श्याम कश्यप Show हिन्दी की साहित्यिक पत्रकारिता हिन्दी साहित्य के विकास का अभिन्न अंग है। दोनों परस्पर एक-दूसरे का दर्पण हैं। इस दृष्टि से दोनों में द्वन्द्वात्मक (डायलेक्टिकल) और आवयविक (ऑर्गेनिक) एकता सहज ही लक्षित की जा सकती है। वस्तुतः हिन्दी की साहित्यिक पत्रकारिता हमारे आधुनिक साहित्यिक इतिहास का अत्यंत गौरवशाली स्वर्णिम पृष्ठ है। स्मरणीय है कि हिन्दी के गद्य साहित्य और नवीन एवं मीलिक गद्य-विधाओं का उदय ही हिन्दी पत्रकारिता की सर्जनात्मक कोख से हुआ था। भारतेन्दु हरिशचन्द्र (सन्1850-1885 ई0) की पत्रिकाओं कविवचनसुधा (1867ई0), हरिशन्द्र मैगज़ीन (1873ई0) और हरिशचन्द्र चंद्रिका (1874ई0) से ही हमें वास्तविक अर्थों में हिन्दी की साहित्यिक पत्रकारिता के दर्शन होते हैं। हिन्दी की आरंभकालीन साहित्यिक पत्रकारिता से ही हिन्दी गद्य का चलता हुआ रूप निखर कर सामने आया और भारतेन्दु युग से गद्य-विधाओं और गद्य साहित्य की अखंड परंपरा का अबाध आविर्भाव हुआ। पृष्ठभूमि: छापेखानों की और पत्रों की शुरुआत अठारहवीं शताब्दी में भारत के कई नगरों ,गोआ, बंबई, सूरत, कलकत्ता और मद्रास में अनेक छापेखाने (प्रिंटिंग प्रेस) कायम हो गए थे स हालाँकि, हालैंड में 1430 ई0 में पहले प्रिंटिंग प्रेस के लगभग सवा सदी बाद, गोआ में 1556 ई0 में भारत का पहला प्रेस कायम हुआ था। परमेश्वरन थंकप्पन नायर के शब्दों में न केवल, “हिन्दी और उर्दू की पत्रकारिता
का जन्म कलकत्ता में हुआ,“ बल्कि “कलकत्ता को पूरे दक्षिण-पूर्व एषिया में पत्रकारिता का जन्म स्थान माना जा सकता है। कलकत्ता से ही 1765 ई0 में एक डच विलियम बोल्ट ने पत्रकारिता के आरंभिक प्रयास किए थे और अंततः 1766 में अपना पहला “नोटिस“ छापा था। हिन्दी का स्वरूप और हिन्दी पत्रों का आरंभ आचार्य रामचन्द्र शुक्ल भी अपने ”हिन्दी साहित्य का इतिहास” (मुद्रण: सं0 1995) में इसे हिन्दी का पहला पत्र बताते हुए लिखते हैं ”उदंतमार्त्तांडके बाद काशी के ”सुधाकर” और आगरा के ”बुद्धिप्रकाश” आदि के प्रयासों से “अदालती भाषा उर्दू बनाई जाने पर भी, वुक्रम की 20वीं शताब्दी के आरंभ के पहले से ही (यानी सन् 1840-45ई0 के पहले से ही) हिन्दी खड़ी बोली गद्य की परंपरा हिन्दी साहित्य में अच्छी तरह चल पड़ी ; उसमें पुस्तकें छपने लगीं, अखबार निकलने लगे। कहना ना होगा कि इन अखबारों के अर्ध-साहित्यिक रूप से ही क्रमश: साहित्यिक प्तरकारिता का विकास हुआ। यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि इस पत्रकारिता, नवोदित गद्य-साहित्य और साहित्यिक पत्रकारिता का स्वरूप आरंभ से ही राजनीतिक और विचारधारात्मक रहा है। अर्थात उपनिवेशवाद- विरोधी और लोकोन्मुख भले ही उन पत्रकारों और लेखकों ने औपनिवेशिक विदेशी सत्ता, उसके कठोर सेंसरशिप और दमनकारी पेअशासन-तंत्र की आँखों में धूल झोंकते हुए कैसे भी संकेतात्मक, छद्म और प्रतीकवादी तरीके क्यों न अपनाएँ हो। हिन्दी की साहित्यिक पत्रकारिता के जनक भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने अपनी आँखों से सन् 1857 का ”गदर”, उसके असफल रहने पर उन प्रथम स्वाधीनता-संग्रामियों का निर्मम नरसंहार और सामान्य भारतवासियों का नृशंस दमन देखा था। आचार्य शुक्ल 1857 के प्रथम स्वतंत्रता-संग्राम से गद्य-साहित्य की परंपरा का संबंध जोड़ते हुए ”इतिहास” में लिखते हैं कि “गद्य-रचना की दृष्टि से ……… संवत 1914 (अर्थात 1857ई0) के बलवे (गदर) के पीछे ही हिन्दी गद्य-साहित्य की परंपरा अच्छी चली“ । इस तरह हम देखते हैं कि हिन्दी पत्रकारिता से ही साहित्यिक पत्रकारिता और गद्य साहित्य का विकास होता है और दूसरे, आरंभकाल से ही जुझारू गद्य-साहित्य और साहित्यिक पत्रकारिता का संबंध हमारे साम्राज्यवाद-विरोधी संग्राम से भी बड़ा प्रत्यक्ष और गहरा था हिन्दी गद्य का निर्माण भारतेन्दु और प्रेमचंद के अलावा यही बात पं0 महावीरप्रसाद द्विवेदी, निराला, मुक्तिबोध, यशपाल, हरिशंकर परसाई, नामवर सिंह और नंदकिशोर नवल के बारे में भी कही जा सकती है। साहित्य और पत्रकारिता के इन घनिष्ठ संबंधों की ओर संकेत करते हुए प्रो0 सूर्यप्रसाद दीक्षित लिखते हैं कि “हिन्दी भाषा और साहित्य के विकास में पत्रकारिता की अनन्य देन रही है। पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से युग-प्रवृत्तियों का प्रवर्तन हुआ है, विभिन्न विचारधाराओं का उन्मेश हुआ है और विशिष्ट प्रतिबाओं की खोज हुई है। वस्तुतः साहित्य और पत्रकारिता परस्पर पूरक और पर्याय जैसे हैं। शायद इसीलिए लोग पत्रकारिता को ”जल्दी में लिखा हुआ साहित्य” और साहित्य को ”पत्रकारिता का श्रेष्ठतम रूप” भी कहते हैं। साहित्यिक पत्रकारिता के प्रसंग में तो यह मणि-काँचन-योग और भी प्रत्यक्ष है । एक रोचक घटना: संदर्भ यूरोप का — साहित्यिक पत्रकारिता का उदय सेंट फॉक्स साहित्यिक पत्रकारिता के आरंभ का बड़ा दिलचस्प विवरण देते
हुए बताते हैं कि रेनाडो नामक पेरिस के एक डॉक्टर अपने अस्पताल के रोगियों के मन-बहलाव के लिए अद्भुत घटनाओं, रोचक किस्सों, अलौकिक विवरणों और दिलचस्प खबरों को जमा करके बीमारों को पढ़ने देने लगे। डॉ रेनाडो का विशवास था कि ऐसे मनोरंजन से रोगियों को शांत और प्रसन्न रखा जा सकता है और उन्हें शीघ्र निरोग भी किया जा सकता है। कहना न होगा कि उन्हें इसमें आशातीत सफलता भी मिली। फॉअस के बाद इंग्लैंड से भी अनेक साहित्यिक पत्र निकलने लगे। इनमें डेनियल डेफो का ”द रिव्यू” पहला अंग्रेज़ी पत्र था, जिसके लिए उन्हें 1703 में जेल भी जाना पड़ा था।
तत्पश्चात रिचर्ड स्टील का ”द टैटलर”, फिर स्टील और ऐडिसन द्वारा मार्च,1711 से मिलकर निकाला गया ”द स्पेक्टेटर” तथा साहित्य समालोचना की विख्यात पत्रिका ”द मंथली रिव्यूज़” के नाम विशेश उल्लेखनीय हैं। इनके अतिरिक्त, “जेंटिलमेन्स मैगज़ीन”, ”द क्रिटिकल” तथा डॉ0 सैम्युल जॉनसन की दोनों सुप्रसिद्ध पत्रिकाओं ”द रैम्बलर” और ”द आइडलर“ का भी विशेश ऐतिहासिक महत्तव है। अंग्रेज़ी साहित्य के विकास में इनका अमूल्य योगदान माना जाता है हिन्दी की साहित्यिक पत्रकारिता (2) पत्रकारिता का साहित्य के साथ अपने जन्मकाल से बहुत गहरा संबंध बताते हुए राकेश वत्स लिखते हैं कि मानव-यात्रा के “इसी पड़ाव पर (यानी मध्य-वर्गीय लोकतांत्रिक आंदोलनों, राजनीतिक और विचारधारात्मक विकास के पड़ाव पर) आकार साहित्य के संबल की ज़रुरत महसूस हुई स चूँकि पत्र-पत्रिकाएँ ही उसे पाठकों के उस वर्ग तक पहुँचा सकती थीं, ……. पत्रकारिता ने उसकी इस ज़रूरत को पूरा किया। वे आगे बताते हैं कि साहित्यिक पत्र-पत्रिकाएँ तो मूलतः साहित्य के प्रति समर्पित होती ही हैं, बल्कि शायद ही कोई ऐसा पत्र या पत्रिका होगी जिसमें किसी न किसी रूप में साहित्य के लिए स्थान सुरक्षित नहीं किया जाता होगा। यानी, कविता, कहानी, गज़ल, गीत, निबंध, नाटक, एकांकी, संस्मरण, यात्रा-वृतांत, शब्दचित्र, रोपोर्ताज़, पुस्तक समीक्षा, आलोचना, उपन्यास- सभी कुछ प्रायः सभी पत्र-पत्रिकाओं में छपता रहा है। उनका रूप और आकार भले भिन्न-भिन्न रहा हो। जिन गैर साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं का गंभीर साहित्य की ओर रूझान नहीं था, वे भी, खासकर दैनिक
और साप्ताहिक या पाक्षिक अखबार और पत्रिकाएँ भी ”फिलर” के रूप में लघु-कथाएँ, क्षणिकाएँ और व्यंग्य के नाम पर चुटकुलेबाजी, यानी ”साहित्य” के नाम पर रची जाने वाली सारी सामग्री धड़ल्ले से छापते रहे हैं। यहाँ तक कि फिल्मी समाचार पत्र-पत्रिकाएँ भी इन सबको नज़रंदाज़ नहीं करतीं थीं। कहना न होगा कि साहित्य के नाम पर छपने वाला बड़े पैमाने का यह सारा कूड़ा और स्तरहीन रचनाओं का अंबार श्रेष्ठ साहित्य तथा स्तरीय और प्रभावि रचनाओं का स्थान नहीं ले सकता, क्योंकि हर छपा हुआ शब्द साहित्य नहीं होता! फिर भी इससे एक माहौल
बनता है, एक वातावरण निर्मित होता है। इससे साहित्य और साहित्यिक पत्रकारिता की लोकप्रियता का विस्तार होता है। लोगों में कम-से-कम पढ़ने की ललक और पाठकीय संस्कृति विकसित होती है। लोगों में साहित्य पढ़ने की आदत पड़ती है। पहले ”धर्मयुग”, ”साप्ताहिक हिन्दुस्तान”, ”कादंबिनी” और ”सारिका” या विभिन्न दैनिक और साप्ताहिक समाचारपत्रों के रविवारीय पृष्ठों में छपने वाली चालू और स्तरहीन रचनाओं तथा ”इंडिया टुडे” (हिन्दी)- जैसी समाचार पत्रिकाओं में छपने वाली बाज़ारू रचनाओं के नियमित पाठक ही, उनकी चेतना में धीरे-धीरे विकास और साहित्यिक रुचि के क्रमषः परिश्कार के अबाद ”कल्पना”, ”प्रतीक”, ”कवि”, ”कृति”, ”कहानी”, ”नई कहानियाँ”, ”लहर”, ”पहल”,”धरातल”, ” आलोचना”,”कथा”, ”समारम्भ”, ”पूर्वग्रह”, ”कसौटी”, ” बहुवचन”, ”समस”, और ”पुस्तकवार्ता” जैसी श्रेष्ठ साहित्यिक पत्रिकाओं के पाठक भी बनते हैं। कहना न होगा कि इस विशाल पाठक-समुदाय की चेतना में यह विकास और उनकी साघित्यिक रुचि में परिश्कार भी ऐसी साहित्यिक पत्रिकाओं के पठन-पाठन से ही आता है। यहाँ एक विशेश बात यह भी स्मरणीय है कि ”हिन्दी साहित्य का इतिहास” इन श्रेष्ठ साहित्यिक पत्रिकाओं में प्रकाशित रचनाओं में से ही उभरकर सामने आता है। साहित्यिक पत्रकारिता की इस संदर्भ में ऐसी ही द्वंद्वात्मक भूमिका होती है। साहित्यिक रचनाओं का मूल्यांकन ध्यान रहे कि साहित्यिक पत्रकारिता, रुचि का यह परिश्कार कृतियों, रचनाओं और रचनाकारों के मूल्यांकन के माध्यम से ही करती है स इस प्रकार साहित्यिक पत्रकारिता रचनाओं का स्तर निर्धारित करते हुए, अच्छी और श्रेष्ठ रचनाओं को स्तरहीन बाज़ारू रचनाओं के भारी-भरकम कूड़े से अलगाती है। वास्तव में, यह छँटा हुआ श्रेणीकरण के बाद साहित्य का भावी इतिहास बनता है। शॅापेन हॉवर ने साहित्यिक पत्रकारिता की इस अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका का उल्लेख करते हुए लिखा है कि “साहित्यिक पत्रों का कर्त्तव्य है कि वे युग की युक्तिहीन और निरर्थक रचनाओं की बाढ़ के विरुद्ध मज़बूत बाँध का काम करें। … यों कहें कि नब्बे फीसदी रचनाओं पर निर्दयतापूर्वक प्रहार करने की ज़रूरत है। साहित्यिक पत्र-पत्रिकाएँ तभी अपने कर्त्तव्य का पालन कर सकेंगे। इसी प्रसंग में वे आगे लिखते हैं कि,“ अगर एक भी ऐसा पत्र है, जो उपर्युक्त आदर्शों का पालन करता हो, तो उसके डर के मारे प्रत्येक अयोग्य लेखक, हरेक बौड़म कवि, प्रत्येक साहित्यिक चोर, हरेक अयोग्य पद-लोभी, प्रत्येक छंद दार्शनिक और हरेक मिथ्याभिमानी तुक्कड़ काँपेगा ; क्योंकि उसे इस बात का डर रहेगा कि छपने के बाद उसकी घटिया रचना खरी आलोचना की कसौटी पर ज़रूर कसी जाएगी और उपहासास्पद सिद्ध होगी। शॅापन हॉवर की यह मान्यता है निकीक इससे घटिया लेखकों को, जिनकी उँगलियों में लिखने की खुजली उठती है, लकवा मार जाएगा। इससे साहित्य का बड़ा हित होगा, क्योंकि साहुत्य में जो चीज़ बुरी है, वह केवल निरर्थक ही नहीं, बल्कि सचमुच बड़ी हानिकारक भी है, कहना न होगा कि हिन्दी की श्रेष्ठ साहित्यिक पत्रिकाओं और हमारे श्रेष्ठ समालोचकों ने ठीक यही भूमिका निभाई है। साहित्य का इतिहास और पत्रकारिता इस प्रकार, साहित्यिक पत्रकारिता, जो आज साहित्य के इतिहास की स्रोत-सामग्री और कल का साहित्येतिहास है, दृढ़तापूर्वक अच्छी और बुरी रचनाओं, प्रवृत्तियों तथा साहित्यिक आंदोलनों के बीच निर्णायक फर्क दिखाकर साहित्य के इतिहास के निर्माण में भी अपनी अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है, साहित्यिक पत्रकारिता, इस तरह, स्तरहीन रचनाओं से स्तरीय और अप्रासंगिक कृतियों से प्रासंगिक लेखन को अलग करती है। वस्तुतः युग-विशेश की साहित्यिक पत्रकारिता से ही उस युग के साहित्यिक आंदोलनों, बहस-मुबाहिसों, साहित्यिक समस्याओं, प्रश्नों और चुनौतियों तथा इन सबके फलस्वरूप उस युग की नई-से-नई साहित्यिक प्रवृत्तियों के उभरने, उनके क्रमश: विकास तथा विभिन्न साहित्यिक प्रवृत्तियों के आपसी अंतर्विरोधों और अंतर्द्वंद्वों का भी अंतरंग परिचय हम पा सकते हैं। यह युग-विशेश की साहित्यिक पत्रकारिता
ही है, जो हमारे समक्ष उस युग-विशेश का भरा-पूरा और कलात्मक प्रतिबिंब प्रस्तुत करती है। इससे हमें अपनी समकालीन समस्याओं और चुनौतियों को समझने में मदद मिलती है तथा भविष्य के सर्जनात्मक संघर्षों का परिप्रेक्ष्य भी। हिन्दी की साहित्यिक पत्रकारिता (3) सामान्य पत्रकारिता जहाँ लोकमत के निर्माण और उसकी अभिव्यक्ति का माध्यम होती है, वहीं साहित्यिक पत्रकारिता लोकरंजन, लोक-शिक्षण और जनरुचि के परिश्कार का प्रयास करती है स इसीलिए उसका स्वरूप वैचारिक, संवेदनात्मक और मनोरंजनपरक होता है, लेकिन यहाँ ”संवेदनात्मक” का अर्थ तथाकथित ”शुद्ध साहित्य” के झंडावरदारों की समाज-निरपेक्ष और विचारधारा से परहेज प्रचारित करने वाली कृत्रिम और रहस्यात्मक संवेदना से नहीं है। इसी तरह ”मनोरंजन” का अर्थ व्यावसायिक और बाजारू पत्रिकाओं के फूहड़ और विकृतिपूर्ण समाज-विरोधी और सस्ते मनोरंजन से नहीं है। कहना न होगा कि साहित्यिक पत्रकारिता का उद्देश्य मुक्तिबोध की ”ज्ञानात्मक संवेदन और संवेदनात्मक ज्ञान” की अवधारणा को अपना आदर्श मान कर चलना चाहिए स श्रेष्ठ-साहित्य के आदर्शों और उद्देश्यों से भिन्न आदर्श और उद्देश्य साहित्यिक पत्रकारिता के हो ही नहीं सकते। दोनों एक न होते हुए भी अन्योन्याश्रित हैं। साहित्यिक पत्रकारिता का चरित्र स्वरूप साहित्यिक पत्रकारिता के चरित्र-निरूपण और उसके प्रशिष्ट स्वरूप पर विचार करेत हुए हमें गंभीर साहित्यिक पत्रिकाओं को फिल्म, संगीत, राजनीति और धर्म आदि की तरह ”साहित्य” का भी धंधा करने वाली व्यावसायिक पत्रिकाओं से अलगाकर देखना चाहिए। यह अंतर आज़ादी के पहले से रहा है। यह कहना भी गलत नहीं होगा कि ऐसा अंतर साहित्यिक पत्रकारिता के जन्म के समय से ही रहा है। शुरु से ही साहित्यिक पत्रिकाएँ सदैव सत्ता-तंत्र और व्यवसाय-तंत्र से जुड़ी या उनकी हितपोशक प्रतिष्ठानी और सेठाश्रित पत्रिकाओं से अलग, बल्कि विरोधी रही हैं, भले ही इस विरोध तथा प्रतिरोध की शैली उसका स्वरूप कितना ही भिन्न-भिन्न क्यों न हो। यह अंतर ”उदंतमार्तंड”. ”सुधाकर”, ”प्रजाहितैशी” या ”पयाम-ए-आज़ादी” का ”बनारस अखबार” जैसे पत्रों से साफ झलकता है। यह अंतर भारतेन्दु की ”कविवचनसुधा” और धड़फले के हाथ में जाने के बाद की स्तरहीन और पतित ”कविवचनसुधा” में और भी प्रत्यक्ष है। यह अंतर ”सरस्वती” (महावीर प्रसाद द्विवेदी के संपादन-काल की), ”माधुरी”, ”मतवाला”, ”सुधा”, ”चाँद”, ”हंस”(प्रेमचंद के संपादन-काल से लेकर अमृत राय-रामविलास शर्मा-शिवदानसिंह चौहान के प्रगतिवादी-काल तक का), ”विप्लव”, ”नय साहित्य”, ”रूपाभ” सहित ऐसी ही अनेक छोटी-बड़ी साहित्यिक पत्रिकाओं तथा बाजारू और व्यावसायिक पत्रिकाओं के बीच सदैव रहा है। कहना न होगा कि हमारा ” हिन्दी साहित्य का इतिहास” इन महत्वपूर्ण पत्रिकाओं से ही अस्तित्व में आया है। आज़ादी के बाद यह अंतर ”कल्पना”, (बदरी विशाल पित्ती एवं अन्य), ”समालोचक” (रामविलास शर्मा), ”प्रतीक” (अज्ञेय), ”नया पथ” (यशपाल एवं अन्य), ”कृति” (श्रीकांत वर्मा), ”आलोचना” (नामवर सिंह), ”वसुधा” (हरिशंकर परसाई), ”कहानी” (श्रीपत राय), ”लहर” (प्रकाश जैन और मनमोहिनी) और ”नई कहानियाँ” (कमलेश्वर, फिर भीष्म साहनी) जैसी श्रेष्ठ साहित्यिक पत्रिकाओं तथा व्यावसायिक घरानों की प्रतिष्ठानी और सेठाश्रयी पत्रिकाओं –”धर्मयुग”, ”साप्ताहिक हिन्दुस्तान”, ”ज्ञानोदय”, ”सारिका”, ”निहारिका” और ”कादम्बिनी” आदि के बीच बड़ा स्पष्ट रहा है। यह अंतर सारी दुनिया में और विश्व की प्रायः अभी भाषाओं की साहित्यिक पत्रिकाओं और राजसत्ता (भले ही उसे ”जनसत्ता” का झूठा नाम दें) या धनसत्ता की होतपोशक प्रतिष्ठानी पत्रिकाओं में रहा है। इस अंतर के कारण ही दुनिया-भर में साहित्यिक पत्रकारिता के क्षेत्र में ”लघुपत्रिका” या ” लिटिल मैगज़ीन” आंदोलन होते रहे हैं। लघु-पत्रिका आंदोलन हिन्दी के युवा और युवतर लेखकों-कवियों और आलोचकों ने इन पत्रिकाओं के खिलाफ सफल्क और ज़ोरदार ”बहिष्कार” अभियान चलाया, यहाँ तक कि प्रतिष्ठित बुजुर्ग कवि-लेखक भी इन पत्रिकाओं में छपने से हिचकिचाने लगे, इनमें छपने वाले लेखक साहित्यिक मान्यता और साहित्यिक प्रतिष्ठा के लिए तरसते रह गए, जो प्रतिष्ठित और लोकप्रिय लेखक इनमें छपता था, उसे पूरे साहित्य-जगत का विरोध और बहिष्कार झेलना पड़ता था। हिन्दी का यह लघु-पत्रिका आंदोलन इतना लोकप्रिय और प्रभावी सिद्ध हुआ कि प्रायः सभी भारतीय भाषाओं में साहित्यिक लघु-पत्रिकाओं का ज्वार आ गया। स्मरणीय है कि ऐसे ही विचारधारात्मक और सर्जनात्मक संघर्ष में से ही यूरोप में ”प्रोटेस्ट मूवमेंट” उभरकर सामने आए थे तथा विश्व-भर में छा गए थे, हिन्दी में
उभरा यह ”लघु-पत्रिका आंदोलन” अब तो एक तरह से साहित्येतिहास और साहित्यिक पत्रकारिता के इतिहास का भी अंग बन चुका है। कालांतर में साहित्यिक पत्रिकाओं के च्वरूप में भारी परिवर्तनों के बाद भी उनके लिए ”लघु-पत्रिका” या ”अव्याओकर लोक-प्रचलितवसायिक” पत्रिका नाम ही सर्वमान्य और रूढ़ होकर लोक-प्रचलित हो चुका है। वास्तव में, ऐसी पत्रिकाएँ ही साहित्यिक पत्रिकाएँ हैं, मानी जाती हैं। सन् साठ के बाद एक जबर्दस्त आंदोलन की तरह आरंभ हुआ लघु-पत्रिकाओं का यह अभियान अनेक उतार-चढ़ावों के बाद, सत्तर और अस्सी के दशकों में प्रगतिशील और वामपंथी रुख अख्तियार कर लेता है। इसकी परिणति इस रूप में होती है कि एक ओर जहाँ उपर्युक्त प्रतिष्ठानी पत्रिकाएँ या तो बंद हो जाती हैं अथवा अप्रासंगिक होकर अपना प्रभाव खो देती हैं, वहीं ” आलोचना” (नामवर सिंह एवं नंद किशोर नवल) के अलावा ”पहल” (ज्ञानरंजन), ”लहर” (प्रकाश जैन और मनमोहिनी), ”प्रगतिशील वसुधा” (कमला प्रसाद), ”उत्तरार्ध” (सव्यसाची), ”कथा” (मार्कण्डेय), ”कलम” (चंद्रबली सिंह), ” ओर” (विजेन्द्र्), ”क्यों” (मोहन श्रोत्रिय और स्वयं प्रकाश),” आरम्भ” (नरेश सक्सेना और विनोद भारद्वाज),”धरातल” (नंदकिशोर नवल), ”कथा” (मार्कण्डेय), ”समासम्भ” (भैरवप्रसाद गुप्त),”इसलिए” (राजेश जोशी) और ”कसौटी” (नंदकिशोर नवल)– जैसी श्रेष्ठ साहित्यिक पत्रिकाएँ अपने दौर की साहित्यिक पत्रकारिता का प्रतिनिधित्व करती हैं। कुछ पुरानी और प्रतिष्ठित लघु-पत्रिकाएँ तथा कई नई पत्रिकाएँ चंद अविस्मरणीय विशेषांक प्रकाशित कर धीरे-धीरे पृष्ठभूमि में चली गईं। दैनिक समाचारपत्रों में साहित्यिक पत्रकारिता प्रायः सभी दैनिक, पाक्षिक और साप्ताहिक अखबारों में हमें छिट-पुट साहित्यिक रूझान उनके रविवारीय संसकारणों में तो दिखता है, लेकिन इस क्षेत्र में उनका कोई महत्वपूर्ण और उल्लेखनीय योगदान नहीं दिखता, अपवाद स्वरूप, प्रमुख प्रगतिशील दैनिक ”जनयुग” में न केवल यह साहित्यिक-विचारधारात्मक रूझान स्पशष्ट नज़र आता है, बल्कि उसका रविवारीय परिशिष्ट मुख्यतः साहित्य को ही समर्पित होता था, कुल चार पृष्ठों के इस परिषिष्ट में एक विचारधारत्मक अग्रलेख और छोटे से बच्चों के कोने के अलावा शेष प्रायः तीन-साढ़े तीन पृष्ठ साहित्य को ही समर्पित होते थे। ”जनसत्ता” ने भी अपने रविवारीय परिषिश्ट में इस परंपरा का मंगलेश डबराल के संपादन में निर्वाह किया। इसीतरह जब तक राजेंद्र माथुर रहे ”नवभारत टाइम्स” ने भी कुछ स्थान साहित्यिक पत्रकारिता के लिए दिया। लेकिन कालांतर में इस श्रेष्ठ परंपरा का अवसान हो गाया, नब्बे के दशक के मध्य तक भूमंडलीकरण की आँधी में साहित्य और साहित्यिक पत्रकारिता के पैर उखड़ने लगे स धीरे-धीरे आज हम एक ऐसे विचार-शून्य — या कहें प्रायोजित मीडिया के प्रायोजित विचारों में डूबते -उतराते अपढ़ समाज और सांस्कृतिक-शून्यता की ओर बह रहे हैं, एक ऐसा समाज जहाँ उपभोक्तावाद के दलदल की ओर ढकेलती अपसंस्कृति की गहरी ढलान है। अंतिम उल्लेखनीय प्रयास मुख्य बात यह है कि ये सभी साहित्यिक पत्रिकाएँ अपने कलेवर, आकार और साज-सज्जा में भले ही ”लघु” पत्रिकाएँ थीं, अपने प्रभावी साहित्यिक मूल्यांकन, श्रेष्ठ रचनाओं के प्रकाशन और प्रतिभाशाली नए लेखकों की नई से नई पीढ़ियाँ तैयार करके उन्हें प्रशिक्षित करने की दृष्टि से बिल्कुल भी लघु या छोटी नहीं कही जा सकतीं स ये अपनी अंतर्वस्तु (कन्टेन्ट) और वैचारिक प्रतिबद्धता की दृष्टि से निस्संदेह बड़ी- बहुत बड़ी पत्रिकाएँ ही कही जाएँगी। अपने युग की प्रतिनिधि और भावी साहित्येतिहास का कच्चा माल, एक तरह से साहित्य रचना और मूल्यांकन के प्रशिक्षण के संस्थान, विश्वविद्यालय !! वास्तव में, ये सभी पत्र-पत्रिकाएँ सत्ता-तंत्र और व्यवसाय-तंत्र की तथाकथित ”बड़ी” और रंगीन, सेठाश्रयी, बाजारू पत्रिकाओं से भिन्न, यथार्थ में साहित्यिक पत्रिकाएँ हैं, चाहे इन्हक पत्रिकाएँ ”गैर-व्यावसायिक पत्रिकाएँ” कहा जाए या ”प्रतिष्ठान-विरोधी” और ”श्रमजीवा पत्रिकाएँ” कहा जाए अथवा लोक-प्रचलित ”लघु-पत्रिकाएँ” , साहित्यिक पत्रकारिता के श्रेष्ठ और सच्चे प्रतिमान हमें इन्हीं
पत्र-पत्रिकाओं में दृष्टिगोचर होते हैं। साहित्यिक पत्रकारिता के विविध रूप और भेद 1)प्रस्तुतिकरण के आधार पर विभाजन लेकिन यह विभाजन केवल नियमित रूप से निकलने वाली साहित्यिक पत्रिकाओं पर ही लागू हो सकता है। लघु-पत्रिका आंदोलन के दौरान जो हज़ारों नहीं भी , तो सैंकड़ों साहित्यिक पत्रिकाएँ निकलीं, वे प्रायः ”अनियतकालीन” ही निकलीं स जो निश्चित अवधि वाली नहीं थीं, वे भी आगे चलकर अनियतकालीन बन गईं और अंततः बंद भी हो गईं स जो निश्चित अवधि में अब भी नियमित रूप से निकल रही हैं, उनमें मासिक ”हंस” (हाल ही में मृत्यु से पूर्व तक सं0 राजेन्द्र यादव) तथा ”पखी” (सं0 प्रेम भारद्वाज) तथा द्विमासिक ”पुस्तकवार्ता” (सं0 भारत भारद्वाज) और त्रैमासिक ” आलोचना”(प्र0सं0 नामवर सिंह)–जैसी प्रतिनिधि पत्रिकाओं का उल्लेख किया जा सकता है। उसी तरह अनियतकालीन पत्रिकाओं के प्रतिनिधित्व में ”पहल” (सं0 ज्ञानरंजन) और ”दस्तावेज़” (सं0 विस्वनाथ प्रसाद तिवारी) का ज़िक्र अकिया जा सकता है। इनमें से ”पहल” का हाल ही में 98 वाँ अंक आया है और ”दस्तावेज़” का 145 वाँ। 3) विधापरक विभाजन: कुछ साहित्यिक पत्रिकाएँ हिन्दी के साथ हिन्दी के साथ ही उसकी जनपदीय बोलियों, यथा बुंदेली, छत्तीसगढ़ी, अवधी, बघेली, भोजपुरी, मैथिली, ब्रज, नेमाड़ी, पहाड़ी, हरियाणवी, मारवाड़ी और राजस्थानी आदि की रचनाएँ भी छपती हैं। कुछ पत्रिकाएँ इन जनपदीय उपभाषाओं-बोलियों में निकलती हैं,
जिन्हें हम विशाल हिन्दी साहित्यिक पत्रकारिता की व्यापक परिधि में गिन सकते हैं। कुछ पत्रिकाएँ हिन्दी के साथ ही उर्दू और अंग्रेज़ी के भी हिस्सों के साथ द्विभाषी निकलती हैं। पहली मिसाल ”शेष” (सं0 और दूसरी महात्मा गाँधी अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय की पत्रिका ”हिन्दी: ”भ्प्छक्प्” (सं0 ममता कालिया) कही जा सकती हैं। प्रकाशकीय आधार पर भी साहित्यिक पत्रिकाओं का विभाजन इस तरह किया जा सकता है: 6) विचारधारापरक विभाजन: क) स्वतंत्रता पूर्व की साहित्यिक पत्रकारिता (1867-1947 ई0) कालविभाजन का वैज्ञानिक आधार स्मरणीय है कि ”सरस्वती” द्वारा द्वेवेदी जी के संपादन में 1903 ई0 से यह ऐतिहासिक युगांतर शुरु करने से पहले यह भूमिका माधवराव सप्रे के संपादन में ”छत्तीसगढ़ मित्र” (सन 1900से) आरंभ कर चुका था। डॉ0 नारद के शब्दों में, “माधवदास सप्रे का कृतित्व हिन्दी लेखकों की एक पूरी पीढ़ी तैयार कर देने के लिए भी दृष्टव्य रहेगा। पं0 महावीर प्रसाद
द्विवेदी, पं0 श्रीधर पाठक, पं0 कामताप्रसाद गुरु, पं0 गंगाप्रसाद अग्निहोत्री, पं0 जगन्नाथ प्रसाद शुक्ल, पं0 रामदास गौड़ तथा पं0 नागीश्वर मिश्र प्रभुति अन्य अनेक लेखक ऐसे थे जिनकी प्रारंभिक रचनाओं को ”छत्तीसगढ़ मित्र” ने बड़े ही उत्साह से प्रकाशित किया। कहना न होगा कि सप्रे जी बाद में भी ”सरस्वती” में द्विवेदी जी के एक नियमित सहयोगी लेखक के रूप में हिन्दी की साहित्यिक पत्रकारिता और हिन्दी नवजागरण में अपना बहुमूल्य योगदान देते रहे। आलोचक रामचन्द्र शुक्ल का ”इतिहास” और उपन्यासकार और पत्रकार प्रेमचंद
तथा हिन्दी कविता में छायावाद, नए यथार्थवाद और छन्द-मुक्त प्रगतिवादी नयी कविता का सूत्रपात करने वाले, साथ ही एक प्रखर पत्रकार सूर्यकान्त त्रिपाठी ”निराला” इसी युग की देन हैं। प्रेमचंद के संपादन काल की ”माधुरी” भी (जिसके संपादक मंडल में प्रेमचंद थे) इस हिन्दी नवजागरण के ”ज्ञान कांड” में ”सरस्वती” और ”छत्तीसगढ़ मित्र” की सहोदर पत्र-पत्रिकाएँ थीं। अंत में, जैसे हम भारतेन्दु-युग के बारे में डॉ0 रामविलास शर्मा की पुस्तकों ”भारतेन्दु हरिश्चंद्र और हिन्दी नवजागरण” तथा ”भारतेन्दु-युग और हिन्दी भाषा की विकास परंपरा” से जान सकते हैं, ठीक उसी प्रकार, द्विवेदी-प्रेमचंद युग का भरा-पूरा जीवंत चित्र हमें डॉ0 शर्मा की ”महावीरप्रसाद द्विवेदी और हिन्दी नवजागरण” तथा ”प्रेमचंद और उनका युग” पुस्तकों में मिलेगा। ये चारों कालजयी कृतियाँ हिन्दी साहित्य और साहित्यिक पत्रकारिता के इतिहास की अमूल्य धरोहर तथा अनिवार्यतः पठनीय हैं। 3) प्रगतिवादी युग (1936-1950-53) साहित्य के इतिहासकार प्रगतिवादी के युग को अप्रैल, 1936 से 1953 तक मानते हैं। इसका आधार प्रेमचंद की अध्यक्षता में 9-10 अप्रैल, 1936 को लखनऊ में सम्पन्न प्रगतिशील लेखक संघ (PWA) का स्थापना सम्मेलन है। कुछ लोग 1949-50 तक तो कुछ 1953 तक इसकी कालावधि मानने के पीछे यह तर्क देते हैं कि आज़ादी के बाद कम्युनिस्टों और प्रगतिशील लेखकों के सरकारी दमन और पार्टी की रणदिवे लाइन के संकीर्णवादी दौर में आंतरिक कलह तथा गुटबाजी की वजह से प्रलेसं0 का निष्क्रिय हो जाना स दूसरे लोग, इसके विपरीत मार्च,1953 में दिल्ली सम्मेलन में रामविलास शमजार्ने के नेतृत्व और महासचिव पद से हट जाने के बाद संगठन वास्तव में समाप्त हो गया था और सभी प्रगतिशील पत्र-पत्रिकाएँ भी एक-एक करके बंद हो गईं थीं। अपवाद स्वरूप, सिर्फ हरिशंकर परसाई की ”वसुधा” अवश्य 1958 तक निकलती रही। इसमें कोई संदेह नहीं कि साहित्यिक पत्रकारिता का सबसे क्रांतिकारी, तेजस्वी और साथ ही कलत्मक रूप हमें प्रगतिशील दृष्टिकोण वाली पत्र-पत्रिकाओं और उनके लेखकों-संपादकों के कृतित्व में ही नज़र आता है। ऐसी पत्र-पत्रिकाएँ भारतेन्दु की पत्रिकाओं से लगातार प्रलेसं0 की स्थापना (1936) तक बराबर निकलती रही हैं। इनकी मुख्य विषयवस्तु ब्रिटिश उपनिवेशवादियों की गुलामी से देश की आज़ादी और स्वतंत्र भारत को एक जनवादी, धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी गणतंत्र बनाने के उद्देश्य से मज़दूरों, किसानों और तमाम मेहनतकशों से प्रतिबद्धता तथा उनकी समस्याओं को उठाना रही। शोषण-विहीन समाज के स्वप्न और हर तरह के शोषण और दमन का यथार्थ चित्रण करते हुए उसका प्रतिरोध तथा फासीवाद एवं युद्ध के विरोध में शांति और सोवियत संघ का समर्थन ”प्रगतिवादी” साहित्य तथा पत्रकारिता का उद्देश्य रहा है। इस दृष्टि से जिन महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं का नामोल्लेख किया जा सकता है, उनमें ”हंस” (प्रेमचंद, उनकी मृत्यु के बाद अमृतराय), ”विप्लव” (यशपाल), ”रूपाम” (पंत), ”नया साहित्य” ,”लोकयुद्ध”, ”जनयुग”, (तीनों कम्युनिस्ट पार्टी), ”चकल्लस”, ”उच्छृंखल” (दोनों अमृतलाल नागर), ”जनता”, ”संघर्ष”, ”नया सवेरा” ,”उदयन” ”वसुधा” (परसाई), ”समालोचक” (राम विलास शर्मा), ”नया पथ” (यशपाल एवं अन्य) और मुक्तिबोध के संपादन में सोख्ताजी का साप्ताहिक ”नया खून” आदि प्रमुख हैं। सभी पत्र-पत्रिकाएँ ठेठ प्रगतिवादी थीं। 4) प्रगति का द्वंद्व तथा प्रगति-विरोधी विचारधाराओं का दौर (1947-1964) पहले जहाँ (”तारसप्तक” और कुछ बाद तक) एक ही प्रगतिवादी परिधि में दो विरोधी दृष्टिकोणों में टकराव था ; जिसे ”प्रगति” बनाम ”प्रयोग” के द्वंद्व का नाम दिया जाता है। इस टकराव का केंद्र आलोचना और कविता के क्षेत्र बने स बाद में नयी कहानी भी षामिल हो गई स एक ही प्रगतिशील धारा के अंतर्गत एक ओर जहाँ रामविलास शर्मा, नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल, त्रिलोचन आदि थे ; तो दूसरी ओर ”प्रगतिवाद” की रूढ़ समझ के विरोध में मुक्तिबोध, शमषेर बहादुर सिंह, हरिषंकर परसाई और नामवर सिंह थे, जो नए-नए प्रयोगों को ज़ोरदार वकालत करते थे । आज़ादी के बाद अज्ञेय ने ”दूसरा सप्तक” और ”तीसरा सप्तक” के माध्यम से नए ”प्रयोगों” की वकालत को खींचकर ”प्रयोगवाद” के सिद्धांतों और आंदोलन में बदल दिया। दुनिया भर में जिस शीत युद्ध की अंध-कम्युनिस्ट-विरोधी लहर का प्रभाव छाने लगा था, हिन्दी में भी कांग्रेस फॉर कल्चरल फ्रीडम” के प्रवक्ता के तौर पर ”प्रतीक” और ” अज्ञेय” के नेतृत्व में इसकी गोलबंदी होने लगी। जल्दी ही ”नयी कविता” पत्रिका (सं0 जगदीश गुप्त) और ”परिमल” संस्था ( अज्ञेय, जगदीश गुप्त, धर्मवीर भारती, लक्ष्मीकांत वर्मा, विजयदेव नारायण साही आदि) ने भी इस मोर्चे में शामिल होकर ज़ोरदार प्रगति-विरोधी अभियान छेड़ दिया। प्रगतिशील लेखक संघ, उसकी विचारधारा से जुड़े मंचों,
पत्र-पत्रिकाओं के अवसान के बाद इन प्रगति-विरोधियों को खुला मैदान मिल गया। राजनीतिक सत्ता और धनसत्ता के परोक्ष और प्रत्यक्ष समर्थन तथा तमाम प्रतिष्ठानी सेठाश्रयी पत्र-पत्रिकाओं के विशाल मंच उपलब्ध होने पर एकबारगी तो साहित्यिक पत्रकारिता और साहित्य के क्षेत्रों में इनकी ही सर्वत्र विजय-पताका लहराने लगी। लेकिन तब भी सतह के नीचे प्रगतिशील साहित्य की एक शक्तिशाली सृजनात्मक अंतर्धारा प्रवाहित रही जो समय पाकर कालांतर में एक बार फिर उभरी। इस दौर में विशेष बात यह हुई कि 1967 में नक्सलवादी आंदोलन के साँस्कृतिक क्षेत्रों खासकर साहित्यिक पत्रकारिता के क्षेत्र में उसका ज़ोरदार असर देखा गया। लघु-पत्रिकाओं का खासा बड़ा हिस्सा तथा नौजवान लेखकों-संस्कृतिकर्मियों का बहुमत इस ओर आकर्शित होने लगा। उधर कम्युनिस्ट पार्टी में 1964 में विभाजन के बाद माकपा और भाकपा से जुड़े लेखकों-पत्रकारों की पत्र-पत्रिकाओं ने भी नए सिरे से अपना प्रभाव
क्षेत्र बढ़ाया। फलस्वरूप 1969-70 से लघु-पत्रिका आंदोलन के इस दूसरे दौर ने एक शक्तिशाली नामपंथी मोड़ ले लिया। इस दौर की परिणति मई,1975 में गया में ”राष्ट्रीय प्रगतिशील लेखक महासंघ” के नाम से देश की सभी भाषाओं के प्रगतिशील लेखकों के मंच का पुनर्गठन हुआ। इसके बाद तो प्रायः 1995 तक मुख्यतः और प्रायः 2000 तक प्रायः साहित्यिक पत्रकारिाता में मार्क्सावादी विचारधारा तथा व्यापकतथा प्रगतिशील और वामपंथी दृष्टिकोण से प्रतिबद्ध लेखकों, संपादकों तथा पत्र-पत्रिकाओं का ही वर्चस्व कायम रहा। इस दौर की साहित्यिक
पत्रकारिता का विस्तृत उल्लेख भी हम पिछले पृष्ठों में कर चुके हैं। आज हमारा समाज
भूमंडलीकरण के ऐसे दोर से गुज़र रहा है जहाँ, मनुष्य एक श्रोता या पाठक से बदलकर मात्र उपभोक्ता और साथ ही स्वयं उपभोग की ”वस्तु” में …. वह भी बाज़ार की एक ”पण्य-वस्तु” के रूप में बदल चुका है। इसके विस्तार में न जाते हुए, यहाँ हम यही कहना चाहेंगे कि अब संस्कृति की जगह पतित अप-संस्कृति ने ले ली है और ज्ञान की जगह ”सूचना” मात्र में से वह भी वही सूचना, जो दुनिया में ”सूचना-नियंत्रण” करने वाली बहुराष्ट्रीय सूचना-सत्ताएँ तय करती हैं। दूसरे, सूचना की जगह ”गलत सूचना” (डिस-इन्फोरमेशन) और दुश्प्रचार तथा
प्रायोजित आम-राय और विश्व- अभिमत से इस तरह अब आपके मस्तिष्क को, आपके विचारों को भी नियंत्रित किया जा रहा है और फूहड़ मनोरंजन की आदत डाली ज रही है। इस तरह धीरे-धीरे हम एक अपढ़ समाज की ओर बढ़ रहे हैं। ऐसे में साहित्यिक पत्रकारिता के आगे सबसे बड़ी चुनौती यही है कि वह लोगों में सांस्कृतिक विवेक, स्वतंत्र कला-चेतना और विचारोत्तेजक,किन्तु संवेदनात्मक साहित्य के प्रति रुचि पैदा करे। इसके लिए वह प्रिंट ही नहीं, बल्कि ”इलेक्ट्रॉनिक” विशेष रूप से ”न्यू मीडिया” के वैकल्पिक साधनों के प्रयोगात्मक अवसर तलाश
करे। भूमंडलीकरण और बाज़ारवाद के इस दौर में साहित्यिक पत्रकारिता को भी संगठित और व्यापक वैकल्पिक शक्ति बनकर प्रतिरोधाओं का शस्त्र बनना होगा। एक नए नवजागरण का लोकप्रिय अग्रदूत !! साहित्यिक पत्रकारिता के क्या उद्देश्य है?कहना न होगा कि अपने खास अर्थों में आज के संचार क्रांति के उत्तर-औद्योगिक परिदृश्य में साहित्यिक पत्रकारिता भी— सामाजिक चेतना को एक सुनिश्चित रूप एवं दिशा देने में तथा साथ ही लोकमत की सूक्ष्म प्रक्रिया को प्रभावित करने में अपना विशेष योगदान देती है।
साहित्यिक पत्रकारिता का महत्व क्या है?साहित्यिक पत्रकारिता एक ऐसा माध्यम है जिसके जरिए साहित्य की विभिन्न विधाओं को विशेष प्रयोजन के साथ अभिव्यक्ति दी जाती है। ये विधाएँ आलोचना, काव्य, कथा-साहित्य, नाट्य, निबंध, संस्मरण, साक्षात्कार, समीक्षा, समकालीन साहित्य विमर्श, तुलनात्मक साहित्य, साहित्य-संस्कृति, आदि पर केंद्रित होती हैं।
साहित्य पत्रकारिता से आप क्या समझते हैं वर्णन करें?पत्रकारिता का एक महत्वपूर्ण कार्य तथ्यों एवं विचारों को प्रकाशित करना है और साहित्य का भावों तथा विचारों को अभिव्यक्ति देना। साहित्य को विस्तार देने का कार्य भी पत्रकारिता द्वारा किया जाता है और साहित्यिक पत्रकारिता, पत्रकारिता का ही एक रूप है। साहित्यिक पत्रकारिता की शुरूआत भारत में 19वीं सदी में हो चुकी थी।
पत्रकारिता का मुख्य कार्य क्या है?पत्रकारिता आधुनिक सभ्यता का एक प्रमुख व्यवसाय है, जिसमें समाचारों का एकत्रीकरण, लिखना, जानकारी एकत्रित करके पहुँचाना, सम्पादित करना और सम्यक प्रस्तुतीकरण आदि सम्मिलित हैं। आज के युग में पत्रकारिता के भी अनेक माध्यम हो गये हैं; जैसे - अखबार, पत्रिकायें, रेडियो, दूरदर्शन, वेब-पत्रकारिता आदि।
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