किशार पंवार Show "... मैंने पुदीने की एक शाखा को पानी पर उलटे किए हुए कांच के जार में रखा। यह जार पानी से भरे हुए बर्तन में रखा गया था। कुछ महीनों तक यह शाखा उस जार में वृद्धि करती रही। मैंने पाया कि इस जार की हवा में न तो मोमबत्ती बुझी, न ही । उस चूहे को कोई परेशानी हुई जिसे मैंने इस जार में रखा।...” सारी दुनिया अपने भोजन के लिए पेड़-पौधों पर निर्भर है। लेकिन क्या किसी ने उन्हें कुछ खाते-पीते देखा है? कैसे
छोटा-सा बीज फुटकर छोटा-सा पौधा बनता है. पत्तियां निकलती हैं और फिर वह एक भरे-पूरे पेड़ में बदल जाता है? ऐसे ही कई सवाल सदियों से उठते रहे हैं और अरस्तु से लेकर आज तक वैज्ञानिकों को परेशान करते रहे हैं। अब हम जानते हैं कि पेड़-पौधे अपना भोजन स्वयं बनाते हैं - सूर्य के प्रकाश की उपस्थिति में हरे क्लोरोफिल की सहायता से। आज हम काफी कुछ जानते हैं पत्तियों में पाए जाने वाले विभिन्न रंजकों की रचना व उनकी भूमिका के बारे में; किस
तरह ये रंजक सूर्य की ऊर्जा को ग्रहण कर उसे रासायनिक ऊर्जा में बदल देते हैं; किस तरह पत्तियों में पानी और कार्बन डाइऑक्साइड जैसे सरल अकार्बनिक पदार्थों से ग्लूकोज, स्टार्च और अन्य जटिल कार्बनिक पदार्थ बनते हैं। संक्षेप में कहें तो प्रकाश संश्लेषण आज हमारे लिए कोई अनोखा शब्द नहीं है। लेकिन जिस जानकारी या ज्ञान को हम कक्षा के एक पाठ में पढ़ लेते हैं उसे खोजने में सदियां लग गई: लंबे-लंबे प्रयोग हुए, उपकरण बने और फिर प्रयोगों के परिणामों को और परिष्कृत किया गया। कई शंकालु, खोजी और जिज्ञासु प्रवृति के
लोगों ने अपने जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा लगा दिया इसमें। और रोचक बात तो यह है कि - हमेशा के समान - शुरुआत में शायद किसी को भी नहीं मालूम होता कि उन्होंने जो खोजा है वो आगे जाकर किस दूसरी जानकारी से जुड़ेगा और अंत में जो सिद्धांत आएगा वो क्या होगा? जैसे-जैसे इस लेख में आप आगे बढ़ेंगे यह बात और स्पष्ट होती जाएगी। तो आइए, अतीत पर नज़र डाल कर सरल-सी दिखने वाली इस जटिल प्रक्रिया, जिस पर सारी दुनिया का दारोमदार है, को कदम-दर-कदम समझने की कोशिश करें।
आज से लगभग 2000 साल पूर्व ग्रीक दार्शनिक-वैज्ञानिक अरस्तू का ऐसा विचार था कि चूंकि पौधों में जंतुओं के समान कोई पाचक अंग नहीं होते अतः पौधे मिट्टी में घुले सड़े-गले पदार्थ पोषण के रूप में लेते हैं जिनसे उनके शरीर में वृद्धि होती है। उनकी मृत्यु पर ये पदार्थ मिट्टी में मिल जाते हैं और इस तरह ये चक्र चलता रहता है। लगभग डेढ़ हज़ार साल तक यही मान्यता प्रचलित रही। फिर सन् 1450 के आसपास यह विचार आया कि पौधों को अपनी जरूरत का
सामान दरअसल पानी से मिलता है, तभी वे इतने हरे-भरे हो पाते हैं। और इसीलिए साल-दर-साल फसल लेने पर भी मिट्टी की पर्त वैसी ही बनी रहती है, कमतर नहीं हो जाती। लेकिन इन में से किसी भी धारणा का कोई प्रयोगात्मक आधार नहीं था। "मैंने मिट्टी का बना एक बर्तन लिया और इसमें बिल्कुल सुखाई हुई 200 पौंड मिट्टी भरी। फिर इसे पानी से सींचा और इसमें विलो (वीर का पेड़) का एक पौधा लगाया जिसका वज़न 5 पौंड था। पांच साल निकल गए और यह पौधा बढ़कर
169 पौंड 3 औंस का हो गया। इस बीच इस मिट्टी को बरसात के पानी से या फिर जरूरी हो तो आसुत जल से सींचा जाता था। यह मिट्टी का बर्तन काफी बड़ा था और जमीन में गड़ा कर रखा गया था। बाहर से आने वाली धूल-मिट्टी इसमें न जा पाए इसलिए मैंने इसके मुंह को बारीक छेद वाले लोहे के पतरे से ढंक रखा था। इस बीच जो चार पतझड़ आए उस समय गिरने वाली पत्तियों का वज़न मैंने नहीं लिया। अंत में मैंने फिर से बर्तन की मिट्टी को निकाला, सुखाया और तौला। और यह 200 पौंड से बस दौ औंस कम निकली। इसका अर्थ है। कि 164 पौंड की लकड़ी, तना
और जड़ सिर्फ पानी से बन गए।''
जोसेफ प्रीस्टलेः 18वीं सदी का एक
प्रमुख ब्रिटिश वैज्ञानिक, जिसने एक महत्वपूर्ण गैस की खोज की थी, जिसे बाद में लिवोजियर ने ऑक्सीजन नाम दिया। से गैस निकलती है, और इसी के आधार पर उसने तर्क दिया कि हो सकता है कि पत्तियां इससे उलटा, हवा में से गैस सोखती हों। इसके बाद एक और प्रयोग हुआ जिसने मामले में कुछ नए पहलू जोड़े। “.. कोई यह सोचेगा कि क्योंकि हवा जीवों और पेड़ पौधों दोनों के लिए ज़रूरी है। इसलिए दोनों ही हवा के साथ एक समान व्यवहार करेंगे। और मेरी भी धारणा इस प्रयोग के पहले बिल्कुल यही थी।
प्रकाश संश्लेषण और श्वसन में पौधों की भूमिका हमारी अधिकतर पाठ्य पुस्तकों में बहुत ज़ोर देकर लिखा होता है कि जिस हवा को हम गंदी कर देते हैं उसे पेड़-पौधे साफ करते हैं और इस तरह वायुमंडल में गंदी और स्वच्छ हवा का संतुलन बना रहता है। यहीं से एक भ्रम उत्पन्न होता है कि जंतुओं और पेड़-पौधों की श्वसन क्रिया अलग अलग है। यह भ्रम उच्चस्तर की महाविद्यालयीन कक्षाओं तक बना रहता है। विद्यार्थियों को बार-बार समझाने पर भी वे यही कहते हैं कि हमने तो यह किताबों में पढ़ा है। क्या वे गलत हैं? मेरी समझ में यह भ्रम पेड़-पौधों और जंतुओं की क्रियाओं को अलग-अलग करके नहीं समझाने के कारण पैदा होता है। अगर वहीं यह भी स्पष्ट कर दिया जाए कि कार्बन डाइऑक्साइड का उपयोग पौधे अपना भोजन बनाने (प्रकाश संश्लेषण) में करते हैं और बदले में ऑक्सीजन छोड़ते हैं; परंतु दोनों की श्वसन क्रिया एक-सी है जिसमें ऑक्सीजन का उपयोग होता है और कार्बन डाइऑक्साइड छोड़ी जाती है, तो कुछ बात बन सकती है। की एक शाखा को उस हवा में रखा जिसमें मोमबत्ती जल कर बुझ चुकी थी; और पाया कि उसी महीने 27 तारीख को एक दूसरी मोमबत्ती उसी हवा में काफी अच्छे से जली। बिना कुछ भी बदले इसी प्रयोग को मैंने उन गर्मियों में आठ-दस बार दोहराया। कई बार मैंने उस हवा को - जिसमें मोमबत्ती जलकर बुझ चुकी थी - दो भागों में विभाजित किया। एक हिस्से में पौधे को रखा और दूसरे को वैसा ही रहने दिया, उसी तरह पानी पर उलटाकर रखे हुए कांच के जार में, पर बिना किसी टहनी के। और हमेशा मैंने पाया कि पौधे वाले हिस्से में मोमबत्ती फिर से जली, जबकि दूसरे वाले हिस्से में नहीं। मैंने पाया कि अगर पौधा प्रबल हो तो हवा को फिर से ठीक करने के लिए पांच से छह दिन पर्याप्त होते हैं। .." आज हम इस निष्कर्ष पर गौर करें तो फटाक से पहचान जाएंगे कि प्रिस्टले ऑक्सीजन की बात कर रहा है।
लेकिन उस समय ऑक्सीजन की खोज नहीं हुई थी। न ही हम इसके जीवनदायी गुण से परिचित थे। तो प्रीस्टले न तो ‘दूषित हवा' को सुधारने वाले तत्व को पहचान पाए, न ही इस पूरी प्रक्रिया में प्रकाश के योगदान पर गौर कर पाए। लेकिन फिर भी उन्होंने लोगों को इस दिशा में और शोध की ओर प्रेरित कर ही दिया। प्रीस्टले की यह खोज वनस्पतियों और जंतुओं के बीच आपसी सामंजस्य को समझने की एक प्रमुख कड़ी थी। इन्जेनहोज़ः जिसने अपने प्रयोग से सिद्ध किया कि ‘दूषित हवा' को फिर से शुद्ध करने के लिए सूर्य प्रकाश जरूरी है। स्टोमेटाः उन्नीसवीं सदी के शुरुआती सालों में यह पता चला कि पत्तियों पर मौजूद सूक्ष्म छिद्रों (स्टोमेटा) से पेड़ पौधे गैमों का आदान-प्रदान करते हैं। तो उन्नीसवीं सदी की शुरुआत तक आते-आते हम पौधों के पोषण यानी प्रकाश संश्लेषण में सक्रिय सब प्रमुख कलाकारों को पहचान चुके थे - पानी, ऑक्सीजन, पौधों को हरा भाग और कार्बन डाइऑक्साइड। अगला दौर प्रकाश संश्लेषण की प्रक्रिया के बारे में अब तक की जानकारी को हम इस तरह भी लिख सकते हैं: कार्बन डाइऑक्साइड + पानी पौधा + सूर्य प्रकाश कार्बनिक पदार्थ + ऑक्सीजन हरा पदार्थ क्लोरोफिल इस क्रिया में जितनी कार्बन डाई ऑक्साइड खर्च होती है उतनी ही ऑक्सीजन निकलती है यह बात
सर्वप्रथम पक्के तौर पर एक फ्रेंच वैज्ञानिक केसिनगॉल्ट ने सन् 1864 में बताई। यानी कि प्रकाश संश्लेषण में कार्बन डाइऑसाइड/ऑक्सीजन का अनुपात एक होता है। इसी वर्ष सेक्स ने बताया कि प्रकाश संश्लेषण क्लोरोप्लास्ट में होती है और इसमें स्टार्च के कण बनते हैं। यह प्रयोग स्टार्च आयोडीन टेस्ट द्वारा किया गया था। वर्तमान सदी की शुरुआत तक पौधों में भोजन निर्माण की प्रक्रिया का यह स्वरूप हमारे सामने आ चुका था।
किशोर पंवारः सेंधवा में शासकीय महाविद्यालय में वनस्पति शास्त्र पढ़ाते हैं। पत्तियों में पाए जाने वाले हरे पदार्थ को क्या कहते हैं?पर्णहरित, हरितलवक, (chlorophyll) पर्ण हरिम या क्लोरोफिल एक प्रोटीनयुक्त जटिल रासायनिक यौगिक है। यह वर्णक पत्तों के हरे रंग का कारण है। यह प्रकाश-संश्लेषण का मुख्य वर्णक है। इसे फोटोसिन्थेटिक पिगमेंट भी कहते हैं।
कौन सा पदार्थ पत्तियों को हरा बनाता है पौधों के लिए इस पदार्थ का क्या महत्व है?पेड़ों की पत्तियों में पाया जाने वाला हरा पदार्थ क्या कहलाता है? इसे क्लोरोफिल कहते हैं। यह जमीन से पानी वह खनिज लवण और वायु से कार्बन-डाई-ऑक्साइड लेकर सूर्य के प्रकाश की उपस्थिति में पौधों के लिए भोजन बनाता है।
पत्तियों में कौन सा तत्व पाया जाता है?Detailed Solution. सही उत्तर विकल्प 1 है अर्थात् मैग्नीशियम। पत्ती के हरे वर्णक को पर्णहरित कहा जाता है जिसकी संरचना में मैग्नीशियम (Mg) शामिल होता है जो पत्ती के हरे रंग को प्रदान करता है।
पत्तियों में हरा वर्णक क्या है?पौधों की पत्तियों में एक हरा वर्णक होता है। जिसे क्लोरोफिल कहते हैं। इसकी उपस्थिति के कारण ही पेड़ की पत्तियों का रंग हरा होता है। क्लोरोफिल सूर्य के प्रकाश को संग्रहण करने में पत्तियों की मदद करता है।
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