांतवतः 

केनास्मस्सिह नाद प्रति रसित सरो दुम्दुभिस्ताड़ि तोऽयम्‌ ॥ 

भ्यह किसने मेरे सिंहनाद के गर्जन के समान दुन्दुभी को पीट दिया है ? 
यह दुन्दुभी क।¡ शब्द्‌ मन्थन के अवसर पर रिस्तीणं महासागर के जल मे 
विशाल गह्वरो मे घूमनेवाले मन्द्र पवत के भयानक शब्द्‌ के समान गम्भीर 
है; यह मलय काल मे गजंन करने वाली घनघोर षटाओं के एक दूसरे से टकराने 
के शब्द्‌ के समान प्रचर्ड है; यह द्रौपदी के क्रोध का अग्रदूत हे ओर कुर्वंश 


` विनाश के उत्पात मेँ निर्यात वायु के समान दहे 
यह से ज्ञेकर "यशो दुन्दुभिः तक द्रौपदी के विलोभन करनेके रण 


विलोभन नाम की सुख सन्धि है । 

(५) युक्ति ; -- 

सम्प्रधारणम्थानां युक्तिः- ` 

[अर्थो' के सम्भ्रधारण को युक्ति कहते ह । एक ही स्थान पर विभिन्न प्रयोजनों 
को संगृहीत करे कल को सम्भव कर देना युक्ति कहलाता हे ।| 

जैसे रस्नावली मे यौगन्धरायण कह रहे हँ --मेने भी बहुत अधिक आद्र 
के साथ देवी के हाथमे धरोहर के रूप मेँ रखकर उचित ही किया । सुना जाता 
है कि वाश्नभ्य नामका कञ्चुकी वसुभूति नामक सिहलेश्वर के मन्त्री के साथ 
से किसी न किसी अ्रकार समुद्र को पार करके कोशल नरेश उच्ेदन के लिये 
हुये रुमण्वान्‌ मिलगया है ।' ` 

यहाँ प्र वास्तविक प्रयोजन है उदयन श्चौर रत्नावली मं प्रेम उत्पन्न करना । 
यह तभी सम्भव है जब किं रत्नावली शओओौर राजा का पैरस्पर साक्तात्कार हो जावे 





। 
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3 


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= २२ ) 


ओर राजाको यह ज्ञात हो जावे कि रत्नावली सिहलेश्वरकी पुच्री है तथा 
सिंहेश्वर ने विवाह के लिये उदयन के पास उसको भेजा है । अन्तभ्पुर में 
रहने पर राजा श्रौर॒रः्नावली का सा्तास्कार इष्यादि सुगमतापूवैक हो सकता 
है ओर उदुयन के कञ्चुरी वाञ्नव्य तथा सिहल्ञेश्वर के अभात्य वसुभूति के मिल 
जाने से यह भी सम्भव हो गया है कि सिहलञेश्वर अर उदयन मे सम्पकं स्था- 
पिितिहो जवे। इस प्रकार प्रयोजनों के सम्प्रधारण के कारण यहां पर युक्ति 
नाम का सुखाङ्ग हे । 
(६) प्रि :- 
प्राप्तिः सुखागमः 
[सुख के प्राक्च हो जाने को भरासिकहते हैँ ।] 
जसे वेणी-संहार मेँ--"चेटी- हे स्वामिनि ! कमार कुपित से प्रतीत हो 
रहे हैँ । इस उपक्रम के साथ लिखा है-“भीम : ~. 
मथूमि कौरवशतं समरे न कोपा- 
दुश्शासनस्य रुधिरंन वपिवाम्युरस्तः । 
सञ्चुणंयामि गदया न सुयोधनोरू, 
सन्धि करोतु भवतां व्रपतिः पेन ॥ 
यह कैसे सम्भव है कि मेक्रोधके साथ सौ कौरवो कोयुदधमेन मधू; 
छाती से दुश्शासन का रक्तन पील; गदा से दुर्योधन की उरू को चूणं न 
करूं । आप लोगों के ( सहदेव इत्यादि के ) राजा मूल्य पर॒ सन्धि करं । ( मै 
युधिष्ठर को राजा नहीं मानता नमे उनकीकी हृद सन्धिको ही स्वीकार 
करूंगा । मं अपनी उन प्रतिक्ञाश्नों को अवश्य पूरा करूंगा )। 


(द्रौपदी -- (सुनकर सहषं) हे नाथ ये वचन मेने पहले कभी नहीं सुने थे । 
अतएव इन्दं पुनः पुनः कहो । 

यहाँ पर भीमसेन के क्रोध रूप बीज के सम्बन्धसेदहीं द्रौपदी को सुख 
परार हु है । अतएव यहां पर प्राक्ि नामक सुखाङ्ग है । 

दूसरा उदाहरण-- जैसे रत्नावली मे - 'सागरिका-- (सुनकर श्नौर घूमकर) 
क्या यह वही राजा उद्यन हें जिनके लिये पिताजी ने सुभे प्रदान किया है। 
अतएव दृखरे की सेवा करने के कारण दूषित भी मेरा जीवन इनके दशन से 
बहुत अधिक आदृरणीय हो गया है ।' 

यहा पर सागरिका को सुख की प्राति हद ह । अतएव यहाँ पर सुखागम 
नाम का सुखाङ्ग है । 

(७) समाधान :- 











५, 


वीजगमः समाधानम्‌ - 
[ वीज के आगमन को समाधान कहते हँ ] समाधान का अथ है सम्पक्‌ 
आधाया वीज का ठीक रूपमे स्थापित करना। 
जैवे रत्नावली मे--"वासवदत्ता--तो फिर मेरे पास सामग्री ले आया । 
सागरिका - हे स्वामिनी ! सब तैयार है ।' वासवदत्ता-( समस्छकर मन मे ) 
परिजनों के प्रमाद पर आश्चर्य है । जिसके लिये म यत्न पूवंक चेष्टा कौ जाती 
हे कि कीं स।गरिका राजा उद्यन की निगाह मेँ न पड जावे उन्हीं के सामने 
यह्‌ कैसे चा गई ? अच्छा इस प्रकार कं --(भ्रगट रूप मे) अरे सागरिका 
श्राज इस मटनमहोरसव मे सभी परिजन काम मेँ लग रहे हैँ तब तुम सारिका 
को छोडकर यहाँ कैसे चली आद ? जाश्नो वहीं रहो ।' इस उपक्रम के वाद्‌ 
(सागरिका (मन्म) सारिकाकोतो मैने सुसङ्गता केहाथ मे सौपदियाहै। 
अव सुभे उत्सव का कत्ल देखना ही है । अतएव अलक्त होकर देख ।' 
यहाँ पर वासवदत्ता महाराज उद्यन के सामने पड़ने से सागरिका को 
बचाने की चेष्टा कर रही है । किन्तु सागरिका ने सुसङ्गता के हाथमे सारिका 
को सोप दिया है ओर अदृश्य होकर उत्सव देखने का आयोजन कर रही है । 
इससे वस्वराज के समागम के बीज श्मौससुक्य का उपादान कर दिया गया हे । 
अतएव यर्हा पर समाधान नामक सुखाङ्ग है ।. 
दूसरा उदाहरण--जैसे वेणी संहार म लिखा हे -भीम-अच्छा पाञ्चाल 
राजपुत्रि सुनो-- बहुत थोड़े ही समय मेँ ।यह होगा :-- | 
"चच्वद्न रमित चण्डगदाभिघात, सशचूरणितोरुगुगलस्य सुयोधनस्य । 
स्त्यानावनद्ध घन शोणितशोणपाणि सत्तंसपिष्यीत असनि 
; ॥ 
हे देवि ! चञ्चल भुजाओं से धुमाये हृए प्रचंड गदा के अभिघात से सुयो- 
धन के दोनों उर्ञरं को चूं करके गीन्ञे लिपटे हष गादे खून से लाल 
हार्थोवाला यह भीम तुम्हारे बालो को बिगा ।' 
यां प्र वेणी संहार मेँ हेतु क्रोध रूपी बीज के पुनः उल्लेख कर देने से 
समाधान नामक मुख-संधि का श्ंग है । 
(८) विधान :- | 
विधानं सुखदुःखट़त ॥२८॥ 
[जो सुख रौर दुःख दोनों उसपन्न करनेवाला हो उसे विधान कहते है ।] 
्ेसे मालती माधव के प्रथम अंग मे माधव कह रहे हैँ :-- 
यान्त्या सुहवेलितकन्धरमाननं त - 
दावृत्तवृत्तशतपत्र निभं वहन्त्या, 








( रे ) 


दिग्थोऽम्रतेन च विषेण च पदमलादया, 
गाढं निखात इव में हृदये कटाक्ञः । 
जिस समय मालती जा रही थी उसने धीरे से अपने कन्धे को खुकाकर 

मेरी ओर देखा । उस समय उसका मुख ेसा शोभित -हो रहा था जैसे मानों 
खी इदं नालवाला शतपत्र का सुन्दर एूल हो । उस समय सुन्दर पएषमो से 
युक्त नेत्रोंवाली उस मालती ने मानों अश्रूत ओरविष से इुफा हु्रा कटाक 
रूपी बाणं मेरे हृदय मेँ बडी गहराई से गाड द्विया । 

यद्विस्मय स्तिमितमस्तभितान्य भाव- 

मानन्द्मनंममृत प्लवना दिवाभूत्‌ । 

तत्सन्निधौ तदधुना हृदयंमदीय- 

मङ्गार चुम्बितमिवन्य थमान मास्ते॥ 


“जो मेरा हृदय उस मालती के निकट विस्मय से जकड़ जाता था, जिसमें 
सारे अन्य भाव तिरोहित हो जाया करतेथे ओर जो आनन्द मे इतना भर 
जाया करता था कि उसकी सम्पूणं चृत्ति शिथिल पड़ जाती थी, उस समय रेखा 
प्रतीत होने लगता था मानों वह हृदय इस समय हमारे ज्येष्ठ यधिष्ठर क्या 
अश्रुत के सरोवर मे तेरनेलगादहो। आज इस समय वही मेरा हृदय इतना 
धिक व्यथित हो रहा है जैसे मानों चारों ओर से अंगारों ने उसका स्पशं कर 
लिया दहो। 

यहां पर मालती के अवलोकन से माधव के हदय मँ अनुराग उप॑ हरा 
ह । यह अनुराग समागम रूप वीज का देतु है। इस प्रकार वीज के गुरो के 
अनुकूलं ही अनुराग माधव के हृदय में सुख श्रौर दुःख को उत्पन्न कर रहा हे । 
अतएव य्ह पर सुख संधि का विधान नामक अंगदहे। 

दूसरा उदाहरण जके वेणी संहार मे-- 

द्ौपद्रौ- -हे नाथ ! क्या फिर भी आकर आप हमे इसी पकार आश्वासन 
द्गे ? 

भीम--हे पाञ्चालं राज पुत्रि! क्या ्राज भी इन रटे आरवासनों की 
आवश्यकता बनी ही हुदै है ? 

भूयः परिभवक्तान्ति लञ्जाविधुरिताननम्‌ । 
अनिः शेषितकोख्यं न पश्यसि वृकोदरम्‌ ॥ 
अब इसके वाद्‌ तुम भीम को एेसी दशा . मे नहीं देखोगी जव कि निरंतर 
पराभव के दुःख ओर लञजा से उसका मुख मलीन हो रहा हो भौर उसने 
कोरवों का समूल नाशन कर दिया हो) 








(८ २- 
सं्ाम सुख ओओौर दुःख दोनों को उत्पन्न करनेवाला होता है । यर्हा पर 
भीम संभ्राम के लिये प्रस्थान कर रहे हँ । अतएव यहाँ पर विधान नाम की 
मुख-संधि है । 
(8) परिभावना :-- 
परिभावोऽद्भ. तावेशः। 
[विचित्र प्रकार के अवेश मेँ पड़ जाने को परिभावना कहते हे ।] 
ज्ञेसे रल्रावली मे --सागरिका--(देखकर विस्मय के साथ) क्या प्रव्यक्त ही 
कामदेव पूजा को स्वीकार कर रहा,है । मैं भी यहीं स्थित होकर ईनकी पूजा 
करूंगी । 
यहाँ पर वत्सराज को कामदेव के रूप म अपहुत किया हे नौर कामदेव .के 
व्यत्त पूजन स्वीकार करने मँ एक लोको त्तर विलक्षणता ह । अतएव अद्‌भुत 
रस के आवेश के कारण यहां पर परिभावना नामक सुख-संधि हे । 
दूखरा उदाहरण जैसे वेणी संहार --्रौपदी --इस समय यह कैसी प्रलय 
कालीन जलधर के गन के समान उच्च शब्दवाली युद्ध की दुन्दु भी रण-हण 
पर पीटीजा रही है) 
यहाँ पर युद्ध की इन्दुभि के विस्मय रस के आवेश के कारणं द्रौपदी के 
लिये परिभावना नामक सुख-संधि हे । 
| ( १०) उद्भेद १--- 
उद्र दो गूढ भेदनम्‌ । 
[गुक्च बात के प्रगट कर देने को उद्धेद्‌ कहते हे ।] 
जेस रल्ावली वत्सराज कामदेव के नाम से चिषे हुए थे। वैतालिक ने 
'अस्तापास्त समस्तभासि' इत्यादि शलोक मे उद्यन का नाम ले लेने से उनको 
प्रगट कर दिया । इस प्रकार यहाँ पर रावली अ्नौर वत्सराज के समागम रूप 
बीज के अनुकल ही उदयन के स्वरूप का उद्धे दन हरा है । अतएव ` यहां पर 
उद्धेद नामक मुख-संधि है । 
दृ्षरा उदाहरण जैवे वेणी संहार म भीमसेव ने कञ्चुकी से पूष्वा है कि 
इस समय हमारे ज्ये माई युधिष्ठिर क्या करना चाईते है; कञ्चुकी उत्तर देता हे 
श्राप सब बाते स्वयं ही जान क्लेगे । उसी समय नेपथ्य म कहा जाता है :-- 
यत्षत्यवरतभङ्ग मीख्मनसा येन मन्दीकृतम्‌ । 
यद्विस्मतु 'यपीहितं शमवता शान्तिं कुलस्येच्छता ॥ 
तदयुतारणि सभ्भ्तं वरप सुता के शाम्बरा कर्षणः । 
क्रोधज्योति रिदं महत्कुरुवने यौ धिष्ठरं जम्भते ॥ 








( २६ ) 


कहं सत्यत्रत भङ्ग न हो जावे इस भय से भीत मन होकर युधिष्ठर ने 
जिस करोधाभ्नि की लपट को भ्रयत्नपुव॑क मन्द्‌, कर दिया था; शान्त शोल होने 
के कारण ऊुल की शान्ति की कामना करते हुए जिस जिसे भुला देने की भी 
इच्छा की थी, जो य॒त रूपी अरणियोँ के मन्थन से उत्पन्न हुदै थी रौर जो 
राजपुत्री दरौपदी के केश श्नौर वख खींचने से बहुत अधिक बृद्धि को प्रास्त हो 
गई वही युधिष्ठिर की करोधाभि की लपट इस समय विशाल रूवं रूपी वनः 
म म्दीक्षहो रही डे। 


भीमसेन - (सुनकर पसन्नतापूर्व॑क) अयं ! प्रदीक्च हो, खूब प्रदीप्त हो 
आयं की क्रोध की लपट; इस समय यह कहीं भी न रके ।' 
यहाँ पर द्रौपदी के केश संयमन के कारण उत्पन्न हुञ्चा युधिष्ठिर का भ्च्छत्र 
कोष उद्धिन्न हो गया है । इसीलिए यहाँ पर उद्धे द्‌ नामक सुखसन्धि का अङ्ग हे । 
(११) करण :-- 
करणं प्रकृतारम्भः- 
[पक्त के प्रारम्भ करने को करण कहते हँ ।| 


जैसे रस्नावली म सागरिका कह रही है - हे कुसुम बाण १ तम्हं नमस्कारं 
हो तुम्हारा दर्शन मेरे लिए अव्यथ होवे। जो इच सुमे देखना था वह देख 
लिया । अतएव जब तक जु कोद देख न पावे तब तक मै चली जाऊ । 

ञ्मभिम अङ्क मे उदयन चौर सागरिका की मेमलीला का वणन किया जाने- 
वाला है । यह पर किया हुञ्रा निवि दशन ही उम करण है । अतएव यहां 
पर करण नामक मुखसन्ध्यङ्ग हे । 

दूखरा उदाहरण जैसे वेणी-संहार मे 'भीमसेन- दे पाञ्चालि ! अब हम 
जा रहे हँ ऊर्वंश के विनाश के लिए । 

सहदेव--आयं ! हम भी जा रहे हैँ गुरुजनों की अनुमति लेकर पराक्रम 
के अनुरूप कायं करने के लिए । 

ञअभ्रिम अङ्क मेँ युद्ध प्रस्तुत करिया जानेवाला हे । उपयुक्त शब्दों के दवारा 
उसी के प्रारम्भ की सूचना दी गड है। अतएव यहां पर करण नामक सुखाङ्ग 
है । उपयुक्त उद्धरण म शब्द्‌ विन्यास इस प्रकार होना चादिए--{हम ऊरूवंश 
के विनाश के लिए जा रहे है ।' गुरुजनों की अनुमति लेकर हम भी पराक्रम के 
श्ननरूप कायं करने जा रहे हँ ।' ओर देसी दशा में उदेश्य ओर विधेय भाव का 
परिवतंन रिपुकुल क्य ओर विक्रम के अनरूप आचरण इन दोनों पर अधिक 
बल देने के लिए कर दिया गया है । यहाँ पर कियाञ्नं का पौर्वापयं भयोज- 
नीय नहीं है । 











( २७ ) 
(१ र) भेद्‌ :-> 
भेदः प्रोत्साहना मता । 
[मेद्‌ प्रोत्साहन को कहते है ।] 

जैसे वेणी-संहार मे दौपदी कह रही है -हे नाथ ! द्रौपदी के | कै 
कारण उदीप कोधवाल्ञे होकर बिना अपने शरीर की परवा क्ये हुए ॒युद्धभूमि 
म मत घूमना । क्योकि सुना जाता दै कि शत्र सेना मे अप्रमत्त होकर सञ्चरण 
करना चादिषु । 

भीमसेन--हे सुक्तत्रिये ! 

द्नन्योन्प्रास्फाल भिन्न द्विपरुधिर वसा मां मस्तिष्क पंके | 
मय्यानां स्पन्दनानामुपरिकृत षपदन्यास विक्रान्त पत्तौ ॥ 
स्फीता सक्पान गोष्टी रसदशिव शिवा तूर्यं वरत्यत्कवन्वे | 
सङ्गामैकाणवान्तः पयसि विचरितु' परिढताः पार्ड्पुत्राः ॥ 

“जिस सथ्चामरूपी महासागर के अन्दर एक दूसरे की टक्कर लगने से 
हाथियों के शरीर कत विक्तत हो गये हों ओर उनके रक्त, चबी, मांस अनौ 
मस्तिष्क का कीचड्‌ हो रहा हो, उस कीचड़ में जहा रथ धसे पडे हां ओर उन 
रथँ पर पैर रखकर पैदल सैनिक अपना पराक्रम ॒दिखला रहे हों; बद हुए रक्त 
की पानगोष्ठी म जहाँ पर श्गाल्लियों के कल्याणकारक भयदायक शब्द्‌ हो रहे 
हों ओर उन्दी को तू मान कर उनके स्वर का अनुसरण करके कवन्ध नाच रहे 
हों इस प्रकार के सत्रामरूपी महासागर के जल में घूमने म पाण्डव लोग बडे 
ही निपुणहें।' | 

यहां पर विषाद्‌ मं पडी ह द्रौपदी को प्रोत्साहन दिया गया है ओर उस 
कोध ओर उत्साह रूप बीज का अनुसरण भी किया गया है । अतएव यहाँ पर 
मेद नामक मुखसन्ध्यङ्ग है । 

ऊपर खख सन्धि के १२ भेदो का निरूपण करिया गया है । ये सन्ध्यङ्ग बीज 
ओर आरम्भ के द्योतक होते हैँ । इनका विधान दोनों रूपो मेहो सकता है 
सा्ात्‌ भी ओर परम्परा से भी । इनमे उपक्तेप, परिकर, परिन्यास युक्ति, उद्धे द्‌ 
श्नौर समाधान ये अङ्ग अवश्य होते है । 

खुख-सन्धि नाटक के प्रारम्भे होती हे । इसमे अ्रभ्रिम कथावस्तु के विकास 
का वातावरण तैय्यार किया जाता है। यह पहले ही बतलाया जा चुका है 
नाव्य रचना का कोद न कोड उदेश्य अवश्य होता दै ओर उस उदेश्य की सिद्धि 
का एक हेतु होता ह । वही हेतु धीरे धीरे विकसित दोकर नाव्य को कार्यं (फल) 
की ओरनल्ञे जाता है । प्रथम (सुख) सन्धि्मेएकतो बीज का उरलेख किया 
जाता है श्रौर दूसरे उदे श्य का महत्व बतलाया जाता है । पान्नोंका फलके 

















८ र्म ्् 


प्रति जितना अधिक आकषण होता हे वह फल भी उतन्ना ही अधिक महत्व- 
पूणं प्रतीत होता है रौर उसकी प्रासि के निमित्तकी ही सारी चेष्टाय उतनी 
ही स्वाभाविक जान पडती है; अतएव उसमे रसास्वादन भी उतना ही अधिक हो 
जाता है । इस भकार सुख सन्धि ये बातं प्रधान होती है--(१) उसमे बीज 
का विकास दिखलाया जाता है । (२) उदेश्यों का परिचय कराया जाता है । 
(३) पातनं का फल की ओर प्रलोभन दिखलाया जाता है । (४) फल प्राक्षि 
ओर अप्रािमें सुख श्नौर दुःख दिखलाया जाता है। (£) अग्रिम सन्धिकी 
कथावस्तु का उपक्रम किया जाता है । (६) फलं के लिए प्रोत्साहन; आवेश 
इत्यादि दिखलाये जाते हैँ भौर (७) गूढ़ बात प्रगट किया जाता है । बीज को 
मूल रूप मे प्रगट करना उपक्तेप, ऊच विस्तार परिकर ओर °उसकी निप्पत्ति 
परिन्यास कहलाती है । वीज के पुनः आगमन को समाधान कहते हें । फल 
के ग्रति ्ाकर्षण के लिए गुणों का बण॑न विलोभन कहलाता है । समस्त 
प्रयोजनों को सङ्कलित करके कह देना युक्ति नामक सुखाङ्ग होता है । 
अनुकूल कायै को देखकर सुख प्राप्त करने को मान्ति ओर फल की प्राप्ति, 
शप्राक्षि के अनुसार सुख ओर दुःख प्राक्च करने को विधानकहते दे। 

उसी विषय मे लोकोत्तर आवेश को परिभावना कहते हँ ओर उसके प्रति 
प्रोत्साहन को मेद्‌ कहते हँ । गूढ़ बात को प्रगट कर देना उद्धद्‌ कहलाता 
है ओर अग्रिम कथानकं के उपक्रम को करण कहते हँ । यही मुख संधि के बारह 
ग होते है । जैसे प्रेम प्रधान नायिकां रत्नावली मे रत्नावली ओर उदयन का 
समागम फल है ओर अनुकूल दैव तथा यौगंधरायण का कायं व्यापार उसमें 
बीजदहै। इसी प्रकार वीररस प्रधान वेणी-संहार नाटके मे शत्रु विजय अौर 
प्रौपदी का केश संयमन फल है । भीमसेन का उस्साह श्रौर क्रोध उसे बीज 
है । उपयुक्त उदाहरणो मे इन्हीं का विकास दिखलाया गया है । इसी अकार 
अन्य उदाहरणं कों भी समना चाहिए । 


परतिश्चुख संधि ओर उसके मेद 


रतिमुख संधि का लक्तण यह है :-- 

लच्यालक्त्यतपो द्ध दस्तस्य प्रतिमुखं भवेत्‌ । 
विन्दु प्रयननानुगमादङ्गान्यस्य त्रयोदश ।।३०॥ 

[जहो पैर उस बीज का उद्धद्‌ इसरूपमे हो किं कीं वह लक्ित हो सके 
ग्ओौर कहीं लक्षित न हो सके । उसे प्रतिमुख संधि कहते हें । विदु श्रौर प्रयत्न 
फे अनुगम से इसके तेरह भंग होते ह ।|] 

उदाहरणं के लिये रत्राव्ली नारिका का कायं (फल) वत्सराज ओौर साग- 








छ ऋ 2 


रिकिाका समागम ह ओर उसमे बीज है अनुरागजो कि प्रथम अंश उपज्तिष्ठ 
किया गयादहै। दुखरे ्रंगमे उस अनुराग बीज को सुसङ्गता रौर विदूषक 
जानते हैँ शौर वासवदत्ता ने चिच्रफलक के वृत्तांत से उसका कुद अनुमान 
लगाया है । इस प्रकार द्वितीय रंग मे अनुराग बीज कच तो द्श्य रूपमे ओओौर 
कु अदृश्य रूपमे उद्धिक् होता है । इस अकार द्वितीय श्रंक में प्रतिमुख संधि हे । 
इसी प्रकार वेणी-संहार की बीज पार्डवों का क्रोधदहै। द्वितीय अकम 
भीष्म इत्यादि के वध से वह कोध लक्ित होता हे अौर कणं इत्यादि के वध न 
होने के कारण वह अलक्षित है । अतएव क्रोध बीज के दृश्य श्रौर अद्य रूप 
मे उद्धिन्न होने के कारण वेणी-संहार का द्वितीय अक प्रतिमुख संधि का उदा- 
हरण हे । 
इस क्रोध बीज का द्वितीय अरकं मँ बार-बार उद्धद्‌ हुआ है। जैसे :- 
पाण्डुपुत्र अपने पराक्रम से शीघ्रही नौकरों के समूह के सहित, बांधवों 
के सहित, मित्रों से सहित, पुत्री के सहित श्चौर छोटे भाईयों के सहित दुर्योधन 
को युद्धभूमि म मार डालगे ।' 
इसी भकार :-- 
युदध-भूमि मे दुश्शासन के हृद्य का खून रूपी जल पीने के लिये रौर 
गदा से दुर्योधन की जङ्घाओं कों विदीणं करने के लिये जिस प्रकार ॒तेजस्वी 
पाण्डवो ने प्रतिज्ञा कर ली है उसी प्रकार जयद्रथ वध के लिये भी उनकी प्रतिक्ा 
की हद ही समनी चादिषु । 
यहाँ पर क्रोध बीज के उद्भिन्न होने के कारण प्रतिमुख संधि है। 
पिद्धजञे अंक मे जिस विन्दु की नोर सङ्केत किया गया हो उस विन्दु रूप 
बीज चौर प्रयल के अनुगम से उसके तेरह अंग होते हैँ । आशय यह है प्रथम 
शक मे बीज के उपन्तेप के बाद जब कथाभाग विच्छिन्न होने लगता है तब उसको 
आगे बढ़ाने के लिये दूसरे बीज का उल्लेख किया जाता है । इसे विन्दु कहते 
है । इसी विन्दु नामक अथै पङ्ति का आश्रय लेकर प्रतिमुख संधि की प्रवृत्ति 
होती है। इस विन्दु के साथ प्रयत नामक कार्यावस्था का संयोग होता हे । 
इसी प्रतिमुख संधि के निम्नलिखित तेरह भाग होते हैँ ; - 
विलासः परिसपश्व विधूतं शमनमेणी । 
नमेदयुतिः प्रगमनं निरोधः पयपासनम्‌ ॥३१॥। 
वजर" पुष्पम पन्यासोवण संहार इत्यति । 
[रतिमुख संधि के विलास इत्यादि तेरह भाग होते हे ।] इनकी करमशः 
व्याख्या कीजारहीदहै। 


(१) विलास :-- 


ल 


॥ 
| 
। 


(- > 


रव्यर्थहा विजलासः स्यात्‌ 
[रति के लिये जो इच्छा होती है उसे विलास कहते हे ।] 
जैसे रावली मे सागरिका कह रही है -/हे हृदय प्रसन्न हो ! प्रसन्न हो ॥! 
इस दुलेमः यक्त के लिये प्राना के आग्रह मँ लगने से क्या लाभ जिसका फल 
` केवल व्यथ का परिश्रमही हो! इस उपक्रम के साथ पुनः कह रही हँ कर 
भी उस व्यक्ति को चित्रलिखित, बनाकर मनमानी इच्छा पूरी कर लगी । क्योकि 
उनके दशन का दुसरा उपायदहै दही नहीं।' इन वाक्यों के द्वारा सागरिका की 
चेष्टा वत्सराज के समागम श्मौर रति के विषय में व्यक्तहोरदीदहै यद्यपिदहै 
वह चेष्टा चित्रगत वस्सराज के खमागम श्चौर उनके प्रति रति के लिये ही । यह 
चेष्टा अनुराग रूप बीज का अनुसरण कर रही है । अतएव यहाँ पर विलास 
नामक प्रतिमुख संधि का अंग ह। 
(२) परिसपं :- 
दष्ट नष्टानुर्पणं 
परिसपं १- 
[जब करी-कही बीज दिखाई पड़ नौर कहीं-कहीं हिप जावे रौर उस बीज 
का श्चन्वेषण करिया जावे तो उस परिसरं कहते हँ ।| 
जैसे वेणी-संहार मे अनेक वीरो के संक्तय का समय उपस्थित है । एेसे अव- 
सर पर दुयोधन अन्तःपुरं मँ उपस्थित हैँ । इस वात को देखकर उनका कल्की 
कह रहा है-- स्वामी के लिये यह एक दूसरी अनुचित बात है कि इस सभय 
जव कि बलवान सन्र॒ सन्नद्ध हो रहे है, ओर बलवान होना तो एक मामूली 
वात थी हमारे शशरो की सहायता भगवान्‌ वासुदेव भी कर रहे है, हमारे 
स्वामी अन्तःपुर के सुख का अनुभव कर रहे है :-- 
ग्राशाख्र प्रहणादकुर्टपर शोस्तस्यायिजेता मनेः । 
तापायास्यन पांड्‌ सूनुमिरयं भीष्मः शरैः शायितः ॥ 
प्रौदनिक धनुधरारि विजय श्रांतस्य चैकाकिनः। 
बालस्पायमरातिलून धनुषः प्रीतोऽमिमर्न्यावधात्‌ ॥ 
छदन दुर्योधन को इस बात का ऊं भी संताप नहीं हो रहा है कि पाण्डु 
पुत्रों ने वाणो से उन भीष्मकोभी रष्यु शप्या पर सुल्ला दिया जिन्होंने शख 
रहण के समय से लेकर कभी भी कुर्ठित न होनेवाज्ञे परशुधारी जगत्प्रसिद्ध 
मृनि परशराम को भी जीत लिया था । आज इन्दं केवल इसी बात का सन्तोष 
हो रहा दहै किदन लोगों ने एक बालक (श्रभिमन्यु) को रेखा दशी में मार 
डात्ला जब कि वह अनेक प्रौढ धनुधैर शत्रुओं पर विजय प्राक्त करने के कारण 


क. (व 





6 


थक चुके था ओर जिस समय शत्रुश्च ने उसके धनुष को भी काट 
दिया था।' 

यहां पर भगवान्‌ कष्ण की सहायता से युद्ध करनेवाले बलवान्‌ पाण्डवां 
की विजय भीष्म इत्यादि के वध से दिखलादई पर रही है ओर अभिमन्यु इस्यादि 
के वध से नष्टहो गद है। इस रकार संप्रामरूपी विन्दुनामक वीज शौर प्रयत 
के अन्वय कै द्वारा कलचुकी के सुख से बीज का अन्वेण कराया गया हे । अतएव 
यहाँ पर परिसपं नाम का मुख सन्धि का अङ्ग है। ८ 

दृसरा उदाहरण जैसे रल्लावली मे सारिका के वचन ओर चित्र शंन के 
द्वारा सागरिका का अनुराग बीज प्रगट होकर तिरोहित हो गया है । उसी 
अनुराग बीज का अन्वेषण वत्सराज उद्यन ने विदूषक से यह कहकर किया 
है- “मित्र ! मे दिखलाओ्म कर्हा है कहाँ है वह चित्र ।' इस प्रकार यहा पर 
बीज का अन्वेषण करने के कारण परि पं नामक प्रतिमुख सन्धि का अङ्ग है। 

(३) विधूत :-- = 


विधूत स्पादरति :-- 
 [ अरति (वैराण्य) को व्रिधूत कहते हे ।] 
जञैषे रलावली मे सागरिका सखि ! मुके सन्ताप अधिक कष्ट दे रहा 
है । (सुसङ्गता वावडी से कमलि्न। के पत्ता ओर शणाल-खर्डों को ले आकर 
उसके शरीर पर रखती है |) सागरिका- (उन्हे दूर एककरः) हे सखि ! इन्दं 
दूर करो । व्यथ मे अपने को कष्ट क्यों दे रही हो १ मै तो यह कहती है : ~ . 
दुल्लहजणागुराश्रः लज्जा गख्र परञ्वसो.श्रप्या । 
पियसहि विसमं पेष्मं मरणं सरणंणवर एकम्‌ ॥ 
दुलभ जनानुरागोलब्जा रुरव परवश श्रास्मा। 
प्रियसखि विषमं प्रेम मस्णं शरणं केवल मेकम्‌ ॥ 
८हे प्यारी सखी ! मेरा अनुराग सर्वथा दुलभ व्यक्ति के विषय में हे; लजा 
बहुत बड़ी है; ्रात्मा भी पराधीन है; प्रेम बड़ा ही विषम है; अब मेरे लिये 
एक-मात्र खस्य की ही शरण शेष हे । 
य्ह पर अनुराग बीज के सम्बन्ध से सागरिका के चित्तम जीवन से 
वैराग्य का उदय हुञ्ा है नौर उसने शीतोपचार का विधूजन (रस्यारूपान्‌) कर 
दिया हे । अरवएक यहाँ पर विधृत नामक मतिसुख सन्ध्यङ्ग हे । 
दूसरा उदाहरण जैसे वेणी-सखंहार मे दुरस्व देखने के कारण दुर्योधन के 
अनिष्ट की आशङ्का से अथवा पाण्डवो के विजय की आशङ्का से मानुमती ने 





न च 


( २९ 


रीत का विधूनन कर दिया है । अतएव वहां पर विधूत नामक प्रति मुख 
सन्ध्यङ्ग हे । 

(४) शम :- 

त॒च्छमः शमः 
[उख अरति के उपशम को शम कहते हें । | 

जैसे रलावली मेँ--"राजा--मित्र ! यदि सचमुख ेसी सुन्दरी ने मेरा 
चित्र, बनाया है तो सु अपने ऊपर भी गवं का अनुभव हो रहा ह । फिरै 
देसे क्यों न देखं ?" इस उपक्रम मेँ सागरिका अपने मन मे कह रही है-- “हे 
हृदय ! चैयं धारण करो । तुम्हारा मनोरथ भी तो इस पराकाण्डा पर नहीं 
पर्चा था । 

यहा पर सागरिका के वैराग्य का उपशम हो गया है । अतएव शम नामक 
प्रतिमुख सन्भ्यङ्ग है । 

(&) नम :-- 

परिहास वचो नमं 


| परिहास वचन को नम॑ कहते है । |] 

जैसे रल्ावली म -- “सुसङ्गता - हे सखि ! जिसके लिये तुम आई हो ! यहं 
वह तुम्हारे सामने रि्थित हे । सागरिका ~ (अनसूया के साथ) सुसङ्गत ! किसके 
लिये में आह हँ १ “सुसङ्गता-अरी ? अपने ्आापदही शङ्का करनेवाली ? त॒म 
अवश्य ही इस चित्र फलक के लिये आई हो । अतएव इसे लेलो 

यहा पर परिहास वचन सागरिका के अनुरागरूप बीज को प्रगट करनेवाला 
है । अतएव यहां पर नम नामक मतिमुख सन्ध्यङ्ग है । 

दृसरा उदाहरण जैसे वेणी-संहार मेँ (दुर्योधन बेटी के हाथ से अधभ्यैपात्र 
लेकर देवी को दे देता है।) भानुमती-- (अधं देकर) अरे! मेरे पास एूल ले 
श्राञ्नो जिससे दृसरे देवताओं की भी पूजा कर लँ । हाथ कफैलाती है । दुर्योधन 
पूल ज्ञे जाते हे । उनके स्पशं से भानुमती के हाथे कौप जाते हैँ ओर एल गिर 
जाते ह । 

र दुस्स्व्र दशन की शान्ति के लिये जो पूजाकी जा रही थी न॑ 
(परिहास) के द्वारा उसमे विच्च पड़ा ओर उससे बीज कां उद्धाटन ह्रां । यही 
कारण है किं परिहास प्रतिमुख सन्धि का अङ्ग माना गया हे । 

(&) नम॑युति :- 

धृतिस्तज्जा च्‌ तिय॑ता 
[नमे से जो धृति उत्पन्न होती हे उसे नर्मद्युति कहते हे ।] 
जैसे रल्लावली भे--सुसङ्गता-- इस समय तुम अत्यन्त निष्ठुर हो रही हो 











( ३३ ) 

जो पति के द्वारा हाथ पकडे जाने पर भी कोपं को नहीं छोड्‌.रही हो । सागं- 
रिका-- (भङ्ग कं साथ कुच मुस्कुराती हु) सुसङ्गते ! इस समय भी तुम नहीं 
स्क रही हो ।' 

यहाँ पर परिहास के द्वारा अनुराग बीज का उद्धाटन किया गया है ओर 
उससे सागरिका के चित्त मेँ ऊच वैय उत्पन्न ह्र है । अतएव यहाँ पर प्रतिमुख 
सन्धि का नमैद्युति नामक अङ्ग है । 

(७) ज्रगमन ;-- 


` उत्तरावाक्‌ भगमनम्‌ 


[उत्तर देने के वचन को प्रगमन कहते हँ ।| 
जैसे रलावली मे - “विदूषक --हे मित्र ? सौभाग्य से श्राप बद्‌ रहेहै।' 
राजा--(कौतुक से) मित्र ? यह क्या है ? विदूषक--हे मित्र ? यह वह है जो 
मैने कहा था कि यहाँ पर तुम्हारा ही चित्रे बनाया गवा है । कामदेव कं बहाने 
से कोन दूसरा दिषाया जा सकता था ?, यहाँ से जेकर :-- 
परिच्युतस्तत्कुच कुम्भमध्वक्किं शोषमायासि मृणाल हार । 
न सूद्धयतन्तोरपि तावकस्य तत्रावकाशो भवत, किमुध्यात्‌ ॥ 
€ खणालहार ? तुम उसके स्तनो के बीच से गिर गये हो इसलिये सूख 
क्यो रहँ हो १ उस (सागरिका) के स्तनो के बीच तो तुम्हारे सूचम तन्तु के 
लिये भी अवकाश नहीं है किर तुम्हारे लिए अवसर हो ही कैसे सकता है ? 
यहाँ तक राजा विदूषक सागरिका ओर सुसङ्गता के परस्पर उत्तर प्रस्युत्तर 
के द्वारा अयुराग बीज का उदूघाटन होता है । अतए यहाँ पर प्रगमन नाम का 


प्रतिमुख सन्धि का अङ्ग हे। 


(८) निरोध :-- 
हितरोधो निरीधनम्‌ 


[हित के सक जाने को निरोध कहते हैँ ।] 
जैसे रल्ावली मे --राजा-अरे मखं ? तुभे धिकार है :-- 


श्ाप्ताकथयपि दैवा्करठमनीतैव प्रकटराग । 

रत्नावलीव कान्ता ममहस्तावद्भंशिता भवता ॥ द 

“भाम्यवश जैसे तसे वह सुभे प्रक्ष हो गदं थी; उसका राग (लाली प्रेम) 

प्रगट हो रहा था; मने उसको कण्ठ मे लगा भी नहीं पाया श्र तुमने मेरी 

प्रियतमा को इसी प्रकार सुकसे चटा लिया जैसे किसी को दैववश रत्नावली 

प्च हो जावे जो रक्त वणं से युक्त होने के कारण जगमग रही हो; वह व्यक्ति 
4 








॥ 


व (~ र "ककव 


( ऋ _) 


उस रत्नावली को. करट म भी “न लगा पवे नौर कोद दूखरा व्यक्ति उसे उसके 
हाथसे डीन लते जावे । 
यहाँ पर वत्सराज का सागरिका समागम रूप हित होनेवाला था किन्तु 
विदूषकं ने वासवदत्ता के भवेश की सूचना देकर उसे रोक दिया । अतएव यहाँ 
पर निरोध नामक प्रतिमुख सन्ध्यङ्ग है । 
(8) पथुपासन :-- 
पयु पास्तिरनुनम :- 


[अनुनय करने को पथुंपासन करते हें । | 
जैसे रत्नावली मे राजा कह रहे हैँ : -- 


प्रसीदेति ब्रूयामिदमसति कोपे न घटते । ` 
करिष्याष्येवं नो पुनरिति भवेद्म्युयगमः ॥ 
न मे दोषो ऽस्तीति त्वमिदमपि हि ज्ञास्यसि मृषा । 
किंमेतस्मिन्‌ वक्तं सममिति न वेदिम प्रियतमे ।। 
हे प्रियतमे ? यदि मै यह कहं कि तुम प्रसन्नहोजाश्नो तो क्रोध केन 
होने पर यह बात घटित ही कैसे हो सकेगी । यदि कहँकि्मै फिर कभी 
ठेखा नहीं कररँगा तो यह अपने अपराध का स्वयं ही स्वीकार कर लेनाहो 
जाता हे। यदि मैं कहं किमेरा दोष नहींदहै तो तुम ठ मानोगी । एेसी दशा 
मैं इस समय क्या कह सकता हँ यह मेँ नदीं जानता । 
यहाँ पर नायक अर नायिका (वत्सराज ओर सागरिका) को एक साथ 
चिन्रलिखित देखकर वासवदत्ता को क्रोध उस्पन्न हुश्ा ह । उनके शान्त करने 
के लिये उक्त शको मे राजा ने उनसे अनुनय किया है । इस अनुनय के द्वारा 
नायक ओर नायिका के अनुराग रूप बीज का उदूषघाटन होता हे । अतएव यहां 
पर पयुःपासन नामक प्रतिखुख सन्ध्यङ्ग हे । 
(१०) पुष्प :-- 
पुष्पं वाक्यं विशेषवत्‌ ॥३४॥ 
[विशेषता से युक्त वाक्य को पुष्प कहते हँ ।| 
जैसे रत्नावली मे -- “(राजा सागरिका का हाथ पकड कर ॒स्पशं-सुख का 
अभिनय करते ह ।) विदूषक --यह अपूव श्री आपने प्राक्च कर ली हे ।' राजा- 
मित्र । सच कहं रहे हो । 
श्रीरेषा पाणिरप्प्याः पारिजातस्य पल्लवः । 
कुतोऽन्यथा खवत्येष स्वेच्छदद्मामृत प्रवम्‌ ॥ 











( ३५ 9 


ध्यह खी है चौर इसका हाथ भी पारिजात का पल्लव है । यदि रेसा 
„ नहीं है तो यह (हाथ) पसीने के बहाने तद्रव को क्यों बहा रहा है । 

, यहाँ पर नायक ओर नायिका एक दृखरे के सात्तात्‌.द्शंन के द्वारा विशेष 
रूप से अनुराग का उदृषाटन कर रहे है । अतश्व यहाँ पर पुष्प नामक प्रति- 
मुखाङ्ग हे । 

(११) उपन्यास :-- 


उपन्यासस्तु सोपायम्‌ 


[उपाय (युक्ति) से बीज का उद्धे द कर देने को उपन्यास कहते हँ ¦] 

जैसे रत्नावली मे-- सुसङ्गता महाराज उदयन से चित्रफलकं लेने गह हे 
ञ्नौर राजा उसे वासवदक्त की दासी सप्रूकर उससे सारा इृत्तान्त छिपाने 
की चेष्टा कर रहे है । जब सुसङ्गता कहती है कि मेँ सारा वृत्तान्त जान गं 
ह ओर म जाकर रानी से सब कह दू गी तब राजा उसे कणांमरण देकर कुच न 
कहने की प्राथना करने लगते हँ । इस पर वह कहती है--'सुसङ्गता-महाराज ! 
आशङ्का की आवश्यकता नहीं । मँ भी स्वामी की कृषा के बल पर केवल हंसी 
ही कर रही थी । अतएव कणाभरण की क्या आवश्यकता १ मेरे ऊपर इससे 
भी अधिकङ्रपाहो सकती दहै। मेरी प्यारी सखी सागरिका मुस रष्टहो 
गद है यर कहती है कि तुमने मेरा चिन्न यहाँ पर क्यों बना दिया । आपं चल 
कर उसको मना दीजिए । 


यहाँ प्र सुसङ्गता के वचन से यह सिद्ध हो गया कि मेने सागरकि का 
चिन्न बनाया है ओौर सागरिका ने आपका ।' इस प्रक।र इन वचनां से राजा 
की ङ्कपा कां उपन्यास करते हुए एक दूसरे के भ्रति अनुराग बीजे का उद्धदन 
किया गया है । अतएव यहाँ पर उपन्यास नामक प्रतिमुखाङ्ग है । 

(१२) वन्न :-- 


वज्र प्रत्यत निष्ठुरम्‌ 

ज्ञेसे रत्नावली मे --“वासवदत्ता-(फलक की श्रोर सङ्केत करते हुए) आय- 

पुत्र । यह जो तुम्हारे निकट चिद्रित की गं है यह क्या वसन्तक का विज्ञान ` 

हे ? फिर “आर्यपुत्र ? इस चिन्न फलक को देखकर मेरे भी सरमे पीडा होने 
लगी हे । | 

यदौ पर वासवदत्ता ने कठोर शब्द्‌ कहकर वत्सराज शौर सागरिका के 

अनुराग का उद्धे दन किया है । अतएव यहाँ पर वन्न नामक प्रतिमुखाङ्ग है । 













(< ३६ 9 


(१३) वणं संहार :-- 
चातुव श्यपिगमनं बणसंहार इष्यते ॥३५॥ 
[चारों वर्णो के एकत्र सम्मिलन को वणं संहार कहते हँ ।] 
जैसे वीर चरित के तीसरे अङ्क मे :- 
परिषिदियमूषीणामेष बृद्धो युधाजित्‌ 
सह नुपतिरमात्येलेमिपादश्च बद्धः । 
प्रयमविरत यज्ञोब्रह्मवादी पुराणः 
प्रभुरपि जतकानामद्र्‌ हो याचकास्ते॥ ` 
'यह ऋषियों कौ परिषद्‌ है; यह दध युधाजित्‌ है; यह वृद्ध॒ लोमपाद 
श्मपने मन्त्ियों के साथ विराज मान ह; यह पुराने बह्मवेत्ता, विना विराम यज्ञ 
करने चाज्ञे जनक देश के महाराज विदेह हँ । ये खबर स्वयं द्रोह रदित होर 
आपसे द्रोह छोड देनेकीप्राथैना कर रहेदहँ।' 
यहां पर ऋषि क्ञत्निय अमात्य इत्यादि सब वणं एकन्न होकर राम की विजय 
से कुपित परशराम के समक्त अद्रोह की याज्चाके द्वारा उनके दुणेय का उद्धं- 
दन किया गया है । अतएव यहां पर वणं संहार नामक्‌ प्रतिुखाङ्ग है । 
प्रतिमुख संधि के यही १३ अंगहोतेहं। इसी संधिमे कायै (फल) के 
लिये प्रयत प्रारम्भ हो जाता है। इस प्रयल का कभीतो मुखसंधि मे उपरिष्ठ 
विदु नामक अवान्तर बीज से संयोग होता ह अर कभी महाबीज से उसका 
संयोग होता है । इस प्रकार विदु नामक अवांतर बीज महाबीज ओर प्रयत्न के 


 ्नृगम मेँ हयी मतिसुख संधि के सभी अंगों का विधान करना चादिष । 


शय यह है किं सुखसंधि में केवल बीज का समारम्भ ही दिखलाया 
जाता है ओर फल की महत्ता फे प्रति ध्यान आकषित किया जाता है। इस 
प्रतिमुख संधि मेँ उस फल के प्राक्च करने के लिये प्रय प्रारम्भ हो जाता है। 
कहीं-कहीं पर बीज लक्षित होता है; कहीं उसके प्राक्ठ करने की चेष्टा की जाती 
है; कीं सफलता की आशा से प्रसन्नता होती है ओर कहीं विफलतो के भय से 
विषाद होता है । कीं वैराभ्य उत्पन्न हो जाता है तो कहीं विघ्नं के निराकरण 
के लिये अनुनय विनय होता दै । कीं बीज के परति विशेष आकर्षण दिखलाया 


जाता है तो कहीं युक्ति से उसे प्रगट किया जाताहै। कीं कठोर शब्दों का 


प्रयोग होता है तो कीं सहायता के लिये चारों वर्ण का उपादान किया जाता 
है । इस प्रकार इस प्रतिमुख संधि के कदं भेद हो जाते हँ जिनका उपर उल्लेख 
किथाजा चुका है। इन अंगों म परिसर्प प्रशम वज्र, उपन्यास श्रौर पुष्पये 
ञ्मग मुख्य हें । 





( ३७ ) 
गभसंधि ओर उनके मेद 


गभैसंधि का लक्षण यह है :-- 
गभस्तु दष्टनष्टस्प वीज्ञस्पान्वेषणं मुहुः । 
द्रादशाङ्गः पताका स्यान्नवा स्यस्पराप्नि सम्भवः ॥३६॥ 

[जब बीज करी-कहीं दिखलादं पड़ रहा हो ओर कहीं-कहीं नष्ट हो जाता 
हो ओर उसका बार-बार अन्वेषण किया जावे तो उसे गभं संधि कहते है । 
दसम पताका होती मी है ओर नहीं भी होती किंतु प्रासि की संभावना अवश्य 
होती है । इसके बारह अंग होते हे ।] 

यह बतलाया जा चुका है क्कि प्रतिमुख संधि मे कीं बीज लरत होता है 
श्रौर कहीं लक्तित नहीं होता । इस प्रकार ५ तिमुख संधि मे बीज काकुद कु 
उद्धेद्‌ हो जाता है। इस गभ॑संधि म उस बीजका सत्रिवेश इस रूपमे होता 
है किं उसका उद्धोद्‌ भी होता दै ओर उक्तम वित्र भी उपस्थित होते है । इसमें 
वीज का बार-वार विच्छेद नौर बार-बार भाति होती है। उसी बीज का बार-बार 
अन्वेषण किया जाता है । अतएव इस गभं संधि मेँ फल प्राप्ति की आशा पूणं 
रूप से नहीं होती रौर उसमे फल सिद्धि यौर असिद्धि के विषय मेही को 
निधारण किया जा सकता है । वैसे तो नियमानुकरूल पताका इस गभं संधि में 
अवश्य होनी चाहिए क्योकि पहले बतलाया जा चुका है कि अर्थ प्रकृतियों अर 
कायै की अवस्थां के क्रमिक संयोग से ही संधियों का आविर्भाव होता है। 
इस अकार पताका नामक अथै प्रकृति ओर प्राप्त्याश। नामक कार्यावस्था के 
संयोग से गभ-संधि बनती है। कितु पताकाका होना अनिवार्यं नहीं हे). 
प्राप्त्याशा तो होतीदहीदहै। 


जैसे रत्नावली के तृतीय श्रंक मे वत्सराज के लिये वासवदता तो अपाय 
(विध) है ओर वासवदत्ता का वेष धारण करके सागरिका का अमिसरण करना 
उपाय है। पहले-पहल विदूषक के कथन से सागरिक प्राप्त्या शा होती है फिर 
वासवदत्ता की उपस्थिति से उस आआशा का विच्छेद हौ जाता है, फिर प्राप्त्याशा 
होती है फिर विच्छेद होता है। अन्त मै अदाय निवारण के लिए देवी को 
प्रसन्न करने के अतिरिक्त ओर कोद उपाय नदीं दिखलाई पड़ता है ।› इन शब्दों 
म उपाय का अन्वेषण दिखलाया गया है । इस प्रकार रत्नावली का तीसरा 
क गभं संधि का उदाहरण है । 
गभ॑ संधि के बाहर अंगहोतेदहें।वेये हैं :- 
अभूताहरणं मागी, रूपोदाहरणे क्रमः । 
सङग्रहश्चानुमानं च तोटका धिवले तथा ॥३७] 





( देकः) 


उद्वेग सम्ध्रमात्तेपाः लत्तणं च प्रणीयते । 
[गभं संधि के अभूताहरण इत्यादि १२ भेद होते हँ । इनके लक्तण बताये 
जा रहे हँ ।| 
(१) अभूताहरण :-- 
अम्‌. ताहरणं छं 
[अभूताहरण छल को कहते हे ।] 
जैसे रललावली मे--हे भत्री वसन्तक ! टीक !! बहुत ठीक !!} तुमने इस 
संधि विग्रह की चिता मे आय यौगन्धरायण का भी अतिक्रमण कर दिया । इस 
उपक्रम के साथ मदीनिका के सामने काञ्चनमाला ने विदूषक ओर सुसङ्गता की 
बातचीत का अनुवाद करके बतलाया है कि सागरिका वासवदत्ता का ओौर 
सुसङ्गता काञ्चनमाला का रूप धारण करके राजा के पास जावेगे यह विदूषक 
श्नौर सुसङ्गता के बीच म तय हो चुका ह । इस प्रकार यहाँ पर विदूषक का छल 
दिखलाने के कारण अभूताहरण नामक गरभाङ्क दै । = 
(र) मागं: - 
मागस्तवाथे कीतनम्‌ ॥३८॥ 
[तस्व ङी बात बतला देने को मागं कहते हे ।| 
जैसे रल्लावली म -- “विदूषक “महाराज ! आप सौभाग्य से चाहे हृषु से 
भी श्रधिक कार्थ के सिद्ध हो जाने से बृद्धि को प्राक्त हो रहे है ।' राजा भित्र! 
प्रियतमा कुशल से तो दै ? विदूषक-- “शीघ्र ही च्चाप स्वयमेव देखकर जान 


लगे ।› राजा--क्या मु प्रियतमा का दशंन भी प्राप्त हो जाषेगा ।' विदूषक- 


(अभिमान के साथ) क्यों नदीं हो जावेगा जिसका खक जैसा बृहस्पति की. 
भी बुद्धि का उपहास करनेवाला मन्त्री विद्यमान हो ।'  राज्ञा--^फिर भी मेँ 
सुनन। चाहता हँ कि किस भ्रकार दशन होगा । विदूषक --(कानम कहता हे) 
"इख प्रकार ।' “य्ह पर विदूषक ने सुसंगता से सागरिका के समागम के विषय 
मरं जसा ऊढ निश्चय कर रक्खा था वैसा ही बतला दिया । इस प्रकार तत्वार्थ 
कथन के कारण यर्हौँ पर मागं नामक गर्भाद्ध है 

(३) स्प :ः- 


रूपवितकबवद्वाक्यम्‌ 
[वितकं से युक्त वचनो को रूप कहते हे । | 
जैसे रस्नावली-- “राजा आश्चयं है कि जो कामी लोग अपनी गृहिणी के 
समागम को तिरस्कार की ष्टि से देखने लगते हँ उनका नवीन व्यक्ति के प्रति 
एक कोद एक विचित्र अकार का पपात होता हे ।' 











( ३& ) 


प्रणय विशदां दृष्टिं वक्त्रे ददाति न शङ्किता। 
घटयति घनं कर्ठाश्लेषे रसान्न पयोधरौ ॥ 
वदति वहुशी च्छामीति प्रयत्न धृताप्यहो 
रमयतितरां सङ्क तस्था तथापि हि कामिनी ॥ 

(यद्यपि सङ्केतस्थान मँ स्थित कामिनी, गृहिणी से अशङ्कित होकर अरण 
के कारण निमैल दृष्टि अपने प्रेमी के मुख पर नहीं डालती; कगरालिङ्गन के 
अवसर पर प्रेमपूर्वंक अपने प्रियतम की दती मेँ स्तनोंको भली-मांति सङ्ग 
रित नहं कर सकती; प्रयल्लपू्वैक रोके जाने पर भी बार बार यही कहती है 
कि्मेँजारहीर्है; किन्तु फिर भौ वह सङ्केतस्थ कामिनी बहुत अधिक अनन्द 

देती है ।' 

(वसत्तक न जाने क्यों विलम्ब कर रहा है ? कहीं यह वृत्तान्त देवी वास- 
दत्ता को विदित तो नहीं हो गया । 

यहां पर र्नावली प्रक्षि की आशा बनी हुदै है ओर उसी का अनुसरण करते 
हए देवी वासवदत्ता की आशङ्का के विषय मे वितकं किया गया हौ । अत एव 
यहाँ पर रूप नामक गर्भाङ्ग है । । 

(४) उदाहरण :-- 


सोत्कष' स्याद दाहतिः 

[जहाँ पर उत्कषै-युक्तं वचन कहे जावे उसे उदाहरण कहते हे । | 

जैसे रत्नावली मे--“विदृषक-(दषःपू्व॑क) ही हो अरे मँ समक्ता हँ 
कौशाम्बी राञ्य की प्रापि से भी भित्र (उद्यन) को उतना सन्तोष नहीं हु्रा 
होगा जितना मुपे "सागरिका के संयोग के विषय में प्रियवचनों को सुन- 
कर होगा ° यहौँ पर रस्नावली की प्राप्ति की बात कोौशाम्बी-रा्य की पेत्ता 
भी अधिक महत्व-पूणं है इस उत्कषं का उल्लेख करने के कारण उदाहरण नामक 
गाङ्ग हे । 

(‰) क्रम :-- 


क्रमः सज्िन्त्यमानाप्रिः 
[सोची हृद वस्तु का मिल जाना क्रम कहलाता हे ।| 
जैसे रत्नावली मे-““राजा-- “यद्यपि प्रियतमा के समागम का उत्सव 


उपस्थित हो गया है फिरभी न जाने क्यों मेरा हृद्य अध्यन्त धड़क रहा 
है ? अथवा 





( ४० ) 


तीव्रः स्मरघन्तापो न तथादौ बाधते यथासत्रे | 
तपति प्रावृषि सुतरामभ्यणंजलागमो दिवस :| च 
"कामदेव का तीघ्रसन्ताप प्रारम्भ मेँ उतना सन्तप्त नहीं करता जितनी 
समाप्राम के निकट रा जाने पर उससे वेदना होती है । वर्षाकाल मे निस्सन्देह 
जलागम के निकटवर्ती होने पर दिन अत्यन्त ताप उत्पन्न किया करता है 
विदृषक-- (सुनकर) श्रीमती सागरिके ! यह श्रियमिन्न तुम्हारे दी उद्‌ श्य 
से उत्कण्ठा मे भरकर कुद कद रहे हैँ । अतएव जाकर तुम्हारे आगमन की 
बात उनसे कह दू । 
यहाँ पर बर्खराज सागरिका के समागम की कामना कर ही रहेथे कि 
आआन्तिविश वासवदत्ता के रूप उन्हें सागरिका की प्रा्ि हो गद । अतएव चिन्तित 
वस्तु के मिलत जाने से यहां पर कम नामक गभ॑सन्ध्यङ्ग हे । 
क्रम के विषय मँ दूसरा मत यह है :-- 
भावज्ञानमथापरे ॥३६ 


[दखरे आचायै भावक्तान को कम करते हैँ ।] 
जैसे ररनावली म --““राजा-(निकट जाकर) प्रिये सागरिके ! 
शीताशुमु' खमुले तव दशो पद्मानुकारौ करो, 
रम्भागमं निभ" तवोर्युगुलं वाहूमृणापयो लोपमो। 
इत्याह्वादकराखिलाङ्गि रभसानिःश्शङ्कमालिङ्ग थमा 
मङ्गानि स्वमनङ्गताय विधुसख्येह्य हि निर्वापय ॥ 


तुम्हारा मुख शीताशुदहै; तुम्हारे नेत्र उस्पल है; तुम्हारे हाथ पद्योंका 
अनुकरण करनेवाले डे; तुम्हारे दोनों अरु रम्भा के मध्यभाम के समान ह; 
बाहे श्णाल के समान ह। इस प्रकार तुम्हारे सारे अङ्ग आह्काद्‌ को उत्पन्न 
करनेवाले ह ओर मेरे अङ्ग अनङ्ग सन्ताप से पीडिन्न हो रहे है; अतएव तुम 
शङ्का छोडकर हस्पूवंक मेरे अङ्गो का आलिङ्गन करफे मेरे उन अनङ्ग सन्ताप 
से दश्ब अङ्गं को शान्ति प्रदान करो ।' यहां से लेकर चन्द्रवणंन पयंन्त जरह 
राजानेकहाहै कि हे सागरिके तु्हारे विम्बाधर मे चन्द्र का अटत भी विद्य 
मान ही है ।' वासवदत्ता ने वत्सराज के भावों का ज्ञान प्राक्च किया हे । अत- 
एव यहाँ पर मत के अनुसार क्रम नामक अङ्ग है । | 

(६) सग्रह :-- 


संग्रहः सामदानोक्ति 


[साम नौर दान की उक्तिको संग्रह कहते है ।| 
जैसे ररनावली मे --“बहुत ठीक मित्र ! बहुत ठीक यह में तुर्हं पारि- 

















(१. 
तोषिककेरूपमे कटक देरहा ह ।” यहाँ यर अशंसा करने मेखाम का 
अयोग है रौर कटक-दान में दान का प्रयोग है। इन दोनों साम ओौर दान के 
दवारा सागरिका का समागम करानेवाज्ञे विदूषक का संग्रह किया गया है। 
अतएव संग्रह नामक गर्भाज्ग हे । 

(७) अनुमान :-- 

्भ्यहोलिङ्गतोभ्नुमा 

[लिङ्ग (चिद्वया हेतु) से तकं के साथ किसी वाते निर्णय करने को 
अनुमान कहते हे ।| 

जैसे रत्नावली म - राजा-्रे मृखं ! धिक्कार है ! तुम्हारे कारण ही 
यह अनथ हमे प्राक हया हे । क्योंकि :-- 

समारूढा प्रीतिः प्रणय वहुमानात्प्रतिदिनम्‌ 
व्यलोकं रीच्येदं कृतमकृतपूर्वः खलु मया । 

प्रिया समुञ्चत्पयय स्फुटमसहना जीवितमसौ 
प्रकृष्टस्य प्रेम्णः स्खलितमवितद्य' हि मवति ॥ 

(णय ओर वहुमान के कारण प्रतिदिन हम लोगों का प्रेम बहुत बद्‌ 
गया था । मने निस्सन्देह यह एक एेसा अपराध कर दिया है जो कभी पहल 
नही किया था । यह बात स्पष्ट ही है कि असहनशील प्रियतमा अपने जीवन 
का आज परित्याग कर देगी । बद चदे प्रेम का स्खलन निस्सन्देह असद 
होताहें। 

विदृषक--*हे मित्र वाघवदत्ता क्या करेगी यह मै नही' जानता किन्तु मेरा 
अनुमान ह कि सागरिका का जीवन दुष्कर हो जावेगा ।' 

यहां पर सागरिका प्रति के राजा के ्रनुराग से उत्पन्न होनेवाले प्रङ्कष्ट प्रेम 
के स्खलन से वासवदत्ता के मरण का अनुमान !किया गया है । इस प्रकार यहाँ 
पर "अनुमान नामक ग्भाङ्ग है । 

(८) अधिवल :-- 

अधिवलमभिसन्धि 

[अभिसन्धि को अधिबल कहते हैँ । | 

नखे रत्नावली मे -“काञ्चनमाला-हे स्वामिनी ! यही वह चित्रशाला ह । 
इसलिये वसन्तक को सङ्क त देकर बुलाऊँ । (चुटकी बजाती है 1)" इन शब्दों 
म सागरिका ओर सुसङ्गता का रूप धारण करनेवाली वासवदन्ता ओर 
काञ्चनमाला ने राजा ओर विदूषक से अ्नभिक्न्धान किया है अतएव यहम पर 
अधिबल नामक गर्भाङ्ग हे । 

६ 





स्य य-म ~ अ मा-क 


~+ = 9 


+ 


(8) तोरक :- 
संरब्धं तोटकं वचः ।४०॥ 
[ उत्तेजित वचनों के प्रयोग मे तोटक कदलाता है । ] 
्से रावली मै --“वासवदत्ता-(निकट जाकर) आर्यपुत्र ! यही उचित 
हे ! यही आपके अनुकूल !!! (फिर क्रोध म भरकर) आयै पुत्र ! उठो । क्यों 
ञ्ज भी उच्कुल की मर्यादा की द्टिसे सेवा के दुःख का अनुभव कर रदे हो । 
काञ्चनमाले ! इख दुष्ट ब्राह्मण को इसी जाल मँ रबाँघकर इधर ले आभ्रो यर 
इस दुष्ट कन्या को भी आगे कर लो ।” याँ पर सागरिका के समागम म विघ्न 
उस्पन्न करनेवाज्ञे वासवदत्त के करोधपूं वचनों से नियतासि म सन्देह उत्पन्न 
हो गया है । अतव यहाँ पर तोटक नामक गर्भाङ्ग हे । 
दूसरा उदाहरण जैसे वेणीसंहार मं अश्वत्थामा दुर्योधन से कह रहे 
ह~ -आजरात मँ बन्दीजनों के दवारा प्रयलपू्ैक प्राना से जगाये जाने पर 
भी आप ्राराम से सोययेगे । (अर्थात्‌ मँ आज आपके समस्त शत्रुओं का संहार 
कर डालगा ओर आप निध्रिन्त होकर सोयेगे ।)” यहां से लेकर (जव तक मेँ 
शस्त्र को धारण किये ह तव तक अन्य आयुधो की आवश्यकता ही हे १ अथवा 
जो काम मेरे अस्त्र से नहीं बन सकता उसको दूसरा कौन व्यक्ति बना सकता 
ह ? यह तक कणं श्नौर अश्वत्थामा के सेना मँ भेद डालनेवाले क्रोध-पूणं 
वचनो से पाण्डवो कौ विजय की आशा बलवती हो जाती है । अतएव यहां 
पर तोटक नाम का गर्भाङ्ग हे । 
अधिबल मौर तोटक के विषय मे दृसरे मत येद :-- 
तोटकस्यान्यथाभावं व्रुवतेऽधिवलं वुधा : । 
[विद्वानों का कथन है किं तोटक के विपरीत भाव को अधिबल कहते ह ।| 
ते रलनावली मे - “राज्ञा-'यद्यपि तुमने मेरा प्रत्यत ्रपराध देख लिया 
ह फिर भी में निवेदन कर रहा ह :-- | 
श्राताम्रतामपनयामि विज्लक्ञ एव, 
ला्ताकृतां चरणयोस्तव देवि सुरा | 
कोपोपरागजनितां ठ म॒खेन्तु बिम्बे, 
हतु ्षमोयदि परं करुण।मयिस्पात्‌ ॥ 
हे देवि ! इस प्रकार लभ्जित होकर भी मँ त्हारे चरणों की महावर से 
उत्पन्न की हृद लाली को अपने सर से दूर किये देता हँ । किन्तु तुम्हारे सुखार- 
विन्द में क्रोध के उपराग से उन्न होनेवाली लाली को मँ तभी दूर कर सकता 
हं जब कि तुम्हारे हृद्य मेँ मेरे उपर करणा हो । 
संरब्धबचनंयत्त तत्तोटकमुद्‌ाहतम्‌ ॥४॥ , 








( ४३ ) 

[ जहाँ क्रोध पूरणं वचन कहे जावें उसे तोटक कहते हे । | 

ज्ञेसे रतावली म-““राजा-- 'प्रियेवासवदत्ते ! प्रसन्न हो, प्रसन्न हो ॥ 
वासवदत्ता - (शसू बहाती हद) आयै॒पुत्र ! ठेसा मत कहो । ये अन्तर अब 
दूसरे के विषय म हो गये हे ।'' 

दूसरा उदाहरण जैसे वेणी संहार मे -“राजा -- (हे सुन्द्रक ! क्या अङ्ग- 
राज कुशल से तो हैँ ?, पुरुष-केवल शरीर से ही कशल है ।' राजा - क्या 
अज्ञुन ने उनके घोदे मार डाले, सारथी मार डाला या रथ तोड़ डाला । पुरूष -- 
"केवल रथ ही नहीं तोड़ डाला किन्तु मनोरथ भी भङ्ग कर दिया ।' राजा-- 
(सम्भ्रम से) “क्या कहा ?” इत्यादि संरम्भ पूणं वचनो से यहां पर तोटक कहा 
जावेगा । 

(१०) उद्ेग :- 


उह गोऽरिदरता भीतिः 


[ शन्न॒ से उत्पन्न भय को उद्वेग कहते हे । | 

जेसे रल्लावली म-- “सागरिका ` (मन में) क्या पुण्य न करनेवाले को 
इच्छा से मर भी नहीं मिलता है" ?"” इत्यादि वाक्यों मे वासवदत्ता से साग- 
र्का का भय दिखलाया गया है । अतएव, यहाँ पर उद्वेग नामक गर्भाङ्ग दिख- 
लाया गया है । अपकार करनेवाला ही शत्र कहा जाता है । इसीलिए वासव- 
दत्ता सागरिका की शतु है। 


दसरा उदाहरण जैसे वेणी संहार भँ-““सूत- (सुनकर भयभीत होते हुये) 
“क्या कौरव राजपुत्र रूपी महावन के लिये उत्पात पवन के समान वायुपुत्र 
भीमसेन निकट ही है ्ौर महाराज भी अभी तक होशमें नहीं आये ?. 
च्छु अब हम रथ को दूर लिये जा रहे हँ । कहीं यह दुष्ट दुशासन के समान 
इन (दुर्योधन) से मी दुष्टता न कर वे । यहाँ पर शत्रु से भय होने के कारण 
उद्वेग नामक गर्भाङ्ग है 

(११) सम्म :- 

शङ्कात्रासौच सम्भ्रमः 

[शङ्का चौर त्रास को सम्घ्रम कहते हँ ।| 

जैसे रतावली म--““विदूषक-- (देखते हुये) “यह कौन हँ १ (संभ्रम से) 
क्या देवी वासवदत्ता आत्महत्या कर रही है ? राजा--(भ्रम-पूरव॑क निकट जाते 


हये) “यह कां है ? कहां है ? यहां पर वासवदत्ता समस्कर सागरिका के 
मरण की आशङ्का दिखलाई गह है । अतएव यहां पर सम्भ्रम नामक गर्भाङ्ग है । 





( ४४ ) 


दूसरा उदाहरण जैसे वेणी संहार म-- “(नेपथ्य मँ कलकल शब्द्‌ होता 
है ।) अश्वस्थामा-- (सम्म के साथ) मामा! मामा! व्डे दुःख की वात 
है । य देखो अर्जुन अपने भाद भीमसेन श्रतिक्ञा के भङ्ग केभयसे वाणोंकी 
वर्षां करते हये एक साथ ही दुर्योधन ओर कणं की ओर वेग से बढ़ रहे हे । 
भीमसेन ने दुश्शासन का खून विल्छुल पी लिया ।” यहां पर शङ्का दिखलादं गदं 
हे । अर “(रम पूवक प्रहार के साथ प्रवेश करते हुये) सूत - कमार की रक्ता 
करो, रक्ता करो” यहां पर भास की व्यञ्जना होती ह । इस प्रकार यहां पर दुशा- 
सन ओर द्रोण-वध के सूचक त्रास ओौर शङ्का से पाण्डवो की विजय प्राक्त की 
आशा बलवती हो जाती है । अतएव यहां पर संश्म नामक ग्भाङ्ग है । 

(१२) आक्तेप :-- 

गभेवीजसमुद्धं दाक्तेपः परिकीतितः ।॥४२॥ 

[ जहां पर गभ॑ चौर वीज का उद्धेद्‌ हो उसे आक्तेप कहते हैँ । ] 

जैसे रत्नावली म --““राजा--भिच्र ! देवी के प्रसन्न करने के अतिरिक्त सुमे 
श्नौर कोद उपाय नहीं दिखलाद देता ।' इसके बाद्‌ दूसरे स्थान पर-- “सर्वथा 
देवी के प्रसन्न करने के विषय मँ मेरी आशा जाती रही । फिर-“'अतणएव यहां 
पर बैरे सने से क्या लाभट देवी के पास चलकर उन्हीं को प्रसन्न करें ।'' 
यषां पर देवी को प्रसन्न करने से सागरिका के समागम की सिद्धि सम्भावित 
की गद है । देवी-प्रसादन गभभ॑सन्धि है भौर समागम बीज है । दोनों के उद्धेद्‌ 
से यहां पर आ्तेप नामक गर्भाङ्ग है । 

दसरा उदाहरण जैसे वेणी संहार मे--““सुन्द्रक-ञ्रथवा दैव को उपालम्म 
क्यों दू ? यह ( विनाश ) उसी छल-द्म्भरूप चर्त का फल प्राक्च हो रहा है 
जिसमे विदुर के वचनों की अवहेलना बीज है; जिस्म भीष्मपितामह के उपदेश 
का अनाद्र ही अङ्कुर हैः, जिस्म शङुनि का प्रोत्साहन ही वद्धमूल जङ्‌ हो गहं 
है; जिसकी दल, विषप्रयोग इत्यादि श।खाएं है; जिसमे द्रौपदी ऊ केश रहण ही 
फूल है ।* यहा पर बीज ही फलोन्मुख वतलाय गयां है । अतएव आक्ेप नामक 
ग्भाङ्ग हे । 

ऊपर गभ॑ संधि के १२ अङ्गोंकी व्याख्या की गह है । इन अङ्गो को प्रधान 
रूप से प्रस्याशा प्रदृशंकके रूपमे दिखलाना चाहिए । मत्याशा के अदशंन में 
दोनों बातें होती हैँ । कदीं-कदीं सफलता की आशा उद्धत हो जाती है ओर 
कहीं निराशा अपना अधिकार जमा लेती हे । कहीं सफलता की आशा मे प्रस- 
क्रता होती है, गौर कहीं त्रिफलता की आशङ्का से खेद होता है। क्रिया-कलापे 
म कहीं छल का प्रयोग होता है यौर कीं विचारधारा मे तकं. वितकं उपस्थित 
किये जाते हे तथा कदं अनुमान का सहारा लिया जाता है । कीं साम रौर 








( ४५ ) 


दान का मयोग किया जातादहैतो कहीं क्रोध का प्रदशंन होता दहै ओर कहीं 
अभिसंधि से काम लिया जाता ह । कहीं करोध से काम लिया जाता हेतो कीं 
श्नु का भय प्रदशित किया जाता है तथा अन्यत्र सम्भ्रम का अभिनय किया 
जाता है । कीं भत्याशा ओौर उपाय के साथ बीज काभी उज्ञेख कर दिया 
जाता है। इसी आधार इस गभ-संधि के १२ भेदोंकी व्यवस्था की गद है 
जिनका बरणन ऊपर किया जा चुका हे। इन अङ्गो मे अभूताहरण (इल), मागं 
(उपायों का सच्चा परिचय), तोटकं (कोध), अधिबल (अभिखन्धान य। नन्नता) 
यर आ्ठेप (्रष्याशा नौर बीज का सम्बन्ध) ये सुख्य हँ । अन्य अङ्गं का जैसा 
उचित हो वैसा मयोग करना चाहिए । 


्वमशं सन्धि अर उनके भेद 


धवमशं सन्धि का लक्तण यह है :-- 
क्रो घेनावमरशेयत्र उश्रसनाद्रा विलोभनात्‌ । 
गभनिभिंत्र बीजार्थ, सोऽवमशं इति स्मृतः ।४३॥ 

[जरह पर क्रोध से, व्यसन से थवा प्रलोभन से जहा पेर वस्तु तत्व का 
प्यालोचन किया जावे अओौरःजहां पर गर्भ-संधि मेँ उद्धिन्न बीजार्थं का सम्बन्ध 
दिखलाया जावे उसे अवमश-संधि कहते दै ।] 

अवम शं शब्द्‌ का अथं है पर्यालोचन । गर्भ-संधि में पर्याचन ही प्रधान- 
रूप से दिखलाया जाता है । यह पर्याचन कहीं तो क्रोध से होता है, कीं व्यसन 
से ओर कहीं प्रलोभन से । नियमाजकूल इस अवमशं.संधि मै प्रकरी नामक 
अर्थ-प्रकृति ओर नियतासि नामक कार्यं की अवस्था होनी चाहिए । आशय यह 
है कि इस संधि की गभै-संधि से अयेत्ता बीज का विस्तार अधिक होता है ्ओौर 
आवश्यकतानुसार किसी प्रासङ्गिकं इतिवृत्त की कल्पना की जाती है जिसे 
प्रकरी कहते हैँ । इख संधिमें धयह कायं अवश्य सिद्ध दहो जावेगाः इस 
प्रकार का निश्चय अवश्य होता है भौर यही निश्चय इस विमशं-संधि का 
स्वरूप है । 

उदाहरण के लिए रत्नावली के चतुथं अङ्क मे अग्नि के उपद्रव तक वासव 
दत्ता के विध्न दिखलाये गये ओर अन्त मे निविध्न रत्नावली की प्राप्ति 
का अवसर दिखला दिया गया । इस प्रकार चतुथं अङ्क अवमशंसंधिका 
उदाहरण है । 

दूसरा उदाहरण जैसे वेणी-संहार मँ दर्योधन के खून से सने हुए भीम- 
सेन के आगमन तक इसी अवमशं-संधि का विस्तार है। वहां पर कहा 
गया है :-- 








( ४६8 ) 
तीण भीष्ममहोदधौ कथमपि द्रोणानले निवृ ते । 
कर्णांशीविष भोगिनि प्रशमिते शल्पेऽपि याते दिवम्‌ ॥ 
भीमेन प्रियसाहसेन रभसादल्पावशेषे जये । 
सवेजीवित संशयं वयममी वाचा समारोपिताः ॥ 
(भीष्म पितामह रूपी महासागर पार कर लिया गया, जैसे-तैसे द्रोणाचार्य 
ख्पी आग भी शांत कर दी गई; कणं रूपी आशीविष (दाद््मे विष को धारण 
करनेवाला) सपं भी नष्ट कर दिया गया श्नौर शल्य भी स्वगं को चले गये; 
थोडी ही जय शेष रह गई थी कि साहस को अधिक पसन्द्‌ करनेवाले भीम 
सेन ज्दयाजी मे (उसी दिन) दुर्योधन मारने या स्वयं मर जाने की रेसी 
परतिज्ञा कर ली कि हम सब लोगों को पने जीवन का सन्देह उत्पन्न हो 
गया । 
यहाँ पर “जय ध्योडी ही शेष रह गदे थी? इत्यादि कथनं से विजय के विरोध 
भीष्म पितामह इत्यादि समस्त महारथियों के मारे जाने से निरिचत रूप से 
विजय प्रसि की पर्यालोचना की गई है । अतएव यहाँ पर अवमशं-संधि ह । 
अवमरश-संधि के अङ्ग ये होते द :-- 
तत्रापवाद्‌ संफेटौ विद्रवद्रब वशक्तयः । 
युतिः प्रसङ्गश्छलनं व्यसायो विरोधनम्‌ ॥४४॥ 
पुरोच ना विचलनभादानं च त्रयोदश । 
[अवमश-संधि के अपवाद इ स्यादि १३ भेद होते हँ |] इन १३ भेदं कौ 
क्रमशः व्याख्या कीजारहीदह। 
(१) अपवाद :ः-- 


दोषप्रख्या पवाद्‌ःस्यात्‌ 


[दोषों के कथन करने को अपवाद कहते हँ ।] 

जैसे रत्नावली मे-- “सुसङ्गता स्वामिनी वासवदत्ता ने उस तपस्विनी 
सागरिका को यह भरसिद्ध करके किं वह उसे उज्जयनी लते जावेगी नजानेले 
जाकर कहाँ रख दिया ।' विदूषक --(उद्भेग के साथ) देवी ने बड़ी ही निदेयता 
की बात की” इसके बाद्--““हे भित्र तुम ङं ओर न समो; उस साग- 
रिका को देवी ने उउ्जयनी को भेज दिया है; इसीलिए ने कह दिया कि अनथ 
हो गया 1 राजा--““आआश्च्यं है कि देवी को सुकसे जरा भी सहानुभूति नहीं 
हे 17 यहाँ पैर वासवदत्ता के दोष को भगट करने के कारण .अपवाद्‌ नामक 
द्मवमशं-संधि का अङ्ग है । 








( ४७ 


दूसरा उदाहरण जैसे वेणी-संहार मे--““युधिष्ठिर- पाञ्चालक { क्या उस 
दुराष्मा नीच कौरव (दर्योधन) का पता पा लिया ? पाञ्चालक --केवल पता ही 
नहीं अपितु देवी के केश-पास के स्पशंरूप पातक का प्रधान हेतु बह दुरात्मा स्वयं 
ही पा लिया गया ।' यहां पर दुर्योधन के दोषों का प्र्यापन करने के कारण 
अवमशं-संधि का अपवाद्‌ नामक अङ्ग हे ।" 
( र) संफेट :-- 
संफेटो रोष भाषणम्‌ 


[रोष भाषण को संफेट कहते हँ ।| 

जैसे वेणी-संहार मे --““तब भीमसेन ने दुर्योधन से कहा--े कौरवराज ! 
बन्धुनाश दशन का शोक करने की आवश्यकता नदी । इस बात का कोड दुःख 
मत करो कि पाणडव पर्याक्च संख्या मँ है ओर मैं असहाय ह हे दुर्योधन हम 
पाचों मे जिस किसी से युद्ध करना आसान समते हो, उसी से कवच प्रहन- ` 
कर ्ौर शख हाथ म लेकर तुम युद्ध कर सकते हो । यह सुनकर ईष्यापूरं 
दृष्टि भीम ओर अञ्जन इन दोनों कुमारो पर डालकर दुर्योधन ने कहा-- 


कणं दुश्शासनवधत्तुल्यावेव युवांमम । 
श्रप्रियोऽपि प्रिपोयोद्धं स्वमेव प्रियसाहसः ॥ 
करं ओर दुश्शासन के मारने से तुभ दोनों मेरे लिए एक जैसे हो । (एक 
ने कणं को माराहै भ्रौ दूसरे ने दुश्शासन को । अतएव दोनों से मेरी एक 
जसी शत्रुता है 1); किन्तु अग्रिय होते हुए भी अधिक साहसी होने के कारण 
तुम्ही' युद्ध के लिए प्रिय (अभीष्ट) हो ।' 
यह कहकर उठकर परस्पर करोध आप ओर कठोर वाक्लह के साथ दोनों 
ने युद्ध को विस्तारित कर दिया । 
हँ पर भीम शौर दुर्योधन ने एक दूसरे के प्रति दोषपूणं संभाषण किया 
हे ओर उससे विज्ञय रूप बीज का अन्वय हो गया हे । अतएव यहां पर सेट 
नामक अवमशाङ्ग हे । 
(३) विद्रव :-- 
विद्रबो बधबन्धादिः 
[वध नौर बधन इत्यादि के वणेन मेँ विद्रव कहा जाता हे |] 
ज्ेसे छलितराम नामक नाटक में :-- 
येनावृत्य मृखानि साम पठतामत्यन्तयायासितम्‌ । 
वाल्ये येन हृता सूत्रवलय प्रस्यपशैः क्रीडितम्‌ ॥ 














( ४८ ) 
वुष्माकं हृदयं स एव विशिखैरापूरितांसस्थलो । 
मृखावोरतमः प्रवेशविवशो वद्वा लवोनीयते ॥ 

“जिस लव ने मंत्रं का ्आावतंन करते हुए साम पदनेवालो के सुखो को 
अत्यन्त आयासित किया; बचपन म जो हरण किये हुए अक्षसूत्र बलय इत्यादि 
के प्रस्यपंण केद्वारा क्रीडा किया करताथा;जो तुम लोगों का हृदय है; जिसका 
अंसस्थल वाणो से भरा हाहे मूङ्कां रूपी घोर श्रंधकारमें प्रवेश करनेसे 
विवश हुआ वही लव बाधकर ज्ञे जाया जा रहा है।' 

यहां पर बन्धन का बणंन है । अतएव थह विद्रव नाम का अवमर्शाङ्ग कहा 
जावेगा । 

दूसरा उदाहरण जैसे रत्नावली म :-- 

हरम्यांणां हेमश्ङ्गभियमिव शिखरे रचिषामाद्धा.; । 
सान्द्रोधान द्र माग्रगलपन पिश्युनितात्यन्त तीवाभितापः ॥ 
कुवन्‌ क्रीड़ा मदीश्र सजलजलधर श्यामलं दष्ट पातैः । 
एषञ्ञोषातं योषिज्जन इदहसहसैवोत्थितोऽन्तःपुरेऽग्निः ॥ 

“इस समय अन्तःपुर मे आग उड रही है; यह लपटों के शिखरो से भवनों 
को एेसी शोभा प्रदान कर रही है मानों उनके श्वग सोने से जडे हुए हों; घने 
उद्यान इतो के अग्रभाग को जलाने से इसका ती अभिनाप अग हो रहा है; 
धृञ्रपात के द्वारा यह क्रीडा पव॑त को जल-पूणं मेघ के आवरण समान श्यामल 
बना रहय है ओर इसकी भयानक लपट से खयो का समूह व्याकुल हो रहा है ।' 

इसके बाद्‌--“वासवद्त्ता हे ्रार्यपुत्र ! मै अपने कारण नहीं कह रही है; 
मैने निदेय हृद्य होकर सागरिका को बाँध रक्खा है; वह बेचारी य्ह पर मर 
रही है 

यर्हा पर सागरिका का वध बन्धन ओर अभिका विद्रव इत्यादि दिखलाया 
गया है । 

(४) व :-- 

द्रवोगुरुतिरस्छृतिः ॥४५॥ 
[गुरुं के तिरस्कार को द्रव कहते हे ।] 
जसे उत्तर रामचरित मे लव कह रहे हैँ : -- 
वृद्धास्ते न त्रिचारणीय चरितास्तिष्ठन्तु ह वतते | 
सुन्दरी दमनेऽपखरड यशसो लोके महान्ता हिते ॥ 
यानि तोयस्छुतो मुखान्यपि पदान्यासन्‌ खरायोधने । 
यद्वा कोशलमिन्दु शत्रु दमने तत्राप्यभिज्ञो जनः ॥ 





[काक 


(०) 


वे राम वृद्ध हँ; उनके चरित्र पर विचार ही क्या किया जावे; उनकी बात 
जाने दीजिष; हं यह भीतो है। सुन्द की खी ताडका का उन्होने वध किया; 
खी वध जैसे जघन्य काम॒ करतेहृए भी उनका यश अखण्ड ही बना रहा रौर 
लोक मे वे महान्‌ ही बने हण हें। जो खरदूषण के युद्ध मे विचलित होकर 
उन्होने तीन कदम पौधे को उा्लेथे याजो कौशल उन्होने ईन्द्रके शत्रु के 
दमन मे दिखलाया था उनको भी लोग जानते ही हे ॥ 

यहाँ यह लव ने श्रपने गुरु राम का तिरस्कार किया है । अतएव यहाँ पर 
दव नामक अवमर्शांङ्ग है । 

दूसरा उदाहरण जैसे बे णी-संहार मेँ - युधिष्ठिर ने सुनि का रूपधारण 
करनेवान्ञे मायावी राक्तस के सुख से यह सुना है कि बलभद्र श्रीकृष्ण को युद्ध- 

. भूमिसे हटा ले गये है । उस समय युधिष्ठिर कह रहे है --हे भगवन्‌ ! कष्णा- 
गुज ! हे सुभद्रा के भाई ! 
्ञातिप्रीतिर्मनसि न कृता ्षत्रियाणां न धर्मो 
रूढं सख्यं तदपि गणितं नानुजस्याजनेन । 
तुल्यः कामं भवतु मवतः; शिष्ययोः स्नेह वन्धः, 
कोऽय' पन्थाः यद्धि विभुखोमन्दभाग्ये भयीतथम्‌ ॥ 

(तुम विरादरी के प्रेमकोभी मन मे नहीं ले आये; त्रियं के धमे पर भी 
विचार नहीं किया, अर्जन के साथ तुम्हारे छोटे भाद (श्रीकृष्ण) का जो प्रेम बढ़ 
चुका था उसको भी कध नहीं समा; आपका दोनों शिष्यो के मति सलमान 
प्रेम होना ही चादिण; किन्तु यह आपका कौन सा मागं दहे कि सुर मन्द्‌ भाम्य 
के प्रति राप इस प्रकार विमुख हो गये हँ ।' 

यहां पर युधिष्ठिर ने अपने गुर बलभद्र का तिरस्कार किया है । अतएव 
यहा पर द्व नामक ्रवमर्शाङ्ग है । 
` () श््तिः-- 

विरोधशमनं शक्तिः 
[विरोध शमन को शक्ति कहते दँ ।] 
जैसे रत्नावली मे राजा कह रहे हैँ :-- 
सठ्याजैः शपथैः प्रियेण वचसा चित्तानुवृ्याधिकम्‌, 
वैलच्येण परण पादपतनैः वाक्य; सखीनां मुहुः । 
प्रस्यासत्तिमुपागता नहि तथा देरव,रूदत्या यथा 
परज्ञाल्यैव तयेव वाष्प सलिले: कोपोऽपनीतः यथा ॥ 
“मेरी व्याज से युक्त (कठी) शपथो से; प्रिय वचनों से, अधिक चित्त का 


५9 











। 
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( > >» 


ञ्ननुवतंन करने से, बहुत अधिक निराशा रोर दुःख प्रगट करने से, चरणो पर 
गिरने से, ओर सखिथों के बार वार समाने से देवी वासवदत्ता उतनी शान्त 
नदीं हृदै' जितना कि रोते हुए स्वयं ही उन्होने अश्रुजल से धोकर कोध को 
शान्त कर लिया ।' 

यहां पर सागरिका के लाभ मे विरोध डालनेवाजे वासवदत्ता के कोपके 
शान्त हो जाने से शक्ति नामक अवमर्शाङ्ग है । 

दूसरा उद्‌1हरण जैसे उत्तर राम चरित मे लव कह रहे है :-- 

विरोधो बिश्रन्तः प्रसरति रसो निव तिधनः, 
तेदोद्धव्यः कापि व्रजति विनयः प्रहयति माम्‌ ।. 
सटित्यस्मिन्‌ दृष्टे किमपि परवानस्मि यदिवा, 
महाघंस्तीर्थानामिव हि महतां कोऽप्यतिशयः ॥ 

{श्री रामचंद्रजी के दशन करते ही) मेरा विरोध शांत हो गया, बहुत 
अधिक शांति से युक्त रस पैलने लगा, वह॒ उदण्डता कहीं चली गदं ओर 
विनय मेरा अपनी ओर आह्वान करने लगा । इनको देखते ही मेँ कड पराधीन 
साहो गया ह; महापुरुषों का महच्च निस्खन्देह तीर्थो के समान बहुमूल्य 
होता है । 

यहां पर लव के विरोध शांत दो जाने से शक्ति नामक अवमशङ्ग हे । 

(६) शति :-- 

तजंनोद्रजनेदतिः 
[ तजन ओर उद्र जन के वणन करने मे युति होती हे | 
` जैसे वेणी-संहार म पञ्चालक युधिष्ठिर से कह रहा है - “भगवान्‌ बासुदेव 
के वचनों को सुनकर कुमार भीमसेन ने उस सरोवर को आलोडित कर दिया 
जिसमे उख सरोवर का जल सम्पूणं दिशां रौर निङुजों को भर कर॒ बह 
चला; उसमे भरे हये सम्पृणं जलचर उदृभ्रान्त हो गये ओर त्रास से घद्याल 
व्यग्र हो गये तब भीमसेन ने भयानक गजंन के साथ कहा :-- 
जन्मेन्दोरमले कुले व्यपदिशस्यद्ापि धत्से गदाम्‌, 
मां दुश्शान कोष्ण शोणित खु राक्तीवं रिपु भाषसे । 
दर्पान्धो मधुकैटभद्विषि दरप्युद्धतं वेष्टसे, 
| मन्त्रासान्द्रपशोविहा समरं पङ्क ऽघुनालीय से ॥ 
(तुम अपना जन्म निमैल चन्द्रवंश मे बतलाते हो; आज भी गदा धारण 
कि हये हो; मुभे दुश्शासन के कु उष्ण रक्त रूपी मदिरा से मत्तशत्रु कहते 
हो; अभिमान म इतने अन्परेहो गये हो कि मधुकैटभ का संहार करनेवाले 








( ५१ ) 


भगवान के प्रति उद्धत आचरण करते हो । किन्तु रिरि भी इस प्रकार हे नर 
पशु ! मेरे भय से*युद्ध. को छोडकर कीचड मँ हिप रहे हो ।' 


यहाँ से लेकर “जल को छोडकर एकदम उठ खडाहो गया।' य्ह तक 
भीमसेन के दुर्वचन ओर जलावलोडन का वंन किया गया है । ये दोनों बातं 
दुर्योधन का तजित श्रौर उद्भ जित करनेवाली ह रौर ये पांडवों के विजय के 
अनुकूल दुर्योधन को उठनेवाली है । अतएव यहं पर भीमसेन की चुति का 
वणन किया गया है । 

(७) प्रसङ्ग :-- 

गुकी तनं प्रसङ्गः 

[माता-पिता इत्यादि गुरुभं के"कीतंन को (उल्लेख) को प्रसङ्ग कहते हँ ।] ` 

जैसे रत्नावली मे-- वसुभूति कह रहे है -हे देव ! सिहल के स्वामी 
ने वासवदत्ता को जली हृदे सुनकर अपनी रत्नावली नाम की आयुष्मती पुत्री 
को प्रदान कर दिया जिसकी पहले प्राथना की गदं थी।' 


यहाँ पर उच्चवंश को प्रकाशित करने के लिये प्रसङ्गवश गुरु (सिदहेलेश्वर) 
काकीतन किया गयाहै जो कि रत्नावली समागम का साधक है । चतएव 
यहा पर प्रसङ्ग नामक अवमशाङ्ग है । 


दृसरा उदाहरण जैसे च्छ !कटिक मँ--चाण्डालक-- यह सागरद्त्त का 
पुत्र भाय विनयदत्त का पौत्र चारुदत्त मारे जाने के लिये वध्यस्थान पर ले जाया 
जा रहा है; कहा जाता है सुवणं के लोभ से इसने वसन्त सेना नाम की गणिका 
का मार डाला + इस प्र चारुदत्त कह रहे हँ :-- 

मरवशत परिपूतं गोच्रमुद्धासितं यत्‌, 
सदसि निविड चैत्य ब्रह्मधोषैः पुरस्तात्‌ । 
मरय निधनदशायां वतमानस्य पापे 
तदसदशमनुष्यैधु ष्यते घोषणायाम्‌ ॥ 

“पुराने समय मेँ मेरा वंश सैकडों यज्ञो से पणं रूप से पवित्र हो गयाथा 
ञ्नौर सभा मे घने तथा बहुसंख्यक चैत्यो के वेद॒मन्त्रों के शब्दों से वह मेरा 
दंश पणं रूप से प्रकाशित हो रहा था । आज जव मैं सत्यु की दृशा मँ बतेमान 
हं तव ये पापी अयोग्य मनुष्य मेरे उसी वंश के घोपण मे घोषित कर रहे हैं । 


यहाँ पर चारदत्त के वध-रूप अभ्युदय के अ्नुदरल॒भसङ्गवश गुर कीतंन 
किया गया है । अतएव यहाँ पर प्रसङ्ग नामक अवमरशाङ्ग हे । 


(२. 


(८) लन :-- | 
छलनं चावमानम्‌ ।॥५५॥। 
[अवमान (तिरस्कार) को छलन कहते हैँ । | 
जेसे रत्नावली मँ--“ राजा--आश्चय हे कि देवी मेरे विषय मँ बिल्कुल 
सदानु भूति रदित है ।” यहां पर वासवदत्ता सागरिका को अन्यन्न भेज चुकी हं 
हस प्रकार उसने राजा की मनोरथ सिद्धि मे वि डाला हं इस प्रकार राजा को 
चलने के कारण यर्हा पर लन नामक अवमर्शाङ्ग हे । 
दूसरा उदाहरण जेसे रामाभ्युदय म सीता परित्याग से ्रपमान होने 
के कारण लन है । 
(8) व्यवसाय :-- 
व्यवसायः स्वशच्य्तेः 
[अपनी शक्ति के वंन करने को व्यवसाय कहते हैँ ।] 
जैसे रत्नावली मेँ इन्द्रनालिक कह रहा है :-- 
“क्रं धरणी एमिश्रङ्को श्राश्रा से मदिहरो जले जलो । 
मञ्मिम्फणद पश्रोसो दाविजडउ देहि श्ाज्तिम्‌ ॥, 
(किं धरण्याम्‌ मृगाङ्क श्राकाशे मदीधरोजले ज्वलनः । 
मध्याह्वे प्रदोषो दश्य॑तां रेद्यज्ञप्तिम्‌ ॥) 
याज्ञा दीन्यि क्या पृथ्वी पर मैं चन्द्र दिखाला द्‌", आकाश मेँ पर्वैत 
दिखाला द, जल मे आग दिखला दू अथवा मध्याह्ध म सन्ध्या दिखला द्‌ !' 
अथवा बहुत कहने की क्या आवश्यकता ? 
°मञ्मफ पण्णा एसा भणामि दिश्रएण जं मदहीस दघ्म्‌। 
तं ते दावेमि फुड गुरुणो मत्तपदावेण ] 
(मम प्रतिज्ञा मणामि हृदयेन यद्राज्छसिदश्टुम्‌ | 
तत्ते दश यामि स्फुटं गुरोर्मन्त्र प्रभावेण ।) | 
“मेरी प्रतिन्तौ यही दहै, मैं हृदय से कहत्ता हँ जो तुम देखना चाहते हो 
वह मेँ गुर जी के मन्त्र के प्रभाव से स्पष्टरूप मँ दिखला सकता हँ ।' 
यहां पर देन्द्रजाल्लिक ने अधि के मिथ्या सम्म को उटाकर वत्सराज. के 
हृद्य मँ स्थित सागरिकाके दशंन के अनुकल अपनी शक्ति का आविष्कार 
किया ह । अतएव यहाँ पर व्यवसाय नामक अवमर्शाङ्ग हे । 
दुसरा उदाहरण जसे वेणी-संहार मे युधिष्ठिर कह रहे हँ :-- 
नूनं तेनाद्य -रवीरेण प्रतिज्ञानङ्ग मीरूण । 
वव्यते केश पाशसे सचास्पाकर्षशे्तःः ॥ ` 








(3) 


“निस्सन्देह भतिक्ता भङ्ग से डरनेवाला वह वीर भीम आज तुम्हारे केशपाश 
को बधेगा ओर इस केश फे खीचने मे उस कारण दुर्योधन को मारेगा । 
यहाँ पर युधिष्ठिर ने अपनी दणड शक्ति का आविष्कार किया हं । अतएव 
यहाँ पर व्यवसाय नामक अवमर्शाङ्ग हं । 
(१०) विरोधन :-- 
संरब्धानां विरोधनम्‌ 


[क्रोध मे भरे हये लोगों का अपनी शक्तिको वंन करना विरोधन 
केहलाता ह ।| 

आशय यह है कि यदि वक्ता मे क्रोधन दहो, केवल अपनी शक्तिकाद्ी 
्रदृशंन कर रहा हो तो व्यवसाय होता ह श्रौर यदि क्रोध भी सम्मिलितोतो 
विरोधन होता है। | 

ज्ेसे वेणी संहार मे वट-वृत्त की छाया म विद्यमान शतराष्ट्र को दुयोधन 
के समक्त भीम ओौर अजुन ने अपने-अपने पराक्रम का बखान करते हए प्रणाम 
किया है । इस पर दुर्योधन कह रहा है--अरे रे वायु-पुत्र वृद्ध राजा के सामने 
अपने निन्दनीय कमो की क्या प्रशंसा कर रहे हो । सुनो :-- 

कृष्टा केशेषु भार्यां तव तव॒ च पशोस्तस्य राज्ञस्तयो्वा, 

प्रत्यकं भूपतीनां मम ॒सुवनपते राज्ञया युतदासी । 

श्रस्मिन्‌ वैरानुबन्वे वद्‌ किमपकृतं तैहंता ये नरेन्राः, 

वाहयोर्वीर्थातिरेकद्रविणगुरुमदं मामजित्वैव दपः ॥ 

(तुक नर-पशु (मीम) के सामने, तेरे (अनन) सामने, उस राजा (युधिष्टिर) 
के सामने उन दोनों (नकल ओर सहदेव) के सामने ओओर समस्त राजाश्चों के 
सामने भुवनो के स्वामी मैने अपनी आज्ञा से तुम्हारी पत्नीकोजए मे दासी 
बनाकर बाल पकड़कर खिचवाया था । इस वैरानुबन्ध मेँ बतलाश्मो उन लोगों 
ने क्या अपकार किया था जिनको तुमने मार डाला ? बाहु के वीर्यांतिरेक का 
महान्‌ अभिमान रखनेवाले सुमे विना ही जीते हुए यह क्या अभिमान कर 
रहा है ? (मीम क्रोध का अभिनय करते हँ ।) अजन--आार्यं ! प्रसन्न हो, कोध 

करने की घावश्यकता नहीं । 
श्रप्रियाणि करोत्येष वाचा शक्तोन कर्मणा । 
हतश्ातृशतो दुःखी प्रलापैरस्प का व्यथा ॥ 

यह वाणी से अपकार कर रहे; श्मसे पकार करने फी इनर्मे शक्ति 
ह नहीं ह । इनके सौ भाई मारे गये है; ये दुखी है; इनके बकने से क्या व्यथा 
दो सकती है ? 








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॥ | 
| | 








( ‰ ) 


भीमसेन-- “अरे भरतङुल कलङ्क ? 
द्रव किंन विशसेयमहं भवन्तं, 
दुश्शासनानुगमनाय कड प्रलापिन्‌ । 
विघ्न गुरुन॑कुक्ते यदि मस्कराप्, 
नि्मि्मान रशिता स्थिनि ते शरीरे ॥ 
हे कटुभाषी ! र| दुश्शासन के पीठे जाने के लिए तुश्दं यहीं योन 
मार डालता यदि मेरे हाथ के अन्रभागसे टूनेवाली हड्यों के चरचराहट से 
युक्त शरीर के विषय मे गुर विघ्न. न डाल देते ॥ ञनौर भी सुन मूखं ! 
शोकंस्तरीवन्नयन सलिलै्॑स्परित्याजितोऽसि, 
भ्रा तुवत्तस्थलवि दलने यच्च साक्तीकृतोऽसि । 
ग्राखीदेतत्तव कुचरतेः कारणं जोवितश्य, 
कर द्ध युष्म्ुल कमलिनी कुज्ञरे भीमसेने ॥ 

(तुम्हारे ल; रूप कमलिनी के लिए हाथी के समान'^नष्ट करनेवाक्ञे भीम 
के कुपित होने परभीजो तुम अव तक जीवनधारण किये रहे उसमें एकमात्र 
यही कारण था किं चियों के समान नेत्रां के आसुओं से तुमसे शोक चुदवाया 
गया चौर भाई दुश्शासन के वक्षस्थल के विदीणं करने के अवसर पर तुम साक्ती 
बनाये गये । (आशय यह है कि यदि रर तुम्हें पहले ही मार डालतातोनतो 
तुम आंसू ही बहाते नौर न भाई के वततस्थल का विदलन ही देख पाते । अव ये 
दोनों काम हो चुके है; अव मे'तुम्हं अवश्य मार ड।लंगा।) 

दुरयोधन--रे दुरात्मन्‌, नीच भरतवंशीः"पाण्डव पशु ? मेँ तेरे समान बद्‌- 
चद्‌ कर बातं मारने मे निुण.नहीं हँ । किन्तु :-- 
र द्यन्ति न चिरात्सुप्तं वान्धवास्त्वां रणाजिरे | 
मदूगदाभिन्न वक्ोऽस्थिवेणिका भङ्गभीषणम्‌ ॥ 


“अति शीघ्र तुम्हारे बान्धव तुम्हें रणङ्गण मे सोता हा देखेगे जब हमारी 
गदासे टूटी इदं छाती की .हड़ी से निकलनेवाल्े प्रवाह के कारण तुम्हारी 
आकृति बडी भयानक मालूम पड़ रही होगी ।' 

यहां पर भीम श्नौर दुर्योधन परस्पर, क्रोध मेँ भरकर अपनी शक्ति का प्रद्‌- 
शंन कर रहे हें । अतएव यहां पर विरोधन नामक अवमर्शाङ्ग है । 

(११, प्ररोचना :-- | 

षिद्धामन्त्रणतोमाविदशिका स्यात्पररोचना । 

[किसी सिद्धपुरष के काय सिद्ध हो जावेगा' यह कह देने से जिससे भावी- 
काका सिद्धिके रूपमे प्रदशंन होता है उसे पुरोचना कहते है ।| | 





( ५ ) 





ज्ञेसे वेणी-संहार मे - “पाञ्चालक - मुभे देवचक्रपाणि ने आपके पास भेज 
दिया है 1" इस उपक्रम के साथ :- 


ूर्वन्तांसलिलेनरल कलशाः राञ्यामिषेकराय ते | 
कृष्णात्यन्तचिरोड्किते च कवरीवन्धे केराठत्तणम्‌ ॥ 
रामेशातकुठार मासुरकरे ्ञत्रद्र.मोच्छेदिनि । 
क्रोधान्धे च वृकोदरे परिपतत्याजो कुतः संशयः ॥ 
तुम्हारे राज्याभिषेक के किए रत्नों के कलश-जल से परिपू कर दिये जावे; 
कृष्णा बहुत दिनों से खोले हए अपने कवरीबन्ध के विषय म उत्सव मनावे । 
तीचण कटार से प्रकाशित हार्थो वाले इत्रिय-रूपी इृत्तो का उच्छेदन करनेवाले 
परशराम के ओर क्रोध से अन्धे होकर भीमसेन के युद्ध मे उतर पड्ने पर किसे 
सन्देह हो सकता है ।' 
यहां से लेकर--“देव युधिष्ठिर मङ्गल करने की आज्ञा दे रहे है ।' यहां तक 
भगवान्‌ कृष्ण के आमन्त्रण से द्रौपदी के केश संयमन ओर युधिष्ठिर के राञ्या- 
भिषेक को सिद्ध रूप मे वर्णन किया हे यद्यपि वे सिद्ध भविष्यमे होगे । इस 
प्रकार यहां पर पुरोचना नामक अवमर्शाङ्ग हे । 


(१२) विचलन :- 
विकत्थना विचलनम्‌ 


[ बद्-बदेकर वाते मारने मेँ विचलन कहा जाता हे ।] 

जैसे वेणी-संहार मे, अञ्जन तराष्टर रौर गान्धारी से कह रहे ह- हे 
पिताजी ओरहे माताजी ? 

सकलरिपुजयाशायत्र वद्धा सुतैस्ते, 
तृणमिव परिभूतो यस्यगवेणलोकः । 
ॐ रणशिरसि निहन्तातस्य राधा सुतस्य, 
प्रणमतिपितरौ वांमध्यमः पाण्वोऽयम्‌ ॥ 

(आपके पुत्रां ने जिस पैर अपनी सारी शत्रु विजय की आशा बांध रक्खी 
थी भौर जिसने अपने गवं से सारे संसार का तिनके के समान तिरस्कार कर 
दिया था; उस राधा पुत्र कणं को युद्ध-भूमि मेँ मारनेवाला यह मला पाण्डव 
(अज्ञ॑न) अप दोनों को प्रणाम कर रहा हे ।' 

इसके पद भीमसेन कहते हँ :-- 

चृशिताशेष कौप्ययः क्षीवो दुश्शसनासजा । 
भचा खयोधनस्योर्वोभी मोऽपशिरसाच्चति ॥ 


( ४६ ) 


“जिसने सारे कौरव वंश को चृणं किया है नौर जो दुश्शासन के खून से 
पागल हो रहा है तथा जो भविष्य में दुर्योधन की जङ्घानां को तोढनेवाला हे 
वह भीम आपको सर से प्रणाम कर रहा हे।' 


यहां पर विजय रूप वीज का अनुसरण करते हये अपने गुणों का श्रावि- 
प्कार किया गया है । अतएव्‌ यहां पर विचलन नामक अवमर्शाङ्ग है । 
दूसरा उदाहरण जैसे रलावली मे यौगन्धरायण कह रहे है :- 
देव्यामद्भचनाद्यथाम्बुपगतः पत्यु र्वियोगस्तद्‌। । 
सादेवस्य कलत्र सङ्घटनया दुः खंमया स्थापिता ॥ 
तस्याः प्रीतिमयं करिष्यति जगत्स्वामित्व लाभः प्रभोः | 
सत्यं दशतितुं तथापि वदनं शक्रोभिनो लज्जया ॥ 
उस समय देवौ वासवदत्ता ने मेरे कहने से पति से वियुक्त होकर रहना 
स्वीकार कर लिया था; मने स्वामी का दृसरी पली से सम्बध कराकर उस देवी 
को दुःखम स्थापित कर दिया । पति की जगस्स्वामित्व प्राषि उस देवीको 


आनन्दित करेगी । किन्तु फिर भी सचमुच लउजावश मेँ अपना मुख नहीं दिखला 
सकता ।' 


यहां पर यद्यपि यौगन्धरायण ने दृसरी बात कही है किन्तु उखसे यह 
म्यञ्जना अवश्य निकलतीं है कि-- मैने वत्सराज के लिये एेसी कन्या की 
प्रापि करा दी जिसका फल जगस्स्वाभित्व को ध्राक्त है। इस प्रकार यहां पर 
स्वगुण कीतेन करने के कारण विचलन नामक अवमर्शाङ्ग है । 

(१३) आदान : - 


आदानं कायं संग्रह 
[कार्यं संग्रह को आदान कहते हँ ।] 
जेसे वेणी-संहार भें दुर्योधन का वध करके लौटे हुये रक्तरञ्जित ` भीमसेन 
श्रपने समस्त सैनिकों ओर सम्बधियों को सम्बोधित करके कह रहे हे :-- 
रत्तो नाहं न भूतो रिपुरुधिरजलाल्याविताङ्गः प्रकामं, 
निस्तीणौँर प्रतिज्ञाजलनिधिगहनः क्रोधनः्तभियोस्मि । 
भो भोराजन्य वीरा; समरशिखिशिख। दग्ध शेषःकृतंव, | 
खसेनानेन लीनैदतकरि दछर्गान्तर्दतैसस्पतेयत्‌ ॥ 
“न मेँ रा्तस द्व न भूत-प्रेत ह, मै भलीभांति' शत्रु के रिरि रूपी जल से 
अङ्गं मँ आल्पावित हो रहा हँ । मँ भीषण भ्रतिक्ञा रूपौ गहन समुद्र को पार 
किये हुये एक क्रोधी त्रिय हँ । युद्ध रूपी अग्नि कीश्खिा से द्ग्धहोनेसे 


। ¬ 











( ५७ ) 


बचे हुये वीर राजा लोगो ! आपको इस प्रकार डरने की आवश्यकता नदीः 
हेजो कि मरे हये हाथी भौर घों के पीचे तुम लोग दिप रहे हो । 

यहा पर खमस्त॒ शत्रं के वध का उपसंहार कर देने से आदान नामक 
अवमा दे । 

, दूसरा उदाहरण जैसे रत्नाव्ली मँ--सागरिका-- दिशाओं की ओ्ओोर 
देखकर) सौभाग्य से चारों मोर से जलते हुये भगवान्‌ “्ग्निदेव हमारे दुःख 
का अन्त कर दंगे ।' यहाँ पर यद्यपि आशय तो दसरा ह (अर्थात्‌ जलकर मर 
जाने पर दुःख से दछुटकारे की बात कही गह है) किन्तु फिर भी राजा के समा- 
गम केद्वारा दु.ख के ्रवसान की ओर सङ्केत अवश्य भिलता हे । थवा जैसे 
अभी यौगन्धरायण के शब्दों का उल्लेख करफे कहा शया है कि - "पति को 
` जगस्स्वामित्व की श्राक्षि होगी ।' इस प्रकार यहाँ पर॒ उपसंहार होने के कारण 
आदान नामक अवमर्शाङ्ग है । 

यहां तक अवमशं सन्धि के १२ अङ्गां की व्याल्या कीजा चुकी । पहले 
बतलाया जा चुका है कि इस अवमशं सन्धि म नियताक्षि परिलक्तित होने 
लगती हे ¦ धीरे-धीरे कथा-वस्तु सुल मने लगती ह श्नौर उपाय सफलता की 
ओर अग्रसर होता हु्ा प्रतीत होता हं । गभ॑-सन्धि मे जो का्यैकलाप. 
सम्पन्न होते हँ उससे विरोधी पक के दोषों का च्नुभव होने लगता ह । इससे 
उन दोषों का कथन करना क्रोध-पूणं उक्ति, वधबन्धन ' इत्यादि, गुरो का 
तिरस्कार तजन उद्वेजन, अपमान, उत्तेजना ये सव बतं इस अवमशं सन्धि 
मे प्रधानरूपर से होती हैँ । कहीं-कहीं नायक पक्त के लोग बद्‌-बद्‌कर वातं मारते 
है मौर उससे शतरु-पक्त को उत्पीडित करते हँ । कभी-कभी कायै सफलता के 
लिये कोमलता का भी आश्रय लिया जाता हे ्ओौर कहीं-कहीं कायैविद्धि के 
लिये गुरुश्रों का उल्लेख भी किया जाता है । इसी आधार पर इस सन्धि के 
१३ अङ्ग वतलाये गये है । इनमे अपवाद ( दोष प्रद्शंन ); शक्ति ( विरोध 
शमन ), व्यवसाय (अपनी शक्ति का वणेन), प्ररोचना (भविष्य की ओर सङ्केत), 
ओर आदान (उपसंहार) ये अङ्ग सुख्य हँ । दृसरे अङ्गो का प्रयोग अौचित्य को 
विचार कर करना चाहिये । 

निवेहण सन्धि अर उसके भेद 
निर्वहण सन्धि का लक्षण यह है. :- - 
वीजवन्तो सुखाद्यथाः विप्रकीर्णाः यथायथम्‌ ॥४८॥। 
ककाष्टयेमुपनीयन्ते यत्र॒ निवहणं हितत्‌ | 
[जहां पर बीज से सम्बन्ध रखनेवाले सुसन्धि इत्यादि स्थान-स्थान परं 
८ 














( ५ ) 


बिष्ठरे हुये अथ एकर्थेताको भाक्त कर दिये जाते हैँ अर्थात्‌ एक प्रयोजन की 
सिद्धि के लिये समेः लिये जाते हँ तव उसे निर्वहण सन्धि कहते ह ।| 
` निवहेण सन्धि अन्तिम संधि है । इसमे बीज का परिणमन फल के रूप 
म होता है । इसीलिए कार्यावस्थं म फलागम अौर अर्थप्रकृतिकी म कायं 
(फल) के खंयोग से निव॑हण संधि का ्रावि्भाव बतलाया गया है । दृसरे शब्दों 
म हम कह सकते हें कि निर्वहण संधि पूरे नाटक का उपसंहार होती द । समस्त 
अथं जो कि विभिन्न प्रयोजनों से इधर-उधर विखर जाते हँ इख निर्वहण संधि 
मं आकर उपहत होकर वास्तविक फल के सिद्ध करने मँ योगदान करते हँ । 
उदाहरण के लिये वेणी-संहार मे जब इस बात कानिरणंय हो जाता है 
कि दुर्योधन केद्वारा भीम ओर अरजैनकी मारे जने की कथा कल्पित थी 
इसके प्रतिद्धल भीमसेन ने ही दुर्योधन को मार डाला हे --कञ्चुकी युधिष्डिर के 
पास जाकर कहता ह --"महाराज आप विजयी हो गये हैँ; आपकी द्धि दहो 
रही है; निस्वन्देह यह कुमार भीमसेन हँ जिनको आप इसलिये नहीं पहचान 
सकते हँ किं इनका सारा शरीर दुयोधन के रक्त से लाल हो गया हे ।' यहाँ से 
लेकर द्रौपदी के केश संयमन इत्यादि बीजों को जो कि सुख संधि इत्यादि में 
अने-अपने स्थानों प? विरे हुये है, एक ही प्रयोजन संयुक्त करं दिथा गया 
हे । अतएव यहां से निवंहण संनि का प्रारम्भ हे | 
दूसरा उदाहरण जेसे रर्नावली मँ सागरिका, रत्नावली, वसुभूति, वाञ्रव्य ` 
इत्यादि सुख संधि इत्यादि मं प्रकीणं ङ्गां का वत्सराज की कार्यसिद्धि के 
लिये उपसंहार किथा गया हे । वसुभूति--(सागरिका को ध्यानपूर्वक देखकर 
एकान्त मे) वाञ्चभ्य ! यह तो.राजयुत्री र्नावली के बिल्कुल समान क्तात हो 
रही ह ।* यहां से निवंहण संधि का प्रारम्भ होता है । 
निवंहण संधि के निम्नलिखित १४ अंग होते हं : - 
सन्िर्विवोधो प्रथनं निणेयः परिभाषणम्‌ ॥४६॥ 
प्रसादानन्द्‌ समयाः कृतिभाषोपगृहनाः। 
पूव भावोपलंहारौ प्रशस्तश्च चतुदंश ॥५०॥ 
[निवहण संधि के संधि इत्यादि १४ अंग होते हं ।] 
इन्दी अगां की क्रमशः व्याख्या की जा रदी है :-- 
(१) सन्धि :-- 


सन्धि्वीजोपगमनम्‌ 


[बीज के उपगमन या प्राप्ति को संधि कहते हैँ ।] क 
जसे रावली मे -"वसुभूति--वाभ्व्य ! यह बिल्कुल ही राजपुत्री रला- 








( ४६ >) 


वली के समान मतीत हो रही है“ वाश्नव्य--ध्युमे भी | ही मालूम पड़ 
रहा है ।' यहां तक रावली सागरिका के रूप मे गुक्च रद है । किन्तु उपयुक्त 
शब्दों से रत्नावली का उपगमन हो गया हे । इस प्रकार बीजं की प्राक्षि हो जाने 
से यहाँ प संधि नामक निववैहणाङ्ग ह । 


दृखरा उदाहरण जसे वेणी-संहार मे भीमसेन कह रहे है--श्रीमती यज्ञ 
वेदिसम्भवे द्रौपदी ! क्या तुम्हें बह याद हैजोर्मैनेकहाथाः- 
चञ्चद्‌ जश्रमित चंडगदाभिधात, 
सञ्च णितोखयुगलस्य ` सुयोधनस्य । 
स्स्यानावनद्ध घन शोशि शोणपाणि, 
सत्तस यिष्यति कचांस्तव देवि मीमः॥ 


चञ्चल भुजदण्डो के द्वारा घुमाद ह प्रचण्ड गदा के अभिघात से सुयो 
धन की दोनों उरुं को चृणं करके गीले ओर गादे खून से सने हुए लाल हाथों 
बाला यह भीम तुम्हारे केशों को बँधेगा । 


यहाँ उख वीज का पुनः उपगमन हा है जिसका सुख-संधि मेँ उपत्तेप 
किया था । अतएव यहाँ पर संधि नामक नि्व॑हरणङ्ग है । 
(२) विवोध :- 


विवोधः काय॑मा्गणम्‌ 


[कार्यं (फल) के अन्वेषण को विवोध कहते हे ।| 

जैसे रल्ावली मे -“वसुभूति-- (ध्यान से देखकर) देव यह कन्या कर्हा से 
आई है १ राजा-- देवी जानती हैँ ।' बासवदत्ता--“आआयैपुत्र ! यह सागर से 
प्रात हुई है, यह कहकर अमात्य योौगन्धरायण ने मेरे पास रख दिया था । इसी- 
लिए इसे सागरिका कहते हे ।' राजा--(मन मँ) अमात्य यौगन्धरायण ने रख 
दिया था? मुके बिना बतलाये यह एेसा क्यों करेगा 

यहां पर रत्नावली रूप फल का अन्वेषण किया गया है । अ्रंतएव विवोध 
नामक निवंहणाङ्ग है । 

दखरा उदाहरण जैसे वेणी-संहार मँ--“भीम--छोड दं छोड़ दं श्राय सुग 
एक क्षण के लिए 1? युधिष्टिर --“अब ओर क्या शेष रह गया ? भीम-- हुत 
अधिक शेष रह गया । इस दुर्योधन के रक्त से भीगे. हुए हाथ से पाञ्चाली के 
दुश्शासन के द्वारा खींच हए केश हस्त को बोध दूं | युधिष्ठिर--'तो तुम 
जानो । वह तपस्विनी वेणी-संहार का अनुभव करे ।' यहां पर केश संयमन 
रूप कायं (फल) के अन्वेषण से विवोध नामक निर्व॑हणाङ्ग है । 





( & ) 


(३) म्रथन :- 
ग्रथनं तदुक्तेः 
[उस फल के उपक्तेप को मथन कहते हँ । | 
जैसे रत्नावली मे--भ्यौगन्धरायण- हे देव ! मा कीजिए जो देव से बिना 
बूमे यह सब किया ।› यहाँ पर वत्सराज के लिए रत्नावली की प्राति खूप कायं 
का उपक्तेप किया गया है । अतएव यहाँ पर अथन नामक निव॑हणाङ्क हे । 
दूसरा उदाहरण जते वेली-संहार म--““भीम--हे पाञ्चालि ! मेरे जीवित 
रहते हुए तुमको दुरशासन से टकी इद अपनी वेणी अपने ही हाथों से नहीं 
थनी चाहिए । ठहरो-ठहरो ! स्वयं मै हयी गृथे देता हूं ।' 
यहाँ पर द्रौपदी केशसंयमन रूप कायं का उपक्ेप किणा गया है । अतएव 
रथन नामक निर्वह णाङ्ग है । 
|| (४) निखेय : - - 
| अनुभूताख्या तु नि खयः ।५१॥ 
[अनुभव के वंन को निय कहते हे ।| 
जैसे रत्नावली मं--ध्यौगन्धरायण --(हाथ जोड़कर) यह सिहलेश्वर कौ 
प्री है सिद्धो श्रादेश से इसके विषय मँ कहा गयां था कि जो इसका पाणि 
अहण करेगा वह सार्वभौम राजा होगा । उनके विश्वास से हमारे द्वारा आपङ 
लिए बहुत अधिक प्राथना किये जाने पर भी िहज्ञेरवर ने देवी वासवदत्ता कै 
चित्त खेद्‌ को वचाने के लिए जब अपनी पुत्री आपको देने की इच्छा नहींकी 
तब लावाणक म देदी वासवदत्ता जलकर मर गद है यह प्रसिद्ध करके वाश्नभ्य 
को मैने उनके पास मेजा था 1" 
यहाँ पर यौगन्धरायण ने स्वानुभूत अथै का वणंन किया है अतएव यहां 
पर नियं नामक्‌ निवह णाङ्ग है । 
दखरा उदाहरण जैषे वेणी-संहार मे “भीम- हे देव ! देव ! अजातशन्रु ! 
ञ्य राज वह नष्ट दुर्योधन कहां है? मेने उस दुरास्मा की यह दृशा कर 
डाली है :-- 
भूमौ किं शरीरं निदितमिदमसुक्चन्दनामं निजाङ्ग 
लद्मीरायं निषिक्ता चतुर दधिपयः सीमया साधुव्यां । 
भ्या मित्रारि योधाः कुरुकुलमखिलं दग्धमेतद्र णाग्नो 
` नामकं यदुत्रवीषिं कितिय तदधुना धातराषटस्यशेषम्‌ ॥ 
गेने पृथ्वी पर उसका शरीर डाल दिया; अपने अंग म उसका खून चन्दन 
| की माति मला, आय (आप) के उपर चासं ससुरो "के जल कौ सौमावाली 
| प्रय के साथ लचमी स्थापित की; स्यु, भिन्न सैनिक ओौर अधिक क्या समस्त 








१ न 
० ~ जकन = क = क ह = 1 (णी कया या = कत क क को "ण 








€ ॐ ) 


ऊर्वं श युद्धरूपी अभिनि मेँ जला डाला । अव एतराष्ट्र के पुत्र दुर्योधन काजो 
तुम नाम ज्ञे रहे हो वह नाम ही केवल शेष रह गया है । 

यहा पर अपने अनुभूत अथं का कथन करने के कारण निशंय नामक निर्व॑ह- 
शाङ्ग है । 


(५) परिभाषण :- 
परिभाषा भिथोजन्पः 


[आपस की बातचीत को.परिभाषण कहते हैँ ।] 

जैसे रत्नावली मँ--““रत्नावली--(मन मे) देवी का मैने अपराध किया 
है । अतएव में मंद दिखाने मँ समथ॑नहीं हँ ।', वासवदत्ता- (असू भरकर 
बाहुओं को फैलाती इद) “हे कठोर हृदथवाली ! इधर अनो, अव भी मातु-प्रेम 
दिखलाञ्मो ।' (एकान्त मँ) “आर्यपुत्र ! मुभे अपनी इस क्रूरता के कारण लञ्जा 
आ रही है अतएव जल्दी ही इसके बन्धनो को खोल दो ।' राजा-- “जेसी देवी 
की सम्मति ४ (बन्धन खोलता है ।) वासवदत्ता -- (वसुभृति को सम्बोधित 
करके) “आय ! अमात्य यौगन्धरायण ने सुमे बहुत दुज॑न बना दिया जो जानते 
हए भी सुभे नहीं बतलाया ।' 


यहां परर एक दूसरे का वार्तालाप कराया गया हे । अतएव परिभाषण 
` नामका अङ्गहं। 


दूसरा उदाहरण जेसे वेणीसंहार म - (भीम --जिस नर-पश दुष्ट दुख्शा- 
सन ने तुम्हारे बाल पकड़कर खीरंचे थे ।' यहां से लेकर "वह भानुमती कहां 
हे जो पांडवों की पनी का उपहास किया करती थीः यहं तक परस्पर वार्त 
लाप दिखलाया गया हं । अत्व यहाँ पर परिभाषण नामक नि्व॑हणाङ्ग हं । 
(&) प्रसाद्‌ :-- 


| प्रसादः पयेपासनम्‌ 
जैसे रत्नावली मे-- षदेव ! त्तमा कीजिये ।› इत्यादि दिखलाया गया हं । 
इससे राजा की आराधना की गई ह । अतश्व प्रसाद्‌ नामक नि्वंहणङ्ग हे । 
दूसरा उदाहरण जैसे वेणी-संहार मे - “मीम-- (द्रौपदी के निकट जाकर) 
हे देवि पाञ्चालराजयुत्रि ! रिपुक्कल के विनाशसे सौभाम्यसे तुम बृद्धि को 


प्राक्च हो रही हो ।' यहाँ पर भीमसेन ने द्रौपदी की आराधना की हं । अतणएव 
प्रसाद नामक निवंहणाङ्ग ह । 








( ३४ ) 
(७) आनन्द :-- 
आनन्दो वाञ्छितावाप्तिः 


[अभीष्ट की प्रापि मे आनन्द कडा जाता हं ।] 
जैसे रत्नावली मे --रराजा--जैसी देवी की आज्ञा ।' (रत्नावली को स्वी- 
कार करता हं।') 
यहां षर प्राथित रत्नावली को राजा ने प्राक्च कर लिया हं । अतएव यहां पर 
आनन्द्‌ नामक निवंहरणाङ्ग हं । 
दुसरा उदाहरण जैसे रत्नावली म -- द्रौपदी --नाथ मेँ इस कायं को भूल- 
गड हँ । आपकी कृपा से फिर सीख लगी ।' 
यहां पर द्रौपदी जिस केश संययन की आकांक्ता रखती थीं उसी को प्राप्त 
कर लिया है । अतएव यहाँ पर आनन्द नामक निवह णाङ्ग है । 
(८) समय :- 
समयो दुःख निगमः ॥५२॥ 
[दुःख से चुटकारा पा जाने को समय कहते हे ।| 
जैसे रतावली मे -“वासवदत्ता--(रल्नावली को भट कर) बहन ! धीरज 
धरो, धीरज धरो । यहाँ पर दोनों बहनों के परस्पर आलिङ्गन सेदुःखं का 
निर्गम हो गया है । अतएव समय नामक निव॑ंहणाङ्ग है । 
दूसरा उदाहरण जैसे वेणी-संहार मेँ-- “भगवान्‌ ! जिखके मङ्गलो कौ 
आशंसा करनेवाले पुराणपुरुष भगवान्‌ नारायण स्वयं हों उसको विजय के ` 
अतिरिक्त मौर ऊद प्राक्ष ही कैसे ष्टो सकता है ? 


कृतगुरुमहदादिन्चोमश्षम्भूतमूति 

गुणिनसुदयनाश स्थानहैतुं प्रजानाम्‌ । 
ग्रजयमरमचिन्त्यं चिन्त यित्वा दिनत्वां 

भवति जगति दुःखी जिं एुनदव दृष्ट्रा ॥ 

“गुर (पञ्चतत्व) अर महत्त्व इत्यादि के परिणाम से मूतंजगत्‌ की रचना 
करनेवाले (अथवा जिसका स्वरूप पञ्चतत्व ओओर महत्तस्व के परिणाम से कार्प- 
निक रूप मे उत्पन्न हुञ्रा है ।) सस्व, रज, तम इन तीनों गुणोवाले प्रजां के 
उद्य, नाश ओर स्थिति मे कारण, अज, अमर श्रौर अचिन्त्य आपका ध्यान धर 
कर भी कोड संसारम दुःखी नहीं होता है । फिर साक्तात्‌ आपके दृशंन करने 
पर तो कहना ही क्या है? 

यहां पर युधिष्ठिर के दुःख के पगम हो जाने से समय नामक निवंह- 
शाङ्ग हे । 














( §& ) 


(३) इति :-- 6 0 
कृतिलेब्धाथं शमनम्‌ 

[भाक अर्थं का उपशम या स्थिरीकरण कृति कहलाता है । | 

जैसे रल्ावली मै--“राजा--देवी के प्रसाद को कौन अधिक | न 
देगा ।› वासवदत्ता 'आार्यषुत्र ! इसका मातृञुल बहुत दुर है । अतएव ेसा 
करो जिससे यह अपने बन्धुननों को स्मरण कर दुन्खी नहो । 

यहा पर वत्सराज को रलावली की भ्रा्िहो चुकी है। उक्त वाक्यों के 
द्वारा राजा ओर रावली मेँ परस्पर स्नेहश््ति का सम्पादन क्रिया गया है; 
अतशएव दोनों की रागचरत्ति उपशम हु हे । इससे यहाँ पर कृति नामक निवह. 
णाङ्ग है । | 

दूसरा उदाहरण जैसे वेणी-संहार मे--“करष्ण-- ये भगवान्‌ व्यास 
वार्मीकि इत्यादि . .%8..तुम्हारे अभिषेक का सम्भार लिये हुये खड़ हैँ 1 

यहां पर प्राक्च हुए राज्य का अभिषेक मङ्गल से स्थिरीकरण कति कह- 
लाता हे। | | 
(१०) भाषण :-- 

मानाद्यासिश्च भाषणम्‌ 


[सम्मान इत्यादि की प्राक्ि को भाषण कहते हँ ।] 

जेसे रल्ञावली म यौगन्धरायण के यह पूतने पर कि श्रापका ओर क्या भिय 
कायं करू १ राजा कह रहे है-- क्या इससे अधिक ओर ऊध प्रिय हो सकता है ? 

यातो विक्रम वाहूुरात्मसमतां प्राप्तेयमुर्वीिले, 

सारं सागरिका ससागरमही प्राप्तयेकदैतुः प्रिया । 
देवी प्रीतिमुपागता च भगिनीलाभाजिताःकोशलाः 

किं नास्तित्वयि सत्यमाद्यवृषमे यस्यै करो मिस्पहाम्‌ ॥ 

“आज विक्रमबाहु जैस। सन्नाट्‌ सुमे अपने समान क्ञात होने ल्षगा है, 
परभ्वी-तल का सार, समुद्रो सहित प्रथ्वी तल का राज्य प्राक्त करने मेँ हेतु प्रिय 
सागरिका मा्षहो गहै है; देवी भी बहन को प्राप करके प्रसन्न हो गदं ओर 
कोशल देश पर भी विजय प्रा्तकी जा सकी । तुम ज्ञेसे अमात्य वृषभ के होते 
हये मेरे पास वह कोन सी वस्तु नहीं है जिसकी मै इच्छा कर । 

यहां पर काम, अर्थं रौर सम्मान इत्यादि की प्रासि हुई है । अतएव यह 
भाषण की प्राति हुई है । 

(११) पूवंभाव (१२) उपगृहन :-- 

कायं दष्ट्यद्भ तभ्राप्र पूवंभावोपगूहने ॥५३॥ 





भ-का 9 ि- -को- 


॥ विकि क क भ 
न । मि भद स्क -- 


प 


( £ ) 


[कायं (फल) को देख रा पूर॑माव कहलाता है ओर अद्‌ तप्राक्षि उपगृहन 
कहलाता है ।] 
पूर्व॑माव का उदाहरण जैसे रत्नावली म -“ 'यौगन्धरायण--यह समकर 


वहन के लिये जो ऊं करना हो उसका अधिकार देवी कोह है ।' वासवदत्ता-- 


“स्पष्ट क्रों नही कहते हो किं इनको रावली दे दो ।' 


यहाँ पर यौगन्धरायण का अभिप्राय है किं वासवदत्ता को रत्नावली प्रदान 
कर दी जावे । यही काय (फल) है । इसको वासवदत्ता ने समं लिया हे । 
अतएव यह पूर्वं भाव का उदाहरण है । 


अद्धुतप्रा्षि का उदाहरण जैसे वेणी-संहार मे -““(परदे मेँ) महायुद्ध की 
मभि से जलकर बचे हुये राप सब राज-समूह का कल्याण हो :-- 
करोधन्धैर्थस्य मोत्तात्त्त॒ नरपतिमिः पांड्पुतरेः तानि 
प्रस्याशः मुक्त केशान्यनुदिनमधुना पर्दा {पुरासि । 
कृष्णायाः केशपाशः कुपितयम्खो - धूमकेतुः कुरूणाम्‌ 
दिष्य्या वद्धः कुरूणां प्रजानां विरमतु निधनं स्वस्ति राजन्य केभ्यः ॥ 
“जिस केशपाश के टूट जाने से क्रोध में न्धे होकर राजाय का संहार 
करनेवाले पाण्ड पुत्रों ने चारों ओर राजाश्रोँं के अन्तःपुरो को इस समय प्रति- 
दिन के लिए खुले बालोंबाला बना दिया । (अर्थात्‌ द्रौपदी के केश खुल जाने 
का यह परिणाम हुत्राकरिचारों ओर रानियां के केश वैधव्य के कारण खुज 
गये ।) वही कुपित यमराज के मित्र के समान वही कृष्णा का केश-पाश जो किं 
कुरचंश के लिए धूमकेतु (आग) के समान था, आजार्वैध गया है | अब राज- 
सपरूह का कल्याख हो ।: 
युधिष्ठिर--हे देवि ! तुम्हारे केशपाश का संयमन अआकाशमंडल मे विचरने 
वाले सिद्ध लोगों ने किया हे । 
यहा पर अदमुत वस्तु की प्रास हुदै है। अतणव उपगूहन नामक निवेहणाङ्ग 
है | इमे हम कृति भी कह सकते हैँ । क्योकि प्राक्च फल का उपशम किया 
गया हे | 
(१३) काव्यसंहार : - 


वरापिः काव्यसंहारः 


[श्रेष्ठ वस्तु की प्राि को काव्यसंहार कहते हे ।] 
जैसे-- “अब अधिक तुम्हारा मौर क्या श्रिय करं 1 इन शब्दोंके द्वारा 
जहाँ पर काम्यार्थं का उपसंहार किया जावे वहाँ काव्यसंहार कहा जाता है । 





(£ कषः ) 


(१४) प्रशस्ति : - 
प्रशस्तिः शभ शंसनम्‌ 
[मंगल की शंसा को प्रशस्ति कहते हे ।| 
जसे वेणी-संहार मे-- "यदि आप अधिक प्रसन्न है" तो इतना ओर हो :- 
द्रकृपमतिः कामं जीग्याजनः पुरुषायुषम्‌) 
मवतु . भगवद्धक्तिद्ौ तं बिना पुरुषोत्तमे । 
कलितथुवनो विद्रदन्धुगणेषु विशेषवित्‌, 
सतत सुकृती भूयाद्ध.यः प्रष्ाधित मण्डलः ॥ 

लोग कृपणता रहित बुद्धिवाल्ञे होकर पुरुष की पूणं आयु का उपभोग 
करे; पुरुषोत्तम भगवान्‌ में दर तबुद्धि को छोडकर भक्ति उत्पन्न हो जावे; राजा लोग 
सारे सुरन को सममते हुए विद्वानों का अद्र करते हुर्‌ गुणों की विशेषता 
को जानते हद्‌ श्नौर निरन्तर पुख्य कर्ते हु अपने मण्डल को अलंकृत करं ।› 

यहाँ पर शभ आशंसा प्रगट की गर है अतएव प्रशस्ति नामक निवेहणाङ्ग 
हे । निर्वहण संधि के यदी १४ अङ्ग होते है । 

जैसा पहले बतलाया जा चुका है निर्वहण संधि नाटक का उपसंहार होती 
है । किसी भी नाटक की रचना मँ बीज को प्रयतनकेद्वारा फल कीओर ले 
जाया जाता है | इस निर्वहण संधि में बीजका फल के साथ संयोग दिख- 
लाया जाता है । अतएव इसमे बीज का उपगमन, फल का अनुसंधान श्रौर 
फल का उपन्यास मुख्य होता है। फल की प्रापि हो जाने पर क्रियाकलाप में एकं 
शिथिलतां आ जाती है अओौर अधिकतर पुराने अनुभवो का वणंन ओर हषोँज्ञासं 
के साथ परस्पर बातचीत उस क्रियाकलाप का स्थान ते लेते है। इसके अति 
रिक्तं फल प्रदान के द्वारा दूसरे को उल्लसित करना अर उस पर हष प्रगट करनी 
भी इसके भ्रंग होते ह । इसमे दुःख से दुटकारे का भी वणंन होता है ्ौर 
सम्मान इत्यादि की अक्षि भी दिखलादईं जातीदहै। जो ङं प्रा हो चुका है 
, उसका उपशम ओौर स्थिरीकरण भी आवश्यक रंग होते है । फल को सम 
लेना मी इसका आवश्यक अंग होतः है रौर कभी-कभी कन्न की महत्ता को 
दाने के लिए किसी लोकोत्तर अपूर्वं वस्तु की कल्पना की जाती है । अन्त में 
कान्य का उपसंहार होता है ओर लोक-कल्याण की शभाशंसा करके कान्य 
समाश्च कर दिया जाता है । निवंहण संधि के रंगों की कल्पना इसी आधार परर 
की गई हे । इस प्रकार नाव्य-रचना की प्रक्रिया संधयो के रूपं मे दिखलाद 


जा चुकी हे। जो 
संगो कै प्रयोजन 
इन अंगों के प्रयोजन ये ह :- 
(3 











( &8 ) 
उक्ताङ्गानां चतुःषष्टिः परोढा चेषां प्रयोजनम्‌ ॥ 
[अथर नाव्य-रचना के ६४ श्रंग बतलाये जा चुके हें । इनके ६ प्रकारके 


प्रयोजन होते हँ ।| 


इष्टस्या्थस्यरचना, गोप्य गुप्तिः प्रकाशनम्‌ । 
रागः प्रयोगस्याश्चयं वृत्तान्तष्यानुपत्तयः ॥५५॥ 


[इष्ट अथै की रचना, छिपाने योम्य वस्तु को चिपाना, प्रकाशित करने 
योग्य वस्तु का प्रकाशन, प्रयोग (अभिनय) के विषय मेँ दशंकों मे अनुराग 
जागृत करना, प्रयोग क{ चमत्कार पूणं बनाना ओओर ठृत्तान्त का उपक्तय न होने 
देनां ये छः सन्ध्यज्ों के प्रयोजन होते है । | 

नाव्य-रचना मे अंगों पर ध्यान रखने से एक तो लाभ यह होता है कि 
जिस अर्थं का समावेश करना अभीष्ट हो बह सारी वस्तु सन्निविष्ट हो जाती 
है । अंगों पर ध्यान न रखने से यह हो सकता हे किं कुं आवश्यके अंश छट 
जावे भौर वस्तु उच्छिन्न सी मालूम पढने लगे । कथावस्तु मेँ बहुत सा अंश 
पेखा भी होता है जिसका रंगमच्च पर दिखलाना अभीष्ट श्रौर उचित नहीं 
होता है। अंगों काध्यान रखने से उख अंशका परित्यागो जाता है । यह 
ञ्र॑ग निरूपण का दूसरा प्रयोजन है । अंगों पर ध्यान न रखने से कभी-कभी 
सा हो जाता हं कि किसी प्रकार के योम्य वस्तु पर प्रकाशं नहीं पड़ता । किन्तु 
अंगों पर ध्यान रखने से षह वस्तु प्रकाश को अवश्य प्राक्च हो जाती है । यह 
अंग निरूपण का तीसरा प्रयोजन है । नाव्य-रचना इतनी संगठित ओर सुरिलष्ट 
हो जाती है कि दुशंकों को उसमे विराग का अनुभव नहीं होता हे प्रस्युत उनका 
श्रनुराग जागृत रहता है यह अंगों का चौथा प्रयोजन ह | नाटक को चमत्कार- 
पूणं बनाना प्रत्येक लेखक का कतन्य होता है । इस कतव्य के पालनमे अंगों 
चे सहायता मिलती है । यह अंगों का पौचवां प्रयोजन है। अंगों का छंडा प्रयो 
जन यह है किं वृत्तान्त रीण नहीं होने पाता जो प्रायः लेखकों के प्रमाद सेहो 
जाया करता है । यही अंगों के निरूपण के छः प्रयोजनं हे । भरत सुनि ने नाव्य- 
शाख मँ अंग रचना के प्रयोजन बतल्ाते हुए लिखा है :-- 

“जिस प्रकार अंगों से रहित मयुष्य युद्ध आरम्भ करने मेँ असमथ होता 
है उसी प्रकार श्रंगों से रहित काभ्य प्रयोग योग्य के कभी नहीं हो सकता । 
जो काव्य हीन अर्थवाला भी हो किन्तु ठीक रूप में अंगों से युक्त हो पदीक्त अंगों 
कै कारण ही वह शोभा कोप्रा्षहो जाता है इसमे कोद सन्देह नहीं । यदि 
कोई काव्य उच्च कोटि के अथवालला हो किन्तु अंगों से रदित हो तो प्रयोग की 
हीनता के कारण वह सञजनों के मन को पसन्द नही आता । अतएव कवि को 











( & ) 


चादिए किं रस रौर विधान के अनुसार ठीक रूप मे रंगों का प्रयोग 
करे १६-५६-५८ । 


समप कीद्ष्टिसे क्छतु के मेद 


समपंण कीद्ष्टिसे वस्तुकेभेद्‌ ये हैं :- 
देधा विभागः कतन्यः सवंस्यापीह वस्तुनः 
सूच्यमेव भवेत्किच्ि दृश्यश्व्यमथापरम्‌ ॥५६॥ 

[समस्त वस्तु।के दो विभाग करना चाहिए; ऊ वस्तु तो सृत्य हो श्नौर 
दूसरी दश्यश्रव्य हो ।] 

सूच्य नौर दश्यश्रम्य का विषय मेद्‌ इस प्रकार होता है : -- 

नीर सोऽनुचितस्तत्र संसूच्यो वस्तुविस्तरः । 
दश्यस्तु मधुरोदात्तरसभावनिरन्तरः ॥५७॥। 

[जो वस्तु रसहीन हो ओर जिसका रङ्गमञ्च पर दिखलाना अनुचित हो इस 
प्रकार की विस्तृत वस्तु को केवल सूचितं करना चाहिए । जो वस्तु मधुर अर्थात्‌ 
चित्तापकषैक हो; उदात्त (उच्चकोटि कीं) हो श्चौर पूर्णरूप से रस च्नौर भाव से 
भरी इर हो उसी का अभिनय रङ्गमञ्च एर करना चाहिए |] 

श्व सूच्य वस्तु के प्रतिपादन के प्रकार की म्याख्याकी जा रही है :-- 

अर्थोपिक्तेपकैः सूच्यं पत्वभिः प्रतिपादयेत्‌ । 
विष्कम्भ चूलिकाऽङस्याङ्कावतार प्रवेशकैः ॥५८॥ ` 

[सूच्य वस्तु को पाच अर्थोपक्तेपकों के द्वारा प्रतिपादित करना चाहिए । वे 
पाच अर्थोपत्तेपक ये हैँ (९) विष्कम्भ, (२) चूलिका, (३) अङ्कास्य, (४) अङ्का- 
वतार ओर () प्रवेशक । | 

अव इन्हीं की क्रमशः व्याख्या की जा रही है :- 

(१) किकमम -- 

वत्तवतिष्यमाणानांकथांशानां निदरशंकः। 
संक्ेपाथेस्त विष्कम्भो मध्यपात्र प्रयोजकः ॥५९॥ 

[जो कथांश व्यतीत हो चुके हों । याजो भविष्य मे घटित होनेवाले हों। 
संक्तेप मे उन कथांशों का दिग्दुशंन करा देनेवाला अर्थोपन्तेपक विष्कम्भ कहलाता 
हे । इसका प्रयोग मध्य श्रेणी के पात्रों द्वारा हुञ्रा करता है |] 

विष्कम्भके दो मेद्‌ होते हँ शद्ध ओओौर सङ्खोणं । उनके लक्तण ये हैँ :-- 

एकानेककृतः शुद्धः सङ्खीणो नीचमध्यमेः। 

[एक या अनेक मध्यम श्रेणी के पात्र जिसका प्रयोग करं उसे शद्ध विष्कम्भक 








( ठ ) 


कहते हे ओर नीच श्रेणी के तथा मध्यम श्रेणी के पात्र मिलकर जिसका अभिनय 
करं उसे सङ्कीणं विष्कम्भक कहते हे ।] अ 

मध्यम श्रेणी के पात्रों मे (भै किये इए व्यक्ति परोहित अमास्य कष्ुकी 
इत्यादि आते हँ ओर नीच पात्रं म निश्नकोटि के असंस्कृत व्यक्ति आते है । 

(२) प्रवेशक :- 

तद्रदेवानुदात्तोकत्या नीच पात्र प्रयोजितः ॥६०॥ 
प्ेशोऽङ्क द्वयस्यान्तः शेषाथैस्योपसुचकः ॥ _ 

[वही जब श्रनुदात्त उत्तियो से नीच पात्र द्वारा प्रयुक्तं किया जावे; दो 
अङ्को के बीचेहो ओौर शेष अथं की सूचना देनेवाला हो तो उखे प्रवेशक 
कहते हे । | 

विष्कम्भक रौर प्रवेशक दोनों ही भूत ओरं भविष्य अथं की सूचना देने- 
वाले होते है । अन्तर यह होता है कि विष्कम्भक में उदात्त (उच्चकोटि की) 
उक्तिं होती है ओर भवेशक मँ अनुदात्त (निन्नकोटि की) उत्तिं होती ह । 
विष्कम्भक का अभिनय निञ्नकोटि के पात्र करते ह । प्रवेशक सवंदा दो अज्ञं के 
बीचमेहीहोता हे; प्रथम अङ्ग के पहले नहीं हो सकता किन्तु विष्कम्भक भं 
ठेसा कोद नियम नहीं है । प्रवेशक में प्राकृत भाषा का ही प्रयोग होता हे। 

(३) चूलिका :-- 

अन्तजवनिकासंस्थे स्चूलिकाथैस्य सूचना ॥६१॥ 

[जवनिका के अन्दर स्थित व्यक्तियों के दारा किंसी बात का सूचित करना 
चूलिका कहलाता है । | 

उदाहरण जैसे उत्तर रामचरित के दृसरे अङ्क के प्रारम्भे :-- 

८(परदे के अन्दर) , तपस्विनी का स्वागत हो । (इसके वाद्‌ तपस्विनी का 
प्रवेश होता है) यर्हा पर परदेके पात्रके द्वारा वासन्तिका से आत्रेयी की 
सूचना दी गाई है । श्रतषएव यहाँ पर चूलिका नामक अर्थोपतेपक हे । 

दसरा उदाहरण जैसे वीर चरित भे चतुथं अङ्क के प्रारम्भ मे :-- 

(परदे के अम्द्र/ अरे, अरे ! विमान से विचरनेवाले देवगण ! मङ्गलो का 
प्रारम्भ करो; मङ्गलो का प्रारम्भ करो :-- 

कशाश्वान्तेवासी जयति भगवान्‌ कौशिक मुनिः, 
सदसखांशोवंशे जगति विजयित्तत्रगधुना । 
विजेता . त्तत्रारेजंगदमयदानत्रतधरः, 
। शरण्यो लोकानां दिनकर ऊुलिन्दुर्विंजयते ॥ 

शाश्च ऊ शिष्य भगवान्‌ कौशिक सुनि (विरवामित्र जी) विजयी हो रहे 

हं । इस समय सहला (भगवान्‌ सू्ै) का वंश संसार मे विजयी (सर्वोत्कृष्ट 











( ६१. ) 


रूप मे वतमान) हो रहा है। त्रियो के अंत कारक 1 को विनीत बनाने- 
वाले, संसार को अभयदान देने का चत धारण करिये हष, समस्त लोगों को शरण 
देनेवाले सू्वंश के चन्द्र इस समय विजयशील हो रहे हे । 

यह पर नेपथ्य के पात्र देवताओं ने यह सूचित किया कि ^राम ने 
परशराम को जीत लिया है । अत्तएव यहां पर चूलिका नामक अर्थोपर्तेपक हे । 

(४) अङ्कास्य :-- 

ग्रङ्कान्तपातरेरङ्कास्यं छिन्नङ्कस्यार्थसूचनात्‌। 
` [अङ्क के अन्त म आनेवाले पात्रों के द्वारा विच्छिन्न शङ्क के अर्थं को सूचित 

करने से अङ्कास्य कहलाता हे । | 

आशय यह है कि जहां पर एेक अङ्क के अन्दर कथा -वस्तु विच्छिन्न हो जावे 
ञ्नौर उसके बाद दृसरे अङ्क मे अनेवाली कथा भिन्न हो उस समय प्रथम 
अङ्क के ्रन्तमे ही अनेवाला कोद खी-पात्रया पुरष-पात्र अभिम अङ्गम 
विखरी इदे कथाका संक्ेप मे परिचय करा दे तथा उसी परिचय का 
श्माश्रय लेकर दूसरे अङ्क का प्रारभ होवे उसे अङ्कास्य कहते हँ । जसे मुख 
को देखकर किंसी पुरुष का परिक्ञान हो जाता है उसी प्रकार इस अङ्कास्य को 
देखकर अग्रिम कथा भाग का हान ही जाता है। इसीलिए इसे अङ्कास्य या अङ्क 
सुख कहते हे । 

उदाहरण के लिए जैषे--वीर-चरित के दूसरे अङ्क के अन्त मे --““सुमन्त्र-- 
(विष्ट होकर) भगवान्‌ वशिष्ठ श्नौर विश्वामित्र परशराम के सहित आप सब 
लोगों को बुला रहे है ।' शौर लोग-- “भगवान्‌ वशिष्ठ चौर विश्वामित्र करा 
है ? सुमन्त्र--"महाराज दशरथ के निकट । ओओौर लोग--तो उनके अनुरोध 
से हम वहीं चल रहे हें ।' (इसके वाद्‌ वैरे हए वशिष्ट, विश्वामित्र नौर परशुराम 
का प्रवेश होता है।) 

पूवं चङ्ग मे शतानन्द रौर जनक की कथा श्रां थी । उसका विच्छेद हो 
गया । उसके बाद उसी अङ्क के अन्त में सुमन्त्र नामक पात्नने प्रविष्ट होकर 
वशिष्ट, विश्वामित्र, परशराम इत्यादि के मिलने की सूचना दी ओओर उसी सूचना 
का आश्रय ज्ेकर अग्रिम अङ्ककी कथा का श्नवतार हु्रा। अतएव उत्तर श्रङ्कके 
सुख (सुख्य-भाग) या भरम्भिक भाग को सूचित करने के कारण इस सूचना को 
अङ्कास्य नामक अर्थोपक्तेपक माना जाता हे । 

(५) अङ्कावतार :-- 

अङ्कावतारस्स्वङ्कान्ते पातोऽङ्कस्याविभागतः ॥६२॥ 
[ जहां पर अङ्क के अभिन्न शङ्कके रूपमे दूसरे अङ्गका अवतार हो वहां 











१६८०.) 


पर अङ्के अन्तमेदी हृदै दूसरे अङ्क का प्रारम्भ करनेवाली सूचना अङ्कावतार 
कहलाती है ।| 


आशय यह है किं चाहे अङ्ग के अन्द्र ही अथवा दृसरे ङ्क मे किसी बात 
की सूचना दी जावे च्रौर प्रयोग का आश्रय लेकर उस अङ्क का अवतार हो तथा 
उस शर्क मे कथा के अथे का विच्छेद न हो । यह मालूम पड़े कि प्रथम अङ्का 
क्रम जारी रखते हुए ही दृखरे अङ्क का प्रारम्भ हुआ है। उसे श्रङ्कावतार कहते 
ह । इसमे ओर अङ्कास्य मँ एक बहुत बडा श्रंतर यह है किं अङ्कास्य मेँ एक कथा 
का विच्छेद हो जाता है तब दृसरी कथा की सूचना दी जाती है श्नौर उसके बाद 
उस सूचित कथा का मारम्भ होता है किन्तु इस अङ्कावतार मे कथा्थं का विच्छेद 
नही' होता तथा यही ज्ञात होता रहता है कि वही कथा अब भी चल रही है । 
नाव्य-शाखरमें लिखा है कि अङ्कावतार मे बीज की युक्ति भी सम्मिलित रहती 
है । वैसे प्रायः अग्रिम कथा. भाग को प्रगट करने के लिए विष्कम्भक ओर प्वे- 
शक का प्रयोग हुमा करता है । किन्तु जहां पर बिना दी विष्कम्भ च्रौर प्रवेशक 
का प्रयोग किये एक अङ्क के अंतमेदही श्रभ्रिम कथा की सूचना दी जाती ह उसे 
अङ्कावतार कहते हैं । 

जैसे मालविकाथिमित्र मे प्रथम अङ्क के अन्त मे विदूषक कह रहा है (अत- 
एव तुम दोनों जाकर देवी के प्र्तागृह मे गाने की सब सामञ्री एकत्र करके 
श्रीमान्‌ जी के पास दूत मेज देना; अथवा श्दङ्ग शब्द्‌ ही इनको उठा देगा ।› 
यह उपक्रम किया शया है । इसके बाद दङ्ग शब्द्‌ को सुनकर सभी ही पात्र 
प्रथम अङ्क मे प्रकान्त पत्रों मे संक्रान्ति दिखलाते है । प्रथम अङ्क मे हरदत्त ओर 
गणदासये दो पात्र दिखलाये गये थे। वहाँ पर यह भी कहा गया थाकि-- 
'रिलष्ट क्रिया किसी के तो अन्द्र ही रहती है श्रौर दूसरे लोगों का संक्रमण 
का दठङ्ग बडा ही विशेषदहदोता है। जिसमेये दोनों गुण हो बही अच्छा शिक्तक 
हो सकता है रौर वही सबसे अग्रगण्य माना जाता है । इसी बीज को ज्ेकर 


` प्रथम अङ्क मे बतलाये हुए उक्त दोनों पात्रों मे सङ्गीत का संक्रमण दिखलाया 


गया है । 
द्वितीय अङ्क का प्रारम्भ प्रथम अङ्के कथा भाग को बिना ही विच्छेद किये 
हए योता है । अतएव यहाँ पर अङ्कावतार नामक अर्थोपचेपकदहै। 
उपसंहार :-- 
एभिः संसूचयेत्घूच्यं दश्यमङ्को: प्रदशंयेत्‌ । 
[उप्यक्त अरथोपकेपकों के द्वारा सूच्य कथा-वस्तु को सूचित करना चाहिष 
ञ्नोर दृश्य कथा-वस्तु को अङ्को के दारा दिखलाना चादिए ।] 





( ५१ ) 


इस प्रकार समपंण की दृष्टि से कथा-वस्तु के दोनों भागो की व्याख्यां 

की गद । 
नाट्य-धमं की दृष्टि से वस्तु के भेद 

नाव्य-घमै की दृष्टि से भी नाव्य-वस्तु के तीन मेद्‌ करिये जाते हं । नाव्य - 
ध्म का अर्थं है नाव्य की मयादा का पालन । नाव्यमें कोह बात तो रेसी होती 
है जिसको सव लोग सुन सकते हे; कुचं बातें ठेसी होती हँ जिनको वक्ता दशंकों 
को छोडकर किसी को नहीं सुनाना चाहता श्मौर कु बातें रेसी होती हैँ जिनको 
` वक्ता कुद पात्नोंकोतो सुनाना चाहता हे रौर ङ को नहीं । इसी आधार 
पर नाव्य-धम की द्टि से नाव्य -वस्तु के भेद करिये जाते है। नाव्य-घम या नाव्य- 
मर्यादा यही ह किं जिस बात का सुनाना जितने व्यक्तियों को उचित हो उतने 
ही व्यक्तियों को वह बात सुनानी चाहिए; जिनके किसी बात को सुन लेने से 
रस भ्याघात उपस्थित हो उनको वह वात नहीं सुनानी चाहिए । यही बात नीचे 
की पंक्तियों मे कदी गई है :-- 


नास्य धम मपेच्येतत्पुन्वस्तुत्रिधेष्यते ।।६३॥ 
स्वेषां नियतस्येव श्रव्यमश्राव्यमेव च । 

[नाव्य-धमकीद्ष्टिसे भी नाव्य-वस्तु के तीह मेद होते है (१) स्व॑- 
श्राव्य (सब लोगों के लिए जिसका सुनाना अभीष्ट हो ) । (२) नियतश्राव्य 
(नियत या निश्चित लोगों के लिए ही जिसका सुनाना अभीष्ट हो) ओर (३) 
अश्राव्य (किंसी के लिए भी जिखका सुनाना श्रभीष्टन हो|] 

इनके लक्षण ये है :-- 

सवश्राव्यं प्रकाशंस्यादश्राव्यंस्वगतं मतम्‌ ।॥६४॥ 

[जो बात प्रकाश या प्रगट रूप मे कही जावे उसे सर्वश्राभ्य कहते हैँ । इसके 
लिए प्रकाश शब्द्‌ का भीप्रयोगहोता है। जो बात स्वगत कही जावे उसे 
अश्चाग्य कहते हैँ । इसके लिए स्वगत शब्द्‌ का भी प्रयोग होता हे ।] 

नियतश्नराव्य के निश्नलिखित दो भेद होते हैँ :-- 

द्विघान्यन्नास्यधमाख्यं जनान्तमपवारितम्‌ । ` 

[दूसरा नाव्य -घमं (नियतश्राव्य) दो प्रकार का होता है, (१) जनान्तिक ओर 
(२) अपवारित । | 

जनान्तिक का लक्तण यह है : -- 

 त्रिपताकाकरेणान्यानयवार्यान्तरा कथाम्‌ । 
त्रन्योन्यामन्त्रणं यत्स्यात्तज्जनान्ते जनान्तिकम्‌ ॥ 
[बातचीत के बीचमें हाथ की त्रिपताका नामक सुद्रा से अरन्य लोगों 





न 


८; अः > 


को बचाकर एकान्त मे जो एक दूसरे का आमंत्रण किया जाता है उसे जनान्तिकं 
रव है] “छं 

नाव्य-शाख मे हस्ताभिनय का वणन करते हए पताका ओर त्रिपताका-सं्क 
हाथों का भी वर्णन किया गया हे । जिस हाथ की सारी रअगुल्लियां समान रूप 
से कैली हई हों ओर अंगूडा ङ टेदा कर दिया गया हो उस हाथ को पताका 
कहते हे । प्रहार इत्यादि विभिन्न प्रकार के अभिनयो मे यह हाथ अंग के विभिन्न 
स्थानों पर स्थापित किया जाता हे । हाथ को उसी पताकाके रूप में बनाकर 
यदि अनामिका नामकीर्भगुलीकोटेदा कर दिया जावे तो उस हाथ को न्निष- 
ताक कहते हें । इस मकार के हाथ का रयोग अवाहन आमंत्रण इत्यादि कायो 
के अभिनय के लिए किया जाता है । यदि हाथ को ज्रिपताका के रूपमे बनाकर 
एेसे दृसखरे पात्रों को बचाते हषं जिनसे बात छिपानी हो केवल उनसे एकान्त में 
बातचीत की जावे जिसको उस बात का सुनना अभीष्ट हो तो उसे जनान्तिक 
कहते है । 

अपवारितक का लक्तण यह हे : -- 

रहस्यं कथ्यतेन्यस्य पराब्रत्यापवारितम्‌ ॥६£॥ 

[घुमकर वृसरे के रहस्य को कह देना अपवारितक कहलातः है ।] 

जनान्तिक ओर अपवरक मे यह भद्‌ है कि जनान्तिक मँ विशेष सुदा क 
साथ दूसरे को आमन्त्रित कर बातचीत की जाती हे किन्तु अपवारितक मे चुपके 
से किसी के रहस्य की बात कह दी जाती हे । 

प्रसंगवश आकाशभाषित का लक्तण बतलाया जा रहा है :-- 


कित्रवीष्येवभिस्यादि विनापातच्रं त्रवीतियत्‌ । 
र्वे वानुक्तमप्येकशस्तत्स्यादाकाशभाषितम्‌ ।।६७।॥ 


[बिना दूसरे पात्र के किसी एक पात्र के वारा क्या कहा ?' इत्यादि जो 
कहा जाता है नौर एेखा मालूम पडता हे मानों किसी की कटी बात को सुन 
रहा हो यद्यपि वर्ह पर॒ कहनेवाला कोई नहीं होता; इस क्रिया को अआकाश- 
भाषित कहते हें ।| 

यद्यपि प्रथम कल्प इत्यादि ओर भी बहुत से नाव्य भेदों का कच लोगों ने 
वणन किया है किन्तु एक तो वे मेद्‌ भारतीय नहीं हँ रौर दृसरे वे नाममाला 
से प्रसिद्ध हैँ चौर उनमें ऊद॒देशभाषार्मक संज्ञायं हैँ । अतएव न तो हम उन्हें 
नाव्य-धम ही कह सकते हैँ ओर न उनके वणन करने की यहां पर आवश्यकता 
ही है । इतिच्त्त के आवश्यक भेदो का ऊपर वणंन किया जा चुका हे । अनावश्यक 
दंगों के वर्णन का कोद महत्व नहीं इसीलिए उसका परित्याग किया जा रहा है । 











(43 ) 
उपसंहार 
इत्याद्य शेषमिह वस्तु विभेद जातं, 
रामायणादि च विभाव्य 1 च । 
आसूत्रयेत्तद्‌नु नेतररसानुगुण्या- 
चित्रां कथायुचित चारुवचः प्रपञ्चः ६८ 
[स्तु के उपयुक्तं समस्त भेदो के समूह को समकर तथा रामायण श्मौर 
ब्रहत्कथा इत्यादि का भली भति परिशीलन कर उपयुक्त सुन्दर वचन रचना के 
 भरपञ्च के साथ विचिच्र प्रकार की कथा का गुर्फन करना चाहिए जो नेता की 
परकृति"के भी अनुकूल हो श्चौर रस के भी अनुकूल हो ।] 
ब्रहत्कथा गुणाढ्य की लिखी इदे एक विशालकाय पुस्तक है । नेता (नाथकः) 
शरीर रस का आगे चलकर वर्णन किया जावेगा । 
उदाहरण के लिए बृहत्कथा का आश्रय लेकर सुद्रारात्तस लिखा गया हे । 
बृहत्कथा मे लिखा `हे :- 


न्चाणक्यनाम्रा तेनाथ शकयालगरहे रहः । 
कृत्यां विधाय सहसा सपुत्रो निहतो उपः॥ 
योगानन्द यशःरेषे परवनन्द्‌ सुतस्ततः । 
चन्द्रगुस्ः कृतेराजा चाणक्येन महोजसा ॥ 

(चाणक्य नामक उस न्यक्तिने एकान्त मँ शकटाल केघरमे कत्याको 
बनाकर सहसा पुत्र सहित राजा को मार डाला । योगानन्द के यशशेष रह 
जाने पर बडे ही ओजस्वी चाणक्य ने पूर्वनन्द्‌ के पुत्र चन्द्रगुण को राजा 
बना दिया । | 

बहस्कथा के इसी प्रकरण का आश्रय ज्ञेकर सुद्राराकस लिखा गया हे । 
रामायण में रामकथा ` लिखी हुदै है । उसके श्राधार पर भी बहुत से नाटकं 
बनाये गये हैँ । यही नाञ्च के इतिवृत्त का संकिक्त परिचय है । 


१० 








दवितीय ट 
नायक के सामान्य लक 


प्रथम प्रकाश मे बतलाया गया था कि नाव्य के मेदक तीन ह-- वस्तु, नायक 
श्नौर रस । रूपकों के एक दृखरे से भेद को सिद्ध करने के लिए मथम प्रकाश में 
ही वस्तु-भेदों का पूणं रूप से निरूपण कर दिया गया है । अब इंस प्रकाश में 
नायक के भेदं का वणन किया जा रहा है । 
नायक के सामान्य गुण ये होते हैँ : - 
नेता विनीतो मधुरस्त्यागी दत्तः प्रियम्बद्‌ः । 
रक्तलोकः शुचिवांग्मी रूढ वंशः स्थिरो युवा ॥१॥ 
बुद्धय त्साह स्मृति प्रज्ञाकलामान समन्वितः । 
शूरो दृढश्च तेजस्वी शाख चज्लुश्च धार्मिकः ॥२॥ 
[नायक विनीत इत्यादि होना चादिषए ।] 
(१) नायक का प्रथम गुण है विनयशील्न होना । उदाहरण जैसे वीर- 
चरितमे:ः- 
यदुब्रह्मवादिमिरपासितवन्यपादे, विद्यातपोत्रतनिधो तपतां वरिष्ठे | 
देवात्कृतस्त्वयिमया विनेयापचारस्तत्र प्रसीद भगवन्नयमञ्जलिस्ते ॥ 


(है भगवन्‌ ! ब्रह्मवादी व्यक्ति आपके वन्दनीय चरणों की उपासना करते 





है; आप विद्या, तप रौर बत की निधिहैं ओर तपस्या करनेवालों म आप सवै- 


श्रेष्ठ है; दैववश मैने जो आपके विषय म विनय का अतिक्रमण किया है उसके 
लिए मैं हाथ जोड़कर आपकी प्रार्थना करता ह, आप मेरे ऊपर कृपा कीजिए ।' 
यहां र श्रीरामचन्द्र जी का विनय व्यक्त होता है। 
(२) नायक मधुर अर्थात्‌ प्रियद्शंन या सुन्द्र श्राङृतिवाला होना चाहिषए्‌। 
जैसे वीरचरित मे :- 
राम-राम नयनाभिरामनामाशयस्य सदृशीं समुद्वहन्‌ । 
ग्रयुतक्य रुण रामणीयकः सर्वथैव हृदयङ्गमोऽसि मे ॥ 
हे राम ! हे राम ! आप अपने शुभ आशय के समान जो कि नयनाभि- 
रामता को धारण कयि हुए है चौर आप जो विचार का भी अतिक्रमण करने- 
वाल्ञे गुणों से शोभित होनेवाल्ञे है; इन सब बातों से आप सुभे स्व॑था हृदयङ्गम 
प्रतीत हो रहें ।' 


( ५५ ) 
(३) स्यागी अर्थात्‌ सवंस्व देनेवाला होना “नायक का चौथा गुण हे । 


त्वचं कणं शिविर्मींषं जीवं जीमूतवाहनः । 
ददौ दधीचिरस्थीनि नास्त्यदेयं महात्मनाम्‌ ॥ 

कणं ने त्वचा दान कर दी, शिवि ने मांस दे दिया, जीमूतवाहन ने जीवन 
दे र ओर दधीचि ने हङ्कि्यां दे दीं। महात्मानं को ङ भी अदेय 
नहीं हे ।' 

(४) नायक दन्त अर्थात्‌ क्षिप्रकारी होना चाहिए । जैसे वीरचरित म :- 

स्फूजंद्र्रसदखनिमितमिवप्रादु भवत्यम्रतः। 
रामस्य चिपुरान्तक्ृदि विषदां तेजोभिरिद्र॑घनुः ॥ 
शुरुडारः कलमेन यद्धदचले वत्सेन दो द॑रएडकः । 
तस्मिन्नादिषत एव निजितगुणंकृष्टंचमग्नंच तत्‌ ॥ 

-सफूजित होनेवाले हजारों वञ्च से बने हुए के समान, त्रिपुरासुर का अन्त 
करनेवाला शङ्कर का धनष देवताश्रों के तेजो से प्रदीक्च होता हुआ सा राम के 
सामने भ्रादुर्भृत हो रहा है । उस धनुष की भ्रत्यञ्चा रामकेहाथमे आतेही 
खिच गद ओओौर वह टूट गया । उस समय राम की बाहु एेसी शोभित हो 
रही थी जैसे कलभ से सूंड शोभित होती हे या बडे से दोद॑ंण्ड शोभित 
होता है। 

यहां पर राम की ्तिप्रकारिता अगद हो रहीहै। 

(£) नायक को प्रियंवद (प्रियभाषी) होना चाहिए । जैसे वीरचरित मे :- 

८उत्पत्तिजमदग्नितः स भगवान्‌ देवः पिनाकी गुखः । 
वीर्य यत्त॒न तद्विरं पथिननु व्यक्तं दितत्कर्ममिः ॥ 

त्यागः सप्तसमुद्रमुद्रित मही निव्यांजदाना वधिः, 
सत्य ब्रह्मतपोनिषेभंगवतः किंवा न लोकोत्तम्‌ ॥' 

८भगवान्‌ परशरामजी की क्या बात लोकोत्तर नहीं ह १ जमदश्नि से तो 
उत्पत्ति हद दै; पिनाकधारी देव (भगवान्‌ शङ्कर) गुरु है; जो ऊच पराक्रम है 
वह वाणी का विषय हो ही नहीं सकता; वह तो केवल कर्मो से न्यक्त हो रहा 
है; सातों ससद की सुदा से सुद्वित परथ्वी का बिना किसी व्याज (छल) के दान 
कर देना ही स्याग की अवधि है; वे सत्य, ब्रह्म अओौर तप का कोष हे । इस प्रकार 
इनकी सारी बातं लोकोत्तर दी हे । 

(६) नायक रक्तलोक होना चादिए अर्थात्‌ सारा संसार उससे प्रेम करे । 
जैसे वीरचरित मे :-- 





| 
| 
| | (८: ७, ) 
| | 

| तय्यास्त्राता यस्तवायं तनून- 
| स्तेनायैव स्वामिनस्ते प्रसादात्‌ । 
| राजन्वन्तो राम द्रण राज्ञा । | 
लन्धक्ेमाः पूणंकामाश्चरामः ॥ | 
। 
। 





“जो आपका यह पुत्र वेदत्रयी की रक्ता करनेवाला है, उन भिय राम को, 

^ ्आपस्वामीकीक्पासे राजाकेरूपमें प्राक्त कर आज हम लोग अच्छे राजा- 

| | वाल्ञे हो गये है; हमे अपने सारे मङ्गल हस्तगत हो गये हें ओर हमारी सारी 

कामनायें पूणं हो गड हँ । इस प्रकार हम सब आनन्द से विचर रहे हे । 
| (७) नायक शुचि या पवित्र होना चादिषु । शौच या पवित्रता का अर्थ 
| है मनकी निमैलता के साथ कामना इत्यादि से पराभूत न होना । जैसे रघु- 
वेशम :-- 

८कात्वं शुमे कस्य परिग्रहो वा किंवा मदुम्यागम कारणं ते। 
द्माचदवमत्वा वशिनां रघूणां मनः परस्यो विमुख प्रवृत्ति ॥” 


हे शभे तुम कौन होया किसकी पत्नीहो ? तुम्हारा मेरे पास अनेका 
क्या कारण दै? यह खब बातें सुरे यह सममकर बततलाञ्यो कि इन्द्रियों 
को वश मे रखनेवाल्े रघुवंशियों के मन की प्रद्त्ति सवंदा परी से विसुख 
रहती हे ।' | 

(नायक वाग्मी अर्थात्‌ बोलने मे निपुण हो.। जैसे हनुमन्नाखक मे :-- 

वाह्योवंलं न विदितं न च कामुकस्य, 
ब्रेयम्बकस्य.तनिमा तत एष दोषः । 

तच्चापलं परशुराम मम त्तमस्व; | 
डिम्भस्य दुविलसितानि सदे गुरूणाम्‌ ॥ 

(एक तो हरमे बाहुबल का कान नहीं था दृसरे त्चिलोचन शङ्करजी के धनुष 
की इतनी शना भी ज्ञात नहीं थी ।` इसीलिए धनुष तोडने का यह अपराध 
मभसे हो गया है। हे परशराम ! मेरी इस चन्चलता के लिए मुभे रमा कीजिए । 
बच्चों की दुश्चेष्टायं गुरुञ्रों को आनन्द्‌ देनेवाली होती हे । 

(8) नायक रूढवंश या उच्वंश का होना चाहिए । जसे :-- 

ये चत्वारो दिनकर कुल क्षत्र सन्तान मल्ली- 
| | मालाम्लान स्तवकमधुपा जज्ञिरे राजपुत्राः | 
| रामस्तेषामचरममवस्ताडका कालरातरि- 
| ्रयूषोऽयं सुचरित कथाकन्दली मूलकन्दः ॥ 
|| “सूयैवंशी त्रियो की संतान परम्परा रूपी माला के मलिन गुच्छं के भोरों 








(. ७ॐ. ) 


के समान जो चार राजपुत्र उत्यन्न हुए उनम राम प्रथम उत्पन्न हए हैँ । वे राम 
तादका रूपी कालरात्रि को मातःकाल के समान नष्ट करनेवाले हँ अर सच्च- 
रित्रता रूपी कन्दली के प्रथम शङ्कुर के समान हें ।' 

(१०) नायक स्थिर अर्थात्‌ बाणी मन क्रिया से चञ्चलता रहित होना 
चादिषु । जैसे वीरचरित मेँ :-- 

प्रायश्चित्तं चरिष्यामि परज्यान। वोग्यति क्रमात्‌ । 
नत्वेव दूषयिष्यामि शस्त्रग्रह॒ महाव्रतम्‌ ॥ 

'आप जैसे पूज्यो का अतिक्रमण करने के कारण मेँ श्रायरिचत्त का पालन 
तो कर लूंगा किन्तु शख््रहण के महावत को दूषित नहीं करंगा ।' 

दूसरा उदाहरण जैसे भतहरि शतक मे :- 

प्रारभ्यते न खलु विघ्नभयेन नीचैः | 
प्रारभ्य विघ्रविहताः विरमन्ति मध्याः ॥ 
वि्नौ; पुनः पुनरपि प्रतिहन्यमानाः । 
प्रारन्धसृत्तमगुणाः न परित्यजन्ति ॥ 

नीच लोग किसी कायै को विन्चके भय ते प्रारम्भ नहीं करते ह; मध्य श्रेणी 
के व्यक्ति विषो से पीडित होकर मध्यमे ही रुक जाते हँ । किन्तु उत्तम प्रकृति 
के व्यक्ति वार बार विघरोंसे पीडित होकर भी प्रारम्भ कयि हुए का्यका परि 
त्याग नहीं करते ।‡ 

(११) युवक होना प्रसिद्ध ही दै । 

नायक (१२) बुद्धि से युक्त (१३) उत्साहयुक्त (१४) र्तियुक्त (१६) 
म्रज्ञायुक्त, (१६) कलायुक्त (१७) स्वाभिमान से युक्त होना चाहिए । 
इसके अतिरिक्तं नायक (१८) शूर हो (१8) दढ हो (२०) तेजस्वी हो (२१) 
शाखाुकरूल कार्यं करनेवाला हो ओर धामिक हो । 

परज्ञा ओर द्धि मेँ अन्तर यह है किं बुद्धि साधारण ज्ञान को कहते हं । 
किन्तु अन्ञा ज्ञात वस्तु मँ विशेषता उत्पन्न करने को कहते हँ । प्र्तावान होने का 
उदाहरण जैसे मालविकाभि मित्रम :- 

यद्यसप्रयोग विषये भाविकमुपदिश्यते मयातस्पै | 
तत्तद्विशेषकरणात्‌ प्र्युपदिशतीव मे बाला ॥ 

“प्रयोग के विषय मै जिस-जिस - भाव्रनामय नृत्य इत्यादि का हम उस 
मालविका को उपदेश देते हँ उसी-उसी विषय मे विशेषता उत्पन्न कर देने के 
कारण वह बाला सुभे बदल्ञे म मानों उपदेश देती है ।' 

शेष युरो के उदाहरण स्पष्ट हैँ उनको स्वयं सम लेना चाहिए । 








( ७८ ) 
नायक के मेद 


अब नायक के मेद्‌ बतलाये जा रहे हँ :- 
मेदैश्चतुधा ललित शान्तोदात्तोद्धतेरयम्‌ । 
[यह नायक ललित, शान्त, उदात्त ओर उद्धत इन चार भेदां से चार प्रकार 


काहोता है|] 


धीर होना नायक का सामान्य गुण है । अतएव ललित इत्यादि के साथ 
धीर शब्द्‌ को जोड़कर नायक के ये चार मेद होते हैँ - (१) धीरललित, (२) 
धीर शान्त, (३) धीरोदात्त नौर (४) धीर उद्धत । इसी क्रम से इनके लकण 
ञ्ओर उदाहरण बतलये जा रहे हें । 

(१) धीरललित :-- | 

निश्चिन्तो धीरललितः कलासक्तः सुखी मृदुः । 

[जो निरिचन्त हो, कला्नों मे आसक्त हो, सुखी हो श्रौर कोमल हो ेसे 
नायक को धीरललित कहते हे ।| ॑ 

यहं निरिचन्त इसलिए होता ह छि इसके योग (अप्राक्च की प्राति) ओर 
सेम (परा) की रक्ता का सारा भार सचिव दस्यादि के आधीन होता हे ओर वे 
ही इन सब वातो की व्यवस्था करते हैँ । यही कारण है किं यह गीत इस्यादि 
कलाओं मे लगा रहता है ओर योग मे संलघ्च रहता है। उसमे शगार की प्रधा- 
नता होती है; इसीलिए उसके सारे आचार-व्यवहार ओर चित्तदृततिरयां सुकुमार 
होती ह । अतएव उसे दु कहते है । यदी धीरललित नायक का लक्तण हे । 
वत्सराज उद्यन इसका उदाहरण हे । जैसे रत्नावली मे :-- 

राज्यं निजितशदुयोग्य सचिवे न्यस्तः समस्तो मरः । 
सम्यक्पालनल।लिताः प्रशमिता शेषोपसगाः प्रजाः ॥ 
प्रद्नोतस्यसुता . वसन्तसमयस््वं चेतिनाप्न धृतिं । 
कामः काममुपैत्वयं मम पुनर्मन्ये महानुत्सवः ॥ 

“राज्य के शत्रु पूं रूप से जीते जा चुके; योस्य मन्त्री पर सारा भार रख 
दिया गया; प्रजा का ठीक रूप म्र लालन-पालन किया गया रौर उनकी सारी 
दापत्ति्यां शान्त कर दी गई; प्र्योत की पुत्री वासवदत्ता मेरे पास हे; वसन्त 
का समय हे ओर तुम (भेरी प्राणप्रिया) भी उपस्थित हो । अब काम परिपूरं 
रूप से चैयै धारण करे ओर मेरे लिए तो यह महान्‌ उत्सव दी हे । 

(२) धीर शान्त :-- 

सामान्य गुण युक्तस्तु धीर शान्तो द्विजादिकः। 
[जो सामान्य गुणों से युक्त हो रेसे द्विज इत्यादि को धीर शांत कहते है ।| 








९ 


विनय इत्यादि जिन सामान्य गुणो का पहले वणन किया जा चुकादहै वे 
गुण धीर शात नायकं होते हैं । द्विज इत्यादि मे इत्यादि शब्द्‌ का अथ है 
प्रकरण मे अनेवाले सब प्रकार के नायक । इनमें ब्राह्मण, बनिया, मन्त्री इत्यादि 
सम्मिलित हैँ । ब्राह्मण इत्यादि ही भ्रकरण.का नायक हो सकता है । अतएव 
द्विज इत्यादि कहना विवक्लित ही है । अर्थात्‌ चाहे जो व्यक्ति प्रकरण का नायक 
नहीं हो सकता किन्तु द्विज इत्यादि ही हो सकता हे । कारण यह है कि निधि- 
` न्तता इत्यादि गुण अन्यत्र भी सम्भव होते किन्तु विप्र इत्यादि शांतता ही 
होती है; उनमें लालित्य नहीं होता । धीर शांत नायक के उदाहरण के लिए 
मालती माधव के माधव ओर खच्छुकेटिक के चारुदत्त का नाम लिया जा रहा 
हे । जेसे : -- 
तत उदयगिरेरि वेकएव, 
स्फुरित गुणद्युतिसुन्दरः कलावान्‌ । 
इदजगति महोत्सवस्य हितः 
नयनवतामुदियाय बालचन्द्रः ॥ 
इसके बाद्‌ प्रगट होनेवाल्ञे गुणों कौ युति से खुन्दर प्रतीत होनेवाला 
कलार्थओवाला (१-लल्लित कला मेँ रुचि रखनेवाला २-चन्दर-कलाश्नों से युक्त) 
नेत्रवालों के लिए महोस्सव का हेतु वह नायक इसी प्रकार प्रगट ॒हुश्या जिस 
प्रकार उद्य पर्व॑त पर एक अद्धितीव बालचन्द्र उदित होता है ।' 
दूसरा उदाहरण जैसे स्च्छकरिक मे :-- 


मखशतपरिपूतं गोतरमुद्धासितं यत्‌, 
सदोस निविडचैत्यग्रह् घोषैः प्ररस्तात्‌ । 
ममनिधनदशायां . वतमानस्य पपे 
तदसदृशमनुष्येधृष्यते धोषणायाम्‌ ॥ 
(३) धीरोदात्त :- 


महासत्वोऽतिगम्भीरः त्तमावानविकत्थनः ॥४॥ 
स्थिरो निगृढाहङ्कारो धीरोदात्तो टढत्रतः ॥ 
[जो बहुत तेजस्वी हो, अस्यन्त गम्भीर हो, सहनशील हो, वद्-बद़कर 
बातं न मारनेवाला हो, स्थिर हो, जिसका अहङ्कार भ्रगरन हो रहादहो ओर 
जिसका व्रत द्द हो एेसे नायक को धीरोदात्त कहते है ।] 


बहुत अधिक तेजस्वी का आशय यह है किं धीरोदात्त नायक का अन्तः- 
करण शोक, क्रोध इत्यादि से अभिभूत नहीं होता है । अदङ्कार के न प्रगट होने 





_ _ ~ म कोः = ~= 


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( ८० ) 


का अर्थं यह है किं उसके अर्द्र विनय इतन अधिक होना चादिए्‌ छि उसका 
अवल्ञेप (मिथ्याभिमान) दब जावे ! वरत के द्द होने काञ्जथै यह है कि 
वह जो कठ भी अंगीकार करे उसका निर्वाह कर देने की उसमें क्षमता हो ओर 
वह श्ंगीकार किये हए कार्यं का निर्वाह करके ही दमले | ` 

धीरोदात्त का उदाहरण जैसे नागानन्द म जीमूतवाहन । जीमूतवाहन ने 
परोपकार के निमित्त अपना शरीर र्षित कर दिया है। गस्ड उसके शरीर को 
खाते-खाति रक जाता है । तब वह कदू रहा हे : -- 

शिरामुखैः स्यन्दत पव रक्त मद्यापिदेहे मम॒ माखमर्ति। 
वृतिं न पश्यामि तवाघरुनापि किं भोजनात्वं विरतो गर्तमन्‌ ॥ ` 

ह गरुत्मन्‌ ! मेरी शिरा के सुख से रक्त बद ही रहा हे; आज भी मेर 
शरीर म मांस वि्यपानहै; मे इस समय भी तुम्हारी वृक्षि नहीं देख रहा ह; 
फिर तुम भोजन से क्यों स्क गये हो ॥' | 

दूसरा उदाहरण जैसे वाल्मीकि रामायण मे राम :-- 

श्राहूतस्याभिषेकाय विखृष्टस्पवनाय ` च| 
न मयालक्ितस्तस्य स्वल्पोऽप्पाकार विभ्रमः ॥ 

(ञ्मभिषेक के लिए लाये हुए मौर वन के लिए भेजे हुए उन राम के अन्द्र 
मुभे कद भी ्राकार का बिगडना दिखाद्रं न पडा ।' 

यहां पर यह ध्यान रखना चाहिए कि उपयुक्त विशेष लकणो मे ऊढ एेसी 
बातें भी आ गई है जो सामान्य गुणों मे पहले से हौ खम्मिलित थीं । इसका 
आशय यह ह कि स्थिरता इत्यादि वे गुण यद्यपि सब नायको मे समान होते है 
किन्तु जिस स्थान पर उनका दुबारा उल्लेख किया रया हे उस प्रकार के नायक 
म वे गुण विशेष रूप. से होते है । जैसे स्थिर होना सामान्य लक्षण भी है ओर 
धीरोदात्त का विशेष लक्तण भी । इसका शय यह है कि धीरललित इत्यादि 
नायको की स्थिरता का भल्ञेही लोप हो जावे किन्तु धोरोदात्त की स्थिरता का 
लोप नहीं होता । ` 

(्ररन) आपने नागानन्द के जीमूतवाहन को धीरोदात्त बतलाया हे । 
उदात का अर्थं है सबसे बदुकर रहना । यह तभी हो सकता है जब कि नायक 
म विजय प्राक्च करने की आकांल्ता हो । किन्तु कवि ने जीमूतवाहन को स्वयं 
अपने को जितवा देने की इच्छा करनेवाला दी रक््खा हे । जैसे : -- 

तिष्ठन्‌ भाति पितुः पुरो भुवि यथा सिंहासने किं तथा| 
यत्संबाहयता सुखं हि चरणौ तातस्य किं राज्यतः ॥ 
किं भुक्ते भुवनत्रये ध्तिरसौ अुक्तोज्किते या गुरोः । 
श्रायासः खलु राञ्यमुन्कितयुयोस्तत्रास्ति कश्चिद्गुणः ॥ 























८ छर ) 


किसी व्यक्तिकीजो शोभा पिताके सामने प्रथ्वी पर बैरने से होती है 
क्या वह सिंहासन पर बैव्नेसेहो सकती है ? पिताके चरणोंको दाबनेमजो 
सुख मिलता है क्या वह राज्य से प्राक्च हो सकताहै? पिता के खाकर छोड़ हए 
पदाथ के खाने म जो ्रानन्द्‌ आता है क्या बह तीनों लोकों के भोग करने में 
आ सकता है ? राज्य केवल आयासकादही कारण है। क्या पिताकापरि- 
त्याग करनेवाले के लिए उसमें कोद भी गुण प्राक्च हो सकता हे ?" 

यहां पर जीमूतवाहन इसी रूप मे दिखलाया गयः है कि वह अपने को 
जितवा देना चाहता है ¦ इसी प्रकार :-~ 

पित्रोविधीतु शुश्रषां व्यक्तवैश्वर्य' क्रमागतम्‌ । 
वनं याम्यहमप्पेष यथा ज॑मूतवाहनः | 

यह मै भी अपने कमागत देशव का परित्याग कर माता-पिता को शुश्रषां 
करने के लिए वनकोजा रहा हूँ जिस प्रकार जीमूतवाहन चलते गये थे।' 

यहाँ पर निजिगीषुता ही दिखलादे गद है विजिगीषठेता नहीं । अतएव 
जीमूतवाहन मे शान्ति की अत्यन्त प्रधानता होने से तथा अत्यन्त कारणिकता 
होने से वीतराग के समान धीर शान्तता ही कही जा सकती है । इसका धीरो - 
दात्त कहना किस प्रकार संगत हो सकता है ? दूसरी बात यह है कि यह भी 
अनुचित ही है कि नायक जीमूतवाहन को उस प्रकार राज्य ओर सुख इत्यादि 
मे निरभिलाष दिखलाकर उसी के साथ मलयवती के अनुराग का वणन किया 
गया है । धीरशान्त का लक्तण करने मे जो यह कहा गया है कि--श्धीरशान्तमें 
सामान्य गुण होते है ओर वह ब्राह्मण इत्यादि होता है । यह लक्तण पारि- 
भाषिक ही है वास्तविक नहीं । कारण यहदहैकिजो बिल्कुल शान्त ह उसके 

्म्द्र विनय इत्यादिन ही हो सकता है ओर न उन गुणों की उसे अवश्य 
कता ही होती है । अतएव सामान्य गुण भी अन्य नायको से धीरशान्त का 
विभेद नहीं बतला सकते । (जब्र शांत के लिए किन्हीं अन्य विशेषणो का प्रयोग . 
हो ही नहीं सकता तब या तो यह कहना पड़ेगा किं व्राह्मण इत्यादि सर्वदा 
शांत ही होते हँ या यह कहा जावेगा कि धीरोदात्त इत्यादि सभी नायक शांत 
होते हे क्योंकि सामान्य गुण तो सभी मे ह होते हैँ ।) अतएव जीमूतवाहन को 
हम धीरोदात्त नहीं कह सकते छन्तु वस्तुस्थिति से ड्ध, युधिष्ठिर, जीमूतवाहन 
इत्यादि के व्यवहार, शांत रस को ही प्रगट करते हैं । 

(उत्तर) जो यह कहा है कि सर्वोच्छष्ट रूप मँ वतमान होना ही उदात्त का 
लक्षण है यह जीमूतवाहन मँ न हो यह बात नहीं है । विजिगीषुता केवल एक 
ही प्रकार की नहीं होती । जो शौर्य, व्याग, दया, आजंव इत्यादि गुणे से दूसरों 

का-अतिक्रमण करता है वही विजिगीषु कहा जतादहै। जो दूसरों का श्रपकार 
९१९ 





( ८२ 


करते हुए धन-संग्रह मे लगा रहता है वही विजिगीषु नहीं कहा जाता । यदि 
धन संग्राहक को ही धीरोदात्त कहं तो जो मागं मे डाकेजनी का काम करते ह 
वे भी धीरोदात्त कहे जावगे। राम इत्यादि का प्रधान मन्तन्य तो जगत्‌ का परि 
पालन करना था । इसी मन्तव्य से वे दुष्टांको दण्ड देने मे मदृत्त हए थे। 
पृथ्वी इत्यादि का लाभ तो उनके लिए उसी कत्त॑भ्य पालन के साथ संयोगवश 
प्राक्त हा ही कहा जावेगा । जीमूतवाहन ने तो प्राणों का भी परित्याग करके 
दूसरों का काम बनाया । अतएव वे तो सभी का अतिक्रमण.कर गये । उन्हे 
तो केवल उदात्त ही नहीं उदात्ततम कह सकते हे । जो “पिता के सामने प्रथ्वी 
पर स्थित होने मे सिंहासन पर बैटने से अधिक आनन्द आता है" इत्यादि कद- 
कर जो जीमूतवाहन की विषय पराङ्मुखता दिखलाई गईं हे बह दीक ही है। 
अपने सुख की तृष्णा कृपणता को उस्पन्न करती है; विजिगीषु लोग ॒ उख प्रकार 
की तृष्णा से सर्वथा रहित होते हे । यही बात कालिदास ने भी कही है : -- 
स्वसुखनिरभिलाषः खिद्यसे लोक हेतोः, 
प्रतिदिनमथवा ते सृष्टिरेवं विधैव | 
श्रनुभवति हि शिरसा पादयस्तीवमुष्णं, 
शमयति परितापं छ्ापया संश्रितानाम्‌ ॥ 

(आप अपने सुख की अभिलाषा से रहित हँ किन्तु लोक केलिए खेदको ` 
्राक्च कर रहे है । अयवा अप जेते व्यक्तियों का जन्म ही प्रतिदिन इसीलिए 
होता हे । बरृत्त अपने सर पर तीव्र उष्णता का अनुभव करता है किन्तु आश्रित- 
जनों के सन्ताप को शांत करता है । 

दूसरी बातत यह है कि जीमूतवाहन का मलयवती से अनुराग वशित किया 
गया ह । शांत रस के आश्रित नहीं हो सकता । अतएव शान्त रस के परतिकूल 
मलयवती के प्रति अनुराग का वणेन ही जीमूतवाहन की शान्तता का निषेध 
कर देता ह । शान्तता का अथं है अहङ्कार से रहित होना । अहङ्कार-सून्यता 
बराह्यण इत्यादि मे स्वभाव सिद्ध होती हे केवल पारिभाषिक ही नहीं होती । 
इद्ध श्रौर जीमूतवाहन दोनों मे निविशेष करुण विद्यमान है। किन्तु दोनों मे 
न्तर यह हे कि बुद्ध की करुणा निष्काम करुणा है ओर जीमूतवाहन की करुणां 
सकाम करुणा है । अतएव बुद्ध॒धीरशान्त नायक हैँ ओर जीमूतवाहन धीरो 
दात्त नायक हैँ । 

(४) धीरोद्धत :- 

द्पमास्सयभूयिष्ठो, मायाच्छद्यपरायणः ॥५॥ 
धीरोद्धतस्त्वहङ्कारी, चलश्चण्डो विकत्थनः ॥ 








( ८३ ) 


[जिसमे दपं ओर मासस्य बहुत अधिक हो; जो माया ओर चद्ममे लगा 
हृ्रा हो; जो श्रहङ्कारी हो; चञ्चल हो; उर स्वभाववाला हो; बद्-बदकर बाते 
मारनेवाला हो उसे धीरोद्धत कहते हँ ।| 

+ दप, वीरता इत्यादि के मद को कहते हँ अओौर मात्स्य असहनशीलता को 
कहते हँ । माया ओौर छद्म मे अन्तर यह है कि माया-मन्त्रवल से अविद्यमान 
वस्तु ऊे प्रकाशित कर देने को कहते है ओर छु केवल वञ्चना को कहते है । 
चञ्चल अनवस्थित को कहते हैँ अर्थात्‌ धीरोत व्यक्तिका कों निश्चय स्थिर 
नहीं रहता । धीरोद्धत का उदाहरण जैसे परथराम--कैलाश को उठाने की , 
शक्ति रखनेवाल्ञे ओर तीनों भुवनों के विजय मेँ समर्थ इत्यादि वचनो मे । 
थवा जैसे रावण--ररावण की भुजायं तीनों लोको की रेश्वयै लकच्मी का हठ- 
पूवक हरण करने मेँ समथ हे ॥ इस्यादि वचनो मँ । 


यहां पर यह ध्यान रखना चाहिए कि धीरललित इत्यादि शब्द्‌ यथोक्त गुणों 
के समारोप की अवस्था को ही बतलानेवाले है; अर्थात्‌ धीरललित इत्यादि के 
जों निश्चिन्तत्व इत्यादि जो गुण बतलाये गये हैँ उन गुणों के कारण ही धीर- 
ललित इत्यादि अवस्थानं का आरोप हो जाता हे । ये अवस्थायं स्वयंसिद्ध 
नहीं होती । जिख प्रकार वद्धदा, बैल, साँड़ इत्यादि जातिगत अवस्थाय हे ओर 
इनका एक निश्चित भ्यवस्थित रूप होता है उस प्रकार धीरललित इत्यादि कों 
जातिगत व्यवस्थित अवस्थाय नहीं है । आशय यह है कि जिस प्रकार बडा, 
वैल नहीं कहा जा सकता ओर बैल, साड नहीं कहा जा सकता; इसी प्रकार 
सड, बैल नहीं कहा जा खकता नौर, न वैल बद्दः ही हो सकता है; क्योकि सभी 
की जाति नियत होती है इनमे एक दृखरे की अवस्था का विपयैय नहीं हो 
खकता। रेसी बात धीरललित इत्यादि नायक की अवस्था के विषय मँ नहीं कही 
जा सकती क्योकि धीरललित इत्यादि मेद कोई जातिर्यां नहीं हैँ । यदि ये 
जातिया होती तो महाकवियों के बन्धो मे विरद अनेक प्रकार केरूपोंका 
कथन असङ्गत ही हो जाता; क्योकि जाति मे तो कों अन्तर पडता नही हे । 
इसके प्रतिकूल महाकवियों ने एक ही व्यक्ति मे कदं एक धमे बतलाये हँ । उदा- 
हरण के लिए भवभूति के परशराम को लीजिए :-- 
ब्राह्म णातिक्रमद्यागो भवतामेव भूतये । 
जामदग्न्यश्च वोमित्र मन्यर्था दुर्मनायते ॥ 
त्राणे के अतिक्रमण का परिष्याग आपके कल्याण के लिए ही हे। 


ञन्यथा तुम्हारा मित्र परशराम कुपित हो जावेगा ।' 
य्ह पर रावण के भरति परशुराम धीरोदात्त दिखलाये गये है। वेदही राम 











( ८४ ) 
इत्यादि के प्रति “कैलाश के उठाने की शक्ति रखनेवाज्ञे".' इत्यादि कथन में 


पहल्ञे तो धीरोद्धत दिशलाये गये हे ओौर वाद्‌ मे ब्राह्मण जाति पवित्र होती 


है इत्यादि कथन मे धीरशान्त दिखलाये गये हे ।. यहाँ पर यह प्रश्न हो सकता 
है कि एक ही व्यक्ति काविभिन्न अवस्थां मे कथन करना अनुचित हे । इसका 
उत्तर यह ह कि जो नायक अङ्ग होते हैँ उनका दूसरे नायको के प्रति महातेजस्वरी 
इत्यादि होने का को व्यवस्थित नियम नहीं है । किन्तु जो अङ्गी (पधान) 
नायक राम इत्यादि होते हैँ उनकी एक ही प्रबन्ध मँ उपादान किये इष्‌ समस्त 
पात्रों के प्रति एकरूपता नियत होती ह । अतएव प्रारम्भ मेँ उनके जिस रूप 
का.उपादान किया जावे उनकी उस अवस्था से दूसरी अवस्था का उपादान 
करना अन॒चित होता है । उदाहरण के लिए राम का धीरोदात्त रूपमे चित्रण 
किया गया है । उनका छल से बालि-वध करना महातेजस्विता के प्रतिकूल है 
स्लौर , उनम ओौद्धस्य-गुण आ जाता है । इस प्रकार वहां पर अपनी-अपनी 
श्नवस्थी का परित्याग अनुचित है । 

यहा पर यह भी ध्यान रखना चाहिए किं मधान नायक की अवस्था के 
परिव्याग न करने का नियम इन्हीं धीरोदात्त दत्यादि नायको के विषय मे हे । 
दक्षिण इत्यादि अभिम अकरण मे आनेवालञे नायको के विषय मँ यह नियम 
लागर नहीं होता । उस प्रकरण मे नायक का वंन करने मे कहा गया है जो 
नायक अन्य नायिकाके द्वारा हरण कर लिया गया हो वह प्रथम नायिका के 
प्रति दक्षिण इत्यादि होता है ।'` इससे यह सिद्ध होता है किं दक्षिण इत्यादि 
नायक मथम शौर दूसरी इत्यादि नायिकां की अपेता ही द्िण इस्यादि हो 
सकते हैँ । इससे यह सिद्ध होता है छि दक्षिण इत्यादि नायक चाहे वह मधान 
हो चाहे अप्रधान, अपनी स्वाभाविक अवस्था से भिन्न दूसरी अवस्था मे वणंन 
करना विरुद नहीं होता । 


नायक कै भद 


श्गार-सम्बन्धी नायक की निन्नलिखित अवस्थायं होती हँ :-- 
स दक्तिणः शटोधृष्टः पूव प्रत्यन्यया हतः ॥६॥ 
[दृखरी के द्वारा हरे हए नायक की पूवं नायिका के प्रति तीन अवस्थाय 
होती है दक्षिण, शट ओर शष्ट ।| 
यहाँ पर नायकं का प्रकरण है । अतएव दूसरी के द्वारा हरे हए का अथं 
हे । दृखरी नायिका के द्वारा हरे हुए चित्तवाला नायक तीन प्रकारका होता ह । 
यदि उसका चित्त किसी दृखरी नायिका ने अपहत न किया हो तो वह भी एक 
प्रकार होता हे जिसका बणंन आगे चलकर किया जावेगा । इस प्रकार श्रगार- 








( ८५ ) 


सम्बन्धी नायक चार प्रकारका होता है। इस प्रकार पूर्वोक्त चारों प्रकार के 
नायकों मे प्रत्येक की चार अवस्थाय होने से नायक के १६ भेद हो गये । ललित 
इत्यादि चार भेदो की व्याख्याकीजा चुकी। अब क्रमशः दक्तिण इत्यादि की 
व्याख्या की जा रही है । 

(१) दकिण नायक :-- 


दक्तिणोऽस्यां सहृदयः 


[दक्तिण नायक उसे कहते हँ जो अन्य नायिका के द्वारा अपहत होते हृष 
भी प्रथम नायिका से सहद्यता का व्यवहार करे ] । 
उदाहरण के लिए धनिक का पद्य लीजिए :-- 
प्रखीदत्यालोके किमपि किमपि प्रेमगुरवो- 
रतिक्रीड़ाः कोऽपिप्रतिदिनमपूर्वोऽस्य विनयः । 
सविश्चम्भः कशिवि कथयति च किञ्चत्परिजनो- 
नचाहं प्रत्येमि प्रियसखि किमप्यस्य विकृतिम्‌ ॥ 
(सामने आने पर प्रसन्न हो जाता है; इसकी रति क्रीडा ङ अधिक प्रेम 
के कारण महस्वपूणं होती है; इनकी विनयशीलता प्रतिदिन अपूवं ही ज्ञात होती 
हे । किन्तु कोद विश्वसनीय परिजन उसके विषय मँ न.जाने क्या-क्या कहता 
है । हे प्यारी सखी सुभे इसका जरा भी विकार लकिति नहीं होता ।' ्‌ 
दृखरा उदाहरण जैसे :-- 
उचितः प्रणयो वरं विहन्तुम्‌ बहवः खण्डन दैतवो हि इष्टाः । 
उपचार विधिर्मनस्विनीनां नन॒॒पूरवाभ्यधिकोऽपिभाव शृल्यः ॥ 
प्रणय का परित्याग ही उचित है, क्योंकि खण्डन के बहुत से हेतु देखे गये 
है । किन्तु मनस्विनी खियों की आद्र-सत्कार की विधि पहले से भी अधिक है 
यद्यपि उसमे भावना बिल्कुल नहीं है । | 
(२) शठ :-- 


गूढ विप्रियङृच्छटः 


[जो नायक पूं नायिका का चुपके-चुप१के अपकार करे उस नायक को शट 
कहते हें ।| 

दक्षिण नायक का भी चित्त दूखरी नायिका के द्वारा अपहत हो जाता है । 
 श्मतएव वह भी पूर्वं नायिका का चुपके-चुपके अपकार किया करता है, किन्तु 
अन्तर यह होता है कि दक्षिण नायक पूवं नायिका के प्रति सहृदय रहता है 
किन्तु शठ नायक सहद्य नहीं रहता । 











( -र--) 


शठ नायक का उदाहरण :-- 
शठान्यस्याः काञ्चीमशिरसि त माकरं सहसा, 
` यदाश्लिष्यन्नेव प्रशिथिल भुजग्रन्थिरभवः। 
तदेतत्क्वाचन्ते घृतमधुमयत्वाद्रहुवचो- 
विषेणाधूंन्ती किमपि न सखी मे गणयति ॥ 
८हे शठ ! जिख समय तुम उस नायिका का आलिङ्गन किये हष थे उसी 
समय दूसरी नाधिका की तगडी की मणि के शब्द को सहसा सुनकर तुम्हारी 


` भुजाओं की अरन्थि सहसा शिथिल हो गहं । अरव हम यष्ट॒बात किससे करं कि 


तभी से लेकर वचनो के घी भ्नौर शददमय होने के कारण बहुत से वचन रूपी 
विष से चक्करःखाती हृद हमारी सखी कुद नहीं गिनती हे ।* 
(३) श्ट :-- | 
व्यक्ताङ्खवेकृतोधृष्टः 
[जिस श्ंगों मँ व्यक्त रूप से विकार हो उसे शष्ट कहते ह ।] 
जैसे अमरूशतक मे :-- 
लात्तालदमललायपट्ममितः केयूरमुदरा गले, 
वके कञ्जलकालिमानयनयोस्ताम्बूलरागो ऽपर । 
दृष्ट्रा कोपविधायि मण्डनमिदं प्रातश्चरं प्रेथसो 
लीलातामरसोदरे मृगद्शः श्वासाः समाप्ति गताः ॥ 
"ललाट पर के चारों नोर महावर का चिन्ह बना हा हे, गले में केयूर 
की मोहर बनी हृद है; खख मे काजल की कालिमा लगी हु ह, नेत्रो मे पान की 


दूसरी लाली लगी हे । | 
प्रातःकाल भ्रियतम के कोप को उन्न करनेवाले इस शगार को देर तक 


` देखकर, उख सरृगनयनी के लीला कमल के मध्य मं पद्नेवाले श्वास समाप्त 


हयो गये । | 
यह पर नायकं के मस्तक मेँ महावर के चिन्ह इत्यादि आभूषणों से परसख्ी- 
सम्भोग व्यक्त होता दै जिससे नायिका के .वियोगजन्य निश्वास रक गये है । 
हस प्रकार गूढु रूप से अपकार करने के कारण यह शठ नायक हे । 
(४) जो नायक हमारी नायिका से अपहत न किया गया हो उसे अनुकूल 
नायक कहते हे । उसका लक्तण यह हं :-- 
अनुकूलस्त्वेक नायिकः 


[जिसके एक ही नायिका हो उसको अनुकल नायकं कहते ह ] 
्ेसे उत्तर रामचरित मं :-- 





( ८७. 


` श्रद्ोतं सुखदुःखयोरनुगतं सर्वास्ववस्थासु यत्‌ 
विश्रामो हृदयस्य यत्र जरसा यर्मिन्नहायों रसः। 
कालेनावरणात्ययात्परिणते यत्स्नेहसारे स्थितं 
भद्रंतस्य समानुषस्य कथमप्येकं हि त्प्राप्पते ॥ 

“सुख ओर दुःख का जिसमे अभेद होता हे; सब अवस्थानं मे जिसकी 
एकरूपता रहती है; जहां पर हृदय विश्राम पाता हे; जिसका आनन्द बृद्धावस्था 
भी नष्ट नहीं कर सकती श्चौर वरण से लेकर अ्योँ-ञ्यों समय व्यतीत 
होता जाता हे वैसे ही वैसे जो परिपक अवस्था को भाश्च स्नेहके तत्व पर दही 
स्थित होता हे; इस प्रकार का मनुष्य जीवन का कल्याण (दाम्पत्य जीवन का 
सुख) किसी ही किसी को बड़ी कल्निता से प्राक्च होता दहं ।' 

(प्रश्न) नाटिका के नायक वरसराज इत्यादि को इन नायक भेदो की किस 
अवस्था में रक्खा जावेगा ? (उत्तर) जव तक दृखरी नायिका के प्रति अनुराग 
उत्पन्न नहीं हुश्ा तब तक वे अनुकूल नायक रहे; बाद्‌ मे दक्लिण नायक हो गये 

(प्रश्न) जब वे गुप्त रूप से अपकार करतेथे तो उन्हं श्ट नायक क्यों नहीं 
माना जाता थौर जब कि उनका विकार ओओौर अपकार पूणं रूप से व्यक्त हो गये 
तो उन धृष्ट नायक क्यों नहीं माना जाता ? (उत्तर) यद्यपि वत्सराज इत्यादि 
ने उस प्रकार का अपकार किया था किन्तु प्रबन्ध की समासि पर्यन्त वे अयेष्ठ 
नायिका के प्रति सहृदय ही बने रहे । अतएव उन्हें दक्षिण ही कहा जावेगा । 
(प्रशन) ज्येष्ठ ओर कनिष्ठा इन दोनों नायिकों के प्रति एक साथ अनुराग दहो 
ही किंस प्रकार सकता है ? (उत्तर) अ्येष्ठा ओर कनिष्ठा दोनों के प्रति एक सां 
प्रेम हो सकने मे कोई विरोध नहीं है । जिस प्रकार अनेक पुत्रों फे प्रति एक 
साथ अनुराग होने मे कोद विरोध नहीं है । उसी प्रकार अनेक प्रेमिकाश्चों के 
प्रति भी एक साथ प्रेम हो सकने मे कोई विरोध नहीं । महाकवियों ने अपने ` 
बन्धो मे अनेक नायिकां के प्रति एक साथ अनुराग कावणंन किया है| 


स्नाता तिष्ठतिकुन्तलेश्वरसुता, वारोऽङ्गराजस्वसु- 
चयते रात्रिरियं जिता कमलया देवी प्रसाधाध् च। 
` इत्यन्तःपुरसुन्दरीः प्रतिमया विज्ञाय विज्ञापिते 
 देवेनाप्रतिपत्तिमूढम नसा द्वित्राः स्थितं नाडिकाः ॥ 
^कंत्जञेरवर की पुत्री स्नान कयि वैदी है; अङ्गराज की बहिन की पारी है; 
कमला देवी ने जये मेँ यह रात जीत ली है; आज उन्हें भी प्रसन्न करना है । 
हस प्रकार अन्तःपुर की सुन्द्रियों के विषय मे जव मैने समकर विज्ञापित ` 
करिया, तब देव अपनी बुद्धि मे कुं निश्चय न कर सकने के कारण मूढ मन 
होकर दो-तीन घडी चुपचाप बैठे रहे ।' 








( ठठ ) 


इत्यादि स्थानों पर सब नायिकां के मति एक समान प्रेमपूशं इद्धि का 
उपनिन्धन किया गया है । भरत ने भी लिखा हे :-- क 
, मधुरस्त्यागी रागं न याति मदनस्य वापिवशमेति । 
श्रवमानितश्च नार्यां विरज्येत सतु मवेज्ज्येष्ठः || 
[जो मधुर आकृतिवाला दो, न अनुराग को ही प्रा हो ओर न काम के 
वशमेहीहो जावे; नारी केद्भारा अरपमानित होकर जो विरक्त हो जावे वह 
ज्येष्ठ नायक होता है ।] 
यहाँ पर “जो अनुरागको प्रासनहोश्रौरनकाम के वशमेंहीहो 
जावे" कहने का आशय यही हे कि दक्षिण नायक का एक ही नायिका के अति 
ञ्रसाधारण प्रेम नहीं होना चादिए । अ्रतणएव ` वत्सराज इत्यादि नाटक की समासि 
पर्यन्त निरन्तर दक्षिण ही बने रहे हे । उपरक्त १६ प्रकार के नायकों में प्रत्येक 
ॐ ज्येष्ठ (उत्तम) मध्यम ओर अधम ये तीन भेद ओर होते हे । ईस प्रकार 
नायक के कुल मिलाकर ४८ भेद होते है । 


नायक के सहायक 


नायक के सहायक ये होते ह :-- 
पताका नायकस्त्वन्यः पीठमदां विचक्तणः। 
तस्यैवानुचरो भक्तः किञ्चिदूनश्च तद्‌ गुणैः ॥८॥ 

[पूर्वोक्त प्रधान नायक से भिन्न पताका नायक होता है; यह निषु होता 
है; इसे पीठमदं कहते है, यह प्रधान नायक का ही अनुचर होता हे । ओर उसी 
का भक्त होता है; यह उसङे गुणो से ऊढ न्यून होता है । | ॑ 

पहले इतिवृत्ते दो भेद्‌ किये गये ये ्राधिकारिक ओर प्रासङ्गिक । अाधिका- 
रिक इतिदृत्त का नायक यधान नायक होता है अर व्यापक प्रासङ्गिक ईति 
(पताका) का नायक पीठमदं होता हे । यहं प्रधान इंतिदृत्त के नायक का सहा- 
यक होता है । जैसे मालती-माधव मे मकरन्द या रामायण मेँ सु्रीव । 

दृसरे सहायक ये होते है :-- 

एक विव्योविटश्चान्यो हास्यकरृच्च विदूषकः । | 

[एक विद्या को जाननेवाला विट कहलाता है शौर हंसी करनेवाला विदूषक 
कटत्वाता है ।] 

गीत हत्यादि नायक की उपयोगिनी विद्यानां मे एक का ज्ञाननेवाला विर 
` कहलाता है नौर हसी मसखरी करनेवाला विदूषक कहलाता दै । विदूषक के 
हास्य के गुण से ही उसका विकृत श्राकार शौर वेष इत्यादि सिद्ध हो जाते हँ । 
जैसे नागानन्द म शेखरक विट है भौर विदूषक तो प्रसिद्ध ही है । 





1 








( ८९ ) 


मतिनायक का लक्षण यह है :- 
लुब्धो धीरोद्धतः स्तब्धः पापक्रद-यसनी रिपुः ॥६॥ 
 पूर्वाक्त नायक का शत्र लोभी धीरो त, जड प्रकृति का, पापी नौर व्यसनी 
होता है ।] ज्ञेसे राम श्मौर युधिष्ठिर का प्रति नायक रावण श्चौर दुर्योधन । 


नायक के सात्विक गुण 


नायक के सालिक गुण ये होते हैँ :-- 
शोभा विलासोमाधुयं गाम्भीयं' यैयतेजसी । 
ललितौ दाय॑मित्यष्टौ सत््वजाः पौरुषा गुणाः ॥१०॥ 

[नायक के ्राठ साष्विक] गुण शोभा इत्यादि होते हँ ।] 

इन गुणों की क्रमशः व्याख्यान्की जा रही हे । 

(१) शोभा :-- 

नीचे धृणाऽधिके स्पधां शोभायां शो्यदक्षते । 

[शोभा मे नीच के परति शरणा ओओौर अधिक के प्रति स्पर्धां होती है तथा 
शौय श्रौर दक्षता ये होते हँ ।] 

(अ) नीच.के प्रति घृणा का उदाहरण । जसे वीर चैरितमे:ः-- 

उत्तालताऽकोल्यातदशनेऽप्यप्रकम्पित । 
निथुक्तस्तत्परमाथाय स्त्ेणन विचिकित्सति । 

“ताडका के प्रमथन के लिए नियुक्त श्री रामचन्द्रजी उसके भीषण उपद्रव 
को देखने परर भी बिल्छुल प्रकम्पित नहीं हुए । उनके हृद्य म केवल यही 
संकस्प-विकल्प उत्पन्न हुश्चा कि बेचारी खी को क्या मारं । 

(भा) गुणो मे ;बदे-चदे लोगों के प्रति स्पधां का उदाहरण :-- 
~ एतां पश्य पुरःस्थलीमिह किल क्रीडाकिरातो हरः, 

कोदण्डेन किरीटिना सरभसं चूडान्तरे ताडितः- 
इत्याकण्य॑कथाद्ध तं दिमनिधावद्रौ सुमद्रापते-, 
म॑न्द मन्दमकारि येन निजयोदोदंडयोर्मरण्डलम्‌ ॥ 
` (इस स्थल को देखो, कहा जाता ह कि यहा पर क्रीडा किरात कारूप 
धारण करनेवाज्ञे शङ्करजी के मस्तक के बीच म किरीरी (अजन) ने अपने धनुष 
से बडे वेग से प्रहार किया था | सुभद्रापति (अजन) की इस अदधत कथाको 
सुनकर हिमालय प्वैत पर उसने धीरे-धीरे धनुष के आकार का श्रपनी ञुजाओों 
का मर्डल बनाया । 
द) अन्त्रः स्वैरपि संयताप्रचरणो मू्ाविशप्रत्तशे- 
स्वाधीनव्रशिताङ्गशख्रनिचितो रोमोद्गमं वर्मयन्‌ । 


९२ 








(-२१०-> 


मग्नानुद्रलयन्निजान्‌ परभटान्‌; सन्तजयजनिष्ठरं 
` धन्यौ नाम जयश्रियः पृथुरणस्तम्भे पताकायते ॥ 

(जिसकी अपने ही आति से पैसों के अब्रभाग वैध रदे हो; जो अपने । | 
यीन घाव-पृखं अंगों मे शख से मरा हुआ हो चनौर मूषा के विरामकाल मेभी 
रोमाञ्च को कचच बनाते हुए, भागनेवाल्ञे अपने सैनिकों मे उत्साह का सजा? 
कर लौटाते हुए शश्र सैनिकों को कठोरता से धमकाते ञ्रौर राते हए जो विशाल 
युद्ध रूपी स्तम्भ मे विजयश्री की पताका बन जाता है वह धन्य हे। 

(ई) दकरशोभा जसे वीरचरित मे । स्फूजंद्रद्रसहसखनिभितमिव "*" '"" भग्नं च 
तत्‌ ।' 

(२) विलास :-- = 

गतिः सधेर्या दृष्टिश्च विलासे सस्मितं वचः ॥१९॥ 

[विलास म चाल ओर दृष्टि धैयैपूं होती है ओर वचन सुस्क तदट-पूरशं 
होते है || 

उदाहरण :-- 

टष्टिस्तृणीकृतजगन्त्रयसत्वसारा 


धीरोद्धता नमयतीवगतिधंरित्रीम्‌ | 
कौमारकेऽपि गिरिवद्गुरुतां दधानो 
वीरो रसः किमयमित्युत दपं एव ॥ 
उसकी दव्टि रखी गम्भीर पडती है जसे मानो वह तीनो लोकों के बल को 
तिनके के खमान समता हो । उसकी धीर ओर उद्धत गीत मानां पृथ्वी को 
जका रहे हो; वह कौमार अवस्था मे भी पवत के समान गुरस्व धारण कयि हए 
है; वह ेखा शोभित हों रहा है जिसे देखकर स्वभावतः कल्पना उरने लगती है 


` कि यह साक्तात्‌ वीररस है श्रथवा दपंही है ।' 


(३) माधुयं : - 
श्लदणो विकारो माधुर्य" सं्तोमे सुमहत्यपि । 
[महान्‌ संक्ोभ के कारण के उपरिथतः होते इंए भी कोमल विकारका 
उस्प॑न्न होना माधुयं कहलाता है ।] 


[> 


जसे :-- 
कपोल्ते जानक्याः करिकर्लभदन्तद्युतिमुषि, 
तपरस्मेरं गंडोडमर पुलकं वक्रक्मलेम्‌ । 
मुहः पश्यन्‌ श्रवन्‌ रजनिचरसेनाकलकलम्‌ 
जटाजूट ग्रन्थं द्र व्यति रघूणां परिवृढः ॥ 
हाथी के बच्चे केर्दातों की शोभा का भी अपहरण करनेवाज्ञे जानकी के 














( ९१ ) 
कपोलों पर कामोदेग की सुस्छुराहट से युक्त गण्डस्थल पर उरे हुए रोमाज्चवाले 
खुख-कमल को बार-बार देखते हुए ओर राक्तसों की सेना का कलकल सुनते 
इए रघुवंशियों मे श्रेष्ठ श्री रामचन्द्रजी अपनी जटाजूट की अन्थि को इद्‌ 
करा रहेथे। 
(४) गाम्भीयं :- 
गाम्भीर्यं ` य॒त्प्रभावेन विकारो. नोपलद्यते । | 
[जिस गुण के प्रभाव से विकार न दिखलाई पडे उस गुण को गाम्भीर्य 
कहते है । | | 
माधुयं मे खदु विकार लक्षित होता है किन्तु गाम्भीर्यं मे बिल्कुल ही विकार 
लक्िति नहीं होता । यही माधुयं ओर गाम्भीयं का अन्तर है । गाम्भीयं का 
उदाहरण :-- 
ग्राहूतस्याभिषेकाय) विसृष्टस्य वनाय च| 
न यया लक्षितस्तस्य स्वल्पोऽप्याकारं विभ्रमः ॥ 
अभिषेक के लिए बुलाये हुए ओर वन को भेजे हुए उन रामचन्द्रजी के 
अकार का जरा भी बिगाड़ मुभे दिखाई नहं पडता । ` 
(९) स्थेय :-- 
व्यवसायादचलनं स्थैर्य विघ्रकुलादपि । 
[विघ्नो के समूहो के होते हुए भी अपने काय से अलग होना स्थैय कह - 
लाताहे।|] 
जैसे वीरचरित म : - 
प्रायरिचत्तं चरिष्यामि पूज्यानां बो व्यतिक्रमात्‌ | . 
न . त्वेवदूषयिष्यामि शलख्ग्रहमहाव्रतम्‌ ॥ 
श्राप जैसे पुर्यो का अतिक्रमण करने से उतपन्न हुए पाप का. हम प्राय- 
रिचत्त कर लंगे । किन्तु शख अरहण करने के महाव्रत को दूषित नहीं करेगे ।' 
अधिक्तेपाययसहनं तेजः प्राणात्ययेष्वपि ॥१३॥ | 
[प्राणों की आपत्ति आने पर भी आक्तेप इत्यादिका न सहना तेज 
कहलाता है । | | 
उदाहरण :- 
ब्रूत नूतनक्ूष्मारुड फलानां के भवन्त्यमी । 
श्रगुलीदशंनायेन न जीवन्ति मनस्विनः ॥ 
'बतलाश्रो ये मनस्वी लोग नवीन कुषटडे के फलों के कैषे लगते हं ? जो 
कि उन्हीं के समान ये भी अंगुली दिखलाने मात्रसे ही, जीवित नहीं रहते । 
(अर्थात्‌ अगुली) दशन भर ® श्रपमान सेही अने प्राणों पर भी खेल जाते है ।' 











( ९२ ) 


(७) ललित :-- 
श्रंगाराकार चेष्टात्वं सहजं ललितं पदु । 
[स्वाभाविक शगार शौर आकार की चेष्टा करने को ललित कहते है यह 
खदु होता हे । | 
स्वाभाविक श्वगार को दु कहते है नौर उस प्रकार की शगार की चेष्टाओं 
को ललित कहते हे । उदाहरण जैसे धनिक का ही पथ लीजिए :-- 
लावण्यमन्मथविलासविजुम्मितेनः 
स्वाभाविकेन सुक्रुमारयनोहरेण । 
किं वा ममेव सखि योऽपि ममोपदेष्टा; 
तस्यैव किं न विषमं विदधीत तापम्‌ ॥ | 

"हे खखि ! सौँदयं ओर काम चेष्टाश्च के स्वाभाविक ओर सुकुमार विज्‌- 
म्भण (स्फुरण) के द्वारा जिस प्रकार सुभे विषय सन्ताप उत्यन्न हो रहा है उसी 
प्रकार जो इसका से उपदेश देनेवाला है अर्थात्‌ जो मेरे अन्तःकरण में 
सन्ताप को उत्पन्न करनेवाला है उसी के अन्दर यह विषम सन्ताप क्यों नहीं 
उस्यन्न किया जाता । 

(<) ओदायं :-- 

प्रियोक्स्याऽऽजीवितादानमौदाये' सदुपग्रहः ॥१४॥ 

[प्रिय वचनो के साथ जीवन पयैन्त सभी कदं दे देना च्नौदाय कहलाता है 
श्नौर सञजनों के अनुकूल रहने (सदुपग्रह) को भी ओौदा्यं कहते हँ । | 

दान का उदाहरण जैसे नागानन्द मे :- 

शिरामुखैः स्यन्दत एव रक्तमद्यापि देहे मम मांसमस्ति । 
तरृत्िन पश्यामितवाधुनापि कि भोजनात्वं विरतो गरमन्‌ ॥ 

“मेरी शिरां के सुखं से रक्त निकलता ही है; अब भी मेरी देह मे मांस 
विद्यमान है । सुभे तुम अभी तक तृप्त भी नहीं मालुम पड रहे हो; फिर हे गरड 
तुम खाने से क्यों सक्‌ गये ?: 

सदुपम्रह का उदाहरण :- - 

एते वयममीदाराः कर्न्येयं कुलजीवितम्‌ । 
ब्रत येनात्र वः कायेमनास्था बाह्यवस्तुषु ॥ 

'्यह हम है; यह हमारी पत्नी है; यह कुल की जीवन कन्या है; जिस वस्तु 
की तुम्हे आवश्यकता हो बतलाश्नो । हमारी आस्था बाद्य वस्तुओं म नहीं हे 


नायिका-मेद 


स्वान्या साधारण च्रीति तदृगुणानायिका त्रिधा । 








८ ९३ ) 


[नायिका भी नयक के समानही गुण होते हैँ । यह तीन प्रकार की 
होती है-(१) स्वकीया, (२) परकीया ओर (३) साधारण खी ।| 

नायिका म नायक के गुण हों; कहने का आशय यही है कि जहाँ तक सम्भव 
हो नायिकामें भी नायक के पूर्वोक्तगुण होना चादिषु । 


स्वकोया का सामान्य लक्षण ओर भेद 


न नायिका भेदो मे स्वकीया का सामान्य लक्तण ओओर उसके मेद्‌ बतलाये ` 
जा रहे हें :- 


सुग्धा मध्या प्रगल्भेति स्वीया शीलाजवादियुक्‌ ॥ १५॥ 
[जो नायिका शोल अर सरलता आदि से युक्त हो उसे स्वकीया कहते हैँ । 
उसके तीन भेद होते हे (१) मुग्धा, (र) मध्या नौर (३) प्रगल्भा । ] 
स्वकीया नायिका शीलवती अर्थात्‌ सदाचार से युक्त पतिच्रता, कुटिलता 
रहित, लजावती ओर पतिसेवा परायण होती दै । 
(१) शीलवती होने का उदाहरण :- | 
ऊल वालिश्राएपेच्छह  जोन्वणएलान्रण्ण विञ्ममविल[सा । 
पसवंति पवसिएं एन्तिन्व पयि धरं एत्ते ॥ 
[ कुल बालिकायाः प्रक्षध्वं यौवनलावण्यविभ्रम विलासाः । 
प्रवसन्तीव प्रवसिते श्रागच्छन्तीव प्रियेगृहमागते ॥ ] 
छल वालिका के यौवन, लावण्य अर विलास चेष्टां को देखो । प्रिय- 
तम के परदेश को चल्ले जाने पर मानोंये चेष्टायं परदेश को चली ज्ञाती है 
द्ओीर प्रिय के घर चाने पर मानों लौट ती हे ।' 
(२) सरलता इत्यादि से युक्त होने का उदाहरण :-- 
दसिश्रमविश्रारसुद्रं भमिन्रं विरदिश्रविलाससुच्छान्रं | 
भरिश्रं सहावसरलं धण्णाण धरे कलत्ताणम्‌ ॥ 
[ हसितमविचारमुग्धं भ्रमितं विरहितविलासखुच्छायम्‌ । 
भरितं स्वभावसरलं धन्यानां ग्रहे कलत्राणाम्‌ ॥ | 
“जिन स्त्रियों की हसो बिना विचार के ही प्रवृत्त होने के कारण मुग्धता से 
भरी हु हो; जिनका चलना-फिरना विलासो की शोभा से रहित हो ओौर 
जिनकी बातचीत स्वभावसे ही सरल हो एेसी पलियां भाम्यशालियों के घर 
मही होती दह ।' 
(३) लजावती का उदाहरण :-- 
लज्जापन्जन्तपसराहणाहं परतित्तिणिप्पिपासादं । 
ग्रविण॒ श्रदुम्मेहाईं धर्णाण धरे कलत्ताडं ॥ 
[ लजापर्यां्त प्रसाधनानि, परभ निपिंपा्ानि । 
श्मविनय दुमेघांसि, धन्यानां गृहे कलत्राणि ॥ ] 








( ९४०५) 


८धन्य पुरषो के घरमे एेस स्त्र्या होती हैँ कि लजा ही ` उनका पर्या 
शगार होता है; वे दूसरों के पतियों की बिल्कुल प्यास नहीं रखतीं ओर 
अविनय को बिकुल ही नहीं समती ।' 
इस प्रकार की स्वकीया नाधिका के तीन भेद होते है खुग्धा) मध्या ओर 
पगर्भा । 
(१) सुग्धा :-- 
मुगधानववयः कामा रतौ वामा मृदुः करुषि । 
[सुग्धा नायिका जिसे कदते ह जिसकी आयु नवीन हो, कामना नवीन हो, 
रति मे जो भ्रतिद्ूलता दिखलावे ओर क्रोध मेँ कोमल हो । | 
आशय यह है किं जिसे यौवन का प्रथम ही अवतार हरा हो; जिसमें 
काम का प्रथम ही सज्चार हा हो, जो रति मँ बड़ी ही अरुचि अगट करे ओर 
क्रोध करने मे शीघ्र मान जावे उसे ग्धा कंहते हे । 
(अ) वयोसुग्धा का उदाहरण : -- 
विस्तारौ स्तनभार एष शमितो न स्वोचितामुन्नतिम्‌ । 
रेखोद्ध।सिक्ृतं वलित्रयमिद्‌' न ॒स्पष्टनिम्नोक्नतम्‌ ॥ 
मध्येऽस्या्रज्ञरायताधंकपिशा रोमावलीनिभिता । 
रम्यं यौवनश्चेशव व्यतिकरोन्मिभरं वयो वतते ॥ 

"यह विस्तृत होनेवाला स्तन मण्डल अभी तक अपनी पूरी उन्नति को प्राक्त नदौ 
हो सका है; तीनों विया रेखा से तो शोभित होने लगी हैँ किन्तु अभी तक 
इनकी ऊँचाई नीचाई स्पष्ट नहीं हृद है; इसके मध्य भाग मे सीधी रोमावली तो 
बन गई है किन्तु वह अभी आधी कपिश वणं की ही है; इस प्रकार इसकी जवानी 
ञ्नौर बचपन के मेल की आयु बड़ी सुन्दर जात हो रही है । ' 

दूसरा उदाहरण जेसे धनिक का रलोक :-- 
उच्छूवसन्मरुडलग्रान्तरेखमाब्रदधकुड्मलम । 
त्रपया मुयोबदधेः शसत्यस्याः स्तनद्वयम्‌ ॥ । 
(इसके स्तन मण्डल के प्रांत की रेखा कुदं एल आई है; कलिर्या सी वेध गदर 
ह; इस खमय इसे दोनों स्तन यह प्रगट कर रहे हँ किं इसकी छाती की वृद्धि 
अभी पूरी नहीं हो पाद हे ।' 
(आ) काम मुग्धा का उदाहरण :- - 
ष्टिः सालसतां विभति न शिशुक्रीडाु वद्धादरा 
श्रोत्रे प्रेषयति प्रवतितसखीसम्भोगवातास्वपि । 
पुंसामङ्कमयेतशङ्कमधुना नारोदहति प्राग्यथा 
बाला नूतनयौवननव्यतिकरावष्टभ्यमाना शनैः ॥ 


( ९५ ) 


हस समय इस बाला की दृष्टि आलस्य-पूणं है; यह शिशो की क्रीडा मे 
अव बहुत आनन्द्‌ नहीं लेती ; जब सखिर्यां सम्भोग की बात करती हँ तब यदह 
अपने कान उस योर को दौडाती है; नवीन यौवन के धीरे धीरे सङ्घारितिहो 
जाने से रोकी हुदै यह बाला अव शङ्काको छोडकर पुरुषां की गोद मे नहीं 
बैसती हे ।' 

(इ) रति में वाम होने का उदाहरण :-- 

व्याहृता प्रतिवचो न सदे गन्तुमैच्छद्वलम्वितांशका । 
सेवते स्म शयनं पाराडमुखी सा तथापि रतये पिनाकिनः ॥ 

(जब शङ्करजी ने पावैतीजी से बातचीत करनी चाही तो उसने उत्तर 
नहीं दिया; जब उसके वस्त्र पकंडे गये तब उसने चले जाने की इच्छा की; 
चारपाई पर दृसरी श्रोर को करवट लेकर लेट गद; किन्तु फिर भी उस पारवैती 
कीये सारी चेष्टायें शङ्कर जी केहृदय मे अनुराग ही उत्पन्न करनेवाली थीं ।' 

(द) कोपे शद होने का उदाहरण :-- 
प्रथमजनिते वाला मन्यौ विकारमजानती 
कितवचरिते नासभ्याङ्क विनम्रमुजैव सा । 
चिलुकमलिकं चोन्नम्योच्चैरकृतिम विभ्रमा 
नयनसलिलस्यन्दिन्योष्ठेरुदन्त्यपि चुम्बिता ॥ 
 शवहली ही वार कोप का कारण उत्पन्न हुश्रा था; अतएव वह बाला कोप के 
विकार को प्रगट करने का ढंग नहीं जानती थी, उस समय वह अपनी भुजानां 
को नीचे ही किये रही छन्तु उस धूत चरित्र वाले नायक ने बलात्‌ उसे गोदे वैव 
लिया; उस समय उसके विलास बिल्ल बनावट से रहित थै उसी समय 
उसकी ठोद़ी को जोर से उपर को उठाकर नेत्रं के जलसे भगे हुए शरोर मेँ 
प्रियतम ने उसका चुम्बन ज्ञे लिया ।' | 
इसी प्रकार सुग्धा्ों के अन्य व्यवहारो का भी वणन करना चादिषु जिसँ 
अनुराग का निवन्धन लजा से आदत्त हो । जैसे :-- 
न मध्ये संस्कारं कुषुमपरपि बाला विषहते, 
न निश्वसैः सुभ्रुजनयति  तरङ्गन्यतिकरम्‌ । 
नवोढा पस्यंती लिखितमिव भतुः प्रतिषुलम्‌, 
प्ररोहद्रोमाञ्चा न पिवति न पात्रं चलयति ॥ 

नवोढा नायिका प्रियतम के साथ शराब पीरही दहै; प्रियतम के सुखकी 
. फलक मदिरा-पात्र मे पडती है । नायिका मुख के प्रतिबिम्ब को देखने मे एेसी 
मस्त है कि शराब पीती ही नहीं । उसी का वंन कवि कर रहा ह~ ।वह 
बाला पान पात्र बीच षएूलके संरकार कोभी नहीं कर सक्ती दहै; वह 





9 





(, ९६ ) 


सुन्दर भौदोवाली (नायिका) श्वास भी जोर से नदीं लेती जिससे कहीं तरङ्गा 
के उत्पन्न होने से प्रियतम का मुखविम्ब चष्टिसे श्रोफल न हो जावे; वह नव- 
विवाहिता पल्ली भियतम के मुख के प्रतिबिम्ब को पान पान्न म चित्रित सा देखती 
ह, उसके रोमाञ्च उत्पन्न हो गये हँ ओर वहन तो मदिराहीपी रही है ्नौरन 
पात्रको ही हिलाडुला रही है ।' 
(२) मध्या नायिका :-- । 
मध्यौद्ययौवनानङ्गा मोहान्त सुरत त्तमा ॥ १६॥ 
[ जिसका यौवन रौर काम इद्धि को प्रा्ठहो रहा हो भ्नौर जो शन्तमं 
मोह युक्तं सुरत मँ समथ हो पेसी नायिका को मध्या कहते हे । | 
(ञ्ज) यौवनवती का उदाहरण : -- 
श्रालापान्‌ भ्रविलासोविरलयति लसम्दाहुविच्लिप्तयातम्‌ । 
नीवीग्रन्थिं प्रथिम्ना प्रतनयति मनाङ्मध्यनिम्नो नितम्बः ॥ 
उत्पुष्पत्पाश्वंम्‌ उच्छंत्‌ु चशिखरमुरो नूनमन्तःस्मरेण । 
सपष्ठा कोदण्डकोस्या हरिणशिशुदशोदश्यते योवनश्चीः ॥ 
भ्रविलास वार्तालापं को विरल बना रहा है अर्थात्‌ वार्तालाप के मध्यमे 


, अविलास अधिक अगट हो रहा है, बाहों के विप से युक्त गमन शोभित हो रहा 


हः नितम्ब विशाल है ओर कमर पतली है; अतएव नितम्ब अपने विस्तार के 
कारण नीवी की गाठ को र अधिक शिथिल ओर विस्तृत बना रहा है । छाती 


परं स्तनो का उपरी भाग उर रहा है भ्नौर उसके किनारे एल के समान खिल रहे ` 


डः दष्ट हरिण के वच्चे के समान चज्चल हो रही है । इस प्रकार नायिका की 
यौवन की शोभा ठेखी ज्ञात हो रही है मानों अन्तःकरण मे कामदेव ने अपने 
धनुष की नोक से उसका स्पशं कर लिया हो । 
(अ) कामवती का उदाहरण : - 
स्मर नव नदीपूरेणोढाः पुनयु रुतेठभिः, 
यदपिविधृतास्तिष्ठन्त्यारादपूणंमनोरथाः | 
तदपिल्िखितप्रख्यरज्ञः परस्पवरमुन्मुखा 
नयननलिनी नालाङृष्टं पिबन्ति रसं प्रियाः ॥ 
कामदेवरूपी नवीन नदी के प्रवाह के द्वारा बहाकर लाये हुए, पुनः गुर 
रूपी सेतु ॐे द्वारा रोके हर अपूणं मनोरथ वाज्ञे जो प्रेमी-जन निकट ही बैठे हें 
द्मौर जो खिले से अंगों केद्वारा ९क दृखरे की रोर उन्मुख प्रतीत हो रहे है वे 
नयन रूपी नलिनी की नाल से लाये हुए रस का पान कर रहे है ।' 
(इ) मध्या के सम्भोग का पर्यैवसान मोह ( अध्यास शून्यता ) मेँ होता 


हे । जेसे :- 








( ९७ 


ताव चि श्र रइसमए महिलाणं विन्भमा विराश्नन्ति । 
जाव ण॒ कुवलयदलवतच्छदाई मउलेन्ति एश्रणाइ' ॥ 
[तावदेव रति ` समये महिलानां विभ्रमा विराजन्ते । 
यावन्न कुबलयदल स्वच्छामानि मुकुलयन्ति नयनानि ॥ ] 


“रति काल मँ महिलां के विलास तभी तक शोभित होते है जब तक 
कुबलय दल के समान स्वच्छं कान्ति वाले नेत्र मुडुलित नही' हयो जाते ।? 

मध्या नायिका के तीन मेद होतेह धीरा, अधीरा ओर धीराधीरा। 
सम्भोगावस्था मँ इनके उदाहरण सम लेने चाहिए । 

अब यह बात बतला जा रही है कि मध्या का मान किस प्रकार होता है :-- 

धीरा सोतप्रासवक्रोक्त्या मध्या साश्र कृतागसम्‌ । 
खेदयेहयितं कोपादधीरा परुषाक्षरम्‌ ॥ १७॥ 

( मध्या धीरा आक्तेय श्मौर वक्रोक्ति से, मध्या धीराधीरा सुं के साथ 
आत्ते ओर वक्रोक्ति से तथा मध्या अधीरा क्रोध से कठोर शब्दों द्वारा अपराधी 
प्रियतम को चिन्न करती है । ) 

कारिका के धीरा शब्द्‌ का अर्थं ह मध्या धीरा; मण्या शब्द्‌ का र्थं है 
मभ्य श्रेणी की. अर्थात्‌ धीराधीरा ओौर अधीरा शब्द का अर्थं है मध्या अधीरा । 

(क) मध्याःघीरा आक्तेप चौर वक्रोक्ति से प्रियतम के हृदय मे खेद उस्पन्न 
करती है । जैसे माध्रमे 


न खलु वयममुष्य दान योग्याः 
पिबतिच पाति च यासकौ रहस्त्वाम । 
व्रज विरपममु ददस्व तस्यै 
भवतु यतः सदशोक््विराय योगः ॥ 
किसी नायक का अपराध व्यक्तहो गयां है; वह नायिका कौ मनाने कै 
मन्तव्य से नायिका के निकट अकर उसे ब्त फे एक विटप ॐो देने लगा । तब 
वह नायिका बोली-- “निस्सन्देह हम इस विटप फे दान के योग्य नही" ह 
जाञ्ो यह विटप उसको दो जो एकान्त मे तुह पीती भी है ओौर तुम्हारी रक्ता 
भी करती है अर्थात्‌ तुम्हें छिपाती भी है । बह तुम्हारी प्रियतमा भी विटप 
( विट +प = बदमाश को पीनेवाली या उसकी रक्ता करनेवाली ) है ओर 
यह भी विटप है । अतएव इन दोनों समानो का बहुत समय तक संयोगे 
बना रहेगा । 
(ख) मध्या धीराधीरा ओंसुश्ों के साथ आक्तेप श्नौर वक्रोक्ति से प्रियतम के 
हृद्य मे खेद्‌ उत्पन्न करती हे । जैसे :- 
१३ 








( ` ९न..}. 


वाले नाथ विमुञ्च मानिनि रूष रोषान्मया किं इतम्‌ | 
खेदोऽस्मासु न मेऽपराध्यति भवान्सेऽपराघामयि । 

तत्किं रोदिषि गद्गदेन वचक्षा कस्याग्रतो रुद्यते । 
नन्वेतरेमम का तवास्मि दयिता नास्मीर्यतो स्यते ॥ 

"प्रियतम --“बाल्ञे ” नायिका--“नाथ !' प्रियत्तम--ष्दे मानिनि! क्रोधः 
दोद दो ।' नायिका--@करोध करे हमने क्या कर लिया ? प्रियतम --“हमारे ` 
हृदय मे खेद उत्पन्न कर दिया ।' नायिका--'आपका तो कोड अपराध ही नही. 
सब अपराध मेरे ही हे ।' प्रियतम--(फिर गद्गद्‌ वचनो के साथ क्यों रोख 
हो १ नाधिका किसके सामने रो रदी ह ‹ ' प्रियतम--“यह देखो मेरे हीः 
खामने ? नायिका--न्निं वु्हारी कोन ह {', प्रियतम--(तुम मेरी प्रियतमाः 
हो । नायिका--श्रियतमा ही नही दँ इसी से तोरोरही्हं। 

(ग) मध्या अधीरा रओंसू बहाती हे ओर कठोर शब्द्‌ कहती है । जसे --- 
यातु-यातु किमनेन तिष्ठता सुञ्च-मुञ्च सखि ! माद्रं कृथाः । 
खरि्डिताधरकलङ्कितं प्रियं शक्रूमो न नयनैर्निरीलिवम्‌ ॥ 

(हे सखि ! जाने दो जाने दो इखके यहां बैठने से क्यालाभ; हे सखि! 
छोड दो छोड दो ! इसका आद्र मत करो । खरिडत अधर से कलङ्भित भिय 
कों नेत्रं से भी नहीं देख सकती ॥' 

म्या से ङ ेसे ही ओर भी व्यवहार होते ह जिनसे लञ्जा की अधि 
कता नहं होती किन्तु वे स्वयं ही श्रपने प्रियतमो के सामने भरेम का व्यवहार 
्रारम्भ नहीं करतीं । जैसे :-- | | - 

स्वेदाम्भः कणिकाञ्चितेऽपि वदने जातेऽपि रोमोद्ये 
विश्नम्भेऽपिगुरौ पयोधर भरोक्कम्पेऽपि वृद्धिगते । 

दुवारस्मर नि्भरेऽपि हृदये नैवारमियुक्तः प्रिय- 
स्तन्वङ्खया हरठ्केशकषेण घनाश्लेषामूतेलुम्धया ॥ 

"यद्यपि उख तन्वङ्गी का बदन पसीने की वदां से भरा इमा था; उसको 
रोमाज्न भी हो रहा था; प्रियतम मे महान्‌ विश्वास भी उत्पन्न हो गया था, स्तन 
आर का उत्कम्पन भी बृद्धि को प्राक हो गया था, हृद्य दुर्वार काम पीडा से 
परिपू था क्रिर भी उस नायिका ने मानों बलात्‌ केशाक्षैण रौर घने अलिङ्गन 
खूप अमृत के लोभ से प्रियतम ङे अति स्वयं अपनी कामना व्यक्त नहीं कौ ।' 

(३) प्रगद्भा :-- | | 
योवनान्धा स्मरोन्मत्ता प्रगल्भा दीयताङ्गके । 

विलीयमानेवानन्दाद्रतारम्भेऽप्यचेतना  ॥१८॥ 
[जो यौवन के कारण अन्धौ हो रही हो, काम्‌ केवेग से उन्मत्त हो, 








८ ९९ ) 


प्रियतम के निकट मानों आनन्द्वश अंगों मे घुसी सी जा रदं हो नौर सुरत 
के प्रारम्भमें ही जो ्ानन्दातिरेक के कारण बेहोश सीहो जावे उसे भगर्भा 
नायिका कते हे । | 
गाढ यौवना का उदाहरण :-- 
च्रभ्युन्नतस्तनमरो नयने सदी, 
वक्र भ्रुवावतितरां वचनं ततीऽपि । 
मध्योऽधिकं तनुरतीव रुरर्नितम्बो, ` 
मन्दा गतिः किमपिं चाद्ध्‌ त योवनायाः ॥ 
छाती स्तनो की ऊँचा से परिपूणं है, नेत्र सुविशाल है, भिं रेदी हैँ ओर 
वचन उनकी अपेक्ञा भी अत्यन्त टे ह, मध्य बहुतदहीङ्श हो रहाहै भ्नौर 
नितम्ब अस्यन्तं विशाल हो रहे हैँ, उख अद्भूत यौवनवाली नायिका की 
चाल भी ङच-ङच मन्द हो रही हे ।' 
दूखरा उदाहरण :-- 
स्तनतरमिदमृततङ्ग॒निग्रो मध्यः सनुन्नतं जघनम्‌ । 
विषमे मृगशावादया वपुषि नवेक इव न स्वलति ॥ 
श्रगनयनी का यह स्तन तट ऊँचा हो रहा है, मध्य भाग नीचा है, जंघा 
ऊंची है, इस भकार श्रगनयनी के इस ॐँचे-नीचे शरीर म ठोकर खाकर कौन 
नहीं गिर जावेगा ।' 
भावं प्रगल्भा का उदाहरण :-- 
न जाने सम्मुखायाते प्रियाणि वदति श्रिये । 
सर्वार्यज्गानि मे यान्ति नेत्रतामुत कणंताम्‌ ॥ 
(भयतम के सामने आने पर अओभौर प्रिय वचनो के कहने पर नहीं पता मेरे 
सभी अंग नेत्र बन जावेगे या कान बन जा्वेंगे ।' । 
रतभ्रगल्भा का उदाहरण :-- 
कान्ते तल्पमुपागते विगलिता नीवी स्वयं बन्धनात्‌ । 
वासः प्रश्लथमेखला गुणधृतं किञ्चित्रितम्बे स्थितम. । 
एतावस्सखि बेद्धि केवलमहं तस्याङ्गषङ्खं पुनः। 
` कोऽसौ कास्मि रतं नु किं कथमिति स्वल्पापि मे न स्मृतिः ॥ 
"प्रियतम के चारपाड पर आने पर मेरी नीवी की ग स्वयं खुल पडी, 
कपड़ा भी सरक्‌ गया भौर वह तगदी के गुण से रोका ह्या कद थोडा सा 
नित्तम्ब पर पड़ा रहा । बस में केवल इतना ही जानती हँ । इसके वादं उस 
नायक के अंगों फा मेल होने पर सुभे ढं याद्‌ नहीं रहा कि वह कौन दहै, म 
कौन हँ, सहवास क्या है ओर मेरा सहवास किष प्रकार हु्ा । | 








( १० 


इसी श्रकार ऊ प्रगद्भा के. दूसरे भी भ्यवहार दिखलाये जाने चाष 
जिसमे लञजा का नियन्त्रण हट गया हो श्नौर निखमें वैद्र्ध्य (निपुणता) अधिक 
हो । जैसे :- 

कचित्ताम्बूलाक्तः कचिदगुर पङ्काङ्कमलिनः । 
कचिच्चर्णोद्‌ गारी कचिदेपि च सालक्तकपद्‌ः । 
 बलीभङ्गाभोगैरलकपतितेः शीणंकुसुमेः, 
| स्त्रियाः सर्वावस्थं कथयति रतं प्रच्छदपटः ॥ 

(रात का बिद्धौने का व्र प्रगट कर रहा है किं उस नायिका का सुरत 
्रस्येक भ्रकार का हुआ । वह वख कहीं तो पान से रंगा हु्ा हे; कीं अगर 
क पद्ध से अद्भित होकर मलिन हो रहा है, कीं उस पर शगार का चूं गिरा 
हअ! मालूम पड रहा है कदी -कहीं उसमें महावर के दाग पड़ गये हैँ, कहीं-कहीं 
उसमे त्रिवली ऊ विस्तार के कारण सिलवटं पड़ गई हँ ओर दृखरे स्थानो पर 
बालों से टय्कर गिरे हए पूल दिखलाई पद रहे दँ । इस प्रकार यह क्ञात होता 
है फि इस नायिका का सुरत विविध प्रकार का हा हे 

प्रगरभा की कोपचेष्टाएं इख प्रकार ही.होगी ‡-- 

साबहित्थादरोदास्ते रतौ धीरेतरा क्रुधा । 
संत्य ताडयेत्‌ मध्या-मध्या धीरेबतं वदेत्‌ ॥१६॥ 

[धीरा प्रगल्भा अवदिस्थ (भावसंवरण) ञ्ओीर आदर को प्रगट करती है 
ञ्ौर रति मे उदासीन रहती है; अधीरा प्रगल्भा क्रोध से टती फटकारती है 
ञजौर पीटती है; अगर्भा धीरा-धीरा मध्या धीरा के समान नायक से बातचीत 
करती है 1| 

(क) धीरा भ्रग्भा एक तो अवहित्थ का भ्रद्शंन करती है अर्थात्‌ भावं 
दिपाने की चेष्टा करती है ओर बहुत अधिक आद्र दिखलाती हे तथा रति में 
उदासीन रहती है । अवहत्य ओर आद्र प्रदशंन का उदाहरण :-- 

एकत्रासनसं स्थितिः परिहृता प्रच्युद्गमाद्ूदुरतः । 
ताम्बूलादर्णच्छ्कलेन रभशाश्लेषोऽपि संविधितः ॥ 

त्राललापोऽपि न भिशितः परिजनंब्यापारयस्यन्त्यान्तिके । 
कान्तं प्रव्युपचारतश्चतुरया कोपः कृतार्थीकृतः ॥ 

(नायक को दूर से आता हुभा देखकर उठकर खदी हो गदं जिखसे एक 
साथ ज्ञासन पर बैठना बचा दिया, पान लाने के बहाने से चली गदे जिससे 
नायकं वेग से आलिङ्गन भी न कर सका ओर उसमे भी विध्न पड़ गया, जब 
नायक ने बातचीत करने की चेष्टा की तव निकट बैठे हुए परिजनों की ओर 
इशारा करके उसे भी यल दिया । इस प्रकार उस नायिका ने भ्रियतम के प्रति 








( १०१ ) 


आद्र-सत्कार दिखलाने के बहाने से चतुरता के साथ ्रपने कोप । सफल 
कर लिया ।' 
रति मेँ उदासीनता का उदाहरण :- 
त्रायस्ता कलहं पुरेव कुरुते न संसने वाससो- 
भग्नभ्रगति खण्ड्यामानमधरं धत्ते न केशग्रहे | 
श्रङ्गान्य्पयति स्वयं भवति नो वामा हठलिङ्खने 
तन्याः शि्तित एष सम्प्रति कुतः कोपप्रकारोऽपरः ॥ 
"चुपचाप जेटी इई है, जब कपडे खोले ओर हटाये जते हैँ तो पदले के 
समान कलह नहीं करती, बाल पकडने पर न तो कोप से उ्तकी भौहिंदहीटेदी 
होती है भौर न वह ओऽ ही काटती है, स्वयं अपने अंगोंको प्रदान कर देती 
हे ओर जब बलात्‌ आलिगन किया जावे तो विरोध नहीं करती । इस प्रकार 
इस तन्वी ने इस समय कोपे का यह नया ही तरीका सीख लिया हे ।' 
(ख) अधीर प्रगर्भा कुपित होकर डाटती, फटकारती है ओओौर पीटती ह । 
अमरूशतक म :- 
कोपात्कोमललोलवाहूलतिकापाशेन वद्ध्वा ददं, 
नीत्वा केलिनिकेतनं दयितया सायं सखीनां पुरः । 
भूयोऽप्येवमितिस्त्कलगिरा संसूच्य दुश्चेष्टितम्‌ 
घन्यो हन्यत एव निह तिपरः प्रेयान्‌ सुदन्त्याहसन्‌ ।* 
प्रियतमा अपनी कोमल श्रौर चञ्चल बाहुलता रूपी पाश मेँ प्रियतम को 
दृदतापू्व॑कं बांधकर निवासस्थान पर सखियों के सामने ज्ञे आदं । अपनी कल 
मधुरवाणी भ जो कोप के कारण स्खलित हो रदी थी उसकी दुश्चेष्टाओं को 
सङ्केत के द्वारा सूचित करते हुए अर्थात्‌ उसके नखरत इत्यादि चिं की ओर 
+ हाथ से सङ्केत करते हए सखियों से कहा कि देखो अरब कभी एेसा मत कहना 
कि यह अपराधी नदीं है । उस समय प्रियतमा रो रही थी ओर प्रियतम र्ैस- 
कर अपने अपराध को िपानेकी चेष्टा कर रहा था। उस समय भियतमा 
उसे मारने लगी । सचमुच इख प्रकार का सौभाग्य जिसे प्राप्त होता है वह 
धन्य ही है । 
(ग) प्रगर्भा धीरा-धीरा मध्या धीरा के समान उससे आप ओर वक्रोक्ति 
मै बातचीत करती है । जेखे अमरूशतक मे-- 
कोपो यत्र भ्रुकुटि रचना निग्रहो पत्र मौनम्‌, 
यत्रान्योन्यस्मितमनुनयो इष्टिपातः प्रसादः 








( १०२ ) 
तस्य प्रम्णस्तदिदमधुना वैशसंपश्यजातं, 
त्वं पादान्ते लुठसि न च मे मन्युमोक्षः खलायाः ॥ 

"जव कोप की सीमा मौह की मरोढ़ ही थी; दर्ड एक दूसरे से मौन हो 
जाने तक ही सीमित था, जब एक दूसरे की ओंर देखकर सुस्कुरा देना ही मान- 
मनोल थी, दष्टि-पात ही प्रसन्नता थी; उख सारे प्रेम को देखो, आज यह कैसी 
हत्या हृद किं तुम तो मेरे पैरों पर लोट रहे हो भौर खु दुष्टा का क्रोध ही 
नहीं छूट रहा है ।' 

इस प्रकार मध्या श्नौर प्रगल्भा इन दोनों प्रत्येक के धीरा, धीराधीरा ओर 
अधीरा ये तीन तीन भेद होते है । इनके अतिरक्ति इन छः भेदं मे भ्त्येक के 
दो-दो मेद्‌ ओर होते है-- | 

| दरे घा ज्येष्ठा कनिष्ठाचेत्यमुग्धा दादशोदिताः । 

[ज्येष्ठा नौर कनिष्ठा ये दो-दो भेद ज्नीर होते ह । इस मकार असुग्धा 
नायिका (मध्या श्लौर मोदा दोनों को मिलाकर १२ प्रकार की होती हे ।] 

मुग्धा केवल एक प्रकार की होती है । इस प्रकार स्वकीया के १३ मेद्‌ 
होते हे । ज्येष्ठा श्रौर कनिष्डा का उदाहरणं जैसे अमरूशतक म-- 

ष्ट कासन संस्थिते प्रियतमे पर्चादुपेत्यादरात्‌, 
एकस्यानयने पिधाय विहित क्रीडानुबन्धच्छलः । 

ईषद्रक्रितकन्धरः सपुलकः प्रेमोल्लसन्मानसाम्‌) 
श्रन्तर्हांसलसत्कपोलफलकां धूर्तोऽपरां चुम्बति ॥ 

“एक ही आसन पर दो प्रियतमां को वैडा हुआ देखकर आद्रपू्॑क पीदे 
से आकर एक की आँखें बन्द करके मजाक के छल को जारी रखते हुए कच गरदन 
को टेदा करके श्र प्रफुरिलित चित्त होकर धूतं नायक ने प्रम से उल्लसित चित्त- 
वाली, अन्द्र दसी से युक्त ्रफुस्लित कपोल फलकवाली दृसरी नायिका का 
चुम्बन ज्ञे लिया ।' ॥ 

यौ पर यह नहीं समना चाहिए किं ज्येष्ठ नायिका के प्रति 
प्रेम नही हे केवल कनिष्ठ नायिका के प्रति ही प्रेमं है। ज्येष्ठा के प्रति केवल 
दादिश्य है । इसके प्रतिकल यहां पर दोनों नायिका के प्रति प्रेम ही है । 
दक्तिण नायिक का वर्णन करने के अवसर पर यह बात स्पष्ट की जा चुकी हे । 


: ज्येष्ठा ओर कनिष्ठा को मिलाकर मध्या ओर प्रगल्भा के ऊपर जो ५२ भद्‌ 


किये रये है उनम प्रत्येक का प्रयोग प्रबन्ध कार्यों म होता है । अतएव 
र्नावली नौर वाखबदत्ता के समान महाकविरयं के प्रबन्धो मे उनके उदाहरण 
दृदुने चाहिए । ॑ | 


^. ऋ 


परकीया नायिका 


अन्यखी कन्यकोढा च नान्योढाऽङ्गिरसे कचित्‌ ॥२०॥ 
कन्यानुरागमिच्छातः कुयादङ्गाङ्गिसंश्रयम्‌ ॥ 

[अन्य खी (परकीया) के दो भेद होते हँ कन्या श्मौर परोढा । नायिका को 
कभी भी प्रधान रस का आलम्बन नही बनाना चाहिए । कन्या के अनुराग को 
इच्छानुसार प्रधान श्रौर अप्रधान दोनों प्रकार के रसो का आलम्बन बनाया जा 
सकता हे ।] 

किसी अन्य नायक से सम्बन्ध रखनेवाली नायिका को परोढा कहते हैँ । 
जैसे :- 

दृष्टि हे प्रतिवेशिनि क्षण मिहाप्यस्मद्गृहे दास्यसि 
प्रायेणास्य शिशोः पिता न विरसाः कौपीरपः पास्यति । 

एकाकिन्यपि यामि ससरमितः खोतस्तमालाकुलं, 
नीरन्धरास्तन॒मालिखन्त॒ जरछ्च्छैदाः नलग्रन्थयः ॥ 

हे पडोसिन्‌ ! हण भर यहाँ पर हमारे घर की आर भी निगाह दिये 
रहना; इस बच्चे का पिता कुशं का जल नही' पियेगा क्योंकि प्रायः उसे इस 
जल मे स्वाद्‌ नहीं अतादहै। में अकेली ही जागी; बहुत जल्दी मे जाना 
पड़ेगा; मेँ उस श्रोत की ओर जाऊंगी जो तमाल इको से षिरा हुआ है (वहीं से 
जल लाना है ।) ओर पुराने खण्डोवाली नल की रगारं बहुत दही घनी है; वे 
मेरे शरीर चींथ डालगी । किन्तु क्या करर जाना तोदहैही।' 

यहां पर व्यञ्जना यह हे किं यह नायिका परपुरुष से सम्भोग करने श्रोत 
कीओर जा रही है ओर अपने घर की रखवाली के लिए पडोसिन को प्रेरित कर 
रही है । उसे मालूम है कि सम्भोग की थकावट से उसद्धी श्वासे चलने लगेगी 
श्रीर शरीर परर दन्तत्तत श्रौर नखक्तत के चिद्व बन जावेंगे । उन्हीं को द्विपाने 
के लिए वह जल्दी जाने ओओर नल की गायों से द्धिद्‌ जने की बात कहती है। 
यह दूसरे को व्याही इद खी है । 

यहां पर इसका विशेष विस्तार नहीं किया ज वेगा, क्योकि यह प्रधान रस 
की नायिका कभी नहीं होती । कन्या को परकीया इसलिए कहा गया है कि वह 

पिता इत्यादि के आधीन होती है। एक तो वह पिता इत्यादि से चासानी ते 
प्रा नहीं होती ओर यदि किसी न किंसी तरह प्राकठहो भी जवे तो भी दूसरों की 
स्कावट ओर अपनी पत्मी का भय स्वच्छन्द्‌ता नहीं आने देते । अतएव इसके 
प्रेम की अदृत्ति गुष्च सूप से होती है । जैसे माधव का मालती से प्रेम र वत्स- 
राज का सागरिका से प्रेम । उसके प्रेम कों स्वेच्छानुसार चाहे अङ्गी (प्रधान) 





` ` "न `क ` ~ = 


| 





जिनो 


( ०४ ) 


प्रेम के रूप म वर्णन करे चाहे अङ्ग (अप्रधान) केरूपमें। जैसे रत्नावली मे 
सागरिका का प्रेम प्रधान रस हे ओर नागानन्द्‌ म मलयवती का प्रेम अप्रधान 
रस है। 

साधारण स्ली 


साधारण खी गणिका कलाप्रागल्भ्य धौत्येयुक्‌ ॥२१॥ 

[साधारण खौ को गणिका कते है; यह कला प्रगल्मता ओर धूतंता से 
युक्त होती है ।| 

काम-शाख् की पुस्तकों म विस्तार से गणिका के भ्यवहार का वणन किया 
गया है । यहां पर उसका दिण्दश॑न मान्न किया जा रहा है :-- 

छन्नकामसुखार्थाज्ञ॒ स्वतन्त्राहंयुपरण्डकान्‌ । 
रक्तेव रञ्जयेद।ल्यान्‌ निःस्वान्‌ मात्रा विवासयेत्‌ ॥२२॥ 

[भ्रच्छन्न कामनावाज्ञे, सुखाथ, अज्ञ, स्वतन्त्र, अहंयु ओर परण्डक इनको 
अनुरक्त के समान यदि ये धनवान्‌ हों तो अनुरक्त के खमान अनुरञ्जित करे अौर 
यदि धन-रहित हों तो अपनी माता से उन्हें निकलवा दे || 

 श्रच्छुन्ञ कामना वाले काञ्रथंहे गुक्तरूपसे काम वासना मे प्रवृत्त 

होनेवाले, जैसे विद्वान्‌ लोग, बनिश्चा ओर संन्यास इत्यादि का कोद चिद 
धारण करनेवाक्ञे तथा इसी अकार के ओर लोग। सुखां का अरथहै एेसा 
व्यक्ति जिसको धन आसानी से मिल जाता हो अथवा जिसके धन का प्रयो- 
जन सुख भोगना ही हो । अज्ञ का अर्थं है मूखं ओर स्वतन्त्र का अथ हे 
निरङ्कुश । अहंयु अदङ्ारी को कते हे थौर पण्डकं वायुदोष इत्यादिके नपुं 
सक हए व्यक्ति को कहते हँ । पण्डकं अवारा को भी कह, सकते हे । यदि इन 
लोगों के पास अधिक धनहो तो इनके धन प्राति के उदेश्य सेप्रेम करे। 
क्योकि वेश्या की प्रधान इत्ति धन के लिये प्रेम करना ही है । इनका धन ल्ञेकर 
कुटिनी इ्यादि से इनको निकलवा दे । क्योंकि यदि वेश्या स्वयं ही निकाल देगी 
तो वह प्रेम करनेवाला पुनः नहीं आवेगा ओर यदि वेश्या प्रेम प्रदशित करती 
रहेगी ओर कुटिनी इत्यादि निकाल दंगी तो वह धन लेकर पुनः आवेगा । यह 
वेश्याश्च का सामान्य लक्षण है | 

रूपकों म इसके विषय मेँ यह विशेषता हे :-- 


रक्ते व त्वपरह॑सनेः नैषां दिव्य चृपाश्चये 


[प्रहसन से भिन्न अनन्य रूपों मे इसको अनुरक्त ही दिखलाना चाहिष 
किन्तु दिभ्य राजानँ के आश्रय से लिखे जाने वाज्ञे रूपकों मेँ इनको नहीं 
दिखलाना चाहिए ।| 








( १०४ ) 


परहसन से भिन्न प्रकरण इत्यादि मे इस वेश्या को अनुरक्त ही दिखलाना 
चािए । जेसे छच्छुकयिक में वसन्त सेना चारदत्त के परेम के आलम्बन के सूप 
म दिखलाई गह है । रसन मे याद्‌ अनुरक्त नहो तव भो दिखलाना चाहिश 
क्योकि प्रहसन का मन्तव्य हास्य की सृष्टि करना होता हे । नारकं इत्यादि मेँ 
यदि नायक कों दिष्य राजा हो तो इसको नायिका के रूप नहीं दिखलाना 


चाहिए । 
नायिकां के दूसरे भेद्‌ 
नायिकां के दृसरे भेद ये होंगे :-- 
ग्रासामष्टाववस्थाः स्युः स्वाधीनपतिकादिकाः ॥ 

[इन नायिकां की स्वाधीन पतिका इत्यादि ८ अवस्थाय होती |] 

वे आठ अवस्थार्ये ये हे स्वाधीन पतिका, वासकसञ्जा, विरहोत्करिठिता, 
खरिडा कालहान्तर्ता, विप्रलब्धा, प्रोषितप्रिया ्ौर अभिसारिका। येय 
भवस्थाये स्वकीया इत्यादि की होती हे । नायिकां की स्वकीया इत्यादि भी 
एक प्रकार की अवस्था ही हैँ नौर स्वयं नायिका होना भी एक अवस्थः ही हे। 
इस अकार स्वाधीन पतिका इत्यादि को विशेष रूप से अवस्था कहने का मन्तन्य 
यह हे कि पूवं अवस्थाओं की|ही ये अवस्थाथें होती हे । पूवं अवस्थाय धमी है 
ओर ये अवस्थाय ध्म हैँ । आरः इख संख्या का उरलेख करने का शय यह 
है कि अवस्थां की संख्या न्यूनाधिक नहीं होती । | 

वासकसञ्जा इत्यादि का स्वाधीन पतिका इत्यादि मे अन्तर्भाव नहीं हो 
सकता । कारण यह हे कि वासकसखञजा का प्रियतम उसके निकट नहीं होता । 
अतएव वह स्वाधीनपतिका नहीं कही जा सकती । यह भी नहीं कहा जा सकता 
कि वासकसजा का पति अनेवाला होता है । अतएव वह स्वाधीन पतिका कही 
जानी चाहिए । यदि प्रियतम के आगमन की सम्भावना मेँ स्वाधीन पतिका हो 
सकती हे तो प्रियतम के गमन की सम्भावना होने के कारण ही भ्रोषित पतिका 
भी स्वाधीन पतिका हो सकती है । दूरी की मात्रा तो कोद नियत होती नहीं 
जिसके आधार पर कहा जा सके कि आगमिष्यतपतिका स्वाधीन पतिका होती हे 
श्नौर भरोषित पतिका उक्तपरिमाण से अधिक दूरी होने के कारण अस्वाधीन पतिका 
होती ह । इसी प्रकार खणिडता ओर प्रोषित पतिका मँ भेद समाना चादिए। 
खरिडतां तव तक नही" हो सकती जब तक प्रियतम के अपराध का पतान 
चले । ओषित पतिका भी तभी हो सकती है जव कि प्रियतम के वियोग का इसे 
अनुभव हो रहा हो । यदि वह परपुरुष इत्यादि के साथ उसकी रतिभोग की 
प्रवृत्ति हो गई हो या रतिभोग की इच्छा ही उत्पन्न हो तो उसे प्रोषित पतिका 
नही ' कह सकते । अभिषारिका भी तभी हो सकती है जव छि या तो वह स्वयं 

१४ 





१ 








( १०६ ) 


नायक के पास जावे या नायक को अपने पास बुलावे । इसी प्रकार उस्कणिऽ्ता 
नायिका भी पूर्वक्त नायिकाओं से भिन्न है । वासकसन्ना तभी तक रहती है 
जब तक कि आभूषणादि से आभूषित होकर प्रियतम की उत्साह भौर हषे 
पूवक प्रतीक्ता करे । यदि आगमन के उचित खमय का अतिक्रमण हो जाने से 
व्याकुलता का अनुभव्र करने लगे तो वह वासकसज्ञा नहीं कटी जावेगी तब 


` बह उत्करिठ्ता ही कही जावेगी । विप्रलब्धा भी वासकसजा ॐ समान पूर्वोक्त 


नायिकां से प्रथक्‌ ही होती है । यदि नायकं वचन देकर भीन अवेतो 
उसभ वञ्चना की अधिकता होती है किन्तु वासकसजा ओर उत्करिठता को इस 
प्रकार का वचन नहीं दिया गया होता है। तो ये दोनों नायिकायं प्रियतम 
ङे आगमन की सम्भावना मात्र कर्‌ लेती ह । अतएव वञ्चना की अधिकता होने 
से विप्रलग्धा उत्करिरता ओर वाखकसन्ना से भिन्न होती है 1 यद्यपि खरिडता 
ञौर कलहान्तरिता दोनों को ही प्रियतम के अपराध का ज्ञान होता है किन्तु ,. 
कलहान्तरिता मै इतनी विशेषता शौर होती हे कि वह प्रियतम के अनुनय -विनय 


, को पहले तो स्वीकार नही करती किन्तु बाद्‌ मे परश्चात्ताप को प्रगट करने से 


ञपनी प्रसन्नता को यकाशित कर देती है । अतएव कलहान्तरिता का भी खरिडिता 
ञ्जं अन्तमौव नहीं हो सकवा । इस प्रकार यह बात सिद्ध दहो गद किं नायि- 
काञ्च की आठ ही अवस्थाय होती हे । इन ` मेदं की क्रमशः व्याख्या कीजा 
रही है :-- | 
(१) स्वाधीन पतिका : - 
दासन्नायत्तरमणा हृष्टा स्वाधीनभवृ का ।॥२३॥ 

जिसका पति निकटवर्ती हो नौर आधीन हो रदे तथा जो प्रसन्नचित्त रहे 

उसे स्वाधीन पतिका कहते है । ] 


मा गर्वमुद्रह कपोलतले चकास्ति 
कान्तस्वहस्त लिखिता मम मञ्जरीति । 
ञ्नन्यापि किन्न सखिभाजनमीदशारनां, 
वैरी न चेद्धवति वेपथुरन्तरायः ॥ 
८हे सखि ! इस बात का अभिमान मत करो किं प्रियतम के द्वारा श्रपने 
हाथ से लिखी हुई मञ्जरी लम्हारे कपोलतल म शोभितदहोरहीदै। इस ` 
प्रकार के सौभाग्य का पात्र दूखरी भी खिर्थां क्या नर्ही हो जावं यदि वैरी 
कम्पन विध्रकारक न हो जावे ।' ं 
द्याशाय यह हे कि प्रियतम तुमसे अधिक प्रेम नदीं करता अतपए्व निविकार 
चिन्त से तुम्हारे कपोल पर मञ्जरी लिख देता है । किन्तु मेरे कपोल पर. जब बह 








स १०७ ) 


मञ्जरी लिखने लगता है तब सात्विक कम्पन हो जाता है । अतएव यह स्वाधीन 
पतिका का उदाहरण है । 
(२) वासकसजा :-- 
मुदा वासक सजना स्वं मरुडयव्येष्यति प्रिये ॥२४।॥ 
 वासकसज्ा पति के आगमन की भरतीक्ता मे आनन्द से अपने को श्राभू- 


पित करती हे । | 


अपने को" का अथ है अपने घर को भ्रौर अपने शरीर को । जैसे :-- 
निज पाशि पल्लवतलस्वलनादभिनासिकाविवरमुस्पतितैः । 
रपरा परीक्य॒शनकैमृषुदे मृखवासमास्व कमलश्वसनैः ॥ 
कोद दृसरी खी सुख मेँ पाणिपज्लव को लगाकर उसके तल से स्खलित 
हद ओर नासिका विवर की ओर उटी हुद॑सुख कमल की श्वाखवायु के द्वारा 
अपने सुख की सुगन्धि की धीरे से परीक्ता करके आनन्दित हु ।' 
(३) विरहोत्करिठित। :-- 
चिरयत्यव्यलीकेतु विरदोत्करिठतोन्मनाः | 
[ यदि प्रियतम का अपराध न्ञातन हो रौर वह आने मेँ विलम्ब कर रहा 
हो; अतएव उसकी प्रतीता मँ नायिका उत्करिरत हो तो उसे विरहोत्करिठता 
कहते हँ । | 
उदाहरण :-- 
सखि स विजितोवीणावायेःकथाप्यपरस्त्रिया, 
परणितिमभवत्ताभ्यां तत्रक्घपाललितं भ्रुवम्‌ | 
कथमितरथा शेफाली स्वलत्कुषुमास्वपि, 
प्रसरति नभोमध्येऽपीन्दौ प्रियेण विलम्ब्यते ॥ 


हे सखि एेसा क्ञात होता है किं वीणा वादन के द्वारा किसी दूसरी ज्ञी 
ने हमारे प्रियतम को छल लिया ओर उन दोनों ने निस्सन्देह रात्रि के आनन्द 
को दाव पर लगा दिया । नहीं तो शेफालिका के पुष्पों का गिरना प्रारम्भहो 
जाने पर भी च्मौर चन्द्रमण्डल के आकाश के मध्यमे श्रा जाने पर भी प्रियतम 
देर क्यों लगा रहे हँ ? 

(४) खरिडता :- 

ज्ञातेऽन्यासङ्गविकृते खरिडतेष्याकषायिता ॥ २५॥ 

[ दृसरी नायिका के सहवास के विकार को जान लेने पर॒ जिस नायिका के 

चित्त मे द्यां के कारण क्रोध उन्न हो उसे खणिडता कहते हे । ] 














( - 48 ~) 


उदाहरण ‡- 
नवनखपदमङ्गं गोपयस्यंशुकेन, 
स्थगयसिपुनरोष्ठं पाणिना दन्तदष्टम्‌ । 
परतिदिशमपरखरीसङ्गशंसी विखपन्‌, 
नव परिमलगन्धः केन शक्यो वरीतुम्‌ ॥ 

तुम नवीन (ताञ) नाखून कँ चिड्वाल्रे अपने अङ्ग को तो बस्तों से 
दपा रे हो । दन्तच्त से युक्त ओढ को अपने हाथ से ठके हृष हो । किन्तु यह 
तो बतलाञ्नो यह जो तम्हारे शरीर से चारो ओर को नवीन परिमलगन्ध उड्‌ 
रहा है, जो कि परी सहवास को प्रगट कर रहा है बह किसके द्वारा छिपाया 
जा सकता हे} | 

(९) कलहान्तरिता :-- $ 

कलहान्तरिताऽमषांदविधूतेऽनुशयातिंयुक्‌ । 

[ ज्ञो क्रोध से नायक का प्रत्याख्यान कर दे द्लौर बाद मे पश्चात्ताप करे 
उसे कलहान्तरिता कहते हँ | 

, उदाहरण :-- 
निश्वासा वदनं दहन्ति हृदथं निम्‌ लसुन्मध्यते । 
निद्रा नैति न दृश्यते प्रियखुलं नक्तंदिवं रुदते ॥ 
रङ्ग शोषमुपैति पादपतित ्रेयांस्तथोपेरितः । 
सख्यः कं गुणमाकलम्या दते मानं वयं कारिताः ॥ 

"गहरी रासं सुख को जला रही है; हृदय पूररूप से उन्मथित हो रहा है; 
नीद नहीं आ रही है; प्रियतम का सुख नहीं दिखलाद पड रहा है; रात-दिन 
रोना पदता है; अङ्ग सूख रहा है । मने पैरों पर पडे इष प्रियतम की इस 
प्रकार उपेक्ता की । हे सखी ! न जाने किस गुण का विचार कर (क्या भला 
समम कर) ने प्रियतम के भति मान किया था।' 

(६) विप्रलब्धा :-- 

विभ्रल्धोक्तसमयम प्राप्तेऽतिवि मानिता ॥२६॥। 

[ सङ्केत स्थान पर निश्चित समय पर प्रियतम के न आने से जिसका 
महान अपमान इआ हो उसे. विप्रलब्धा कहते ह । ] 

उदाहरण :-- 

उत्ति्ठदूति ! यामो यामो यातस्तथाति नायातः । 
याऽतः परमपिजीवेजीवितनायथो भवेत्तस्याः ॥ 
हे दूती ! उठो चलें !! पहर बीत गया किर भी षह नहीं आया।जो 
इसके वाद्‌ भी जीवित रहे प्रियतम उस्म का प्राण ारा होगा! 








( १०९ ) 






` । (9) रोषित पतिका :- 


(॥ दूर देशान्तरस्थेत॒ कार्यतः परेम्म्रिषित ग्रिया । 
+ [किसी कायं से यदि प्रियतम किसी दूसरे दूर देश में स्थित हो तो उसे 
प्रोषित पतिका कहते हैँ । | 
ि उदाहरण 
एः ग्राहृष्टि प्रसरास्परियस्य पदवीमुद्ीर्य निविण्णया । 
॥ विश्रान्तेषुपयिष्वहः परिणतौ ध्वान्ते समुत्सपंति ॥ 
> , दत्वैकंसशुचा ° गृहं प्रतिपद्‌ ‹ पान्थस्त्रियास्मिन्‌रहशे । 


मा भूदागत इत्यमन्द्वलितम्रीवं पुनर्बीज्ितम्‌ ॥ 

(जर्हा तक दृष्ट पर्हचती थी वर्ह तक दुखित होकर वह नायिका प्रियतम 
का मागं देखती रही । जब पथिक लोगों ने विश्रामस्थान स्वीकार कर लिया 
| (अर्थात्‌ यात्रियों ने चलना बन्द कर दिया ।)दिन अस्त हो गया ओर अन्धकार 
कैलने"लगा तब उसपरदेशीकीख्ीनेशोकसे घरकी ओर लौटने के क्लिए एक 
पैर रक्ला ओर “कीं इसी रण न आ गया हो यह सोचकर शीधता के साथ 
अपनी गरदन को धुमाकर फिर देखा ।' 

(५ (८) अभिसारिका :-- 
49 कांमातांभिसरेत्कान्तं सारयेद्रामिसारिका । 
। [ जो कामपीडित होकर प्रियतम के पास स्वयं अनुसरण (गमन) करे या 
प्रियतम को अपने पास अभिसरण करावे उसे अभिसारिका कहते हे । | 
उदाहरण 
उरसिनिहितस्तासेदारः कृता जघने घने । 
कलकलवती काञ्ची पादौरणन्मणिन्‌धुरौ ॥ 
` प्रियमभिसरस्येवं मुग्धे त्वमाहत डिष्डिमां | 
यदि फिमधिकत्रासोत्कम्पं दिशःसमुदीक्तसे ॥ | 

(तुमने ्रपने वक्तस्थल पर विशाल हार धारण कर लिया है; अपनी घनी 
जंघाश्नों पर कलकल शब्द्‌ करनेवाली तगडी धारण कर ली अर पैरों मँ शब्द्‌ 
करनेवाले मणिं के नूपुर पहन लिये हँ । हे सुग्धे (पगली) यदि तू इस प्रकार 
ढोल पीती हृद प्रियतम के। पास अभिसार कर रही हे फिर श्रधिक भय से कौपिती 
हृदं इधर-उधर दिशाभों को क्यों देखरही है? _ 

दूसरा उदाहरण :- 
नच मेऽगच्छति यथा लघुतां करुणां यथा च कुरुते समयि 
निपुणं तथेनमुपगम्य वदैरमिदूति काचिदिति संदिदिशे ॥ 
हे दूति ! तुम ॒निपुणतापूवंक प्रियतम से जाकर एेसी बातचीत करना 












( ११० ) 


जिखसे वह मेरी दीनता भी न सममे रौर मेरे अपर करुणा करके ब पास 
ञ्राने की चेष्टा करे 1› यह बात किंसी नायिका ने अपनी दूती से कही 

इन अवस्थां के विषय म इतना ओर ध्यान रखना चादिषए :-- 

चिन्ता निश्वास खेदाश्रु वैवण्यैग्नान्यामूषरेः । 
युक्ताः षडन्त्याः दे चाये क्री डौञ्ञवल्प प्रहषितैः ॥२८॥ 

[उक्तं नायिकां मै अन्तिम ६ (विरहो्करिटता इत्यादि) चिन्ता, 
निश्वास, खेद, अश्रु, वैवणयै (चेहरे का फीका पड़ जाना) ग्नानि श्नौर आभूषणं 
की हीनता से युक्त होती हैँ ओर प्रारम्भिक दो (स्वाधीन पतिका ओर वासक 
सञ्जा) कदा, उञञ्वलता श्नौर प्रहे से युक्त होती है ।| ¦ 

यह पर अआमूषणों से रदित होने का अथं शोभा दृष्यादि से रदित (दीन) 
होना हे क्योकि अभिसारिका आभूषणों को तो धारण करती ही है । 

यहाँ पर यह ध्यान रखना चादिए्‌ कि दोनों प्रकार की परकीया कन्या 
दौर परोढा के केवल तीन ही भेद होते है--(१) जब तक मिलने का संकेत 
निरिचत न किया जावे तब तक वे विरहोत्करिठिता होती हँ । (२) जब विदूषक 
इत्यादि की सहायता से वे संकेत-स्थान पर जाने कौ या नायक को अपने यहां 
बुलाने की चेष्टा करती हँ तव अभिसारिका होती ह ओर (३) यदि नायक 
किसी कारण संकेत-स्थान पर न परैव सके तो विप्रलब्धा होती हैँ । शेष भद्‌ 
परकीया के सम्भव नहीं हे । वे केवल स्वकीया के ही होते है । कारण यह है 
स्वाधीन पतिका तो स्वकीया ही हो सकती हं; प्रोषित पतिका भी स्वकीया ही 
होगी । पर सखीन तो प्रियतम के सम्मिलन की प्रसन्नता दी खुलकर भरगट कर 
सकती हे ओर न कलह को ही दूसरों को बता सकती हे । उसके लिए घर या 
शरीर का सजाना भी असम्भव हें श्रौर परपुरुष से खुलकर कलह करना भी 
द्मसम्भव है! अतएव परकीया न तो वासकसञ्जा हो सकती हं ओर न 
कलहान्तरिता । खरिडिता भी वही होती हे जिसका पति दृसरे के संभोग से 
दूषित हो । परकीया का अपना पति ही नहीं होता । अतएव परकीया खरिडिता 
भी नहीं हो सकती । 

 (धश्न) मालविकाग्निभित्र की नायिका मालविका कन्या होने के कारण 
परकीया ह हे । जब उसने कहा--+जो राजा इस भकार धीर हं वह भी देवी 
के सामने देखा गया ¦ इस पर राजा कहने लगे :-- 
दात्तिप्यं नाम बिम्बोष्ठि नायकानां कुलब्रतम.। 
तन्मे दीर्घाज्ञिये प्राणास्ते स्वदाशानिबन्धना ॥ 

८हे विम्बोष्ठि ! दक्षिण होना नायकं के कुल का पकं नियम हे | अतएव 

हे दीं नयने, मेरे प्राण तो तुश्दारी ही श्राशा पर अवलम्बित है ।' 





(८ ११). 


यहाँ पर मालविका खरि्डिता के रूप मे क्यों चित्रित की गह ह £ (उत्तर) 
यहाँ पर राजा के ये वचन खरिडता के अनुनय के लिए नहीं कहे गये हँ कितु 
(के देवी के आधीन समकर कहीं यह मालविका निराशन हो जावे इसलिए 
उसके हृद्य मे विश्वास उत्पन्न करने के लिए कहे गये हैँ । 
इसी प्रकार यदि नायक का समागम न हो सके नौर नायक दूर देश में 
स्थित हो तो भी परकीया भषित पतिका नहीं होगी किन्तु उत्करिठिता ही कही 


जावेगी । 
नायिका की सहायिक्षार्णं 


नायिका की सहायिकाए ये होती हँ :- 
दूत्यो दासी सखी कारूधात्रेयी प्रतिवेशिका । 
लिङ्गिनी शिल्पिनी स्वं च बेतृमित्र गुणान्विता ।२६॥ 
[दासी (सेविका), सखी (प्रेम-पात्र सहचरी); कारू (परजा धोबिन इत्यादि), 
धात्रेयी (धाय की लडकी), पडोसिनः; लिङ्गिनी (संन्यास इस्यादि का चिदह्ध धारण 
करनेवाली), शिल्पिनी (चित्रकार इत्यादि कौ खी) नौर स्वयं (नायिका, ये दृतौ 
होती हं । इनमे नायक के मित्रों के गुण होते हैँ । | 
नायक के मित्र पीठ्मद॑ इत्यादि होते है । उनके निखष्टार्थैत्व इत्यादि गुणों 
से युक्त दूत होती है । दूत तीन भकार के माने जते हे -(१) निखष्टाथ- जो 
नायक की ओर से स्वयं निय कर ज्ञे । (२) मिताथै--जो दृसरो के भावको 
समकर केवल उत्तर दे दे ओरं नायक के परामशं के आधार पर कोद कार्यं 
करे चौर (३) सन्देशहारक--जो केवल सन्देश परहैचा दे। इनके गुण जैसे 
मालतीमाधव मे कामन्दकी के प्रति :-- 
शाले घु निष्ठा सदहजश्चबोधः प्रागल्म्यमभ्यस्तगुणा च वाणी । 
कालानुरोधः प्रतिभानवच्वमेते गुणाः कामदुधाः क्रियासु ॥ 
“शोखों मे निष्ठा, स्वाभाविक ज्ञान, बोलने मँ निषुणता, वाणी का गुणों 
म अभ्यस्त होना, काल का अनुसरण करना ओर अतिभाशाली होना ये गुण 
कार्य चेत्र मे कामना को पूरा करनेवाले! होते है ।' 
उनम से सखी के दृती होने का+उदादरण :-- 
मृगशिशुदशस्तस्यास्तापं कथं कथयामि ते । 
दहनपतिता दृष्टा मूतिरमेया नदि वेधवी ॥ 
इति तु विदितं ;नारीरूपः सलोकटशांसुघा । 
| तव शठतया .शिल्पोरकर्षौ विघेविघरिष्यते ॥ 
श्वे उस गनयनी के सन्ताप का तुम्हारे सामने किंस मकार वणन करू १ 








| 
। 
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। 





( १९२ ) 


रैन अज तक चन्द्रमाकी मूतिको कमीभी आग मेपडा हुश्रा नहीं 
देखा (जिषसे तुलना करके मै तम्हं समा सू) हाँ इतना सुमे मालूम है “कि 
केवल तुम्हारी शठता से हौ वह सारे संसारक दृष्टिका अष्त नारी रूपी 
विधाता के कौशल का उत्कषै आज नष्ट हो जावेगा ।' | 
दूसरा उदाहरण :-- 

सच जापाइ दष्ट सरिषम्मि जणभ्मि जुञ्धयेराग्रो । 

मरडणतुमं भणिस्सं मस्णं पि सलाहणिञ्जं से॥ 

[सत्यं जानाति द्रष्टुं सदृशे जने युज्यते रागः । 

प्रियतां न त्वां भीणष्यामि मरणमपि श्लाघनीयमस्याः ॥ | 


"सच्चाई को सव को देख सकता है; सदश ्यक्ति सेही प्रेम करना 
उचित होता है। अब वह मर जावे किन्तु नैं तुमसे ङक नदीं कर्टगी; अब 
उसका मर जाना ही अच्छा है). 

स्वयं दूती का उदाहरण :-- 

प्रहु एदि कि शिवालश्र हरसि शिग्रंवाउ जई विमे सिचश्रम्‌ । 
साहैमिकस्स-सुंदर द्रे गामो श्रहम. एक्का ॥ 
[मुहुरेहि करं निवारक हरसि निज॑वायो यद्यपि मे सिचयम्‌ । 


साधयामि कस्य सुन्दर दरेमामोऽदमेका ॥ | 
हे रोकनेवाज्ञे वायु ! धीरे-धीरे रा । यद्यपि तुम मेरे वख को खींच रहे 
हो; हे सुन्दर ! अब मै किसके पास जाऊँ । मेरा गव दूर हे भर में अकेली 
हीह + ¦ | 
यहाँ पर नायिका ने अपने को अकेला अर गाध को दूर बतलाकर अपनी 
भावना को स्वयं व्यक्त किया है । अतएव यहां पर स्वयं दूतिका नायिका हे । 
इसी प्रकार अन्य दूतियों के विषय म भी समर लेना चादिष्‌ । 
। अलङ्कार 
ख्यो के अलङ्कार निश्नलिखित होते हे :- - 
यौवने सच्वजास्तासामलङ्कारास्तु विंशतिः । 
[यौवन म सस्व से उत्पन्न हुए २० अलङ्कार होते हं | 
उनर्म-- 
भावो हावश्च हेला च चरयस्तत्र शरीरजाः ॥३०॥ 
शोभा कान्तिश्च दीप्रिश्च माधुयेश्च प्रगल्भता । 
श्रोदार्य वैयेभित्येते सप्रभावा श्रयत्नजाः ॥२१॥ 
लीला विलासो विच्छित्तर्विभ्रमः किलकिञ्चितम्‌ । 











( ११२३ ) 


मोहायितम्‌ कुटरमितं विव्वोको ललितं तथा ॥३२॥ 
विहतं चेति विज्ञेया दशभावाः स्वभावजाः॥ 

[भाव, हाव ओर हेला ये तीन शरीरज अलङ्कार होते हँ । शोभा इत्यादि 
सात अयत्नज अलङ्कार होते है । लीला इत्यादि दस स्वभावज अलङ्कार 
होते हे ।| 

इन्हीं की क्रमश ् कीजारहीहे। 

(१) भाव-- \ 

निर्विकारात्मकारसत्वात्‌ भावस्तत्राद्यविक्रिया ।॥३३॥ 

[निविकारात्मक सत्व मेँ प्रथम विकार का उत्पन्न होना भाव कहलाता है । | 

द्मास्मा परर रजोगुण शौर तमोगुण का आवरण न होना ही सस्व कह- 
लातादहे इस प्रकारके सत्वगुण के आविर्भाव मे चित्तम किसी प्रकारका 
विकार नहीं होता । लेसे कुमारसम्भव मे 

श्रताप्सरो गीतिरपिक्तणेऽस्मिन्‌ हरः प्रसंख्यानपरोबभूव | 
श्रास्मेश्वराणां नहि जातुविश्नाः समाधिभेद प्रभवो भवन्ति ॥ 
अप्सराश्च का गान सुनने षर भी इस त्तण शङ्कर जी ध्यानमदहीलगे 
रहे । आत्मा पर अधिकार रखनेवाज्ञे व्यक्तियों के लिए समाधि भेद्‌ से उस्पन्न 
होनेवाले विच्च कभौ नहीं होते ।' 

यही शुद्ध सत्व कहलाता है । इसी अविकारात्मक सत्व से एक अन्द्र ही 
अन्द्रविपरिवर्तिंत होनेवाला सुषम विकार उत्पन्न हो जाता है । यह विकार उसी 
प्रकार का होता ह जिस प्रकार मिदी ओर जल का संयोग प्राक्त कर बीज पहले 
पहल ऊ एूल जाता है जेसे-- 

दृष्टिः सालसतां ब्रिमतिं न शिशुक्रीडासु वद्वादरा, 

श्रोत्रे प्रेषयति प्रवतिंत सखी सम्भोगवारतांखपि । 
पु सामङ्कमपेत शङ्कमधुना नारोहति प्राग्यथा, 

बाला नूतन यौवनग्यतिकरावष्टम्यमाना शनैः ॥ 

षष्टि आलस्य-पूण॑ता को धारण कयि हुए है; अब वह बचपन की कीडा 
म बिशेष मेम नदीं रखती; जब सखिथों की सम्भोग वाता प्रारम्भ होती है तब 
बह उख ओर को अपने कान दौडाती है; अव वह मनुष्यों की गोद म निश्शङ्क 
होकर नीं बैठती है । अब इस समय वह बाला शैशव श्र यौवन के मेल्ल से 
धीरे धौरे धिरती चली जा रही है । 

दृखरा उदाहरण नेसे कुमारसम्भव भे-- 

हरस्तु किञ्चित्परिवृत्त वैश्वन्द्रोदयारम्भ इवाम्बुराशिः । 
उपरा मुखे विम्व्रफज्ञाधरोष्ठं व्यापारयामास विलोचनानि ॥ 


१५ 











( १4४ ) 


(जिस प्रकार चन्द्रोदय के प्रारम्भ मे समुद विद्व्ध हो जाता हे उसी | 
शङ्कर ज्ञी का धैय ऊद च्युत हो गया ओर उमा के सुख पर जिसके अधरोष्ठ 
विम्बरल के समान लाल ये उन्होंने अपने नेत्रां को डाला ।' 

तीसरा उदाहरण जैसे धनिक का :- | 

तं चचिश्र वश्रणं ते च्चेश्रा-लोचणे जोञ्णं पितं च्चेश्र। 
श्रण्णा श्रणङ्गलच्छी श्रण्णं चिश्र ¢ पि सादे₹ ॥ 
[तदेव वचनं ते चैव लोचने / योवनमपितदेव । 
ग्रन्यानङ्ख लदमीरन्यदेव किमपि साधयति ॥| 


(वही वचन है, वही नेर है, वही यौवन भी है । किन्तु कामदेव की 
कुं ओर ही प्रकार की शोभा उसके अन्द्र ङ अर ही बात सिद्ध कर 
रही हे ॥ 

(२) हाव :- 

श्रल्पालापः सश्र्गारो हावोऽक्ति भ्रविकार कत्‌ ॥ 

[जो थोडे से ्ालापञ्नौर शङ्कार से युक्त हो अर आंख तथा भोंह मे 
विकार उत्पन्न करनेवाला हो उसे हाव कहते हे ||] 

निरशिचत ज्ञो मे विकार उत्पन्न करनेवाला श्वंगार होता है अर उसी 
के विशेष प्रकार के स्वभाव को हाव कहते हैँ । जैसे धनिक का पद्य :-- 


जं कं पि पेच्छमाण्‌' भणमाणं रे जहातदचं श्र । 
रिज्फाश्न रोदमुदधं वश्रस्स मृद्धं िच्रच्छेहि । 
[यक्किमपि.पर्तमाणां भणमानां रे यथातथेव । 
निर्याय स्नेहमुरधां वयस्य मुग्धां पश्य ॥| 


हे मित्र इस मुग्धा को देखो । यह चाहे जिस ओर याँ ही देखने जगती 
है; चाहे जिख रूप मे बातचीत करने लगती है भौर ऊच ध्यान करके प्रेम के 
प्रभाव से स्वयं ही सुग्ध हो रही हे।' 
(३) हेला :-- . 
स एव हेला सुव्यक्त श्रृङ्गार रस सूचिका । 
[यदि हाव ही स्पष्ट रूपसे शृङ्गार रस को सूचित करे तो उसे हेला 
कहते है । | 
इस हेला मे बहुत अधिक विकार स्पष्ट हो जाते हँ जिससे शङ्गार की 
सूचना स्पष्ट रूप से मिलने लगती है । जैसे धनिक का पद्य :-- ¦ 
(तह फचि से पश्रत्ता सव्यङ्खं विभ्भमा थगगुभ्भेर । 
संसदश्रबालभावा होड चिरं जह सदी्णं पि॥ 











{ ५ >) 


[तथा करिव्यस्याः प्रवृत्ताः सर्वाङ्गं विभ्रमाः स्तनोद्ध दे । 
संशयित ` वालभावा भवति चिरं यथा सखीनामपि ॥] ` 

उखके स्तनो के उद्धिन्न होने पैर उसके समस्त अङ्गो म एकदम इतने 
अधिक विलास प्रारम्भदहो गये कि सखियां भी बडी देर तक उसके वाल्य 
भावकोशङ्काकीड्ष्टिसे ही देखती रहीं । अर्थात्‌ उन्हें भी इस बात मे शङ्का 
उत्पन्न हो गद किं नायिका अपनी वाल्य दशा मे विद्यमान हे ।' 

ये तीनों भाव, हाव रौर हेला शरीरज विकार हैँ । इनके अतिरिक्त सात 
अयत्नज अलङ्कार होते हैँ । उनकी करमशः व्याख्या की जा रही है । 

(१) शोभा :-- 

रूपोपभोगताश्णयेः शोभाङ्गानां विभूषणम्‌ । 

[रूप उपभोग ओर तारुण्य के द्वारा अङ्ग को आभूषित करना शोभा 

कहलाता हे लेसे कुमारसम्भव मे :-- 
तां प्राङ्‌ मुखीं तत्र निवेश्यवालां क्षणं व्यलम्बन्त पुरोनिषश्णाः । 
भूताथे शोभा हियमाण नेत्राः प्रसाधने सन्निहितेऽपि नायं; ॥ 

(उस बाला पार्वती को पूर्वाभिमुख बैठाकर सामने बैटी इद खयां सण भर 
रुककर रह गहं । यद्यपि श्रृङ्गार की सारी सामग्री उनके पास ही रक्खीथी 
किन्तु पावती की स्वाभाविक सुन्दरता से उन शरङ्गार करनेवाली स्त्रियों के नेत्र 
हर गये थे । (वे निश्चय ही न कर सकी कि जिन अङ्गो मे स्वाभाविक सौन्दर्य 
विद्यमान है उनको शृङ्गार के द्वारा किस प्रकार सजाया जावे । ) इसी लिए वे 

थोडी देर तक बैदी ही रही' शृङ्गार करने में प्रवृत्त हो दीन सकीं।' 

दूसरा उदाहरण जे से अभिज्ञान शाङुन्तल मे :-- 

द्रनाघ्रातं पुष्प किसलयमलूनं कर्दः 

श्ननाविद्ध रत्न मधु नवमनास्वादितरसम्‌ । 
श्रखण्डं पुण्यानां फलमिव च॒ तद्र.पमनघ, ` 
न जाने भोक्तारं कमिह समुपस्थास्यति विधिः॥ 

"यह शङुन्तला का रूप एक एेसा एूल है जो आज तक सघा नहीं गया; 
एक ठेसा किसलय है जिसको ॐँगलियों से काटा नहीं गया (ॐगुलि्यो ने 
जिसका स्पशं भी नही किया) यह एक एेसा रत्न है जो अभी तक ददा नहीं 
गया, यह एक एेसी नवीन मदिरा है जिसका स्वाद्‌ अभी तक नहीं लिया । इसका 
यह दोष रहित रूप पुष्पों के अखण्ड फल के समान है । नहीं कहा जा सकता 
कि विधाता किस भोगनेवाल्ञे को इसके लिये उपस्थित करेगा ।' 

(२) कान्ति :-- 

मन्मथ।वापित चडू।य। सेव॒कांतिरितिस्मरता ॥३५॥ 








( ६४ `) 
[यदि उसी शोभा की छाया को कामदेव ने घना कर दियादहो तो उसे 
कान्ति कहते हं |] 
उदाहरण :-- 


उन्मीलद्रदनेन्टु दीप्ति विसरदूरे सम्ुत्सारितम्‌ 
मिन्न' पीन कुचस्यलस्य च सचा दस्त प्रभाभिहंतम्‌ 
एतस्याः कलविङ्ककरएठकद लीकल्प' मिलत्कोठका 
दप्राताङ्ग सखं रुषेव सहसा के शेषु लग्नं तमः ॥ 
(देखा प्रतीत होता है मानों अन्धकार इस नायिका ॐ सौन्दयै से आकषित 


होकर इसका उपभोग करने आया । किन्तु इसके मुखचन्द्र के प्रभा-वुज् क 


विस्तार ने उसे बहुत दूर भगा दिया; द ओर विशाल स्तनो की शोभा से 
चिन्न-भिन्न हो गया ओौर हाथकौशोभासेभी पीडित कर दिया गया । इस 
प्रकार कौतुकवश जो काली गौरेया के कण्ठ की शोभा को धारण करनेवाला 
अन्धकार इसके शरीर का स्पशं करने के लिये मिलने की चेष्टा कर रहा था 
बही अङ्गं का सुख न भाक्त करके मानों को म भर कर एकदम इसके बालों 
न्न जा लगा । (दूसरा भी व्यक्ति निराश होकर किसी के बाल पकड तेता है ।) 
दूसरा उदाहरण जैसे महाश्वेता के वर्णन के अवसर पर वाण का वसन । 

(३) माधुय :-- । 

| अनुल्वशतवं माधुय 

[भदा न होना अर्थात्‌ सब अवस्थाओं मे रमणीय रहना माधुयं कद- 
लातादहे।] । 

यसे शाकुन्तल मे :-- 

सरसिजमनुविद्धं शैवलेनापि रम्य । 
मलिनमपि हिमाशोलंदम ल्मी तेनोति ॥ 

इयमधिक मनोज्ञा वल्कलेनापि तन्वी । 
किमिवदि मधुराणां मण्डनं नाकृतीनाम्‌ ॥ 

'सिवार म पसा हश्ना भी कमल सुन्दर ही प्रतीत होतादहै; हिमांश का 
लिन भी लष्य उसकी शोभाको दही बढाता है, वर्कल वस्त्रो से भी यह 
शकुन्तज्ञा सुन्दर ही प्रतीत हो रही है, मधुर आकृति के लिये कौन सी वस्तु 
आभूषण नहीं बन जाती । 

(४) दीति :-- 


दीधिः कान्तेस्तु विस्तरः 
[कान्तिकी ही अधिकता को दीषि कहते है|] 











( ११७ ) 


जैसे :-- 
देश्मा पीसश्र शिश्रन्त समुह ससि जोपहा विल्युचतमनिवहे । 
्रभिसारिश्रण विग्धं केरसि श्रण्णाण विहश्रासे।॥ 
[देवादषटरा नितान्तसुमुल शशिभ्योरस्नाविलुक्ततमोनि वहे । 
. श्रभिखारकाणां विघ्नं करोष्यन्यासां वत हताशे] ॥ 
अपने स्यन्त सुन्दरं सुखचन्द्र की रचँदनी से अन्धकार के समूह को 
नष्ट करनेवाली हे सुन्दरी दैववश इधर उधर देखकर अन्य अभिसारिकाञ्चों के 
लिये भी विघ्न करोगी; इस प्रकार तुम्हारी भी आशा पृण॑रूपसे विहतहो ` 
जावेगी ।' 
(£) प्रागल्भ्य :-- 
निस्साध्वसत्वं प्रागल्भ्यम्‌ 
[साध्वस से रहित होने को प्रागरभ्य कहते है ।] 
मन के सक्तोभ के साथ अङ्गां मे म्लानता का सन्चार होना साध्वस कह- 
लाता है ओर उसके अभाव को प्रागठभ्य कहते हे । जैसे धनिक का प्य :-- 
तथा व्रीडा विघेयापि तथा मुग्धापि सुन्दरी । | 
कला प्रयोग चातुयें सभास्वान्वार्यकं गता ॥ 
; यथपि वह सुन्दरी उस भकार से लञ्जा--परवश हो रही थी ओर उतनी 
अधिक सुग्ध थी किन्तु किर भी कलाश्नों के प्रयोग की निपुणता म खभासे 
्ान्वायै बन गड ।› | 
(६) ओौदाय :- 
ओदायं प्रश्रयः सद्‌ा ।३६॥ 
[ सदा प्रेम की अनुद्भलता धारंण किये रहने को ओौदार्यं कहते हे ।] 
उदाहरण :-- 
दिश्रहं खु दुक्विश्राए सश्रलं का ऊणगेहवारम्‌ | 
` गरूएवि मण्गुदुक्खे भरिमो पाच्रन्त सत्तस्य ॥ 
[दिवसं खलु दुःखितायाः सकलं कृत्वा गृह व्यापारम्‌ । 
गुखुण्यपि मन्युदुःखे भरिमा पादान्ते सुसस्य ॥ ] | 
(उस ब्रेचारी दुःखित नायिका के दिन भर षर का काम करने के उपरान्त 
` नायक राते वैरों के पास सो रहता है तव दीघं भी मन्यु अर हुःख से भर 
जाते है । ] 
। (७) त्रै :-- 
चापलाविदता वैय" चिदवृत्तिरविकत्थना | 





( ११८ ) 


[ यदि चिददृत्ति चञ्चलता¦से नष्ट न हो गद हो ओर विशेषरूप सेडीग न 
हक जावे तो उस चिदडृत्ति को चैयं कहते हे । | जैसे :-- 
ज्वलतु गगने रात्रो रात्रावखण्डकलः शशौ । 
दहतु मदनः किंवा मृत्योः परेण विधास्यति ॥ 
मम तु दयितः, श्लाध्यस्तोता जनन्यमलान्वया । 
कुलममलिनं नल्वेवायं जनोन च जीवितम्‌ ॥ 
अस्येक रात्रि से आकाश मे अखण्ड कलावाला चन्द्र॒ जजे; कामदेव सुमे 
जला भी डान्ञे वह मेरा स्यु से बदकर क्या बिगाड़ लेगा १ मेर लिये मेरा छ्य 
पिता ही व्यार है माता भी शद्ध वंश्वाली हैँ रौर कुल मलिनता रहित है । 
ये दोनों सुभगे प्यारे है । किन्तु यह व्यक्ति (जौवनाधिक प्रिय माधव) प्यारा नहीं 
हे ओर न मेरा जीवन दी सुभे प्यारा है । (अथात्‌, मँ अपने जीवन की परवा 
हौ क्या करटगी जब मँ जीवन से भी अधिक मिय माधव की भी ल मर्याद 
के सामने परवा नहीं करती । ) 
इस प्रकार ये सात अलनलज अलङ्कार होते हैं । अब दस स्वाभाविक अल- 
कारों की व्याख्याकीजारहीहै। 
(4) लीला :-- 
प्रियानुकरणं लीला मधुराङ्गविचेटितैः । 
[ मधुर अङ्ग रौर चेष्टाञ्नों के द्वारा प्रियतम का अनुकरण करने को लीला 
कहते हँ । | 
उदाहरण जैसे धनिक का पद्य :- ` 
तह तिष्ट तह भरिश्रं ताए रिश्रदं तदा तहा रुणिम्‌ । 
ञ्रवलोदश्रं सदणर्हं सविन्भम' जहसवित्तीहिं ॥ 
[ तथा दष्टं तथा भरितं तथा नियतं तथा सनिम्‌ । 
त्रवलोकितं सतृष्णं सविभ्रम यथा सपन्तीभिः॥ | 
स नायिका ने उसी प्रकार (नायक के खमान ही) देखा, वैसे ही बातचीत 
की, वैसे दी नियम का पालन किया ञ्लौर उसी प्रकार बैठी जिससे उसकी सौतों 
ने सहण्ण दृष्टि से विलासो के साथ उसकी ओर देखा । (अर्थात्‌ नायिका ने 
नायक का एेसा अनुकरण किया किं सौतों को ्रमदहो गया अर वे नायक के 
धोखे नायिका पर ही अपने विलासो का प्रयोग करने लगीं । ) 
दूसरा उदाहरण जसे “उसकी कदी दुद बात को उसी भकार कहती ह वैसे 
ही चलती हे ।' 
(२) बिलास :-- 
तात्कालिको विशेषस्तु विलासोऽ्गकरियोक्तिषु । 








(9. 3 
[ भियतम को देखने के अवसर पर अङ्ग, क्रिया भौर वचनो मै जो अत्यन्त 
विशेषता चा जाती ह उसे विलास कहते हँ । ] जते मालती माधव मे ;-- 
 अअतरान्तरे किमपि वागिभातिवृत्त- 
वैचित्यसुल्ञसितविभ्रममायतादयाः । 
तद्ध.रिसालििकविकारविशेषरम्य- 
माचायंकं विजविमान्मथमाविरासीत्‌ ॥ 
इसी बीच मं उस विशाल नेत्रोंवाली नायिका का कामदेव सम्बन्धी विजयी 
आचायेत्व भरगट हो गया । इस आचार्यैत्व की विचित्रता वाणी के वैभव (शक्ति) 
का भी अतिक्रम कर गहं थी; उसमे विलास बहुत अधिक शोभित हो रहे थे; 
बहुत अधिक सास्विकं भावों के विकारों के आविभाव के कारण उसमे विशेष 
रमणीयता आ गहै थी ।' ॑ 
* (३) विच्छित्ति :-- 
| ्आकल्परचनाल्पापि विच्छित्तिःकान्ति पोषकृत्‌ | 
| थोड़ी भी वेश की रचना यदि अधिक कान्ति का परिपोष करनेवाली हो 
तो उसे विच्छित्ति कहते है । | जेसे कुमारसम्भव मे :- 
- कणांपितो रोध्रकषाप रूक्ञे गोरोचना भेद नितान्त गौरे । 
तस्याःकपोज्े पर॒ भाग लामाद्ववन्ध चक्'षरियवप्ररोहः ॥ 
परावती के कपोल लोधकी सुगन्धि से युक्त सूखे सेहो रहे ये ओर 
गोरोचन के मलने से उनका गौर वणं बहुत अधिक बढ़ गया था । उन कपोलों 
पर जब कनो मे पहराया हु्रा यवाङ्कर शोभित होने लगा तो उसकी शोभा 
बहुत बद गह ओर उस यवाङ्कर ने लोगों की दृष्टि को पूरी तौर से अपने ऊपर 
बाधिज्िया। 
(४) विन्नम :-- 
विश्नमस्त्वरया काले भूषास्थान विपर्यय : ॥३८] 
[ यदि समय पर शीधतावश आभूषणं के स्थान का उलट-फेर हो जावे 
तो उसे विभ्रम कते है । ] जसे :-- 
भरभ्युद्गते शशिनि पेशलकान्तदूती, 
संलापसंवलितलोचनमानसामिः। 
्रम्राहि मूषरविधिर्विपरीतभूषा- 
विन्यासहासितसखीजनमङ्गनाभिः ॥ 
“चन्द्‌ के उद्य होने पर प्रियतम की दूती से बातचीत करने अं लगे हये 
मनवाली नायिकां ने एेसा श्वंगार कर लिया कि जिस विपरीत आभूषणों 
के पहनने के कारण खखियां हंस रही थीं । 








| 


( १२० ) 


दूखरा उदाहरण जैसे धनिक का प्च : - 
भरुत्वायातं बर्हिः कान्तमसमाप्तविभूषया । 
` भाल्ते ऽज्ननं दशोर्ला क्ता कपोले तिलकः कृतः ॥ 
प्रियतम को बाहर आया हुञ्ा सुनकर आभूषणं के पटिननेको न समाक्ष 
कर चुकनेवाली नायिका ने जर्द्बाजी मै मस्तक मे अञ्जवन; नेत्रं म लाली 
द्लौर पोलो पर तिलक लगा लिया ।' 
(९) किलकिच्चित्‌ :- - 
क्रोधाश्रहषै भीर्यादेः सङ्करः किल क्िच्चितम,.। 
[क्रोध आसू हषं ञ्रौर भय इष्यादि के सामूहिक सम्मिलन को किलकिच्चित्‌ 
कहते हँ ।] 
ज्ञेसे धनिक का पद्य :-- 
रतिक्रीडायूते कथमपिसमास्ा्यषमयं ७ 
मयालन्वे तस्याः क्वणितकलक्षण्ठाघंमघरे । 
कृतम्र मङ्गासौ प्रकटितविलक्ताधरुदित- 
रिमतक्रोधोद्धान्तं पुनरपि विदध्यान्मयि मुखम्‌ ॥ 
८रति क्रीडा के यत मेँ जैसे तैसे समय प्रास्त कर मने उसके अधर का 
चुभ्बन कर लिया जिसमे मधुर स्वरवाला क अस्फुटरूप मे शब्दायमान हो 
रहा था ! तव उसने अपनी भदो को टृढा किया ओौर अपने सुख को कुचं परे 
शान बनाकर आधा रोदन सा करते हुए सुस्डुरादः ञ्नर कोध से उद्श्रांत बना 
लिया । मेँ चाहता हँ कि उस प्रकार की मुख की चेष्टा वह मेरे अति फिर 


।॥ 
४ (६) मोक्षयत :- ` 
मोट्टायितं तु तद्धावभावनेष्टकथादिषु । 

[भ्रियतमै की कथा जोर उसके अनुकरण इ्यादि के अवसर पर अपने भ्रिय- 
तम के अनुराग से अन्तःकरण इत्ति का पूणं रूप से भावित होना मोह्ायित 
कहलाता हे । | 

ञेसे पद्म ग का :-- 

चिन्रविन्यपि दषे तत्वावेशेन चेतसि । 
त्रीडारध॑वलितं चके म॒खेन्दुमवरैव सा ॥ 

प्य्यपि राज्ञा चित्रलिखित थे (प्रव्यक्त नही ये) फिर भी उख नायिकाने 
केवल चित्र को ही देखकर अपने चित्त को भावना से भरकर परवश सी 
होकर अपने मुखचन्द्र को लञ्जा से आधा घुमा लिया ।' 


दृखरा उदाहरण :-- 


(-१२१ ›). 


मातः कं हृद्ये निधाय सुचिरं रोमाच्चिताङ्गा मुहुः । 
जम्भामन्थरतारकां सुललितापाङ्गां दधाना दशम्‌ । 
पुस्त वालिखितेव शल्यद्टदया लेखावशेषी भव्‌- 
स्यात्मद्रोहिणि किं हिया कथय मे गूढो निहन्ति स्मरः ॥ 
अरी तू इस समय किसको अपने हृद्य में धारण क्रियिदहै; बड़ी देरसे 
तेरा चंग बार-बार रोमाञ्चित हो रहा है; इस समय तेरी पुतलियां विकास 
(चलने) मे मन्द सी पड़ गईं है; तू इस समय बहुत ही सुन्दर अपाज्गोवाली 
दृष्टि को धारण क्रि हण है अर्यात्‌ इष समय तेरी दष्ट मे नदई॑ चमक सी चा 
गह हे । तू आजकल सोती हुई सी चित्रलिखित सी, भौर शून्य हदयवाली सी 
जान पढ़ती हे । इस समय तेरा शरीर रेखा-मात्र शेष रह गया है । हे स्वयं 
ही अपने से द्रोह करनेवाली तू लञजा क्यों कर रही है ? सब बातें सच-सच 
धतला दे । निस्सन्देह गुप कामदेव मार डालनेवाला होता है ।' 
तीसरा उदाहरण जसे धनिक का :-- 
स्मरद वथनिमित्तं गूढमुत्रेतुमस्या 
छुभग तव कथायां प्रस्तुतायां घखोमिः। 
भवति वितत प्ष्ठोदस्त पीनस्तनाम्रा 
, ततवलयितवाहुज्‌ म्भितैः साङ्गभङ्ग ;.॥ | 
हे सुभग ! जब सखिथां इस नायिका की गृढ कामाभि के कारणों का पता 
चलाने के लि्‌ तुम्हारी कथा को प्रस्तुत करती हँ तब यह अपने अंगों की मरो 
के साथ जमुहाने लगती है जिससे इसकी बाहे विस्तृत होकर वलय के रूप म 
जड जाती हे ओर पीड के भली भांति फैल जाने से इसके स्तनो का अन्रभाग 
ऊँचाहो जातादहै। 
(७) इटमित :-- 
सानन्दात्तः कुटरमितं कुप्येत्केशाधर भ्रहे ॥४०॥ | 
[ऊटमित उस भाव को कहते है जिसमे केश ओर अधर. इत्यादि अरहण 
करने पर अन्द्र तो आनन्द्‌ उत्पन्न हो किन्तु बाहर से क्रोध प्रगट किया जावे |] 
लेसे :-- | 
नान्दी पदानि रतिनाटक विभ्रमाणाम्‌ । 
्रा्ञाच्तराणि परमाणयथवा स्मरस्य ॥ 
दष्टेऽधरे प्रणयिना विधुताग्रपाशेः 
सीत्कार शुष्करुदितानि जयन्ति नार्याः ॥ 
“प्रियतम के अधर दशन करने पर नायिका हाथों के अग्रभाग को कपाने 
लगी ओर सीषस्कार के साथ उसके शुष्क रोदन भी प्रारम्भहोग्येजो रेसे 
१६ स 





( १२२ ) 


शोभित हो रहे ये मानों रति रूपो नाटक के विलासो का हों अथवा 
कामदेव की आन्ता के बहुत बड़े अक्र हों । इस प्रकार के नायिका के शष्क रोदन 
विजयी हो रहे हैँ अर्थात्‌ सवोत्टृष्ट रूप मँ विराजमान हे ।' 

(८) विब्बोक :-- 

` गर्वामिमानादिष्टेऽपि बिब्बोको नादर क्रिया । 

[गवे ओर अभिमान से यदि इष्ट का भी अनादर किया जावे तो उसे 

विग्योक कहते हें ।] जसे :-- 
सव्याजं तिलकालकान्‌ विरलयंज्ञोलाङ्गलिः संस्पृशन्‌ । 
वारंवारमुदञ्चयन्‌  कुचयुगप्रोदञ्चिनीलाञ्चलम्‌ ॥ 
यद्र भङ्गतरङ्िताञ्चितदशा सावज्ञमालोकिंतम्‌ । 
तद्गर्वादवधीरितोऽस्मि न पुनः कान्ते कृतार्थी कृतः ॥ 

८हे भियतमे ! किसी बहाने से तुम्हारे तिलकालक नामक शरीर के चि 
(लहसुन) को चञ्चल श्रगुलियों से स्पशं करते हुए ओर विरलित करने की चेष्टा 
करते हए तथा दोनों स्तनं पर फहरानेवान्ञे नीन्ञे वच को बार-बार ऊपर करते 
हुए सु को तुमने जो भूर्भग के साथ अपनी सुन्द्र दृष्टि को टेदा करते हृष्‌ 
अपमान के साथ देखा यह तुमने गवं से मेरा अपमान तो कर दिया किन्तु सुखे 
कृताथ नहीं किया ।' 

(&) ललित :-- 

सकुमाराङ्ग विन्यासो मसणो ललितं भवेत्‌ ॥४१॥ 

[ सुकुमार अङ्गां का सरस विन्यास ललित कहलाता है । | जैसे 
धनिक का :-- ८3 
सभ्रुभङ्ग कर किंसलयावतनेरालपन्ती । 

सा पश्यन्ती ललितललितं लोचनस्याञ्चल्तेन । 

विन्यस्यन्ती चस्णकमले लीलया स्वैरयातैः । 
. निस्सङ्गीतं प्रथमवयसा नतिता पङ्कजाक्ती ॥ 
"वह कमलनयनी उख समय शरुभङ्ग के साथ कर किखलयों को नचाती हु 


` बातचीत कर रही थी; बहुत ही सुन्दरता के खाथ वह नेत्रो के प्रान्त भागों से 


देखती थी; विलसों के साथ बहुत ही मन्द्‌ गति से वह अपने चरण कमलां 
को रख रही थी, उस समय इन सब बातो से एेसा जान पडता था मानों 
यौवन का प्रथम उद्गम उस कमलनयनी को बिना ही सङ्गीत के नचा 
रहा हो ।' ` 
(१०) विहत :-- 
प्रा्तकालं न यद्त्रया दुतरीडथा विहृतं हितत्‌ । 











( $ २३ ) 


1 [ समय पड़ने पर लञ्जञा से जो बोलला न जा सके उसे विहत कहते है । ] 
तै „~ 
पादाङ्गष्ठेन भूमि किलय रुचिना सापदेशं लिखन्ती । 
भूयः भूयः क्तिपन्ती मपि सित शवले लोचने लोलतारे ॥ 
ववतं हीनम्रमीषरस्छुटदधरपुरं वाक्यगभः दधाना | 
यन्मां नोवाच किंञ्चिस्स्यितमपि हृदये मानसं तदनोति ॥ 

किसलय के समान कान्तिवाले पैर के गूढे से किसी अभिप्राय के साथ 
भूमि को खरोचती हुदै, बार-बार चञ्चल पुति वाले श्वेत ओर कवु नेत्रो 
को मेरी ओर डालती हुदै, लज्जा से सके हुए ऊच खुले हए अधर पुटो से 
युक्त वाक्य-गभित सुख को धारण क्रिये हुए उस नायिका ने जो ञ्ुफसे हृदय 
म स्थितभी कोद भी बात नहीं कही, यदी बात मेरे मनको खिन्न बना 
रही है ॥ 

नायक के सहायक 
नायक के दूसरे कायो के सहायक निन्नलिखित होते हँ :-- 
मन्त्री स्वंबोमयं वापि सखा तस्यार्थं साधने । 

[अथै साधन मे उस नायक का सहायक या तो मन्त्री होता है या बह 
स्वयं होता है.या दोनों होते हे । | 

अर्थं साधन मेँ तन्त्र ( अपने राज्यम किया हुं कार्य ) अवाप (दूसरे 
के किये हए कार्यो को गुप्तचर ह्यादि के द्वारा जानना ) शत्र निञ्रह इत्यादि 
सम्मिलित हें । 

इनका विभाग इस प्रकार है :-- 

मन्त्रिणा ललितः शेष्रा मन्त्रिस्वायत्त सिद्धयः । 

[धीरललित नायक की सिद्धि मन्त्री के हाथमे होती है चौर शेष नायकों 
- कछीसिद्धियातो मन्त्रीके हाथामेया अपनेहाथमेया दोनोंके हाथमे 
४४४1 ह हे कि धीरोदात्त इत्यादि नायकों की सिद्धि किसी एक के हाथ 
नन होने का नियम नहीं । धमं के-सहायक ये होते हैँ :- 

ऋत्विकपुरोहितौ धमं तपस्वि ब्रह्मवादिनः ॥४३॥ 

[धम के सहायक ऋत्विज (यत्त करानेवाजे) पुरोहित, तपस्वी भौर बह्म- 

वेत्ता दुष्टदमन को दण्ड कहते हैँ । दर्ड के सहायक ये होते हैँ : - 
सुदत्कमाराटविकाः दण्डे सामन्त सैनिकाः । 

[ भित्र, कुमार, आटविकं, सामन्त नौर सेनिकये दण्ड के सहायक 

हेते ह] 





(- ४ ) 


दसी प्रकार भिन्न-भिन्न कार्यो" मे भिन्न-भिन्न सहायकों को करना 

चाहिए । यही बात निश्नलिखित कारिका मेँ कदी गदं है :-- । 
अन्तःपुरे वषेवराः किराताः मूकवामनाः ।४९॥ 
म्लेच्छाभीर शकाराद्याः स्व स्व कार्योप योगिनः। 

[अन्तःपुर म वषैवर (नपुंसक) किरात, मूक, वामन, म्लेच्छ, आभीरः 
शकार (राजा का साला) ये सब अपने अपने कायो" मे उपयोगी होते हे ।] 

इनमे इतनी विशेषता ओर है :-- 

| व्येष्ठ मध्याधमतवेन सर्वेषां च चिरूपता ॥४५॥ 
तारतम्या्यथोक्तानां गुणानां चोत्तमादिता । 

[पूर्वोक्त सभी नायक इत्यादि ज्येष्ठ, मध्य नौर अधम इन भेदो से तीन- 
तीन प्रकार के होते ह । उपर्युक्त गुणो के भी तारतमभ्य से उत्तम इत्यादि भेदं 
होते है| | 

इस प्रकार पदल्ते कहे हुए नायक- नायिका, दूत-दूती, मन्त्री-एुरोहित, इत्यादि 
तीन-तीन प्रकार के होते ह अ्येष्ट, मध्यम ओ्यौर अधम । गुणो मे भी उत्तमता 
इस्यादि हो सकती है । किन्तु इस उत्तमता इत्यादि का विचार गुणो की संख्या 
के उपचय या अपचय के द्वारा नहीं किया जाता किन्तु गुणों के परिमाण की 
अधिकता इत्यादि के विचार से किया जाता हे । | 

उपसंहार :-- 

एवं नास्ये विधातव्यो नायकः सपरिच्छदः। 
[इस प्रकार अपने परिच्छद्‌ (सहचर ओर अनुचर वेगं) के सहित नायक 
का नाल्यमें विधान करना चाहिए ।| 
वृत्ति-निरूपश 
अव नायक के व्यापार बतलाये जा रहे है :-- 
तद्व्यापारार्मिका वृत्तिश्चतुधां तत्र कैशिकी । 9 
गीत नृत्य विलासाः मृदुः शङ्कार चेष्टितैः ।४५॥ 

[नायक के कार्यो' के अनुकूल स्वभाव को दृक्ति कदेते हँ । यह इत्ति चार 
प्रकार की होती र । उन चारों मे कैशिकी नामक प्रथम बृत्ति उसे कहते हैँ जो 
नृत्य, गीत, विलास इत्यादि शगार चेष्टाओं से कोमल हो । | 

वृत्ति नायक के ठेसे स्वभाव को कहते हैँ जिससे प्रेरित होकर नायक किंसी 
काय त प्रबृत्त हो । यह चार प्रकार कौ होती है--कैशिकी, सात्वती, आरभटी 
दौरे भारती । यहाँ पर इन्दी इृत्तियों का विवेचन किया जा रहा हे । 











( १२४ ) 


(अ) केंशिकी वृत्ति 
केशिकी इत्ति कोमल इत्ति होती हे । इसकी पटिचान यह है कि इसने 


गाना नाचना कामना का उपभोग इस्यादि हुञ्रा करता है ।;इसका क्रिया-कलाप 
श्वगार रसमय होता है रौर यह इत्ति काम फलकी प्रापि से युक्त होती हे । 
इस कैशिकी दृत्ति के निम्नलिखित चार भेद होते है :- 
नम ॑तस्स्फि्ञतत्स्फोट तद्गर्मैश्चतुरङ्िका । 
[ (१), नमे (२) नमैरिफञ्ज, (३) नमैस्फोट ओर (४) नमग ये चार ङ्ग 
कैशिकी इत्ति के होते हें ।] ' 
(१) नम॑ :-- । 
वैद्रध्य क्रीडितंनमं प्रियोपच्छन्दनाटमकम्‌ ॥४८॥ 
हास्येनैव सश्चङ्गारभयेन विहितं चिधा | 
आरमोपक्तेपसंभोगमानैः श्ङ्गायपि त्रिधा ॥४६॥ 
शुद्धमङ्ग' भयं द्र धा तरेधावात्मवेषचेष्टितैः ॥ 
सवं सहास्यमित्येवं नर्माष्टादशधोदितम्‌ ॥५०॥ 
[विद्ग्ध-करीडा को नम॑ कते हैँ जिसमे प्रिय के आवज॑न की चेष्टा की 
गदे हो । यह नमे तीन प्रकार का होता है (१) शद्ध हास्य नर्म, (२) श्ङ्गार युक्त 
हास्य नम ओर (२) भययुक्तं हास्यःनमै । शङ्गार नम भी तीन प्रकार का होता 
हे (१) आत्मोपक्ेप अर्थात्‌ अपने अनुराग का निवेदन, (२) सम्भोग अर्थात्‌ 
सहवास की इच्छा प्रकाशन ओर (२) मान अर्थात्‌ सापराध प्रिय का प्रति भेदन 
या मानापनोद्न । सभय नमै भी दो प्रकार का होता है (१) अङ्गोके रूप मे शुद्ध 
भय ओर (२) दूसरे रख के अङ्ग के रूप म भय । इस प्रकार से नम॑ के छः भेद्‌ 
हो गये--एक भकार का शुद्धहास्य तीन प्रकार का शृङ्गार हास्य श्रौर' दो भकार 
का भय हास्य । इन सब भेदो मे प्रत्येक के वाणी, वेष ओर चेष्टा गत रूपे 
तीन तीन भेद्‌ होते है । इस प्रकार हास्य से युक्त सभी प्रकार के नम ऊ १८ 
भेद होते है ।] 
नम सामान्य रूप से विदग्धो (निपुणो) की मज्ञाक को कहते हैँ । इस 
मजाक का प्रयोग प्रियतम की अनुकूलता प्राक्च करने की बात कही गड हो । इसके 
उपयुक्त १८ भेद हँ । इनके कुछ उदाहरण यहा पर दिये जा रहे है :-- 
(क) शद्ध हास्य नम॑ के तीन भेद्‌ :-- 
(अर) वचनो के हास्य नम का उदाहरण जैसे कुमारसम्भव मे :-- 
पत्युश्चिरश्चद्रन्कलायनेन स्पृशेति सख्या परिहासपूर्वम्‌ । 
सारञ्ञयित्वा चरणौ कृताशीर्माल्येन तां निवचनं जघान ॥ 








( १२६ ) 


(सखी ने पार्वती के चरणों म लाली लगाकर हसी करते हुए कहा कि इस 
रंगे हुए चरण से पति के मस्तक पर विराजमान चन्द्रकला का स्पशं करना 
दौर यह कह कर सखी ने आशीवद दिया । ईस बात को सुनकर पावती ने 
बिना ऊद कहे ही उसे माला से मारदिया। 

(आ) वेषनम का उदाहरण जैसे नागानन्द मे विदूषक ओर शेखर 
की घटना । 

(इ) क्रियानमै जैसे मालविकाग्निमित्र मे स्वप्न देखनेवाले विदूषक के उपर 
निपुणिका सपं भय को उत्पन्न करनेवाले दणड काष्ठ को उसके उपर गिरा 
देती है । | 

यह शद्ध हास्य के तीनों भेदो की ्याख्या हो गहै । इसी प्रकार वाणी. 
वेष श्नौर चेष्टा की इष्टि सशङ्गार हास्य ओर सभयहास्य के तीन तीन मेदां के 
उदाहरण सम लेने चाहिए । 

` (ख) सश्र हास्य के मौलिक तीनों भेदं के उदाहरण : -- 
(अ) आत्मोपक्तेपं या प्रणय निवेदन सशङ्गारहास्य का उदाहरण :-- 
मध्याह्. गमय त्यजश्रमजलं स्थत्व पयः पीयताम्‌ । 
मा शून्येति विमुञ्च पान्थ विवशः शीतः प्रपामडणप । 
तामेव स्मरघस्मर श्रम शरतरस्तां निजप्रेयासम्‌ । 
त्वचिन्तं तु न रज्यन्ति पथिक प्रायः प्रपापालिका: ॥ 


'हे पथिक ! तुम इस प्याऊ के मण्डप मे मध्याह्न काल बिता लो; पसीने 
को सुखा लो, वैखकर पानी पी लो; यह प्याड का मण्डप बड़ा ही शीतल है 
इसको शून्य समकर अकेले होने के कारण विवश होकर छोड़ न देना; अपनी 
उसी प्रियसैमा का स्मरण करो जो भकक कामदेव के वाणो से पीदिति हे । 
भायः प्रयापालिकायें तो तुम्हारे चित्त का अनुरञ्जन कर ही नहीं सकतीं ।' 

(भा) संभोग नम का उदाहरण :-- 

सालोए चिश्र सूरे धरिणी धरसा मिश्रस्य पेत्तण। 
ेच्छन्तस्यवि पाए श्रई दसत्ती हसन्तस्स ॥ 

[सालोके एव सूँ गृदिणी गहस्वामिकस्य ग्रहीत्वा । 
श्रनिच्छतोऽपि पादौ धुनोति दषन्ती हसतः ॥| 

“सूय के आलोकपूणं रहते हए भी गृहणी अनिच्ुक भी गृहस्वामी के 
वैरो को पकड कर हिला रही है । उस समय गृहस्वामी भी हसःरहा है ओर 
वह भीरैसरहीदहै।' | 

(इ) माननम का उदाहरण :-- 








( १२५ ) 


तदवितथमवादीयन्ममत्वं प्रियेति, 
परिजन परिभुक्तं यदुकूलं दधानः । 
मदधिवसतिमागाः कामिनां मरडनश्रीः) 
ब्रजति हि सफलत्वं वल्लभालोकनेन ॥ 

यह तुम जो कहा करते थे कि तुम मेरी प्रियतमा होः यह तुम्हारा कथन 
बिल्कुल सच ही था । तुम परिजन के द्वारा भोग कि हुए वख को धारण करके 
मेरे पास अये हो । निस्सन्देह कामियों के श्ङ्गारको शोभा भ्रियों के देख लेने 
से ही सफल होती है । (आशय यह है तुम मेरी सौतं केभोगे हुए वख्ोंको 
धारण किये हुए मेरे पास अये हो। यदिमे तुम्हारी भ्रियतमान होती तो तुम 
अपना शङ्गार मुके दिखलाने क्यों आते ।' 

(ग) सभय नम के दोनों भेदों के उदाहरण :- 

(अ) अङ्गी (शद्ध) भयनम का उदाहरण जैसे रत्ावली मेँ चित्र दशन के 
अवसर पर सुसङ्गता सागरिका से कह रही हैमने चित्रफलक के सहित 
तुम्हारा सारा इत्तान्त जान लिया है। में जाकर अभी देवीजीसेकहे 
देती हू ।› ,. 

(आ) भृङ्गार के अङ्क भयन्भं का उदाहरण 


भिव्यक्तालीकः सकलविफलोपायविभव 
चिरध्यात्वा सद्यः कृतकृतकसंरस्यनिपुणम्‌ । 
इतः प्रष्ठ पृष्ठे किमिदमिति संत्रास्य सहसा 
कृताश्लेषं धूतं; स्मितमधुरमालिङ्गतिवधूम्‌ ॥ 
जिसका अपकार प्रगट हो चुका था जिसके उपायों का सारा वैभव विफलं 
श्यो गया था, इस प्रकार के उख धूतं नायक ने ऊठ देर विचार कर एकदम निषु- 
शतापूवंकं बनावटी उद्वेग को दिखलाते इए “अरे यह पीद्े पदे क्या आरहा 
है यह कह कर भय दिखलाकर सुस्ङुराहट की मधुरता के साथ आश्लेष करते 
हुए उस वधूको भंटल्लिया। 
(२) नमैरिफज :- 
नर्मस्फिञ्ञः सुखारम्भो भयात्तो नवसङ्गमे । 
[ प्रथम समागम मँ यदि प्रारम्भे सुख हो भौर अन्तम भयदहोतो उसे 
नमैरिफज कहते हे । ] 
जैसे मालविकाग्निमित्न मँ नायिका नायक के पासं गह है । उख समय 
नायक कह रहा हे :-- 
विखजसुन्दरि सङ्गमसाभ्वसं ननुचिरासप्रश्ठति प्रणयोन्मुखे । 
परिग्रहण गते सहकारतां त्वमतिमुक्तलताचरितंमयि ॥ 








( चू ) 


| ९ सुन्दरि तुम समागम के भय को दूर कर दो । निस्सन्देह बहुत संमय 
से सच प्रणयोन्मुख हो रहा हं । अब तुम सहकारता (साथ) को पर्ष होनेवाले 
| | मेरे वही चरिच्र रहण करो जो सहकार (आम) के विषय मेँ मेधावीलता धारण 
| करती है ।” 
| इस पर मालविका कहती है-- स्वामी ! मे देवी के भय से अपना भी 
| प्रिय करने मँ समथ नहीं हुं ।' इत्यादि । 
| (३) नमैस्फोट :-- 
| नर्भस्फोरस्तु भावानां सूचितोऽल्परसोलवैः । 
| | [ भावों के डच अंशो के द्वारा जहाँ पर थोडा सा रस सूचित किया जावे 
उसे नमैस्फोर कहते ह । | 
उदाहरण :-- 
गमनमलसं शून्यादृष्टिः शरीरमसोष्ठवम्‌ । 
श्वसितमधिकं किन्वेतस्स्याक्किमन्यदतोऽथवा ॥ 
भ्रमति भुवने कन्दर्पाज्ञा विकारि च यौवनम्‌ । 
ललितमधुरास्ते ते भावाः ्षिपन्तिच धीरताम्‌ ॥ 


|| मालती माधव भै मकरन्द कह रहा है-- इसका गमन आलस्यपूणं हैः 
|¦ दृष्टि शून्य सी प्रतीत हो री है; शरीर म सुन्द्रता नहीं है; श्वास भी अधिक 
| चल रही है, यह खब क्या हो सकता हे ? अथवा यह आर होगा ही क्या { 
| संसार मे भगवान्‌ कामदेव की आज्ञा फैली हुं है ओर यौवन विकारमय होता 
| ही हे । भिन्न-भिन्न भाव जो स्वभाव से ही ललित अर मधुर हवे धैय को नष्ट 

|| कर रहे हँ ।' | 

| | यहाँ पर गमन इत्यादि भावों के थोडे-थोड़े अंशो के द्वारा ङच-ऊढं माधव 

| | का मालती से प्रेम व्यक्त हो रहा हे । 

त, (४) नमेगभं :-- 

|| छुन्नेतृप्रतीचारो नर्मगमाँऽथेदेतवे । 

|| [ यदि किसी भयोजन की सिद्धि के लिए नायक का परच्ु्न प्रवेश हो तो 
| उसे नमैगमभं कहते ह । | 

जैसे अमरूशतक मे :-- 


द्ष्काखनसंरिथते प्रियतमे पश्चादुपेष्यादय-- 
| देकस्याःनयने पिधाय विहितक्रीडानुबन्धच्छलः । 
| ईषद्रक्रिंतकन्धरःसपुलकः परेमोह्नसन्मानसाम्‌- 
ञ्नन्तहांसलसत्कपोलफलको धूतो ऽपरां चुम्ब्रति ॥ 





८ --११९ ~) 


नायक ने एक ही आसन पर दो प्रियतमा्नोंको बैठा हुश्रा देखकर पी 
से आकर क्रीडानुबन्ध का बहाना कर एककेनेत्रंको बन्द करके कुचं अपने 
कन्धे को टेदा करके प्रफुक्ित होकर धूतं ने प्रेम से उज्ञसित मनवाली अन्द्र ही 
अन्द्र हसी से युक्तःविकसित कपोल फएलकोंवाली दूसरी प्रियतमा का चुम्बन 
कर लिया । | 

दूसरा उदाहरण जैसे प्रियदशिका के गर्भाङ्ग म वत्सराज का वेष धारण 
करनेवाली सुसङ्गता के स्थान पर सान्तात्‌ वस्सराज का प्रवेश । 

अङ्गः सहास्पनिहौस्थे रेभिरेषात्रकैशिकी ॥५२॥ 

[ इस प्रकार हास्प से युक्त भौर हास्प से रहित चारो अरो के साथ- ` 

कैशिकी वृत्ति की व्याख्या की गदं । | 


(आ) सात्वती-वृत्ति 


विशोका सांर्वती सत्व शोर्यत्यागदयाजंवैः। 
संलापोत्थापकावस्यां साङ्गात्यः परिवतकः ।।५३।। 

[ सत्व (तेज), शौय, स्याग, दया श्नौर भराज॑व इन गुणों से युक्त शोक से 
रहित बृत्ति (नायक के व्यापार) को सात्वती इत्ति कहते है । इसके चार भेद 
होते है--“संज्ञापक, उत्थापक, साङ्कात्य ओर परिवतंक । | 

(१) संज्ञापक :-- 

संज्ञापको गंभीरोक्तिनानाभावरसामिथः । 

[अनेक प्रकार के भावों चनौर रसों से युक्त परस्पर गम्भीर उक्ति को 
संज्ञापक कहते ह । ] उदाहरण जैसे वीरचरित म :-- 

राम :-- क्या यह वही परश है जो परिवार के सहित स्वामिकातिकेय के 
विजय से प्रसन्न क्रिये हये भगवान नीललोहित (शङ्करजी) ने एक सहस वषै- 
प्ैन्त शिष्य रहनेवाले तुम्हे प्रसाद के रूपमे दिया था।' परशराम--हे राम! 
हे राम } हे दशरथ के पुत्र | यह वही हमारे पूञ्य आचाय चरणों का प्यारा 
परथ है जो :-- 

शस्त्रप्रयोग खुरली कलदे गणानां, 
सैन्येवू तो विजित एव मयाकरुमारः। 
एतावतापि परिरभ्यकतप्रसाद्‌ः, 
। प्रादादमुं प्रियगुणो भगवान्‌ गुरुम ॥ 

(गणो के शस्त्र प्रयोग सम्बन्धी कलह मेँ मेने सेना से धिरे हुए कुमार 

स्वामिकार्सिकेय को जीत ही लिया । इतने पर भी गुणों का ही प्यार करनेवाले 
१७ | 














( १३० ) 


हमारे गुर भगवान्‌ शङ्कर ने मेरा आलिङ्गन करके खमे यह परश प्रसन्न होकर 
पुरस्कार के रूपम दिया था) 

इस्यादि नाना मकार के भाव रौर रसो से युक्त राम ओर परशराम के एक 
दूसरे से गम्भीर वचनो का आदान-प्रदान हा हे । अतएव यह संज्ञापक नाम 
की सात्वती इत्ति है । | 

(२) उस्थाषक ‡-- 

उस्थापकस्तु यत्रादौ पुद्धायोत्थापयेखरम्‌ । 
[ जरा पर युद्ध के लिये श्रु को उत्तेजित किया जावे वरहा उत्थापक 
वृत्ति होती है । ] जैसे वीरचरित मं :-- 
` श्रानन्दायच विस्मयाय च मया दष्टोऽसिदुःखाय वा । ` 
वैतृष्एयं नु ऊुतोऽद्य सम्प्रतिममत्वदशंने चन्ुषः ॥ 
सवत्सा ङ्गत्यसुखस्य नास्मि विषयः किंवा बहुव्याहतेः । 
श्रस्मिन्‌ विश्रुत जामदग्न्य विजयेवाहौ धनुज्‌ म्भताम्‌ ॥ 

"चाह मैने तुं आनन्द के लिए ओर विस्मय के लिए देला हो या दुःख 
के लिषदहीदेखा हो आज तुम्हारे दशंनमे मेरे नेत्रां की तृष्णा शान्तहोदही 
कैसे सकती है । में तुम्हारे साहचयै का विषय नहीं हँ । अथवा बहुत कने की 
क्या आवश्यकता । अव इस परशराम के विजय के लिप प्रसिद्ध बाहु म धनुष 
अपना बल दिखलावे।' 

(३) साङ्घास्य :-- 

मन्त्रां दैवशक्त्यक्त्यादेः साङ्कात्यः सङ्क मेदनम्‌ । 

[मन्त्र, अथं या दैव की शक्ति से सज्घ भेदन को साज्ञात्य कहते ह 1 

मन्त्र (विचार) की शक्ति से सञ्ख भेदन का उदाहरण जैसे ुद्राराचस में 
चाणक्य ने राक्तस ओर उसके सहायकों का अपनी द्धि से मेद्‌ करा दिया । 

ञअर्थशक्ति से जैते मुद्रारा मेही परव॑तक के आभूषणं के रा्तस के 
हथ मँ जाने से मलयकेतु अर उसके सहयोगियों का भेदं किया गया । 
दैवशक्ति से जसे रामायणम दैवशक्ति से रावण ओर विभीषण मे मेद 


डाला गया । 

(४) परिवतक :-- 

५ 
प्रारब्धोत्थानकार्याँन्य कर णटपरि वतकः ॥॥५५॥ 

[भरारम्म क्रिये हुए उद्योगवान्ञे काय का परित्याग कर अन्य काथं को करना 

परिवतंक कदलाता है ।, जसे वीरचरित म :-- 
देरम्बदन्तमुसलोल्लिखितैक भित्ति 
वक्तोविशाख विशिखव्रणलाञ्छनं मे। ` 

















५ १३१ ) 


रोमाञ्चकञ्चुकितमद्ध तवीरलामात्‌ 
यत्स्यमद्य परिरग्धुमिवेच्छतित्वाम्‌ ॥ 

“मेरा वच्तस्थल की भित्ति श्री गणेशदेव के दति रूपी मूसल से खररोचा जा 
चुका है ओर स्वाभिकातिकेय के बाण का चिह्न उस पर बना हुआ है । भज 
अद्भुत वोर के ्रा्त कर लेने से यह रोमाञ्च रूप कल्क से परिषूणं हो गया है 
ओर सचमुच आज वह तुम्हें भटना चाहता है ।' | 

^राम--भगवन्‌ ! परिरम्भण की बात प्रस्तुत के अतिदरूल प्रतीत होती हे ।› 
इत्यादि सात्वती वृत्ति का उपसंहार :- 

एभिरङ्गेश्चतषेयं सात्वती-- 
[इन ्रगों के द्वारा सासरती इत्ति के चार अंग होते ह|| 
(इ) आरभरी वृत्ति 
--भ्रारभटी पुनः 
मायेन्द्रनालसंग्रामक्रोधोद्‌ भरान्तादि चेष्टितैः ॥५६॥ 
संज्तिप्िका स्यात्यंफेरो वस्तूत्थानावपातने । 

[माया, इन्द्रजाल, संञ्राम, कोध ओर उद्श्नान्त इव्यादि चेष्टां के दारा 
श्रारभटी इत्ति होती है । उसके चार भेद होते है --(१) संङिसिका, (२) संफेटः; 
(३) वस्तूत्थान ओर (४) अवपातन । |] 

 मायाका अर्थं है मन्त्रके बलसे अविद्यमान वस्तुको प्रकाशित करना। 
तन्त्र के बल पर अविद्यमान वस्तु का प्रकाशन इन्द्रजाल कहलाता है । नीचे उन 
चार भेदो की व्याख्या कीजारहीहै। 

(१) संरि्िका :-- 

संक्निप् वस्तुरचना संक्षिपरि : शिल्पयोगतः ॥५७॥ 
पूबनेतनिवृत्यान्ये नेत्रन्तर परिग्रहाः । 

[ शिल्प (मिट्टी, बास का दल इत्यादि द्रव्यो के संयोग से संरिक्षरूपमें 
किसी वस्तु को प्रगट कर देना संक्िपि कहलाता है । दूसरे लोग कहते हैँ कि 
भथम नायक को हटाकर दूसरे नायक को उपस्थित करना संत्तििका कह- 
लाता है।| 

प्रथम मत के अनुसार संरिप्तिका का उदाहरण जसे उद्यन चरिते 
किलिञ् (चाद या पतल्ञे लकड़ी के तस्ते) के बने हुए हाथी का उपस्थित करना । 
दूसरे मत के अनुसार उदाहरण जैसे बालि को हटाकर सुभ्रीव ये उपस्थित 
करना । एक नायक के स्थान पर दृखरे नायक को उपस्थित करने का यह भी 
आशय हें फि नायक की एक दृशा से उसे दूसरी दशाम ज्ञे जाना भी संरि- 











त १३२ ) ४ 


तिका कहलाता ह । जेसे परशराम के ्नौद्धस्य को दूर कर “ब्राह्मण जाति पवित्र 
होती हं ।' यर्हां से उनम शान्त रख का सम्पादन करना । 

(२) स्फेट ~ । । 
संफेरस्तु समाघातः कद्वसंरन्धयोद्वयोः | 

[कद्ध रौर उत्तेजित दो व्यक्तियों का परस्पर अधिक्तेप संफेटः कहलाता 
द [र धि 
हे ।, जेसे मालती माधव मँ माधव शओ्रौर अधघोरघंट का तथा रामायण के ्राधार 
पर रचे हुए प्रबन्धो म मेघनाद श्नौर लचमण का परस्पर अधिक्तेप हा हं । 
अतएव वहां पर संफेट कहा जावेगा । ॥ 


(३) वस्तूत्थापनम :-- 
मायादयत्थापितं वस्तु वस्तूत्थापनमिष्यते । 


[माया इत्यादि के दवारा उस्थापित वस्तु को वस्तूत्थापनम कहते ह । | जसे 


उदात्त राघवम :-- ज 
जीयन्ते जयिनोऽपि सान्द्रतिमिर त्रातैवियदृब्यापिमि । 
भास्वन्तः सकलारवेरपिर्चः कस्मादकस्मादमीं | 


एताश्चोग्र कवन्धरन्धररधिरैराध्माय मानोदराः । 
| मुञचन्त्याननकन्दरनलमु चस्तीवरारवाः फेरवः ॥ 
 भविजयशील भी चमकनेवालञे सूय के भी सारे प्रकाश मे अकस्मात्‌ ही क्यों 
आकाश मे व्याप होनेवाल्े घने अन्धकार के समूह से जीत लिये गये हे । ये 
भयानक कबन्धो के चिदं मे प्रवादित होनेवाले रक्त से एूले हुए पे्ोवाल्ञे तीव्र 
शब्द्‌ से युक्त सियार इस ओर को अपने सुख गह्वर से आग क्यों छोड रहे ह । 
इत्यादि । 
(#) अवपात :-- 
अवपातस्तु निष्काम प्रवेशत्रास विद्रवैः ॥५९॥ 
[निष्क्रमण प्रवेश भय अर भागना इत्यादि के वंन मेँ अवपात नामक 
श्ारभरी इत्ति होती द ।] जैसे रत्नावली मे -- 
कणठे कूत्वाव शेषं कनकमयमधः श्ङ्खलाद्‌म कर्षन्‌ । 
क्रान्त्वाद्वाराणि हदैलावलचरण बलक्िङ्किणी चक्रवाल: । 
दचातङ्को गजानामनुखतसरणि‡ सम्भ्र मादश्वपालेः । 
प्रमरष्टोऽयं प्लवङ्गः प्रविशति वपतंमन्दिरं मन्दुरातः ॥ 
"सोने की बनी हुई जज्जीर की माला को अपने कणठ मँ डे हए भौर 
शेषको पृध्वी पर घसीटते हए, द्वारो का अतिक्रमण करके अपेमानपूवेक 
चरणों के रखने से किद्धिणी के समूह को शब्दायमान करते हुए, हाथियों को 


श्यातङ्कित करनेवाला भमपूव॑क अश्वपालों के द्वारा पीछा किया हुश्रा यह बद्र 


पने धने के स्थान से दथ्कर राजभवन मे घुख रहा हे ।' 


#ि 








( १३३ ) 


नष्टं वर्षैवरैरमनुष्यगणना भावादकृत्वात्रपा- 
मन्तः कञ्चुकिकञ्चुकस्य विशतित्रासादयं वामनः ॥ 
परयन्तश्रयिभिर्निजस्यसदश' नाम्नः किराते; कृतम्‌ । 
कुञ्जानीचतयेव यान्ति शनकैरास्मेत्तणाशङ्किनः ॥ 
“हिजडे तो मयुष्यों मँ गणना न होने के कारण लउजा छोडकर भाग गये; 
यह वामन भय के कारण कञ्चुकी के कञ्चुक के अन्द्र घुसा जा रहा हं; किरातो 
नेतो दिशा्ोंकेदोर का आश्रय लेकर अपने नामका चरितां दहीकर दिया 
ौर ऊुबडे लोग कहीं देखने के लिए न जावे इव भय से बहुत धीरे धीरे खुक- 
सुककर जा रहे है । 
दसरा उदाहरण जैसे प्रियदशिका के प्रथम अङ्क म विन्ध्यकेतु के आक्र 
मण के अवसर पर । अ।रभटी के सहित बृत्ति निरूपण का उपसंहार :- 


एभिरङ्ग श्चतुर्धेयं नाथे वृत्तिरतः परा। 
चतुर्थौ भारती सापि वाच्या नाटक लक्तणे ॥६०॥ 
कैशिकीं सात्वतं चाथेव्ृत्तिमारभटीमिति । 
पठन्तः पञ्चमीं वृत्तिमौद्धटाः प्रतिनानते ॥६१॥ 
[उपयुक्त भङ्गो के द्वारा आरभटी इत्ति चार प्रकारकी होती है । (इस प्रकार 
ऊपर तीन वृत्तिं का निरूपण किया जा चुका है।) चौथी भारती बृत्ति होती 
है; उसका वणंन हम नाटक के लक्तण मँ करगे । उद्भट के अनुयायियों ने कैशिकी, 
सास्वती ओर आरभटी नाम की अर्थं इृत्तियां को स्वीकार करते हुए एक पांचवीं 
बृत्ति को भी शङ्गीकार किया हे |] 
यह पांचवीं वृत्ति कीं लच्य मे नहीं देखी जाती भौर यह सिद्ध भी नहीं 
कीजा सकती । क्योकि रसो मे हास्य इत्यादिका तो समावेश भारती वृत्तिम 
हीहो जाता है अओौर नीरस अर्थं को कोह कान्य कह ही नहीं सकता । वास्तव 
मतो तीन दही वृत्तिर्या हँ । भारती एक शब्द्‌-वृत्ति होती हे । आमुख का ङ्ग 
होने के कारण इसका आमुख के प्रकरणम ही वंन किया जावेगा। 
बृत्तियों के प्रयोगनियम की व्यवस्था यह है : - 
श्रंगारे कैशिकी वीरे सात्वत्यारभटी पुनः। 
रसे रौद्रे च वीभःसे वृत्तिः सवत्र भारती ॥६२॥ 
[शगार में कैशिकी, वीर मे सात्वती ओ्रौर रौद्र तथा वीभस्स रस मे भार- 
भरी बृत्ति का प्रयोग होता है । भारती वृत्तिका स्व॑त्र प्रयोग होता है ।] 
अब यह बतलाया जा रहा है कि नायकों को देश मेद्‌ के अनुसार भिन्न- 
भिन्न वेष रचना दइव्यादि क्रियाकलाप को प्रवृत्ति कहते हैँ :- 





ऋ 
। 





( १३४ ) 


देश भाषा क्रियवेषलत्तणाः स्पुः प्रवृत्तयः । 
लोकादे वावगम्यैताः यथौचित्यं प्रयोजयेत्‌ ॥६३॥ 
[नायको की परृ्तर्यां देश, भाषा क्रिया ओौर वेष के लकर्णोवाली होनी देँ 
अर्थात्‌ इन्दं के अनुसार नायकों का क्रियाकलाप जाना जा खकता है । इन 
सवका प्रयोग लोक से ही समकर ओौचित्य के अनुसार करना चािए ।| 


पाल्य 


पाल्यमे ये विशेषताएं होती है : - 
पाल्य तु संस्कृतं नृणामनीचानां - कृतारमनाम्‌ । 
लिङ्गिनीनां महादेव्या मन्त्रिजावेश्ययोः कचित्‌ ॥६४॥ 

[मनुष्यों मे अनीच ओर शल भा्मावाल्ञे मनुष्यों की भाषा संस्कृत होती 
हे । कहीं-कहीं चिह्न धारण करनेवाली (संन्यासिनी इत्यादि) महादेवी (रानी) 
मन्त्री की लड़की ओर वेश्या खियों की भी भाषा संस्कृत होती हे । | 

ल्लीणां त॒ प्रातं प्रायः सौरसेन्यधमेघु च। 
` [स्त्रियों की प्रायः प्राङृत भाषा होती है ओर अधम पात्रों की सौरसेनी 
भाषादहोतीदहै।] 

प्राक्त का अर्थ॑है जो प्रकृति सिद्ध हो। संस्कृत के तत्सम) तद्धव, देशी 
इत्यादि अनेक प्रकार के शब्द्‌ इसमे भति हँ । सोरसेनी ओर मागघी अपने- 
ञ्मपने भदेश मे बोली जाती है ओर उनके व्याकरण भौ अपने-अपने 
अलग हं । 

पिशाचास्यन्त नीचादौ पैशाचं मागधं तथा ॥६५॥ 
यदेशं नीचपात्र यत्तदेशं तस्य॒ भाषितम्‌ । 
का्यतश्चोत्तमादीनां कार्यो भाषाग्यतिक्रमः ॥६६॥ 

[पिशाच ओर अत्यन्त नीच व्यक्ति इर्यादिकों की पैशाची या मागधी 
भाषा होती ह| नीच पात्र जिसदेशकाहो उसी देश की उसकी भाषा भी 
होनी चाहिए । कायवश उत्तम इत्यादि व्यक्तियों की भाषा ममौ परिवतन कर 
देना चादिए | 


भरामन्त्रण 


कहनेवाल्ते ओर सुननेवा्ञे व्यक्तियों की योग्यता के ओचित्यं के अदुसार 
ञ्ामन्त्रण का प्रयोग क्रिया जाता है । उसके लिए नियम ये ह :-- 
भगवन्तो वरैर्वाच्या विद्वदेवषि लिङ्गिनः । 
विप्रामाद्याप्रज।श्चार्यां नरीसूत्रशतौ भिथः ॥६०॥ 








( १३५ ) 


[श्रेष्ठ पात्र विद्वानों, देवषियों श्रौर बिह्वधारी संन्यासी? इत्यादिको को 
(भगवन्‌' शब्द्‌ से तथा ब्राह्मण, मन्त्री भौर ज्येष्ठ को आय॑ शब्द्‌ से सम्बोधित 
करं । नटी ओर सूत्रधार एक दूखरे को आयं शब्द्‌ से सग्बोधित करं ।] 

रथी सूतेन चायुष्मान्‌ पज्यैः शिष्यात्मजानुजाः। 
वत्सेति तातः पूज्योऽपि  सुगरदीताभिधस्तु तैः ॥६८। 

[सारथी रथ के स्वामी को आयुष्मान्‌" शब्द्‌ से सम्बोधित करे । पूज्य लोग 
शिष्यो, पुत्रों ओर छोटो से वस्स कटं ओर तात भी कहें । शिष्य इत्यादि पूज्यो 
को तातः या सुगृहीतनामा इन शब्दो से सम्बोधित करे । |* 

भावोऽनुगेन सूत्रीच मापरैत्येतेन सोऽपि च। 


[अनुचर (पारिपारिवैक) सून्रधार को (भाव कहे अर सूत्रधार पारिपारिव॑क । 


को "मा्षै' कहे || 
देवः स्वामीति नुपतिभ स्यैभट्रेति चाधमैः ॥६९॥ 
आमन्त्रणीयाः पतिवञ्च्येष्ठमध्या धमैखियः। 

[नौकर राजा को "देव" ओर ^स्वामी' इन शब्दों से सम्बोधित करे शौर 
अधमं लोग “भट्ट शब्द्‌ से सम्बोधित करं । अयेष्ठ मध्य श्रौर श्रधम ग्यक्ति 
स्त्रियो को उनके पतिर्यो के समान ही सम्बोधित करं ।] 

स्त्रियों के विषय मेँ इतनी विशेषता है :- 


समाहलेति प्रेष्या च हञ्जे वेश्याञ्जुका तथा \\७०॥ 
कद्टिन्यम्बेत्यनुगतैः पृञ्या वा जरतोजनैः॥ 
विदूषकेण भवती राज्ञी चेटीति शब्दयते ॥७॥ 

[समान स्त्री से हला शब्द्‌ का प्रयोग करना चाहिए; नौकरानी से हञ्जे 
कहना चाहिए; वेश्या से अज्जुका कहना वचादिए; कुदिनी से “अम्बा कहना 
चाहिए; अनुचर व्यक्तियों के द्वारा पूज्या या बृद्धाके लिए भी अम्बा शब्द्‌ का 
ही प्रयोग करना चाहिए । रानीञ्चौर चेटी को विदूषक “भवतीः शब्द्‌ का 
श्रयोग करे । | 


उपसंहार 


चेष्टा गुणोदाहृति सत्त्वभावान्‌- 
अशेषतो नेतृदशा विभिन्नान्‌ । 
को वक्तमीशो भरतो नयो वा, 
यो वान देवः शशिखंडमौलिः ॥७२॥ 








( १३९ ) 


[ चेष्टा (लीला. इस्यादि) गुण (विनय इर्यादि) उदाहति (सस्छृत प्राकृत 
माषा इत्यादि की उक्त्या) सत्व (निविकार चित्त) श्मौर भाव (चित्त का प्रथम 
विकार) इन खव बातों को जो कि नायको कौ दशानां के भेदं का अनुसरण 
करते हुए अनेक प्रकार की हो जाती ह परिपूणं रूप से रेखा कौन व्यक्ति कह 


सकता हैजोनतो भरतदही हो रन चन्दर खणड को मस्तकं पर धारण 


करनेवाला शङ्कर दी हो । | । 
आशय यह है कि इन सब बातों कापूणं रूपसे वणन कर शकना 
ञ्जसम्भव है । यहाँ एर उसका दिग्दशंन मात्र कराया गया है । 





तृतीय प्रकाश 


यह बतलाया गथा था कि नाटकं के भेदक, वस्तु, नायक ओर रस होते 
हे । इन्हीं तीनों के आधार पर रूपकं का वगीकरण किया जाता हे । प्रथम 
प्रकाशे वस्तु का निरूपण कर दिया गया है, द्वितीय प्रकाश मे नायक के भेदं 
का भी विस्तार से विवेचन कर दिया गया है । अब प्रकरण के अनसार रस का 
विवेचन करना चाहिए । किन्तु रस विवेचन मे बहुत अधिक कहना पड़ेगा । 
अतएव उसका उज्ल्घन कर यहां पर यह बतलाया जारहाहै कि नारक म 
पथक्‌ पृथक्‌ उनका क्या उपयोग होता है :-- 

प्रकृतित्वादथान्येषां भूयोरस परिग्रहात्‌ । 
सम्पूणं लक्तणत्वाच्च पूर्व॑ नाटकमुच्यते ॥१। 

[नाटक अन्य प्रकार के भेदों की प्रकृति है अर्थात्‌ प्रकरण इत्यादि भेदो का 
लक्षण नाटक के आधार पर ष्टौ किया जातादहै; नाटक मे बहुत अधिक रस 
का परिग्रह होता है ओौर लक्ण भी उसमे सम्पूणं होते हँ । अतएव पहले 
नारक कीदहीव्याख्याकीजा रदी है। ] 

नाटक उद्दिष्ट धर्मोवाला होता हे अर्थात्‌ नाटकु मे सभी धर्म साभूहिकं 
रूप मे सङ्कलित होते हँ किन्तु दूसरे भेदो मे सभी धर्म सङ्कलित नहीं होते । 
यही कारण है किं नाटक का लक्षण पहले बनाया जा रहा है। उस नाटक 
जं :-- 

पूृवरङ्ग विधायादौ सूत्रधारे विनिगते। 
प्रविश्य तद्वद्परः काव्यमास्थापयेन्नटः ॥२॥ 

[ पहलञे वरङ्ग का विधान करके सूत्रधार के चले जाने पर उसी के समान 
दूसरा नट प्रविष्ट होकर कान्य की स्थापना करे । ] 

नाव्यशाला का जिसमे प्रथम अनुरञ्जन किया जाता है उसे पूर्वरङ्ग कते 
हैँ । नाव्यशाला मे सबसे पहल्ते प्रयोग के उत्थापन खूप काके द्वारा सभा 
का अनुरञ्जन करने से ही पूवरङ्ग संहा होती है। जब पूवरङ्ग का सम्पादब 
करफे निकल जाता है तब उसी के समान दृसरा नट वैष्णव इत्यादि के वेश म 
माकर काभ्यां की स्थापना करता है । इसीलिए इसे स्थापक कहते है । स्था- 
पक के निश्नलिखित भेद ओर कायै होते है : - 

दिव्यमत्य सतद्रपो मिश्रमन्यततरस्तयो : । 
सुचयेद्रस्तु बीजं वा मुखं पात्रमथापि वा ॥३॥ 
१८ 








क क~~ "वा = श 











( १३८ ) ॥ 


[स्थापक दिव्य वस्तु को दिभ्य होकर ञ्नोर मस्य वस्तु को मस्य होकर सूचित 
करे । यदि मिश्च वस्तुहोतो वहदोमें से एक का रूप धारण कर अथात्‌ चाहे 
दिव्य ओर चाहे म्यं होकर सूचित करे । वह वस्तु, गीज, सुख अथवा पात्र म 
किसी एक को सुचित करे । 

(१) वस्तु के सुचित करने का उदाहरण जैसे उदात्त राघव म : - 

रामो मूधिनिधाय काननमगान्मालामिवाज्ञा गुरोः । 
तद्धकलत्या मरतेन राज्यमखिलंमात्रा सहैवोज्मितम्‌ ॥ 

' तो सुप्रीवविभीषणावनुगतौ नीतो परां सम्पदम्‌ । 
प्ोद्वृत्तादशकन्धरग्रश्चतयो ध्वस्ताः समस्ताः द्विषः ॥ 

"राम अपने पिताकी आक्ञाको माला के समान खर प्रर धारण करके 
वन को चलते राये । भरत ने उनकी भक्ति से माता केसाथहीराञ्य काभी 
परित्याग कर दिया । वे दोनों सुम्ीव श्नौर विभीषण जो किं अनुचर बन गये 
ये महती सम्पत्ति को पहैचा दिये गये ओर उद्धत चरित्रवाज्ञे रावण इत्यादि 
सारे शत्रु मार डाज्ञे गये ।' 

(२) बीज का आक्तेप जैसे रत्रावली मे "दरीपादन्यस्मात्‌ इव्यादि । 

(३) मुख के आक्तेप अर्थात्‌ श्लेष के दवारा प्रस्तुत वस्तु के मरतिपादनका 
उदाहरण ;~ 

श्रासादितप्रकट निर्मलचन्द्र हासः; 
प्राप्तः शरत्समय एष विशुद्ध कान्तः । 

` उत्वाय गाढतमसं घनकालमुग्रं, 
रामोदशास्यमिव सम्श्तवन्धु जीवः ॥ 


प्रकट निमैल चन्द्रहास (१-चन्द्रमा के प्रकाश रे-चन्द्रहास नाम की 
रावण की तलवार ) को जिसने प्रास्त कर लिया है जो विशेष रूप से | 
वाला हे ग्रौर जिसे बन्धुजीव (१-दोपहरिया का एल २-बन्धुओं का जीवन) 
परिपृणं (परफुरिलित) कर दिया हे । इस प्रकार का यह शरत्काल गाढे अन्ध- 
कारवाज्ञे भयानक व्वाकाल को नष्ट करके उसी प्रकार प्रगट हो रहा है जिस 
तरकार मानो राम भयानक रावण को नष्ट करके प्रगट हो रहे हों 
(४) पात्र के आद्ेप के द्वारा जसे अभित्तान शाङन्तल मे :-- 
तवास्मिगीतरागेण हारिणा प्रसभ॑ह्तः । 
एष राजेव दुष्यन्तः सारङ्गेणातिरहसा ॥ 
व तुम्हारे आकर्षक गीतराग के द्वारा बलात्‌ उसौ भकार आकषित कर 
लिया गया हँ जिस प्रकार अत्यन्त वेगवान्ञे हरिण के द्वारा यह राजा दुष्यन्त 














( 8 ) 
आकषित कर लिया गया है ।› यहाँ पर दुष्यन्त की ओर सङ्केत करके पात्र 


प्रवेश किया गया है । 
भारती-वृत्ति 


रङ्गं प्रसाय मधुरैः श्लोकैः काव्यार्थसूचकैः । 
ऋत कश्चिदुपादाय भारती वृत्तिमाश्रयेत्‌ ॥ 
[किसी ऋतु का आश्रय लेकर मधुर कान्या सूचक श्लोकों से रङ्ग (नाव्य- 
शाला) को प्रसन्न करके भारती वृत्ति का आश्रय लेना चाहिए ।] 
उदाहरण :-- 
 श्रौस्सुक्येन कृतत्वरा सहभुवा ग्यावतंमाना हिया, 
तसतैर्वन्धु वधूजनस्यवचनैनींतामिमुख्यं पुनः । 
ष्ट्रे वरमात्तसाध्वसरसा गौरी नवे सङ्गमे, 
संरोहत्पुलका हरेण हसता शिष्टा शिवापातु वः ॥ 


“नवीन सङ्गम के अवसर पर पावती उच्कण्डा के कारण शीघ्रता करने 
लगी; साथ मे उत्पन्न होनेवाली लजाके कारण धूमकर खड़ी हो गई; 
वन्धुवगं की बधुओओं के भिन्न भिन्न वचनो के द्वारा पुनः सामने लाद गद; वर 
को सामने ही देखकर उनके हृदय मे सङ्खोच मिश्रित भय का रस एकदम उत्पन्न 
हो गया ओर रोमाञ्च उष्पन्न षो गया; यह देखकर जिन पार्वतीजी को हँसते 
हए शङ्करजी ने छाती से लगा लिया वे पार्वती जी तुम्हारा कल्याण करे । 

इसी प्रकार से भारती इृ्ति का आश्रय लेना चाहिए । 

भारती वृत्ति की परिभाषा :- 

भारती संस्कृत प्रायो बाग््यापारो नटाश्रयः। 
भेदैः प्ररोचनायुक्तैः बीथीप्रहसनामुखैः ॥५॥ 

[भारती इत्ति एेसे वाणी के ज्यापार को कहते हँ जिसका प्रयोग पुरूष पात्र 
करे ` ओर जिसमे अधिकतर संस्कृत भाषा का प्रयोग किया जावे। इसके चार 
भेद होते हैँ (१) प्ररोचना (२) वीथी (३) महसन शओमौर (४) आमुख ।] 

अब क्रमशः इनके लक्षण बतलाये जा रहे है :- 

, (१) प्ररोचनां :-- 
उन्पुखोकरणं तत्र प्रशंसातः प्ररोचना । 

[प्रशंसा के द्वारा उन्मुखी करण को प्ररोचना कहते हे ।] आशय यह है किं 
जहां पर प्रस्तुत अथं की प्रशंसा करते हए श्रोतारो को उन्मुख किया जावे 
उसे प्ररोचना कहते हँ । जैसे रत्नावली मे :- 





( १४० ) 


श्रीदो निपुणः कविः परिषदप्येषा गुणग्राहिणी, 
लोकेदारि च वत्सराज चरितं नास्ये च दक्तावयम्‌ । 

वस्तवेकैक मपीद वाञि्धतफल प्रासः पदं किं पुनः, 
मद्धाम्योप्चयादया समुदितः सर्वो गुणानां गणः ॥ 

(क तो श्रीहष निपुण कवि है; यह परिषद्‌ भी गुणग्राहिणी है; लोक म 
वस्सराज्ञ उद्यन का चरित्र आकषक है ओर हम सब नाच्यकला मै निपुण भी 
ह । यदि इन सब बातों मे केवल एक ही हो तो भी वह अभीष्टं फल की प्राति 
का स्थान बन जाती ह फिर य्ह का तो कहना दौ क्या ‹ यहाँ तो हमारे भाग्य 
से सभी गुणों का समूह एकत्र हो गया हे 

, (२) वीथी (३) प्रहसन :- 
वीथी प्रहसनं चापि खप्रसंङ्ग उऽभिधास्यते ॥६॥ 
वौथ्यङ्गान्या सुखाङ्गत्वादुच्यन्तेऽतरेवतत्पुनः । 

[ वीथी शौर प्रहसन की भ्याख्या इन्दी के प्रकरणम की जावेगी । वीथी के 
अङ्ग आमुख के भी अङ्ग होते हे । अतएव वीथी के अङ्गो की व्याख्या चामुख के 
साथ दही कर दी जावेगी |] 

(४) आमुख :-- 

सूत्रधारो नटीं वृते माषैः बाथ विदूषकम्‌ ।(५॥ 
स्वकायं प्रस्तुताक्तेपि चित्रोक्त्यायत्तदामुखम्‌ । 
प्रस्तावना वा तत्रस्युः कथोद्धातः प्रवृत्तकम्‌ ॥८॥ 
प्रयोगातिशयश्चाथ वीथ्यङ्गानि त्रयोदश । 

[जहाँ पर नटी, पारिपारिवक या विदूषक से सूत्रधार बातचीत करता 
हे ओर चिन्रोक्ति के द्वारा जहां अपने कायै का प्रस्तुत से आक्तेप किया जाता 
ह उसे त्रासुख कहते है श्नौर उसे ही प्रस्तावना भी कहते है । इसके अङ्ग ये 
होते है (१) कथोद्धात (२) प्रवृत्तकं (३) ५ योँगातिशय ओर (४ से १६ तका) 
१२३ वीथी के अङ्ग । | 

(१) कथोद्धात :-- 

स्वेतिवृत्तिसमं वाक्यमथै' वा यत्न सत्रिण : । 
ग्रहीत्वा प्रविशेस्पाच्' कथोद्धातो द्विषैवसः ॥ 


[जहां अपने इतिवृत्ति के समान सूत्रधार के (१) वाक्यया (२) अथैको 
्ञेकर पात्र का प्रवेश हो उसे कथोद्धात कहते ह । इस प्रकार का यह दो प्रकार 


काहोताहै। 


(अ) वाक्य को लेकर पात्र प्रवेश का उदाहरण जैसे रललावली मे “योगन्ध- 











( 44१. 3 


रायण- “द्वीपा दन्यस्मात्‌' इत्यादि (देखो पर०) सूत्रधार के वाक्यको लेकर 
प्रविष्ट होते ई, 
(आ) वाक्याथ को लेकर पान्न प्रवेश का उदाहरण जैसे वेणी संहार मँ 
सूत्रधार कहता है :-- 
निर्वाण वैरिदहनाः प्रशमादरीणां, 
नन्दन्तु पाण्डूतनयाः सहमाधवेन । ` 
रक्त प्रसाधित भुवः क्तत विग्रहाश्च, 
स्वस्थाः भवन्तु कुरुराजसुताः सुभ्रत्याः॥ 

“शक्रं के शान्त हो जाने से शत्नुरूपी आग जिनकी शान्त हो गदैहे 
इस प्रकार के पाण्डु पुत्र माधव (कृष्ण) के साथ आनन्द को प्रा्ठहों भौर 
अनुरक्त व्यक्तियों से पृथ्वी को अलङ्कृत करनेवाज्ञे रौर नष्ट फगद्धवाज्ञे कुदराज 
के पुत्र (दुर्योधन इत्यादि) अपने “त्यों के साथ स्वस्थ हो जावे ।' भीमसेन 
इसके अर्थं को लेकर प्रविष्ट होते हे भौर कहते ईह : - 

लात्तागरदानलविषान्नसभाप्रवेशेः, 

प्रारोषु वित्तनिचयेषु च नः प्रहत्य । 
श्राङृष्ट पारएडववधू परिधान केशाः, 

स्वस्था भवन्तु मयि जीवति धातराषटरः ॥ 


'लाकतागृह, अग्नि, विषमिशित अन्न श्रौर सभा प्रवेश हत्यादि केद्वारा 
हमारे प्राणों अर धनराशियों पर प्रहार करके अर पाण्डवो की पनी द्रौपदी 
के वस्त्र र केशो को खींचकर धृतराष्ट्र के पुत्र मेरे जीते हुए स्वस्थ हों यह 
कैसे हो सकता है ? 

(यहाँ पर सूत्रधार के उक्त वाक्य का एक अथ यह भी है कि पाण्डवो 
कौ शच्ररूपी आग बर जावे रौर शत्र विनाश से पाण्डुपुत्र कृष्ण सहित ान- 
न्दित हों ओौर कौरवगण अपने रक्त (खून) से पृथ्वी को भलंकृत कर नष्ट शरीर 
होकर शत्यं सहित स्वस्थ (स्वगंस्थ) हो जाव । किन्तु भीमसेन ईस र्थको 
न सममकर प्रथम अथ॑ को लेकर ही प्रविष्ट हुए हे ।) 

(२) भरदृत्तक 

कालसाम्य समाच्तिप्र प्रवेशः स्यासप्रवृत्तकम्‌ ॥१०॥ 

[जरह पर काल की समानता को लेकर जहां पातर प्रवेश राकस (सूचित) 
किया जावे अर्थात्‌ जर्हां पर बत॑मान काल के गुणो के समान गुणो के वणंन के 
द्वारा पाच्र-भवेश का आक्तेप होवे उसे प्रवृत्तकं कहते है ।] जैसे आसादित 
प्रकटनिमैलचन्द्रहासः सम्भृतवन्धुजीवः' (देखो पर १०४) । 








( १४२ ) 


(३) प्रयोगातिशय :-- 
एषोऽयमुपक्ेपात्‌ = सूत्रधारप्रयोगतः । 
पात्र प्रवेशो यत्रैष प्रयोगातिशयो मतः ।॥६९॥। 

[जहाँ पर सूत्रधार यह कदे कि यह वह्‌ हेः ओर इक्ी आधार को लेकर 
पात्र प्रवेश हो उसे प्रयोगातिशय कहते दै ।| ्ञेसे शाङन्तत म सूत्रधार के - 
्ञसे यह राजा दुष्यन्त" यह कहने पर पात्र प्रवेश हु है । (द° प° १०९) 

वीथी के १३ अङ्ग :- 

उद्धास्यका बलगिते प्रपच्चत्रिगते छलम्‌ । 
वाक्केल्यधिबले गण्डम वस्पन्दित नालिके ।॥१२॥ 
ञ्सत्प्रलाप व्याहार मद वानि त्रयोदश । 

[उद्धात्यक इत्यादि वीथी के १३ अज्ञ होते है ।] 

(१) उद्धात्यक :-- 

गूढा्थपद पर्यायमाला प्रश्नोत्तरस्य वा ॥१२॥ 
\ यत्रान्योन्यं समालापो दवेोषद्धात्यं तदुच्यते । 

[जहां पर (१) या तो गूढ ञ्रथवाक्ञे षदों की पयाय माला हो या (र) 
प्रश्नोत्तर हो ओर इस प्रकार उत्तर प्रसयुत्तर दिखलाया जावे उसे उद्धात्यक कहते 
ह । इस प्रकार इसके दो भेद होते ह|] 

(अ) मूढाथ पद्‌ पयांयमाला (अर्थात्‌ गूढ अर्थवाज्ञे पद्‌ के अथं को स्पष्ट करने 
के लिए उसके कदे एक पयय देने) का उदाहरण । जैसे विक्रमो्वंशी मे :- 

विदूषक - "यह कामदेव कौन है जो तुदं भौ कष्ट देता है ? क्या यह कोद 
पुरुष हे या स्त्री है १ राजा--मित्रः 

मनोजातिरनाधीना सुखेष्वेव प्रवतंते । 
सतेहस्य ललितो मार्गः काम इत्यभिधीयते ॥ 

(यह मन से उत्पन्न होता है अर व्याधिरहित पुरुषों के सुख मे ही प्रवृत्त 
दुभा करता है । स्नेह के ललित मागं को काम कहा जाता हे ।' 

विदूषक--“फिर भी मेँ नहीं समा ।' राज्ञा- “मित्र ? वह इच्छा से उस्पन्न 
होता है ।' विदूषक--“क्या जो इच्छा करता हे उसी की उसकी कामना कदी 
ज्ञाती हे १ राजा--'जी हा !› विदूषक “अच्छा सम गया जञेसे मे भोजनालय 
ञं भोजन की इच्छा करता हं । 

प्रश्नोत्तर मेँ वातालाप का उदाहरण जसे पाणएडवानन्द्‌ म :- 

| की श्लाघ्या गुणिनां चमा परिभवः को यः स्वकुल्येः कृतः । 
किं दुःखं परसंश्रयो जगति कः श्लाध्यो य श्राभ्रीयते। 


~ ऋण जक कक कक्कर ककः श 





( १४२ ) 


को मू्युर्व्यवनं शुचं जदति के येनिर्जिता शत्रवः । 

कैविज्ञातमिदं विराट नगरे छन्नस्थितैः पार्डवैः ॥ 

((भ्रश्न) गुशियों की पशंसा क्या ह ? (उत्तर) सहनशीलता । (प्रश्न) परा- 
भव क्या है १ (उत्तर) जो अपने वंशवालों ने किया हो । (प्रश्न) दुगल क्या ह ? 
(उत्तर) दृखरे का सहारा ज्ञेना । (प्रश्न) संसार में प्रशंसा-पात्र कौनदटहै? 
(उत्तर) जिसका आश्रय लिया जावे । (प्रश्न) त्यु क्या है ? (उत्तर) आपत्ति 
म पडना । (प्रशन) शोकको कौन लोग छ्धोड देते हँ ? (उत्तर) जो शत्रु पर 
विजय प्राक्च कर लं । (प्रश्न) ये बातें किंसने जान पाह ? (उत्तर) विराट नगर 
मे युक्त रूप मे रहनेवाल्ञे पाण्डवं ने । 

(२) अवगलित :- 

यत्रे कत्र समावेशा त्कार्यमन्यसप्रसाध्यते ॥१४ ॥ 
प्रस्तुतेऽन्यत्र वान्यर्स्यात्तच्चावलगितं द्विधा ॥ 

[जहां पर (१) एक के समावेश से दूसरा कायं सिद्ध कर लिया जावे अथवा 
(२) प्रस्तुत अन्य हो ओर अन्य कायै बन जावे उसे अवगल्ित कहते हँ । इस 
प्रकार अवगलित दो प्रकार का होता है। ] 

(अ) अन्य के समावेश से अन्य कार्यं के सिद्ध करना रूप प्रथम अवगलित 
का उदाहरण जैसे उत्तर रामचरितं सीताके हृदयम वन विहार का गभ॑ 
दोहद्‌ उत्पन्न हु! है । उख दोहद्‌ की पूति के लिए प्रविष्ट होकर जनापवाद्‌ के 
कारण उनका परित्याग कर दिया गया है । 


(अ) अन्य के स्तुत होने पर अन्य कायै के बन जाना रूप दूसरे अव- 
गलित का उद्‌।हर्ण जैसे छलितराम मँ--"राम -हे लष्मण ! पिता जीसे 
वियुक्तं अयोध्या भे“मँ विमान पर बैठकर प्रवेश नहीं कर सकता । अतएव 
उतरकर चलुगा । 

कोऽपि सिंह।सनस्यधः स्थितः पादुकयोः पुरः । 
जटावानक्तमाली च चामरी च विराजते॥ 

“यह कोद सहासन के नीचे पादुकां के सामने बैठा हश्ना, जटाधारी 
अक्तमाला को लिये हुए ओर चमर को धारण क्ियि.हुए शोभित हो रहा है ।' 
यहां १२ दृसरे पयोजन से विमान से उतरकर चलने पर भरत दुशंन रूप 
काये की सिद्धि इद है । 

(३) प्रपञ्च :- 

असद तं मिथः स्तोत्रं प्रपश्चो हास्य छन्मतः ॥१५॥ 
[असद्भत (निन्दनीय) बातों से, जहां पर परस्पर प्रशंसा की जावे भौर 








[न [त = 1 

कनमनयि 

कष भ्य ध ल क = 
< 


( १४४ ) 


वह हेतो उत्पन्न करनेवाली हो उसे प्रपञ्च कडते हे । | निन्दनीय बात का थं 


हे पर दाराभिगमन इत्यादि म निपुणता । जैसे कपु रमञजरी मे :-- 
रण्डा खन्डा दिकरिखिदा धम्मदारा मज्जं मंसं पिज खज्जएश्र। 
भिक्खा भोगं चम्मखरडं च सेजजा कोलो धम्मोकस्य नो होई रम्मो ॥ 
[रण्डा चण्डा दीक्षिता धर्मदारा म॑ मांसं पौ यते खाद्यते च। 
मिता मोज्यं चर्मलण्डं च शय्या कौलोधरमः कस्यनो भातिरम्यः ॥] 
(सड ओर उग्र स्वभाव वाली ओरतंतो दीक्ताली हुदै धम की पत्नी 
होती हे; मच भ्रौर मांस पिया अर खाया जाता है; भिक्ञा ही भोज्य है भौर 
चम खण्ड की शय्याहोतीहै । भला यह कौलधमै किसको पसन्द न 
्मावेगा ।' 
` (४) च्रिगत : - 
श्रुति साम्यादनेकाथे योजनं त्रिगतं स्वि । 
नटादित्रितयालायः पूर्वरङ्ग तदिष्यते ॥१६॥ 
[शब्द्‌ साम्य से अनेकाथ योजना को त्रिगत कहते हे । नट हष्यादि तीन 
का ईस अलाप होता है भौर इसका विधान पूवे रङ्ग मँ हा करता है ।] 
नट हृष्यादि तीन का अर्थ है सूत्रधार, नटी ओर पारिपारिवैक । तीन 
भ्य्ियो की बातचीत होने से इसे त्रिगत कहते हे । जैसे किक्रमोवशी म : - 
मत्तानां कुसुमरसेन षट्पदानां, 
शब्दोऽयं परभ्रतनाद एषधीरः । 
कैलासे सुरगण ॒सेवितेखमन्तात्‌ 
किनर्यः कलमधुयक्तरं प्रगीताः ॥ 
पुष्य रस से मत्त भरो का यह शब्द्‌ हे; यद्‌ कोकिला का धीर 
नाद्‌ है; सुरगणो से सेवित इख कैज्ञास पर चारो ओर किन्नरियां कलमधुर 
अतरो मै गानागा रही ।' 
(‰) लनम्‌ :-- 
परियाभैरप्रियैवाकयेर्विलोभ्य लनात्‌ छलम्‌ । | 
[अग्रिय वाक्यों से जो देखने मे ्रिय मालूम पडते हों विलुष्ध करके 
छलनम्‌ छल कहलाता है || जैसे वेणी संहार मे भीम चौर अजन कह रहे हे :- 
कर्ताय तच्छलानां जतुमयशरणोदीपनः सोऽभिमानी । 
राजादुःश्शासनादे गुं रुरनुज शतस्याङ्गराजस्य मित्रम्‌ ॥ 
कृष्णा केशोत्तरीय व्ययनयनपदधः पाण्डवा यस्यदासा : । 
क्वास्ते दु्ोधनोऽघौ कथयत पुरुषाः दृषटुगभ्यागतौस्वः ॥ 
श्यत दल को करनेवाला, लाख के निवासस्थान को जल्ानेवाला, अभि- 














( १४५ ) 


मानी, दुश्शासन इस्यादि सौ अनुजों का ज्येष्ठ, अङ्गराज (कणं) का मित्र, 
द्रौपदी केश ओर वस्त्र के दूर कराने मेँ निपुण बह राजा दुर्योधन जिसे 
दास पाण्डव हँ, इस समय काँ है ? बतला; हम दोनों उसे देखने ` 
येह 

(£) वाक्केली :-- 

विनिव्रत्यास्य वाक्त ली द्विस्तरिः प्र्युक्तितोऽपिवा ॥१७॥ 

[(4) अ्रक्रान्त साकांत्त वाक्य के लोटा के कह देना अथवा (२) दो, तीन 
वार उखको प्रगट कर देना वाङकेली कहलाता है || 

(अ) जैसे उत्तर रामचरित मे वासन्ती श्री रामचन्द्रजी से कह रही है :- ~. 

त्वं जीवितं त्वमसि में हृदयं द्वितीयं, 

त्वं कौमुदी नयनयोरम्रतं त्वमङ्ग । 
इत्यादिभिः प्रियशतेरनुरष्यमुग्धां, 

तामेव शान्तमथवा किमिहोत्तरेण ॥ 

(तुम जिस मुग्धा को-ुम्हीं मेरा जीवन ह्यो; तुम मेरा दूसरा हृद्य 
हो, तुमनेत्रों मे कोमुदी हो ओर तुम शरीर मे अष्त होः इत्यादि सेको प्रिय 
वचनों से अनुरोध (अनुदरलता) दिखल्ञाया करते थे उसी को तुमने...... 
अथवा जाने दीजिये अब अधिक्‌ उत्तरदेने की क्या आवश्यकता ? 

(आ) उक्ति प्रयुक्ति से वक्केली का उदाहरण जैसे रलावली में विद्‌ षक 
कह रहा है --“श्री मति मदनिका ! इस च्ष॑री कोहमे भी सिखा दो। मद्‌- 
निका--“हताश ! यह चचरी नहीं दहे; यह द्विपद खण्डक है । विदृषक-- 
श्रीमती ! क्या इख खण्डक (खांड) से लइ बनाये जाते है ? मदनिका- 
(नहीं यह पदी जाती हे ।' 

(७) अधिबल :- - 

श्रन्यान्यवाक्याधिक्योक्तिः स्पधंयाधिवलं भवेत्‌ । | 

[एक दसरे के प्रति वाक्यों में स्पधांसे अधिक कथन करना अधिबल्ल 
कहलाता हे ।] 

जैसे वेणीसंहार मे अजन कह रहे ह  - 

सकलरिपु जयाशा यत्रवद्धा सुतेस्ते, 

तुरमिव परिभूतो यस्यदरपेण लोकः । 
रण॒ शिरसि निहन्ता तस्य राधा सुतस्य, 

प्रणयति पितरौ वां मध्यमः पांड़पुच्रः ॥ 

“जिन पर तुम्हारे पुत्रों ने समस्त शत्रुओं के विजय की आशा बाँध रक्खी 
थी; जिसके गवं से खारा लोक तिनकेके समान पराभूत हो मया धा, युद्ध 

१९ | 

















( १४६ ) 


भूमि मे उसी राधापुत्र कणं -को मारनेवाला यह मला रंडव (अजन) | 
दोनो (गांधारी ओर युधिष्ठिर) को प्रणाम कर रहा है ।' इस उपक्रम मे राजा 
दुर्योधन कह रहे है--“परे ! आपके समान मँ बद्-बढकर बातें मारने मे निषु 
नदीं हं । किन्तु :- 

द्रदयन्ति न चिरात्युप्त' वान्धवास्त्वां रणाङ्गणे । 

मदृगदामिन्न वक्तोऽस्थि वेणिका भङ्गमीषणम्‌ ॥ 

(अत्यन्त शीघ्र तुम्हारे वांधव वुम्दं युद्ध भूमि मे सोता हा देखेगे जबकि 
मेरी गदा से कम्हारी ती ओर हङ्की टूट गह होगी ओौर तुम्हारी आति के भङ्ग 
से बडी भयानक हो जावेगी ।' 

यहा पर एक ओर भीम ओर अज्ज॑न मौर दृसरी रोर दुर्योधन मे वाक्यों का 
बदा- चदा कर भयोग हृ्रा है । अतः यर्हां पर दृसरे प्रकार का अधिबल हे । 

(८) गण्ड :-- 

गण्डः प्रस्तुतसम्बन्धि भिन्नां सहसोदितम्‌ ॥१८॥ 
[गण्ड उसे कहते हँ जहां पर प्रस्तुत से सम्बन्ध रखनेवाला विरुदढाथंक 
वाक्य एकदम कह दिया जावे ।] जैसे उत्तर रामचरित मे :-- 
इयं गेहे लदमीरियमभृतवतिंनयनयोः । 
` रसावस्याः स्पशोंवपुषिवहलश्चन्दन रसः ॥ 
श्रयं बाहुः कण्ठे शिशिरमखणो मोक्तिकक्षरः। 
किमस्या न प्रेयो यदिपरमसह्यस्तु विरहः ॥ 

"यह सीता घरमे तो लघमी हे; नेत्रो के लिए अशत की वत्ती है; इसका 
रखमय स्पशं घने चन्दन रस के समान है; कण्ठ म यह बाहु शीतल ओर 
चिकनी मोतियों की माला है । इनकी कौन सी वस्तु प्यारी नहीं ह १ किन्तु 
केवल वियोगी ही असह्य हे ।' 

प्रतिहारी ~ (अविष्ट होकर) देव आ गया ।' राम --अरे कौन ? अति- 
हारी “देव का निकृटवतीं परिचारक दुसुख । यहां षर सीता जी के प्रति 
रम वार्तां अस्तुत थी; उसी समय उसका विरोधी दुख उपस्थित हो गया । 
अतएव यहाँ पर गण्ड नामक वीथी का अंग है। 

(&) अरवस्पन्दित : - 

रसोक्तस्यान्यथा व्याख्या यत्रावस्पन्दितं हितत्‌ । 

[रस के कारण कही हुदै बात की ओर रूप में व्याख्या कर देने को अव- 

स्पन्दित कहते ह ।| 
जैसे इलितराम मै--“सीता~ पुत्र ! कल तड्के तुम दोनों को अयोध्या 
को जाना होगा । तब उन राजा को विनयपूवंक अणाम करना ॥ लव--`माठा- 








( १४७ ) 


जी! क्या हम दोनींको राजा के ्राशित होना चादिए ?` सीता--्पुत्र! 
वे तुम्हारे पिता हँ ।' लव-- क्या हम दोनों के रामचन्द्रजी पिता हँ ? सीता- 
(आशङ्का के साथ) पुत्र ! केवल तुम्हारे ही नहीं किन्तु सम्पूणं प्रथ्वी के ।” 
(१०) नालिका :-- = 
सोपहासा निगूढाथां नालिकेव प्रहेलिका ॥ १६॥ 
[यदि उपहास के साथ गुस्च बात कह दी जावे तो एेसी पहेली ( छिपे हए 
उत्तर ) को नालिका कहते हें । | 
जैसे मुद्राराक्तस में “चर-- अहे व्राह्मण ! क्रोध न करो । क॑तो 
तुम्हारा गुरु जानता है ओर ङ्ध हम जैसे लोग जानते हैँ ।› शिष्य - क्या हमारे 
उपाध्याय की सवंक्तता को नष्ट कर देना चाहते हो ? दृत-- चदि तुम्हारा 
उपाध्याय सब कदं जानता है तो जाने कि चन्द्रमा किसको प्यारा नहीं है ? 
शिष्य--ध्यह जानने से क्या होगा ? इस उसक्रम मे “चाणक्य--“इसका 
आशय यह है कि मेँ चन्दरगुक्च से विरूढ लोगों को जानता हँ ।* 
(११) अससप्रलाप :-- 
असम्बद्धकथाप्रयोऽससलापो यथोत्तरः। 
[ बार-बार असम्बद्ध बातचीत करना असस्प्रलाप कहलाता है । | 
(प्रश्न) असम्बद्धाथेक बातचीत में अ्रसङ्गति नाम का वाक्यदोष क्यों नदीं 
होता ? (उत्तर) स्वप्न देखना; मद्‌, उन्माद ओर शैशव इत्यादि मे असम्बद्ध 
बातचीत ही विभाव होती है अर्थात्‌ मद इत्यादि का विभावन .(परिज्ञान) 
अखम्बद्धार्थक बातचीत से ही होता है । जैसे :-- 
द्रचिष्यन्ति विदायं वक्र कुहराण्यासृक्कतो वासुके 
रङ्गल्या विषकबु रानगणयतः संस्पृश्य दन्ताङ्कान्‌ । 
एकं त्रीणि नवाष्टसप्त षडिति प्रध्वस्तसंख्याक्रमाः 
वाचः क्रौञ्चरिपोः शिशुत्वविकलाः श्रेयांसिपुष्णन्तुः ॥ 
“वासुकि जिस समयरहा था उख समय स्वामि काततिंकेयजी उसके प्रकाश- 
मान सुख गहर को विदीणं कर, विष के कारण चित्र-विचित्न वणं के दन्ताङ्करों 
को अंगुलि से स्पशं करके संख्या के क्रम को छोडकर गिन रहे थे ओर-^एक तीन 
नौ आठ सात दुः इत्यादि कह रहे थे । क्रौञ्च के शत्रु कातिंकेय जी की इस 
प्रकार की शिश्युता के कारण खंडित होनेवाली वाणी आप लोगों के कल्याण 
को पुष्ट करनेवाली हो ।' 
दसरा उदाहरण :-- 
हंस प्रयच्छ में कान्ताम्‌ गतिस्तस्यात्वयाहता । 
विभावितैकदेशेन दें यदभियन्यते ॥ 








( ४८ ) ५ 


८हे हंस मेरी मियतमा को लौटा्रो; क्योकि तुमने उसकी चाल जा ली 
हे । यदि किसी के पास चोरी गये हश्‌ माल का एक भाग मिल जावे बो उसे 
वह समस्त देना पडता है जिसके लिये दावा किया गया हो ।* 
तीसरा उदाहरण :- 
| भुक्तादिमयागिरयः स्नातोहं वह्िना पिवामिजलम्‌ । 
। हरिहर दिरण्यगर्माः मस्पुत्रास्तेन टत्यामि ॥ 
वेने पाड खा लिथे है; मैने आग से स्नान कर लिया है; विष्ण, शिव 
ञजौर ब्रह्माजी मेरे पुत्र ह इसी लिण मै नाच रहा दह ॥ | 
(१२) व्याहार :-- 
अन्यार्थसेव व्याहारे हास्यलोभकरं क्चः ॥२०॥) 
[जो डढ कहा जावे उससे भिन्न हास्य ञ्रौर लोभ को उत्पन्न करनेवाला 
वचन व्याहार कहा जाता हे ।| 
~ जैसे मालविकाग्निमिन्र मे लास्प प्रयोग के अवसान मै-- “(मालविका जाना 
चाहती है) विदूषक -“ेसा मत करो, उपदेश से शद्ध होकर जाना । पाण- 
दास-(विदूषक से) “आय कहो क्या तुमने पूजा के क्रममें मेद्‌ देखा ¦` विदू- 
वक ्रातःकाल पहले ब्राह्मण की पूजा होत है । उसका इसने उल्लद्खन किया 
| है + (मालविका सुस्कुराती हे !) इत्यादि मेँ नायक के विश्वासपूवंक स्वतन्त्रता 
| से नायिका को देख लेने के कारण उत्पन्न होनेवाल्ञे हास्य ओर लोभ को 
| उस्पन्न करनेवाज्ञे वचनों से व्याहार नामक वीथी का अङ्ग है । 
(१३) दव :-- 
दोषाः गुणा गुणदोषा यत्रस्पुम्‌ द वंहितत्‌ । 
[जहाँ गुण दोष के रूप मे श्नौर दोष गुण के रूप म दिखलाये जावं उसे 
श्दव कहते हे ।| 
जैसे शाङ्न्तल मे : - 
मरेदश्ेदकशोदरं लघु भवव्युत्साइ योग्यं वपुः । 
सत्वानाशुपलद्यते विकृतिमचित्त' भयक्रोषयोः ॥ 
उत्कः सच धन्विनां यदिषवः सिध्यन्तिलच्येचले । 
मिथ्यैव व्यसनः वदन्ति मृगया मीहग्विनोदः कुतः ॥ 
गया से मेद्‌ छट जाता है, उद्र कश हो जाता है ओर शरीर हर्का 
नौर उत्साह के योभ्य हो जाता है । जीवों काभी चिन्त भय ओर क्रोधे 
विकारवाला ज्ञात हो जाता है अर्थात्‌ यह मालूम पड जाता है कि छिस जोव 
का भयस कैखा चत्तदोता है ओर क्रोध मे कैसा होता है। धसुधारियों 
क्वा यह उत्कषं हे करि उनके वाण चञ्चल ल्य म्र भी सिद्ध दहो जते ह| व्यर्थं 











( १४६ ) 


ही लोग ्गयाको एक दुर्व्यसन बतलाते ई । एेसा आनन्द अन्यत्र कहाँ 
पाक्ष हो सक्ता है ?' 

यहाँ पर॒ सदोष मृगया को गुणयुक्त बतलाया गया ह । दूसरा 
उदाहरण :-- 

सततमनिवृ ्तमानसमायाससहख संकुल विलष्टम्‌ । 
गतनिद्रमविश्वासं जीवतिराजा जिगीषुरयम्‌।। ष 

(यह विजय का इच्छुकं राजा (बड़ा ही बुरा) जीवन व्यतीत कर रहा हे । 
इसका मन निरन्तर अशान्त रहता है; सहस्रं परिश्रमो से भरे होने के कारण 
इसका जीवन बड़ा ही क्शज्तेमय है; निद्रा आती ही नहीं भौर विश्वास भी 
किसी ग्यक्ति का नहीं है । इस प्रकार इसका जीवन बड़ा ही बुरा है । 

यहाँ पर गुणो से परिपणं राज्य केदोषों का वणन किया गया है। 

दोनों गुरं को दोष ओर दोषों को युण कहने) का उदाहरण :-- 

सन्तः सच्चरितोदय व्यसनिनः प्रादुभेवदयन्त्रणाः । 

सर्वत्रैव जनापवाद चकिताः जीवन्ति दुः्खं सदा ॥ 
श्नब्यु स्पन्नमतिः कृतेन न सता नैवासता व्याकुलो । 

युक्तायु क्तविवेकशूल्यद्टदयो धन्योजनः प्राकृतः ॥ 

'सञ्जनों को सच्रित्रता के उद्य का भ्यसन होता. हे ओर इसके लिए 
उनके चित्त मे यन्त्रणा उत्पन्न होती रहती है । सर्वत्र ही लोकनिन्दा से वे भय- 
भीत रहते है ओर उनका जीवन सदा दुःखमय होता है । किन्तु साधारण 
(असजन) व्यक्तिनतो किसीबात को समता है ओर न -अच्छेया दुरे . 
अपने कयि हुये कार्यो से वह व्याकुल होता हे । उसका हृद्य कतंब्य श्मौर 
अकतंभ्य के ज्ञान से रदित होतादहै।रेसे ही साधारण व्यक्ति का जीवन 
धन्य है । 

उपसंहार :-- 

एषामन्यतमेनाथे पात्रं वा्चिप्य सूत्रभृत्‌ ॥२१॥ 
्रस्तावनान्ते निगच्छेत्ततो वस्तु प्रपच्छयेत्‌ । 

[ऊपर प्रस्तावना के जो अङ्ग बतलाये गये दै उन्म से किंसीएकका 
आश्रय लेकर सूत्रधारयातो बीज रूपश्थकाया पात्र का आके करे यौर 
प्रस्तावना के बाद्‌ चला जावे । इसके बाद्‌ म वस्तु का पपंञ्च होना चाहिए ।] 

नाटक 
नाटक के नायक ओओौर वस्तु की विशेषतार्पयेदहैं:ः-- 
अभिगम्य गुेयु क्तो धीरोदात्तः प्रतापवान्‌ ।॥२२॥ 
कीतिकामो महोत्साहखम्याख्नाता महीपत्ति; । 














(- शभ) 


प्र्यातवंशोराजर्षिंदिन्यो वायत्र नायकः ।२३॥ 
तसप्रख्यातं विधातव्यं वृत्तमच्राधिकारिकम्‌ । 

[जिस कथावस्तु का नायक उत्कृष्ट कोटि के सेवन करने योम्य गुणो से 
युक्तं हो, धीरोदात्त हो, अरतापशाली हो, कीति की इच्छा करनेवाला हो; बडा 
ही उत्साही हो, वेदत्रयी की मर्यादा की रक्ता करनेवाला हो ओर प्रसिद्ध वंश 
वाला यातो कोई राजषि होया दिन्य (स्वर्गीय) हो, एेसे दी नायक्वाली 
प्रख्यात कथावस्तु को आधिकारिक वृत्त बनाना चाहिए ।| 

इस इतिचृत्त का सत्य वचन इत्यादि अविसंवादी नीतिशास्त्र प्रसिद्ध एेसे 
गुणों से युक्त होना चाहिए जिससे दूसरे व्यक्ति अपने चरित्रनि्मांण के उदेश्य 
से उसका अनुसरण कर सके" । ठेसा नायक रामायण, महाभारत इत्यादि में 
परसिद्ध कोई धीरो दात्त हो या शङ्कर इत्यादि कोहं दिव्य नायक हो । रामया 
कृष्ण इत्यादि दिभ्यादिव्य नायक भी हो सकता है । नाटक मे नियमानुसार 


आधिकारिक ब्रृत्त कोई प्रख्यात (इतिहासप्रसिद्ध) कथावस्तु ही होती ह । 


यत्तत्रानुचितं किक्िन्नायकस्य रसस्य वा ॥२४॥ 
विरुद्धं तत्परित्याज्यमन्यथा वा प्रकल्पयेत्‌ । | 
[उस प्रख्यात त्तमे जो नायक के चरित्र दष्टिसे यारख की दष्टिसे 
शनुचित टो उख विरुद्ध अंश का परित्याग कर देना चाहिए या उसकी दूसरे 
रूप मे कल्पना कर लेनी चादिषए ।| 
्ञेसे राम एक धीरोदात्त नायक हेँ। उनका छलं से बाकिवध करना 
अनुचित दै । अतएव माथुराज ने अपने उदात्तराघव म उस वक्त को छोड 
दिया हे । वीरचरित मे उसको इस प्रकार बदल लिया हे कि रावण के भत्र 
भाव से बालि राम को मारने आया था । अतएव राम ने उसे मार डाला । 
मदयन्तमेवं निश्चित्य पच्चधातद्विभञ्य च ।॥२५॥ 
खंर्डशः सन्धिसंज्ञांश्च विभागानपि कल्पयेत्‌ 
[इस प्रकार आदि से अन्त तक कथावस्तु का निश्चय करके उसको पाच 
आगो म विभक्त कर ल्ञे। इन सन्धि नामकर्पाचों भागोंकोभी खण्डो में 
विभक्त करे ।| 
आशय यह है कि पदल्ञे तो कथावस्तु मे अनौचित्य ओर रस विरोध का 
परिहार करे । इस प्रकार जब कथावस्तु परिशद्ध हो जावे तब यह निश्चय कर 
ज्ञे कि कोन-सी वस्तु अभिनय के द्वारा रज्ञमञ्च पर दिखलाहं जावेगी ओर कौन 
सी वस्तु केवल सूचित की जावेगी । इस प्रकार फल का अचुसरण करते हुए 
उख कथावस्तु मे बीज, बिन्दु, पताका, प्रकरी ओर कायं इन पांच अथं प्रकृतियों 
करी करपना कर लेनी चाहिए अओओौर आरम्भ, यत्न, -मत्याशा, नियतापषि चौर 








ङः ( ~  ) 


फलागम इन पचा अवस्थानं के गुणों के अनुसार सुख प्रतिमुख गभ॑, विमशं 
ओर निव॑हण इन पांच सन्धियों मे कथानक को विभक्तं कर लेना चाहिए । इसके 
बाद एक एक सन्धि को लेकर प्रथम प्रकाश मे बतलाये हुये उपक्तेप इत्यादि 
भाग करने चाहिए । इख प्रकार आधिकारिक कथावस्तु को ठीक रूप म विभक्त ं 
कर लेने से उसका उचित अनुसन्धान होने लगता है । 

चतुःषष्ठिस्तुतानि स्पुरङ्गानीत्यपरं तथा ॥२६॥ 

पताकावृत्तमप्यूनमेकाचैरनु सन्धिभिः । 

अङ्गान्यत्र यथालाभमसन्धिं प्रकरीं न्यसेत्‌ ॥२७॥ 

[सन्धियों के अङ्ग ६४ होने चाहिए (जिनका वणन किया गया है । यह तो 
इदं आधिकारिक कथावस्तु की बात।) दूसरी कथावस्तु (प्रास ङ्गिक त्त) मे पताका 
(्यापक इतिवृत्त) एक दो अनुसन्धि से रहित होना चाहिए । सन्धियों के अंग 
जितने सम्भव ओर सुलभ हो सके उनको निवद्ध॒ करना चाहिए । छतु करी 
(एकदेशस्थ इतिवृत्ति) मे सन्धि्याँ नहीं होनी चाहिए ।] 

आधिकारिक इतिवृत्त म पाचों सन्धिर्यां होती है किन्तु पताका मे उसकी 
अपेरा एक दो न्यून होत है । क्योंकि पताका कम स्थान को वेरती है । कभी 
कभी पताका मे तीन या चार भी सन्धियां कम हो जाती हँ, अर्थात्‌ एक या दो 
सन्धि तक ही पताका सीमित हो जाती है। उण्चेपं इत्यादि अंगोंको इस 
प्रकार रखना चाहिए कि जिससे प्रधान का विरोध न होने पावे। पताका की 
सन्धियां आधिकारिक चत्त की सन्धियों का अनुसरण करती है । अतएव उसे 
लिए अनुखन्धि शब्द्‌ का प्रयोग किया गया है । 

कथावस्तु का विभाजन कर लेने पर नाटक के ्रारम्भ करने की परिपाटी का 
वणन नीचे दिया जाता है :- 

आदौ विष्कम्भकं कुर्थाद्ङ्क वा कार्ययुक्तितः। 

[कार्ययक्ति को सममकर उसके अनुसार भारम्भ मे या तो विष्कम्भक 
रखना चाहिए या अङ्क ||] 

कायेयुक्ति का आशय यह है :-- 

अपेक्षितं परित्यज्य नीरसं बस्तु विस्तरम्‌ ॥२८॥ 
यदा सन्दशयेच्छेषं कु्याद्विषकम्भकं तदा । 
यदा तु सरसं वस्तुमूलादेव प्रवतंते ॥२९॥ 
आदावेव तदाङ्कः स्यादामुखात्तेप संश्रयः | 

[यदि कथानक के अनुसन्धान के लिश वस्तु का विस्तार ्रपेिततो हो 
किन्तु नीरख समकर उसका परित्याग कर दिया जावे ओर शेष सरस वस्तु 
दिखलादई जावे तो उस नीरस वस्तु की सूचना देने के लिये विष्कम्भक करना 











( १५२ ) 
चाहिए । किन्तु यदि प्रारम्भसेही सरस वस्तु कौ प्रवृत्ति हो जावे तो विष्क- 
म्भक की आवश्यकता नहीं होती । एेसी दशा मँ आसुख का आश्रय लेकर उप 
युक्त प्रयोगातिशय इत्यादि के द्वारा बीज इत्यादि का आश्ेपं कर अङ्ग कोदही 
प्रारम्भ कर देना चाहिए । | | 

अङ्ककी परिभाषा यहदहै:-- 

प्रत्यत्तनेदृचरितो बिन्दुभ्याप्नि पुरस्कृतः ॥२०॥ 
अङ्को नानाभ्रकार।थेसंविधानरसाश्रयः ॥ 

[जिसमे नायक के चरित्र का प्रव्यक्त रूप से वर्णन किया जावे, जो द्वितीय 
प्रयोजन के प्रकृति भूत बिन्दु के उपर्प रूप अथे से युक्त हो । (बिन्दु का 
व्यापन जिस दृष्टि ॐ सामने रक्वा गया हो ।) ओर जो नाना प्रकार ड प्रयो- 
जनों के सम्पादन का अ्मौर नाना प्रकारकेरसों का आश्चय हो उसे अङ्क 
कहते हैँ ।] | 

जब रङ्ग प्रवेश (पूर्वरङ्ग) की प्रक्रिया समा हो जावे तो नायक के व्यापार 
का निदेश हो जाने पर तत्काल उसके चरित्र को प्रारम्भ कर देना चाहिए । 

अङ्क म दूसरी निम्नलिखित बातें होनी चाहिए ;- ` 

अनुभावविभावाभ्याम्‌ स्थायिना व्यभिचारिभिः ॥३१॥ 
गृहीतमुक्तैः कतेव्यमङ्गिनः परिपोषणम्‌ ॥ 

[अनुभाव विभाव ओर व्यभिचारी भावों तथा स्थायीभाव कै द्वारा इनको 
रहण करते हए ओर द्ोदते हुए अंगी (पधान रस के स्थायी भाव) को पुष्ट 
करना चाहिए ।| 

अङ्गो शब्द्‌ का अर्थ ह प्रधान रख का स्थायी भाव । उसकी पुष्ट विभाव, 
अनुभाव रौर सन्नारी भावं के दारः होगी ही । स्थायी भाव से उसकी पुष्टि 
करने का आशय यह है किं अप्रधान रस के स्थायी भाव से सुर्य रख के स्थायी 
भाव को पुष्ट करना चादिषु । गृहीत पतिसुक्तं कदने का आशय यद दकि 
अनुभाव इत्यादि को परस्पर मिलाना या इनको सापेक्त रखना चादिए । 

नचातिरसतो वस्तु दूरं विचछिन्नतां नयेत्‌ ॥३२।॥ 
रसं वा न विरोदध्याद्सबलङ्कारलक्नणः । 

[रख के अधिक विस्तार के द्वारा वस्तु को बहुत अधिक विच्छिन्न नहीं करना 
चाहिषट । इसी प्रकार वस्तु ओर कथासन्धि के अङ्ग उपमा इत्यादि अलङ्कारो 
तरस को मी तिरोहित नहीं होने देना चादिषए ।. 

एको रसोऽङ्गी कतेञ्यो वीरः ंगार एव वा ॥३३॥ 
ञंगमन्ये रसाःसवेकुयीन्निवेहणेऽद्धतम्‌ 

[शगार श्नौर वीर दोनों रसो मे एक को ही अङ्गी (पधान) बनाना चादिए । 








( १५३ ) 


, शेष सारे रख अङ्ग होने चाहिए । निव॑हण सन्धि मे अद्ुत रस का समावेश 
हाना चाहिए 1] 

(प्रशन) यह तो पहले ही (३ १बीं कारिकामें ही) कह दिया था कि दूसरे 
रसो के स्थायी भाव सख्य रस के स्थायी भावके्ंगहोना चाहिए । इससे 
यह तो सिद्धदहीदहो गया किएक रस प्रधानहोता है रौर दूसरा गौर । पुनः 
दस बात के कहने की क्या आवश्यकता थी कि "एक्‌ रख प्रधान हाता है ओर 
दूसरे रस गौण हेते हे ? क्या इससे पुनरुक्ति दोष नहीं आ जाता ? (उत्तर) इन 
दोनों उक्तियों मे मेद्‌ है । जहां पर यह कहा गया है कि एक ही रख प्रधान हो, 
वहां पर उसका आशय यह ह किं यदि प्रधान रससे भिन्न दूसरेरसका 
स्थायी भाव अपने अनुभावो विभावो, ओर सञ्चारी भावों से युक्त दिखलाया 
जावे ओर उसका उपनिबन्धन परिपूणं रूपं मे कर दिया जावे तो वह 
अप्रधान रस मुख्य रस का अद्ध होना चाहिए । इसके अतिरिक्त जहां पर यह 
कहा गया हे हि स्थायी भाव से भुख्य स्थायीभाव का परिपोष होना चाहिए 
उसका ग्राशय यह है §ि यदि केवल्न दू्रेरस का स्थाय भाव हो शौर उसका 
विभाव इ्यादि से किसी प्रकार का परिपोषन किया गयादहो तो वह दूसरा 
स्थायी भ।व मुश्य स्थायी के व्यभिचारी म।वकी भांति दही उश्षका परिपोषक 
हो जाता हे । 

दूराध्वानं वधं युद्धं राज्य देशादि विप्लवम्‌ ॥३४॥ 
संरोधं भोजनं स्नानं सुरतं चानुक्तेपनम्‌ । 
अम्बर अ्रहणादीनि प्रव्यत्ताणि न निर्दिशेत्‌ ॥३५॥ 

[द्र का मार्ग) वध, युद्ध, राञ्य श्रौर देश इत्यादि विप्लव, घेरा डालना 
भोजन स्नान सुरत, अनुलेपन, वस्त्र का पकड्ना इत्यादि (उद्वेजक) बातों को 
भ्रस्यक्त नहीं दिखलाना चादिए । (अर्थात्‌ एेसी बातों को अङ्गम स्थान नहीं 
देना चाहिए, केवल प्रवेशक इत्यादि से उनकी सुचना दे देनी चाहिए ।| 

नाधिकारि वधं क्वापि स्याज्यमावश्यके न च। 

[अधिकारी नायक का वध तो कभी दिखलाना ही नदीं चाहिए (ओौर 
सूचित भी नहीं करना चाहिए ।) आवश्यक का परित्याग भी नहीं करना 
चःहिष्‌ ।| 

अर्थात्‌ यदि आवश्यकता पड जावे तो देवकार्य या पितृकार्यं इत्यादि 
निषिद्ध वस्तु कहीं दिखला भी दी जावे तो कोई क्षति नहीं होतो । 

एकाहा  चरितैकाथेमिव्थमासत्रनायकम्‌ ।२६॥ 

पात्र ल्िचतुरेरङ्कं॑तेषामन्तेऽप्य निगमः। ` 
[एक ही दिनि मेंएक दही प्रयोजनसे सि गये कार्योको एक अङ्कने 
२० 


# ~ 














( १५४ ) 


दिखल्लाना चाहिए । अङ्क मे नायक निक्टवरती होना चाहिए । एक अङ्क म 
तीन या चार पात्र होना चाहिए श्रौर अङ्क के अन्तमें इन पात्रों को निकल 
जाना चाहिए ।) । 
पताकास्थानकान्यत्र विन्दुरन्ते च बीजवत्‌ ॥३५॥ 
एवमङ्काः प्रकतंव्याः प्रवेशादि पुरस्कृतः । 

[अङ्क मे पताकास्थानकं का भौ समावेष करना चाहिए । इसमे बिन्दु भी 
होना चाहिए ओर अन्तम बीज का परामश भी होना चाहिए । इख प्रकार 
प्रवेशक इ्यादि से युक्त अङ्क बनाना चादिए । | पताकास्थानक बिन्दु इत्यादि 
का लक्षण प्रथम अङ्क मे दिया गया ह । 

पच्चाङ्कतेतद्वरे दशाङ्के नाटकं परम्‌ ॥३८॥ 

[पाँच अङ्कवाला नाटक छोटा कहा जाता है मौर दश शङ्कोंवाला बड़ा 

कहा जाता हे || 
प्रकरणं 


श्रथ प्रकरणे वृत्तमुत्पाद्यं लोक संश्रयम्‌ । 
्ममात्यविप्रवणिजामेकं कया नायकम्‌ ॥३९॥ 
धीरप्रशान्त सायायं धमकामाथेतस्परम्‌ । 

= शेषं नाटकवत्संन्धि प्रवेशकरसादिकम्‌ ॥४०॥ 

[रकरण का इतिदृत्ति कवि करिषत लोक के अनुसार होना चाहिए 
(अर्थात्‌ उसमे उदात्त लोकोत्तरचारिथों का वणन नहीं होना चाहिश्‌।) 
मन्त्री बाह्लण बनिर्यां इत्यादि मे कोद एक नायक होना चादिए्‌ । प्रकरण का 
नायक धीरशान्त होना चाहिए, उखकी प्रयो जन सिद्धि आपत्तियों से युक्त होन 
चाहिए श्नौर उसको धम कायै की सिद्धि के लिए तस्पर दिखलाना चाहिए । 
शेष संधि भ्रवेश रस इत्यादि सारी बातं नाटक के समान होती हे ।| 

नायिका तु द्विधा नेतुः कुलखी गणिक्रा तथा । 
कचिदेकैव कुलजा वेश्या कापि द्वयं कचित्‌ ॥४१॥ 
कुलजाभ्यन्तरा बाह्या वेश्या नातिक्रयोऽनयोः । 

[प्रकरण की नाथिकादो प्रकार को होती है या तो बह कुलवती स्त्री 
होती है या गणिका होती हे । कड अक्तो कुलजाती होती है चौर कदीं 
केवल वेश्या ही होती है । कीं दोनों होती है । कुलजा घर के अन्द्र रहने 
वाली होतो है ओर वेश्या बाहर कीस्त्रीहोती है । इन दोनों का अतिक्रमण 
नहीं किया जाता । (अर्थात्‌ प्रकरण मँ कुलज या वेश्या नायिका होती है यहं 
नियम अनिवायं हे । मकरण की नायिका कोर अन्य नदीं हो सकती ।)] = ` 





( १५५ ) 


वेश के आधार पर जीवन निर्वाह करनेवाली स्त्री को वेश्या कहते ड । 
गणिका वेश्या का ही एक मेद्‌ होता है । इन दोनों मे मेद यह है ¦-- 
श्राभिरमभ्पथिता वेश्या सूपशीलगुणान्विता । 
लभते गणिका शब्दं स्थानञ्च जनसंसदि | 
| “यदि वेश्या इन सबसे अ्रभ्यर्थिंत हो ओर रूप शील गुण इत्यादि से युक्त 
होतो वह गणिका शब्द की।श्रधिकारिणी होती है ओर उसे जन समाजसे 
स्थान भी मिलता है । 
आभिः प्रकरणं त्रेधा कङ्कणं धूतं सङ्कुलम्‌ ।।४२॥ 
[इस प्रकार प्रकरण मेँ पात्रों का सङ्कार होता है ओर उसमे धूतं व्यक्ति भी 
भरे रहते हे । नायिका की दृष्टि से प्रकरण के तीन भेद होते हैँ ।] 
वे तीन भेद ये है--(१) जर्हां केवल वेश्या ही नायिका हो जैसे 
तरङ्गदत्त नामक प्रकरण । (२) जहां केवल कुलवती खी ही नायिका हो 
जसे पुष्पदूषितक नामक प्रकरण ओर (३) जहाँ दोनों सङ्खीणं नायिकायें हों 
जैसे खच्छकटिका । बदमाश जश्चारी इत्यादि धूर्तो से युक्त होने का उदाहरण 
जसे मृच्छकटिका नामक संकीणं प्रकरण । 
नायिका 
लच्यते नारिकाप्पत्र सङ्कीर्णान्यनिवृत्तये । 
[यहां पर नाटिका का भी लक्षण दूसरे सङ्कीणं भेदो की निवृत्ति के लिए 
लिखा जा रहा है ।] 
आशय यह है कि नाटक के समान नाटिका तो होती है किन्तु प्रकरण के 
समान प्रकरणिका इ्यादि नहीं होती । इसी बात को दिखलाने के लिए य्ह 
पर नाटिका का लक्षण लिखा जा रहा है । भरतमुनि ने एक श्लोक लिखा है :-- 
ग्रनयोश्चवन्धयोगादेकोभेदः प्रयोक्तभिजञंयः। 
प्रख्यातस्त्वितरो वा नरी संज्ञाधितेकाग्ये ॥ 
इसका अथं यह ह कि-- इन दोनों नाटक ज्रौर प्रकरण के संयुक्त बन्धन 
से प्रयोक्तारो को नटी संज्ञाश्रित काव्य मे एकह मेद्‌ समना चाहिए चाहे 
वह प्रख्यात हो चाहे अप्र्यात ।' किन्तु कतिपय विद्वान्‌ 'नरीसंन्ञाश्रितेः नौर 
“काव्येः इन दोनों शब्दों मँ सक्षमी का एक वचनन मानकर नपुंसकलिग की 
प्रथमा का द्विवचन मानते हँ ओर पद्य की भ्याख्या इस प्रकार करते है --“इन 
दोनों नाटक अर प्रकरण के बन्धन के योग से प्रथक्‌-पृथक्‌ एक मेद श्नौर सम- 
मना चाहिए । इस रकार नटी सं्ञाश्रित काव्य दो प्रकार का होता है--(१) 
यदि वृत्त प्रख्थरात हो तो उसे नाटिका कहते हे अओौर यदि अ्रप्रल्यात हो तो उसे 














( १५६ ) 


परकर शिका कहते है ।' इस प्रकार ये विचारक प्रकरणिका नामक एक मेद्‌ अर 
मानते है । छन्तु उनका यह विचार ठीक नहीं । क्यों कि भरतमुनि ने प्रकर 
शिकाकोन तो उदेश (नामों के गिनाने) म बतलाया हे ओर व उसका लक्षण 
ही चिखा है । यदि को किं नाटिका का ल्ण ही प्रकरणिका का लक्ण महता 
ज्ञाना चाददिए तो फिर इन दोनोंकोषएकदी क्यों न माना जावे? क्योकि 
लक्षण जब लक्षण एक ही हो गया तो मेद्‌ ही क्या रहं जावेगा 2 यद्यपि भरत- 
मुनि ने उद्देश मे नाट्कि को भौ खभ्मिलित नही किया है किन्तु उसका लक्षण 
कर दिया है। इसका आशय यह है किं जो पुरुष प्रधान लत्तण किये गये दहं 
उनकी खी पधानता होने परवेदही लक्तण मानकर सामान्य लक्षणो के आधार 
पर नाटिका इत्यादि मेद्‌ भी सम्भव थे किन्तु नाटिका का अलग से लक्तण बना- 
करं ज्तेखक ने मानों यह नियम बना दिया कि सङ्कीणों में केवल नारिकादही 
लिखी जानी चाहिए प्रकरणिका इष्यादि नदीं । इसी प्रकार त्रोटक इत्यादि का 
निषेध भी इसी सेहे जाता हे । । 

ञ्जब यहं पर यह दिखलाया जा रहा है किं नाटिका मेँ नाटक ओर प्रकरण 
का संकर किख प्रकार होता है :- 


तत्रवस्तु प्रकरणान्नाटकान्नायको चपः ॥४३॥ 
प्रख्यातो धीरललितः श्रंगारोऽङ्गीसलक्तणः । 

[उस (नाटिका) मेँ प्रकरण से तो वस्तु लेन चादिए ओर नाटक से कोद 
राजा नायकं लेना चाहिए जो प्रख्यात हो ओरौर धीरललित हो । अपने लको 
से परिपूर्णं शगार रस भधान होना चादिए ।| 

आशय यह हे कि नाटिका मेँ प्रकरण धम का आश्रय ल्ञेकर वस्तु तो कवि 
कल्पित होनी चाहिए ओर प्रख्यात नायक होना इत्यादि नाटक धर्मौ का पालन 
किया जाना चाहिए । इस प्रकार यह तो सिद्ध दी हो गया कि प्रकरणिका के 
लिए न तो कोद रेसी वस्तु ही रह जाती है ञ्रौर न कोड नायक ही रह जाता 
हे जो नाटक भ्रकरण शौर नाटिका मे सम्मिलित न हो चकाहो। फिर प्राकर- 
शिका को अलग से मानने का धार ही क्या रह जाता है? यदिश्ङ्ञंकी 
संख्या या पानां की संख्या के धार पर दोनों को भिन्न माना जावेगा तब 
तो अनन्त भेद हो जार्वेगे जैसा कि निम्नलिखित कारिका से स्पष्ट है :-- 

खीप्रायचतुर ङादि भेदकं यदि चेष्यते ॥४४॥ 
एकद्विन्यङ्कपात्रादि मेदे नानन्तरूपता । 

[यदि स्त्री-पा्रों की अधिकता ञ्नौर चार श्लोका होना इत्यादिको 
मेदक माना जावेगा तो एक अङ्क, दो अङ्क, तीन अङ्क, एक पात्र, दो पात्र, तीन 











( १५७ ) 


पात्र एक अङ्क ओर एक पात्र, एक शङ्क ओर दोपाच्र, दो अङ्क एक पात्र 
इत्यादि असंख्य भेद हो जावेगे ।| 
नाव्यशास्त्र म नाटिका के निरूपण के अवसर प्र लिखा है--“नारिका में 
स्त्री-पान्नों की अधिकता होती है, चार अङ्क होते है, ललित अभिनय होता है; 
इसमे गीत ओओर पाल्य की प्रवृत्ति रहती है; यह रति सम्भोर्मक होती दै । इसमे 
नायिका कामोचार से युक्तं होती है ओर प्रसाधन (श्वगार) ओरक्रोधसेभी 
युक्त होती है । इसमे नायक की दूती काभी समावेश होता है ओर यह 
नाटिका नायिका से अधिक सम्बन्धित होती है| 
उपयुक्त लक्ञणों मे खी पाचों की प्रधानता ओर चार अङ्कां का होना प्रधान 
लक्षण है । शेष बातं सामान्यहैं। (नाटिका का नाम ही यह बात सूचित 
करता है किं इसमे स्त्री पन्नं की अधिकता होती है ओौर इसमे कैशिकी वृत्ति 
का होना सूचित करता है किं इसमे अवमशं के अङ्गां की प्रचुरता नदीं होती । 
इससे इसके चार अङ्कं का होना स्वतः सिद्ध हो जाता है। 
नाटिका के विषय में विशेष बातं ये होती हैँ :-- 
देवी तत्र भवेञज्येष्ठा प्रगल्भा नृपवंशजा ।॥४५॥ 
गम्भीरामानिनी कच्छृत्तन्नेटृरशासंगमः ॥ 


[नाटिका में देवी (रानी) तो ज्येष्ठ होती है, यह पगल्भ होती है, राज- ` 
वंश म इसकी उत्पत्ति दई होती है, यह गम्भीर शओरौर मानिनी होती है शओ्नौर 
इसी (रानी) के आधीन नायक ओर नायिका का समागम होताहैजो बड़ी ही 
कनिस्ता से हो सकता हे ।| 

नायिका तादृशी मुग्धा दिव्याचातिमनोहरा ।॥४६॥ 

[नायिका भी ज्येष्ठा के ही समान राजवंशोष्पत्ति इत्यादि गुणो से विभ- 
पित होती है । किन्त भेद यह होता हैकिं नायिका मुग्धा होती है, दिन्य 
होती है ओर अत्यन्त मनोहर होती है ।| 

अन्तःपुरादि सम्बन्धादासन्नाश्रतिद शनैः । 
अनुरागोनवावस्पो नेतुस्तस्यां यथोत्तरम्‌ ।॥४५७॥ 
नेतातच्र प्रवर्तेत देवी त्रासेन शङ्कितः। 

[यह सुश्वा नायिका अन्तःपुर ओर संगीत इस्यादि मे सम्बद्ध रहने के 
कारण नायक के श्चुति गाचर भी हेती रहती ह ओर दशंन गेाचर भी । इस 
नायिका से नायक का अनुराग नवीन अवस्थामे हेता है। किन्तु उत्तरो. 
त्तर बढ़ता जाता रहै । नायक इस नायिका मे देवी केभय से शङ्भित होकर 
भ्रवत्त हाता है ।| 











( १५८ ) 


कैशिक्यगैश्चतुभिश्च युक्ताङकैरिव नाटिका ॥४८॥। 
[ जिस प्रकार नाटिका चार अहक से युक्त होती है उसी प्रकार कैशिकी 
भी चारों थङ्गों से युक्त होती है । | 
आशय यह है कि कैरिकी के जो चारों मेद्‌ उनके लक्षणों सहित बतलाये 
जा चुके है उन चारों अङ्गो म परव्येक का एक एक अङ्क मै उपनिवन्धन करना 
चादहिए। यदही,नायिका का साधारण परिचय है। 


भाण 
भाणस्तुधूतंचरितं स्वानुभूतं परेण ॒वा। 
यत्रानुवणयेदेको निपुणः पर्डितो विटः ॥४६॥ 
संबोधनोक्तप्र्यक्ती कु्यादाकाशमापितेः । 
सुचयेद्रीर ङ्गारौ शौ्यैसौमाग्यसंस्तवैः ॥५०॥ 
भूयसा भारतीवृत्ति रेकाके वस्तुकल्पितम्‌ । 
मुख निर्वहणे सगे लास्पाङ्गानि दशापि च ॥५१॥ 

[ जिसमे एक निपुण विट परिडत पसे धूतं चरित्र का वणन करे जिसका 
अनुभव उसने या तो स्वयं किया हो या किसी दूसरे व्यक्ति के अनुभव की बात 
हो उसे भाण कहते हँ । भाण मे वह विट आकाशभाषित का आश्रय लेकर 
सम्बोधन शओओौर उत्तर प्रव्युत्तर करे। (अर्थात्‌ क्या कहा {› अच्छा यह 
तुम्हारा कहना है ।› इत्यादि वाक्यों के द्वारा स्वयं ही उत्तर प्रत्युत्तर करता जावे ।) 
शौय का वणन करते हए वीर रस की सूचना दे ओर सौभाग्य का चरणन 
करते हश्‌ श्चगार रस की सूचना दे । (क्योकि इन रसों का पूणं परिपाक तो 
सम्भव है ही नहीं; अतएव सूचना ही दी जा सकती है ।) इसमे अधिकतर ` 
भारती वत्ति का आश्रय लिया जाता है। (इसीलिए इसे भाण कहते हं ।) 
इसमे अज्ञो के सहित सुख या निवैहण सन्धियं मेँ कोद एक ही सन्धि होती 
हे । वसु कल्पित होती दै । रौर लास्य के दसो अङ्ग होते है|] 

लास्य के ग्यारह अङ्गो का नाव्यशास्त्र में इस प्रकार वणन किया गया 


१-- गेय पद--जिखर वीणा इत्यादि गान के उपकरणों के सामने रख 
कर सांमोपाङ्ग विधि से कोई स्त्री अपने प्रियतम के गुणो का श्ुष्कगान करती 
ह । उसे गेय पद्‌ कहते ह । 

२- स्थितपाल्य -जिसमे कोड खली वियो गावस्था म कामास्नि से संतप्त होकर 
्राकृत षाठ करे उसे स्थितपाल्य कहते ईँ । 

२-्रासीन--जिसमे चिन्ता भौर शोक से युक्त होकर स्थित हुआ 








( १५९ ) 


जवे शरीर को संकुचित कए लिय। जवे ओर कुटिल दृष्टि से देखा जावे उसे 
आसीन कहते हें । | 

४ -पुष्पगरिडका-जब स्त्री पुरुष वेष मे सखियों के मनोरञ्जन के लिए 
ललित संस्कृत मे गाना गावे तो उसे पुष्पगरिडका कहते हे । | 

£ - प्रच्छेदक - जिसमे चन्द्रातप से पीडित होकर स्त्रियां अपकार करने- 
वाल्ञे भी प्रतियों मे आसक्त हो जाती हँ उसे प्रच्छेदक कहते हं । 

६-त्रिगूड-जिस नाव्यमे निष्डुरता रहित थोडे से पद हो, जो सम- 
बरतो से अलंकृत हो ओर जिसमे पुष्पभाव की अधिकता हो उसे त्निग$ कहते हे । 

७ -- सैन्धव -जिसमे पान्न सङ्केत को भुला सका हो, स्पष्ट रूप से करुणा 
से युक्त हो ओर प्राकृत भाषा में वचन बोलले उसे सैन्धव कहते ह । 

८ -द्विमूढक -जिस शुभ अथैवाल्ञे गीतों का अभिनय किया जावे; पदक्रम 
चारों ओरकीहो; स्पष्ट भाव ओर रसों से थुक्तहो भौर जिसमे अनावरी 
चेष्टायें हों उसे द्विमूढक कहते है । 

8 - उन्तमोत्तमक- जिसमे अनेक रसो का आश्रय लिया जावे, जो विचित्र 
श्लोक बन्धों से युक्त हो ओर जिसमे हेला भाव भी विद्यमान हो उसे उत्तमो. 
तमक कहते हे । 

१ ०--विचित्रपद्‌-यदि भतिङृति को देखकर कामाग्नि पीडित मनकों 
विनोदितं किया जावे उसे विचिन्रपद्‌ कहते है । 

११--उक्तग्रसयुक्त-जो कोप ओर प्रसन्नता से युक्त हो ओर अाकतेप पूणं 
शब्दं से युक्त हो तथा जिसमे गीत अथं की योजना कर दी जावे उसे उक्त 
` श्रसयुक्त कहते हैँ । 

१२--भावित-जां स्वप्नगत प्रियतम को देखकर विविध भाव प्रगट किये 
जावे उसे भावित कहते हे । 

लास्प के इन १२ अंगों मे विचित्र पद्‌ ओर भावित को कतिपय आचार्य 
स्वीकार नहीं करते । उनके मतम १० ही लास्पके अङ्ग होते हैँ । इसी आधार 
पर ्रस्तुत अन्थकार ने भी १० ही अङ्ग माने है । उनके नाम नीचे कीकारि- 
काञ्च मे दिये जाते है । 

गेयपदं स्थितं पाल्यमासीनं पुष्पगण्डिका । 
प्रच्छेदक श्िगूढं च सेन्धवाख्यं द्विगूढकम्‌ ॥५२॥ 
उत्तमोत्तमकं चान्यदुक्तप्रस्युक्तमेव च । 
लास्ये दशविधं ह्य तदंग ॒निदेशकल्पनम्‌ ॥५३॥ 

[ लास्प की गेयपद इत्यादि खूप मे १० प्रकार से अङ्गकल्पना की जाती 

ह ।] इनके लक्ण उपर दिये जाचुकेहै। 





1 5.१ कथ 





| 


( १६० ) 


प्रहसन 
तद्त्‌ प्रहसनं बेधा शुद्धवैकृतसंकरः । 

[ प्रहसन भाण से ही मिलता-जुलता रूपक होता है । इसके तीन भेद 
होते ह शद्ध, वैत ओर सङ्कर ।] भषण से मिलता हुआ कहने का 
आशय यह है कि प्रहसन श्नौर भाण दोनों मँ वस्तु सन्धि सन्घ्य्ग ञ्नौर लास्पं 
इस्यादि एक जैसे होते हें । 

(अ) ड -- 

पाखरिडिविग्र प्रभेति चेट चेटी विटकलम्‌ ॥५४॥ 
चैष्टित वेषभाषाभिः शुद्धं हास्यवच।न्वितम्‌ । 

[ पाखण्डी (बौद्ध नागा इत्यादि) विभ्र (अल्यन्त सीधे ओर केवल जाति 
का आश्रय लेकर निर्वाह करनेवाल्ञे चेट चेटी ओर विट इत्यादि से घिरा हु्ा, 
तेष ओर भाषा मे उन्हीं की चेष्टां से युक्त ञ्ओर हास्य बचनों से युक्त शुद्ध 
श्रहसन होता है।] आशय यह हे कि प्रहसन का अङ्गोरख हास्य होता है, 
पाखण्डी ओर विप्रां का ठीक रूप मेँ व्यवहार उपनिवदध किया जाता है 
नौर यह चे चेटी के व्यवहार से युक्त होता है । इसीलिए यह शुद्ध प्रहसन 
कहलाता हे । 

(आ) वैकृत ओर (इ) सङ्कर : - 

कामुकादि वचो वेषैः षण्ड क्च तापसैः ॥५५॥ 
विकृतं सङ्करा द्रीध्या सङ्कोणे' धूतं सङ्कुलम्‌ । 

[जो कामुक इत्यादि (बदमाश साहसी योद्धा इस्यादि) की वेष ओर भाषा . 
धार करनेवाले नप्‌ सक कड्ककी ओर तापस इत्यादि से युक्त हो उसे वैकृत 
प्रहसन कहते ह ्नौर वीथी के अङ्गां से सङ्कीणं होने के कारण पतो से धिरे 
हए प्रहसन को सङ्कीणं कहते हे । | वेङ्ृत के नामकरण का कारण यहं हे किं 
इमे विभाव अपने स्वस्प को छोड़कर विहृत रूष धारण कर ज्ञेता हे । अर्थात्‌ 
नट नपुंसक दध्यादि का रूप बनाकर आते ह ओर चेष्टायं कामुक योद्धा 
इस्यादि की भाति करते हे । | 

रसस्तुभूथसला कायैः षड्विधो हास्य एव तु ॥५६॥ 

[हः प्रकार के सभी रस अधिकतर हास्य मै ही पर्णित कर दिये जाने 
चाहिए ।| 

नाव्यशास्त्र म प्रहसन के विषय मे लिखा है --'प्रहसन भी दो प्रकारका 
होता हे एक तो शद्ध ओर दखरा सङ्कीणं । शुध प्रहसन म रेश्वयैशाली तपस्वी 
मिद्ध श्रोत्रिय इत्यादि की अत्यंत होतो है; नीच जन इसका प्रयोग कस्ते है; 








( १६१ ) 


ह परिहास के अभो से युक्त होता है ।;८ >. ८ >८ ०८ > इसमे भाषा 
ओर आचार दृष्यादि विहृत नहीं होते । ›‹ >< ›‹ >< > + जिसमे वेश्या चेर 
नपुंसक धूतं विर ओर बंधकी (बदमाश स्त्री) विमान हों उसको अनिश्रित ` 
वेष भाषा श्चौर आचार का अभिनय करने के कारण सङ्कोण प्रहसन कहते है ।' 


डिम 


डिमे वस्तु प्रसिद्धं स्यादुवृत्तयः कैशिकीं बिना । 
नेतारो देव गन्धवै यत्तरक्तो महोरगाः ॥५५॥ 
भूतप्रेत पिशाचाश्च षोडशाव्यन्तमुद्धताः । 
रसेरहास्य श्ङ्गारैः षडि मरदीप्तैः समन्वितः ॥५८॥ 
मायेन्द्रजालसङ्गम क्रोधोद्धान्तादिचेष्टितैः। ` 
चन्द्र सूयोपरागैश्च न्थाय्ये रौद्र रसीऽङ्गिनि ॥५९॥ 
चुर ङश्च तुस्सन्धिनिविमशीं डिमः स्मृतः । 

[डिम मेँ इतिदृत्त प्रसिद्ध होता है; कैशिकी को छोड़कर चौर सब वृत्तिर्या 
होती ह, देव गन्धवं यन्त रा्तस श्मौर महासपं इत्यादि इसके नेता होते हैः 
भूत प्रेत पिशाच इत्यादि १६ अस्यन्त उद्धत पात्र होते है; शङ्कार यौर हास्य 
को छोडकर शेष छः (वीर, रौद, वीभत्स, अद्भुत, करुण ॒शओओर भयानक) रस 
होते हे । इसमें माया, इन्द्रजाल, सङ्गम, कोध ओर उदूभान्त इत्यादि चेष्टाये' 
तथा सूये श्र चन्द्र का उपराग (गरहणं) इत्यादि दिखलाया जाता हे । न्याय्य 
रौद्र रस अङ्गीरस होताहै; चार अङ्कहोते ह गौर विमशं को छोडकर चार 
सन्धियाँं होती हँ । | 

डिम का अथै हे समूह । इसे नायको का सामूहिक व्यापार दिखलाया 
जाता है । इसी लिए इसे डिम कते हे । डिम मँ भस्तावना इत्यादि नाटक के 
समान होती हँ । इसमे यही प्रमाण है कि भरतमुनि ने त्रिषुरदाह नामक 
इतिचत्त को डिम कहा है । इससे सिद्ध होता है कि त्रिपुरदाह मजो बाते 
हैवेहीडिममे दोनी चाहिए । 

व्यायोग 


ख्यातेतिवृत्तो व्यायोगः ख्यातोद्धतनराश्रयः ।॥६०॥ 
हीनो गभविमर्शाभ्यां दीपाः स्युः डिमवद्रसाः । 
अखोनिमित्तसंम्रामो जामदागन्यजये यथा ॥६२॥ 
एकाहा चरितेकाङ्को व्यायोगो बहभिनरः । 
[्यायोग उसे कहते हँ जिसमे इतिढृत्त प्रख्यात हो, जिसमे प्रल्यात भौर 
उद्धत नायक का श्राश्रय लिया जावे, जिसमें गमं अौर विमशं चे दो सन्धिर्यौ 


२९ 








( १६२ ) 


नहो । इसमे मो डिम के समान दही रस प्रदीप होते है इसमे जो | 
दिखलाया जाता है वह स्त्रीनिमित्तक सं्राम नहीं होता । जैसे जाम द्गन्यजय में 
(परशराम ने पितृवध से कुपित होकर सहच्राजज॑नवध किया है ।) स्तरीनिमित्तक 
संग्राम नहीं हे । एक दिन के चरित्र का इसे वणन होना चाहिए ओर बहुत 
चे व्यक्तियों के द्वारा इसमे अभिनय किया जाना चादिए । इसमे एक ही अद्ग 
होना चादिए ।] 

व्यायोग शब्द्‌ का अथ है जिस बहुत से व्यक्ति व्यायुन्त हों । डिम के 
समान दीक्ष रस कहने का आशय यह हे कि इसमे हास्प ओर श्ङ्गार नही 
होना चादिए । रस वृत्यास्मक हञ्रा करते हे । अतएव न कहने से भी यदी 
व्यक्त होता है किं इमे रस के समानदही ेशिक्ौ से रहित इतरदृत्ति्यां 
-होती हे । कारण यह है किं कैशिकी श्र मधान होती है । अतएव श्रङ्गार 
की निवृत्ति से कैशिकी को स्वतः निवृत्ति हो जाती है । नाव्वशस्त्र मं व्यायोग 
का एक ही अङ्क होना लिखा है । अतएव "एक दिन का चरित्र एक अङ्कसं 
दिखलाया जावे' यह अथ न करके ' एक दिन का चरित्र हो श्रौर एक अङ्क हो' 
यही अर्थं करना चादिषए । 


समबकार 


कार्यः समवकारेऽपि असुखं नाटकादि वत्‌ ॥६२॥ 
ख्यातं देवासुरं वस्तु निर्विमशांस्तुसन्धयः । 
वृत्तयो मन्द्कैशिक्यो तेतारोदेवदान वाः ॥६३॥ 
ददशोदात्त विख्याताः फलं तेषा प्रथक्‌ एथ । 
बहुवीर रसाः सवे यद्वद्स्भोधिमन्थने ।।६४॥ 
शङ्के खिभिखिकपटलिशज्गारखिविद्रवः = । 
द्विसन्धिरङ्कः प्रथमः कार्यो द्रादशनालिकः ॥६५॥ 
` चतुद्रिनालिकावन्त्यो नालिका घटिकार यम्‌ । 
वस्तुस्वम।वदैवारिकृताः स्युः कपटाखयः ॥। ६६॥ 
नगरोपसोधयुद्धे वातागन्यादिकविद्रवाः । 
धमाौ्थकामैः शृङ्गारो नात्र जिन्दु प्रवेशकौ ॥६५॥ 
वीथ्यङ्गानि यथालाभं कयोःप्रहसने यथा । 
[खमवकार मे भी नाटक इत्यादि के समान ही आख की रचना करनी 
` चाहिए । उसमे वस्तु देवताओं मरौर राक्षसो के विषय मे कोद प्रसिद्ध. इतिवृत्त 
होना चादिषु । सन्धियां चार होनी चादिषु । विमशं सन्धि नहीं होनी चाहिए । 
वृत्ति सभी दोन चाहिए; किन्तु कैशिकी की न्युनता होनी चादिए । प्रसिद्ध 














( १४३ ) 


देव ओौर दानव धीरोदात्त प्रकृति के १२ नायक होना चाहिए । उनके फल 
(कार्य) भी प्रथक्‌ प्रथक्‌ होना चाहिए । सबके अन्दर वीररस की अधिकता 
होनी चादिए जैसे समुद्रमन्थन मेँ (देव चौर राकस पात्र है; पथक्‌ थक्‌ 
लचमी इत्यादि की प्राति उनका फल है नौर सबके अन्दर वीररस कौ अधिकता 
(प्रधानता) हे ।) तीन अंक होने चादिए; तीन कपट होने चाहिए; तीन शङ्कार 
होने चादिए ओर तीन विद्रव होने चाहिए । पहला अङ्क मुख ओर प्रतिमुख 
इन दो सन्धियों से युक्त १२ नादियों (२४ घड़ी) का होना चाहिए । दूसरा 
अङ्क ४ नाड़ी का रौर तीसरा अङ्कदो नाडी का होना चाहिए । तीन कपरये 
होते है- -(१) वस्तुस्वभावङृत, (२) देवङृत अ्रौर (३) अरिक्त । इसी प्रकार तीन 
विद्रव ये होते है (१) नगरोपरोधङृत, (२) युद्ध कृत श्रौर (३) वाताग्निकृत । 
तीन शङ्कार ये होते हँ --(१) धमै शङ्गार, (२) अर्थं शङ्गार अओौर (३) काम शङ्कार । 
तीनों कपट रौर तीनों विद्रवो मे कों एक ्रवश्य होना चाहिए | शङ्गासें 
मे एक अङ्क मे एक शङ्गार अवश्य होना चाहिए । (नाटक मे कहे हए भी) 
बिन्दु ओर प्रवेशक इसमे नहीं होना चाहिए ओर जहां तक सम्भव हो वीथी 
के अङ्गां का सन्निवेश समवकार मै अवश्य होना चाहिए ।] 

समवकार शब्द्‌ का श्रथ है जिसमे योजन समवकीणं किये जावे। 
समवकार मे कदं नायको के प्रयोजन समवकीणं या संग्रहीत किये जाते है 
यही इसके नामकरण का कारण है । नाद्यो का नियम बना दिया गया है 
किन्तु कथानक के विस्तार की दृष्टि से उसमे परिवतंन भी क्ियाजा सकता 
ह । ध्मैपली के साथ शङ्कार चेष्टां को धर्मं शृङ्गार कहते हे; लोभवश जो 
शृङ्गार चेष्टा की जाती हैँ उसे अर्थं शृङ्गार कहते है श्रौर परकीया के 
साथ जो श्वंगार चेष्टाएं होती ह उसे काम शङ्गार कहते है । 


वीथी 


वीथी नुकैशिकीवृत्तौ सन्ध्यज्गाङ्क स्तुभाणवत्‌ ॥६८॥ 
रसः सृच्यस्तु श्ङ्गारः स्प्रशोदपि रसान्तरम्‌ । 
युक्ता प्रस्तावना ख्यातैर ङ्गरुद्धात्यकादिभिः ॥६९॥ 
एवं वीथी विधातन्या द्रयेकपात्रप्रयोजिता । 

[वीथी .कैशिकी इत्ति मे होती है । इसमे सन्धि के अङ्ग ओर अङ्क भाण के 
समान होते है । शङ्गार रस की स्रूचना दी जाती है नौर दूसरेरसों का भी 
स्पशं होता है । प्रस्तावना के बतलाये हुये उद्धात्यक इत्यादि अङ्गो से यक्त होती 
है । इस प्रकार दो या एक पात्रों से अभिनति वीथी का विधान करना चादिषु ! 
वीथी शब्द्‌ काञ्चथै है मागं या पंक्ति । इसमे अङ्गोंकी पंक्ति होती है। 








( १६४ ) 


इसी लिए इसे वीथी कहते हैँ । इसमे अङ्गा कौ पंक्ति भाण के समान होती है । 
शङ्कार रस का पूणं परिपाक नहीं हो पाता इसी लिए बह अधिकतर सूचित 
किया जाता ह । शङ्कार रस के शरौचित्य के कारण से ही कैशिकी इत्ति का विषान 
किया जाता हे । 
अङ्ग 

उत्सृष्टि काकं प्रख्यातं वृत्तं बुद्धया प्रपक्छयेत्‌ ।७०॥ 

रसस्तु करुणः स्थायी नेतारः प्राकृताः नराः । 

भाणवत्सन्धिवृत्यङ्ग : युक्तः खी परिदेवितैः ॥५१॥ 

वाचायुद्धःविधातन्यं तथा जय पराजयो । 

[उत्सृष्टिकांक अर्थात्‌ १० रूपकों मे गिनाये हुये अंक नामक मेद्‌ मे प्रख्यात 
वृत्त का ही उपादान करने उसे कल्पना ते स्वयं ही विस्तृत कर देना चादिषु 
इसमे करुणरस प्रधान होता है माङृत व्यक्ति नायक द्र दृखरे पात्र होते है । 
सन्धि ओर वृत्ति के अग भाणके समान होतेह । यह च्ियों के विलापसे 
युक्त होता है । इसमें युद्ध का विधान वाणी केद्वारा करना चाहिए ओर 
इसी प्रकार जय भ्नौर पराजय भी वाणी केद्वाराही बतलानी चाहिए ।| इसका 
नाम अंक ह । नाटकं के अवान्तर विभागों को भी श्रकं कहते ह । अतएव जम- 
निवारण के लिए उत्सृष्टिकांक शब्द्‌ का अयोग किया गया है । 


ईहाषृग 
मिश्र मीदामृगेवृत्तं चतुरङ्क त्रिसन्धिमत्‌ ॥५२॥ 
नर दिन्यावनियमान्नायकप्रतिनायकौ | 
ख्यातौ धीरोद्धताबन्त्यो विपरियासादयुक्त कृत्‌ ॥५३॥ 
दिव्यस्ियमनिच्छन्ती मयहारादिनेच्छतः। 
शंगाराभासमप्यस्य किच्िक्किच्िसपरदशयेत्‌ ॥५४॥ 
संरम्भं परमानीय युद्ध व्याजान्निवारयेत्‌ । 
वधप्राप्रस्य कुर्वीत बधं नैव महात्मनः ॥५५॥ 

[हहामृग मेँ मिश्र , ख्यात ञ्नौर कविकल्पित दोनों प्रकार का) वृत्त होता 
हे । चार श्रंक होते है ओर तीन सन्धिर्यां होती हं । मनुष्य ओौर दिव्य पुरुष ये 
बिना नियम के नायक श्रौर म्रतिनायक होते है (अर्थात्‌ दो मे से कोर भी 
नायक शओओौर दूसरा प्रतिनायक हो सकता है ।) दोनों ही इतिहास सिद्ध व्यक्ति 
होते हे । उनमें प्रतिनायक धरोद्धत होता है ओर कार्य्तान के उलट फेर से 
अनुचित कायै किया करता । कभी कभीन चाहनेवाली दिव्य स्त्रीको 
अपहरण इत्यादि के दवारा चाहनेवाल्ञे नायक को श्गाराभास भी ङच्‌-ङचं प्रदशित 











(8, ~) 


करना चाहिए । बहुत बड़ी उत्तेजना की स्थिति ज्ञे आकर किसी बहानेसे 
युद्ध को राल देना चाहिए । महास्मा के वध को स्थिति को उस्पन्न करके वध 
करवाना नहीं चादिषए । | 
इसका दंहामृग नाम इसलिए पडा है किं इसमे नायक मृगके समान 
अलभ्य नायिका की ईहा (इच्छा) करता हे । 
उपसंहार 
एवं विचिन्त्य दशरूपक लदममागं- 
मालोक्य वस्तु परिभाव्य कविप्रबन्धान्‌ । 
कुयांदयत्नवदलंकृतिभिः प्रबन्धं 
वाक्येरुदारमधुरेः स्ुटमन्द वृत्तैः ॥ 
 [ इस प्रकार दसरूपकों के लक्षणो के मागं को विचारकर वसतु को देख- 
कर ओर कवियों के प्रबन्धों को समकर प्रबन्ध रचना करनी चाहिए जिसमें 
अलङ्कार चिना ही प्रयत्न के सन्निदिष्टहों रहे हों अर्थात्‌ अलङ्कारो के लाने 
का प्रयत्न न किया जावे फिर भी अलङ्कार आ ही जावे । वाक्य उदार (उच्च- 
कोटि के) ओर मधुर तथा छन्द्‌ स्पष्ट ओर सरल होने चाहिये ।] 








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चतुथं प्रकाश 


रख काव्य ओर नाव्य का सर्वप्रधान तत्र है । बिना रस के किसी भी अथं 
की प्रधृत्ति ही नहीं होती । अतएव इस प्रकाश मँ रस के विषय मे विचार 
किया जा रहा है । इसकी सामान्य परिभाषा यह है कि विभाव अनुभाव चनौर 
व्यभिचारी भाव के संयोग से रस की निष्पत्ति होती दै; इसको इस प्रकार 
समना चाहिए कि जिस प्रकार काव्यज्जनों अौर ओषधि द्रव्यो के संयोग से 
मधुर इत्यादि रसो की उस्पत्ति होती है । उसी प्रकार नाना भावो के संयोग 
से श्व॑गार इत्यादि रसो की भी निष्पत्ति होती है । यही बात निम्नलिखित 
कारिका ने बतलाई जा रदीहै:- 


विभावैरनुभावैश्च साचिकैव्य॑भिचारिभिः । 
श्रानीयमानः स्वाद्यत्वं श्थायीभावो रसः स्मृतः ॥ 


[ विभाव, अनुभाव, सास्विक भाव नौर व्यभिचारी भाव के द्वारा जो स्थायी 
भव आस्वादन के योग्य बना दिया जाता ह उसे रख कहते दँ ।| व्यभिचारी 
भाव काही एक रूप सालिक भाव भी होता है । अतएव नाव्यशास्त्र की परि 
भाषा से इस लक्वण मे कोद विरोध नहीं आता । 


विभाव, अनुभाव, व्यभिचारी भाव ओौर सात्विक भावों के स्वरूप ओर 
स्वभाव का आगे चलकर निरूपण किया जावेगा । जब ये विभाव इत्यादि या तो 
काव्य से उपादान हो या अभिनय म इनका प्रदशंन किया जावे उस समय श्रोता 
या दशको के हृदयो मँ विस्फुरित होनेवाला रति दष्यादि*स्थायी भाव, जिसका 
ल्च्तण आगे चलकर लिखा जावेगा, स्वाद्‌ गोचर हो जाता है अर्थात्‌ वह विपुल 
आनन्दमय ज्ञानस्वरूप बन जाता है तब उसे रस कहने लगते हे । 


इससे यह सिद्ध हो जाता है कि षान ओर आनन्द्‌ का अधिष्ठान होने के 
कारण सामाजिकमे ही रस रह सकता है। कारण यह है कि जान ओर 
ञ्रानन्द चेतन धर्म॑ है । अतएव ये कान्य इत्यादि अचेतन मे नहीं रह सकते । 
किन्तु काव्य उस मकार के आनन्दमय कषान की चेतना को उन्मीलित करने मे 
कारण होता है । श्रतएव जैसे आयु की बृद्धि मे हेत होने केकारण घी को आयु 
कहने लगते है; उसी प्रकार आनन्दमय चेतना के उन्मीलन में हेतु होने के 
कारण कान्य को भी रसमय कहते हैँ । 








२. 


( १६७ ) 
विभाव 


विभाव की परिभाषा यह है :- 
ज्ञायमानतया तत्र विभावो भावपोषक्रत्‌ । 
आलम्बनोदीयनत्व प्रभेदेन स च द्विधा॥२॥ 


| उन रस परिपोषक तच्वों मजो जाना हु्चा होकर भाव को पुष्ट 
करता है उसे विभाव कहते हँ । यहे आलम्बन ओर उहीपन केमेदसेदो 
प्रकार काहोता है ।] 

रूपकातिशयोक्ति अलङ्कार की परिभाषा यह है जहां पर रूपक (उपमान) 
रूप्य (उपमेय) को निगल जावे अर्थात्‌ जव प्रयोक्ता उपमेय का प्रयोग कर 
केवल उपमान काही प्रयोग करता है तव उसे खूपकातिशयोक्ति कहते हें | 
जैसे “मुखचन्द्र दिखलाई पड़ रहा है, इसके स्थान पर कहा जावे--"चन्द् 
दिखलाई पड़ रहा हे ।' यही बात विभावके विषय मेकही जा सकती है। 
वहां पर भी नट का राम इत्यादिके खूप मेँ सविशेष परि्तान इसी अतिश- 
योक्ति रूप कान्य व्यापार केद्वाराहौ हुश्रा करता है। उस समय उसे विभाव 
कहते हे । विभाव शब्द्‌ का अथै ह विभावन करना या मत्यायन करना अर्थात्‌ 
ज्ञान का विषय बनाना । यह विभावदोखूपोंमे ज्ञानका विषय बनता है 
एक तो आलम्बन के रूप मँ जिसका सहारा पकड़कर रति इत्यादि भाव उदूबुदध 
होते हैँ ओर दसरा उदीपन के रूप मे जिसके सहारे से उदुबुद्ध रति इत्यादि 
भाव अधिक बदाये जाते ह । इस प्रकार विभाव दो प्रकारके होतेह एकतो 
आलम्बन विभाव जैसे नायक नायिका इत्यादि ओर दूसरा उद्दीपन विभाव 
जैसे देश ओर काल इस्यादि। जाने हुए को विभाव कहते हे इसमे यही प्रमाण है 
कि प्रायः कहा जाता है कि "विभाव का अर्थं ही विक्तात वस्तु है । जिस रस 
के लिएुजो विभाव होते हँ उनका अवसर के अनुसार रसोंमे ही उपपादन 
किया जावेगा । यहां पर यह प्रश्न उपस्थित हो सकता है कि अतिशयोक्ति 
अलङ्कार मे ज्ञात वस्तु पर ज्ञात वस्तु का ही आरोप किया जा सकता दै; 
उसमे सुख ओर चन्द्र इत्यादि आरोप्य ओर अरोपित विज्ञात दही होते ह । 
न्तु विभाव के विषय मे यह बात नहीं कही जा सकती । नट के उपर जिन 
कंस इत्यादि का आरोपे क्रिया जाता है वे दशंकों ओौर श्रोता के जाने हुए 
ओर देखे हश होते ही नदीं ओर कुदं नायक तो ठेसे होते है जिनके विषय मेँ 
दशको ने कु सुना भी नहीं होता; केवल वे कवि कल्पित ही होते है । श्रभ्य 
कान्य मे आरोप्य (नट) भी नहीं होता फिर यह आरोप सम्भव किस प्रकार 
होस कता है ? इसका उत्तर यह है ि यद्यपि इनकी बाह्य सत्ता नहीं होती 





= ~~~ 


गा 1 व „त 2 











( १६८ ) 


मौर न उको अपे ही होती है किन्तु शष्ट के अधर पर ही इनके बाह्य 
रूप की सत्ता का आधान कर लिया जाता है। सामान्य रूपमे (साधा- 
रणीकरण छी प्रक्रिया से) वे पाठकों ज्नौर दशकं की अपनी टौ वस्तु 
्ञात होने लगते हे । अपणव यह नहीं कहा जा सकता हे कि आलम्बन इत्यादि 


` विभाव, जो कि भावक के चित्त म साक्तात्‌ विस्फुरित होते ह, वस्तु शून्य हे । 


यही बात भर्वृहरि ने लिखी है :-- 
शब्दोपहितरूपांस्तान्‌ बुद्धर्विषयतां गतान्‌ । 
प्रत्यत्ञमिवकंसादीन्‌ साधनत्वेन मन्यते ॥ 


शब्द्‌ के द्वारा जिनके रूप का आधान होता है जो शब्द्‌ के द्वारा ही बुद्धि 
का विषय बन जाते है इस अकार के कंस इत्यादि को (भावक) प्रव्यक्त रूप में 
साधन मान ज्ञेता है ।' 

यही बात षट्सादख्रीकार ने भी जिखी है कि-- दन (विभावो) से 
सामान्य गुणो के योग से रस निष्पन्न होते हँ ।' 

अलम्बन विभाव का उदाहरण :-- 


न्रस्याः सर्गविधौ प्रज्ञापतिरभूचन्द्रो नुकान्तिप्रदः। 
श्रंगरिक निषिःस्वयं नु मदनोमासोनुपुष्पाकरः | 

वेदाभ्यासजडः कथं नु विषयव्यावृत्त कौतूहलो । 
निर्माति प्रभवेन्मनोहरमिदं सूपं पुराणो मुनिः ॥ 


(इस नायिका को निर्माण विधि मे कान्तिको प्रदान करनेवाला चन्द्रमा 
ही भ्रजापति बन गयाथाया शगार का एकमात्र कोष स्वयं कामदेव ही बह्मा 
बनाथाया कि पुष्पों की रासिवाला वसन्त मास ही ब्रह्मा बना था; इसे 
सन्देह नहीं छि वेदाभ्यासं के कारण जड समस्त विषयों से निदत्त कौतूहल- 
वाला पुराना मुनि (प्रसिद्ध बह्मा) इतने मनोहर रूप की रचना करने मेँ समथ 
हो ही कैसे सकता था ?' 

उद्दीपन विभाव का उदाहरण ः- 

त्रयमुदयति चनद्रश्चन्दरिका धोतविश्वः, 
परिणतविललिम्नि व्योन्नि कपूर गोरः । 

ऋजुरजतशलाका स्प्धिभिर्य॑स्य पादैः 
जगदमलमृणालीपञ्ञरस्थं विभाति ॥ 

वादी से सारे संसार को धो डालनेवाला यह चन्द्रमा: उद्य हो रहा 
है; यह परिपाक को प्राक्च नि्मलतावाले आकाश म कपूर के समान गौर वणं 
का प्रतीत हो रहा है; जिसकी सीधी र्चादी की सलाद्यों से स्पधां करनेवाली 








(, १88 ) 


भि से यह संसार निमैल शरणाली के पिज्डेमे विराजमानसा शोभितो 
रहा 


अनुभाव 
अनुभावो विकारस्तु भावसंसूचनात्मकः । 

[भाव को सूचित करनेवाले विकार को श्रनुभाव कहते हे ।] 

भर विह्तेप कटाक्त इत्यादि भाव स्थायी भावों को सामाजिको के अनुभव 
का विषय वनाते हँ ओर इस प्रकार रस का परिपोष करते हँ । अतएव इन्द 
अनुभाव कहते हे । ये ही भ्रविक्तेप कटात्त इत्यादि अभिनय ओर काव्यम भी 
अनुभव करनेवाज्ञे रसिको की अनुभव क्रिया के सा्तात्कम॑ होते हैं। 
अतएव इन्हे अनुभाव कहते हँ । आशय यह है कि लोक मे जव को व्यक्ति 
प्रम इत्यादि से प्रभावित हो जाता है तब भरूविक्ेप इत्यादि प्रवृत्त होने लगते 
हँ । इसी लिए कहा जाता है कि भरविक्तेप इत्यादि रस का का होते हैँ । कितु 
यह बात नाव्य ओर काव्य के विषय से नहीं कही जा सकती । क्योकि नाव्य 
ञ्नौर काव्य म नट स्वथं तो प्रेम इत्यादि से प्रभावित नहीं होता । वह तो दूसरों 
के भावों का अभिनय किया करता दहै । अतएव उसकी अविक्ेप इस्यादि 
चेष्टां प्रेम इत्यादि का्य॑नहीं होतीं किन्तु रसिकं लोग जिस प्रेम चौर 
आनन्द का अनुभव करते हैँ उम भरवितेप इत्यादि का अभिनय कारण होता 
है । यदि नट अनुभावो का अभिनय न करेतो रसिकोंको रसास्वादनदहोही 
नदीं सकता । “भावसंसूचनातमक विकार को अनुभाव कहते है यह कथनं 
लौकिक द्टिकोण से संगत होता है, काव्य रौर नाव्यमे तो अनुभाव कारण 
ही होता है कायै नहीं । अनुभवन्‌ क्रिया को भी अनुभाव कह सकते हँ ओर 
भावों के बाद होने के कारण से भी अनुभाव शब्द्‌ का प्रयोग किया जा सकता 
है । उदाहरण जैसे धनिक का प्य :- 

उज्ज॒म्भाननमुल्लसस्छु चतटं लोलभ्रमद्‌भ्रलतं 
स्वेदाम्भः सनपिताङ्गयष्टिविगशलद्‌न्रीडं सरोमाञ्चया । 
घन्यः कोऽपि युवा स यस्य वदने व्यापारिताः सस्पृहं 
मुग्े दुग्धमहान्धिफेन परलप्रख्याः कटाक्तच्छटाः ॥ 

(तुम्हारा मुख उच्चकोटि की जमुहाईं से युक्त हो रहा है; कुचतट विकसितं 
हो रहे है, चञ्चल भ्रलताये घूम रही है; पसीने के जल से तुम्हारी अङ्गयष्टि 
भीग गदं हे श्रौर तुम्हारी लञ्जा गलित हो गद दै तथा तुम रोमाश्चित भी हो 
 रहीहो। हे मुग्धे! वह कोह युवक धन्य है जिसके सुख पर तमने अभिलाषा 
से भरकर दध के महासागर की फेन राशि के समान निमेल कटात्तकी टा 
कोप्रेरितकियाहे॥ 

बर्‌ 











( १७० ) 


इन सब अनुभावो का रसो ॐ श्रनुसार अलग-अलग ह दिया 

जावेगा । | 
~ विभाव ओर अनुभाव का सम्मिलित उपसंहार :- 

देतुकायास्मनोः सिद्धिस्तयोः संग्यवहारदः ॥३॥ 

[ये दोनों विभाव ओर अनुभाव हेतु ओर कायास्मक होते ह । अतएव 

इनकी सिद्धि व्यवहार से होती हे ।] 

लौकिक रख के प्रति विभाव हेतु होता हे ओर अनुभाव कायं होता हे । 
ञ्तएव लौकिक व्यवहार से ही उनको सिद्धि हो जाती है उनके थक्‌. लक्तण 
नाने की आवश्यकता नहीं होती । यही बात कही -जाती हे कि--“विभाव 
नौर अनुभाव लोक संसिद्ध होते हे ओर लोक यात्रा का अनुखरण करनेवाले 
होते हे । अतएव लोक के स्वभाव से गृहीत हो जाने के कारण प्रथक्‌ लक्तण 
बनाया जाता हे ।` 

भाव का लक्षण यह हे : - 

सुखदुःखादिकैभोवे भावस्तद्भावभावनम्‌ । 

[(अनुका्य राम इस्यादि आश्रय से उपनिबन्धन को प्राक्च होनेवाले सुख 
दुःख इत्यादि रूप भावों से भावक (रसिक) व्यक्ति के चित्त का भावितया 
वासित करना भाव कहलाता हे । 

इसी लिए कहा जाता हे कि (आश्चयं हे कि इस रस ने या गन्धने सारे 
जगत्‌ को वासित कर दिया हे ।' 

कतिपय प्राचीन आचार्यो ने भाव की यह परिभाषा कौ है--“रसों को 
आवित करने से माव कहलाता हे ।' अथवा- “कवियों के अन्तर्गत भाव को 
आवित्त करने के कारण भाव कहलाता हे! यहाँ पर यह शङ्का नहीं करनी - 
चाहिए कि मेरी “भावक के चित्त को भावित करने के कारण भाव कहलाता हे । 
इस परिभाषा से विरोध पड़ता हे। भाव शब्द्‌ का कद रूषां में प्रयोग किया 
जाता हे जते "काव्य या नाव्य का भाव; (कवि का भावः, रसिक का भावः 
इत्यादि । पुराने आचार्यो की परिभाषा मेँ प्रवृत्तिनिमित्त भाव शब्द्‌ के प्रथम दो 
मं हे ओर मेरी परिभाषा का प्रवृति निमित्त भाव शब्द्‌ का अन्तिम प्रयोग 
हे । इस प्रकार विषय मेद्‌ होने के कारण परिभाषाच्रो मे विरोध नदीं पडता । 
आव के स्थायी ओर सञ्चारी नामक दौ भेद द्यागे चलकर दिखलाये जागे । 

प्रथग्भावा भवन्त्यन्येऽनुभावस्वेऽपि सात्विकाः ।४। 
सत्त्वादेव समुत्पत्तस्तच्च  तद्धावभावनम्‌ । | 

[ इच भौर भाव प्रथक्‌. ही होते ह। जो होते तो वास्तव मे अनुभाव 
ही है किन्तु सत्व से उत्पन्न होने के कारण उनको साल्िकं भाव कहते द । सस्व 












( १५१ ) 


काञर्थहै भावक के चित्त को सुख-दुःख इत्यादि भावनाश्नों से भावित या 
वासित करना ।| 


सत्व शब्द्‌ का अथ है दूसरे के अन्तःकरण मँ विद्यमान दुःख ओर हषं 
इत्यादि भावना मँ अन्तःकरण का अनुकूल होना । यही बात इस प्रकार कही 
ग है “सत्व मन से उत्पन्न होनेवाला एक विशेष प्रकार का विकार होता है । 
यह विकार उन्हीं के अन्तःकरण से उत्पन्न होता है जिनका मन समाहित या 
एकार हो । इस भावक के सत्व का यही अर्थं ह कि खिन्न या प्रहषित होने पर 
शरास या रोमाञ्च इत्यादि उत्पन्न हो जावं । उस सस्व से उत्पन्न होने के कारण 
उन्हें सात्विक कहते है; अश्रु अर्ति उन्हीं भावों को अनुभाव भी कहते हे । 
क्योकि ये भी भाव को सूचित करनेवाले एक प्रकार के विकार हीहोतेह। 
अतएव ये भाव सात्विकः भौर "अनुभावः इन दो नामों से पुकारे जाते ह ।' 
ये साचिक.भाव आठ होते हँ -उनके नाम ये है :- 


स्तम्भ प्रलय रो्मांचाः स्वेद वैवण्यं वेपथ्‌ ॥२॥ 
अश्र वैश्व्यमित्यष्टौ, स्तम्भोऽस्मिन्‌ निष्क्रियाङ्गता । 
प्रलयो नष्टसंज्ञत्वं, शेषाः सब्यक्तलत्तणाः ॥६॥ 
[ स्तम्भ इत्यादि ८ सात्विक भाव होते हँ । स्तम्भ शरीर के क्रिया शून्य हो 
जाने को कहते हे । प्रलय संज्ञा शून्यता को कहते हँ । शेष के लक्लण स्पष्ट ही 
ह । | उदाहरण :- 


वेवह सेश्रद बदनी रोमाञचिश्र गत्तिए्‌ वव | 
विललुल्लु त॒ वलश्र लह वाहो श्रज्लीए रत्ति ॥ 
मुहग्र सामलि होड खणे विमुच्छंह विश्रश्ेण । 
मुद्धा मुहश्रल्ली वश्च पेग्णोन साविण धिज्जई ॥ 
[ वयते स्वेद वदना, रोमाञ्च गात्रेवपति। 
विलोलस्ततो बलयो लघु वाहुवल्ल्यां रणति । 
मुखं श्यामलं भवति क्षणं विमूच्छति विदग्बेन । 
मुग्धा मुखवज्ञीतव प्रेम्णा सापि न धैय करोति ॥] 


[ मुख पर पसीना आ रहा है, कम्पन प्रकट हो रहा है; शरीर मे रोमाज्ज 
फेल रहा है; बाहुलता मेँ वलय चञ्चल होकर धीरे-धीरे शब्द्‌ कर रहा है, 
मुख श्यामल हो गया है, वैद््ध्य के साथ क्षण भर मूद्धित हो जाती है ओर 
तुम्हारी यह सुग्धा सुख रूपी लता प्रेम के प्रभावसे घ्रैयै को धारण ही नहीं 
कर रही है || 














( १७२ 


व्यभिचारी भाव 


व्यभिचारी भावों का सामान्य लक्तण यह हे :-- 

विशेषादाभिमुख्येन चरन्तो व्यमिचरिणः। 
स्थायिन्युन्मग्ननिर्मग्नाः कल्लोला इव वारिधो | 

[ विशेष रूप से चारो ओर से विचरण करनेवाज्ञे भाव व्यभिचारी भाव 
कहलाते हे । ये स्थायी भाव म उसी प्रकार उच्छलते इवते रहते हैँ जैसे समुद्र 
र लहर उद्धलती-इबती रहती हे | 

जिस प्रकार समुद्र के होने पर ही लहर उठ या गिर॒ सकती ईद उसी 
प्रकार रति इत्यादि स्थायी भावों के होने पर ही आविभव ञ्नौर तिरोभाव के 
द्वारा चारो ओरं से विचरण करनेवाले निर्वेद इत्याद भाव व्यभिचारी भाव 
कहलाते ह । वे ये ह :-- 

निर्वेदग्लानि शङ्काश्नम धृति जडता हषं दैन्योग्रयचिन्ताः। 

तरासे्यामषगर्वाः स्मृतिमरणमदाः सुप्त निद्राविवोधाः ॥ 
व्रीडापस्मार मोहाः समतिरलमतावेगतकां वहित्थाः । 
व्याध्युन्मायौ विषादोस्सुक चपलयुतास्त्रंशदेते त्रयश्च ॥८॥। 

[ निद इस्यादि ३३ भाव व्यभिचारौ भाव कहलाते है ।] इन्दी भावा 
की करमशः व्याख्या की जा रही हे । | 

(१) निवेद :- । 

तत्वज्ञानापदीष्यदेनिवेदः स्वावमाननम्‌ । 
तत्र चिन्ताश्रनिश्ए्वास वैवस्याछ्वासदीनताः ॥९॥ 

[ तत्व ज्ञान आपत्ति ष्या इस्यादि से अपनी अवमानना करने को निर्वेद 
कहते है । इसमे चिन्ता, आंसू, उच्वास, बैवश्यै, निशश्वास, दीनता इत्यादि 
हुआ करते हे ।| 

(अ) तस्व ज्ञान से निवेद का उदाहरण : 

पराप्ताः भियः सकलकामदुधास्ततः किम्‌ । 

दत्तं पदं शिरसि विद्विषतां ततः किम्‌ ॥ 
सम्प्रीरिताः प्रणयिनो विभवैस्ततः किं 

कृल्पं स्थितं तनुश्तां तनुभिस्ततः किम्‌ ॥ 

[ खमस्त कामना को पूणं करनेवाली लकचमी भ्रस्त भी कर लौ तो क्या 
हो गया १ शत्रुं के सर पर पैर रख मी दिया तोक्याहो गया प्रेमियों को 
देश्वय से सन्तुष्ट भी कर दिया तो क्या हो गया ओर शरीरधारिथों के शरीर 
से स्थित भी रहेतोक्याहौ गया {| 








( १५७३ ) 


(अरा) आपत्ति से निर्वेद का उदाहरण :- 
राज्ञो वियद्वन्धुवियोगदुःखं देशच्युतिदु ग॑म॒ मागं खेदः । 
श्रास्वाद्यतेऽस्याः कटुनिष्फलायाः फलंमयेतचिर जीवितायाः ॥ 
राजा पर आपत्ति, बन्धुरा के वियोग का दुःख, देश से च्युत होना, 
दुगंम मागकाखेद्‌ इन सब बातों का अनुभव हम अपने कटु श्रौर निष्फल 
चिर जीवन के फल के.रूप मे कर रहे हैं ।' 
(इ) दष्यां से निवेद्‌ का उदाहरण :-- 
न्यक्कारो ह्ययमेव मे यदरपस्तत्राप्यसौ तापसः । 
सोऽप्यत्रैव निहन्तिराक्ष कुलं जीवत्यहो रावणः || 
धिक्‌ धिक्‌ शक्रजितं प्रबोधितवता किं कुम्भकरणोन वा । 
स्वगं॒प्रामटिकाविलुरठनवृथोच्छूनैः क्यिभिभंजैः | 
सबसे बड़ी धिक्रारकीतो वात यहीहैकि मेरे यौरशत्र हां ? शत्रो 
भी तपस्वी शल ? वह भी यहीं (मेरे ही नगर मं) राकस वंशका संहार कर 
रहा है नौर रावण फिर भी जीवित है !!! इन्द्रजीत (मेधनाद्‌) को बार-बार 
धिक्कार है अथवा जाग करके कुम्भकणं ने ही क्या कर लियायास्व्ग॑को 
एक छोटे से गव के स।मने नष्ट करने मेँ व्यथं ही कएूली हृं हमारी इन बाहों 
सेहीक्या लाभ हुञ्ा।' 
(ई) वीर ओर श्रंगार रस के व्यभिचारी भाव निर्वेद का उदाहरण :- 
ये वाहवो न युधि वैरि कठोर करठ- 
पीठच्छलद्रुधिर राजिविराजितांसाः । 
नापि प्रिया पथुपयोधरपत्रभङ्ग 
संक्रान्त कङ्क मरः खलु निष्फलास्ते ॥ 

“जिन बाहुं के उपरी भाग युद्ध मेँ शच्र्मों के कठोर कण्ठ पीठ से 
उच्धलनेवालञे रक्त की धारा से शोभित नहीं हुए. अथवा जिनमे प्रियतमा के 
स्थूल स्तनो के पत्र भङ्ग से ङ्म रस का संक्रमण नहीं हुश्रा वे बहि निष्फल 
हीदहें। 

अपने अनुद्ूल शत्रु या रमणी को नप्राक्च कर सकनेवाजते की यह वैराग्य 
(निवेद) पूण युक्ति हे । इसी प्रकार निवेद के दूसरे रसो के चङ्ग होने का भी 

उदाहरण देना चाहिए । | 
रस का अङ्ग न होनेवाले स्वतन्त्र निर्वेद का उदाहरण ;- 
कस्त्वं भोः कथयामि दे बहतकं मां विद्धि शाखोटकं, 
वैराग्यादिव वद्धिसाधुविदितं कस्माद्यतः भरयताम्‌ ॥ 








( १७४ ) 


वामेनात्र वरस्तमशभ्वगजनः सर्वात्मिना सेवते । 
नच्छ्धायापि परोपकार करणी मागंस्थितस्पापिमे ॥ 

(तुम कौन हो ?" (सु तुम दैव का मारा शाखोटक! नाम का वृत्त समसो ॥ 
वैराग्य की सी बाते कर रहे हो! “बहुत ठीक समे ।' “देखा क्यों ?' 
“अच्छा सुनो --यहां पर बाई ओर वट वृत्त है जिसका सेवन यात्री लोग पृं 
हृद्य से करते हँ । यद्यपि मै माग्॑मेस्थितमभी हँ फिर भी मेरी छाया 
परोपकार के कामम नहीं ्राती। 

इस प्रकार विभाव, अनुभाव, रस का अंग, स्वतन्त्र इत्यादि निवेद के अनेक 
मेद्‌ होते हैँ । 

(२) ग्लानि :- 

रत्याद्यायास तृट॒न्ञ द्िग्लीनिनिष्प्रणएतेह्‌ च 
वैवर्यकम्पानुत्साहक्तामाङ्गवचन क्रिया; ॥१०॥ 

[सुरत इत्यादि की थकावट, प्यास, भूख इत्यादि से प्राणों का मलिन पड 
ज्ञाना (सुरमा जाना ह ग्लानि कहलाती) । इसमे ववस्य (रंग का फीका पड़ 
जाना) कम्प, अनुत्साह, शरीर वचन शौर क्रिया की रीणता इत्यादि अनुभाव 
होते ह ।' उदाहरण जैसे शिशुपाल वध में :-- 

लुलित नयन ताराः क्तामवक्रन्दु विम्वाः, 
रजनय इव निद्राक्लान्तनीलोत्लाच्यः । 
तिभिरमिवदधानाः ख सिनः केशपाशान्‌, 
| यान्त्यमूर्वीरवध्वः ॥ | 
धये वार वनिताये रात्रियों के समान राज भवनों से जाती हुदै शोभित हो 
रही हैँ । इस समय इनके नेत्रं के पतली रूपौ नक्तत्र कोपते हुए अत्यन्त 
सुन्दर मालूम पड़ रहे है; इनके सुख रूपी चन्दरविग्ब सीण हो गये द; इनके 
नेत्र ही नीते कमलजो किं निद्रा से आक्रान्त हो रहे है; ये इस समय अपने 
ट्टे नौर दविरके हुए वालों को उसी प्रकार धारण कर रदी द जिस प्रकार 
रात्रिया अन्धकार को धारण किया करती हे ।' 
इसी प्रकार अन्य मेदो को भी निवेद के समस लेना चादिष्‌ । 
(३) शङ्का : - 
अनर्थप्रतिमाशङ्का पर करौर्यात्स्वदुनय।त्‌ । 
कम्प शोषाभिवीक्ञादिरत्र बरं स्वरान्यता ॥१॥ 

[दृसरे की ऋरता से अथवा अपनी बुरी नीति से भावी अनथं की बुद्धि 
क्का उस्पन्न हो जाना शंका कहलाता है) इसमे कम्पन, शोष, ओंख फाड़ कर 
देखना, वणं ञजौर स्वर का बदल जाना इत्यादि बते होती हे | 











(कः ` १७५ `) 


दूरे को क्रूरा से शंका का उदाहरण जैवे रत्नावली मे :- 

हिया सवस्यासौ हरति विदितास्मीति वदनं, 

दयो ्वालापं कलपति कथामात्मविषयाम्‌ । 
सखीषु स्मेरासु प्रकटपति वैलकदयमधिकं, 

प्रिया प्रायेणास्ते हृदयनिहितातङ्क विधुरा ॥ 

शं जान ली गई ह यह समकर सभी से सुह चिपाती है; दो व्यक्तियों 

की बातचीत होती हुई देखकर समती है कि मेरे ही विषय म बातचीत हो 

रही है; सखिगों के मुसङराने पर अधिक उद्वत प्रगट करती हे । इस प्रकार 
यह पियतमा प्रायः हृदय मे विद्यमान आतंक से व्याल रहती है । 

अपने दुनंय से शंका का उदारण जञेसे वीरचरित मँ :-- 

दूरादवीयो धरणीधराभं यस्ताटकेयं त्रणवद्यधूनोत्‌ । 
हन्ता सुवाहोरपि ताटकारिः सराजपुत्रो हृदिवाधते माम्‌ ॥ 

धरणीधर (प्वैत) के समान आआाभावाल्ञे तारका के पुत्र मारीच को जिसने 
तिनके के समान बहुत दूर फेक दिया, सुवाहु का मारनेवाला ताटका का शत्र 
वह राजपुत्र मेरे हृदय मे पीड़ा पर्हचा रहा हे । 

सी प्रकार अन्य उदाहरण भौ सम लेना चाहिए । 
(४) श्रम :-- 
श्रमः खेदोऽध्वरत्यादेः स्वेदोऽस्मिन्मदंनादयः । 

[श्रम उस खेद को कहते हैँ जो यात्रा, रति इत्यादि से उत्पन्न हो; इसमे 
पसीना, मदन इत्यादि अनुभाव होते हैँ ।] यात्राजन्य श्रम का । जैसे 
उत्तर रामचरित मे :- 

ग्रलसलुलितपुगान पध्वसञ्ञ।तखेदात्‌, 
श्रशिथिलपरिरम्भेदत्त संवाहनानि । 
परिमृदितम्रणालो दुवंलान्यङ्गकानि, 
त्वमुरसिमम कृत्वा यत्र निद्राम वात्ता ॥ 

"मागं से उत्पन्न हुए खेद्‌ के कारण तुम्हारे अंग आलस्य से भरे हुए अत्यन्त 
सुग्ध मालूम पड़ रहे थे; अस्यन्तश्रगाढ आलिगन के द्वारा वे अंग द्बाये भी भली 
भाति गये थे; उस समय तुम्हारे छोटे छोटे कोमल अंग एेसे ही ज्ञात हो रहे थे 
जैसे मसली हुई कोई मृणाली हो । अपने उन अ्रंगोंको तम मेरी ती पर 
रखकर जहां सो गद थीं (यह उसी स्थान का चित्र है ।) 

रतिश्रम का उदाहरण जैसे माघे: 

पराप्यमन्मथ रसादतिभूमि दुवंहस्तनमरा; सुरतस्य । 
शश्रमुः भ्रमजलाललार श्लिष्टकेशमसितामत केश्यः ॥ 








( १५६ 


धोने म कठिन स्तन भारवाली) कलि , काले बहुत बडे बालोवालौ 
नायिकाये' कामदेव के रस से सुरत की पराकाष्ठा को प्राक्च कर विश्राम करने 
लगीं; उख समय पसीने की वेदे चा ज्ञाने से उनका ' मस्तक मीग गया था ओर 
उसे बाल चिपट गये थे !" | 

इसी प्रकार के ओ्ओौर भी उदाहरण देना चाहिए । 

(५) धृति :-- 

संतोपोज्ञानशकत्यादेधृ तिरव्यप्रमोग कृत्‌ ॥५२॥ 

[ज्ञान नौर शक्ति इत्यादि से जहाँ सन्तोष हो उसे धृति कहते हं । इससे 
उग्रता रहित भोग करना अनुभाव होता है । | ॑ 

ज्ञान से धति का उदाहरण ्ञेसे भतहरि शतक मं : - 

वयमिह परितुष्टा व॑ह एलैस्स्वञ्चलद्म्या । 

समह परितोषो निविशेषावशेषः ॥ 
सतु भवतिदरिद्रो यस्यवृष्णा विशाला । 

मनसि च परितुष्टे कोऽथैवान्‌ को दरिद्रः । | 

"हम तो वल्कललो से सन्तुष्ट हे मनोर तुम लचमी से सन्तुष्ट हो; हम दोनों 
का सन्तोषषएकसादहे। हम लोगो के सन्तोष मँ कोद अन्तर नहीं है । वह 
व्यक्ति दरिद्र होता है जिस्म तृष्णा कौ अधिकता हो; मन के सन्तुष्ट हो जाने 
पर न तो कोई धनवान्‌ दी है ओर न निधन दही ॥ . 

शक्ति से शति का उदाहरण जते रलावली म्र (राञ्यं निजिंत शच 
महा नुत्सवः ।› (देखो ४०८५ ) इसी प्रकार दूसरे उदाहर भी समने चादिए । 

(६) जडता : - ` 

अप्रतिपतति्जडतास्यादिष्टानिष्ट दशेनश्रुतिभिः। 
अनिमिष नयन निरीच्तण तृप्णीमाव्रादय स्तन्न ॥५९॥ 

[दष्ट या अनिष्ट के दशन या श्रवण से जो प्रस्यक्च क्ञान की हिका शक्ति 
ज्ञाती रहती है उसे जडता कहते है । इसमे अनिमिष नेन्रों से देखते रह जाना 
चुप हो जाना इत्यादि अनुभाव होते ह । | 

इष्ट दशन से जता का उदाहरण ˆ ` 

एवमालि नियदीतसाध्वसं शङ्क्यो रसि सेव्यतामिति । 
सासलीमिरपदिष्टमाकुला नास्मरप्मुखवतिनि प्रिये ॥ 

पार्वती के सम्भल जब प्रियतम शिवजी आये तव पावती ने आकुलता क 
कारण सखियों के इस उपदेश का रमर नहीं किया किं - दे सखी ! तुम इस 
रकार एकान्त मे अपने सङ्कोच ञजौर भय को दबाकर शंकरजो का सेवन (संभोग) 
करना । 








( १७७ ) 


अनिष्ट श्रवण से जता का उदाहरण जैसे उदात्त राघव म ररात्तस- 
तावन्तस्ते महात्मानो निहताः केन राक्षसाः । 
यषाँनायक्तां याताल्िशिरः खरदूषणाः ॥ 
उतने महातमा राक्तसों का किसने मार डाला जिनका नायकत्व त्रिशिरा 
शरीर खरदूबण पर था ।' दूखरा --श धनुष को लेकर दुष्ट रामने ।› प्रथम -क्या 
अकेले हो ।' दूसरा - "देखकर कौन विश्वास करेगा ? देखो हमारी सेना की 
यह दशा हह :-- 
सद्यशछिन्न शिरः शवभ्रमज्जत्कङ्ककुलाकुलाः । 
कवन्धाः केवलं जातास्तालोत्ताल। महाहवे ॥ 
महायुद्ध मं शोघ्दही (तजे) कटे हर्‌ सरो के गड्ढों मे एकदम अविष्ट 
होनेवाज्ञे कङ्क नामक पत्तियों से आवेष्टित ताड के समान विशाल कबन्ध ही 
केवल दिखाई पड रहे हे ।` पहला -!हे मित्र ! यदि ेसा है तो इस प्रकार का 
(अशक्त) मेँ क्या करं ?› इत्यादि । 
(७) दषे :-- 
` प्रसत्ति रुत्सवादिभ्यो दर्षाऽश्रस्वेदगद्‌गदाः। 
[भिय का आगमन) पुत्रजन्म इत्यादि उस्सवों से होनेवाली प्रसन्नता 
को हषं कहते हँ । इषम अश्रु, स्वरद, गदगद होना ये अनुभाव होते है । | 


उदाहरण :-- ट 
श्रायाते दयिते मरस्थलयुवामुत्पेदय दुलंड ध्यताम्‌ | 


गेहिन्या परितोषवाष्पकल्लिलामासञ्य टष्टिभुखे | 
दत्वा पील्ुशमी करीरकवलान्‌ स्वेनाञ्चल्े नादरात्‌। 
उन्मृष्टं करभस्यकेसरसटा भारग्रलग्नं रजः ॥ 
प्रियतम के घर आने पर मरस्थल की भूमि की पार करने की कविनाईं को 
समकर गृहणी ने सन्तोष के ओसुओं से भरी हई अपनी दृष्टि उसके मुख पर 
डालकर अर पीलु (खजूर) शमी ओौर करील के कवलो को अपने अञ्चलं से 
आद्रपूवेक देकर हाथी के बच्चेके केसर ओर सटाके भारसरे अगे को 
लगी हुं धूल पो दी ।' 
निवेद के समान इसके दृखरे उदाहरण भी स्वयं सम ज्तेने चाहिए । 
(व) दैन्य :-- 
दौमत्या चैरनौजस्यं दैन्यं काष्ण्यमृजादिमत्‌ ।॥ १४॥ 
[दुमेति दारिद्रथ, धिक्कार इत्यादि विभावो से ओज कानष्टहो जानां 
"दैन्य कहलाता है । इसे अन्‌ भाव छईृष्णतर, वस्त्रो ओर दतो का मलिन होना 
इत्यादि है । ] उदाहरण :-- 
र्द 











( १७८ ) 


वृद्धोऽन्धः पतिरेष मञ्चक्रगतः स्थूणावशेषं दम्‌ । 
कालोऽभ्यणंजलागमः कुशलिनी वत्सस्यवार्तापिनो । 
य॒लनात्सञ्चित तैलविन्दुषटिका भग्र ति पर्याकुला । 
ष्टा गम'भरालसां निजवधू श्वश्रश्चिरं रोदिति ॥ 

"यह पति तो अरंधा है ओर बद्ध द तथा मचान पर हआहे। घरमे 
तूदेदही शेष रह गये ह । वर्षाकाल बिल्छुल निकट हे, लके का कुशल समाचार 
भी प्राक्च नहीं हा है । प्रयत्न-पूंक एक-एक वद करके जिस तेल केष्डेको 
| अरकर रक्खा था वह एूट गया । इस कारणं अत्यन्त व्याकुल होकर चौर गभं 
॥| ` के भार से पीडित अपनी बहू को देखकर सास बही देर सेरोरहीदहै।' 
शेष उदाहरण पहले के समान समना चादिषए । 


(8) ओगरय :-- 


दुष्टेऽपराधदौर्यक्रोर्ेएचर्डत्वसुपरता । 
तत्रस्वेद शिरःकम्पतजनाताडनादयः ।॥\१५॥ 
[ अपराध, दुमुंखता या कररता के कारण दुष्ट के प्रति प्रचर्ड खूप धारण 
करना उभ्रता कहलाता है । उसमे पसीना, शिरःकम्पन, तजन ओर ताडन 
¢ स्यादि अनुभाव होते ह | से वीरचरित मे परशरामजी कह रहे हँ -- 
उच्कृत्यो्करव्यग मांनपि शकलयतः ज्ञत्रसत्तानरोषात्‌ । 
उद्दामस्यैकविं शत्यवधिविशसतः सव॑तो राजवंश्यान्‌ । 
विन्य तद्र्तं पूणंहदसवनमहानन्दमन्दायमान 
क्रोधाग्नेः कुव॑तो ये न खलु न विदितः सर्वभूतैः स्वभावः ॥ 


धेने कतत्नियों की सन्तान मत्रि पर ञ्पने क्रोध के परिणामस्वरूपं गर्भो 
को काट-छाटकर टकडे-डुकंडे कर ज्ञे न इतना उद्धत हक ननैने २१बार 
समी ओर से राजवंशोद्‌भव बीरों की हत्या की ञ्रौर उन राजानं के रक्तं से 
बालब भरे हए सरोवर मे स्नान करने से उत्पन्न हए महान्‌ आनन्द से मेरी 
क्रोधाग्नि मन्द्‌ इदे । इस प्रकार पितृ कायै करनेवाले नेरा स्वभाव समस्त 
पराणी नहीं जानते हैँ यह बात नहीं है । । 

(&) चिन्ता :-- 

ध्यानं चिन्तेहितानापेः शूल्यताश्वास्ततापछ्त्‌ । 

[इच्छित वस्तु परासि न होने से जो ध्यान किया जाता हे उसे चिन्ता कहते 
ह \ इससे सारा संखार शून्य सा मालूम पदता हे; गहरी श्वासं चलती ह ओर 
सन्ताप उत्पन्न होता है । | जेसे : - 






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( १७९ ) 


पक्तय्रग्रथिताभ्र विन्दुनिकरैमक्ताफलस्प्धिमिः । 
कुवन्त्याहरहासहारि्टदये हारावली भूषणम्‌ ॥ 

वालेवालमर सालनालवलयालङ्कारकान्ते करे | 
विन्यस्याननमायतान्ि सुकृती कोऽयं स्वयास्मर्य॑ते ॥ 


“हे वाले ! इस समय मुक्ताफल से स्पधां करनेवाले, नेत्र लोमों के अन्रभाग 

म लगे हुए अश्रुबिन्दुओं के समुदाय से अपने हृदय पर शङ्करजी के हास को 
भी हरनेवाले हारवली भषण को विस्तारित कर रही हो । हे विशाल नेच्रोंवाली ! 
तुम अपने छोटे से णाल नाल के बलय का आभृषण धारण करने के कारण 
सुन्द्र मालूम पडनेवाले अपने हाथ पर अपने मुख को रखकर किंस पुण्यात्मा 
 कास्मरण कर रहीदहो।' 
दूसरा उदाहरण :-- 

श्रस्तमित विषय सङ्गा. मुकुलित नयनोत्ला वहश्वसिता | 

ध्यायति किमप्यलच््यं बाला योगाभियुक्तेव ॥ 


“इस समय इस बाला की अन्य सब विषयों की आसक्ति बिल्कुल समाश्च 
हो गद है । यह अखं बन्द्‌ कयि हुये बहुत श्वासं लेती हुदै ऊच एेसे प्रकार 
से ध्यान कर रही है किं इसके ल्य का पता ही नहीं चलता । इस समय यह 
बाला बिल्कुल योगिनी सीक्ञातदहोरहीदहे। 

(११) त्रास :-- 

गजितादेमेनः त्तोभक्लासोऽत्रोत्कम्पितादयः ॥ १६ 
[गर्जन इत्यादि से जो मनः कोभ होता है -उसे त्रास कते हैँ । इसमे 
उत्कम्पन इत्यादि अनुभाव होते हँ । | जैसे माघर्मे :-- 
त्रस्यन्ती चल शफरी विघद्टितोरू- 
वांमोकूरतिशयमायविभ्रमध्य 
ज्ुभ्यम्ति प्रसभमहो विनायि दैतो- 
लीलामिः किमुसति कारणे तरुण्यः ॥ 


“सुन्दर जङ्घा वाली एक सखी, (जल में घुसने पर) जङ्काञ्चों मे एक चञ्चल 
~ को रगड़ खाकर डरती इद विलास की अधिकता को प्राक्च हो गदं । आश्वं 
हे कि तरुणि्थां विना कारण के ही अपनी लालाश्रों से बलात्‌ विद्धब्ध हो जाती 
ह फिर कारण होने पर तो कहना ही क्या ?" 

(१२) असूया :-- 

परोत्कर्षा क्षमासूया गर्वं दौजन्य मन्युजा । 
दोषोक्त्यवज्ञे भ्रकुटिमन्यु क्रोधेद्ितानि च ॥१५।॥ 








( १८० ) 


[गवै दौजन्य या मन्यु से जो दूसरे के उत्क के प्रति असहनशीलता उप 
होती है उसे असूया कहते हें । दसम दोष कथन, अनादरः मौ टेदी करना, मन्यु 
्लौर क्रोध के संकेत होते हँ ।] गवै से असूया का उदाहर ` ज्ञेसे वीरचरितज ` ` 

ग्रथिते प्रकटी कृतेऽपिनफल प्रातिः प्रमोः प्रत्युत । 
` द्‌ ह्यन्‌ दाशरथिः विर चरितो युक्तस्तयाकन्यया ॥ 

उत्कर्षैः च परस्य मानयशसोविचखं खनं चात्मनः । 
स्नीरलं च जगत्पतिदशमुखो दपः कथं मृष्यते ॥ 

'्याचक बन जाने पर भी मेरे स्वामी (रावण) से इच्छित फल की प्रासि 
नहीं हो सकती । इसके प्रतिद्ल दशर के पुत्र राम उस कन्या से युक्त होकर 
द्रोदी श्नौर विशुद्ध चरित्र वाले बन गये "ह । संसार का स्वामी दस मुखो वाला 
अभिमानी रावण अपने शनुञओं के उस्कषे अपने मान सनौर यश का दास श्रौर 
डस दख्लीरत्र (सीता) की उपेक्वा करना कैसे सहन कर सूत! है ।' 

दौजन्य से असूया का उदाहरण :- ` 

यदि परगुणा न क्षम्यन्ते यतस्व गुणाजने । 
नदि परयशो निन्दा व्याजेरलं परिमाजिदुम्‌ ॥ 
विरमसि न चेदिच्छादरेष्रसक्तमनोरथो-- 
दिनकर करान्‌ पाशिच्छत्रनु'दञ्छमयेप्यसि ॥ 

"यदि तुम दृससें के गुणे को सहन नहीं कर सकते हो तो अपने उपाजन 
का प्रयज्न करो । निन्दा के बहाने दूसरों कँ गुणो का परिमाजैन सम्भव नहा 
ह । यदि इच्छा ओर द्वेष के कारण तुम्हारा मनोरथ (परनिन्दा के लिए) बहुत 
बद रहा हतो अपने हाथ का छता बनाकर सूर्यं की किरणो का निवारण 
करने म तुम्हे केवल श्रम ही उठाना पडेगा ।' 

मन्यु से उस्पन्न होनेवाली असूया का उदाहरण । जैसे अमरूश्तक मे : ` ` 

पुरस्तन्ग्या गोत्रस्वलन -चकितोग्हं नत मुखः । 
प्रवृत्तो वैलद्याक्किमपि लिखित दैवहतकः । 

स्फुरोरेखान्यासः कथमपिसतादक परिणतो 
गतां येन व्यक्तिं पुनरवयवैः सैव तरुणी ॥ 

ततश्चाभिन्ञाय स्फुरदश्ण गण्डस्थलख्च। 
मनखिन्या रोषप्रणय रभसाद्‌गद्‌गद्गिरा । 

` ग्रहो चित्रं चित्र स्फुटमिति निगाभर्‌ कलुषं 
रुषा व्रह्मा मे शिरसिनिदितो दतत चरणः ॥ 

(उस कृशाङ्गी के सामने गोत्रस्खलन हो जाने से अर्थाव्‌ उसकी सौत का 
नाम घोके से सुह से निकल जाने सेन चकित हो गया ञौर मैने नीचे को 





कष्ककक = रक च तः 





( १८१ ) 


सर कर जिया तथा लज्जा अओओौर उद्रेगसेदुदैव कामाराङ्चयों ही लिखने 
लगा अथात्‌ स्वाभाविक रूप म अपनी अंगुलियों से भूमि पर ङ रेखायं बनाने 
लगा । बह रेखान्यास जैसे तैसे कुड रेखा बन गया किं जिससे वह तरूणी 
(उसकी सौत) ही अपने अपने अवयवो से व्यक्त हो गहं अर्थात्‌ मौज म रेखायें 
इधर उधर खींचने से धोके से उसका चिन्न बन गया । इसके बाद्‌ जब उसे 
यह ज्ञात हुआ तब उसके गण्डस्थल (कपोल) लाल हो गये ओर फडकने 
लगे, करोध।अौर भ्रणय के उद्धेग से उसकी वाणी गद्गद हो गहै तथा उस मनस्विनी 
ने अरे स्पष्ट ही चिच्रहै चिन्न है" यह कहते हुये ओआंसुश्रों से कलुषित 
होकर क्रोध से मेरे सर पर दपंसे भरे इए चरण को ब्रह्मास्त्र के समान 
मेरे सर पर पटक दिया ।' 
(१३) अमष :-- 
अधिक्तेपायमानादेरमषोऽभिनिविष्टता । 
तत्रस्वेद शिरः कम्प तजंना ताडनाद्यः ॥१८॥ 


[ अधिक्तेप शओओौर अपमान इत्यादि के कारण जो अभिनिष्टता (ददता) 
उत्पन्न हो जाती है अर्थात्‌ जिसमे व्यक्ति मानापमान यश अयश का विचार 
छोड़कर अपनी बात पर डटने कावतसा ले लेता है उसे अमष कहते हँ । इसमे 
पसीना, सर कोपिना, तजन ओर ताढन इत्यादि अनुभाव होते हे ।] उदाहरण 
जैसे वीरचरित म :-- 

प्रायशचित्त' चरिष्यामि पूज्यानां वोव्यतिक्रमात्‌ । 
नत्वेव दूषयिष्यामि शखग्रहमहात्रतम्‌ ॥ 


(श्राप जैसे पूज्यो का ्रतिक्रमण करनेसे जो सुमे पाप लगेगा उसके 
लिये मँ प्रायश्चित्त कर लू गा किन्तु (आपके सामने नन्र होकर) शस्त्र अहण 
के महाव्रत को दूषित नहीं करूंगा ।' 
दूसरा उदाहरण जैसे वेणीसंहार मे :-- 


पुष्पच्छासनलङ्खितांहसि मया मग्नेन नामस्थितम्‌ । 
प्राता नाम विगहणा स्थितिमतां मध्येऽनुजानामपि । 
क्रोधोल्लापित शोणितारुण गदस्योच्छिन्दत; कौरवान्‌ | 
ग्रयेकं दिवसं ममासि न गुराह विधेयस्तव | 
'आपकी आला के उर्लज्खन करने के महान्‌ पाप मे मेँ भले ही इव जारः 
मर्यादा पालन करनेवाल्ञे अपने अैन इत्यादि छे भाद्यों के बीच सुमे 
` निन्दनीय भले ही वनना पड़े किन्तु कोध से अपनी गदा को उद्यत करके कौरवो 
का संहार करनेवाला शरोर उनके रक्त से अपनी इस गदा को लाल बनाने- 











( १८९ ) 


वाला म आज एक दिन के लिए न तो आपको अपना गुर (जयेष्ठ) ही मानता 
ह ओर मे आपका आज्ञाकारी दी रगा ॥' 

(१४) गवे : - । 

गर्वोऽभिजनलावस्य वक्ैश्व्यादिभिमेदः \ 
कर्मास्याधषणावज्ञा सविलासाङ्गवीच्तणम्‌ ॥ १९ 

[अभिजन (कुटुम्ब) लावस्यः बल श्नौर रेश्वर्य इत्यादि के मद्‌ को गवे 
कहते है 1 इसने डाटना फटकारना, अपम! करना, विलास के साथ अपने 
अञ्गं का देखना इत्यादि कम होते ह ।] जैसे वीरचरित मं :-- 

मुनिरयमथ वीरस्तादशस्तस्पियं 

विरमतु परिकम्पः कातरे त्त्नियासि । 
पसि वितत कीतंदपं कण्टरलदोष्णः 

पस्चिरण समर्थो राघवः त्त्रियोऽदहम्‌ ॥ 

ये सुनि भी ह ओर उतने प्रसिद्ध वीर भी र्हैय दोनों बातं मेरे लिए 
मिय ही ह । अरे कातरता धारण करनेवाली ! तुम कषत्रिय पटनी हो, तुम्हं इस 
प्रकार कपना नहीं चादिए । म रघुवंश का त्रिय (रामचन्द्र) तपस्या मे प्रसिद्ध 
कीसिवाल्ते नौर बाहों मे दपं की खुजली धारण करनेवाज्ञे परश्रामजी की 
परिचर्या "करने मेँ पूणं रूप से (दोनों प्रकार से) समथ ह ।' 

दूखरा उदाहरण ्ञेसे उसी वीरचरित म : - 

्ाह्मणातिक्रम स्यागो भवत मेवभूतये । 
जामदग्न्यश्च वो मित्रमन्यथा दुर्मनायते ॥ 

्राद्यणणो के अ्रतिक्रमण का व्याग पके कल्याण केलिए दही होगा। 
नहीं तो तुम्हारा भिन्न परशराम तुमसे रुष्ट हो जावेगा ॥' 

(१९) स्ति 

सदश ज्ञान चिन्ताः संस्काररस्मृतिरत्र च । 
्ञातसवेना् भासिन्यां भरूससन्नयनाद्यः ॥२०॥ 

[ सदश्य ज्ञान ओर चिन्ता इत्यादि से संस्कार उद्बुद्ध होते है ओर 
उनसे स्मरति जागृत होती है! स्ति तके रूप न्ने किसी वस्तु की अव- 
आसित करनेवाली होती दे । उसम चखख्रवन इत्यादि अज्धमाव होते हें । | 
उदाहरण :-- 

मैनाकः किमयं रूणद्धि गगने मन्मार्गमन्याहतं 
शक्तिस्तस्य कुतः स वज्रपतनाद्धीतो महेन्द्रादपि । 
तायः सोऽपि समनिजन विभुना जानाति मां रावणम्‌ 
श्रा; ज्ञातं ख जटायुरेष जरसा क्लि ष्ो बधं वाज॒क्छति॥ 








( १८३ ) 


# # 


सीताहरण के अवसर पर रावण जटायु के आक्रमण को देखकर | 
कररहा है - ष्या यहमैनाकदटहैजो मेरे मागं को बिना प्रतिबन्ध के रोक 
रहा है ? किन्तु उसको मेरे सामने आने की शक्तिहो ही कैसे सकती है जव 
कि वह वच्रके गिरने से इन्द्र से ही डरता दहै। तो क्या यह गरुड हे ? किन्तु 
वह भी तो अपने स्वामी विष्णु के सहित मेरे बल से परिचित है। अच्छा 
समा ! यह जटायु हैजोवुदापे से दुःखी होकर मृत्युकी कामना कर 
रहा ह । 

ध 4 उदाहरण जैसे मालती माधव मे माधव कह रहे हें :-- 

भिंने ददृतर संस्कार के श्राधान मे समथ अतिशयता से युक्त हो मालती- 
दशंन का पहले से अनुभव कियाथा अर्थात्‌ मैने मालती का इस रूपमे 
साक्तात्कार किया था किं जिससे हृदय पर ददतर संस्कार जम सके । (संयोग- 
वश जो दशंन हो जाता ह बह संस्कार के आधान में समथ नहींहोताहे ओर 
यदिहोता भी दहै तो वह संस्कार ्द नहीं हो सकता । जो पहल्ञे की भूमिका के 
साथ बड़ी तैय्यारी से अनुभव क्रिया जाता है उसका संस्कार बहुत ही च्दहो 
जाता है ।) उस अनुभव से मेरे हृदय पर जिस संस्कार या भावना का स्वरूप 
उत्पन्न हो गय। था उक्षके निरन्तर ही अनुवतंन करने से उस-भावना का ओओौर 
अधिक विस्तार हो गया । (जो संस्कार बिना स्ति को जागृत क्रिये हुए स्वयं 
नष्ट हो जाता है उससे भावना का परिपोष नहीं होता । इसके प्रतिकूल जो 
संस्कार स्ति को जागृत कर्ता है ओर उससे भावना का निरन्तर अनुवतंन 
किया जता है उससे भावना पुष्टहो जाती दहै ।) उस भावना का पवाह 
दूखरे प्रकार के प्रत्ययो से तिरस्छृत नहीं क्रिया जा सका । प्रियतमा की स्ति 
रूपी प्रव्ययों की उत्पत्ति से जिसका विस्तार बहुत अधिक हो गया वह उस 
(= की भावना बृत्ति सारूप्य से मेरे चैतन्य को तन्मय बना रही है अर्थात्‌ 
मेरा चैतन्य मालतीमय हो रहा है । (वेदान्त का षिद्धान्त है किइंद्धिय चौर 
विषय के सन्निकषे होने पर परिणामि स्वाभाववाला अन्तःकरण वृत्ति के 
कारमं परिण्तदहो जाता है । अन्तःकरण मे अवच्छेदक भाव से रहनेवाला 
चैतन्य वृत्तिम भी प्रतिुलित दहो जाता है। वह इत्ति विषय देश मे जाकर 
विपय ओर अधिष्ठान को आवृत करनेवाज्ञे अक्ञान को उसी प्रकार दूर कर 
देती है जैवे प्रदीप अंधकार को दूर कर देता है। इस प्रकार विषयगत चैतन्य 
का वृत्ति मे प्रतिफलित प्रमाता के चैतन्य के साथ उसी प्रकार अभेद सम्बन्ध 
हो जाता हे जिष प्रकार कुएं से नाली केद्वारा पानी थलहे मे जाकर उसी के 
आकार मे परिणत हो जाता है। अधिष्ठान के चैतन्य पर ्रन्तःकरण के 
चैतन्य के तादात्म्य क¡ अध्यास नहीं होता इसी जिए हम उस वस्तु के लिए 











( १८४ 


उत्तम पुरुष का प्रयोग नहीं करते ¦ उस वस्तु पर ध्यह के अथ से ही तादात्म्य 
का अध्यास होता है। इस प्रकार हमे उस वस्तु का भान होने लगता है। 
यहाँ पर भी माधव के अन्तरात्मा के चैतन्य का बृत्ति म प्रतिफलन होकर 
्रव्येक वस्तु मै मालती के सूपे ही तदाकार परिणति होती है । अतएव 
माधव को सब ऊं मालतीमय ही दिला पढ़ता हे ।) अतश्व माधव कह 
रहा है :- | 
लीनेव प्रतिबिम्बितेव लिखिते वोस्कीणंरूपेव च । 
्रत्युतेव च वञ्जलेपधटितेवान्तनिंखातेव च ॥ 
नश्चेतसि कीलितेव विशिखैश्चेतोयुबः पञ्चभिः 
चिन्तासन्ततितन्तु जाल निविडस्पूतेवलग्ना प्रिया ॥ 
मेरी पियतमा मेरे अन्तःकरण मे लीन सी हो गई, मानों प्रतिबिम्बित हो 
रहौ है, मानों मेरी चित्त भित्ति पर॒ उसका चित्र सा बना इना है; मानो वह 
मेरे चित्त खूपी प्रस्तर खण्ड पर खोद दी गई है; मानों मेरे चित्त म जद. दी गदं 
है, मानो वञ्जलेप से जोढ सी दी गई है, मानों अन्द्र गाड दी गह दै; मानों 
हमारे चित्त म मनोभव के पाचों वाणो से कीलसी दी गद है ओर मानों 
चिन्ता की परम्परा रूप तन्तुओं के जाल से घने ख्पमे बाँध दी गहैहै। इस 
पकार सेरी भियतमा मेरे मन ही लगी हुदै सी स्थित हे । 
(१६) मरण :- 
मरणं सु्रसिदधत्वादनथस्वा्चनोच्यते । । 

[ यहाँ षर मरण कौ परिभाषा नदी बतलाई जा रदी है । इसमे एक तो 
कारण यह है कि मरण को सब कोद जानता टी हे ओर दृखरा कारण यह हे 
कि मरण एक अननं होता है । इसी लिए मरण का वर्णन करना भी वाजित 

हे। ] खादिव्य दष मे लिखा ह कि इस विच्छेदम देतु होने के कारण मरण 
वन नहं करना चाष । इतना तक कह देना चाहिए किं मरण होने ही 
वालाथाया मरण की आकां्ता का वर्णन करना चाहिए । 

उदाहरण :-- 

वभ्प्राप्तेऽवधिवासरे क्णमनुतद्वत्यवातायनं 

वारंबारमुपेत्य निष्कियतया निश्चित्य किञ्चिचिरम्‌ । 
सम्प्रत्येव निवेद्य केलिकुररीं साख सखीभ्यःशिशोः 

माघन्याः सहकारकेण करुणः पाशिग्रहोनिमितः ॥ 

(अवधि का दिन आने पर क्षण भर वातायन की ओर मँह किये उसका 
माम॑ देखती रदी । निष्कियता के साथ (उसे उस समय कं करते ही न बन 
पडता था) बारबार मागं देखने के लिर्‌ वातायन ऊ निकट जाकर ओर देर तक 








( १८५ ) 


कु निश्चय करके इसी खमय कीड़ा की कुररी (नामक पत्ती) को रसू बहाते 
हृष सखियों को सोपकर, थोडी ही आयुवाली माधवी लता के साथ आ्आामके 
विवाह की तैयारी कर दी। (अर्थात्‌ मरने के पहले यह भी काम निपटाती 
। 
॥. ५ प्रकार जहां पर शगार रस के आलम्बन का वणन हो वहाँ पर शव्यु 
कौ उपर्थिति शरोर उसका कायै (तथा आकांक्ञा) मात्र दिखलानी चाहिए । 
अन्यत्र जेखा उचितो वैसा करे। जैसे वीरचरित मे-“आपलोग तारका 
को देखे :-- 
हृन्मर्मभेदि पतदुकटकङ्क1त्र संबेगतत्तण कृतस्फुरदङ्गमङ्ग ॥ 
नासाकुटीर कुदरदयतल्यनि्यदुद्‌बुवदुदध्वनदसक्प्रषरामृतेव ॥ 
श्ृदय के म्म को विदीणं करनेवाज्ञे उत्कट कंकपत्र के लगने पर संवेग के 
कारण "एकदम उसका अंग-भंग हो गया ओर वह पृथ्वी पर गिरकर इधर 
उधर फड़कने लगा । उसकी नासिका रूपी कटी के दोनों गर्तो" से एक साथ 
निकलने बाले बबूल से युक्त शब्दायमान रक्त के प्रसार के कारण वह मर गह ।' 
(१७) मद्‌ :-- 
हर्षारकर्षों मदः पानात्‌ स्वलदङ्गवचोगतिः ॥२१॥ 
निद्रा हासोऽत्र रुदितं अ्येष्ठमभ्याधमादिषु | 
[मदिरा पीनेसे जो हषं को अधिकृता होती दै उसे मद कहते हें । उस 
अंगो, वचनं ओर गमन इत्यादि का स्खलन होता है । उत्तम व्यक्ति इसमे 
सोता है मध्यम ईहैखता ह चौर अधम रोता हे ।] 
जैसे माघ मे :- 
हाव.हारि हसितं वचनानां कोशलं दृशि विकार विशेषाः । 
चक्रिरे भृशम जोरपि वध्वाः कामितेव तख्णोन मदेन ॥ 
खनेम हवा का आकर्षण, वचनो का कौशल ओर दृष्टि मे एक विशेष 
अकार का विकार ये सब बातें तरुण मद्‌ ने एक सरल वधू के अन्दर भी इसी 


` भ्रकार उत्पन्न की जिस प्रकार कों तरण कायं किया करता है । 


(१८) सुखम्‌ :-- 
सुप्तं निद्रोद्धवं तत्र श्वासोच्छवास क्रिया परम्‌ ॥२२॥ 
[सुश्च निद्रा से उत्पन्न होता है । उसमें श्वास उच्छवास की बहुत अधिक 
क्रिया होती हे ।| 
उदाहरण :- 
लघुनि तृण कुटीरे ज्ेत्रकोणे यवानां, 
नव॒ कलम पलालखस्तरे सोपधाने । 


ग्ट 














( १८६ ) 


परिहरति सुषुप्तं दालिकदरन्द्मासत्‌, 
कुचकलश मदोष्मा वबद्धरेखस्तुषारः ।\ 
"जौ के खेत के एक कोने मे छोटी सी तृण की एक कटी के अन्द्र नवीन 


कलमो (चहोरे) के पुराल के बिद्धोने पर जिख पर कि तकिया भी लगी हे, 


हल जोतनेवाल्ते का जोडा अपनी निद्रा को दूर कर रहा है ओर निकट दही 
कुचकलश की बहुत अधिक गम से तुषार रेखावद्ध हो गया हे ।' 

(१६) निद्रा :-- 

मनः सम्मीलनं निद्रा चिन्तालस्य क्मादिभिः। 
तत्र॒ जम्भाङ्गभङ्गापि मीलनोत्स्वप्रतादयः _॥९॥ 

[चिन्ता आलस्य ओौर थकावट इत्यादि के कारण होनेवाल्ते मन के 
सम्भीलन को निद्रा कहते हँ । उसमे जंभाईं लेना, शरीर का टटा, आख 
मीचना, स्वप्न की बद्‌ बडाहट इत्यादि अनुभाव होते ह । | जैसे :-- 

निद्राधंमीलितदशो मदमन्थराणिः 
नाप्यथेवन्ति न च पानि निरथैकानि । 

द्र्यापि मे मृगदृशो मधुराणि तस्या 
स्तान्यक्तराणि दये किंमपिध्वनन्ति ॥ 

'उख समय उस शरगनयनी के नेत्र निद्रा से आधे सिच गये थे उस समय 
उसने ऊढ रेखे मधुर अकरो का उच्चारण किया जो एकं तो मद्‌ के कारण 
अलसाये हुए से निकल रहे ये दृसरे उनके विषयमे तो यदी कहा ना सकता 
है किवे साथैकये ओर वे निरथक ही प्रतीत हो रहे थे । वे उख मृगनयनी के 
मधुर अक्वर मेरे हृदय मे न मालूम क्या ध्वनित सा कर रहे हे ।' 

दूसरा उदाहरण जैसे माघ मे ; ` 

प्रहसकमपनीय स्वं निदिद्राखतोचे: 

प्रतिपदमुपहूतः केनचिञ्जागृदीति । 
मुहुरविशदवर्णां निद्रया शल्यं श्या 

दददपि गिरमन्तवध्यते नो मनुष्यः । 

“कोई मनुष्य अपना पहरा देने का काम पूरा करके बहुत अधिक सो जाने 
की इच्छा करता हुआ किंसौ कै द्वारा जागो जागो, यह कह कर बुलाया हा 
ऊद ठेखी वाणी बोलता है जो मधुर ञौ निर्मल वर्णौवाली तो होती है किन्तु 
बिकुल ही शून्य होती है । एेसी वाणौ बोलते हुए भी वह जग नहीं रहा है ।' 

(२०) विवोध :- 

विवोधः परिणामादेस्तत्र जुम्भाकतिमदंने । 














( १८७ ) 


[निद्रा के परिणाम इत्यादि से विवोध होता है । उसमे जभार, आंख 
मलना इत्यादि अनुभाव होते हे । | 
जैसे शिशपालवध मे :- 
चिररतिपरिखेद प्रप्त निद्रा सुखानां 
चरममपि शयित्वा पृवमेवप्रवुदधाः । 
च्रपरिचलितगा्राः क्ुव्तेन प्रियाणाम । 
प्रशिथिल भुजचक्रा श्लेषभेद' तरख्ण्यः ॥ 


तरुण्या यद्यपि बाद मे सोद थीं किन्तु पहक्ञे ही जग गद । उनके प्रिय- 
तम राते बड़ी देर तक रति कीडा करने के कारण थक गये थे अतएव 
इस समय सो रहे हैँ । वे तरुणियाँ अपने उन प्रियतमो के वक्षस्थल म लगी 
हृद कलेटी है । उनका शरीर बिल्कुल हिल-डुल नहीं रहा है जिससे उनके 
प्रियतमो के भुजचक्र का इद्‌ आलिङ्गन कहीं विच्छिन्न न हो जावे ।' 

(२१) बीडा :-- 

दुराचारादिभिनत्रीडा धाष््यांभावस्तमुन्नयेत्‌ । 
साचीकृताङ्गावरण बैवर्यांधोमुखादिभिः ॥>४॥ 

[ दुराचार इत्यादि से जो ्ष्टता का अभाव होता है उसे ब्रीडा कहते 
है| दष्टिकाटेदा कर ज्लेना, शरीर को पाना, रंग फीका पड़ जाना, मुँह नीचा 
कर लेना इत्यादि अनुभावो से उसे जानना। चाहिये । ] जैसे अमरुशतक 
मेः- 

पटा लग्नेपत्यौ नमयतिमुखं जात विनया | 
ह ठाश्लेषं वांद्ुस्यपहरति गात्राणि निभृतम्‌ ॥ 

न शक्रोत्याख्यातु' स्मितमुख सुखी दत्तनयना । 
हिया ताभ्यत्यन्तः प्रथम परिहासे नववधूः ॥ 

“जब प्रियतम वचर पकडइता है तब विनय के साथ अपने सुख को ऊुका 
लेती है; जब वह हटपूवैक आआलिङ्गम करना चाहता है तब धीरे से अपने अज्ञो 
को अलग कर लेती है; सुर्कुरानेवाली सखियों की शरोर अपनी निगाह लगाये 
हये कच कह ही नहीं सकती; इस प्रकार प्रथम परिहास के अवसर पर वन 
वधू लज्जा से अपने हृद्य मेँ उद्विग्न होती हे ।' 

(२२) अपस्मार :- 

आवेशो ग्रह॒ दुःखादयैरपस्मारो यथाविधि । 
भूपातकम्प प्रस्वेद्‌ लालाफेनोद्‌गमादयः ॥२५॥ 
[भाग्य के अनुसार अह दुःख इत्यादि से जो वेश होता है उसे अपस्मार 











( १८८ ) 


कते हे । इसमे प्रथ्वी पर गिरना; कपना, पसीना आना, लार ओर फेन 

इत्यादि का आना ये अनुभाव होते ह । | जैसे शिशपालवध मं :- 
त्राश्लिष्ट भूमि रसितारमुचं लोलद्ध.जाकार वृहत्तरङ्ञम्‌ । 
देनायमानं पत्तिमापगानामसावपस्मारिणमाशशङ्कं ॥ 


(उस समय समुद्र मूमि पर पडा था, जोर से चिल्ला रहा था; उञ्जकी 
बढ़-बदी तरङ्गे चञ्चल ध्वजा के समान बार-बार उठ-उकर्‌ गिरती थीं, उसमे 
से फेन.निकल रहा था । अतएव ससुद्र को कृष्ण भगवान्‌ ने समा मानों वह 
अपस्मार का रोगी हो । 

(२३) मोह :-- | 

मोहो विचित्तताभीति दुःखावेशाचु चिन्तनैः । 
तत्रा्ञान भरमाघात धृणेना दशेनादयः ॥२६॥। 

[ ईःख, आवेश शौर अनुचिन्तन इत्यादि से जो ज्ञान का अभाव 
बेहोशी होती है उसे मोह कहते हे । इसमे अक्ञान, चम, आघात, चकः 
करना, न दिखाई देना इत्यादि अनुभाव होते हे । | जैसे कुमारसम्भव 
न :-- 

ती्राभिषङ्ग प्रभवेण वृतिं मोदेन संस्तम्भयतेन्दरियाणम्‌ । 
ग्र्ञातभवृष््यसना महूत  कृतोपकारेवरतिवमूव ॥ 

(द्वियो की इत्ति को रोकनेवाले तीव्र अभिघात से उत्पन्न मोह के कारण 
अपने पति के मरण रूप विपत्ति का दो घडी तक रतिकशो ज्ञान नहीं रहा। 
इस प्रकार मोह ने मानों रति का उपकार कियादहो)' 
दूखरा उदाहरण जैसे उत्तर.रामचरित म :- 

विनिश्चेत' शक्यो न सुखमिति वा दुःखमिति वा। 
प्रमोहो निद्रा वा किमु विष विसपेः किंमुमदः। 
तव स्पशं स्पशं ` ममहि परिमृडेन्द्रियगणो । 
विकारः कोऽप्पन्तज॑ंडयति च तापं च कुरते ॥ 


शरीरामचन्द्रजी कहते हे. -८हे सीते ! तम्हारे स्पशं के विषय में यही 
निश्चय नहीं किया जा सकता है कि यह सुख हे कि दुःख है; यह ऽमोह है या 
निद्रा हे क्या यह त्रिष का प्रसार या कोड नशा हे । तुम्हारे प्रव्येक स्पशं मे मेरी 
इन्द्रियों के समूह को परिपूणं रूप से मूढ बनानेवाला एकं अपूव विकार 
मेरे हृदय मे जडता भी उत्पन्न हरता हे ओ्रौर सन्ताप भी उत्पन्न करता हे ।' 
(२४) मति :-- 
भ्रान्तिच्छेदोपदेशाभ्यां शास्त्रादेस्तत्वधीरमतिः ॥ 














( १८६ ) 


[ म-निवारण श्रौर उपदेश के द्वारा शाख इत्यादि का तत्व ज्ञान हो 

जाना मति कहलाता है । ] जेते किराताजैनीय में :-- 
सहसा विदधीत न क्रियामविवेकः परमापदां पदम्‌। 
वृणते हि विमृष्य कारिणं गुण लुन्धाः स्वयमेव सम्पदः ॥ ` 

“सहसा कायै नहीं करना चाहिये; अ्रत्ञान समस्त आपत्तियों का स्थान है; 
गुणों का लोभ करनेवाली सम्पत्तियां छानबीनकर काम करनेवाले को स्वयं 
वरण कर ज्ेती हे ।' 

दूसरा उदाहरण : 

न परिडताः साहसिका भवन्ति श्रुत्वापि ते संतुलयन्ति तत्वम्‌ । 
तच्वं समादाय समाचरन्ति स्वार्थैः प्रकुवंन्ति परस्य चार्थम्‌ ॥ 

"परिडित लोग साहसिक (बिना सोचे समे काम करनेवाज्ञे) नहीं होते । 
वे किसी प्रयोजन को सुनकर उसके तस्व को तौलते हँ ओर तत्व को अहण कर 
कायै करते हैँ । इस प्रकार वे अपना भी भयोजन सिद्ध करते है सौर दूसरे काम 
भी बनाते हें । 

(२९) आलस्य :-- 

आलस्यं श्रमगभदेजवीह्य ज॒म्भाक्तितादिमत्‌ ॥२७॥ 

[श्रम या गभ॑ से जो जडता उत्पन्न होती है उसे आलस्य कहते है । इसमें 
जँभाई ज्ञेना, बैटना इत्य(दि वातं होती हँ । ] उदाहरण जैसे धनिक का पद्य :-- 
चलति कथ्चित्पृष्टा यच्छुतिवचनं कथञ्चिदालीनाम्‌ । 
त्रासितुमेव हि मनुते गुरुगभमं भरालसा सतनुः ॥ 

(भारी गभं के भार से आलस्य मेँ पडी हृदं वह सुन्दर शरीरवाल्ली नायिका 
कहने प्र बड़ी कठिनता से चलती है; बड़ी कठिनता से सखियों से बातचीत 
करती ह तथा बैठे रहने को ही बहुत समती ह ।' 

(२६) आवेग :-- 

त्रावैगः सम्भ्रमोऽस्मिन्नमिसर जनिते शख्रनागाभियोगो 
वातात्पांसूपदिग्धस्स्वरितपदगति्वषजे पिरिडताङ्गः ॥ 
उत्पातात्खस्तवागेष्व दहित दहित कृते शोक हर्षानुभावा 
वह धू माकुलास्यः करिजमनु मयस्तम्भकम्पा पसाराः ॥ 

[ आवेग सम्भ्रम को कहते हे । यदि यह संभ्रम राजां के यहाँ की भाग- 
दौड़ ओर उपद्रव के कारण हो तो शस्त्रो, हथियारों इत्यादि क अभियोग होता 
है; यदि वायु से उत्पन्न हुमा हो तो धूलि से सन जाना ओौर शीघ्रतापूर्व॑क 
दौढना इत्यादि होता है; यदि वर्षं से संभ्रम हो तो शरीर संकुचित हो नाता 
है; यंदि उत्पातसेहो तो शरीर दीला पदजाता हे; यदि शत्रु शौर भित्रोंके 











( १६० ) 


कारण हो तो शोक ओर हषं का अनुभाव होता है; यदि आग का उपद्रव हो तो 
मुख धुय खे भर जाता है ओर यदि हाथी के कारण हो तो भय, स्तब्ध हो 
जाना, कपना श्रौर भागना ये बातं होती हे ।] (अ) राज विद्रव से संञ्नम का 
उदाहरण जैसे धनिक का पद्य :-- 
त्रागच्छागच्छं सज्जं कुरु वरतुरगं सन्निघेहि द्रृतं मे। 
खद्धः कसो कृपाणीमुपनय धनुषा किं किमङ्गप्रविष्टम्‌ ॥ 
दंरम्भो्िद्धितानां क्षिति भरति गहनेऽन्योन्य मेवं प्रतीच्छन्‌ । 
वादः स्वघ्नामिदष्टे स्वयि चकितदृशां विद्धिषामा विरासीत्‌ ॥ 

(श्आश्नो, आओ, अच्छे घोडे को तेय्यार कर लो, शीघ्र ही मेरे निकट 
आ जारो, अरे तलवार कहा है; इृषाणी (चुरी इव्यादि छोटे अस्त्रो) को ले 
श्रो, अरे धनुष का क्या होगा; अरे क्यारा ही गया।' हे राजन्‌ ! जब 
आपके शत्र संरम्भ के साथ वनम सो जाते हें ओर आप उनके स्वभे 
प्रविष्ट हो जाते ह उस समय उनकी आँख चकित हों जाती ह ओर एक दूसरे 
को सम्बोधित करते हए ये बाते' उनके मुंह से निकलने लगती है ।' 

तनु्ाणं तनुत्राणं शस्त्र शख रथो रथः। 
इति शुश्र.विदे विश्व गुद्धयः सुमटोत्तयः ॥ 

(कवच, कवच, अरे शस्त्र, शस्त्र, ञ्ररे रथ अरे रथ, ये सुभटो की उच्च कोटि 
की उक्तियां चासो ओर सुनाई पड़ने लगीं ।' 

तीसरा उदाहरण :-- 

प्रार्धां तरुपुत्र केषु सहसा सन्त्यज्य सेकक्रिया । 
मेतास्तापस कन्यकाः किमिदमित्यालोकयन्त्याकुलाः ॥ 
्मरोहन्त्युयज द्र माश्च बटवो वाचंयमा श्रप्यमी । 
सब्योमुक्त समाधयो निजवृषीष्वे वोचपादं स्थिताः ॥ 

"ये तपस्वियों की कन्यायं पुत्र के समान पालन किये हुये छोटे छोटे वुक्तो 
ॐ सीचने की क्रिया को प्रारम्भ कर चुकी थौ उसको सहसा छोडकर व्याकुल 
होकर यह क्या है १” यह देख रही हे । ये ब्रह्मचारीगण ऊटी के वृतो पर 
चद्‌ रहे है ओर ये मौन तपम्बी लोग शीश्र ही अपनी समाधियों को छोडकर 
अपने आसनो पर ही एक वैर ऊँचा कथि हुये खडे ह ।: 

(रा) वायु से उत्पन्न आविग का उदाहरण-- "वाय॒ से उड़ाया इन्र 
यह वस्तु आकुल हो रहा है अथात्‌ फढफडा रहा हे ।' इत्यादि । (इ) वषा से 
उत्पन्न आवेग का उदाहरण :-- 

देवे वषैत्यशनपवनन्याप्रता वहिदेतोः -- 
गादुगेहं फलकनिचितैः सेवंभिः पक्कभीताः ॥ 








॥ ऋस गस, 


( १९१ ) 


नीधप्रान्तानविरल जलान्‌ 4 
शरपच्छत्रस्थगितशिरसो योषितः सञ्चरन्ति ॥ 

मेध बरसने के समय मे खाने पकाने के कामम लगी हई स्त्र्या आग 
लाने के लिये कीचड़ के भय से ेसे मागं से एक घरसे दृसरे घर कोजारही 
है जिस्म तस्ते के छोटे छोटे कडँ पडे हये ह मानों उनका पुल र्वाध दिया 
गया हो । ये सत्यां भओयेलाती (छानी के छोरों) को, जिनमे भली माति | 
पूणरूप से जल भरा हुआ है, अपने हाथों से हटा कर, सूय के छते से अपने 
सर को ढक कर इधर उधर घूम रही हैँ 

(ई) उस्षातत से उ स्पन्न आवेगा का उदाहरण :-- 
पोलस्त्यपीनमुजसम्पदु दस्यमान | 
कैलास सम्भ्रमविलोलदशः प्रियायाः । 
भेयासि वोदिशतु निहत कोप चिह- 
मालिङ्गनोत्पुलकमासितमिन्दु मौलेः ॥ 

रावण की इद्‌ भुजां की शक्ति से उठाये हुये कैलास के कारण प्रियतमा 
पावती की दृष्टि सम्भु के कारण चञ्चल हो गई अओौरवेकोप के चिह्न को 
िपाकर शङ्करजी से चिपट गई॑' (आलिङ्गन करने लगीं ) । इस प्रकार आआलि- 
गन के कारण रोमांच से भरे हुये शङ्करजी का बैटना आपसब लोगों का 
कल्याण करे! 

(उ) शश्ुकृत संरम्भ अनिष्ट के सुनने या देखने से होता है । जैसे उदात्त- 
राघव भँ--शचित्रमाय राक्स-(श्रमपूवैक) हे भगवन्‌ कुलपति रामचन्द्र ! 
र्ता करो ! (व्याकुलता प्रगट करता है ।) इसके बाद फिर चिन्रमाय कह. 
रहा है :-- 

मृगरूपं परित्यज्य विधाय विकटं वपुः 
नीयते रक्तसानेन लद्मणो यु धि संशयम्‌ ॥ 

“यह रात्तस खछगरूप को छोडकर भयानक रूप धारण कर लच्मण को 
लये जा रहा हे यह बड़ी शङ्का की वात है ।' इस पर रामचन्द्रजी कह 
रहे ह :-- | 

वत्सस्याभयवारिवेः प्रतिभयं मन्ये कथं राक्षसात्‌ । 
वरस्तश्चेष मुनिर्विरोति मनसश्चास्त्यव मे सम्भ्रमः ॥ 

मा दासीजंनकात्मजा मिति मुदः स्नेहाद्‌ गुर श्यां चते । 
हि~ स्थातु न च गन्तुमाकुलमतेमू टस्य मे निश्चयः ॥ 

भेरा वत्स लक्ष्मण निभंयता का महासागर है उन्हें राकस से प्रतिभय हो 
सकता हे यह मँ केसे मान लँ; यह सुनि भी त्रस्त होकर चिह्ञा रहा ह ओर 














( १९२ ) 


मेरे मन सम्भ्रम भी अधिक है । दृखरी ओर परेमपूवैक गुर ने बार-बार आदेश 
दिया हे कि सीता को मत दोना । अतएव इस समय मेरी इद्धि ब्धाकुल 
हो रही हैः मे मूढ होरहारह; अब नतो यही निश्चय कर सकता ह कि 
यहीं बैठा रहर रौर न यदी निश्चय करं सकता हँ किं चला जां ।' यहां तक 
अनिष्ट परासि से उत्पन्न सम्भ्रम का वणन किया गया है । 

(ऊ) इष्ट प्रासि से उच्पन्न सम्भ्रम का उदाहरण लेखे उदात्तराघव मः-- 
८(परदे को हटाकर एक सम्च्रान्त बानर का प्रवेश ।) बानर--महाराज ! यह 
पवन पुत्र के अगमन का हषै मनाया जा रदा हे । यहां से ज्ेकर--ष्देव के 
हृदय के आनन्द को उत्पन्न करने वाल्ञे मधुवन को उजाइ डाला । यहां तक 
इष्ट प्रासि से उदयन्न हषं का वणन क्रिया गया ह । 

दूसरा उदाहरण जैसे वीरचरित म :-- 

एह्य हि वत्स रघुनन्दन पूण चन्द्र 

चुम्बामि मूधनि चिरश्य परिष्वजे त्वाम्‌ । 
ग्रारोस्य वा इदि दिवानिशम॒द्वहामि 

वन्देऽथवा चर्ण पुष्करकद्वयं ते॥ 

'आश्नो आश्रो पूर्णचन्द्र के समान सुखवाले बेटा रामचन्द्र आमो, बहुत 
दिनों बाद तुम्हारे खर्का चुम्बन कर रलैः तुम्हं मट ल; तुम्हे हृद्य मेँ धारण 
कर रात दिन ढोता रट अथवा कमलल के समान तुम्हारे दोनों चरणो कौ 
वन्दना करू ।' 

(ए) श्राग से उत्पन्न सम्भ्रम का वणन जसे अमर्शतक्र म :- ~ 

चित्तो हस्तावलग्नः प्रभममिहतोऽप्याददानाऽुकान्तं 

गृहन्‌ केशेष्वपास्तः चरण निपतितो नेक्ितिः सम्भ्रमेण । 
श्रालिङ्गन्‌ योऽवधूतस्जिपुर युवतिभिः साश्रु नेत्ोखलामिः ॥ 
कामीवार्द्रापराधः ख॒ दहतु दुरितं शाम्भवोवः शराग्निः ॥ 
कर जी के बाण की अभि आ लोगो के पापों को जला डाले जो नेत्र 
कमलो म आँसू बहाने वाली त्रिपुराघुर कौ युवतियों के द्वारा अपराध मे आद्र 
कामी के समान हाथ मे लगने पर भिटक दी गद वस्त्र का द्खोर पकडने पर 
बलात्‌ हटा दी गई, केश पकडने पर दूर फक दी गह, चरणों पर गिरने पर 
सम्भ्रम के कारण देखी भी नहीं जा सकी श्रौर आलिङ्गन करने पर (शरीर के 
न्य भागों मँ लगने पर) तिरस्कृत कर दी गहं ' 
दूसरा उदाहरण जैसे र्नावली मे : ~ 
विरम विरम वबह्वं मुञ्च॒ धूमाकुलस्वं 
प्रसस्यसि किंसु रचिषां चक्रवालम्‌ । 








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( १९३ ) 


विरहहूतमुजाहंयो न दग्धः प्रियाथाः 
प्रलयदहनभाषा तस्य किं त्वं करोषि ॥ 
हे आग, सको, इस धुये' की आकुलता को छोड दो (घुये' की आकुलता 


को मत बद़ाञ्नो) व्यथै मे इन लपटों के समूहो को क्यों बढ़ा रहे हो ? प्रियतमा 


के वियोगकोश्ग्निसेजो में नहीं जला उसका तुम प्रलयाग्नि की लपट से 
क्या कर लोगे ?" 

(ए) हाथी से उत्पन्न आवेग का उदाहरण :-- 

स च्छन्न वन्ध द्रुत युग्यशूल्यं भग्ना्तपर्यस्तरथं क्षणेन । 
रामा परित्राण विहस्तयोधं सेनानिवेशं तुमुलं चकार ॥ 

उस बिगड़ हुए हाथी ने सेना के निवेश स्थल को उपद्रव से युक्त 
बना दिया ।' 

(२७) वितकं :-- 

तर्को विचारः संदेहाद्‌भ्र शिरोऽङ्गलिनतंक 
[जो सन्देह से (सन्देह पूण) विचार होता है उसे तकं कहते है । इस भौ 
सर ओर भंगुलियों का नतन होता है ।] उदाहरण जे लकमण कह रहे हें :-- 
कं लोभेन विलद्धितः स॒ भरतो येनैतदेवं कृतम्‌ । 
सद्यः खरी लघुतां गता किमथवा मातैव मे मध्यमा ॥ 
भिथ्येतन्मम चिन्तितं द्वितयमप्यार्यानुजोऽसौ गुर-- 
माता तातकलत्रमित्यनुचितं मन्ये विधात्रा कृतम्‌ ॥ 

“क्या लोभ के द्वारा भरत का उर्लङ्कन किया गया अर्यात्‌ भरत ने लोभा- 
भिभूत होकर अपने स्वभाव को छोड दिया रौर लोभ म पड गये जो उन्होने 
यह (राम का निवासन रूप) कार्यं किया अथवा मेरी मेंकली माँ ही इतना 
शीघ्र स्त्री सुलभ लघुता के वशरमेहो गई? मेरे लिए इन दोनों बातोंका 


` विचारमिथ्याहै। भरत तो आय (श्रीरामचन्द्रजी के अनुज है ्ओौर मेरे 
` ज्येष्ठ हे । माताजी भी पिताजी की पनी हे । ) (अतएव दोनों से इस अनु- 


चित कायं की सम्भावना नहीं ।) मै समता हँ कि यह अनुचित कार्य विधाता 
काक्रियाहूादहीहे।' 
दूसरा उदाहरण :-- | 
कः समुचिताम्षिकादायं प्रच्यावयेद्‌गुणज्येष्ठम्‌ । 
मन्ये ममेव पुण्यैः सेवावषरः कतो विधिना ॥ 
गुणों मे ज्येष्ठ आय (श्रीरामचन्द्रजी) कों इस उचित राज्याभिषेक से 
प्रच्युत कौन कर सकता था । मालूम पडता हे छि विधाता ने मेरे पुण्यो से ही 
सेवा का अवसर उपस्थित किया है ।' 





( १६४ ) 


(२८)-अवहित्था-- 

॥| | लञजाचैविक्रिया गुस्ताववहित्थाङ्गविक्रिया । 

| । | [ लज इस्यादि से विकारो का चिपाना अवहित्था कहलाता हे । इसमे अङ्ग 
| 





| | विकार अनुभाव होते हे ।] जैसे कुमारसम्भव म :-- 
| एवं वादिनि देवर्षो पाश्वं पितुरधोमुखी 1 
| लीलाकमल पत्राणि गणयामास पावती ॥ 
देवि नारद्‌ के इख प्रकार कहने पर पिता के पास बैठी हुदै नीचे को सर 
कयि हृद पार्वती लीला कमल के पत्तों को गिन रही थीं ॥ 
(२९) व्याधि :ः-- | 
|  म्याधयः सन्निपातायास्तेषामन्यत्र विस्तरः । 
|| [व्याधियाँ सन्निपात इत्यादि होती हे । उनका दूसरे शास्त्रं म वणंन हे ।| 
| दिग्दशंनमान्न उदाहरण जैसे :-- 
॥ ग्रच्छिन्नं नयनाम्बु बन्धुषुक्रतं चिन्ता गुखभ्योऽपिता । 
॥| | दत्तदैन्यमरेषतः परिजने तापः सखीष्वाहितः ॥ 
। | न्रयर्वः परनिवृतिं ब्रजति सा श्वासैः परंखिद्यते । 
॥ || विश्रब्धो भव विप्रयोग जनितं दुःखं विभक्तं तया ॥ 











| 
| | (निरन्तर बहनेवाली आँसुश्ों की धारा उसने अपने बन्धुओं को समपित 

| कर दी; चिन्ता गुरो को दे दी, अपने परिजन वगं उसने अपनी सारी दीनता 
| प्रदान कर दी नौर सन्ताप सखियों को दे दिया । अब तुम निरशिचन्त हो जाच्रो; 
| उसने वियोग से उत्पन्न अपना सारा दुःख दूसरों को वाट दिया है । बह भ्राज 

याकल ही बिलकुल शान्त हुदै जाती है; उसे खेद्‌ केवल श्वासो का ही 
| रह गया हे ।' 
(३०) उन्माद्‌ :- ` 
छ्र्ता कारितोन्मादः सन्निपात ब्रहादिभिः। 
| ्स्मिन्नवस्थाः रुदितगीतहांसासितादयः ॥३०॥ 

[सन्निपात रह दत्यादिसे बे सोचं-समभे कार्यं करना उन्माद्‌ कहलाता 
हे । इसमे रोना गाना खना बैठना इत्यादि अवस्था होती हें ।] उदाहरण 
जैसे--“अरे सुद्र रास । उहर-ठहर कहां मेरी प्रियतमा को लिये जा रहः हे ?" 
इस उपक्रम के साथ लिखा हे--“अरे ! अच्छा ॥ 

नव जलधरः सन्नद्धोऽयं न इक्त निशाचरः । 
सुत्वनुरिदं दृरङ्षटं न तस्य शसतनम्‌ ॥ 
द्रयमपि पटुर्धारासारो न वाणपरम्परा । 
कनकनिकषस्निग्धा विदुखियान ममोवेरी ॥ 








[ ४९ 
( १९५ ) 


यह नवीन बादल उमड़ रहा है, यह उद्धत राक्तस नहीं है । यह इन्द्रधनुष 
दिखाई पड़ रहा है, यह उस राक्तस का धनुष नहीं हे । यह भी तेज धाराच्ों 
की वर्षा है यह वाणो की परम्परा नहीं है| यह कसौटी पर सोने की रेखा के 
समान जिग बिजली चमक रही है मेरी प्रिया उवंशी नहीं है ।' 

(३१) विषाद्‌ :-- 

प्रारब्ध कायांसिद्धयादेर्विषाद्‌ः सत्वसक्घंयः। 
निःश्वासोच्छवास हनत्ताप सदहायान्वेषणादिकरत्‌ ॥३१।। 
प्रारम्भक्ियि हुए कायै की असिद्धि इत्यादि से तेज का नष्ट हो जाना 
विषाद कहलाता हे । इसमें गहरी रवास, ऊँची शास, हदय का सन्ताप, सहायक 
का अन्वेषण इत्यादि अनुभाव होते हे । | 

जैसे वीरचरित अं--८हाय आयं तडके ! यह क्या हुश्रा ? अरे यह तो 

जल मे अलाबु (कद्‌ के फल) इब रहे हँ ओौर पत्थर तैर रहे हे । 
“नन्वेष रात्तस पतेः स्खलितः प्रतापः । 
प्रा्तोऽद्भ्‌.तः परिभवोहि मनुष्यपोतात्‌ ॥ 
दृष्टः स्थितेन च मया स्वजन प्रमाथो- 
दैन्यं जराच निख्णद्धि कथं करोमि ॥ 
निर्सन्देह यह रा्तस राज के प्रताप का स्खलन है । यह एक साधारण 
मनुष्य के बालक से अद्‌्ुत पराभव प्राक्च हु्रा है । मने यहाँ वैटे ही वैरे स्वजनों 
का संहार देखा हे । अव मँ क्या कर सुभे दीनता श्नौर बदापा दोनों (पराक्रम 
दिखाने से) रोक रहे हे ।' 
(३२) ओत्सुक्य :-- 
कालाक्तमत्वमौल्सुक्यं रम्येच्छारति सम्भमैः। 
तत्रोच्छवास्तत्वनः श्वासटन्चापरवेदविम्धमाः ॥३२) 

[रमणीय इच्छा, रीति ओर सम्भ्रम से समय को सहन न करना शओौस्सुक्य 
कहलाता ह । उसमे ऊँची श्वासे, जल्द्वाजी श्वास, हदय मँ सन्ताप, पसीना 
शरीर विश्रम ये भ्रनुभाव होते है ।] 

` उदाहरण जैसे कुमारसम्भव मे :-- 
“त्रत्मानमालोक्य च शोममानमादर्शाविम्बे स्तिमितायताक्ती | 
हरोपया ने त्वरिता वभूव चख्रीणां प्रियालोकफलोहिं वेधः |" 

स्थिर भौर विशाल नेन्रोवाली पार्वती शीशे मे अपने को शोभित हा 
देखकर शङ्करजी के पास जाने के लिए शीघ्रता करने लगी । निस्सन्देह वेष 
रचना का सबसे बडा फल यही है कि प्रियतम उसे देख ले ।' 

दूसरा उदाहरण जैसे ऊुमारसम्भव मेँ ही '-- 





( १९६ ) 


पशुपतिरपि तान्यदानिङ्ृच्छादनिनयदद्ि सुतासमागमोत्कः । 
कमपरमवशं न विप्रकु्ं विमुमपितं यदमीसणशन्ति भावाः ॥ 

(पशुपति शङ्करजी ने भी गिरिराज पुत्री श्री पार्वती के दर्शनों की उत्कण्डा मं 
उन दिनों को बड़ी कठिनता से बिताया । ये काम विकार किस दृसखरे षरवश 
व्यक्ति फे हृदय मे विकार न उत्पन्न करंगे जब किं विभुं उन शङ्करजी को भी ये 
भाव प्रभावित कर देते हे ।' 

(३३) चापल :-- ` 

मासरं द्वेष रागादेश्चापलं स्वनवस्थितिः.। 
तन्रभत्सनपारुष्यस्वच्छन्दाचरणादयः ॥३३॥ = 

[ मास्यं द्वेष राग इत्यादि से चित्त कौ स्थिरता “चापलः कहलाती है । 
इससे डाटनां, कठोरता दिखलाना, स्वच्छन्द भाचरण करना इत्यादि अचु भाव 
होते द ।| ¦ 
जैसे विकट जितन्वा का पद्य :-- 

शरन्यासु तावदुपमद॑सदासु भङ्गं लोलं विनोदय मनः सुमनोलतासु । 
बालामजातरजसं कलिकामकाले व्यथ" कद्थेयसि किं नवमल्लिकायाः ॥ 

"हे भौरि ! तब तक तुम उपमद को खहन कर सकने में समर्थं द्‌ सरी पुष्प- 
लताश्नों नै अपने चञ्चल मन को आनन्दित करो (जब तक ईस लता का पूणं 
विकास न हो जावे ।) अभी यह की सुग्ध है, इसमे पराग भी नहीं पडा है, 
मह्धिका वी इस कली को व्यथं ही तुम बिना अवसर के कद्थित | 
रहे हो + 

उपयुक्त ३३ व्यभिचारीभाव चित्तवृत्तियों के ही विशेष रूप है । चित्त- 
वृत्तिर्या ्ननन्त प्रकार की हो खकती ह । उनकी संख्या सीमित नदींकोजा 
सकती । किन्तु अन्य चित्तवृत्तियों के विशेष रूप इन्दी ३३ चित्तदृत्तियों क 
वरिमाव या अनुभाव के स्वरूप में प्रविःट हो जाते है! अतएव उनका पृथक्‌ 
उल्लेख नहीं करना चाहिए । यद्य तकं व्यभिचारी भावोंकी व्याख्याकीजा 
चुकी । 





स्थायी-माव 


स्थायी माव का सामान्य लक्षण यह है :- 
विरुद्धौरविरुद्धौर्वां भावे्विच्छिद्यते न यः। 
ारमामावं नयत्यन्यान्‌ स॒ स्थायी वलणाकरः ।३४॥। 
[विरुद या अविरुद्ध ` भावों से जो विच्छिन्न न हो ओर दूसरे भावों को 
अपने ही खूप से परिणत कर ते उसे स्थायी-भाव कहते ह ।| 








( १९५ ) 


शय यह है कि जहां पर रति इत्यादि भावों का उपनिबन्धन इस रूप 
नरै हो कि सजातीय श्चौर विजातीय दोनों प्रकार के भावों से उसका विच्छेद न 
हो सके उसे स्थायी-भाव कहते हँ । सजातीय भाव से विच्छिन्नन होने का 
उदाहरण जैसे बृहत्कथा मै नर वाहनदत्त के मदनमन्छुका के पति अनुराग का 
वर्णन किया गया है । यद्यपि अनेक अवान्तर नायिकाश्नों के प्रमका भी वणंन 
है किन्तु उन अवान्तर अनुरागो के द्वारा मदनमन्जुषा के प्रति अनुरागका 
विच्छेद नहीं होता । इसी प्रकार विजातीय भावों से स्थायी माव के तिरस्कृत 
न होने का उदाहरण जैसे मालती माधव मे श्मशानाङ्क म बीभत्स रस के द्वारा 
मालती के प्रति अनुराग का तिरस्कार नहीं होता । वर्ह पर माधव कह रहे 
है--“नेरे अन्तःकरण मेँ पूवं अनुभव के आधार पर जिस संस्कार का प्रादुर्भाव 
हआ है उसके निरन्तर जागरूक रखने से जिसका विस्तार हो गया है ओौर 
दूसरे अकार के प्रस्ययों से जिसका प्रवाह नहीं रोका जा सकता इस प्रकार के 
प्रियतमा के स्मरण रूप प्रत्यय की उत्पत्ति का विस्तार इत्ति सारूप्य से मेरे 
चेतन्य को मालतीमय बना रहा है ।' (दे ०) इत्यादि वाक्ष्यो के दारा 
मालती के प्रति अनुराग के तिरस्कृत न होने की बात कही गह है । इस प्रकार 
विरोधी या अविरोधी भावों के.स्थायी भावम समावेशे दोष नहीं होता । 

इसको इस प्रकार समकिए-- विरोध दो प्रकार का होता है; एक तो साथ 
न बेठ सकना ओौर दूसरे बाध्यबाधक भाव होना । इन दोनों ही रूपों मे स्थायी 
भाव का दूसरे भावों से विरोध नहीं होता । कारण यह है किं भाव प्रपाणक 
न्याय से संघात स्पे अस्वाद्‌ प्रगट करनेवाले होते ह। (जिस प्रकार यदि 
काली मिचं कपूर इलायची इत्यादि द्रव्यो से पीने का कोई रस बनाया जावे तो 
उस बने हए द्रव्य में एक ही रस रह जाता दै । सभी वस्तुनो की उस्म थक्‌- 
पथक्‌ प्रतीति नहीं होती ।) इसी प्रकार विभिन्न भावों से निष्पन्न हष रसम भी 
विभिन्न भावों की अनुभूति नहीं होती किन्तु उनका सङ्घात ख्प मेही ्ास्वा- 
दन होता है । यदि स्थायी भाव का दूसरे भावों से विरोध हो तो उनके विषय 
म भी यह नहीं कहा जा सकता कि वे एक साथ मे स्थित नहीं हो सकते । जिख 
प्रकार एक ही सूत मे माला बनाने के लिए विभिन्न प्रकार के एल गृथे जाते हैं 
उसी प्रकार रति इत्यादि से उपरक्त चित्त मे अविरोधी व्यभिचारी भावों के उप- 
निबन्धन म क्रिसी प्रकार का विरोधन होना समस्त रसिकजनों का अनुभव सिद्ध 
खस्य है । जिस प्रकार अविरोधी व्यभिचारी भावों का समावेश रसिकजनों का 
स्वाुभव सिद्ध व्यापार है उसी प्रकार कान्य व्यापार के संरम्भ से अनुकायै राम 
इत्यादि मे भी जब उनका समावेश होता है तव उससे पने चित्त काभी 
तादास्म्य हो जाता है अर इस पकार पाठकों मेँभी वसी ही भ्रानन्दमयी 























( १९ ) 


चेतना के उन्मीलन भ बह श्रनुकायैगत रस हेतु हो जाता दै। अतएव यह नहीं 
कहा जा सकता कि भाव एक साथ मे स्थित नहीं हो सकते । प 

अब वाभ्य वाधक भाव को ले लीजिए । वाध्य वाधक भाव का अथ हे दसरे 
भावों से दूसरे भावों का तिरस्कार । स्थायी माव का ्रविरोधी व्यभिचारि से 
तिरस्कार हो ही नहीं सकता । क्योकि अविरोधी व्यभिचारी भाव स्थायी भाव 

के श्रंग होतेह । इसी लि वे स्थायी भाव के विरोधी नदीं कहे जा सकते । 
कारण यह हे किं प्रधान विरोधी कभी अङ्ग नहीं होते नौर जो अङ्ग होते हवे 
प्रधान रूप से विरोधी नहीं होते । इसी प्रकार उनके अवान्तर रूप मे विरोधी 
होने का भी खण्डन हो जाता है । अथवा पूर्वोक्त सुक्सूत्र न्याय से (एक ही सूत 
म विभिन्न प्रकार ऊे फूलों के गे जाने के नियम से) अवान्तर विरोध का समा- 
धान किया जा सकता है । उदाहरण के लिएे मालती माधव म यद्यपि शगार 
रस क बाद वीभत्स रस का उपनिबन्धन किया गया है किन्तु फिर भी कों 
नीरसता नहीं आने पादै है । अतएव इस स्थिति मे रसों का विरोध वहीं पर 
होता है र्हा पर एक ही आलम्बन के विषय मँ विभिन्न विरोधी रसो का उपा- 
दान क्रिया जावे । यही (दक आलम्बन के विषय दो विरोधियों का समावेश 
ही) विरोध मे कारण होता है । यदि आलम्बन भिन्न-भिन्न हों तो विरोध नहीं 
होता । जैसे यदि रावण के ही प्रति (उसी को आलम्बन मानकर) राम के भय 
ञ्लौर उत्साह दोनों का वसन किया जावे तो ये भाव विरोधी होगे किन्तु यदि 
राम का भय किसी दृखरे के प्रति हो ओर उत्साह किंसी दृसरे के भ्रति तो उनम 
विसेध नहीं होगा । यदि एक आलम्बन को मानकर भी एक ही व्यक्ति के विरुद्ध 
रसो का वणन किया जावे किन्तु उनके बीच मे कोई दसरा रस आ जावे तो भी 
उनम व्रियोध नदीं होता । (यहा पर धनिक ने प्राङृत भाषा का उदाहरण देकर 
लिखा है कि श्रस्तुत पद्य मँ वीभत्स ञ्मौर शगार रस काषएकसमे समावेश विरुद 
नहीं है, कथो कि उनके वीच मँ श्रंगभूत दूसरे रसो का व्यवधान हो गया हे । 
पद्य इस प्रकार है :-- 
श्रर्ण हृणाहु महेललिश्र हुजहु परिमलुखश्रन्धु । 
मुह कन्तह शअगत्थदह श्रंगणफिड्इर गन्धु॥ 

किन्तु इस श्लोक की न तो संसृत च्छाया स्पष्ट ह ओरन अथेकाही पता 
चलता है । सारांश यही है किदो विरोधो रसों के समावेश मेँ यदि तीसरे का 
व्यवधान हो तौ विरोध नहीं रहता । 

(प्रश्न) यह बात तो मानी जा सकती हे कि जहां पर एक रस का प्रधान 
रूप से वर्णन करना हो अर दृखरे रस उसकेच्चंग के रूपमे आवें वहां पर 
दंगाङ्गि भाव मानकर अविरोध हो सकता है। किन्तु जहां परदोरसों कौ 


(१९६ ) 


समान अ्रधानता हो वहां पर श्रनेक भवोंका समावेश किस प्रकार समीचीन 
कहा जा सक्रताहै? समान प्रधानता के साथ दो रसोँंके समावेशका 
उदाहरण ;- 

“रक्तो सग्रह पिन्रा श्रण्ण तो समर तूर शिग्धोसो। 

पेमाणे र्ण रसेणश्र भडस्प डोलाइत्रं दिर श्रम्‌ । 

[एकतो रोदिति प्रियाऽन्यतः सपर तूर्थनिरघोषः। 

प्रेम्णा रणरसेन च. भरस्य दोलायितं हृदयम्‌ |] 

“एक ओर तो भियतमा रो रही है भौर दूसरी रोर युद्ध का तूर्य-घोष हो 
रहा है । अतएव एक ओर प्रेम अरौ दूसरी ओर युद्ध के रस से वीर का मन 
अस्थिर हो रहा है।' 

यहाँ पर रति ओर उत्साह काषएकमे समावेश है। 

दूसरा उदाहरण :-- 

माल्यं सुत्सायं विचार्यं कार्यायाः समर्याद मिदं वदन्तु | 
सेव्याः नितम्बाः किमु भूधराणामुत स्मर स्मेर विलासिनीनाम्‌ । 

हे आ्यैगण ! ईर्ष्या द्वेष का परित्याग कर ओर भली भांति सोच सम- 
कर मर्यादा का विचार रखते हुए यह बतलाश्नो किं क्या पवतो के नितम्ब 
(मध्य भाग) सेवन करने योग्य हँ या मदन पीडा के कारण सुस्छुराती हद 
विलासिनियों के नितम्ब सेवन करने योग्य हँ ।, 

यहाँ पर रति अभर निर्वेद का परस्पर समावेश किया गया हे | 

तीसरा उदाहरण :- 

इयं सा लोलात्ती त्रिभुवन विलासैक वसतिः । 
सचायं दुष्टात्मा स्वसुरप कृतं येनमम तत्‌ ॥ 
इतस्तीव्रः कामो गुरुरयमितः क्रोध दहनः । 
कृतो वेषश्चायं कथमिदमिति आस्पतिमनः ॥ 


रावण कह रहा है कि--“एक श्रोर तो यह चञ्चल नेन्रंवाली सीता है जो 
पने सौन्दयं के कारण तीनों लोकों के विलास का एकमानच्र केन्द्र मालूम पड 
रही है ओर दृसखरी ओर यह दुष्टःत्मा राम है भिसने मेरी बहन का अपकार 
.कियाहै। इधर तो भयानक काम पीडा हे ओर इख रोर भीषण क्रोधाग्नि 
प्रञ्वलित हो रही है । मेने वेष भी यह (संन्यासी का) बना लियाहै। मेरा 
मन चक्कर खा रहा ह कि यह सब क्या ओर किंस प्रकार हो रहा हे ! 

यहाँ पर रति ओर क्रोध का एक मँ समावेश है । 
„ चौथा उदाहरण- 




















( १०; 


्रन्नैः कल्पित मङ्गल प्रतिखराः -खीहस्तर्तोयल- 
श्यक्तोत्त'सभृतः पिनद्ध शिरसः हप्पुरुडरीक खजः । 
एताः शोणित पङ्क कङ्क मनुषः सम्भूव कान्तैः पिव- ` 
न्यस्थिस्नेद सुरं कपाल चषकः प्रीताः पिशाचाङ्गनाः ॥ 
८टन पिशाचो की यो ने इस समय ग्रत से माङ्गलिक हार बना लिया 
हेये चयो के हाथ रूपी लातत कमलो का ्राभूरण धरण क्रिये हुए दै; इनके 
सतते पर हृद्यदूपौ कमलो की माला धो हृं ओर इन्होने खून के पड्क 
का जुङ्कम लगा लिया है; इस प्रकार ये मिलकर अपने प्रियतमों के साथ 
कपालरूपी पान प्रों म हडयां री चिकनई कौ मदिरा आनन्द सेपी 
रही है ।' 
यहां पर पिशाचाङ्गनाओं को ही आश्रय मानकर (एक आश्रय मही) रति 
ञनौर घृणा का समावेश हुश्ा है । 
पाँचवाँ उदाहरण : -- 
एकंध्यान निमीलनान्धरुकुलितं चज्खुद्धितीयं पुनः 
` पार्वत्याः बदनाम्बुजस्तनतरे श्ङ्गार मारालसम्‌ । 
अन्यदर निङृष्ट चाप मदन क्रोधान लोदीपितं 


| 


शम्भोर्भिन्नरसं समाधि समये नेत्रत्रयं पातु वः ॥ 


(समाधि के समय मे शङ्करजी का एक नेत्र तो ध्यान।के कारण बन्द्‌ कर 
लिया गया हे अतएव वह कली के समान स्थित है । दृखरा नेत्र पावंतीजौ क 
मुख कमल शमौ स्तनतर पर शङ्गर के भार से अलसाया हुञरा पद्‌ रहा है 
नौर तीसरा नेत्र धनुष को अधिक खींचनेवानज्ञे कामदेव पर किये इए क्रोध की 
अग्नि से प्रजलित हो रहा है । इष प्रकार भिन्न रसोवाज्ञे शङ्करजी के तीनों 
नेन्र आप लोगों की रक्ता करं ।' 

यहा पर शान्ति, रति ओर क्रोध का समावेश हुआ दे । 

छटा उदाहरण ;-- 

एकेनादणा प्रविततरषा वीक्ठते व्योम संस्थं 
भानोर्विम्बं सजल लुलिते नापरेएात्मकान्तम्‌ । 

छ्महश्छेदे दयित विरहाशङ्किनी चक्रवाकी 
| द्वौ सङ्कीणौ रचयति. रसौ नतंकीव प्रगल्भा ॥ 

(दिन ॐ समाक्च होने पर प्रियतम के वियोग की आशङ्का करनेवाली चक्र- 
वाक वधू अधिक कोध से भरी हुदै एक आंख से आकाश में स्थित सूयै बिम्ब 
को देख रदी है ओर आखुं से भरी हुदै कोपनेवाली दूसरी सुन्दर आँखसे 








( २०१ ) 


अपने प्रियतम को देख रही है । इस प्रकार वह एक निपुण नतक के समान 
दो सङ्कीणं रसो शी रचना कर रही हे । 
यहां पर रति, शोक ओर क्रोध का समावेश है। इस प्रकार इन उदाहरणं 


ङ विरोधी रसो का समान प्राधान्य के रूप म उपनिबन्धन किया गया हे । 


फिर यहा पर विरोध क्यों नहीं माना जाता ? 

(उत्तर) उपयुक्त उदाहरणं मे भी एक ही स्थायी भाव है । प्रथम उदा- 
हरण “एक ओर तो ˆ` ` "अस्थिर हो रहा है मे उत्साह स्थायी भाव है भौर 
वितकं उसका व्यभिचारी भाव है । वितकं मं कारण सर्वदा सन्देह हा करता 
हे । उसौ सन्देह की स्थिति उत्पन्न करने के लिये प्रियतमा की करुणा श्रौर युद्ध 
के तुयं घोष का उल्लेख किया गया है । इस प्रकार इन दोनों का उपादान वीर 
रसकोही पुष्ट करता है। वही बात भट शब्द्‌ का प्रयोग करके प्रगट की गई है । 
यदि दोनों की समान प्रधानता होती ओ्ओर उपकार्योपकारक भाव मी न होता 
तो इनकी एकवाक्यता कभी वन ही नहीं सकती थी । दूसरी बात यह है कि 
यहाँ पर सङ्गम का तो अवसर उपस्थित है यदि यहां पर सुभट कोई दृखरा कार्थ 
करने लगे नो उससे उनी संभ्राम के प्रति उदासीनता ही व्यक्त होगी जिससे 
वणंन बडा ही अनुचित प्रतीत होने लगेगा । अतएव यहाँ पर प्रियतमा का 
करुण रस प्रिथतम की एकमात्र संभ्राममें ही अनुरक्ति को प्रगट कर रहा है 
जिससे बीर रस काही परिपोष होता है । 

अव दसरा उदाहरण लीजिए--हे आर्यगण !--- ` करने योग्य हैः में 
चिरमरहृत्त रति वासना का उपादान परित्याज्य होने के रूपमे ही क्रिया गयां 
दे । अतएव इससे शम की ही पुष्टि होती है । यही बात 'आ्यैगणः इस संबो- 
धन च्नौर (मर्यादा का ध्यान रखते हुए" इस वाक्य खण्ड से व्यक्त की गह हे । 

तीसरे उदाहरण “एकं ओर तो `ˆ“ ` “बना लिया है" मे रावण एक तो प्रति- 
नायक ह दृखरे वड निशाचर है । अतएव उसमे माया की प्रधानता होना स्वा- 
भाविक है । इस प्रकार यहाँ पर रौद रस प्रधान दै। रौद के व्यभिचारी भावं 
विषाद्‌ का आलम्बन विभाव सीता है; उन्हीं के विषय मे वितक॑ उपस्थित कियां 
गया हे । वितकं का रूप यही है कि ^रति ओर क्रोध के विरुद्ध होने फे कारण 
सुभे क्या करना चाहिए ।' इस प्रकार रावण के क्रोध प्रधान निशाचर होने के 
कारण रौद्ररस्र मेँ ही पयैवसान होता है तथा उसका' परिपोष सीता विषयकं 
वितकं के द्वारा होता है । इसी प्रकार चोये उदाहरण “इन पिशाचो की -* रं 
पीरदी हे" मे शृङ्गार भौर वीभत्स से हास्यरस की पुष्टि होती है ओर इन 
दोनों रसो का पयैवसान हास्यरस मे ही होता है। पांचवं उदाहरण समाधि 
के समय म ˆ“ “रक्ता कर' मे यद्यपि शङ्करजी भी शान्तरस मेँ स्थित है ङिन्तु 

२६ 





( २०२ 


उनका शान्तरस दूसरे योगियों के शान्तरस की अपेक्ता विलक्षण प्रकार का है । 
शङ्करजी का शान्तरस दूसरे भ्रकार के भावों से किसी प्रकार भौ आतिश्च नहीं 
होता । इसी बात का अतिपादन करने के लिए यहाँ पैर विरोधी रसो का उपा- 
दान किया गया हे जिससे शङ्करजी केः नि्वद की ही इष्टि दोती हे । यदी बात 
प्समाधि के समय मेः इस वाक्यांश के द्वारा व्यक्त की गद ह । छठे उदाहरण 
पदिन के समाक्च होने पर" "“ "कर रही है" म समसत वाक्य भावी विप्रलम्भ 
शरगारपरक ही हे । इख प्रकार समक्त अनेक रसो के समावेश की कीं बात 
ही नहीं उर्ती। 

शेष के द्वारा जहाँ दो अथं होते हों ओर उन दोना प्रतीयमान अर्थो का 
परस्पर उपभानोपनेय भाव हो वहाँ उपमान पक्त तो अंग (गौण) होता हे ओर 
उपमेय पत्त अङ्गा (प्रधान) होता है। जहां पर उपमानोपमेय भाव न होकर 
स्वतन्त्र खूप से दो वाक्यार्थो का बोध होता ह वहां पर अनेक अर्थो मे तात्पय 
होते हए भी वाक्याथ भेद्‌ से स्वतन्त्र रूप मं दो अर्थं होतेह ओौर दोनों मे 
पृथक्‌-पृथक्‌ प्रधानता होती हं । जेसे :-- 

श्लाध्यञ्चेषतनुं बुदशंनकरः षबाङ्ग॒ लीलाजित- 
त्रैलोक्यां चरणारविन्द ललितेनाक्रान्तलोको दरिः । 
बिभ्राणां मुखमिन्दु सुन्दरख्चं चन्द्रास चक्लद धत्‌ 
स्थाते यां स्वतनोरपश्यदधि कां खारकिंमणीवोऽवतात्‌ ॥ 

“₹क्िमिणीजी समस्त सुन्दर शरीरवाली है किन्तु इष्ण भगवान्‌ सुदशंन कर 
(*--सुन्दर हाथवाल्ञे, २ -सुदशंन धारण करनेवाले) ही हें } सक्मिणी ने 
सभी अङ्गं की लील्ला से तीनों लोकों को जीत लिया है; किन्तु कृष्ण भगवान्‌ 
ने चरणारविन्द के ललित (१-- सौन्दथ, २--गति) के द्वारा लोक का अति- 
क्रमण किय हे । रुक्िमिणीजी चन्द्र के समान प्रकाशमान सुन्द्र सुख को धारण 
करनेवाली हे किन्तु ष्ण भगवान्‌ चन्दरात्मक चद को ही धारण करते हं। इस 
प्रकार जिन खविमणीजी को भगवान्‌ कृष्ण ने ही ठीक ही अपने शरीर से अधिक 
समा वे स्करिमिणी आप सब लोगों की रक्ता करं ।' 

यहाँ पर शेष से दो अर्थो का बोध होता हं । इस प्रकार कहीं पर भी 
रति इष्यादि के उपनिबन्ध मे विरोध नही होता । अथवा जहाँ पर रति इत्यादि 
पदों का प्रयोग न क्रिया शया हो वहां पर भी विभाव इत्यादि के सहकार से 
उन्हीं रति इत्यादि म तापय होता है ओर जहां पर रति इव्यादि पद्‌ श्रवण- 
गोचर हो रहे हों वहां पर भी विभाव दत्यादि के सहकार सेद्ी रति इत्यादिमें 
तास्प्यै होता है । 

स्थायी भावों के निम्नलिखित भेद होते ई : -- 








भवः ` त १ ० पवा क 


(५ र.) 


रत्युत्साह जुशुप्साः कोधोहासः स्मयो भयं शोकः । 
शममपि केचिप्राहः पुष्रिरनास्येषु नैतस्य ॥३५॥ 

[रति इत्यादि आठ स्थायी भाव होते हें । क लोग शम को भी स्थायी 
भाव मानते है । किन्तु नाव्य में इसकी पुष्टि नहीं होती ।} 

शान्तरस के विषय मे विद्वानों मे अनेक मकार का मतभेद पाया जाता 
ह । कुं लोग कहते है कि--“शान्तरस (नाव्यर्मे) होता ही नहीं; क्योकि 
नाव्य के ्राचायनेन तो उसके विभाव इत्यादि का प्रतिपादन किया दहै मौर 
न उसका लक्तण ही बनाया है)" दूसरे लोग कहते हैँ किं--!शान्तरस की सत्ता ` 
हो ही नहीं सकती; क्योकिं जो राग ओर द्वेष अनादि कालस प्रवाह रूपमे 
चल्ते आ रहे हैँ उनका उच्छेदन सवैथा असम्भव है ।' कुच ओर लोग कहते हैँ 
कि--“शान्तरसमे दोही बातं प्रधान होती एक तो संसार मे कामक्रोध: 
इत्यादि दोषों पर विजय प्राक्च करने का उत्साह ओर संसार को मलिन समभ- 
कर उसके प्रति घणा । उत्साह का अन्तर्भाव वीररस मेँ हो जाता हे ओर घृणा 
का वीभत्स रस में । इस प्रकार शम को भी पथक्‌ मानने की आवश्यकता नहीं 
रह जाती । इस विषय मेँ मेरा कहना यह है कि सुभे इस फगडे म पड़ने की 
आवश्यकता नहीं कि शम नामक स्थायी भाव होता है या नहीं । चाहे जो कों 
सिद्धान्त माना जावे हम तो अभिनयात्मक नारक इत्यादि मे शम के स्थायी 
भाव का निषेध करते हँ । कारण यह हे किशममे सभी व्यापारो का विलय 
हो जाता है । अतएव उसका अभिनय हो ही नहीं सकता । 

कुद लोगों ने नागानन्द इत्यादि नाटकं म शम को स्थायी माव माना है। 
किन्तु नागानन्द्‌ मे प्रबन्ध की समाति पयैन्त मलयवती के अनुराग ओर अन्त 
मे विद्याधरचक्रवतित्व की प्रातिका वणंन किया गया है । यदि नागानन्द में 
शम को स्थायी भाव माना जावे तो उक्तमलवती के अनुराग ओौर विद्याधर 
चक्रव्ित्व की प्रि से उखका विरोध आ पडेगा | एेसा कभी नहीं होता कि 
एक ही अनुकाय को विभाव मानकर उनके सहारे विषय के अनुराग ओओर विराग 
दोनों प्राक्च हो सकं ¦! अतएव मानना पडेगा किं नागानन्द्‌ से शम स्थायी भाव 
नहीं है किन्त दयावीर का उस्साह ही स्थायी भाव है ओर उसी का अङ्ग शृङ्गार 
रख भीदहोगयादहै।न,तो उस (दयावीर के स्थायी भाव उत्साह) का अङ्गभूत 
शृङ्गाररस से ही विरोधदहै ओर न चक्रवतित्व प्रा्षिरूप फल से ही उसका 
विरोध हो सकता है । धीरोदात्त नायक के लक्षण लिखने के अवसर पर यह 
तो बतलायादहीजा चका ह किं “सर्वत्र अभिलषित का्यंदही करना चाहिए यह 
खमकर यदि कोई विजिगीषु परोपकार मँ लगा हा हो ती संयोगवश उसे 
फल भौ भिज्ञ जाता हे । अत्व नाव्य मरं अाठही रस होतेह । 



































( २०४ ) 


यहा पर एक प्रशन यह होता हे :-- 
` रखनाद्रसस्वयेतेषां मधुरादीनामिवोक्तमाचाय : । 
निर्दा दिष्वपि तत्प्रकाममस्तीति तेऽपि रसाः ॥ 
"आचार्यो ने कहा है कि शंगार इत्यादि को “आस्वादन के कारण रख कहते 
ह । यह बात निंद इत्यादि म भी पादं जाती ह । अतएव वे भौ रस होते है 
इख भ्रकार जब अन्य भी रस हो सकते है तब श्चाठदही रस होते है यद 
कैसे कटा जा सकता है १ इसका उत्तर यह है :-- | 
निवेंदादिरताद्रप्यादस्थायी स्वद॑ते . कथम्‌ । 
दैस्यायैव तत्पोमवस्तेनाष्टौ स्थायिनोमताः ॥६६॥ 

[निवेद इत्यादि मे ताद्रुष्य (स्थायी भाव का रूप) नहीं होता । अतएव वे 
स्थायी भाव होते है । उनका आस्वादन हो ही किस प्रकार सकता है ? उसका 
परिपोष केवल विरसता उत्पन्न करनेवाला होगा । अतएव स्थायी भावथओआआठ्दही 
होते हं ।| 

ताद्रप्य का अथै हे विरुद या अविरुद्ध भावों से विच्छेद का न हो खकना । 
जिने यह गुण विद्यमान होता है वे ही स्थायी होते ह । निर्वेद इत्यादि में 
यह बात नहीं होती । अत्व वे स्थायी भाव नहीं कहे जा सकते । , उनको 
अस्थायी माव कहते है । यदि चिन्ता इत्यादि अपने-अपने व्यभिचारी भावों के 
लाथ रक्खा मी जावे ओर उनका परिपोष भी किया जावे तो भी उनसे केवल 
विरखता ही उत्पन्न होगी । कुचं लोगों का कथन हे कि निर्वेद इत्यादि अस्थायी 
भाव इसलिए होते हे किं उनका अवघान निष्फल होता हे । किन्तु यदि यह 
बात भान ली जावे तो हाख इत्यादि भी स्थायी भाव नहीं रहंगे । क्योकि 
उनका भी अवसान निष्फल ही होता है । यदि कहो किं हास इत्यादि का फल 
खा्तात्‌ न होकर परम्परागत खूप मे होता हे तो परम्परागत रूपमे तो निवेद 
इत्यादि का भी कल होता ही हे । अतएव निष्फलता अस्थायित्व मेँ प्रयोजक 
नहीं हो सकती किन्तु विरुद्ध या अविरुड भावों से विच्छिन्न न होना दी स्था- 
चिस्व म प्रयोजक होता है । यद वात निर्वेद इत्यादि के विषय मे नहीं कटी जा 
सकती । इसीलिए उनको रस भी नहीं माना जा सकता । अत्व अस्थायी भाव 
होने के कारण ही निद इत्यादि रस नहीं हो सकते । 


रस ओर स्थायी-माव का काव्य से सम्बन्ध 


यह पर प्रश्न यह उपस्थित होता हे कि इन रसां ञ्रौर स्थायी भावों का 
काम्य से क्या सम्बन्ध हे ? इनका काव्य वाचक भावं सम्बन्ध नहीं हो सकता 
कयौकि ये स्वशब्द्‌ से आवेदित नदीं होते । आशय यद है कि शर्कार इत्यादि 








( ॐ ) 


रसाले कार्यो मे श्ङ्गार इत्यादि या रति इत्यादि शब्द सुनाई नहीं पडते 
जिससे यह कहा जा सके छि उनका परिपोष वाच्य होता है । जहौ कहीं पर ये 


शब्द सुना भी पडते हैँ वहां पर भी विभाव इत्यादिके द्वारादही उनका 


आस्वादन होता है केवल शब्द के उपादान से ही उनका आस्वादन नहीं होने 
लगता । अतएव रस इत्यादि मेँ स्वशब्द वाच्यता नहीं होती । (आशय यह हे 
छि यदि कोद व्यक्तिकेवल यह कह दे किं रावण को देखते ही रामको क्रोधश्च 
गया तो क्रोध का क्रिंसी को तब तक आनन्दन श्रावेगा जब तक क्रोध की 
परिस्थितिश्रों नौर अनुभावों का वर्णन न किया जावे। अतएव रस स्वशब्द 
वाच्य नहीं होता ।) 
इसी प्रकार यहाँ पर लच्यलत्तक भाव भी नहीं हो सकता । लचच्यलक्तक 
भाव वहीं पर होता है जहां सामान्य का प्रयोग किया जावे नौर विशेषकी 
अवगति होवे । किन्तु यहां पर॒ सामान्य रूप से अभिधायक रस इत्यादि का 
सर्वत्र प्रयोग नहीं होता अतएव इनका लचयलक्तक भाव भी नहीं हो सकता । 
इसी प्रकार यहाँ पर लक्तित लज्ञणा भी नहीं हो सकती । लक्तित लक्षणा वहीं 
पर होती है जहाँ पर तीन शतं उपस्थित हों ` (१) स्वाथ वाध, (२) स्वार्थ 
सम्बन्ध ओर (३) रद या प्रयोजन मे कोद एक बात । जैसे यदि कोड कहे “गङ्गा 
म घर' गङ्गा का वाच्या्थहैध्रारा या प्रवाह । धाराम घर का बन सकना असं 
भव है । अतएव शब्द्‌ की गति स्खलित होः जाती है अर्थात्‌ वाच्यार्थे वाध 
उत्पन्न हो जाता है । तब गङ्गा शब्द्‌ वाच्याथै के नित्य सम्बन्धी तट को लचित 
कर देता है । यदी स्वाथै सम्बन्धदहै। तट के स्थान पर गङ्गा शब्दके प्रयोग 
करने से शीतस्व ओर प्रावनत्व की प्रतीति होती है । यही प्रयोजन है। रस 
प्रकरण मे मी यदि नायक (राम) इत्यादि शब्दों के अथै कावाधदहो जावेतो 
लक्तणा हो सकती है । किन्तु यर्हां पर वाध इत्यादि होता नहीं । अतएव लक्षणा 
से रस इत्यादि दूसरे अथा का बोध हो ही किख प्रकार सकता है ? कौन रेखा 
विचारशील व्यक्ति होगा जो बिना दी क्रिसी कारण या प्रयोजन के सुख्य के 
होते हए भी उसङ स्थान षर गौण का प्रयोग करे ? अतएव वालक सिह है" के 
समान गुणों के आधार पर होनेवाली गौणी लक्षणा भी यहां पर नहीं हो 
सकती । 
दूसरी बात यह है किं यदि रस की अनुभूति केवल वाच्य वृत्तिसेहीहोतो 
जो लोग रसिक नहीं हैँ केवल वाच्य वाचक भाव मही च्युर्पच्न है उनको भी 
रसखास्वादन होने लगे । रस को हम काल्पनिक भी नदीं कह सकते । यदि रस 
काल्पनिक हों तो कल्पना करनेवालो को तो आस्वादन हो। एक नीति 
सभी सहृदयो को एक सा रखास्वादन कभी न हो । (अतएव रसास्वादन कै 








( २०६ ) 


अभिधा ओर लक्तणा के छत्र से वाह्य होने के कारण ) कतिपय विद्वान्‌ व्यञ्जना 
नाम की एक नई ही बृत्ति मानते हैँ जो अभिधा, लक्तणा ओर गौणी इन तीनों 
शब्द्‌ की कल्पित वृत्तियों से भिन्न होती है ओर जिसका रत्र रस, वस्तु ओर 
अलङ्कार तीनो ही होतेह । 
हंस बात को इस प्रकार समक्िये-रस इस्यादि की प्र तिपत्ति विभाव, अनु- 
भाव ओर सञ्चारी भावके द्वारा हआ करती है । वह किसी भी प्रकार से वाच्य 
नहीं हो सकती । जैसे कमार सम्भव मेँ लिखा है :-- 
विवृरवती शैल सुतापि भावमङ्ग; स्फुटद्रालकदम्बकल्पैः । 
साचीकृता चारूतरेण तस्थौ सुखेन पर्यस्तविलोचनेन ॥ 
“शैलपुत्री पावैतीजी भी एल हुये बाल कदम्ब के समान अपने अङ्गां से 
अपने भाव को व्यक्त करती हु अपने सुख को खुकाकर भौर नेत्रां को धुमा- 
कर स्थित हो गई" । उस समय उनके सुख की सुन्दरता नौर अधिक बद्‌ 
गहं थी । 
यहा षर पार्वती के रूपमे विभाव का वणन किया गया है जिसमे अनु- 
रागजन्य श्रवस्था विशेष रूप अनभाव का समावेश है । इन विभाव भ्रौर अनु- 
भावके द्वारा शगार रस की प्रतीति उत्पन्न होती है जिसके जिए किसी शब्द्‌ का 
प्रयोग नहीं किया गया ह । इसे श्ंगार-ग्यञ्जना कहते हँ । यही बात ॒दृसरे 
रसो के विषय मे भी समनी चाहिए । केवल रस को ही व्यञ्जना नहीं होती 
किन्तु वस्तु की भी व्यञ्जना होती है । जैसे :-- 
मम धम्मिश्र वीसद्धो सो सुणहो श्रजमारिश्रो तेण । 
गोलाणइकच्छकुडङ्गवासिणा द्रिश्रसीदेण ॥ 
[भ्रम धार्मिकं विश्रन्धः स श्वाद्य मारितस्तेन । 
गोदावरी नदी कच्छ कुञ्ज वासिना दृप्त सिहैन ॥| 
कोई नायिका अपने प्रियतम से गोदावरी के तट पर मिला करती हे। 
वरहा पर स्नान इत्यादि के लिए जानेवाल्ते किसी धामिक की उपस्थिति से 
त्रमलीला ञँ विघ्न पडता है । वह धाभिक प्रायः एक ऊत्ते से डरा करता है । 
एक दिन उसे सुनाकर नायिका कह रही है-- हे धामिक अरव तुम स्वच्छन्द 
होकर आनन्द से धूमो । भाज उस कत्तं को गोदावरी नदी के किनारे कुज 
त्रे रहनेवाले एक उद्धतसिह ने मार डाला ।' 
यहा पर वाच्यार्थं विधिपरक है कि तुम स्वच्छन्द धूमो किन्तु अ्यज्गयाथं 
निषेध परक है कि--अव तुम वहां कभी मत जाना । अभी तक तो वहां कुत्ता 
ही था अव सिंह आ गया है ।' यहो पर वस्तु व्यज्जना है । यही बात अलङ्कार 
दै विषयमे भीकंहीजा सकती है) 





( २०७ ) 


उदाहरण :-- 
लावण्यकान्ति परिपूरित दिङ्‌ मुखेऽस्मिन्‌ 
स्मेरेऽधुना तव मुखे तरल।यता्ञि 
त्षोभ' यदेतिन मनागपि तेन मन्ये 
सुव्यक्तमेव जलराशिरयं पयोधिः ॥ 

ह चञ्चल ओर विशाल नेन्रोंवाली ! इस समय तुम्हारे सुख के सुस्ुराहट 
से युक्त होने पर सौन्दय रौर प्रकाश से दिशां का मुख परिपृणं हो रहा है । 
फिरभीजो कि समुद्र जरा भी छ्य नहीं हो रहा है इससे ज्ञात होता हे कि 
स्पष्ट रूपमे ही यह समुद्र जलराशि (जल की राशिया जडों की राशि) 
हे । (जो तुम्हारी इस सुन्दर मुस्कुराहट को देख करके भी उससे प्रभावित नहीं 
होता वह अवश्य ही जड है । इसीलिए यह जलराशि कहा जाता है ।) 

इस उदाहरण म ^तन्वी का वदन चन्द्र-तुल्य है" इख उपमा की प्रतिपत्ति 
ग्यञ्जकत्व के आधीन है । 

यहां पर रस वस्तु रौर अलङ्कार की प्रतीति अर्थापत्तिजन्य नहीं कही जा 
सकती । अर्थापत्ति वहीं पर होती है जहां एक अथं अनुपन्न हो रहा हो। 
जैसे ^स्थूल देवदत्त दिन म नहीं खाता ।› बिना भोजन के स्थूलतत। उत्पन्न ही 
नहीं होती इसी लिए अर्थापत्ति से रात्रि-भोजन का बोध हो जाता ह। यदि 
यहां पर भी बिना रस इस्यादि की प्रतीति के वाक्य अनुपपन्न हो तब तो अर्था- 
पत्ति हो सकती है । किन्तु अथं यहां पर अनुपपन्न नहीं होता । इसीलिए यहां 
पर अर्थापत्ति का विषय नहीं हे । यहाँ पर रस इत्यादि वाक्य का अर्थं भी नहीं हो 
सकता क्योंकि यह तृतीय कन्ता का विषय है । इसको इस प्रकार समभिये-- 
किसी वाक्य का अथं करने मँ तीन कन्ताएु होती हे । पहली कत्ता मे तो पदों 
के अथैका बोध होता हे जैसे उपयुक्त वाक्य--्े धार्मिक... ...मार डाला सन 
पहली कन्ता मे पदाथ का ज्ञान होता है । इसको अभिधा कहते है । इस कन्ता 
का अतिक्रमण कर दूखरी कक्ता मे क्रिया ओर कारक के संसग से वाक्यार्थं बोध 
होता ह । जैसे उपयु क्त उदाहरण म ह धामिक तुम स्वच्छन्द घूमा करो इस 
विधि का बोध होता दह। रस का भी अतिकमण्‌ कर तृतीय कच्ता मे निषेध अर्थ 
का बोध होता है कि-अब तुम वहाँ कभी मत जाना । यही व्यङ्गय अथं हे। 
इसके लिश व्यञ्जना नामक एक प्रथक्‌ शक्ति की कर्पना करनी पड़ेगी । इख 
प्रकार द्वितीय कन्त में निषेधका बोधन हो सकने के कारण व्यङ्गथा्थं वाक्यार्थं 
नहीं हो खकता । यहाँ पर व्यञ्जना-वृत्ति का अवभास स्पष्ट रूपमे हो रहा है । 

(श्न) यह आप नहीं कह सकते किं वाक्याथ का विषय तृतीय कच्च; मं 














( रज्य ) 


निकलनेवाला अथै नदीं दोता । एेसे वाक्यों मे जिनका तास्पये पेसे अर्थो मे 
होता है जिनका प्रगट करनेवाला कोई भी शब्द्‌ वाक्य मे उपस्थित न हो । उन्‌ 
, वाक्यों के अथं की तृतीय कच्ता विषयता होती ही ह । उदाहरण के क्लि यदि 
पिता अपने पुत्र से कटे विष खा लो, तो इस वाक्य का तास्पयै यह होगा कि- 
भविष खा जेना किन्तु शत्रु के यहो न खाना । य अर्थ वृतीय कच्ता मे निकलता 
ह क्योंकि वाक्य मँ कोद भी शब्द्‌ निवेधपरक नदीं है । इस प्रकार यह कटा जा 
सकता है कि क्याथै भी वृतीय कक्षा-विषयक दोता अवश्यथै हे । इस 
निवेध परक अथै के लिट्‌ अप ध्वनि शब्द्‌ का प्रयोग नदीं कर सकते क्योकि 
द्ापङके मत म ध्वनि सवदा तात्पयै से भिन्न होती है । (उत्तर) जब स्वाथे कौ 
पर्सिमासि द्वितीय कक्षा मे न हो तब तृतीय कक्ला होती ही नहीं । तृतीय कल्ला 
तो वहीं पर होती है.जहाँ पर द्वितीय कला न वाक्याथ की परिसमासि के 
बाद एक नया ही अथं निकल अता है । उपयुक्त उदाहरण "विष-खा लो मं 
द्वितीय कक्लामे ही निषेध को प्रतीति हो जाती है । कारण यह हे कि कहने- 
वाला तो पिता है ओर नियोऽय पुत्र ह। वह (पिता) अष्ने पुत्र को विष खाने 
की आज्ञा कैते दे सकता हे ए इख प्रकार क्रिया ओर कमैकारक का सम्बन्ध 
ठीक नहीं बैटता । अतएव यहो पर द्रितीय कोटिमे ही निषेधपरक अथो 
ज्ञातां हे । तृतीय कोटि के लि व्य्जना मानना अनिवार्य हे । | 
रसवती रचना मे द्वितीय कन्त मे नायक नायिका रूप विभाव इत्यादि की 
ह प्रतीति होती है । उसमे रस बोध नहीं होता । रस बोध तो केवल तृतीय 
कक्ता का विवय हे । यही बात निश्रलिखित कारिकां से प्रगट होती है :- 
श्रप्रतिष्ठमविश्रान्तं स्वाथे यत्परतामिदम्‌ । | 
वाक्यं विगाहते तत्र॒ न्याय्या तत्परता ऽस्यसा ॥ 


प्यदि वाक्य अपने अथे मं प्रतिष्ठित न हो रहा हो ओर वाक्याथ पयैवसान 
मी स्वाथैमेन हो तव वह अपने अ पकी पूति के लिश जिस अथेपरक हो जता 
है, उख वाक्य को उसी अथे परक मानना उचित है । अर्थात्‌ उस वाक्यका 
वही अथं मानना चाहिए ।' 
्ञसे "विष खालो' वाक्यम अथे सवमत्र पथैसित नहीं होता है अतएव 
उसका पथैवसान शत्रु के घर में भोजन न करना भले ही विष खा लेनाः इस 
ञे मान लिया जाता है । 
यत्रतु स्वाथे विश्रान्तं प्रतिष्ठां तावदागतम्‌ । 
तत्परधर्यति तत्र॒ स्यास्छवत्रध्वनिना स्थितिः ॥ 
किन्तु जहाँ पर अथे का पर्य॑बखान स्वाथ वाक्यै मेदी हो जावे ओर अथे 
स्मान्न प्रतिष्ठित भी हो जावे । इषे ब।द्‌ किंत दृखरे धको व्यक्त करने के 











( २०९ ) 


लिए आगे वदे वहां पर दूसरे अथं की प्रतिष्ठा ध्वनि के द्वारा दही होती है। 
यही सिद्धान्त है । 
दस प्रकार यह सिद्ध हो गया कि रस सवदा व्यङ्य ही होते हँ । वस्तु अर 
अलङ्कार कभी वाच्य भी होते हैँ र कभी व्यङ्य भी । व्यङ्य अर्थ के होने पर 
भी जहां व्यङ्य अर्थं को ही प्रधान रूपमे अतीति हो रही हो वहीं पर ध्वनि 
होती है । जहाँ पर व्यङ्थार्थं गौण हो वहाँ पर गुणीभूत व्यङ्य ही कहा जाता 
हे । यही वात निम्नलिखित कारिका म कही गह हे : 
यत्राथःशब्द्‌। वा यमर्थमुपलजंनीकृत स्वाथौँ। 
व्यक्तः काव्य विशेषः सध्वनिरिति सूरिभिः कथितः | 
जहां पर शब्द्‌ या अथं अपने वाक्याथ को गौण वना कर वसी दूसरे 
अथं को भ्यक्त करं उख विशेष प्रकार के काव्य को ध्वनि कहते हे ।' 
` म्रधानेऽन्यत्र वाक्यायं यत्राङ्ग' तु रसादयः । 
काव्ये तस्मिन्न लङ्कारो रसादिरिति मे मतिः॥ 
- (दूसरे स्थान पर जहां वाक्यार्थं प्रधान हो श्मौर रस इत्यादि गौण हो जावें 
उस काव्य मँ रस इत्यादि अलङ्कार कहे जाते हँ पर मेरा मत है । जैसे :- - 
उपोढरागेण विलोल तारकं तथा यहीतं शशिना, निशामुखम्‌ । 
यथा समस्तं तिमिरां शुकंतया पुरोऽपि रागाद्गलितं न लक्षितम्‌ ॥ 
"परिचद्ध राग से परिपूणं चन्द्र ने विलोल ताराओंवाल्ञे रजनी के सुख को 
इस प्रकार पकड़ लिया कि उससे ऊपर डाला हुआ निमिराशुंक पुरतः गलित 
श्रा भी लक्िति न किया जा सका ।' 
यहां पर राग इत्यादि शब्दों से नायक नायिका के व्यवहार की प्रतीति 
होती हे । अतएव यहाँ पर समासोक्ति अलङ्कार है । इसी प्रकार दूसरे अलङ्कारो 
के विषय मे भी समना चादिए । वह ध्वनि दो प्रकार की होती है। (१) 
विवक्षित वाच्य रौर (२) अविवक्तित वाच्य । विवक्तित वाच्य के दो भेद है। (१) 
असंलक्य क्रम ग्यङ्य रौर (२) संल क्रय ज्यङ्थ । अविवक्तित वाच्य के भी 
दो भेद है । (१) अयन्त तिरस्छृत वास्य ओर (२) अर्थान्तर सङ्करमित वाच्य । 
जब रस इत्यादि की प्रतीति प्रधान रूपमे हो तो असंल चय कम व्यङ्थ ध्वनि 
होती है ओर जब रस इत्यादि की प्रतीति गौण रूप म होती है तौ वहां पर 
रसवत्‌ अलङ्कार होता है । यही न्यञ्जना इत्ति का सारांश है, 
इस विषय में मेरा उत्तर यह है :-- 
वाच्या प्रकरणादिभ्यो बुद्धिस्था वा यथा क्रिया| 
वाक्याथेः कारकैयुक्ता स्थायी भावस्तथेतरः | ३५॥ 
[ जिस प्रकार वाच्य क्रिया अथवा प्रकरण इत्यादि के कारण बुद्धिस्थ 
२७ | 








( २१० ) ` 


क्रिया कारको से युक्त होकर वाक्य का अथ)कटलाती हे उसी प्रकार स्थायो 
आव मी विमाव इत्यादि के आश्रय से कटां वाच्य ञ्नौर कहीं वद्धिस्थ होकर 
वाक्याथ कहलाता हे । | | 

दाशाय यह है कि लौकिकं वाक्यों मं कहीं तो हम चक्रिया को सुनते ह 
्ञेते- “माय लानो! इत्यादि वाक्यां ञ्च लाओ क्रिया सुना पड रही हे। करटी 
कहीं क्रिया सुनाई नदीं पडती से (दरवाजा, द्रवाजाः कने से "बन्द करो 
ञ्म्थ स्वयं सममः लिया जाता हे “बन्द करोः 

क्रिया का उपादान नहीं किया गया ह । इस प्रकार यह सिद्धान्त वरता 
हे कि चाहे क्रिया उपादान वाच्य वृत्ति मे इश्ा हो अथवा उसका उपादान ना 
केन ह्ु्ाहो प्रकरण इत्यादि का आश्रय लेकर बुद्धिर्मे दी उसका सन्निवेश 
कर लिया गया हो, प्रस्येक अवस्था च कारको के द्वारा उपचय को प्राप्त करा 
हद' क्रिया ही वाक्य का अथं होती हे। इसी प्रकार काव्यो भ भी कटी तो 
स्थायी भाव।का साक्षात्‌ उपादान होता ह जैसे--“नवोढा श्रियतमा मेरे हृदय 
च परेम उस्पन्न कर रही दैः यां पर तरेम का साक्तात्‌ उपादान किया गया है 
ञ्ञौर करटी-कहीं उसका सात्तात्‌ उपादान नहीं होता केवल निरिचत रूप से 
विभाव इत्यादि का उपादान ही होता है । किन्तु विभाव इत्यादि बिना स्थायी. 
भावके हो ही नहीं सकते । ईस भकार प्रकरण इत्यादि का आश्रय लेकर 
साक्तात्‌ किसी भावक (रसिक) के चित्त मे विपरिवतंनशौल (सञ्रणशील) 
होकर भिन्न भिन्न शब्दों केद्वारा मरगट किये हए अपने-अपने विभाव श्नुभाव 
ञनौर खञ्चारी भावों के द्वारा संस्कार परम्परा चे बह स्थायीभाव अत्यन्त भौद 
हो जाता है । इस भ्रकार वह स्थायीभाव वाक्याथ ही होता है । 

यहाँ पर॒ यह भरश्न उ2 सकता हे # शब्दों के अथैको मिलाकर ही 
वाक्याथ बनता है । जो रति इष्यादि स्थायीभाव शब्द्‌ का अथ नहीं ह वे वाक्य 
का अथं कैसे हो सक्ते हे ! इसका ;उत्तर यह है कि तात्पयै शक्ति का पयैवसान | 
सर्वदा का मे होता हे। इसको इस प्रकार खमस्िर--चाहे कोदरं वाक्य पौर- 
वेय हो चाहे अपौरुषेय हो, सभी वाक्य कायैपरक ही होते ह । यदि वाक्यो 
को कायैपरकं न माना ज वेतो उन वाक्यों काप्रयोग ही व्यर्थं हो जावेगा 
द्रौर वे वाक्य पागल कौ बकवास माज माने जावेगे । अब प्रश्न यह होता हे 
कि काम्य के शब्दों मै पयोक्ता (कवि) श्रौर प्रयोज्य (रसिक) की प्रदत्त क्यों 
होती है १ जब काव्य के शब्द्‌ होते है तब अलौकिक आनन्द की प्रा्ि होती 
हे ओर जब काथ्य के शब्द्‌ नहीं होते च्रलौकिकं सुखास्वाद्‌ की प्रि नहीं 
होती । इस प्रकार अन्वय रौर व्यतिरेकसे।यह सिद्ध हो जाता है कि अलौ- 
किक आनन्द्‌ की प्रासि दी काव्य वाक्यों का कार्यं होती है । कारण यद है कि 








( ४६ | ) 


काव्य शब्दों की प्रवृत्ति का विषय रस (स्थायीभाव) ओओौर विभाव इत्यादि ही 
होते हैँ । विभाव इत्यादि प्रतिपादक होते हँ ओर रस इत्यादि तिपा होते हे । 
इनसे भिन्न काव्य वाक्यों के उपादान का कोर ओर कारण ही उपलब्ध नहीं 
होता । अतएव यह सिद्ध हो जाता है कि कान्य वाक्यों से उत्पन्न होनेवाल्ञे 
अलोकिक नन्द्‌ की उत्पत्ति मँ निमित्त वह स्थायीभाव ही होता हे जिसका 
संसगं विभाव इ्यादि के साथदहो। जब यह सिद्धो गया कि अलौकिक 
आनन्द की प्राति ही काभ्य वाक्यों का एकमात्र प्रयोजन है तब यह स्वभावतः 
सिद्ध हो जाता है छि काव्य की अभिधाशक्तिभिन्न-भिन्न रसों से आकृष्ट होकर 
उन रसो के लिए अपेक्तित विभाव इत्यादि का प्रतिपादन करती है ओर अन्त 
मे उनका पयैवसान रख मेँ हुञ्ा करता है । विमाव इत्यादि तो पदार्थं (शब्दाथै) 
स्थानीय होते है ओर रख वाक्यार्थ होता है । इस प्रकार लौकिक वाक्यतो 
क्रियापरक होते हँ किन्तु कान्य वाक्य जिस रस ओओौर भाव की प्रतीति कराते 
हँ तत्परक ही होते हैँ । यही इन दोनों लौकिक ओर काम्यगत वाक्यों मे अन्तर 
होता है । 
इस विषय अं कोद यह कह सकता है कि जिस प्रकार गाना इत्यादि सुख- 

जनक तो होता है किन्तु उसमे वाच्य वाचक का उपयोग नहीं होता उसी 
प्रकार काव्य की रसजनकता स्वीकार करते हए भी उसमे वाच्य वाचक के उप. 
योग को स्वीकार करने की आवश्यकता नहीं है । इस विषय मँ सुमे यही कहना 
हे फि कान्यानन्द्‌ कौ अनु भूति उन्हीं व्यक्तियों को होती है जो विभाव इत्यादि 
विशेष साम्नी को भी जानतेहोँ श्रौर उस रस के योग्य भावना भी उनके 

अन्तःकरण म विद्यमान हो। विना वाच्य वाचकभावका ज्ञान हुए विभाव 
दष्यादि सामग्री का परिह्ान हो ही नहीं सकता । यही रसानुभूति मँ वाच्य वाचक 
भाव के ज्ञान का उपयोग है । इस प्रकार इस प्रश्न का भी उत्तर हो ष्टी जात) 
हे कि रसिको को ही रसाजुभूति क्यों होती है सबको क्यों नहीं होती । (इस 
दोषका भी निराकरणहो गया रि रसानुभूति के ल्तिएु वाच्य-वृत्ति स्वीकार 
करने पर अरसिकों को भी रसाजुभूति होने लगेगी ।) जब वाक्याथ का निरूपण 
इस प्रकार कर दिया जाता ह तब समस्त वाक्याथ की अवगति अभिधा शक्ति 
केद्राशाही हो जाती है। उसके लिए व्यञ्जना नामरू पथक्‌ वृत्ति का मानना 
एक व्यथै का भयास है । यही सब बाते मने अपने काव्य निण॑य जँ इस प्रकार 
लिखी है :-- । . 

तात्पयांनतिरेकाच्च व्यञ्जकत्वस्यनध्वनिः। 

| किमुक्त॑स्यादश्रुताथ तात्पर्येऽन्योक्ति रूपिणि ॥१॥ 

 -व्यङ्था्थं तात्ययै से भिन्न नहीं होता, अतएव उते हम ध्वनिं नहीं कहं 




















( २१२ ) 


सकते । (यहाँ पर ध्वनि वादी यह क सकता हे कि) आप अन्योक्ति के विषय मे 
कया करेगे जिसके अथं का तास्पयै सुना ही नहीं जाता । (यदि किसी बृ पर 
ञ्न्योक्ति की ग्रै हो तो उसका तात्पयै हो दी किंस प्रकार सकत) हे १ तात्य 
वक्तं की इच्छा को कहते ह \ वृत दई्यादि की इच्छा हो ही नहीं सकती) । 
विषं मक्त पूर्वो यश्चैवं पर शता दिषु) 
प्रसहते प्रधानस्वाद्‌ध्वनिःत्वं केन वायते ।(२॥ 
` धयदि एक व्यक्ति (पिता) दसरे व्यक्ति पुत्र इत्यादि से कहे कि “विष खालो' 
बलो उखसे निकलनेवाला दूसरा अथं "शत्रु केघरमे न खाना मधान होने के 
कारण ध्वनि कहा जावेगा । इसका निराकरण आप केसे करगे । 
्वनिश्चेस्स्वाथं विश्रान्तं वाक्य मर्थात्तराश्रयम्‌ । 
तत्परत्वं स्वविश्रान्तौ तत्र विश्रान्त्यसम्भवात्‌ ।।३॥। 
८(अतएव यह मानना चाहिए) कि यदि वाक्याथं स्वमात्र विश्रान्त हो 
जावे तब जो बाद म अथं निकलता हे वह ध्वनि होती है । यदि वाक्याथ की 
परिखमासि होने के पहले ही दृखरा अर्थं निकल्ञे तो वह तत्परक होकर तात्पये 
होवा हे । (यह है ध्वनिवादियों का कथन । इस पर मेरा उत्तर यह है) ेसा 
नहीं होता । क्योकि जब तक पणं अभिप्राय नहीं निकल आता तब तकं वाक्याथ 
की विश्रान्ति असम्भव हे । 
एताबत्येव विश्रान्तिस्तास्पयैस्येति किंडतम्‌ । 
याबत्का्यप्रसारिर्वात्तास्पये न तुलाधृतम्‌ ॥४ 
८तास्पयै की विश्रान्ति किसी नियत स्थान तकं दहीहोती है (वादका अथै 
व्यङ्गय होता है) इसमे नियम कौन बनायेगा । तात्य तराजू पर तौला इुञ्चा 
तो होता नदीं कि इतना दी दो सकता है । उसका प्रसार वहां तक होता हे 
जह तक पूणं कायैपरता न सिद्ध हो जावे) 
श्रमधामिक वि श्रस्धमितिभरमिचतास्पदे । 
निर््यावृत्ति कथं वाक्यं निषेधसुप सपंति ॥५।! 
ध्वनिवादी कहता दै वाचिक ! स्वच्छन्दं होकर घूमो' (द° ४० ) 
इस वाक्य मे भ्रमण ही अपना १ स्थान बनाये हुष्‌ है । इसमें व्यावतंन 
(निषेध) परक कोद्धं शब्द ह ही नहं । फिर यह निषेध तक कैसे जावेगा । 
प्रतिपायस्यविश्रान्ति रपेक्तापूररणादयदि । 
वक्तूर्विवक्तितप्प्तरविभ्रान्त लंबा कथम्‌ \.६॥ 
ध्बनिविरोधी उत्तर दे रहा हे--(हे धामिक स्वच्छन्द होकर धूमो" इस 
` वाक्य स) जिससे कहा गया ह उसकी येता तो विधिपरक अर्थं से पूरं हो गं 
किन्तुं वक्ता के तात्पयै कौ पूति तो नहीं हृदं । यदि प्रतिपाद्य की अपेका-पूति 











( २१३ ) 


से वाक्याथ की विश्रान्ति मानी जात्ती है तो वक्ता की विवक्ञा के पूणं न होने से 
अविश्रान्ति क्यों नहीं मानी जाती ?` (आशय यह है कि श्रोता की अपेक्ता पूति 
विधिपरक अथं मेहो जाती, इसलिए निषेधपरक अशं को अाप व्यङ्य अर्थं 
कहते ई । इसके प्रतिकूल वक्ता की इच्छा की पूति निषेधपरक श्रमे ही होती 
है अतएव निषेध वाक्यां क्यों नहीं माना जाता ?) 
पौरषेयस्य वाक्यस्य विवत्ता परतन्त्रता । 
वक्त्रसिप्रेतत।त्पयेमतः काव्यस्य युभ्यते '।७॥। 

“पुरुष के कहे हुए काव्य इत्यादि के वाक्य वक्ता की कथनेच्छा के आधीन 
होते हँ । अतएव काव्य का तात्प वही होगाजों वक्ता कों अभीष्टदहो। 
(आशय यह है किं वक्ता जितना भी आशय व्यक्त करना चाहता है वह सब 
अभिधावृत्तिमेहीश्ा जाता है ।) 

उपथुक्त विवेचन से यह स्पष्टदहो जाता है किरख इत्यादिका काव्यसे 
व्यङ्य व्यञ्जक भाव सम्बन्ध नहीं है किन्तु भाव्य भावक सम्बन्ध है । कान्य भावक 
होता है ओर रस भाग्य होते हँ । रसिक व्यक्तियों मेवे रस स्वतः होते हीह 
किन्तु विभाव इत्यादि से युक्त काव्यके द्वारा वे भावित किये जाते हैं अर्थात्‌ 
उनकी भावना उत्पन्न की जाती है । 

यहां पर यह प्रश्न पूह्वा जा सकता है कि जब भाग्य भावक सम्बन्ध कहीं 

अन्यत्र किसी दूसरे शब्द्‌ मँ नदीं होता तो काव्यम भी वैसादही होना चाहिषए्‌। 
इसका एक तो उत्तर यह है किं मीमांसकं ने क्रिया के लिद्‌ भावना शब्द्‌ का 
प्रयोग करिया है| इस प्रकार उनलोगों ने शब्द्‌ ओर अथ॑ का भाव्य भावक 
सम्बन्ध स्वीकार ही कर लिया है | उदाहरण के लिए याग इत्यादि क्रिया भावक 
होती है ओर स्वगं भाव्य होतादहै। दृसरी बात यह है कि अन्यत्र भकेही 
भाग्य भावक सम्बन्ध न हो किन्तु काव्ये तो यह सम्बन्ध होता ही है। क्योकि 


काव्यम (जाँ रसकी भावना होतौ है वहां रस का भावक शब्द होता 


है' मौर इस अन्वय से ओर (जहाँ रस भावक शब्द नहीं होता वहाँ रख की 
भावना भी नहीं होती" इस व्यतिरेक से भाव्य भावक सम्बन्ध का ग्रवगमन 
हो जाता हे । यही बात निम्नलिखित कारिका मे कही गह है :- 
भावाभिनय सम्बन्धान्‌ भावयन्ति रसानिमान्‌ | 
यस्मात्तस्मादमी भावा विज्ञेया नास्ययोक्त॒भिः | 
चैकि भाव के अरभिनयसेया भाव ओर अभिनय से सम्बन्ध रखनेवाले 
इन रसो को भावित कहते हैँ इसलिए नाव्य के प्रयोक्ता लोगों को इनको भाव 


. (समना चादिषए ।' 


यहां पर यह प्रश्न उठ्त। है कि जिन पदं की जिन अर्थौ मे शक्तिका अहण 











॥ | | | ( २१४ ) 

॥ | होता है उन पदों के द्वारा उन्हीं अर्थो की प्रतिपत्ति होती है । स्थायी भाव इस्यादि 
॥ | की प्रतिपत्ति एेसे शब्दों से किस प्रकार हो शकती हे जिनसे उनके सम्बन्ध का 
॥| | अहण ही नहीं हरा है { इसका उत्तर यह हे कि लोक मे विशेष प्रकार की 
|, चेष्टाओं यक्त स्त्री -पुरुषो म रीति इस्यादि.भावना की निश्चित उपस्थिति पाद जाती 
| | | हे। जब काव्ये भी उन्हीं रति इत्यादि भावों से अवश्य सम्बन्ध रखनेबाल्ी चेष्टा 
। | इत्यादि के प्रतिपादक शब्द्‌ सुने जाते हँ तब ` अभिधेय का अवरय सम्बन्ध 

॥ | | होने के कारण लचमणा वृत्ति से रति इस्यादि की प्रतीति होती है । काव्यका 
अर्थं किस प्रकार रस को भावित करता है यह आगे चलकर बतलाया जावेगा । 


२६ 


रसः स एव स्वाय्वाद्रसिकरस्यैव वतनात्‌ । 
नाुकाैस्यनृत्तस्वात्‌  काव्यस्यातत्परवतः ॥<८। 

[उसी स्थायीभाव को रस कहते हं वथोकि एक तो उसका रस या स्वाद्‌ 
लिया जाता है दृखरे वह रसिक के ही अन्तःकरण म रहता दै; अनुकाये के 
अन्दर नहीं रहता क्यो किं वह हो चुका होता हे ओर तत्परक होता भी नदीं ।| 

आशय यद है किं जव स्थायीमाव का व्यथे क द्वारा उपप्लावित (उद्धावित) 
क्रिया जाता हे चौर रसिक के अन्तःकरण म ही रहता है तब उसे रस कहते 
ह । उसका स्वाद लिया जाता है अर्थात्‌ बह स्थायी भाव निभरानन्दसवित्‌ रूप 
हो जाता है । “रख रसिक मे ही रहता है अनुकायै मे नहीं! यह कहने का 
कारण यह है किं रिक तो वतंमान होता है, अतएव उसमे रस कौ उपस्थिति 
संमव हो सकती है । अरनुकायै राम इत्यादि वर्तमान नहीं होते बीत चुके होते 
ह । अतएव अजुका्यैगत रस नहीं माना जा सकता । ॑ 

यहं पर यह पूषा जा सकता है किं भव्‌ हरि के अनुसार शब्दो से दी इनके 
सूपो का उपाघान होता है; अतएव वतमान न होते हए भी राम इस्यादि का 
वर्तमान रूपमे होना अभीष्ट दी ह } इसका उत्तर यह हे कि उनके अवभाखन 
का अनुभव हम लोगों को नहीं होता । अतएव शब्द्‌ के द्वारा उनके रूपका 
द्ञाधान होने पर भी आस्वादन के विषय मे उनका होना नहोनाएकसाहै। 
किन्तु विभाव केखूपर्मे राम द्यादि का वतमान रूप भं अरवमासखन अभीष्ट 
ही है| रख को श्रनुकायैगत न मानने म दूसरा तक यह है किं कवि लोग राम 
इरयादि के अन्दर रस को उत्पन्न करने के लिए कान्य रचना नहीं करते किन्तु 
सहृदयो को आनन्द देने के लिए ही कान्य-र्चना करते है । बह रस समस्त 
व्यक्तियों ॐ लिए स्वसंवंधघ ही होता है । अजुकायगत रस न मानने के दूखरे 
कारणयेदहं:- | 








( २१५ ) 


दृष्टुः प्रतीति रबडिष्यारागद्रष प्रसङ्गतः। 
लौकिकस्य स्वरमणी संयुक्तस्येव दशनात्‌ ।३६॥ 

[जिस भकार किसी लौकिक व्यक्ति को उसकी रमणो के साथ देखनेवाले 
व्यक्ति के लिए प्रतीति, बीडा, द्या, राग अर द्वेष इत्यादि उत्पन्न होते हैँ उसी 
प्रकार काव्य में भी होने लगेगे ।| 

आशय यह है कि यदि रस अनुकायै गत॒ माना जवेगा तो वह रसतो 
राम इत्यादि का होगा । सामाजिक का उससे कोड भी सम्बन्ध स्थापित नहो 
सकेगा । इस प्रकार सामाजिक को उस रसमे किसी प्रकारका भी आनन्दन 
आवेगा जिस प्रकार एक तटस्थ दशंक को किंसी सपलीक व्यक्ति के देखने पर 
किंसी प्रकार का आनन्द नहीं आता । जब हम किंसी तरस्थ व्यक्ति को उसकी 
रमणी के साथ देखते हैँ तब हरमे यातो प्रतीति माच्र होकर रह जातीदहै कि 
यह अपनी पली के साथदहैया यदि दर्शकं सजनदहो तो लञ्जा का अनुभव 
होता है अथवा यदि वह दुष्ट हुश्रातो द्यां हो सकती है किं इसे यह सुन्दरी 
खूब भिल्ल गई; उख नायिका से प्रेम भी हो सकता है ओर उसके अपहरण की 
कामना भी हो सकती है । इसी प्रकार राम के प्रेम को तटस्थ दशक की माति. 
दृशंन करनेवाल्ञे व्यक्तिके लिए भीयातो प्रतीति मात्र होकर रह जावेगी या 
लउजा उत्पन्न होगी अथवा ईर्ष्या, अनुराग या अपहरण की इच्छा इत्यादि मे 
कोड भाव उत्पन्न होगा । किन्तु एेसा नहीं होता । अतएव रस अनुकार्यगत नहीं 
माने जा सकते । यह भी एक कारण है कि रस ग्यङ्था नहीं होते । व्यङ्य वही 
वस्तु होती है जिसकी सत्ता अन्य प्रकार से सिद्ध हो । जैसे दीपक उसी घडे को 
व्यक्त कर सकता है जो पहल्ञे से मौजूद हो । एेसा नहीं होता कि अभिव्यञ्जक 
मानो जनेवाल्ली वस्तुरं अभिभ्यक्त होनेवाली वस्तुओं को स्वयं बनाकर प्रका- 
शित करं । रस की सत्ता पदल्ञे से राम इत्यादि मे नहीं मानी जाती अतएव 
विभाव इत्यादि के द्वारा उसकी अभिव्यक्ति नहीं हो सकती । अतएव यह कहना 
पडेगाङ्कि प्रें विभाव इत्यादि केद्वारा रस की भावना उत्पन्न की 
जाती हे । 

यहां पर यह प्रश्न उठ सकता है कि सामाजिको मँ जो रस रहता है उसका 

विभाव कौनदहोतादहै 2 यदि सीता इत्यादि उसका विभाव मानी जावेंतो 
सीता जैसी देवियों (जगन्माता) के प्रति एक साधारण व्यक्ति कीरति भावना 
हो ही कैसे सकती है ९ वे देवियां हमारे प्रेम का आलम्बन कैसे हो सकती हें १ 
इसका उत्तर यह है :- 
धीरोदात्ताद्यवस्थानां रामादिः प्रतिपादकः । 
विभावयति रत्यादीन्‌ स्वदन्ते रसिकस्यते ।।४०॥ 











( २१६ ) 


[धीरोदात्त इस्यादि अयस्थाश्नों का अभिनय करनेवाले राम इत्यादि की 
रति इत्यादि को विभावित करते ह जिससे रसिक लोगों को उन्म आनन्द 
आता हे ।| 

आशय यद है कि कवि लोग योगियों के समान ध्यानञ॒दरा से ध्यान करके 
केवल राम इत्यादि से ही सबंध रखनेवाली उनकी दशा को प्रवधवद्ध नदीं करते 
किन्तु वे एेसी धीरोदात्त इस्यादि अवश्रं का उपनिबन्धन करते र्द जो स्व॑लोक 
लाधारण होती ह; कवि लोग अपनी कल्पन के बल पर ही उन सवंसाधारण 
अवस्थानं की निकटता प्राक्च कर लते हे रौर वे अवस्थां किसी एक अभिनेय 
राजा इत्यादि को आश्रय देनेवाली होती है । अथौत्‌ निबन्धन की सुविधा के 
लिए राजा इत्यादि का आश्रय ज्ञे लिया जातादै। ` 

तां एव च परित्यक्त विशेषा रस हेतवः । 

[वे ही अवस्था अपनी विशेषता को छोडकर रस का हेतु बनती दँ । | 

आशय यह है किं जिस समय हम अभिनय देखते ह उस समय यद्यपि 
मालूम तो यह पडता हे कि खीता को देख रहे ह किन्तु रचना कौशल से सीता 
अपने सीतात्व (जनक पुत्रीरव) अंश को देडदेती है शओ्ओौर एक सर्वसाधारण 
रेमिका का रूप धारण कर लेती हे। उख समय वे मात्र को वाचक हो 
जाती ह । श्वतणव यह दोच नहीं रदता किं सीत) जखी जगस्पूञय देविरया । 
रम का आश्रय कैसे बन सकती हँ । अव मश्न च होता है किं फिर सीता 
इस्यादि के उपादान कीदही क्या अ वश्यकता हे । 

इसका उत्तर यह हे : -- 


डता मृरमयैद्र वालानां द्विरदादिभिः ॥४९॥ 
सखोर्साहः स्वदते तद्रच्हयोतणामज्ञुनादिभिः । 

[जिस प्रकार मिदर इत्यादि के बने हुए हाथी इव्यादि से खेलनेवाले बालकों 
को अपने उस्साह से आनन्द अया कर्ता हे उसी प्रकार अज्ञेन हृव्यादि से 
सुननेवालो को आनन्द आता है । 

यह पर आश्य यह हे कि जिस प्रकार लौकिक शंगार इत्यादि खी व्यादि 
विभावो की अपेत्ता होती हे वसी काव्य या नाव्यमें नहीं होती; अ्रपितु नाव्य 
रख लौकिक रसों से विलक्षण होते हे । जैसा कि कटा गया हे किं (अठ नाव्य 
रख होति हे । (अजेन इत्यादि के साथ श्रोता को अपने ही उत्साह का 
आनन्द आया करता हे इसीलिए रस परिपाकं ऊ लिए अजन इत्यादि का उपा- 
दान होता हे । काव्य मे लौकिक रस की अपेक्ता विलक्तणता होती है इसीलिए 
नायिका इस्यादि की अपनी ही परमिका के रूप म उपस्थिति होती है ।) 

काव्या्थमावनाखादो नतकस्य न वार्येते ॥४२॥ 














( २१७ ) 


[नतंक की काव्यार्थं भावना के आस्वाद्‌ का निषेध नहीं किया जाता ।| 

आशय यह हे कि नतक के हृदय मे लौकिक रस से रसवत्ता उतपन्न होती 
है ओर वह लौकिक रस के आलम्बन नायिका इत्यादि को उपभोग्य रूप ज 
अपनी प्रेमिका इत्यादि ही सम सकता है । किन्तु यदि उसे कान्य ॐ अर्थ 
को भावित करने की शक्ति (सहृदयता ओर रसिकता) हो तो वह भी हम लोगों 
के समान अभिनय का रसास्वादन कर सकता है । इसके प्रतिकूल यदि वह 
सहृदय नदीं ह तो उसके"अभिनय का फल केवल दशंकों का अनुरञ्जन करना 
दोगा, उसे उस अभिनय का कोद भी आनन्द्‌ माप्त न हो सकेगा । 

काव्य से आ्रानन्दानुभूति की प्रक्रिया 

अव यह बतलाया जा रहा है कि काव्य से किंस प्रकार आनन्द की उत्पत्ति 

होती है ओर उसका स्वरूप क्या होता है :- 
स्वादः काव्यां सम्भेदादात्मानन्द समुद्धबः। 
विकाशविस्तर कोभविक्तेपैः सचतुर्विधः ॥४३॥ 

[काभ्यां के बल पर होनेवाजञे सम्भेद से जो सहृदय व्यक्ति के चित्त मे 
आत्मानन्द की अनुभूति होती है उसे आस्वाद या काञ्यानन्द्‌ कहते हँ । इसके 
चार भेद होते है विकास, विस्तार, कोभ ओर विहतेप ।| 

विभाव इत्यादि से संसृष्ट स्थायी भाव ही काव्य काञ्जथेहोता ह उसके 
बल पर सहृदय सामाजिक का चित्त सुर्य राम इत्यादि के चित्त से मिल जाता 
` ह ओर यह विभाग ही नष्ट हो जाता दै कि अशुक वस्तु मेरी हे या उसकी ह । 
उस समय उस अन्तरात्मा के एकीकरण से जो भ्रबलतर आनन्द की उत्पत्ति 
होती हे उसी को क्य का आनन्द कहते ह ।. यद्यपि वह काव्य का नन्द्‌ 
सभी रसो मँ सम्रान होता है श्जिन्तु फिर भी प्रत्येक रस अपने जिए नियत 
 कारख सामनी से ही उत्पन्न होता है । अर्थात्‌ विभाव इत्यादि कारण सामनी 
सव रसो की थद एथक्‌ होती है । इसी कारण सामभ्री के विभेद्‌ के आधार 
पर चित्तभूमि के भी चार भेद होते है विकास, विस्तार, सोभ ओर विक्तप । 
इन्दीं चित्तृत्तियों के आधार पर रसो के भेद कयि जाते है जिसका कम इस 
प्रकार है :- | 

श॑गार बीर वीभत्स रौद्रेषु मनसः कमात्‌ 
हास्याद्भ त. भयोत्कषे करुणानां त॒ एव हि ॥४४॥ 
अतस्तञ्जन्यता तेषामत  एवावधारणम्‌ । 

[बे (विकास, विस्तार श्लोभ ओर विष्य रूप चित्तदृतति्यां) ही कमथः 
शगार, वीर, वीभत्स ओर रद्र रसो म मनको दशयं होती ह ओर वेदी हास्य 

श्प + 








| | ( २१८ ) 
॥|| , अदभुत मय कौ अधिकता ओर करुण रसों की भ्ङृति होती ह । इसीलिए यहं 
| कहां जाता है कि हास्य इत्यादि शगार इत्यादि से उर्पन्न होते ह खरौर इसौ- 
लिए अवधारण की उपपत्ति भी हो जातौ हे ।| | 
| | आशय यह है कि श्ंगार मे चित्त का विकास होता है; वीरम विस्तार 
| ~| होता है; वीभत्स मँ शोभ होता हे ओर रौदमे विप होता हे । यद्यपि हास्य, 
4 अद्ध्‌.त) भयानक नौर वीभव्ख रसो के परिपोष कौ सामग्री अलग-अलग 
| नियत होती है ओर शगार; दत्यादि कौ खामी से उसमे भद्‌ होता हे किन्तु 
| हास्य इत्यादि रसो म भी चित्तवृत्ति. के विकास इत्यादि खूप ही होते हँ । चित्त- 
| | उत्तिं चार ही भकार ही होती हे इसीलिए यह बात कही गद है :-- 
| धधुगाराद्धि भवेद्धास्यो रद्रा करुणो रसः । 
| वीराच्चैवाद्धतोसत्ति र्बीमत्छाचः भयानक" ॥ 
| “कगार से हास्य रस उत्पन्न होता हे; रौद्र से करुण रस उत्पन्न होता हे, 
||| वीर से अदत की उत्पत्ति होती हे ओर वीभत्स से भयानक कौ उस्पत्ति 
। | | होती हे ।' | 
॥ | | यह पर यह ध्यान रखना चाहिए कि यह जो दहेतुहेतमद्धाव दिखलाया 
| | शया हे यह संभेद (सहृदय भौर अनुकार्य की चित्तवृत्ति कौ एकता) को मान 
कर ही किया गया है; कायं कारण भाव को मानः कर नहीं; क्योकि कायै कारण 
| माव सामभ्री तो सबकी पथक्‌. पथक्‌ होती हे । यँ पर आशय केवल ईतना 
ही हे कि हास्य इत्यादि मे श्चकार इत्यादि को ्ेखी ही चित्तदृत्ति्यां होती ह । 


न 


1 
यही बात :-- 

| भृ्ञारनुकति्या ठ ख हास्य इति कथ्यते ।' 

| ज्ञो शगार का अनुकरण होता ह उसे हास्य कहते ह ' 

| इत्यादि पयो मै भी दिखलाई गद है । यहां पर विकास इत्यादि चित्त- 
॥| वृत्तिं की एकता से दी तावथ है । चिततवृत्तियां चार होती है ज्नौर एक-एक ` 

॥|| | | चित्तवृत्ति के अधीन दो-दो रस होते है; इसीलिए यह संख्या का निर्धारण भी 
| सङ्गत हो जाता है कि "नाव्य ञं आठ रस होते हँ । 













| 

| यह पर यह प्रश्न उपस्थित होता है किं शङ्गार) वीर ञ्नौर हास्य ये आनन्दा - 
|| | स्मकं रख ह । इनम कान्याथे संमद्‌ की उक्तं प्रकिया के बल पर अनन्द की 
॥|| | उत्पत्ति हो सकती है; किन्तु करण हृर्यादि रस तो दुःखात्मकं होते ह; इन रसां 
| | | | स आनन्द का प्रादुर्भाव कैसे हो सकता हं १ उदाहरण के लिए करुणात्मक कान्य 
| | क श्रवण से दुःख का आविभौव ओर अश्रुपात इत्यादि रिकं मै मी देखा 
जाता हे । यदि करुण इत्यादि को भी आनन्दात्मक ही मान लं तो दुःख प्रादु 
मौव नौर अश्रपात स्यादि को सङ्गति कैसे हो सकती. हे ? इसका उत्तर यह है 





(१९९ -) 


कि यह तो वात सही है किं करुण इत्यादि मे दुःख की उत्पत्ति ओर अश्रुपात 
इत्यादि देखे जाते हँ किन्तु यह करण इत्यादि का श्रानन्द्‌ एक विलक्तण प्रकार 
का ही आनन्द होता है, जिसे सुख ओरौर दुःख दोनों मिले रहते हे । जेसे प्रहार 
इत्यादि से पीड़ा होती है किन्तु सम्भोग के अवसर पर कुपित हाव जँ यद्यपि 
प्रहार, स्तन मदेन, द॑त्त चत इत्यादि से शिया को पीडा तो होती है नौर रोमा 
अरुचि दिखाना इत्यादि भी होता ही है, किन्तु उस रोने, अरुचि दिखाने अौर 
पीडित होने मे भी चयो को एक प्रकार का आनन्द श्रता है! उसी भकार 
करुण इत्यादि रसां म भी सुख ओौर दु.ख से मिला हुआ एक विलक्षण अकार 
का आनन्द होता है । दूसरी बार यह है कि लौकिक. करुण की अपेक्षा काव्य 
के करण रस मे एक अकार की विलक्षणता होती है । इसीलिए लौकिक करुण 
को तो लोग बचाना चाहते हैँ ओर काव्य के कर्ण मे बार बार प्रवृत्ति होते 
ह । यदि लौकिक करुण के समान काभ्य के करुण म भी दुःखात्मकता होतो 
बिना जाने भले ही कोद उस करुण रसमय साहित्य को पद ज्ञे या अभिनय 
देख ले किन्तु जान-बूकर उसे कोद क्यों पदेगा ? परिणाम यह होगा किं धीरे- 
धीरे करुण रख मधान रामायण इत्यादि महाभबन्ध उच्छित्रही हो जा्वेगे । 
अव रही अश्रुपात इत्यादि की बात । इसका तो कारण यह है कि इतिदृत्ति के 
सुनने से लोगों म उसी प्रकार दुःख उत्पन्न हो जाता है जिस प्रकारं लोकें 
किसी एक व्यक्ति के दुःख को देखकर दूसरे व्यक्तियों मे भी दुःख उत्पन्न हो जाता 
है । इसी प्रकार यदि अभिनय देखनेवालों के हृदय मँ भी उस्र अभिनेय वस्तु 
के आधार षर दुःख उत्पत्रहो जाता है ओर आंसू गिरने लगते हैँ तो. उससे 
काव्य की रसानुमूति मे किसी प्रकार का विरोध नहीं आता । अतएव कहा जा 
सकता है कि दूसरे रसो के समान करुण रस भी आनन्दारमक ही होता है । 

यद्यपि शान्तरस अभिनय के योग्य नहीं होता; अतएव नाव्यरसो मँ उसकी 
गणना नहीं की जाती फिर भी काव्य का विषयतो शूषम से शुषम अतीत से 
श्रतीत वस्तु भी दहो सकती है ओर सभी वस्तुयें शब्द्‌ के द्वारा अतिपादित की 
ही जा सकती ईँ; अतएव किंसी को भी कान्य मँ उसके समावेश के विषयमे 
भा नहीं हो सकती । इसीलिए यहाँ पर उसका प्रतिपादन क्रिया जा 
रहा है :- 
५ शमध्रकर्षो निवार्यो मुदितादैस्तदात्मता ॥४५॥ 
[शम की अधिकता अनिवैचनीय होती दै नौर सुदिता इत्यादि उसकी 
श्रात्म होती है ] 

शान्त रस का लक्ख यह किया गया है :- 

न यत्र दुःख न सुखं न चिन्ता न रागद्वे षरायौ न च काचिदिच्छा। 

रसस्तु शान्तः कथितो मुनीन्द्रः स्वे मवेषु शमप्रधानः॥ 























( ०२० ) 


(जिसमे न दुःख हो, न सुख हो, न चिन्ता हो, न रागद्वेष हो न कोद इच्छा 
हो ओर समस्त भावों मँ शान्ति कीं ही प्रधानता हो सुनि लोग उसे शान्त रस 
कहते हँ । | | 

यदि यह लक्तण स्वीकार कर किया जावे तो यह मानी हद बात हे कि 
देखा शान्त रस तभी उत्पन्न हो सकता है जब मनुष्य आत्मस्वरूप की परासि 
करं जे ओर मोक्तावस्था मे पच जावे । उसके स्वरूप टीक रूप म निरूपण हो 
ही नहीं सकता । श्रुति ने मी उसकी अनिवैचनीयता का प्रतिपादन यह कहकर 
किया हे किं-“स एष नेति नेति अर्थात्‌ उस शान्त रस का प्रतिपादन यह नहीं है 
यह, नहीं है” कहकर ही हो सकता हे । इसका मन्तव्य यह हे कि शान्त रस का 
रूप असक है यह नहीं कहा जा सकता किन्तु अभक भी नहीं है अमुक भी नहीं 


, हे यह कहकर ही उसकः! परिक्ञान कराया जा सकता हे । इस प्रकार शान्त रस 


ञ्ास्वादन करना लौकिक विषयों के रसिक जनों की शक्ति के बाहर है । यदि 

यह माना जावे जैसा किं योग के सूत्र मे कहा शया है कि मत्री करणा सुदिता 

ञ्जर उपेक्ता इन चार प्रकार कौ चित्तवरृत्तियो भावना से चित्त का प्रसादन होता 

हे । सुखी व्यक्तियों के प्रति मेत्री, दुःखी लोगों के प्रति करुणा पुख्यास्माञओ्ओं के 
्रति स॒दिता ओर पापियों के प्रति उपेक्ञा का भाव रखने से ही चित्तवृत्ति का 
प॑रि्कार ओर शान्त रख का आविभाव होता; रेखी दशाम भी इन चारों 
प्रकार की चित्तवृत्तिं का सथचिवेश उन्हीं विकास विस्तार कोभ ओर विक्तेप में 
हो जाता हे । अतएव उन्हीं से काम चल सकता हे । शान्त रस के लिए एथक्‌ 
चित्तवृत्ति मानने की आवश्यकता नहीं हे । 


उपसंहार 


ब यह बतलाते हण कि विभावादि विषयक अवान्तर काव्य व्यापार 
किस प्रकारका हुआ करता है इस रस निरूपण का उपसंहार किया जा 
रहा हे । | 
पदार्थेरिन्दुनिवेद सोमाज्नादिस्वरूपकैः । 
काव्याद्धिभावसच्नायैलुमाव प्रख्यतां गतैः ॥४६॥ 
भावितः स्वेदते स्थायी रसः स परिकीर्तितः । 

[जब चन्द्रमा इत्यादि निर्वेद इत्यादि ओौर रोमाञ्च इत्यादि पदाथ काव्ये 
आकर विभाव, सच्चारीभाव ञ्ओौर अनुभावके रूप म प्रख्यात हो जाते दह तब 
उन पदार्थो के द्वारा स्थायीभाव पुष्ट ओर भावना का विषय बन जाता हे । 
उस समय उस स्थायीभाव को रख कदा जात है ।] | 

जय चन्द्र इत्यादि मे अतिशयोक्ति रूप काञ्य स्पार के दारा विशेषता 








{ २२९ ) 


उत्पन्न कर दौ जाती है तव चन्द्र इ स्यादि उद्दीपन विभावो से प्रमदा इष्यादि 
आलम्बन विभावो से, निर्वेद इत्यादि व्यभिचारी भावों से श्नौर रोमाज, अश्च, 
भरविकेप, कटाक्त इत्यादि अनुभावो से स्थायीभाव भावना का विषय बना दिया 
जाता है । आलम्बन उदूदीपन इत्यादि विभाव तो पदार्थ होते हँ नौर स्थायी.- 
भाव वाक्याथे होता है । उस समय वह स्थायीभाव आस्वाद का रूप धारण- 
कर रस कहलाने लगता है । बस यह रस का सकिप्त स्वरूप है जिसका पिदधे 
प्रकरणो म निरूपण किया गया है । 

अव अगले प्रकरण मं शङ्गा इस्यादि के धथक्‌-ष्थक्‌ विशेष लक्षण बत- 
लाये जारवेगे । आचये ने रति इस्यादि स्थायीभावों ओर शृङ्गार इत्यादि रसं 
के अलग-अलग लक्षण विभाव इस्यादि के प्रतिपादन के द्वारा बतला दिये ह । .. 
अब यहां पर स्थायीभाव ओर रसों का मेद्‌ करके लक्षण नहीं बतलाये जागे । 
क्योकि :-- | 

लक्षणेक्यं विभावैक्याद्‌ भेदाद्रसभावयोः ॥४०॥ 

[रख ओर स्थायीभावोँ के विभाव इत्यादि एक ही होते ह । अतएव 
रस श्रौर अलङ्कार मँ अभेद होता है । इसीलिए इनके लक्षणों की भी एकता 
होती है ।] | 

श्रृङ्गार 
रम्य देश कला काल वेष भोगादि सेबनैः। 
प्रमोदात्मा रतिः सैव यूनोरन्योन्यरक्तयोः ॥ 
प्रहृष्यमाणः श्चंगारो मधुरांगविचेष्टितैः ४८ 


[एक दूसरे पर अनुरक्त युवकों की जो रमणीय देश, कला, काल, वेष नौर 
भोग इत्यादि के सेवन केद्वारा जो रति होती है. वही जब अपने विभाव इत्यादि 
शङ केद्वारा अत्यन्त पुष्ट हो जाती है तव उसे शङ्गार कहते हें ।] 

इस प्रकार जब काव्य की, रचना को जातीः है तव वह काव्य श्ङ्ार 
क आस्वादन में समथ होता है । यह कवि को उपदेश देनेके लिए कहा 
गया है । | | 

(१) देश विभाव का उदाहरण । जैसे उत्तर रामचरित मे :-- 

स्मरसि सुतन॒तस्मिन्‌ पवंते लदमणेन 
प्रतिविहित सपर्यां सुस्थयोस्तान्यहानि । 
स्मरति सरस तीरं तत्र गोदावरीं वा 
स्मरसि च तदुपान्तेष्वावयो्व॑ततंनानि ॥ 
ह खुन्दर शरीरवाली सीते ! क्या तुम्हे याद्‌ है कि उस पर्व॑त पर लचमणं 











( २२२ ) 


हम लोगों की सेवा किया करते ये ओर हम लोगों के वे दिन किंतने सुस्थता 
द्नौर सुन्दरता से ्थतीत होते ये १ क्या तुम्दं सरस तटवाली गोदावरी की 
ओ याद्‌ है ओर क्या उसके निकट आमो मै हम लोगों के स्वच्छन्द विहारो की 
भी याददे? | 
(२) कल्ला विभाव का उदार ` ` 
हस्तैरन्तर्निहित वचनैः सूचितः सम्यग धः) 
पाद्न्यासैयमुपगतस्तन्मयत्वं रसेषु ॥ 
शाखायोनिमरदुरभिनयः पडिवकल्पोऽनवृत्ते- 
भावे भावे नुदति विषयान्‌ रागवन्धः ख ५५ ॥ 
ते हाथ से भली भाति अथै सूचित कर दिया गया । जिसमे वचन भी 
सज्जिहितं ये । (अथौत्‌ हाथ की विशद भ्रकार की आकृतियो से आशय व्यक्त कर 
दिया गया ।) नृष्य के ञन्त्म॑त चरणन्यास के इरा लय को भक्षो गया ओौर 
रसो म तन्मयता भी प्राक्च कर ली । (क्रिया के.मध्य मै विश्रान्ति को लय कहते 
ह । यह तीन प्रकार की होती है, द्‌ त-मभ्य दौर विलम्बित ।) उक्त प्रकार का 
शाखा से उत्पन्न होनेवाला वही राग ॒मकागक कोमल अभिनय रङ्गो की 
द्मनुवृत्ति से द्धः विकल्पों से युक्त होकर प्रस्येक भाव न्ने विषयों को प्रेरित कर रहा 
हे ।› (यहं षर दत्य का वणन किया गया ह। एक तो हार्थो के सक्षत से पृं 


` रूप से शय ओर भाव व्यक्त हो रहे ई; चरणन्यास से लय की प्रािहो रदी 


ह ओर रसौ म तन्मयता भौ उसन्न हो रही है; यह नृत्य शाखाओं से उत्पन्न 
हो रहा है, सङ्गोतरब्राकर मे लिखा हे कि हाथ के विचित्र प्रकार के प्रयोग को 
शाखा कहते है; उन्दी शाखा््रों का आश्रय जञेकर चव्य का आव्रिर्भाव हो रहा 
है; यह कोमल नरस्य हे जिसमे भाव का अचलः | करनेवाल्ञे अज्ञो से छः प्रकार 
ङा अभिनय हो रहा है । अभिनय क नाव्य-शास्त्र म चार भेद किये गये हैँ 
आङ्गिक, वाचिक, आहायं ञ्नौर सास्विक । अङ्गज अभिनय तीन प्रकार का होता 
हे शारीर, सुखज ओर चेष्टांकृत । इस प्रकार तीन अङ्गज श्नौर वाचिक आहायं 
तथा सास्विक ये तीन प्रकार मिलकर अभिनय द्धः प्रकारका होता है। ये सभी 
प्रकार उक्त अभिनय मे व्यक्त हो रदे ह । इस प्रकार यह अभिनय प्रत्येक भाव 
न्नै विषयों को प्रेरित कर रहा है ।) 
दृखरा उदाहरण :-- 
ग्यक्तिर्व्यज्ञन धातुना दशविघेनाप्यत्र लब्धामुना । 
विस्पष्टो द्व तमध्यलम्बित परिच्दन्नल्िधाऽयं लयः ॥ 
गोपुच्छप्रसुखाः क्रमेण गतयस्तिखोऽपरि सपादिता- 
स्तत्वौषानुंगताश्च वाच विधयः सम्यक्‌ त्रयो दशिताः ॥ 











( २२३ ) 


¢इन दस प्रकार की व्यज्नन धातुश्ों के द्वारा इस गायन ने व्यक्तता श्रा 
करली दै; (नाव्य-शास्त्र मे पुष्प इत्यादि १० व्यज्जन धातुश्च का वणन किया ` 
गया है ।) यह लय द्रत, मध्य ओर विलम्बित इन प्रकारों मे विभक्त होकर 
पूणं रूप से स्फुट हो रहा है, गोपुच्छ इत्यादि तीनों पत्तियां करमशः "सम्पादित 
की गहं है, (सङ्गीत रत्नाकर मँ तीन प्रकार की पतियों का उल्लेख है- समा, 
श्रोतो गता ओर गोपुच्छा) तत्व ओद्य श्र अनुगत येतीनों प्रकार वाद्य विधिर्याँ 
ठीक रूप मे दिखलादईं गड हँ । (तत्वरत्नाकर म तत्व इत्यादि तीन प्रकार की 
वाद्य विधियो का उल्लेख किया गया है ।) 

(३) काल विभाव का उदाहरण :ः- 

श्रसूत सद्यः कुसुमान्यशोकः स्कन्धात्प्रभव्येव सपल्लवानि । 
पादेन चा पै्तत सुन्दरीणां सम्पकमाशिञ्जितनू पुरेण ॥ 

(वसन्त के सहसा प्रादुभूत हो जाने पर अशोक ने शीघ्र ही अपने स्कन्ध- 
भागसे ही लेकर पल्लवों के सहित पुष्पों को उत्पन्न करना प्रारम्भ कर दिया । 
उख समय उस अशोक ने पुष्पोद्रम के लिए सुन्दरियों के नूप्रोंकी भङ्कार 
से युक्त पादस्पशं को अपेक्ता नहींकी। ` 

रस उपक्रम के साथ लिखा है :-- 

मधुद्धिरेफः कुसुमेकपात्रे पयौ भ्रियां स्वामनुवतंमानः। 
शग ए संस्पशं निमीलिता्तीं मृगीमकरट्भयत कृष्ण सारः ॥ 

“भरा अपनी प्रियतमा का अजुवतंन करते हुए पुष्प के एक पात्र मे मधु 
(पुष्प-रस) का पान कर रहा था ओर ईष्णसार नामक हरिण अपने सींग से 
हिरणी को खुजला रहा था जब कि वह स्पशं सुख से अपनी ओखं बन्द्‌ किये 
खडी थी ।7 

(४) वेष के विभाव का उदाहरण :- 

व्रशोकनिमंत्सितपद्मरागमाङृष्ट देम चति कणिंकारम्‌ । ` 
मुक्ता कलापीक्ृतसिन्दुवारं वसन्तपुष्पा भरणं वहन्ती ॥ 

(जब पार्वंतीजी पूजा के लिए शङ्करजी के निकट जा रही थीं उख समय 
वे वसन्त काल के पुष्पों के आमृषण धारण क्रिये हुए थीं; उस समय उनके 
शरीर मे अशोक पुष्प अपने सौन्दयै से पद्मराग की सुन्दरता कोभी द्वा रहा 
था; काशिकार के पएूल ने सोने की शोभाका भी अपहरण कर लिया हे ओर 
सिन्दुवार सुक्ता कलाप के स्थान पर धारण किया गया था ।' 

(४) उपभोग विभाव का उदाहरण : - 

चक्ञूलु पमषीकणंकवलितस्त(म्बूल रागोऽधरे । 
विश्रान्ता कवरी कपोल फलके लुसेव गात्रचयुतिः ॥ 





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( २२४ ) 


| || ॑ जने सभ््रतिमानिनि प्रणयिना कैरप्युपायक्रमेः 
॥ | | भग्नोमान महातरस्तरूखिते चेतः स्थलीवधितः ।। 

| न्नर ॐ काजल के कण कहीं-कहीं पुदधं गये है; अधर की पानों की लाली 
॥| मी दूर कर दी गद हे । केशपाश कपोल फलक पर चिटक रहे है; शरीर शोभाभी 
||, लष सीहो गदैहे; हे मान करनेवाली; इन बातों से मुके एेसा ज्ञात हो रहा 
| है कि चित्तरूप स्थल पर जिस मान रूपी बृ को तुमने बढ़ाया था हे तरुणि ! 
|| उसी मानरूपी बृक्त को तुम्हारे प्रेमी ने अपने विभिन्न प्रकार के उपायों के करम 
| से इस समय तोड़ डाला हे ।' 

||! (६) प्रमोदार्मा रति का उदाहरण :-- 
| | & म, ` जगति जयिनस्ते ते भावा नवेन्दु कलादयः 
| 1 ्रकृतिमधुशः सन्त्येवान्ये मनो मदयन्ति ये | 
मम तु यदियं याता लोके विलोचन चन्द्रिका | 
| | नयन विषयं जन्मन्येकः स एव महोत्सवः ॥ 
| "संसार म नवीन चन्द्रकला इस्यादि जितने भी विजय शीलभाव हं ओर 
|| । दूसरे भी भाव जो स्वभाव से मधुर ह नर मन को मस्त करते दहैंवेतोहे ही, 
। 
| 











(वे दृखरों के मन को मस्त करते होगे) किन्तु जो यह (मालती रूप) सारे 
संसार के नेत्रां की चाँदनी मेरे नेत्रं का विषय बनौ हे मेरे लिए वस यही जीवन 
म एक उष्सव है । 
(७) युवति विभाव का उदाहरण -- - 
दीर्घा्तं शरदिन्दुः कान्ति वदनं बाहू नताबवंशयोः 
संक्चिपि निविडोन्नतस्तनमुरः पाश्वं प्रमृष्टे इव । 
कषमिष्य, परिमितो नितम्बि जघनं पादावरा लाङ्गली 
| छन्दो न्तयितुर्ययैव मनसः स्पष्टं तथास्या वपुः । 


"उस नायिका की अखं बदी-बदी ह, सुख शरत्काल के चन्द्रमा के समान 
सुन्दर है, बाहं कंधों मे छंकी हं ह; छाती एक अओरको सिमटी इदैसी है 
जिसमे स्तन घने सटे हए ओर ऊँचे हे, पाश्वं भागों पर मानो वानिश कर दी 
ग हे; मभ्यभाग इतना पतला हे कि एक दाथ से नापा जा सकता है, पैरों की 
गुलि्यां नीचे को ऊुको हृड्‌ है; नचानेवाले के मन की जैसी इच्छा हो सकती 
हे वैसौ इसका शरीरं बनाया गया हे ॥ ` ` ^ | 

(७) युगल विभाव का उदाहरण :- ॑ 

भूयो भूयः. सविघनगरी रथ्यया पर्रन्तं ` 
षा दष्टा मवनवलभी वङ्गवातायनस्था । 





क 5 1 अ 











(: २२५ ) 
सा्तात्काम । नवमिव रतिमांलती माधवं यत्‌ 


गाढोत्करगालुलितलुलितेरङ्गकैस्ताम्पतीति ॥ 
बार-बार नगर कौ निकटवतिंनो गली से होकर घृमनेवाले साक्ञात्काम- 


` देव के समान.माधव को देख-देखकर भवन की उपरी मजि के ऊँचे वातायन 


पर वैटी हद रति के खमान प्रगाढ़ उत्कण्ठ से भवी हुई मालती कामपीड़ा से 
त कलुषित अङ्गं से मलीन पड़ती चली जा रही हे । 
` (८) अन्योन्यानुराग का उदाहरण :- 
यान्त्यामुहूवंलितकन्धरमाननं त-- 
` दावृत्त वृन्तशतपत्रनिभं वहन्त्या । 
दिग्धोऽमरतेन च विष्रेएच पद्मलया 
गाढं निखात इव मे हृदये कटान्ञः | 
(माल्लती ने चलने के समय पर अपनी गद॑न घुभाकर माधव की ओर 
उत्कर्टापूवक देखा । उस समय जो प्रभाव माधव पर पड़ा उसी का वर्णन माधव 
मकरन्द्‌ से कर रहा है--“चलते हुये बार-बार ॒(उत्कर्पूर्वक सुमे देखने के 
लिए) घूमी हह गद॑नवाले छुके हुए चन्त से युक्त शतपन्र के समान मुख को 
धारण करनेवाली।उस सुन्दर पमो से युक्त नेत्रोंवाली मालती ने अश्रत ओर 
विष से जुरा हा कटाक्त (रूपी वाण) गहराई से मेरे हृदय मँ गाड दिया ॥ 
(8) मधुराङ्ग विचेष्टित का उदाहरण :- 
स्तिमितविकसितानासुल्लसद्‌ भ. लतानां 
मसृणमुकुलितानां प्रान्तविस्तारभाजाम्‌ । 
प्रतिनयननियाते किञ्चिदाकुञ्चितानां 
विविधमहमभूवं पात्रमालोकितानाम्‌ ॥ 
भे उस समय उस मालती की शङ्कार सम्बन्धिनी दृष्टयो का विभिन्न 
प्रकार से पात्र बन गया | उस समय उसको दृष्टि स्थिर (सकी हुई) थी, विक- 
सित हो रही थी, उन नेत्रो से भर.लतायं उल्लसित हो रही थीं; वह दृष्टि अनुराग 
परिपूशं हो रदी थी ओर खलित हो रही थी ओर पुनः दशन के लिए उसके 
अयाङ्गों का विस्तार हो रहा था ओर जब मै उसके कटाक्तों का उत्तर देने के 
लिए अपनी दृष्टि उस पर डालता था तब वह उसकी दृष्टि लञ्जा से सिकुड 
जातीथी। । 
ये सत्वज।; स्थायिन एव चाष्टौ 
त्रिशक्तयो ये व्यभिचारिणश्च । + 
एकोन पच्चाशदमी हि भावाः 
युक्त्या निबद्धाः परिपोषयन्ति ॥ 
२९ | 











( २९६ ) 


आलस्यमौग्यं मर णंजुशाप्सा 
तस्याश्रयादरौ त विरुद्धमेतत्‌ ।॥४९॥ 

[आड सात्विक भाव, श्राठ स्थायी भाव दौर तैतीस सञ्चारी भाव मिलकर 
कल ४६ भाव होते हँ । यदि इनका युक्तियुक्त उपनिबन्धन किया ज्ञावे तोये 
स्थायी माव का परिपोष करते हँ । उम आलस्य उन्नता चर । सनौर जुगुप्सा ये 
यदि एक अआआलस्बन विभाव के आश्रय से उपनिबद्ध किये जावे तो विरूढ होते है।। 

यदि प्रकार मेद से ञर्थात्‌ आलम्बन के विभेदं से या  रसान्तर के व्यव 
धान से उनका उपनिवन्धन किया जावे तो विरोध नहीं होता यह पहले बत- 
लाया जा चुका हे । 

श्रगार रख के मेद ये होते हं : -- 

त्रयोगो विप्रयोगश्च संभोश्चेति स त्रिधा । 
[वह शगार तीन प्रकार का होता हे अ्रयोग, विप्रयोग ओर संभोग ।| 

` अयोग का अथै हे न मिलना लोर विप्रयोग का श्रथ हे मिलकर अलग हो 
जाना । विप्रलम्भ केदीये दोनों रूप होते्ै। विप्रलम्भ शब्द का योगं 
ञ्जयोग ओर विभ्रयोग दोनों के लिए किया जाता हे। बहुत से आचाय विप्रयोग 
ऊ स्थान पर विप्रलम्भ शब्द्‌ का प्रयोग करते है । यदि यहाँंपर भी विप्रयोग 
के स्थान पर विप्रलम्भ शब्द्‌ का प्रयोग किया जाता तों उसका उभयपरक 
सामान्य अथै तो लिया नहीं जाता क्योकि उसके रंक भाग अयोग का पृथक्‌ 
प्रयोग किया गया है । इससे यह मानना पडता है किं यहाँ षर विप्रलम्भ का 
प्रयोग सामान्य अथ॑ मे नदीं किन्तु विशेष अर्थं म किया गया ह । जव सामान्य 
वाचक शब्दों का विशेष अर्थो म प्रयोग किया जाता है तब लक्षणा माननी 
पडती ह । अतएव यहां पर लच्णा माननौ पडती है उसमे यह सम्भव था कि 
विप्रलम्भ शब्द्‌ अपने सुख्याथै का वाचक मान लिया जाता । विपलम्भ का 
शाब्दिक अथै हे वच्चना । अतएव लच्णा चे यदह पर यह अर्थं हो सकता था 
कि जक पर नायक संकेत स्थान पर जाने का वचन देकर भी न जावे ओर 
जअवधि का अतिक्रमण कर दे अथवा दूसरी नायिका का अचुखरण करे ौर इस 
रकार प्रधान नायिका को वंचित करे वर्ह पर विप्रलम्भ शब्द्‌ का प्रयोग होता 
ह। इसी संदेह अर अनथ के निराकरण के लिए यर्हां पर विप्रलम्भ शब्द्‌ का 
अयोग न कर विभ्रयोग शब्द्‌ का प्रयोग किया गया है । 

(१) श्रयोग :-- 

ˆ तन्रायोगोऽनुरागोऽपि न बयोरेकचित्तयोः।॥५०॥ 
पारतन्त्येण दैवाद्वाविप्रकषादसङ्गमः । 
[शृङ्गार कै भेदं मे अयोग उसे कहते है जिसमे नवीन एक , चित्तवाले 








( २२७ ) 


नायक ओर्‌ नायिकां म अनुराग तो हो किन्तु परतन्तरतावश दूरी होने से 
अथवा दैववश समागम (प्रथम मिलन) न हो सके । 

योग का अथै ह एक दूसरे को स्वीकार करना; ` उसके अभाव को अयोग 
कहते हे । परतन्त्रता से दूरी पिता इत्यादि के आधीन होने के कारण अथवा 
पत्नी के सङ्कोच हुञ्रा करती है । जैसे मालती ्लौर माधव का सम्मिलन पिता 
इत्यादि के आधीन होने के कारण नहीं हो सका मौर सागरिका तथा वत्सराज 
का समागम पल्ली के संकोच के कारण नहींहो सका। इसी भ्रकार दैववश 
समागम हो सकने का उदाहरण शङ्कर ओर पार्वती ह । | 

दशावस्थः स तत्रादावभिलाषोऽथ चिन्तनम्‌ ॥ ५१॥ 
स्छरतिगुणकथोद्रेग प्रलापोन्माद संज्वराः ॥ 
जडतामरणं चेति दुरवस्थं यथोत्तरम्‌ ॥५२॥ 

[अयोग की अभिलाष इत्यादि दस दशाण होती हैः इनमे उत्तरोत्तर 
दुरवस्था बढती जाती हे । अर्थात्‌ अभिलाषा चिन्तन मे चिन्तन से स्यति मे 
उससे गुण कथन में अधिक दुरवस्था होती है ।] 

अभिलाषः स्प्रहातत्रकान्ते सर्वाङ्गसन्दरे । 
दष्टे श्रुते वा तत्रापि विस्मयानन्दसाध्वसाः ॥५३॥ 

[उनमें अभिलाष स्पृहा को कहते है । वह तब उत्पन्न होती है जब सर्वाङ्ग 
सुन्द्र भ्रियतम को देख या सुन लिया जावे। उसके भी तीन भेद होतेह 
विस्मय, चानन्द ओर साध्वस. (भय) ।] 

| साक्तातप्रतिकृतिखप्न दछायामायासु दर्शनम्‌ । 
श्रुति व्याजात्‌ सखीगीत मागधादि गुणस्तुतेः॥ ५५] 

[दशन या तो साक्तात्‌ हो सकता है या चिन्न स्वप्न छायाया मायासे 
दशन होता ह । श्रवण यातो सखी सेया गानों म अथवा मागध इत्यादि के 
दवारा गुणकीतंन से होता है। इसी दर्शन ओर श्रवण से द्मनुराग की उत्पत्ति 
होती हे ।| | 

अभिलाष का उदाहरण जैसे शाकुन्तल मे :- 

श्रषशयं चत्र परिग्रह्तमा यदार्यस्यामभिलाषि मे मनः। 
सतां हिं सन्देह पदेषु वस्तुषु प्रमाणमन्तः करणं प्रवृत्तयः ॥ 

दुष्यन्त कह रहे हे कि--“निस्सन्देह यह शङुन्तला क्षत्रिय की पती होने ऊँ 
योग्य है जो किं मेरा श्रेष्ठ मने इसको प्राक्त करने की अभिलाषा रखता है । 
सन्देह स्थानीय वरतु््ओ मे सञ्जनों के अन्तःकरण प्रवृत्तिं ही प्रमाण 
होती दै ।' 


अभिलाषके मेद्‌ विस्मयका उदाहरण ; - 











( र्र्छं 0 


स्तनावालोक्य तन्वङ्गबाः शिरः कम्पयते युवा । 
तयोरन्तरनिर्मग्नां हष्टिमुत्पाटयन्निव ॥ 

{युवक उस कृशाङ्गी के स्तनो को देखकर (विस्मय से) अपने खर हिला रहा 
है । मानो वह उन दोनों स्तनो के बीच में गढ़ी हई अपनी दृष्टि को (दिखा- 
हिलाकर) उखाढइना चाहता हे ।' 

द्ममिलाष के मेद आनन्द्‌ का उदाहरण जैसे विद्धशाल मज्ञिका मे :- 

सुधावद्धमरासैरुपवनवकोरेः कवलिताम्‌ । 

किरन्‌ ज्यात्स्नायच्छां लवलिफलपाक प्रणयिनीम्‌ | 
उप प्राकाराम्रं प्रहिणु नयने तकयमना- 

गनाकाशे कोऽयं गलित हरिणः शीतकिरणः ॥ 

प्राकार के अरग्रभाग के ऊपर की ओर निगाह डालो ओर्‌ विचार करो कि 
यह बिना ही आकाश के ग के लान्द्न (कलङ्क) से रहित नये प्रकार का यह 
कौन सा चन्द्रमा निकला है ! उपवन के चकोर इसकी सुधा के ब्रासो कों 
बौध.र्बाधकर इसको पी रहे दै; यह कितनी सुन्दर चौदिनी को फैला रहा है 
ञ्ओौर लवली लता के फलों को पकाने मेँ इसे आनन्द्‌ ही आनन्द भ्राता है ।› 

द्रभिलाष के भेद साध्वस का उदाहरण :- 

तं वीचय वेपथुमती सरसाङ्गयष्टिः 
निन्तेपणाय पदमुद्धरतमुद्हन्ती । 

मार्गाचलब्यतिकराकुलितेव सिन्धुः 
शैलाधिराज तनया न ययौ न तस्थौ ॥ 


“शङ्करजी को देखकर पार्वतीजी की सरस अङ्ग यष्टि कापने लगीं । जाने के 
लिए उटाये हृष पैर को वे वैसे का वैसा ही रोककर रह गदं । (उख समय) 
मार्ग ने पवत की रुकावट से ब्ध हद नदी के समान पवैतराज पुत्री न तो गं 
हीश्चौरनरुकींही। 

दूसरा उदाहरण :-- 

व्याहता प्रतिवचो न संदधे गन्तुमेच्छंदवलम्विरतांशुका। 
सेवते स्म शयनं पराङ. मुखी सा तथापि रतये पिनाकिनः ॥ 

पार्वती ने बात करने पर उत्तर नहीं दिया; जब उसका वस्त्र पकड़ा गया 
तब वह जाने को उद्यत हो गदं । चारपां पर करवट बदलकर ल्लेटी; किन्तु फिर 
भी वह पिनाकधारी शङ्करजी के अनुरागका ही कारण बनी ।' 

यक्षं पर गुण कोतन की व्याख्या नहींकी गदं दै; क्गाङि गुण कीतंन तो 
परसिद्ध ही है। 








| 
| 
























( २२९ ) 


दशावस्थत्वमाचार्यंः प्रायोवरत्या निरूपितम्‌ ॥५५॥ 
महाकवि प्रबन्धेषु दृश्यते तदनन्तता ॥ 

[“श्रयोग की दस अवस्थां होती है" यह बातत आचार्यो" ने प्रायोवाद के 
आधार पर लिखी है । अर्थात्‌ अधिकतर कटा जाता हे इसीलिए लिख दी है । 
महाकवियों के प्रबन्धो मेँ अयोग की अनन्त अवस्था देखी जाती हे । | 

यहाँ पर दिग्दशंन-मान्र कराया जा रहा है :-- 

दृष्टे श्रुतेऽभिलाषाज्च किं नौत्सुक्यं प्रजायते ॥५६। 
अप्राप्तौ किं न निर्वेदो ग्नानिः किं नाति चिन्तनात । 

[देखने ओर सुनने पर अभिलाषा से क्या उत्सुकता नहीं उत्पन्न होती १ 
प्राक्च न होने पर क्या विराग नामक अवस्था नहीं होती ? अधिक चिन्तन से 
क्या ग्नानि नामक एक ओर दशा नहीं हो सकती ?] 

प्रच्छन्न कामिका इत्यादि भेदों को काम सूत्र के आधार पर जान लेना 
चादिए । 

(२) विभ्रयोग :-- 

विग्रयोगस्तु विश्लेषो रूढ विसखम्भयोद्धिधाः ॥५७॥ 
मान प्रवास भेदेन मानोऽपि प्रणयेष्ययोः । 

[जब दोनों का विश्वास वद्‌ जावे तब जो विरज्ञेष (वियोग) होता है उसे 
विभ्रयोग कहते ईह । यह दो प्रकार का होता है मान विप्रयोग ओर प्रवास विप्र 
योग । मानभीदो प्रकार का होता है प्रणखयमान शओ्रौर ई्यांमान ।] 

(अ) प्रणयमान :- 

तत्र॒ प्रणयमानः स्यात्कोपावसितयोद्रयोः। 

[मान केमेदों मे प्रणयमान उसे कहते हैँ जिसमे कोपके कारण दोनोंका 
प्रथक्त्व हो जावे । | 

प्रणय का अर्थ है प्रेमपूरवैक वश मे कर लेना । उसके भङ्ग सेजो मान होता 
हे उसे प्रणयमान कहते हे ¦ वह नायक श्मौर नायिका दोनों मँ हो सकता है । 
नायक के मान का उदाहरण जैसे उत्तररामचरितमे :- 

श्रसिमन्नेवलता गे त्वमभवस्तन्मागं दत्ते त्तणः | 
सा हंसैः कृत कौठुका चिरमभूद्‌ गोदावरी सैकते ॥ 
श्रायान्त्या परिदु्मनायित मिव सां वीदेय वद्धस्तया । 
कातयांद्रविन्दकुःड.मलनिभो मुग्धः प्रणामाज्लिः ॥ 
वासन्ती राम से कह रही ह "हसी लता-गृह मेँ तुम उसके मागको 


देखने के जिए निगाह लगाये हुष्‌ थे जबकि हंसों का कौतुक देखने म गोदा- 
बरी के किनारे उस सीता को बड़ी देर लग गदं थी । जब वहं आद भर उसने 














( २३० ) 


तुम्हे कुपित सा देखा तब उसने कातरतापूर्वकं प्रणाम के लिए कमल की कली 
के समान भोली भाली श्रंजली बंधी ।' 
नायिका कै प्रणयमान का उदाहरण जैसे श्रीवाक्पति राज देव का :- 
प्रणय कुपितां इष्ट्वां देवीं ससम्भ्रमविस्मितः 
तरिसुवनगुर्भीत्या सद्यः प्रणाम परोऽभवत्‌ । 
नमित शिरसो गङ्गालोके तया चरणाहता 
ववतु भवतस्त्यत्तस्पैतद्विल्लमवस्थितम्‌ ॥ 
तीनों लोकों के स्वामी.शङ्करजी भ्रणय से कुपित हुदै देवी को देखकर 
सम्भ्रम चौर विस्मय के साथ डरते हुए एकदम प्रणाम करने लगे । जब 
प्रणाम केलिए शंकरजी ने सर सुकाया तव रङ्गा को देखकर उसने पाद्‌ 


प्रहार किया । इ प्रकार का*त्रिलोचन शंकरजी का निराश होकर स्थित होना 


आप लोगों की रक्ता करे। 
दोनों के प्रण्यमान का उदाहरण :- 
१ कुविश्राणदोण्टवि श्रलिग्रपसुत्ताणएमाणदइत्ताणम्‌ 
शिल शिख्दधणीसासदिख्ण च्रण्णाणे को मल्लो ॥ 
[प्रणय , कुपितयोद्ध योरप्यलीकप्रसुप्तयोमांनवतोः । 
निश्चलनिरुद्निश्वाखदत्तकणंयोः को मल्लः ॥ | 
दोनों ही प्रणय से कुपित होकर मानधारण कर सोने का बहानां किये 
इण ह; दोनों ही अपनी गहरी स्वासो को निर्चलतापूवंकं रोककर एक दूसरे 


की ओर कान दिये हुए हं । अव देखना है कि इनमे कौन वीर टं ?' 
(अ!) ई्यामान ; -- 


स्ीणामीर्ष्याद्तो सानः कोपोऽन्यासङ्गिनि श्रिये । 

श्रते वानुमिते दृष्टे श्रुतिस्तत्र सखीमुखात्‌ ॥५६॥ 
उस्स्वप्रायित  भोगाङ्क गीत्रस्खलनकल्पितः । 
त्रिधाल॑मानिको. दृष्टः सान्ता दिन्द्रिय गोचरः ॥ 

[अपने प्रियतम को किसी अन्य नायिका के साथ देखकर जो कोपहोता 
हे उसे ईै्यामान कहते ह । यह स्त्रियों मँ हीहोता हे इसकी उत्पत्ति तीन 
प्रकार से हो सकती है सुनने से, अनुमान लगाने से ओर देखने से । इने 
सुना खखी के सुख से जाता ह (कयो किं उखी पर विश्वास होता है) । अनुमान 
तीन प्रकार का होता है उस्स्वप्रापित (जोर से स्वप्न देखने से) भोगाङ्क (संभोग 
के चिद्धों को देखने से ) ओर गोत्रस्खलन (धोके से दूखरी नायिका का नाम लते 
्ञेने से) । दशन सा्तात्‌ इन्दिथों से होता है ।| 

(क) सखीञ्ुख से श्रवण का उदाहरण जैसे धनिक का पद्यः- 














( २३१ ) 


सुभ त्वं नवनीत कल्प हृदया केनापि दुर्मन्वरिणा । 
मिथ्येवप्रियकारिणा मधुप॒खेनास्मासुचन्डी कृता ॥ 
किन्त्वेतद्विमश क्षणं प्रणयिनामेणान्ति कस्ते हितः । 
किं धात्रीतनया वयं किमु सखी किवां किमस्मत्सुहत्‌ ॥ 
कोद सखी मानिनी नायिका से कह रही है--!हे सुन्दर ने्रोंवाली ! 
तुम तो मक्खन के समान कोमल हृदयवाली हो । किसी दुष्ट मन्त्री ने, जो 
मीरी-मीटी बातं बनाकर ठ ही प्रम दिखलाता है, हम लोगों की ओर तुमको 
प्रचण्ड बना दिया ह । किन्तु क्षण भर के लिए तुम्हीं विचार कर देखो कि हे 
सगनयनी ! प्रेमियों मे तु्हारा हितैषी कौनहे ? क्या धाय की लडकी तुम्हारा 
अधिक हित चाहती हे कि हम लोग तुम्हारा अधिक हित चाहती हें या कोई 
सखी अथवा हम लोगों की वई सहचरी तुम्हारा अधिक हित चाहती हे । 
(ख) उत्स्वश्रायित का उदाहरण जैसे रद्रकापद्यः- 
निर्मगनेन मयाम्भसि,. स्मरभरादाली समालिङ्किता । 
केनालीकमिदं तवाद्यकयितं राधे मुधानाम्य सि॥ 
इत्युत्स्वप्रपरम्परासु शयने श्रुत्वा वचः शाङ्गिण॒ः । 
सव्याजं शिथिली कृतः कमलया कणठ प्रह पाठुवः ॥ 


भगवान्‌ कष्ण स्वप्न मे बडबडा रहे थे --हे राधे ! तुमसे यह रूढ बात 
किसने कह दी किं जल के अन्द्र निर्मग्न होकर काम पीडा से युक्त होकर ने 
सखी का आलिङ्गन कर लिया ! क्यों तुम व्यथै दही इस्सेरुष्ठ हो रही हो ।' 
इस प्रकार स्वप्न की परम्परा में चारपाहं पर लेटे हए कृष्ण भगवान्‌ के . इन 
वचनों को सुनकर भगवती सकिमिणौ ने किसी बहाने से अपने जि कण्ठ बह कों 
शिथिल कर दिया वह कर्ठ अह आप लोगों की रक्ता करे †' 
(ग) भोगाङ्क से अनुमान लगाने का उदाहरण :- 
नवनखपदमङ्ग  गोपयस्पंशुकेन । 
स्थगयमि पुनरोष्ठं पाणिना दन्त दष्म्‌ ॥ 
प्रतिदिशमपरल्री सङ्ग शंसी विसर्यन्‌ | 
नव॒परिमलगन्धः केन शक्यो वरीतुम्‌ ॥ 
 ^ताजे नाखृनों के चिह्ववाल्े अपने शरीर को वख से ढक रहेहो ओौर 
दात से काटे हश्‌ ओंठकों हाथसेदधिपा रहेहो;*किन्तु परस्त्रीके साथ को 
बततलानेवाला चारों दिशां मे फेलनेवाला यह परिमल गन्ध किस उपाय से 
दविपाया जा सकता है ? 
। (घ) गोत्रस्खलन जन्य-द्ष्या-मान का उदाहरण : -- 




















( २३२ ) 


केलौ गोत्तक्छलेणे विकुष्पट केशवं श्रन्राणन्ती 1 
दुष्ठ उश्रसुपरिदासं जाग्रा सच्च विश्न परुण्णा ॥ 
[केली गोत्रस्वलने विकुप्यति कैतवम जानन्ती । 
दुष्ट पश्य परिहासं जाया सत्यमिव प्ररुदिता ।| 

"परिहास म गोत्रस्वलन (अर्थात्‌ पर च्त्रीका नामले लेने) से छल कपट 
को न जाननेवाली प्रियतमा कृपित ह गद दै। तम बडे दुष्ट हो, अपनी 
हंसी के फल को देखो कि तुम्हारी प्रियतमा सचमुच रोने लगी । 

(ङ) प्रत्यत दष्ट का उदाहरण : -- 

प्रसयकुपितां दष्ट्वा देवीं ससम्भ्रमविस्मितः । ` 
त्रिभुवन गुरर्भीत्या प्रणाम परोऽभवत्‌ ॥ 
नमित शिरसो गङ्गालोके तया चरणादता । 
ववतुः भवत्ूयक्तस्पैतद्विल्लमवस्थि तम्‌ ॥ 

(अथ देखो पृष्ठ २२८ पर) 

इस प्रकार प्रणयमान नौर दैघ्यामान का वर्णन किया गया है। अब 
मनाने का वणन करिया जा रहा हे :- 

यथोत्तरं गुरुः षड़भिरुपायेस्तमु पाचरेत्‌ । 
सञ्रा भेदेन दानेन नस्युपेञारसान्तरेः ।६१॥ 

[उषं मान उत्तरोत्तर अधिक होते जाते ह । (जैसे प्रणयमान की अपेक्ता 
सखी के सुखे प्रियतम का परस्त्री समागम सुनकर होनेवाला मान अधिक होता 
हे उखसे स्वस्न की बद़बडाहट को सुनकर अधिक मान होता है उसकी अपेत्ता 
खम्भोग के चिद्धां को देखने से अधिक मान होता है । इस्यादि)¶साम इत्यादि 
छः उपायों से इसको दूर करने "की चेष्टा करनी चादिए ।| 

तत्र प्रियवचः साम॒भेदस्तत्सख्युपाजनम्‌ । 
दानं व्याजेन भूषादेः पादयोः पतनं नतिः ॥६२॥ 
सामादौ तु परिक्षीणे स्यादुये्तावधीरणम्‌ । 
रभसत्रास हषदिः कोपश्र॑शो रसान्तरम्‌ ॥६२॥ 
कोप चेष्टाश्च नारीणां प्रागेव प्रतिपादिताः ॥ 

[भ्रिय वचन बोलने को साम कहते ह, सखी का सहारा लेने को भेद कहते 
ह, किसी बहाने से गहने इत्यादि देने को दान कहते हँ, पैरों पर गिरने को 
नति कहते ह । यदि साम इत्यादि उपायों से काम न चल्ले तो तिरस्कार कर 
देना चाहिए इसे उपेता कहते हैँ । जल्दबाजौ भय या हष से*कोष के तोड़ देने 
को रसान्तर कहते ह । स्त्रियों की कोप चेष्टाओं का पहले ही वणन किया जा 

|. 


चका हे ।| 





तकत 





( २३३ ) 


(१) प्रिय वचन बोलने को साम कहते हैँ । इसका उदाहरण :-- 
स्मितज्योस्स्नामिस्ते धवलपति विश्वं मुखशशी 
दशस्ते पीयूषद्रवमिव विमुञ्चन्ति वरितः ॥ 
वपुस्ते लावण्यं किरति ` मधुरं दिक तदिद, 
कुतस्ते पारुष्यं सुतनु हृदयेनाय गुखितम्‌ ॥ 

८हे सुन्दर शरीरवाली ! तुम्हारा मुखचन्द्‌ सुस्कृराहट की चांदनी से विश्व 
को श्वेत बना रहा है, तुम्हारी निगदं चारों ओर से अग्रत का प्रवाह सा बहा 
रही है, तुम्हारा शरीर दिशाओं मे माधुय विखेर रहा है, फिर तुम्हारे हृदय ने 
इतनी अधिक कठोरता कहाँ से प्राक्च कर ली टै?" 

दूसरा उदाहरण :- 

इन्दोवरेण नयनं मुखमम्बुजेन 
कुन्देन दन्तमधरं नव पल्लवेन । 
रङ्गानि चम्पकदलैः स विधाय वेधाः 
कान्ते कथ रचितवानुपलेन चेतः ॥ 

(ब्रह्माजी ने तुम्हारे नेत्र नीलले कमल से बनाये ह, मुख लालं कमल से 
बनाया है, कन्द की कली से दात बनाये, नवीन पल्लव से अधर बनाया, चम्पा 
के दलों से दृखरे अङ्ग बनाये, (इस प्रकार जब अन्य अङ्गां को बनाने में 
फूलों का ही उपयोग किया फिर) हे प्रिये! तुष्ारे चित्त को पत्थर का क्यों 
अनाया । 

(२) नायिका की सखी का सहारा लेने को भेद कहते हैं । इसका 
उदाहरणः- . । 
कृतेऽप्याज्ञा भङ्ग कथमिव मयाते प्रणतयो 

धृताः स्मित्वा हस्ते विखजसि रुष सुभ्रु बहुशः । 
प्रकोपः कोऽप्यन्यः पुनरयमसीमाद्य गुखितो 
। वृथा यत्र स्निग्धाः प्रियसहचरीणामपि गिरः ॥ 

€हे सुन्द्र भोदोंवाली ! आज्ञा भङ्ग करने पर मी जैषे-तेते मेने तुम्हें प्रणाम 
क्रिया नौर तुमने बहुत बार सुस्कुराकश तत्काल ही अपना क्रोध छोड दिया । 
आज यह तुम्हारा कोई दृखरी ही अकार का निस्सीम कोध मालूम पड़ रहा है 
जिस प्यारी सखियों की मेममयी वाणी भी व्यथ हो रही है ॥. ` 

(३) किसी बहाने से आभूषण इत्यादि के दान करने का उदाहरण जैसे 
माचमे:-- 

महुरुपहसितामिवालि नादैवितरसिनः कलिकां किमथयेनाम्‌ । 
. श्रधिरजनि गतेन धाम तस्याः शठ कलिरेष महांस्त्वयाद्य दत्तः ॥ 
(तुम इस कलिका (छोटी क्ती) को सुभे क्यो दे रहे हो जिस पर भोरों 


[-. 








( २३४. ) 


की वार-बार गुज्जार देखी प्रतीत हो रही है मानो उसकी हसी ज्ञा रही . ` 
हो । हे दुष्ट ! रात के समय उसके धर जाकर भ्राज तुमने बहुत कलि (9 -कली 
२-पाप) मुभे प्रदान किया हे ।' 
(४) पैसों पर गिरने को नति कहते हें । इसका उदाहरण :-- 

शेउर कोडि विलग्गं चिहूरं दयिश्चस्प पाश्रपडिश्रस्य । . 

दिश्रश्रं माणपरउत्थं उम्मोश्रंतिच्चिग्र कदे ॥ 

[नूपुर कोटि विलग्नं चिङ्करं दयितस्य पाद्‌ पतितस्य । 

हृदयं मानपदो व्थयुन्युक्तमित्येव कथयति ॥ | 

पसो पर पड़ हए प्रियतम के नूपुर के किनारे का स्पशं करनेवाले वाल 
यही कह रहे है कि मानों मानशब्द के सुनने उठे हए हृदय को ही खोल 
दिया हो ।' | 

(९) उपेता परित्याग को कते ह । इसका उदाहरण :- 

किं गतेननदि युक्तमुपैतुं नेश्वरे परुषता सखि साध्वी । 
न्रानमैनमलुनीय कथं वा विप्रियाणि जनयत्रनुनेयः ॥ 

'हे सखी ! जाने की क्या आवश्यकता , उसे पास जाना ठीक नहीं । 
किन्तु अपने स्वामी के प्रति कठोरता भी अच्छी नदीं; तुम जाकर इसको समा- 
बुस्ाकर अन्‌नय विनय के साथ क्ते आमो; अथवा रहने दो अपकार करनेवाले 
के सामने अनुनय विनय ठीक नहीं । | 

(६) जल्दबाजी में त्रास या दष के द्वारा मानभङ्ग को रसान्तर कहते है । 
इसका उदाहरण जैसे धनिक का पद्य :-- 

त्रमिग्यक्तालीकः सकल विफलोयाय॒ विभवः । 
चिरंध्यास्वा सद्यः कृत कृतक संरम्भनिपुणम्‌ । 

इतः पृष्ठे पृष्ठे किमिदमिति संत्रास्प सहसा । 
कृताश्लेषां धूतं स्मितमधुरमालिङ्गतिवधूम्‌ ॥ 

(नायक का अपराध प्रगट हो गया. था; उसके उपायो का सारा वैभव नष्ट 
हो गया था; उसने बड़ी देए तक विचार करके ओर बनावी उद्वेग की निपुणता 
को भ्रगट करते हुए “अरे यद पीे-पीे क्या आ रह। है" यह कर एकदम नायिका 
को भयभीत कर दिया; तव नायिका दौडकर उससे चिपट गद ओर उसने मधुर 
मुस्कुराहर के साथ भ्रियतमा का आलिङ्गन कर लिया । 

प्रवास विप्रयोग का वणेन :-- | 

कार्यतः सम्भ्रमाच्छ्ायात्‌ प्रवाशो भिन्न देशता ॥६४। 
दरयोस्तच्राश्रुनिश्वास काश्य॑लम्बालकादिता । 
स च भावी भवन्‌ भूतिधाऽऽद्यो नद्धिपूवकः ॥६५॥ 





2 २३५ ) 


[प्रवास भिन्न देशों मे रहने को कते हैँ । यह तीन प्रकारसे दहो सकता 
है (१) किसी कार्यं से, (२) सम्भ्रम से या (३) शाप से। इस प्रवास विष- 
योग मेँ नायक ओर नायिका दोनों के आँसू, गहरी, श्वासं कृशता बालों का 
विखरे हुए होना ।ये बातेःहु्रा करती हैँ । प्रथम (कार्य से) विप्रयोग जाना 
हुआ होता हौ। अ्रतएव इसके तीन मेद होते हैँ: (१) भावी, (र) वतमान रौर 
(३) भूत ।| 

(१) श्वास विषयोाग :-- 

(अ) कायेवश हेनेवाले भावी विश्रयोग का उदाहरण :- 

होन्त पदहिश्रस्स जाश्रा श्राउच्छण जीश्र धारण रहस्सम्‌ । 
पृच्छन्ती ममह्‌ षरषरेयु पिश् विरह सहिरीश्रा॥ 
[मविष्यत्यथिकस्य जायाः श्रायु: क्ण जीवधारण रहस्यम्‌ । 

प्रच्न्ती भ्रमति  ग्हाद्ग्देषु प्रिय विरह सह्ीका ||| 

(परदेश जाने की तैयारी ¦ करनेवाले पुरुष की पली भियतम के वियोग से 
` लज्जासे भरी हुदै क्षणमात्र जीवित रहने के रहस्य के पूष्ती हुई एक घर से 
दूखरे घर मँ घूम रही है । |] 

(अ) .गच्छत्पमवास (काय वश परदेश को चलने के समय के प्रवास) का 
उदाहरण । जैसे अमदशतक मे :- 

प्रहर विरतो मध्ये बाहृस्ततोऽपि परेऽथवा । 
दिनङृतिगते वास्तं नाथ त्वमद्य समेष्यसि | 
इति दिनशतप्राप्यं देशं प्रियस्य यियाषतो। 
हरति गमनं वालाल।पेः सवाष्यगलज्जलैः ॥ 

५ हे नाथ ! आज तुम क्या पहर बीत जाने पर आआञ्योगे या मध्या, में 
, आश्नोगे; अथवा उसके भी बाद्‌ आश्मोगे या किं जव सूै अस्त हो जावेगा तब 
आआग्रोगे ? ये प्रन उस वाला ने उस्र समय पृष्व जव प्रियतम देसे स्थान को 
जा रहा था जहां पहने के लिए १०० दिनों की आवश्यकता थी; उस समय 
उसके नेत्रो से ओंसुश्रों के जलविन्दु भी गिर रहे थे । इस प्रकार ओंसुश्रं के 
साथ ये प्रश्न करते हुए नायिका ने अपने प्रियतम का जाना रोक दिया |" 

दूसरा उदाहरण जैसे अमर्शतक मे हो :-- 

देशेरन्तरितः शतैश्च सरितामु्वश्ितां काननैः 
यलेनापि न याति लोचनपथं कान्तेति जानत्रयि | 
उद्ग्रीवश्चरणाधरुद्ववघुधः कलवश्रुपूशें दशौ 
तासाशां पथिकष्तथापि किमपि ध्यात्वा चिरंतिष्ठति । 
“यद्यपि परदेशी जानता है कि उसके शौर उपरी प्रिपतमा के वीच मे क 








( र) ~ 


देश आ गये है, सैको नदिर्या, पवेत ज्जौर वन भी आ पडे है; प्रयत्न करने पर 
भी उसकी प्रियतमा उसके नेन्नों के सामने नहीं आ सकती, किन्तु फिर भी वह 
ञ्रपनी गर्दन ऊपर उठाकर आघे पैरों से पृथ्वी पर खड़े दोकर (उचककर) ओर 
अपने नेतरो म आसू भरकर ङच् ध्यान सा करते हुए उख दिशा की थोर दृष्टि 
लगाये हुए बदी देर से खडा हो रहा है ॥' 

(इ) गत प्रवास (परदेश चज्ञे जाने के बाद्‌ के वियोग) का उदाहरण जसे 
मेघदूत मे :- 

उत्सङ्गेवा मलिनवसने सौभ्यनिरधिप्य वीणाम्‌ । 
मद्‌ गोत्राङ्को विरचितपदं गेयमुद्गातुकामा ॥ 
तन्नमा नयन सलिलैः सारयित्वा कथञ्चित्‌- 
भूयोभूयः स्वयमपि मूचेनां विस्मरन्ती ॥ 

हे सौम्य मेघ ! (जब तुम अलकापुरी मे, पटच जाओगे रौर मेरी प्रियतमा 
को देखोगे उस समय या तो वह पूर्वोक्त कायो म लगी होगी अथवा) मलिन 
वस्त्रोवाली ्रपनी गोद मे वीणा रखकर मेरे नाम से युक्त रचे हुए शदो वाज 
गाने को गाना चाहती होगी; उस समय उसके आंसू बहते होगे जिससे वह 
वीणा भीग जाती होगी, उस वीणा को श्रपने हाथ से पोती होगी ओर जैसे. 
तेते जिन मून को निकालती होगी उन अपने अप ही निकाली हुं मू 
नां को स्वयं ही भूल जाती होगी ।' 

यदि प्रियतम लौय्कर आ रहा हो या आ गया हो तो उसमे वियोग नहीं 
रहता । अतएव इन दोनों अवस्थानं को विप्रयोग का मेद्‌ नहीं माना जा 
सकता । यदि प्रियतम लौटकर आनेवाला हो तब तो वह गत प्रवास ही होता 
ह । गत प्रवास की अयेन्ता इसमे कोद विशेषता नहीं होती । अतएव प्रवास 
विप्रयोग के तीन ही मेद करना उचित है । 

(२) खम्भ्रमजन्य विप्रलम्म :- 

द्वितीयः सहसोत्पन्नो दिग्यमानुष वि्षवात्‌ । 

[दिव्य (उत्पात; निर्वात वायु इत्यादि) विप्लव से अथवा मनुष्य सम्बन्धौ 
(शत्रु के घेरे इत्यादि से उस्पन्न) विप्लव से जो सहसा वियोग हो जाता है उसे 
सम्ध्रमजन्य विप्रयोग कहते हैँ ।] 

यह केवल एक प्रकार का होता है क्योकि इसमे पता नहीं चलता कि 
वियोग होनेवाला ह । विक्रमो्वंशी म उर्वशी श्नौर पुरूरवा का वियोग अथवा 
मालती माधव म मालती के कपालकुण्डला द्वारा हर लिए जाने पर मालती 
ञ्नौर माधव का वियोग इसके उदाहरण हँ । 

(३) शापज विप्रयोग का उदाहरण :-- 








। 


त भक स १ क च +कः» क 


| न कः 


क 





( २३७ ) 


स्रूपान्यत्वकर णाच्छापजः सन्निधावपि ॥६६॥ 

[जहा पर निकट होते हुए भी स्वरूप ओौर ही कर दिया जावे वहाँ पर 
शापज वियोग होता है ।| 

शापज विप्रयोग का उदाहरण जैसे कादम्बरी मेँ वेशम्पायन का वियोग । 

मृतेत्वेकत्र यत्रान्यः प्रलयेच्छोक एव सः। 
व्याश्रयत्वान्न श्ंगारः भ्रत्यापन्ने तु नेतरः ।६५।। 

[यदि दो म एक मर जावे ओर दूसरा शोक से कृश होकर विलाप करे 
वहां पर शोक ही स्थायी भाव होता है । आलम्बन रूप श्राश्रय के नष्ट हो जाने 
से उसे शङ्गार का नाम नहीं दिया जा सकता ओर (आकाशवाणी इत्यादि से) 
इनमिलन की आशा हो जाने पर शोक नहीं किन्तु शार ही कहा जाता हे। ] 

जेसे रघुवंश मे इन्द्रमती के मर जाने के वाद अजका करुण रस ही कहा 
जावेगा । किन्तु का दुम्बरी मे पुखुडरीक के मर जाने के बाद पहकज्ञे तो कर्ण रस 
कहा जावेगा ओर वाद्‌ मे आकाशवाणी सुनने पर प्रवास शङ्गार कहा जावेगा । 

उपयुक्त शगार के अयोग ओर विप्रयोग नामक भेदो मे नायिका के विषय 
म इतनी बात ओर याद्‌ रखनी चाहिए :-- | 
प्रणयायो गयोरत्का प्रवासे प्रोषित प्रिया | 
कलहान्तरितेष्यांयां विप्रलब्धा च खरिडता ।६८॥ 

प्रणय उसपक्न हो जाने पर सम्मिलन होने (श्रयोग) की अवस्था 
भे नायिका उककर्ठित ठोती दै; पति के मरवास मे प्रो पितपतिका होती है । (पर 
खी समागम के ज्ञान होने पर) द्यां मे कलहान्तरिता, विप्रलब्धा ओर खंडिता 
होती हे ।] 

(३) सम्भोग श्रगार :-- । 

अनुकूलौ निषेवेते यत्रान्योन्यं विलासिनौ । 
दशन स्पशनादीनि स सम्भोगो मुदान्चितः ॥६९॥ 

जहा पर अजुद्ल विलासी एक दूसरे के दशन ओर स्पशं इत्यादि का सेवन 
कएते हँ वह आनन्द से युक्त सम्भोग शगार कहलाता है ॥ 

उदाहरण के लिए उत्तर राम चरिते :- 

किमपि किमपि मन्द्‌ मन्दमासत्तियागा- 

दविरलित कपोलं जल्पते।रक्रमे । 
सपुलकपरिरम्भनग्याप्रतैकैक दोष्णो 

रविदित गतयामा रात्रिरेव व्यरंसीत्‌ ॥ 

निकटता के कारण कपोलों को एक दूसरे से पथक्‌ न करते हष बहुत 
धीरे-धीरे ढ़ दषर-उधर बात बिना क्रमरङेही करते हष ओर रोमान्न के खाथ 








( र्दे ) 


लङ्गन मे एक दूसरे की बाहों मे बाहं जोडे हुए हम लोग सारी रात रमण 
ही करते रहतते थे ओर पहर बीतते चत्ते जते थे किन्तु हम लोगों को प॑ताभी 
न चलता थौ ।' 
दृखरा उदाहरण -- भिये ! यह तुम्हारा स्पशं क्या वस्तु दै { 
विनिश्चेतं शक्यो न सुखमिति वा दुःखमिति वा । 
प्रमोहो निद्रा वा किमु विषविस्ः किम्‌, मदः ॥। 
तव॒ स्पश स्वर्श ममहि परिमृढेन्दरियशणो। 
विकारः केडप्यन्त्ंडयति च तापं च कुरते ॥ 
यही निश्चय नहीं करिया जा सकता है किं यह सुख है कि दुःख है, क्या यह 
उत्कट मोह हे किंनिद्राहै किविष कासार है किं कोद नशा है? तुम्हारे 
प्रत्येक स्पशं रं मेद इन्दियो के समूह को अत्यन्त मूढ बनानेवाला विचित्र 
प्रकार का विकार मेरी अन्तरारमा को जड भी बनारहाहै ओर सन्ताप मी 
उत्पन्न कर रहा हे ।' | 
तीसरा उदाहरण जैसे धनिक का पद्य :-- 
लावण्यामृतवर्षिंखि प्रतिदिश कृष्णागुरुश्यामले । 
| वर्षांणाभिव ते पयाधरभरे तन्वङ्गि दुरोन्नते ॥ 
नासावंशमनोकज्ञ केतक तनुश्रंपत्रगो्नषत्‌ । 
पुष्पश्रीस्तिलकः सदेलमलकै ज्ञे रिवापीयते ॥ 
हे कृशाङ्गि ! तम्दारा यह स्तनो का भार लावस्यरूपी अष्ट को वर्षाने- 
वाला है ओर काले अजगर के समान श्याम वणंकाहे। यह देखा शोभित 
हो रहा हे जैसे मानो वर्षाकाल के बादल उठ रहे हों । कर्योकिं बादलों के 
समान ही यह ऊँचा उटा हुश्रा है । नाक का भाग सुन्द्र केतकी के समान कात 
होता हे श्नौर भौँहरूपी पत्तं के अन्द्र शोभित होनेवाल्े घुष्प के सुन्दर 
तुम्हारे इस तिलक को क्रीडा करते हुए केशरूपी भौर पीरहेदहं। 
चेष्टास्तत्र प्रवतन्ते लीलायाः दशयोषिताम्‌ । 
दाल्तिण्यमाद्‌व ्रम्णामयुरूपाः प्रियं प्रति ॥५७१॥। 
[ नायिकाश्चों की अपने प्रियतमो क प्रति लीला इत्यादि १० चेष्टापु 
दाक्तिण्य कोमलता ओौर प्रेम के अनुद ही प्रदत्त होती है । | 
नायकं के वखन करने के प्रसङ्ग उदाहरणों के साथ उनका निरूपण कर 
दिया गया है। 
. रमयेचादुकृत्कान्तः कला क्रीडादिमिश्चताम्‌ ) 
न भ्राम्यमा चरेतिकच्िन्नमैश्रंशकरं न च ॥५७१॥ 
[ परितम को चादिद्‌ कि चादुकपति के साय कज ओर कीड़ा इत्यादि 












( २३९ ) 


से उख नायका को रमण करावे । कोद भी ग्राम्य आचरण न करे ओर (कोध 
इत्यादि) कोद एेसा भी कायै न करे जिसे सम्भोग के आनन्द मैकमी आं 
जावे ।] 


रङ्ञमञ्च पर भ्राम्य संभोग नहीं दिखाया जाना चाहिए यह तो पहक्ते ही 
कहा जा चुकाहै। दूसरी वार उसका निषेध इसलिए कर दिथा हे कि 
काव्य में भी उसका प्रयोग नकरे। अन्राम्य संभोग का उदाहरण जैसे रलना- 
वलीमे :- 
्ष्टस्त्वयेषर दयिते स्मरपूजा व्याप्रतेन हस्तेन । 
उद्धिन्नापरम्रदुतरकिष्लय इव लद्यतेऽशोकः ॥ 
उद्यन वासवदत्ता से कह रहे हँ - हे प्रियतमे ! कामदेव की पूजा मं 
संर्लगन अपने हाथ से तुमने जो इस अशोक को छर लिया उस तुम्हारी ॐंगली 
के यह अशोक देखा मालूम पड़ रहा है मानो इस एक दृखरा अधिक कोमल 
किसलय निकल आया हो ।' | 
अच्छो कवि को चादिए करि लक्तण शास्त्रों मं कहे हुए नायक नायिका 
केशिकी वृत्ति नाटक नाटिका इत्यादि के लक्षणों को सम ले कचि परस्परा को 
जान ले नौर स्वयं भी ओओौचित्य की कल्पना कर ते| हस प्रकार श्रौचित्य के 
गुणों का अनुसरण करते हुए श्ङ्गार की रचना करे । 


वीर 


वीरः प्रतापविनयाध्यवसाय सस्व- 
मोहाविषाद नय विस्मय विक्रमाः । 
उत्साहभूः सच दया रण दान योगात्‌ 
न्त्रेधाकिलात्र मतिगर्वधृतिप्रहर्षाः ७२ 
| बीर रस मेँ प्रताप, विनय, अध्यवसाय (लगन) तेज, मोह, विषाद्‌ का 
अमाव, नीति विस्मय पराक्रम इ्यादि विभाव होते हैँ । मतिगवं ति अमष 
सतिवितक रौर प्रहषं के सञ्चारी भाव होते है; उत्साह (स्थायी भाव) से 
उस्पन्न होता हे । इसङे अनुभाव दया, युद अ्ौर दान होते है । इसल्लिए देसके 
तीन भेद होते हैँ दयावीर, दानवीर ओर युद्धवीर ।] 
यह वीररस स्थायी भाव उत्साह के आस्वादन से उत्पन्न होता है जिससे 
अनुशीलन करनेवाला कौ चित्तृत्ति का विस्तार हो जाता है । यही वीररस 
का स्वरूप है । दयावीर का उदाहरण जेते नागानन्द्‌ मे जीमूतवाहन का 
चरित्र, युद्धवीर जैसे वीरचरित मेँ राम, द्‌ नवीर जञेसे परशराम, बलि इत्यादि । 





( २४० ) 


ते -श्याग कौ सीमा सातो समुद्रो से विरी हुदै ण्थ्वी बिना दान कर देना 
ही है ।› दूसरा उदाहरण :-- 
ख्व॑अ्रन्थिविमुक्तसन्धि विकसद्रत्तः स्फुरस्कोस्तुभं, 
नि्षननाभिसरोज कुडमल कुटी गम्भीरसाम भवनि । 
पात्रावासि समुत्सुकेन बलिना सानन्दमालोकितं 
पायाद्वः करम वर्धमान मदहिमाश्चयं सुरारेवपुः॥ 


(वलि ने क्रमश; वदने की महिमा ओर आश्चयै से भरे हए भगवान्‌ के 
शररी को आनन्दुपूवक देखा, उस समय वह शरीर बौनापन कौ गौठ के 
सुत जाने से शरीर का बना मिलाव भीदूरहो रहा था; वक्षस्थल खिल रहा 
था जिस पर कौस्तुभकी शोभा कैत रही थी; नाभिरूपी कमल की कली 
की कटी से गम्भीर सामगान की ध्वनि. निकल रही थी, उन भगवान्‌ को देख- 
करं पात्र के प्राक्च कर ल्ञेने की उत्कण्ठा मे बलि को बहुत अधिक 
आनन्द ्राया। इस प्रकार का भगवान्‌ का शरीर अरप सब लोगो की रक्ता 
करे । 

दूखरा उदाहरण जैसे धनिक का ही पद्य :-- 

लद्मीपयोधरोत्षङ्ग कु कुमारुणितो हरः । 
वलिरेष सयेनाश्य भिक्तापात्रोकुतः करः ॥। 

(यह वही राजा बलि ह जिन्होने लचमीजी के स्तनो पर पड़ने से केसर 
से लाल हए भगवान्‌ के हाथ को आज भिक्ता-पात्र बना दिया ।' 

नायक के प्ररुरण म विनय इस्यादि गुणों के उदाहरण दिये जा चुके हे । 
वहीं उनको समना चाहिए । यह ॒केव्रल प्रायोवाद है कि वीररस तीन 
प्रकार का होता है । जर्हां कीं किसी वात के उत्साह का वर्णन हो ओर 

॥ उसका विभाव इत्यादि से परिपोषभी हो जाता हो । वह भी वीररस हो 
सकता है । जेषे प्रतापे वीर, गुणवीर, शास्त्राथे गीर, खण्डनवीर, कमवीर 
वि्यावीर इत्यादि । युद्धवीर वदीं पर होता है जहां पसीना, खख की लाली, 
नेत्रां की लाली इत्यादि क्रोध के अनुभावनहों। क्रोधके अनुभावो के होने 
पर रौद्र रस होता है । 


वीभत्स 


बीभत्सः कृमिपृतिगन्धिवमथुपायै जु गुष्तैकभूः 

उद्रेमी रुधिरान्त्रकोकसवसामांसादिभिः क्ोभणः। 
्ैराग्याजवनस्तनादिषु घृणा शुद्धोऽनुमावैष तो 

नासा वक्त्रविकरणनादिभिरिदावेगाति शङ्कादयः ॥५३॥ 





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ख. ६, 
५ 












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॥ चन्त के छ ॥ 1 ¦ ` ` त 


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( २४१ ) 

[खणुष्सा (घृणा) स्थायीमाव से उत्पन्न होनेवाज्ञे रस को वीभत्स रस कते 
है । यह तीन प्रकार का होता है उद्ेगी, चोभण अर शद्ध । यदि कीडा गन्धि 
हवाकौ इत्यादि अनुभावं से युक्त हों तो उद्धेगी (मनोमालिन्यमय प्रणा पूं) 
वीभत्स कंदलाता हे । यदि रक्त, आंत, चर्व, द्या, मांस इस्यादि :विभाव- 
बाला हो तो उसे कोभण वीभत्स कते हैँ । यदि वैराग्य से जङ्घा, स्तन इत्यादि 
मणो तो शुद्ध वीभत्स कहलाता है । इषे नाक, सुख इत्पादि का 
खिकोढना अनुभाव होता है ओर आवेग आततिं ओर शङ्का इत्यादि सञ्चारी 
होते है |] 

(१) अत्यन्त ब्रह्य कोढ़ा दुन्धि इ्यादि वरिभावोंवालते उद्वेगो वीभत्स का 
उदाहरण :-- 

उत्कृत्योक्कृत्य कृत्ति" प्रथममथ प्थूच्दोप भूपांसिः मांषा- 

न्यंसर्फिक प्रष्ठपिरएडा्यवयव सुलभान्युग्र पूतीनि जरध्वा । 
प्रातः पयस्तनेत्रः प्रकटितदशनः प्रेतरङ्कः करङका- 
पङ्कस्थादस्थिसंस्थं स्थपुरगतमपि क्रव्यमग्यग्रमत्ति ॥ 

यह अत्यन्त दीन पिशाच पहले खाल को फाड्-फाडकर कंधे , नितम्ब, 
पीठ इत्यादि सीने अवयवों म सरलता से प्राच हो सकनेवाले बहुत तेज 
दुग॑न्धि से युक्त अधिक पूजे होने के कारण अधिकता शो प्राक्त मांसों को खाकर 
अतं होकर अपनेने्त्रोको फैलये हुए दांतों को निकाल.निकालकर श्रपनी 
गोद मे रश्खे हृष्‌ सुदं की हडियों के ठचि से ऊचे नीचे विषम स्थानों मे 
चिपटे हुए भी मांस बिना किसी व्यञ्नता के खा रहा है ।' 

(२) रक्त, अंत, चर्बी, ङी मांस इत्यादि विभावोवा्ञे ल्ोभण वीभत्स का 
उदाहरण जैसे वीरचरित में :-- | । 

ग्न्त्रभरोतवृहत्कपालनलक कररक्वण॒ त्कङ्कण, 
प्राय प्र्खितभूरिभृषणरवेराघोषयन्त्यम्बरम्‌ । 
पीतोच्छदित रक्त कदंम घन प्राभारघोरोल्नष- ` 
दयालोलस्तनभार भैरव वपुर्वन्धोद्धतं धावति ॥ 

देखो यह कितनी ओद्धव्यपूणं दौड रही है । इसकी ओत मँ पिरोये हु 
बड़े-बड़े कपालो की ओर लम्बी हह्ियों के कङ्कण इत्यादि आभूषण धारण कर 
लिए हें जिनका शब्द्‌ बड़ा ही कऋरर मालूम पड रहा है ओर इन श्राभूषणों के हिलने- 
इलने से उठे हुए शब्द्‌ से सारा आकाश-मर्डल भयानक शब्द्‌ से भर गया हे । 
देखने खून को पोकर के करदो है जिसे अगे केभाग मं कौचडसी फैल गं 
हो र उशते सन क! शोभित होनेबाला जो स्तनों का भार चञ्चल हो रहा 
हे उसते इषा शरीर बडा ही भयानक मालूम पदता है ।' 

३१ 





( २४२ ) 


(३) रमणीय भीस्त्रीके जङ्घा ओर स्तनो मे वैराम्यसे धरणा होने पर 

शद्ध वीभर्ख होता है । इसका उदाहरण :- ` 
` लालां वक्त्रासव वेत्ति मांखपिण्डौ पयोधरो । 
मांसास्थिकूटं जघनं ` जनः काम ब्रहाठुरः ॥ 

(कामदेव की पकड से पीडित व्यक्ति लार को सुख की मदिरा समस्ता 
है, मांस के पिश्डां को पयोधर कता हे तथा मांस ओर हडगे के समूह को 
जङ्घा बतलाता हे ।' | 

यह पर शान्त रस नहीं कहा जा सकता क्योकि इसका वैराग्यं शान्ति के 
कारण नहीं है किन्तु घृणा उत्पन्न होने से इसे विरक्ति ह दे । 


रौद्र 


>धोमस्खर वैरि वैकृतमयैः पोषोऽस्यरोद्रोऽलुजः, 
सोभः स्वाधर्दंश कम्प भर. कटिस्वेदास्परागोयु तः । 
शस्त्रोल्नास विकल्थनांसधरणीधात प्रतिज्ञा ग्रहै 
रत्रामपमदौ स्मृतिश्चपलतासूयौग्प्रवेगादयः ॥७४॥ 

[जहाँ कोध स्थायीभाव हो उसे सैद्र रस कहते है; इसका परिपोष मत्सर, 
शनुकृत अपकार इत्यादि विभावो के द्वारा इश्रा करता है; इसका छोटा भाद 
.त्तोभ है; इसमे दातो से श्रोढठ काटना कापना; भौं टेदी करना, पसीना, सुख का 
लान हो जाना, शस्त्र उठाना, बद्-बद़कर बातं करना, कंधों को ठोकना, एरथ्वी 
पर पैर पटकना, प्रतिक्ता ब्रौर आग्रह ये अनुभाव होते है । अमष, मद्‌, स्ति, 
चपलता, असूया, उन्नता, आवेग हध्यादि सञ्चारौमाव्‌ होते है ।| 

(१) मात्सय विभाववान्ञे रद्र का उदाहरण । ज्ञेसे वीरचरित म :- 

त्वं॑त्रह्मवर्च॑सधरो यदि वतमानो 
यदधास्वजातिसम्येन धनुधंरः स्याः। 

उरेण भोस्तव तपस्तयसा दहामि 
प्ान्तरस्य सदशः परशुः ` करोति ॥ 

(चाहे तुम ब्रह्म तेज धारण करनेवाक्ञे होने का अभिमान लेकर हमारे 
सामने खड़े हो रहे हो या अपनी जाति ऊ नियम के अनुसार धनुधंर होने का 
तु अभिमान है (दोनों ही दशाओं मे न तुम्हारे अभिमान को तो द्ूंगा।) 
अभी तुम्हारी तपस्या को अपनी उग्र तपस्या के प्रभाव से जला देता हँ र 
दूखरी बात (धनुर होने) का उचित उत्तर हमारा क ठार दे देगा।' 

(२) वैरियों के विकार से उत्पन्न सद्र का उदाहरण जैसे वेणी- 
संहार म :-- अ 









च. 
( 


"करक न रपुत्र 





(4 २४३६ ) 


लाक्ञादहानलविषान्न सभाप्रवेशः, 
प्राणेषु विचनिचयेषु च नः प्रह्व । 
प्राकृष्ट पाणडवधू परिधानकेशाः 
स्वस्था मवन्तु मपि जीवति धार्तराष्ट्‌ः ॥ 
लाख के धरम राग लगाना, विषमय भोजन“कराना,[; यत के लिए 
सभा में लाना इत्यादि कार्यो" से हम लोगों „के प्राणो पर धन ¢ राशि पर 
महार करके, पारडवों की पल्ल द्रौपदी के वस्त्र ओर केशों को खींचकर धृतराष्ट्र 
के पुत्रहम लोगों के जीवित रहते हुए स्वस्थ रह सकं यह कैसे हो सकता है ? 
उपयुक्त विभावो, पसीना, सुख ओर नेत्रो की लाली इत्यादि अनु भावों 
तथा वैर अमष इत्यादि सञ्चारियों से जब ऋोध का पूणं परिपोषदहो जाता है 
तब उसे रौद्ररस कहते हैँ । इस सौद रस का अनु सन्धान परश्यराम,.भीमसेन, 


ुयाधन इत्यादि के व्यवहारो मे तथा वीरचरित श्नौर वेणीसंहार इत्यादि नाटकों 
मे करना चाहिए । 


हास्य 


वकृ 4 कृतिवाग्वेषेरात्मनोऽथ परस्य वां | 
हसः स्यात्परिपोषोऽस्य . हास्यखिप्रकृतिः रमतः ॥५५॥ 
[अपनी या दृरुरे की.विगढडी हृदं आकृति, वाणी यावेष को आलम्बन 
मानकर हास का परिपोष होता है । इसे हास्य रस कहते ह । इसकी तीन भ्रकृति 
होती दै उत्तम, मध्यक ओर अधम |] 
हास्य रस के दो अधिष्ठान होतेह एकतो स्वयम्‌ ओर दूसरे कोटं अन्य 
व्यक्ति । इन दोनों मे प्रत्येक की तीन तीन प्रकृतिर्या होती हँ उत्तम, मध्यम नौर 
अधरम । इस प्रकार हास्य रस छः प्रकारका होता है । 
(१) आत्मस्थ हास्य रस का उदाहरण जैसे रावण कह रहा है. :-- 
जातं मे। पर्षेण॒भस्मरजसा तचन्दनेद्धलनं 
हारो वक्षसि .यज्ञसूत्रमुचितं करिष्य; जराः कुन्तलाः । 
रद्रा्तेः सकलैः सरलवलयं चित्रांशुकं वल्कलं 
सीतालोचनहारि कल्पितमहो रम्यं वपुः कामिनः ॥ 
कठोर भस्म की धूल से मेरे शरीर;का.सारा चन्दन छुट गया है; हृद्य पर 
पडा हुञ्रा हार जनेऊके रूप मँ बदल गथा; अच्छे बने हुए बाल कटोर जटा बन 
गये । रलो के वलय रदराक्त फे रूप मे बदल गये ओर र ग-बिरंगे रेशमी वस्त्र 
वल्कल बन गये । यह मैने कैसा रमणोय रूप बनाया हे; यह कामी व्यक्तिके योग्य 
हीह, अवश्य डी सीता जैस सुन्दरो के नेत्र इस रूपः पर री जागे ।' 














( रथ ) 


(र) परस्थ हास्य का उदाहरण :-- 
मित्तो मांस निषेवणं प्रकुरुषे { किं तेन मदय बिना । 
किंते मद्यमपिप्रियं १ प्रियमहो वाराङ्गनाभिः सदह ॥ 
वेश्यां द्रव्यश्चिः कुतस्तवधनं ! यतेन चोयेण वा । 
चौर्मयूत परिगरहोऽपि भवतो नष्टस्य कान्यागतिः ॥ 

{हे भिद्ध क्या तुम मांस खाते हों ? “विना शराब के मांस अच्छा नहीं 
लगता । “च्छा तुम्हें मच भी पसन्द हे ? (हां वेश्याश्नों के साथ मे पसन्द 
हे ।› 'वेश्याञओ्ओं को तो धन अच्छा लगता है, तुम्हारे पास धन कां से श्राया {' 
जये सेयाचोरीसे ॥ तो तुम जञ्रा त्रौर चोरी का भी अभ्यास रखते हो £" 
ज्ञो नष्ट हो लुका है उसके लिए ओर सहारा ही क्या है ? 

हास्य द्धः प्रकारका होता हे। उनके मेद्‌ नौर लक्तण नौचे दिये जा 
रहे हैँ :-- 

स्मितसिह विकासि नयनं किच्िल्लचय द्विजं तु हसितं स्यात्‌ । 
मघुरस्वरं विहसितं सशिरः कम्पमिदमुपहसितम्‌ ।७६॥। 
अमपहसितं साखाक्ञं विक्षिक्षागं भवत्यतिहसितम्‌ । 
> द्रे हसिते चैषा अये मध्येऽधमे क्रमशः ॥५७। . 

[ स्मित उस हास्य को कहते ह जिसमे नेत्र कुं खिल जावं; हसित उसे 
कहते है जिस्म कुच दात दिखा पढने लगे; विहसित उसे कते हँ जिस 
मधुर स्वर सुना पडे; उपहसित उसे कहते ह जिसमे सर कैँपाकर दसा जावे, 
ञ्रपहसित उसे कहते है जिसे आँसू निकल आवे, अतिहसित उसे कहते हे 
जिसमे अङ्गविषिष् (लोट-पोट) हो जावे । इनमे दो दो दसी क्रमशः ज्येष्ठ, मध्य 
ञरौर अधम की हुमा करती ह अथौत्‌ ज्येष्ठ कौ स्मित ओर हसित, मध्य की 
व्िहसित श्नौर उपहसित दथा अधम कौ श्रषहसित ओर अतिहसित होती हे "| 

इनके उदाहरणों को स्वयं समसना चाहिषए्‌ । 

हास्यरस के व्यभिचारी भाव ये होते ईह :-- 


निद्रालस्य ग्लानिमू्वाश्च सहचारिणः । ` 
[निद्रा आलस्य ग्लानि गनौर मूर्छ ये हास्य रस के सहचारी होते है|] 
अद्ध तं 


तिलोक्तैः पदार्थैः स्याद्विस्मयात्मा रसोऽद्भ तः ॥५८॥ 
कर्मास्य साधुवादाश्र वेपधुस्वेदगद्‌ गदाः । 
हर्षाविग धृति प्रायाः भवन्ति उ्यमिं चारिणः ॥५९॥ 























( २४४ ) 


[लोक सीमा का अतिक्रमण करनेवाल्ते पदार्थं जिसमे विभाव होतेह, 
विस्मय स्थायीभाव ही जिसकी आत्मा होती है, साध्वाद, अंस्‌, कम्पन, 
पसीना,. कण्ठ का गद्गद होना ये जिसके करम है (अनुभाव) होते है; हषै, 
आवेग, ति इत्यादि जिसके व्यभिचारीभाव होते हँ उसे अद्ध त रस कते हे । 
दोदरडाञ्चित चन्द्रशेखर धनुदंर्डावभङ्गोद्ध त- 

ष्टङ्ारध्वनिरार्यवालचरित प्रस्तावना डिरिडमः॥ 
द्राक्पर्याप्तिकपालसम्पुरमिलद्‌ब्रह्मारड भारडोद्र- 

भ्राम्पतिण्डितचरिडमा कथैमसो नाद्यापिविश्राम्पति ॥ 
“अपने भुजदण्डो मे चन्द्रशेखर भगवान्‌ शङ्कर के धु दण्ड को लेकर उसके 
तोडने मे उद्धत धनुषके टङ्कार का शब्द्‌ जो कि आर्य श्री रामचन्द्रजी के 
बालचरित्र की प्रस्तावना का एक डिरिडिमघोष था ओओर जिसकी प्रचण्डता शीघ्र 
ही नरमस्तक रूपी कपालो के सम्पुट ® मिलने से बने हुए ब्रह्माण्ड रूप 
एक बतंन के अन्दर घूमती हद पिर्डित हो गद है क्या आज भी नहीं रक 
रहा है ?' 


मयानक 


विकरुत स्वर सत्वादे भयाभावो भयानकः । 
स्वाङ्ग वेपथुस्वेद शोष वैवण्यं ल्त णः । 


दैन्य संभ्रम संमोह चासादिस्तत्सहोदरः ।८०॥ 

[विकृत स्वर ओर विकृत सत्व जिसमे विभाव हैँ, सर्वाङ्ग कम्पन, पसीना, 
सखखना, रंग फीका पड़ना इत्यादि जिसे अनुभाव हैँ, दैन्य, सम्भ्रम, संमोह, 
त्रास इत्यादि जिसमे व्यभिचारी भाव होते है, इस प्रकार इन खबसे परिपोष 
को प्राक्च हुए भय नामक स्थायीभाव को भयानक रस कहते हे । | 

यह भयानक रस रौद्र शब्द्‌ श्रवण शौर रौद्र सत्वदशंन से उष्पन्न होता है । 
जैसे :-- | 


शस््रमेतत्समृत्सज्य कुन्जीम्‌य शनैः शनैः । 
यथातथागतेनैव यदि शक्रोषि गम्यताम्‌ ॥ 
(स शस्त्र को छोडकर अौर कुबडे बनकर (खुककर) धीरे-धीरे जैसे-तैसे 
(किसी भी) रूपमे यदिजा सक्ते हो तौ चल्ञे जानो । 
दूसरा उदाहरण जैसे रब्नावली मे “नष्टं॑वर्षं वरैः इत्यादि पद्य । इसकी 
व्याख्या पहले की जा चुकी है । दे° षू०- | 
तीसरा उदाहरण :- 








( २४६ ) 


स्वगेहास्न्थानं तत॒ उपचितं काननमथो । 
गिरिं त स्मात्वान्द्रद्रुमगहनमस्मादपि गुहाम्‌ ॥ 
तदन्वङ्खान्यङ्गरभिनिविशमानो न गणय- 
 त्परातिः क्वालीये तव विजययात्रा चकिंतधीः ॥ 
तुम्हारा शन्न॒ तुम्हारी विजय यात्रा से चक्रित इद्धिवाला होकर यही नहीं 
लम पा रहा हे कि काँ िप.अपने घर से मागं को गया; वर्दी से वन को 
दढ डाला, वहा से पर्वत को, फिर घने बरतो वाते महावन को ओर इसके वाद्‌ 
गुहा को चिपने के लिए दढा । इसके याद्‌ अव अपने ही अङ्गं से अपने शङ्को मे 
घुखा जा रहा है, अब उसे छिपने का कीं स्थान ही नहीं मिलता । “ 


करुणं 
इष्टनाशादनिष्टाप्तौ शोकात्मा करुणोऽुतम्‌। 
निश्श्वासोच्छवास रुदितस्तम्भ प्रलयिताद्यः ॥८१॥ 
स्वापापस्मार दैन्याधिमरणलस्प सम्ध्रमाः। 
विषाद्‌ जडतोन्माद्‌ चिन्ताद्याः व्यभिचारि एः ॥८२॥ 

[बान्धव इत्यादि इष्टजनों के नाश श्नौर॒वधवन्धन इत्यादि भी नष्ट की 
प्राति जिसने विभाव हो, निश्वास, उच्छ वास, रुदित, स्तम्भ, प्रलयित दस्यादि 
जिसमे अनुभाव हों, स्वाप, अपस्मार, देन्य, आधि, मरण, आलस्य; सम्म, 
विषाद, जडता, उन्माद, चिन्ता इत्यादि व्यभिचारी भाव हों, इन सबसे पुष्ट 
लोनेवाल्े शोक स्थायी भाव को करण रस कते है । ] इष्ट नाश से उत्पन्न होने- 
वाल्ञे कर्ण का उदाहरण :-- ` 

श्रयि जीवितनाथ जीवस्ीत्यमिधायोत्थितया तया पुरः । 
ददशे पुरुषाकृति कितौ हर कोपानलभस्म केवलम्‌ ॥ 

हे जीवननाथ ! ठुमजी रहे हो! यह कहकर उदी हृदे उस रति ने 
अपने सामने पृथ्वी पर पदी दै पुरुष की आकृतिवाली शङ्करजी के कोप की 
केवल राख ही देखी ।' 

यह से ज्ञेकर रति विलाप इष्टनाशजन्य करण का उदाहरण है । 

अनिष्ट प्रा्चिजन्य करुणं का उदाहरण जैसे रत्नावली मँ सागरिका के बन्धन 
ओर भवन मे घाग लग जाने से राजा श्रौर रानी इत्यादि को शोक इ हे । 


ञ्नन्य रसो श्रौर भावो का अन्तभाव 


रीति भकतयादयो मावा: सृगयाक्ञादयो रसाः । 
` हर्षोसाहादिषुस्पष्टमन्तमावान्न कीरतिताः ॥८३॥  । 
[अीति, भक्ति इत्यादि भावों नौर शगया, अक इत्यादि रसो का अन्तमावं 





५, 
>+ ` 





( २४७ ) 
हषं ओर उत्साह इत्यादि मँ हो जाता है यह स्पष्ट ही हे । अतएव यहा पर 


उनका प्रथक्‌ उल्लेख नहीं किया गया । | 


षटत्रिशद्ध षणादीनि सामादीन्येकधिशतिः । 
लदयसंध्यन्तराख्यानि सालङ्कारेषु तेषु च ॥८४॥ 

[इसी प्रकार) ३६ भूषण इत्यादि ओर २१ साम इत्यादि जो दूसरे लकय 
ओर दूसरी संधिरयां है उनका अन्तर्भाव अलङ्कारो के सहित हषं उत्साह इत्यादि 
म हो जाता है; अतएव उनका प्रथक्‌ उल्लेख यहा पर नहीं किया गयां ।| 

आशय यह है किं भरतमुनि ने नाव्यशास्त्र (विभूषणं चाक्र संहतिश्च 
शोभाभिमानौ गुण कीतंनंच' से लेकर ३६ प्रकार के काञ्यगत का भूषण इत्यादि 
लक्षण का वणेन किया है उनका अन्तभाव उपमा इत्यादि अलङ्कारोमे दहो 
जाता हे । इसौ प्रकार “साम भेदः प्रदानं च' इत्यादि म जो २१ प्रकार की दूसरी 
सधिर्यां बतला हे उनका अन्तर्भाव हषं उत्साह इत्यादि म हो जाता हे । इसी 
लिए उनके प्रथक्‌ उल्लेख कौ आवश्यकता नरहरि 


ग्रन्थ का उपसंहार 


रम्यं जुगुप्सितमुदारमथापि नीच- 

सुम्र॑प्रसादि गहनं विकृतं च वस्तु । 
यद्वाप्यवस्तु कविभावक भान्यमानं 

तत्रास्तियत्र रसभावमुपैति लोके ॥८९५॥ 

(चाहे वस्तु रमणीय हो, चाहे घृणास्पद हो, चाहे उदार हो या नीचो 
अथवा उश्रहो या प्रसन्न करनेवाली हो, गहन हो या विकृत हो अथवा अवस्तु 
ही हो न्तु यदि कवि ओर मावक (परिशीलन करनेवाले) उसे अपनी भावना 
का विषय बना ज्ेवें तो संसार मे कों एेसी वस्तु नहीं जो रस ओर भाव को 
न प्राक्च हो जावे ।' | 

विष्णोः सुतेनापिधनज्जयेन विद्रन्मनोरागनिवन्धहेतुः । 
आविष्कृतं सुञ्महीष गोष्ठीवैद्ग्य भाजादशरूपमेतत्‌ ।८६॥ 
सुज राज की गोष्ठी मे विदग्धता को प्राप्त विष्णु के पुत्र धनञ्जय ने 
विद्वानों के मनोराग के निबन्धन के लिए इस दशरूपक की रचना कौ हे । 
इति श्री विद्वदररधनञ्जय प्रणीतं दशरूपकं समाप्तम्‌ । 





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अर्थप्रकृतियाँ कितनी है?

बीज, बिन्दु, पताका, प्रकरी और कार्य ये पाँच अर्थ की प्रकृतियाँ हैं ।

अर्थोपक्षेपक की संख्या कितनी है?

- नाटक में रसहीन वस्तुओं की सिर्फ़ सूचना दी जाती है और ऐसी सूचना देना ही अर्थोपक्षेपक कहलाता है। इसके पाँच प्रकार हैं- विष्कंभ (विष्कंभक), चूलिका, अंकास, अंकावतार और प्रवेशक।

दशरूपक के लेखक कौन हैं?

Dhanañjayaदशरूपकम् / लेखकnull

धनंजय के अनुसार रसों की संख्या कितनी है?

धनंजय ने काव्य के लिए 9 रस स्वीकार करते हैं, परंतु नाटक में शांत रस की स्वीकृति नहीं की। अभिनवगुप्त ने भी 9 रस माना है। रामचंद्र-गुणचंद्र ने 9 रसों को माना है। विश्वनाथ ने वत्सल रस को स्वीकार करके रसों की संख्या 10 माना है।