हिंदी में ज्ञ का उच्चारण कैसे किया जाता है? - hindee mein gy ka uchchaaran kaise kiya jaata hai?

हिंदी में ज्ञ का उच्चारण कैसे किया जाता है? - hindee mein gy ka uchchaaran kaise kiya jaata hai?

हिन्दी व्याकरण के शुरुआती विद्वान कामता प्रसाद गुरु के अनुसार हिन्दी में ज्ञका उच्चारण बहुधा ग्यँके सदृश होता है। मराठी लोग इसका उच्चारण द्न्यँके समान करते हैं। पर इसका उच्चारण प्रायः ज्यँके समान है। श्याम सुन्दर दास के हिंदी शब्दसागरमें ज्ञकी परिभाषा में कहा गया है, ज और ञ के संयोग से बना हुआ संयुक्त अक्षर।

केंद्रीय हिंदी निदेशालय ने जो मानक वर्तनी तैयार की है उसमें देवनागरी वर्णमाला के लिए उच्चारणों को स्पष्ट करते हुए कहा है, “क्ष, त्र, ज्ञ और श्र भले ही वर्णमाला में दिए जाते हैं किंतु ये एकल व्यंजन नहीं हैं। वस्तुत : ये क्रमशः: क् + ष, त् + र, ज् + ञ और श् + र के व्यंजन संयोग हैं।इसके अनुसार ज्ञको ज् + ञ का संयोग माना जाए।

इंटरनेट पर इस विषय पर बहस चलती रहती है। विज्ञान के साथ हिंदी और संस्कृत के विदवान योगेन्द्र जोशी के अनुसार, आम तौर पर हिंदीभाषी इसे ग्यबोलते हैं, जो अशुद्ध किंतु सर्वस्वीकृत है। तदनुसार इसे रोमन में gya लिखा जाएगा जैसा आम तौर पर देखने को मिलता है। दक्षिण भारत (jna) तथा महाराष्ट्र (dnya) में स्थिति कुछ भिन्न है। संस्कृत के अनुसार होना क्या चाहिए यदि इसका उत्तर दिया जाना हो तो किंचित् गंभीर विचारणा की आवश्यकता होगी। उन्होंने लिखा है, मेरी टिप्पणी वरदाचार्यरचित लघुसिद्धांतकौमुदीऔर स्वतः अर्जित संस्कृत ज्ञान पर आधारित है।

मेरी जानकारी के अनुसार ज्ञकेवल संस्कृत मूल के शब्दों/पदों में प्रयुक्त होता है। मेरे अनुमान से ऐसे शब्द/पद शायद हैं ही नहीं, जिनमें स्वतंत्र रूप से प्रयुक्त हो।...ज्ञवस्तुतः एवं का संयुक्ताक्षर है। ये दोनों संस्कृत व्यंजन वर्णमाला के चवर्गके क्रमशः तृतीय एवं पंचम वर्ण हैं। जानकारी होने के बावजूद मेरे मुख से ज्ञका सही उच्चारण नहीं निकल पाता है। पिछले पांच दशकों से ग्यका जो उच्चारण जबान से चिपक चुका है उससे छुटकारा नहीं मिल पा रहा है। आपको हिंदी शब्दकोशों में ज्ञसे बनने वाले शब्द प्रायः के बाद मिलेंगे।

हिन्दी भाषा के विवेचन पर लिखने वाले अजित वडनेरकर के अनुसार देवनागरी के ज्ञवर्ण ने अपने उच्चारण का महत्व खो दिया है। मराठी में यह ग+न+य का योग हो कर ग्न्य सुनाई पड़ती है तो महाराष्ट्र के ही कई हिस्सों में इसका उच्चारण द+न+य अर्थात् द्न्य भी है। गुजराती में ग+न यानी ग्न है तो संस्कृत में ज+ञ के मेल से बनने वाली ध्वनि है। 

दरअसल इसी ध्वनि के लिए मनीषियों ने देवनागरी लिपि में ज्ञ संकेताक्षर बनाया मगर सही उच्चारण बिना समूचे हिन्दी क्षेत्र में इसे ग+य अर्थात ग्य के रूप में बोला जाता है। ज+ञ के उच्चार के आधार पर ज्ञान शब्द से जान अर्थात जानकारी, जानना जैसे शब्दों की व्युत्पत्ति हुई। अनजान शब्द उर्दू का जान पड़ता है मगर वहां भी यह हिन्दी के प्रभाव में चलने लगा है। मूलतः यह हिन्दी के जान यानी ज्ञान से ही बना है जिसमें संस्कृत का अन् उपसर्ग लगा है।

प्राचीन भारोपीय भाषा परिवार की धातु gno का ग्रीक रूप भी ग्नो ही रहा मगर लैटिन में बना gnoscere और फिर अंग्रेजी में की जगह ने ले और gno का रूप हो गया know हो गया। बाद में नॉलेज जैसे कई अन्य शब्द भी बने। रूसी का ज्नान (जानना), अंग्रेजी का नोन (ज्ञात) और ग्रीक भाषा के गिग्नोस्को (जानना), ग्नोतॉस(ज्ञान) और ग्नोसिस (ज्ञान) एक ही समूह के सदस्य हैं। गौर करें हिन्दी-संस्कृत के ज्ञान शब्द से इन विजातीय शब्दों के अर्थ और ध्वनि साम्य पर।

क्या है संयुक्ताक्षर ‘ज्ञ’ का उच्चारण? कैसे लिखें इसे ‘रोमन’ में? – एक टिप्पणी

अगस्त 9, 2009

इधर कुछ दिनों पहले गूगल के ‘हिंदी समूह’ पर चर्चा चल पड़ी कि संयुक्ताक्षर ‘ज्ञ’ को रोमन लिपि में सही-सही कैसे लिखा जाए । उसी से प्रेरित हो मैंने यह आलेख लिखा है ।

संयुक्ताक्षर ‘ज्ञ’ को रोमन में लिखने की जब बात की जाती है तो दो प्रकार के उत्तर दिये जा सकते हैं । पहला यह कि विभिन्न भाषाभाषियों के बीच इसका जो भी उच्चारण प्रचलित हो उसी के अनुरूप उसे निरूपित किया जाये । आम तौर पर हिंदीभाषी इसे ‘ग्य’ बोलते हैं, जो अशुद्ध किंतु सर्वस्वीकृत है । तदनुसार इसे रोमन में gya लिखा जायेगा जैसा आम तौर पर देखने को मिलता है । दक्षिण भारत (jna) तथा महाराष्ट्र (dnya) में स्थिति कुछ भिन्न है ।

परंतु संस्कृत के अनुसार होना क्या चाहिए यदि इसका उत्तर दिया जाना हो तो किंचित् गंभीर विचारणा की आवश्यकता होगी । दुर्भाग्य से इसका सही उच्चारण संस्कृतज्ञों के मुख से भी मैंने सदैव नहीं सुना है । “यदि प्रचलन में जो आ चुका वही सही” का सिद्धांत मान लें तो फिर ‘ग्य’ ही ठीक है, अन्यथा नहीं ।

संस्कृत के बारे में मेरी धारणा है कि इसकी प्रचलित लिपि पूर्णतः ध्वन्यात्मक है । हर वर्ण अथवा उसके तुल्य चिह्न (यथा स्वर की मात्रा) तथा उससे संबद्ध ध्वनि के बीच असंदिग्ध एवं अनन्य संबंध रहता है । यदि कहीं अपवाद दिखता है तो वह वक्ता के त्रुटिपूर्ण उच्चारण के कारण होगा, न कि संस्कृत की किसी कमी या विशिष्टता के कारण । मेरी टिप्पणी इसी सिद्धांत पर आधारित है । (मेरी टिप्पणी वरदाचार्यरचित ‘लघुसिद्धांतकौमुदी’ और स्वतः अर्जित संस्कृत ज्ञान पर आधारित है । लघुसिद्धांतकौमुदी पाणिनीय व्याकरण पर संक्षिप्त तथा प्राथमिक स्तर की टीका-पुस्तक है । व्यक्तिगत स्तर पर मेरा प्रयास है कि संस्कृत की घ्वनियों को एक भौतिकीविद् यानी फिजिसिस्ट की दृष्टि से समझूं । प्रतिष्ठित संस्कृतज्ञ मेरी बात से असहमत हो सकते हैं इस बात का मुझे भान है ।)

मेरी जानकारी के अनुसार ‘ज्ञ’ केवल संस्कृत मूल के शब्दों/पदों में प्रयुक्त होता है । (यह बात स्वर वर्ण ‘ऋ’ एवं विसर्ग पर भी लागू होती है । स्वर ‘ऌ’ तो लुप्तप्राय है ।) मेरे अनुमान से ऐसे शब्द/पद शायद हैं ही नहीं, जिनमें ‘ञ’ स्वतंत्र रूप से प्रयुक्त हो । यह वर्ण संयुक्ताक्षर के तौर पर जिनमें विद्यमान हो ऐसे पदों की संख्या भी मेरी जानकारी में बहुत कम है । उनमें भी अधिकतर वे पद हैं जिनमें प्रयुक्त संयुक्ताक्षर का आरंभिक वर्ण ‘ञ’ रहता है । उदाहरण: ‘अञ्चल’, ‘वाञ्छित’, ‘सञ्जय’, ‘झञ्झावात’ । हिंदी में अब ‘ञ’ के बदले अनुस्वार का प्रयोग होता है । तदनुसार हिंदी में पूर्वोक्त शब्द: ‘अंचल’, ‘वांछित’, ‘संजय’, ‘झंझावात’ लिखे जायेंगे । फलतः संस्कृत के नियमों के साथ संगति वाली वर्तनी देखने को नहीं मिलती है । (संस्कृत की स्थापित पद्धति के अनुसार इन पदों को अनुस्वार बिंदु के साथ लिखना अशुद्ध है!) मैं केवल ‘ज्ञ’ से परिचित हूं जिसमें ‘ञ’ संयुक्ताक्षर का द्वितीय व्यंजन (व्यञ्जन) है । पूर्वोक्त शब्दों के उच्चारण में हमारे मुख से च-छ-ज-झ के ठीक पहले अनुस्वार से व्यक्त अनुनासिक व्यंजन ‘ञ‌‍’ की ध्वनि निसृत होती है, जिसके प्रति हम कदाचित् सचेत नहीं रहते । अनुस्वार के प्रयोग के कारण हिंदी में ऐसे शब्द देखने को नहीं मिलते जिनमें ‘ञ’ स्पष्टतः लिखित हो । बहुतों को यह भी शायद मालूम न हो कि ‘ज्ञ’ वस्तुतः ‘ज’ एवं ‘ञ’ का संयुक्ताक्षर है । मुझे लगता है कि इन कारणों से ‘ज्ञ’ के उच्चारण के प्रति भ्रम व्याप्त है ।

ध्यान रहे कि संयुक्ताक्षर ज्ञ = ज्+ञ । ये दोनों संस्कृत व्यंजन वर्णमाला के ‘चवर्ग’ के क्रमशः तृतीय एवं पंचम वर्ण हैं । संस्कृत की खूबी यह है कि उसमें वर्णों का वर्ग-विभाजन उनके उच्चारण के ‘प्रयत्न’ (articulatory effort) के अनुरूप किया गया है । चवर्ग ‘स्पृष्ट – तालव्य’ कहलाता है, जिसका अर्थ यह है कि वर्ग के पांचों वर्णों के उच्चारण में मुख के भीतरी कोष्ठ की आकृति, मुख के भीतर जीभ की स्थिति, दांत-होंठ की भूमिका, आदि सब एक समान है और उनका मूल स्थान तालु है । उच्चारण में अंतर इन वर्णों के घोष/अघोष (voiced/voiceless), महाप्राण/अल्पप्राण (aspirated/inaspirated), एवं अनुनासिक/अननुनासिक- (nasal/non-nasal) होने के कारण है । वस्तुतः इन वर्णों के परस्पर भेद यूं लिखे जा सकते हैं (सभी तालव्य):
च – अघोष, अल्पप्राण (अननुनासिक )
छ –
अघोष, महाप्राण (अननुनासिक)
ज –
घोष, अल्पप्राण (अननुनासिक)
झ –
घोष, महाप्राण (अननुनासिक)
ञ –
घोष, अल्पप्राण, अनुनासिक
इस जानकारी के आधार पर यह समझना कठिन नहीं है कि ‘ञ’ के लिए हमें वही प्रयास करना पड़ता है जो ‘ज’ के उच्चारण में, अंतर केवल यह रहता है ‘ञ’ के मामले में स्वरतंतुओं (vocal chords) के साथ नासा गुहा (nasal cavity) में भी ध्वनिकंपन (अनुनादित?) होने लगते हैं । (वस्तुतः ऐसा सभी वर्गों के पंचम वर्ण तथा अनुस्वार के साथ होता है ।)

अनुनासिक अन्य वर्णों (ङ, ण, न तथा म) की भांति ‘ञ’ की अपनी विशिष्ट नासिक्य ध्वनि है, जो हिंदीभाषियों के ‘ग्य’ में है ही नहीं । यदि ‘ग्य’ के वदले ‘ग्यॅं’ (ग्य के ऊपर चंद्रबिंदु) प्रयुक्त होता तो भी कुछ बात होती । रोमन लिपि में विशेषक चिह्न (diacritical mark) के साथ ‘ञ्’ का निरूपण ñ और फोनेटिक निरूपण ɲ स्वीकारा गया है । (ङ्, ञ्, ण्, न्, म् = क्रमशः ṅ, ñ, ṇ, n, m विशेषकचिह्नित, एवं ŋ, ɲ, ɳ, n, m फोनेटिक ।)

उक्त जानकारी के अनुसार ज्ञ = ज्+ञ को विशेषक चिह्न के साथ रोमन में jña, एवं फोनेटिक लिपि में jɲa लिखा जाना चाहिए । संस्कृत की विशिष्टता ही यही है कि वर्तनी में जो वर्ण हों उच्चारण में वही विद्यमान रहें और उच्चारण में जो हो वही वर्तनी में दिखे । (वर्णों का उच्चारण सामान्यतः नहीं बदल सकता, किंतु यदि बदले तो फिर वर्तनी में भी संबंधित परिवर्तन दिखे । संधि के नियम परिवर्तन की अनुमति अथवा आदेश देते हैं । उदाहरणः जगत्+शरण्यम् = जगच्छरण्यम्, तद्+लीनः = तल्लीनः, यशस्+वर्धनः = यशोवर्धनः ।)

जानकारी होने के बावजूद मेरे मुख से ‘ज्ञ’ का सही उच्चारण नहीं निकल पाता है । पिछले पांच दशकों से ‘ग्य’ का जो उच्चारण जबान से चिपक चुका है उससे छुटकारा अभी भी नहीं मिल पा रहा है । वास्तव में गलत उच्चारण के आदी हो जाने के बाद सुधार करना सरल नहीं होता । और कोई सही उच्चारण बताने वाला ही न हो तो ?

प्रस्तुत विवेचना में स्पृष्ट, तालव्य, घोष/अघोष, महाप्राण/अल्पप्राण, अनुनासिक आदि तकनीकी शब्दों का प्रयोग किया गया है । संस्कृत भाषा में स्वर-व्यंजन वर्णों से संबद्ध ध्वनियों का बहुत बारीकी तथा वैज्ञानिक दृष्टि से वर्गीकरण किया गया है । इस वर्गीकरण की किंचित् विस्तार से चर्चा की जाए, तो संस्कृत की ध्वन्यात्मक विशिष्टता की प्रतीति हो सकती है । आगामी किसी पोस्ट में इस विषय की चर्चा करने का मेरा प्रयास रहेगा । – योगेन्द्र जोशी

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इंग्लिश, स्पेलिङ्, प्रोनंसिएशन – ऐसा भी देखने को मिलता है!

अगस्त 3, 2009

हम हिंदुस्तानियों का अंग्रेजी-मोह अद्वितीय और तारीफे-काबिल है । आम पढ़े-लिखे हिंदुस्तानी की दिली चाहत रहती है वह इतनी अंगरेजी सीख ले कि उसमें बिला रुकावट गिटिर-पिटिर कर सके और दूसरों को प्रभावित कर सके । अंगरेजी की खातिर विरासत में मिली अपनी मातृभाषा की अनदेखी करना भी उसे मंजूर रहता है । लेकिन सब कुछ करने के बावजूद कोई न कोई कमी रह ही जाती है । यह कमी कभी-कभी उच्चारण के स्तर पर साफ नजर आ जाती है । पत्रकारिता से जुड़े लोगों के मामले में यह कमी तब नजर में आ जाती है जब उन्हें अंगरेजी में उपलब्ध समाचार की हिन्दी अनुवाद करते हुए कुछ अंगरेजी शब्दों को देवनागरी में लिखना पड़ता है । आगे के चित्र में ऐसे दो दृष्टांत पेश हैं:

हिंदी में ज्ञ का उच्चारण कैसे किया जाता है? - hindee mein gy ka uchchaaran kaise kiya jaata hai?

गौर करें कि ऊपर दिये चित्र में अंगरेजी के दो शब्दों, ‘याचिंग’ एवं ‘वोग्यू’, को त्रुटिपूर्ण उच्चारण के अनुरूप देवनागरी में लिखा गया है । माथापच्ची करने पर मुझे एहसास हुआ कि ‘याचिंग’ वस्तुतः ‘यौटिंग (या यॉटिंग?)’ के लिए लिखा गया है जिसकी वर्तनी (स्पेलिंङ्) YACHTING होती हैं । YACHT वस्तुतः ‘पालदार या ऐसी ही शौकिया खेने के लिए बनी नाव को कहा जाता है । तदनुसार YACHTING संबंधित नौकादौड़ में भाग लेने का खेल होता है । जिस व्यक्ति ने इस शब्द का सही उच्चारण न सुना हो (रोजमर्रा की बातचीत में इसका प्रयोग ही कितना होगा भला!) और शब्दकोश की मदद न ली हो, वह इसे यदि ‘याचिंग’ उच्चारित करे तो आश्चर्य नहीं है । यह उच्चारण बड़ा स्वाभाविक लगता है । पर क्या करें, अंगरेजी कभी-कभी इस मामले में बड़ा धोखा दे जाती है

और दूसरा शब्द है ‘वोग्यू’ । समाचार से संबंधित चित्र में जो पत्रिका दृष्टिगोचर होती है उसका नाम है VOGUE नजर आता है । यह अंगरेजी शब्द है जिसका उच्चारण है ‘वोग’ और अर्थ है ‘आम प्रचलन में’, ‘व्यवहार में सामान्यतः प्रयुक्त’, ‘जिसका चलन अक्सर देखने में आता है’, इत्यादि । अपने स्वयं के अर्थ के विपरीत VOGUE प्रचलन में अधिक नहीं दिखता और कदाचित् अधिक जन इससे परिचित नहीं हैं । मैंने अपने मस्तिष्क पर जोर डालते हुए उन शब्दों का स्मरण करने का प्रयास किया जो वर्तनी के मामले में मिलते-जुलते हैं । मेरे ध्यान में ये शब्द आ रहे हैं (और भी कई होंगे):
argue, dengue, demagogue, epilogue, intrigue, league, prologue, rogue, synagogue, The Hague (नीदरलैंड का एक नगर), tongue.

इनमें से पहला, argue (बहस करना), एवं अंतिम, tongue (जीभ), सर्वाधिक परिचित शब्द हैं ऐसा मेरा अनुमान है । और दोनों के उच्चारण में पर्याप्त असमानता है । पहला ‘आर्ग्यू’ है तो दूसरा ‘टङ्’ । अतः बहुत संभव है कि मिलते-जुलते वर्तनी वाले अपरिचित नये शब्द का उच्चारण कोई पहले तो कोई अन्य दूसरे के अनुसार करे । उक्त उदाहरण में संभव है कि संवाददाता ‘आर्ग्यू’ से प्रेरित हुआ हो । समता के आधार पर उच्चारण का अनुमान अंगरेजी में अ संयोग से स्वीकार्य हो सकता है । सच कहूं तो argue की तरह का कोई शब्द मेरी स्मृति में नहीं आ रहा है । ध्यान दें कि सूची में दिये गये शब्द dengue (मच्छरों द्वारा फैलने वाला एक संक्रमण) का भी उच्चारण शब्दकोश ‘डेंगे’ बताते हैं, न कि ‘डेंग्यू’ या ‘डेंङ्’ । सूची के अन्य सभी के उच्चारण में परस्पर समानता है और वे इन दो शब्दों से भिन्न हैं ।

‘याचिंग’ तथा ‘वोग्यू’ टाइपिंग जैसी किसी त्रुटि के कारण गलती से लिख गये हों ऐसा मैं नहीं मानता । वास्तव में इस प्रकार के कई वाकये मेरे नजर में आते रहे हैं । हिंदी अखबारों में मैंने आर्चीव (archive आर्काइव के लिए), च्यू (chew चो), कूप (coup कू), डेब्रिस (debris डेब्री), घोस्ट (ghost गोस्ट), हैप्पी (happy हैपी), हेल्दी (healthy हेल्थी), आइरन (iron आयर्न), जिओपार्डाइज (jeopardize ज्येपार्डाइज ), ज्वैल (jewel ज्यूल), लाइसेस्टर (Leicester लेस्टर शहर), लियोपार्ड (leopard लेपर्ड), ओवन (oven अवन), सैलिस्बरी (Salisbury सॉल्सबरी शहर), सीजोफ्रीनिआ (schizophrenia स्कित्सफ्रीनिअ), आदि ।

दोषपूर्ण उच्चारण के अनुसार देवनागरी में लिखित शब्दों के पीछे क्या कारण हैं इस पर विचार किया जााना चाहिए । मेरा अनुमान है कि हिंदी पत्रकारिता में कार्यरत लोगों की हिंदी तथा अंगरेजी, दोनों ही, अव्वल दर्जे की हो ऐसा कम ही होता है । अपने देश में बहुत से समाचार तथा उन्नत दर्जे की अन्य जानकारी मूल रूप में अंगरेजी में ही उपलब्ध रहते हैं । मौखिक तौर पर बातें भले ही हिंदी में भी कही जाती हों, किंतु दस्तावेजी तौर पर तो प्रायः सभी कुछ अंगरेजी में रहता है । ऐसे में हिंदी पत्रकार अनुवाद के माध्यम से ही संबंधित जानकारी हिंदी माध्यमों पर उपलब्ध कराते हैं । व्याकरण के स्तर पर अच्छी अंगरेजी जानने वाले का उच्चारण ज्ञान भी अच्छा हो यह आवश्यक नहीं है, क्योंकि अंगरेजी में उच्चारण सीखना अपने आप में अतिरिक्त प्रयास की बात होती है । अतः समुचित अध्ययन के अभाव में त्रुटि की संभावना अंगरेजी में कम नहीं होती । तब अंगरेजी शब्द VOGUE एवं YACHTING का देवनागरी में क्रमशः ‘वोग्यू’ तथा ‘याचिंग’ लिखा जाना असामान्य बात नहीं रह जाती है ।

मेरी बातें किस हद तक सही हैं यह तो हिंदी पत्रकारिता में संलग्न जन ही ठीक-ठीक बता सकते हैं, अगर इस प्रयोजन से उन्होंने कभी अपने व्यवसाय पर दृष्टि डाली हो तो । अंगरेजी में उच्चारण सीखना कठिन कार्य है इसकी चर्चा मुझे करनी है । इस बात पर मैं जोर डालना चाहता हूं कि वर्तनी-साम्य देखकर उच्चारण का अनुमान लगाना अंगरेजी में असफल हो सकता है । अपने मत की सोदाहरण चर्चा अगली पोस्टों में मैं जारी रखूंगा । – योगेन्द्र

Posted by योगेन्द्र जोशी
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शंका समाधन: ‘long’, ‘song’ आदि का लिप्यंतरण कैसे हो?

अक्टूबर 30, 2008

गूगल (Google) की वेबसाइट पर हिन्दी-ग्रूप उपलब्ध है (पताः ), जिसके साथ उसके सदस्यगण पत्राचार कर सकते हैं, और हिन्दी संबंधी अपने समस्याओं, शंकाओं, सुझावों आदि की चर्चा कर सकते हैं । एक सदस्य होने के नाते मुझे वहां से ईमेल मिलती रहती हैं । हाल में मुझे भी एक ईमेल मिली जिसमें सवाल था:
“हिन्दी में ‘long’, ‘song’ आदि को कैसे लिप्यंतरित किया जाता है?”

मैं इस सवाल पर गंभीर नहीं था, अतः उस पर ध्यान देते हुए मैंने कोई सुझाव या प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की । हां, कुछ सदस्यों के तत्संबंधित विचारों पर अपनी नजर डालता रहा । उक्त अंग्रेजी शब्दों को कैसे लिखा जाये इस पर विभिन्न मत देखने को मिल रहे थे, यथा इन्हें ‘लॉन्ग, सॉन्ग’ अथवा ‘लॉङ्ग, सॉङ्ग’ लिखा जाये जैसी बातें कही गयी थीं ।

मैं दिये गये सुझावों से सहमत नहीं हो सका । मैं तो यही समझ रहा था कि इन शब्दों को ‘लॉङ्, सॉङ्’ लिखा जाना चाहिए इस बात में तो शंका होनी ही नहीं चाहिए । यहां ‘ला, सा’ के ऊपर अंकित अर्धचंद्राकार चिह्न (ऑ की मात्रा, जो हिन्दी के चंद्रबिंदु ँ से भिन्न है) अंग्रेजी के ‘औ’ के समान स्वर-ध्वनि के लिए कई जन प्रयोग में लेते हैं । चूंकि विभिन्न क्षेत्रों के अंग्रेजीभाषी उक्त शब्दों में विद्यमान वर्ण ‘o’ का एकसमान उच्चारण नहीं करते हैं (जैसे उत्तरी अमेरिका में यह ’आ’ के सन्निकट प्रतीत होता है), अतः कुछ लोग इन शब्दों को ‘लाङ्, साङ्’ लिखना ठीक समझेंगे, या फिर ’औ’ की ध्चनि को स्वीकारते हुए ‘लौङ्, सौङ्’ लिखना पसंद करेंगे । लेकिन मेरे मत में किसी भी प्रकार से इन शब्दों के हिन्दी वर्तनी में ‘ग’ शामिल नहीं किया जा सकता है । ऐसा इसलिए कि उनके उच्चारण में ‘ग’ की ध्वनि विद्यमान ही नहीं है ।

मुझे लगा कि इस बारे में अधिक विस्तृत चर्चा करना समीचीन होगा । कदाचित् कुछएक तथ्य पाठकों को रोचक एवं उपयोगी लगें । इसीलिए मैं अपने विचार यहां लिखने बैठा ।

सबसे पहले यह स्वीकारना वांछित होगा कि अंग्रेजी ध्वन्यात्मक (phonetic) भाषा नहीं है, अतः इसके शब्दों की वर्तनी (spelling) तथा उनसे संबद्ध उच्चारण में असंदिग्ध संबंध नहीं रहता है । वर्तनी देखकर उच्चारण का अनुमान तो लग सकता है, परंतु वह ठीक-ठीक तदनुसार ही होगा यह नहीं कहा जा सकता है । अतः अनुभव एवं अध्यास से लोगों को वर्तनी तथा उच्चारण, दोनों, सीखने पड़ते हैं ।

दूसरी तरफ भारतीय भाषाओं की लिपियां ध्वन्यात्मक (phonetic) हैं, अर्थात् उनमें लिखित लिपिचिह्नों और संबंधित उच्चारण में अनन्य संबंध रहता है । अतः जैसा बोला जाये वैसा ही लिखा जाये का सिद्धांत उन पर लागू होता है । यह अवश्य है कि प्रायः सभी भाषाओं में उच्चारण-दोष पाया जाता है और तदनुरूप उनमें वर्तनी संबंधित विकार यदा-कदा देखने को मिल जाता है । अथवा लिखा तो सही जा रहा हो, किंतु बोला गलत जाये यह हो सकता है । तब इसे अपवाद के तौर पर ही देखा जा सकता है । हिन्दी उच्चारण दोष से मुक्त नहीं । मेरी दृष्टि में प्रमुख उदाहरण हैं: (1) ‘ऋ’ का उच्चारण ‘रि’ की भांति करना, (2) विसर्ग के सही उच्चारण का ज्ञान न होना और फलस्वरूप ‘अतः’ को ‘अतह्’ की भांति बोलना, (3) ‘ज्ञ’ को ‘ग्य’ की तरह उच्चारित करना, (4) ‘ण’ का ठीक-ठीक उच्चारण न कर पाना, और (5) ‘श’ एवं ‘ष’ में भेद न कर पाना, आदि । यहां इतना कहना चाहूंगा कि मेरे मत में संस्कृत पूर्णतः ध्वन्यात्मक है और जैसा कि उसके नाम के अर्थ हैं, उसमें विकृत उच्चारण की अनुमति नहीं है ।

आरंभ में उल्लिखित प्रसंग के संदर्भ में अपनी बात को स्पष्ट करने के लिए मैं अंग्रेजी के ‘फ़ोनेटिक’ शब्दकोष का सहारा लेता हूं । इन शब्दोंकोशों से आम लोगों का परिचय कम ही देखने को मिलता है । ये शब्दकोष शब्दों की वर्तनी और उनसे संबंधित उच्चारण (शब्दार्थ के बिना) का विवरण स्वरघ्वनि (फ़ोनीम) की विशिष्ट लिपि में प्रदान करते हैं । (फ़ोनेटिक चिह्नों की जानकारी http://www.ipa.webstuff.org/तथा http://esl.about.com/library/weekly/aa040998.htm पर मिल सकती है ।) यदि आप ऐसे किसी शब्दकोष की मदद लें तो पायेंगे कि ‘long’, ‘song’ का उच्चारण यूं किया गया है:
lɔŋ, sɔŋ

यहां ɔ उस स्वर ध्वनि (कुछ के मतानुसार ‘औ’ के सन्निकट तथा दूसरों की राय मे ‘आ’ जैसा) को व्यक्त करता है जिस पर मैं प्रश्न नहीं उठा रहा हूं । ŋ वह अनुनासिक (nasal) व्यंजन ध्वनि है जो उन तमाम शब्दों में देखने को मिलती है जिनकी वर्तनी में ‘ng’ मौजूद रहता है । वस्तुतः यह वही घ्वनि है जो संस्कृत के वर्णमाला के ‘कवर्ग’ का अनुनासिक व्यंजन वर्ण ‘ङ’ व्यक्त करता है । ध्यान दें कि उच्चारण में ‘g’ शामिल नहीं है जो ‘ग’ की ध्वनि व्यक्त करे, अर्थात् शब्दकोष इनकी घ्वनि lɔŋg, sɔŋg नहीं दर्शाता । जहां कहीं भी ‘ङ’ के पश्चात् ‘ग’ की घ्वनि होगी वहां ‘g’ स्पष्टतः लिखा मिलेगा । इस बात को स्पष्ट करने के लिए मैं उदाहरण-स्वरूप इन दो शब्दों को लेता हूं:
finger तथा singer
दोनों की वर्तनी में आरंभिक वर्णों (f तथा s) के अलावा कोई अंतर नहीं, किंतु इनके उच्चारणों में स्पष्ट भेद है, जो क्रमशः यूं व्यक्त किये जाते हैं:
fiŋgə तथा siŋə
जिनमें ‘f’, ‘s’, ‘i’ तथा ‘ə’ क्रमशः ‘फ़’, ‘स’, ‘इ’, एवं ‘अ’ की घ्वनि व्यक्त करते हैं । ध्यान दें कि जहां पहले में ‘ग’ घ्वनि विद्यमान है वहीं दूसरे में वह नहीं है । जाहिर है कि ’singer’ को ‘सिङर’ के बदले ‘सिङ्गर’ उच्चारित करना गलत है, और ‘फिङ्गर’ को ‘फिङर’ नहीं बोला जा सकता है । (लेकिन व्यक्तिनाम Singer को ‘सिङ्गर’ ही बोला जाता है!)

वस्तुतः ‘sing’ से बने सभी शब्दों यथा ‘sang’, ‘sung’, ‘singer’, एवं ‘singing’ में ‘ग’ की ध्वनि कहीं नहीं । इस बात पर गौर करें कि क्रिया धातुओं से ‘ing’ जोड़कर बनाये गये क्रियापदों के उच्चारण में ‘ग’ नहीं रहता और तदनुसार यह प्रत्यय (suffix) ‘फ़ोनेटिक डिक्शनरी’ में ‘iŋ’ (न कि ‘iŋg’) से दर्शाया गया मिलेगा । इस पर भी ध्यान दें कि मानक अंग्रेजी में ‘r’ का स्पष्ट उच्चारण सदैव नहीं किया जाता है, बल्कि उसे ‘अ’ की भांति बोला जाता है । ऐसा विशेषतया शब्दांत ‘r’ और प्रायः किसी व्यंजन के पूर्व लिखित ‘r’ के साथ होता है । उदाहरणार्थ ‘car, durt, more, never’ का उच्चारण क्रमशः करीब-करीब ‘काअ, डअट, मोअ, नेवअ’ की तरह किया जाता है , किंतु ‘arise, during, running, road’ का उच्चारण क्रमशः ‘अराइज़्‌, ड्यूरिङ्, रनिङ्, रोड’ ही होता है । यह अलग बात है कि वर्तनी में मौजूद ‘r’ को प्रायः सभी भारतीय स्पष्टतः ‘र’ बोलते हैं ।

विशेषण शब्द ‘long’ के मामले में स्थिति कुछ भिन्न है । यद्यपि इसके उच्चारण में ‘ग’ घ्वनि नहीं है, परंतु इससे प्राप्त शब्दों ‘longer, longest’ में ‘ग’ की घ्वनि रहती है (लॉङ्गर, लॉङ्गिस्ट ) । दूसरी ओर क्रिया ‘long’ (चाहत रखना) से बने शब्दों के साथ ऐसा नहीं (जैसे ‘longing’ = लॉङिङ, लॉङ्गिङ्ग नहीं) ।

शब्दार्थ के लिए प्रयुक्त होने वाले शब्दकोशों में प्रायः उच्चारण का संकेत भी मिलता है, पर उसे दर्शाने के कोई मानक पद्धति नहीं है । अधिकांशतः सभी अपनी-अपनी पद्धति का विवरण देते हैं । मैंने आम तौर पर पाया है कि ये शब्दकोश ‘ङ’ की ध्वनि के लिए ‘ng’
प्रयोग में लेते हैं और यदि उसके साथ ‘ग’ की ध्वनि भी हो तो उसे ‘ngg’ से दर्शाते हैं ।

इतना सब इस बात पर जोर डालने के लिए कहा गया है कि अंग्रेजी वर्तनी देख भर लेने से देवनागरी में उसकी वर्तनी सही-सही नहीं लिखी जा सकती है जब तक कि उसके सही उच्चारण पर ध्यान न दिया जाये । इस संदर्भ में संस्कृत वर्णमाला की विशिष्टता का किंचित् ज्ञान उपयोगी सिद्व हो सकता है । इस विषय पर कुछ और अगले लेख में । – योगेन्द्र

Posted by योगेन्द्र जोशी
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‘योग’ कि ‘योगा’? उच्चारण दोष क्यों ?

अक्टूबर 25, 2008

व्यापक भौगोलिक क्षेत्र में बोली जाने वाली किसी भी भाषा में उच्चारण की एकरूपता का अभाव एक सामान्य बात है । अंग्रेजी को ही यदि हम लें तो पायेंगे कि उत्तरी अमेरिका की अंग्रेजी आस्ट्रेलिया की अंग्रेजी से उच्चारण में स्पष्टतः भिन्न रहती है, और दोनों ही ब्रिटिश अंग्रेजी से सर्वथा अलग ठहरती हैं । स्वयं ब्रिटेन में सर्वत्र समान उच्चारण की अंग्रेजी का अभाव मिलता है । तदनुसार स्काटलैंड तथा वेल्स की अंग्रेजी तथा ‘लंडनर्स’ की अंग्रेजी (जिसे मानक के तौर पर स्वीकारा गया है) में काफी अंतर दीखता है । यही हाल चीनी भाषा का भी है । चीन के उत्तरी क्षेत्र से दक्षिणी क्षेत्र तक एक ही लहजे और घ्वनियों की भाषा नहीं बोली जाती है । एक बार मेरी भेंट अमेरिका में एक चीनी युवक से हुयी थी, जो मूलतः ताइवान (रिपब्लिक आव् चाइना) का रहने वाला था और अमेरिका में वह ‘कंडक्टेड टुअर’ के ‘गाइड’ का कार्य करता था । उसका अंग्रेजी-उच्चारण अच्छे स्तर का नहीं था । बातों-बातों में उसने बताया था कि उसे चीन (पीपुल्स रिपब्लिक आव् चाइना) के उत्तरी क्षेत्र की बोली समझने में दिक्कत होती है । संयोग से मानक चीनी भाषा (चाइनीज मैंडरिन) की खूबी यह है कि इसकी लिपि सर्वत्र एक है । अतः लिखित तौर पर पूरे चीन में यह बखूबी पढ़ी तथा समझी जा सकती है और यही चीन के लिए लाभ की बात रही है । अन्यथा उच्चारित रूप में वहां भी लोगों को अड़चनें रहती हैं ।

वस्तुतः कोई भाषा किसी क्षेत्र में कैसे बोली जाती है यह वहां की भौगोलिक परिस्थिति, सामाजिक पृष्ठभूमि, सांस्कृतिक विरासत जैसे कई कारकों पर निर्भर करता है । यही कारण है हमारी हिन्दी सर्वत्र एक जैसी नहीं बोली जाती है । इस प्रकार देखा जा सकता है कि हरियाणा में बोली जाने वाली हिन्दी वही नहीं रहती जैसी आंध्र के हैदराबाद में अथवा बिहार के पटना में । संयोग से व्याकरण के नियमों के कारण लिखित हिन्दी कमोबेश सभी जगह एकसमान रहती है । उच्चारण भेद को हम एक दोष के रूप में न देख उस भाषा की स्थानीय विशिष्टता के तौर पर स्वीकार सकते हैं । यह समझना कठिन नहीं है कि क्षेत्रविशेष के सभी मूल निवासी स्वाभाविक तौर पर उसी उच्चारण के आदी होते हैं । हां, पढ़े-लिखे लोग परिष्कृत तथा मानक हिन्दी का आवश्यकतानुसार प्रयोग भी करते देखे जाते हैं ।

परंतु कभी-कभी नितांत अनुचित कारणों से, यथा लोगों की लापरवाही से, उच्चारण में कुछ नये प्रकार के प्रयोग देखने को मिलने लगते हैं जिसे एक दोष के तौर पर माना जाना चाहिए । हिन्दीभाषियों के उच्चारण में ऐसा दोष मैं उनके विदेशों से आयातित उच्चारण में देखता हूं । क्या है यह दोष ?

यह दोष है ‘योग’ शब्द का उच्चारण ‘योगा’ करना और फिर उसके अनुरूप शब्द को ही ‘योगा’ लिख देना । वस्तुतः ऐसे अनेकों उदाहरण उपलब्ध हैं । विचार करने पर मैंने अनुभव किया कि यह शब्द भारतीय योगविद्या के पाश्चात्य जगत् को निर्यात और फिर उसके ‘इंग्लिशीकृत’ तथा ‘परिष्कृत’ संस्करण के आयात के साथ ही यह शब्द हमारे पास पहुंचा है । हम भारतीयों की योगविद्या में रुचि बहुत पहले ही समाप्तप्राय हो चुकी थी । यह तो पाश्चात्य जिज्ञासुओं की योगविद्या पर कृपा हुयी कि उन्होंने उसके न केवल  लाभों को स्वीकारा अपितु उसे ‘परिष्कृत’ नाम ‘योगा’ के साथ इस देश को भेंट किया । चूंकि हम भारतीय (वस्तुतः इंडियन) आज भी गुलाम मानसिकता से मुक्त नहीं हो सके हैं, अतः देश की मौलिक भाषाओं में रुचि खो चुके पढ़े-लिखे लोगों ने जब यूरोप-अमेरिका के नागरिकों के मुख से ‘योगा’ की ध्वनि सुनी होगी तो उन्हें तुरंत विचार आया होगा कि शब्द ‘योग’ के उच्चारण में तो सुधार होना ही चाहिए और साथ ही उसकी वर्तनी (स्पेलिंग्) का भी ‘संस्कार’ किया जाना चाहिए । मैं उच्चारण के साथ वर्तनी की बात इसलिए कर रहा हूं कि मैंने लोगों के मुख से ‘योगा’ ही नहीं सुन रखा है, बल्कि कई स्थलों पर ‘योगा’ लिखा हुआ भी देखा है । कुल मिलाकर ‘योगा’ कहा और लिखा जाना चाहिए, क्योंकि यह यूरोप-अमेरिका के लोगों के उच्चारण पर आधारित है जिनका ज्ञान किसी भी क्षेत्र में हमसे श्रेष्ठतर है !

क्या ‘योगा’ उच्चारण दोषपूर्ण नहीं है ? वे लोग जो बेझिझक इस उच्चारण के साथ बात करते हैं उन्हें इस प्रश्न पर विचार करना चाहिए कि उन तमाम शब्दों का क्या होगा जो ‘योग’ के आगे उपयुक्त उपसर्ग (प्रीफिक्स) लगाने से प्राप्त होते हैं, यथा अभियोग, आयोग, उद्योग, उपयोग, दुर्योग, नियोग, प्रयोग, वियोग, संयोग, एवं सुयोग आदि । ‘संयोग’ से मैंने लोगों के मुख से अभी ‘उद्योगा’, ‘उपयोगा’ तथा ‘प्रयोगा’ नहीं सुना है । ये शब्द आम बोलचाल में अक्सर प्रयुक्त होते हैं । चूंकि ये शब्द विदेशियों के मुख से शायद ही कभी सुनने को मिलते हैं, अतः इनका उच्चारण हम पारंपरिक तरीके से ही करते हैं । पर जरा सोचिये कि जब ‘योग’ को ‘योगा’ उच्चारित किया जाये तो ‘प्रयोग’ को क्यों न ‘प्रयोगा’ बोला जाये ?

अकारांत शब्दों (जिनका अंत ‘अ’ स्वर ध्वनि के साथ हो) को आकारांत बनाकर बोलने-लिखने की बात केवल ‘योग’ तक सीमित नहीं है । अनेकों ऐसे शब्द हैं जो उच्चारण की दृष्टि से प्रदूषित हो चुके हैं, जैसे ‘अशोका’, ‘कृष्णा’, ‘बुद्धा,, ‘मोक्षा’, ‘रामा’, तथा ‘हिमालया’ आदि । टेलीविजन चैनलों पर मैंने “जब सूर्या मेषा राशि में इंटर करता है ।” जैसे कथनों को भारतीय पद्धति के भविष्यवक्ताओं के मुख से सुना है ।

उच्चारण वास्तव में दोषपूर्ण है इसे समझने के लिए इस सवाल पर मनन करें: क्या यूरोप के अंग्रेजी-भाषी लोग वास्तव में चर्चागत शब्द का उच्चारण ‘योगा’ ही करते होंगे ? प्रश्न का उत्तर पाने के लिए मैंने मानक अंग्रेजी शब्दकोशों का सहारा लिया । मैंने पाया कि ‘योग’ (जिसे yoga लिखा जाता है) के उच्चारण में अ की वही स्वरध्वनि सुनने को मिलती है जो अंग्रेजी के about तथा urgent में प्रथम और nation तथा local में द्वितीय स्वर ध्वनि में है । यह ध्वनि calm, fast, far, तथा ask आदि में विद्यमान आ से सर्वथा भिन्न है । अवश्य ही एक अंग्रेज भी ‘योगा’ नहीं बोलता है । हो सकता है कि हलंत सुनने के आदी हिंदीभाषियों को अ और आ में भेद अनुभव न होता हो ।

यहां पर मैं यह कहना चाहूंगा कि मेरी समझ में संस्कृत पूर्णतः ध्वन्यात्मक भाषा है, अर्थात् उसके लिपिचिह्नों (देवनागरी) एवं उच्चारित ध्वनियों के बीच एक-का-एक-से का अनन्य संबंध है । तदनुसार संस्कृत में जैसा लिखा जायेगा वैसा बोला जायेगा और जो बोला जा रहा हो वही लिखा जायेगा । लिखित चिह्नों तथा उच्चारित ध्वनियों के मध्य जो असंदिग्ध संबंध संस्कृत में विद्यमान है वह शायद किसी भी अन्य भाषा में नहीं उपलब्ध है ।

अधिकांश भारतीय भाषाओं (दो-तीन भाषाओं को छोड़कर जैसे तमिल तथा सिंधी) की वर्णमाला कमोबेश संस्कृत वाली ही है, भले ही उनमें दो-एक अतिरिक्त वर्ण घटा बढ़ा दिये गये हों, जैसे हिंदी में ड़ ढ़ तथा मराठी में ळ, आदि । अवश्य ही उनकी लिपियों में परस्पर भेद दिखता है । यह भेद बहुत गंभीर नहीं है, क्योंकि प्रायः सबका आधार प्राचीन ब्राह्मी लिपि रही है । परंतु इन भारतीय भाषाओं में उच्चारण की दृष्टि से वह शुद्धता देखने को नहीं मिलती है जो संस्कृत की विशिष्टता है । प्रायः सभी भाषाओं में उच्चारण संबंधी विकार उनके स्वरूप का स्थायी अंग बन चुके हैं । उदाहरणार्थ बांगला में ब तथा व, और ण तथा न में उच्चारण भेद देखने को नहीं मिलता है । इस प्रकार के विकार भाषाओं में स्थापित हो चुके हैं और उनकी विशिष्टता बन चुके हैं । किंतु ‘योग’ का ‘योगा’ उच्चारण इस प्रकार के विकारों में शामिल नहीं है और न ही इस विकार को स्वीकारे जाने की कोई आवश्यकता है ।

उच्चारण संबंधी एक विकार बोलचाल की हिंदी का हिस्सा बन चुका है और जिसमें सुधार की कोई संभावना नहीं है । यह विकार है अकारांत पदों का उच्चारण हलंत पदों की तरह किया जाना । इस प्रकार ‘कल’ का उच्चारण वैसे ही किया जाता है जैसे ‘कल्’ का (अर्थात् क्+अ+ल्) । इस पद के अंत का अकार अनुच्चारित ही रह जाता है, और यह ध्वनि ‘कला’ के अंत में विद्यमान आ की ध्वनि से स्पष्टतः भिन्न रहती है । हिंदी के इस प्रतिष्ठापित विकार के अनुसार ‘योग’ का उच्चारण ‘योग्’ जैसा होने पर कुछ भी अजूबा नहीं, किंतु ‘योगा’ जैसा तो अस्वीकार्य ही है । अकारांत कुछ पदों की ध्वनि कभी-कभी स्पष्ट सुनाई पड़ती है, भले ही वह अत्यल्पकालिक ही हो, जैसे ‘अन्त’, ‘पक्व’ तथा ‘अल्प’ आदि में ।

हिंदी के विपरीत संस्कृत में हलंत तथा अकारांत पदों के उच्चारणों में भेद स्पष्ट रहता है । इस प्रकार ‘कल’ के उच्चारण में पदांत अ ध्वनि विद्यमान रहती है (उच्चारण – क्+अ+ल्+अ) और यह आ की घ्वनि की तुलना में अल्पकालिक रहती है । ध्यान रहे कि अ ह्रस्व है और आ दीर्घ । दिलचस्प है कि दक्षिण भारतीय भाषाओं के बोलने वाले अकारांत पदों को हलंत उच्चारित नहीं करते हैं । वे वैसा ही उच्चारण करते हैं जैसा संस्कृत में । यह अंतर हिंदीभाषियों और कन्नड़भाषियों के संस्कृत बोलने में भी नजर आता है । कन्नड़भाषी ‘योग’ को वस्तुतः ‘य्+ओ+ग्+अ’ ही बोलता है जो हिंदीभाषियों को कदाचित् आकारांत लगता हो । इस दृष्टि से हिंदीभाषियों का संस्कृत उच्चारण स्तरीय नहीं माना जा सकता है । अब कुछ दक्षिण भारतीय भी ‘योगा’ बोलने लगे हों तो आश्चर्य नहीं होगा ।

हिंदीभाषियों के उच्चारण में अ का लोप अकारांत पदों तक ही सीमित नहीं है । पदों के अंदर भी ऐसा विकार अक्सर दिखाई पड़ता है । उदाहरणार्थ कई लोगों को गलती, जनता, छिपकली आदि शब्दों को क्रमशः गल्ती, जन्ता, छिप्कली आदि उच्चारित करते हुए सुना जा सकता है । अकार का यह विलोपन अभी कदाचित् स्वीकार्य नहीं है ।

कहने का तात्पर्य यह है कि ‘योग’ को ‘योग्’ और ‘राम’ को ‘राम्’ की भांति उच्चारित करना हिन्दी की विशिष्टता मानकर स्वीकारा जा सकता है । किंतु ‘राम’ को ‘रामा’ बोलना उतना ही हास्यास्पद माना जायेगा जितना ‘रम’ को ‘रमा’ बोलना । क्या ‘योग’ की तर्ज पर हम ‘भोग’, ‘रोग’, ‘ठग’, ‘शक’, एवं ‘काक’ इत्यादि का उच्चारण क्रमशः ‘भोगा’, ‘रोगा’, ‘ठगा’, ‘शका’, एवं ‘काका’ करना आरंभ कर देना चाहिए ? यदि नहीं, तो ‘योगा’ ‘रामा’ आदि के लिए इतना उत्साह क्यों है ? क्या इस प्रकार की मानसिकता पाश्चात्य लोगों के सापेक्ष हमारी हीनभावना का परिणाम तो नहीं ? सोचें । – योगेन्द्र

Posted by योगेन्द्र जोशी
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ज्ञ का उच्चारण कैसे किया जाता है?

ज्ञ देवनागरी लिपि का एक अक्षर है | यह ज् और ञ के संयोग से बना हुआ संयुक्त अक्षर है, परन्तु आजकल हिन्दी भाषा में इसका उच्चारण "ग्य" किया जाता है ।

ज्ञ क्ष त्र और श्र क्या कहलाते है?

क्ष, त्र, ज्ञ श्र क्या कहलाते हैं? यह चार व्यंजन संयुक्त व्यंजन कहलाते हैं.

ज्ञ कौन सा व्यंजन है?

ज्ञ यह एक संयुक्त व्यंजन है। जो ज और ञ के मिलने से बनता है। इसका उच्चारण ग्य होता है। ञ यह भी एक व्यंजन है जो च वर्ग के अंत में आता है च, छ, ज, झ, ञ।

क्ष त्र ज्ञ इन अक्षरों को क्या कहते हैं?

संयुक्त व्यंजन - जो व्यंजन 2 या 2 से अधिक व्यंजनों के मिलने से बनते हैं उन्हें संयुक्त व्यंजन कहा जाता है।