hindisarang.com Show ‘रसस्यतेऽसौ इति रसः’ के रूप में रस शब्द की व्युत्पत्ति हुई है, अर्थात् जो चखा जाय या जिसका आस्वादन किया जाय ‘अथवा’ जिससे आनन्द की प्राप्ति हो, वही रस है। आचार्यों ने भी रस को काव्य की आत्मा कहा है। रस क्या हैभारतीय काव्यशास्त्र में रस की धारणा को सर्वाधिक प्रतिष्ठा प्राप्त है। संसार का कोई भी ऐसा काव्य सिद्धांत नहीं है जो किसी-न-किसी रूप में काव्य के आनंद को स्वीकार न करता हो। काव्य पढ़ने या नाटक देखने से जो विशेष प्रकार का आनंद प्राप्त होता है उसे रस कहा गया है। काव्य का रस साधारण जीवन में प्राप्त होने वाले आनंद से भिन्न माना गया है, लेकिन वह इतना भिन्न नहीं होता कि जीवन से कटी हुई कोई बिल्कुल निराली चीज हो। जीवन और काव्य के अनुभव और आनंद की भिन्नता को समझ लेना चाहिए। काव्य की अनुभूति और आनंद व्यक्तिगत सकीर्णता से मुक्त होता है। इसी अर्थ में वह भिन्न होता है। उदाहरण के लिए यदि हमें या हमारे किसी संबंधी को सुख-दुख होता है तो हम सुखी-दुखी होते हैं। लेकिन जब हम मनुष्य मात्र के सुख-दुख से सुखी-दुखी होते हैं तब वह अनुभव व्यक्तिगत संकीर्णता से मुक्त होता है। ऐसे अनुभव और इस संकीर्णता से मुक्त अनुभव को रामचंद्र शुक्ल ने हृदय की मुक्तावस्था कहा है। हृदय की यह मुक्तावस्था रस दशा है। इसे प्राप्त करने की साधना भावयोग है। जिस प्रकार योग से चित्त का संस्कार होता है उसी प्रकार काव्य से भाव का। इस भावयोग में स्थायी भाव के साथ विभाव, अनुभाव और संचारीभावों का योग होता है।[1] संस्कृत काव्यशास्त्र में इसी को रस कहा गया है। इस प्रक्रिया के कारण जीवन का व्यक्तिगत अनुभव और आनंद मनुष्य मात्र का अनुभव और आनंद बन जाता है। इससे स्पष्ट हुआ कि काव्य का अनुभव और आनंद जीवन के अनुभव और आनंद से मूलतः भिन्न नहीं है। काव्य की विशेष प्रक्रिया के कारण उसमें कुछ भिन्नता आ जाती है। रस के अंगरस स्थायी भाव, विभाव, अनुभाव और संचारी भावों के संयोग से निर्मित या अभिव्यक्त होता है। इन्हीं को रस के चार अंग या अवयव कहते हैं। रस के अंग(i) स्थायी भाव‘स्थायी भाव’ के संबंध में इस बात को ध्यान में रखना जरूरी है कि उसका निरूपण रस की दृष्टि से किया गया है। इसलिए ‘स्थायीभाव’ रस निरूपण में एक शास्त्रीय श्रेणी है। उसे जीवन का स्थायी भाव नहीं मानना चाहिए। रस सिद्धांत में ‘स्थायी भाव’ का मतलब ‘प्रधान’ भाव है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने स्थायी भाव की परिभाषा इस प्रकार की है “प्रधान (प्रचलित प्रयोग के अनुसार स्थायी) भाव वही कहा जा सकता है जो रस की अवस्था तक पहुँचे।”[2] तात्पर्य यह है कि अनुभाव और संचारी भाव रस दशा तक नहीं पहुँचते हैं। अनुभाव व संचारी किसी-न-किसी भाव को पुष्ट करते हैं और वही भाव पूर्ण रस दशा को प्राप्त करता है। रति, शोक, उत्साह आदि भाव जीवन में प्रधान या मुख्य होते हैं वे ही रस की अवस्था को प्राप्त करते हैं। शास्त्र में संचारी भावों की संख्या 33 बताई गई है किन्तु स्थायी भाव 8, 9, 10 या 11 ही माने गए हैं। अर्थात् 8, 9, 10 या 11 भाव अपनी प्रधानता के कारण स्थायी भाव माने जाते हैं अपने स्थायित्व (Permanance) के कारण नहीं। भरत के अनुसार ‘स्थायी भाव’ ये हैं- 1. रति (स्त्री और पुरुष का प्रेमद), 2. हास, 3. शोक, 4. क्रोध, 5. उत्साह, 6. भय, 7. जुगुप्सा (घृणा), 8. विस्मय (आश्चर्य)। भरत ने बाद में 9. शम या निर्वेद (वैराग्य या शांति) को भी नवम ‘स्थायी भाव’ माना। बाद के आचार्यों ने 10. भक्ति और 11. वत्सल (अपने से छोटों के लिए प्रेम) को भी ‘स्थायी भाव’ मान लिया। इनका भी स्थायी भाव रति ही है। जब रति बालक के प्रति होती है तो ‘वात्सल्य’ और जब भगवान् के प्रति होती है तो ‘भक्ति’ रस की निष्पत्ति होती है। इन्हीं स्थायी भावों का विकास रस रूप में होता है। इसलिए रस की संख्या भी स्थायी भावों की संख्या के अनुसार होती है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने ‘भाव’ का जहाँ ‘स्थायित्व’ हो, उसे ही ‘स्थायी भाव’ माना है।[3] भाव का स्थायित्व वहीं होता है, जहाँ 1. आस्वाद्यत्व, 2. उत्कटत्व, 3. सर्वजनसुलभत्व, 4. पुरुषार्थोपयोगिता और 5. औचित्य आदि विषय की अनुकूलता हो। इन पाँच आधारों पर प्रथम नौ भाव ही स्थायी भाव हो सकते हैं। काव्यकल्पद्रुम के अनुसार, ‘जो भाव चिरकाल तक चित्त में स्थिर रहता है, जिसे विरुद्ध या अवरुद्ध भाव दबा नहीं सकते और जो विभावादि से संबद्ध होने पर रसरूप में व्यक्त होता है, उस आनंद के मूलभूत भाव को ‘स्थाई भाव कहते हैं।’[4] (ii) विभावजिसके कारण सहृदय को रस प्राप्त होता है, वह विभाव कहलाता है। “विभाव से अभिप्राय उन वस्तुओं और विषयों के वर्णन से है जिनके प्रति किसी प्रकार का भाव या संवेदना होती है।”[5] अर्थात् भाव के जो कारण होते हैं उन्हें विभाव कहते हैं। विभाव दो प्रकार के होते हैं- आलंबन और उद्दीपन। (A) आलंबन विभावभाव जिन वस्तुओं या विषयों पर आलंबित होकर उत्पन्न होते हैं उन्हें आलंबन विभाव कहते हैं। जैसे नायक-नायिका। आलंबन के भी दो भेद हैं- आश्रय और विषय। (क) आश्रय जिस व्यक्ति के मन में रति आदि भाव उत्पन्न होते हैं उसे आश्रय कहते हैं। (ख) विषय जिस वस्तु या व्यक्ति के लिए आश्रय के मन में भाव उत्पन्न होते हैं, उसे विषय कहते हैं। उदाहरण के लिए यदि राम के मन में सीता के प्रति रति का भाव जागृत होता है तो राम आश्रय होंगे और सीता विषय। उसी प्रकार यदि सीता के मन में राम के प्रति रति भाव उत्पन्न हो तो सीता आश्रय और राम विषय होंगे। (B) उद्दीपन विभावआश्रय के मन में भाव को उद्दीप्त करने वाले विषय की बाहरी चेष्टाओं और वाह्य वातावरण को उद्दीपन विभाव कहते हैं। जैसे दुष्यंत शिकार खेलता हुआ कण्व के आश्रम में जा निकलता है। वहाँ शकुन्तला को वह देखता है। शकुन्तला को देख कर दुष्यन्त के मन में आकर्षण या रति भाव उत्पन्न होता है। उस समय शकुन्तला की शारीरिक चेष्टाएँ दुष्यन्त के मन में रति भाव को और अधिक तीव्र करती हैं। इस प्रकार शकुन्तला की शारीरिक चेष्टाओं को उद्दीपन विभाव कहा जायेगा। वन प्रदेश का एकान्त वातावरण आदि दुष्यन्त के रति भाव को और अधिक तीव्र करने में सहायक होगा। अतः उद्दीपन विभाव विषय की शारीरिक चेष्टा और अनुकूल वातावरण को कहते हैं। (iii) अनुभाव‘अनु’ उपसर्ग का अर्थ है- बाद में या पीछे। स्थायी भाव के उत्पन्न होने पर उसके बाद जो भाव उत्पन्न होते हैं उन्हें अनुभाव कहा जाता है। ‘आलंबन और उद्दीपन विभावों के करण उत्पन्न भावों को बाहर प्रकाशित करने वाले कार्य ‘अनुभाव’ कहलाते हैं।’[6] स्थायी भाव के जागरित होने पर आश्रय की बाह्य चेष्टाओं को अनुभाव कहते हैं, जैसे भय उत्पन्न होने पर हक्का-बक्का हो जाना, रोंगटे खड़े होना, काँपना, पसीने से तर हो जाना आदि। यहाँ यह ध्यान देने की बात है कि बिना किसी भावोद्रेक के केवल भौतिक परिस्थिति के कारण यदि ये चेष्टाएँ दिखलायी पड़ती हैं तो उन्हें अनुभाव नहीं कहेंगे, जैसे जाड़े के कारण काँपना, गर्मी से पसीना निकलना आदि। जहाँ विषय की बाहरी चेष्टाओं को उद्दीपन कहा जाता है वहाँ आश्रय के शरीर विकारों को अनुभाव कहते हैं। यानी अनुभाव हमेशा आश्रय से सम्बन्धित होते हैं। अनुभावों को भी रस सिद्धांत में निश्चित कर दिया गया है। स्तम्भ, स्वेद, रोमांच, स्वरभंग, कम्प, विवर्णता, अश्रु और प्रलाप- ये आठ अनुभाव माने जाते हैं। जैसे शकुन्तला के प्रति रतिभाव के कारण दुष्यंत के शरीर में रोमांच, कम्प आदि चेष्टाएँ उत्पन्न होती हैं तो उन्हें अनुभाव कहा जाएगा। अनुभाव के चार भेद हैं- कायिक, मानसिक, वाचिक और आहार्य। (iv) व्यभिचारी या संचारी भावमन के चंचल विकारों को संचारी भाव कहते हैं। संचारी भाव भी आश्रय के मन में उत्पन्न होते हैं। संचारी भावों को व्यभिचारी भाव भी कहा जाता है। इसका पहला कारण यह है कि एक ही संचारी भाव कई रसों के साथ हो सकता है। दूसरा कारण यह है कि वह पानी के बुलबुले की तरह उठता और शांत होता रहता है। इसके विपरीत स्थायी भाव आदि से अंत तक बना रहता है और एक रस का एक ही स्थायी भाव होता है। उदाहरण के लिए शकुन्तला के प्रति रति भाव के कारण शकुन्तला को देख कर दुष्यंत के मन में मोह, हर्ष, आवेग आदि जो भाव उत्पन्न होंगे, उन्हें संचारी भाव कहेंगे। संचारी भावों की संख्या 33 है, जैसे- निर्वेद, चिंता, मोह, स्मृति, धैर्य, लज्जा, चपलता, आवेग, हर्ष, ग्लानि, शंका, निंद्रा, आलस्य, असूया, गर्व, विषाद, उत्सुकता, उग्रता, मति, त्रास, वितर्क, मद, दीनता आदि। रस के स्थायी भाव तथा संचारी भावों के परस्पर संबंध को इस प्रकार प्रदर्शित किया जा सकता है-
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