भगवान कृष्ण के अनुसार धर्म क्या है - bhagavaan krshn ke anusaar dharm kya hai

भगवान कृष्ण के अनुसार धर्म क्या है - bhagavaan krshn ke anusaar dharm kya hai

धर्म शब्द का अर्थ क्या है, धर्म क्या है, धर्म के कितने प्रकार है, हमारा क्या धर्म है? - इन विषयों पर इस लेख में विस्तार से जानेंगे। अगर आप सनातन धर्म के ग्रंथों में धर्म के बारे में पढ़ेंगे, तो धर्म की अनेकों परिभाषा दी गयी हैं। उन परिभाषा को पढ़ कर लोग यह सोचते है कि आखिर धर्म है क्या? जैसे महाभारत वनपर्व २०८.९ ने कहा “स्वकर्मनिरतो यस्तु धर्म: स इति निश्चय:।” अर्थात् अपने कर्म में लगे रहना निश्चय ही धर्म है। फिर महाभारत वनपर्व ३३.५३ ने कहा “उदार मेव विद्वांसो धर्म प्राहुर्मनीषिण:।” अर्थात् मनीषी जन उदारता को ही धर्म कहते है। फिर महाभारत शांतिपर्व १५.२ “दण्डं धर्म विदुर्बुधा:।” अर्थात् ज्ञानी जन दण्ड को धर्म मानते है। फिर महाभारत शांतिपर्व १६२.५ ने कहा “सत्यं धर्मस्तपो योग:।” अर्थात् सत्य ही धर्म है, सत्य ही तप है और सत्य ही योग है। फिर महाभारत शांतिपर्व २५९.१८ ने कहा “दातव्यमित्ययं धर्म उक्तो भूतहिते रतै:।” अर्थात् सभी प्राणियों के हित में लगे रहने वाले पुरुषों ने दान को धर्म बताया है। ऐसी परिभाषा केवल महाभारत में ही नहीं अन्य ग्रन्थों में भी है। अतएव इतनी सारी परिभाषाओं में से धर्म क्या है? यह जानने से पहले, यह जानते है कि धर्म शब्द का अर्थ क्या है?

धर्म शब्द का अर्थ

धारयति इति धर्मः - धर्म का अर्थ होता है “धारण करना”।
प्रश्न - क्या धारण करना चाहिए? उत्तर - जो धारण करने योग्य हो, उसे धारण करना चाहिए।
प्रश्न - क्या धारण करने योग्य है? उत्तर - जो धर्मग्रंथों ने कहा कि सत्य, क्षमा, विद्या, दया, दान आदि।

धर्म क्या है?

जो धारण करने योग्य है उसे धर्म कहते है। इसलिये जो उपर्युक्त महाभारत में कहा कि कर्म में लगे रहना, उदारता, दण्ड, सत्य, दान धर्म है। इसका अर्थ यह है की ये धारण करने योग्य है। इसलिये इस धर्म को निभाना चाहिए अर्थात् इनको धारण करना चाहियें। दुसरे शब्दों में जो सनातन धर्म के ग्रंथों में धर्म के बारे में कहा गया है कि ये धर्म है, ये अधर्म है और मनुष्य को धर्म का पालन करना चाहिए। इसका भाव यह है कि ये धरण करने योग्य है, ये धारण करने योग्य नहीं है और मनुष्य को धारण करना चाहिए एवं पालन करना चाहिए। उदाहरण के लिए -

कर्म में लगे रहना धर्म है। अर्थात् कर्म में लगे रहना धारण करने योग्य है।
उदारता धर्म है। अर्थात् उदारता धारण करने योग्य है।
सत्य धर्म है। अर्थात् सत्य धारण करने योग्य है।
दया धर्म है। अर्थात् दया धारण करने योग्य है।

एक प्रश्न मन में उठ सकता है कि ये धारण करने योग्य क्यों है? क्यों हम सत्य, क्षमा, विद्या, दया आदि को धारण करे? क्यों हम असत्य, क्रोध, अविद्या, क्रूरता आदि को नहीं धारण करे? ये ग्रंथ कौन होते है हमें सिखाने वाला। तो इसका उत्तर बड़ा सरल है - आप असत्य, क्रोध, अविद्या, क्रूरता को धर्म मानले यानी धारण करले। ऐसा करते ही, स्वयं का और पुरे समाज का बुरा दिन शुरु हो जायेगा। क्योंकि फिर कोई व्यक्ति किसी की मदत नहीं करेगा, हमेंसा झूट बोलेगा, पढाई नहीं करेगा यानी अज्ञानी बनेगा, जिससे समाज में अज्ञानता फैलेगी, लोग हिंसक हो जायेंगे। अस्तु, तो ऐसे असभ्य लोग एवं समाज की कल्पना ही भयभीत करती है। अतएव ग्रंथों ने ऐसे धर्मों को बताया; जो धारण करने योग्य है एवं जिससे स्वयं और समाज की उन्नति हो सके।

जहा तक रही बात हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई, जैन या बौद्ध आदि धर्मों की। तो ये सभी धर्म न होकर सम्प्रदाय या समुदाय मात्र हैं। “सम्प्रदाय” एक परम्परा या एक मत को मानने वालों का समूह है। अतएव इन्हें धर्म कहना सर्वथा असत्य है।

धर्म के प्रकार

धर्म दो प्रकार के होते है। क्यों? इसलिये क्योंकि धर्म का अर्थ है ‘धारण करना’, धारण करने के लिए हमारे पास दो चीजे है - पहला आत्मा और दूसरा शरीर। हम आत्मा है, परन्तु इस आत्मा को शरीर चाहिए कर्म करने के लिए। तो आत्मा और शरीर ये दो है इसलिए दो प्रकार के धर्म है। अब प्रश्न यह है की धारण करने वाला कौन है? उत्तर है मन। क्योंकि ब्रह्मबिन्दूपनिषद् २ ने कहा “मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः।” अर्थात् मन ही सभी मनुष्यों के बन्धन एवं मोक्ष का प्रमुख कारण है। इसलिए मन द्वारा ही कर्म होता है। अतएव दोनों प्रकार के धर्मों को धारण मन को करना है।

अस्तु, हमें दो चीज धारण करना है, एक आत्मा के लिए और एक शरीर के लिए। इस प्रकार दो धर्म हो गये, एक तो आत्मा का और दूसरा शरीर का। इसी कारण से वेदों में दो प्रकार के धर्मों का वर्णन है - १. आत्मा के लिए २.शरीर के लिए। अब इनको अलग-अलग ढंग से अनेक नामों से बताया गया है। वो जितने भी ढंग से बताये गए हो, या तो वो शरीर को धारण करने के लिए बताये गए होंगे या तो आत्मा को धारण करने के लिए बताये गए होंगे।

१. आत्मा के लिए

आत्मा का धर्म है - परमात्मा को धारण करना। अर्थात् आत्मा के लिए केवल भगवान धारण करने योग्य है। क्योंकि परमात्मा, आत्मा और माया ये तीन तत्व है। इनमें से आत्मा परमात्मा का अंश है, माया का नहीं। भागवत में कहा गया -

मुनयः साधु पृष्टोऽहं भवद्भिर्लोकमङ्गलम्।
यत्कृतः कृष्णसम्प्रश्नो येनात्मा सुप्रसीदति॥५॥
स वै पुंसां परो धर्मो यतो भक्तिरधोक्षजे।
अहैतुक्यप्रतिहता ययात्मा सुप्रसीदति॥६॥
- भागवत पुराण १.२.५-६

अर्थात् :- (श्री सूतजी ने कहा -) ऋषियों! आपने सम्पूर्ण विश्व के कल्याण के लिये यह बहुत सुन्दर प्रश्न किया है, क्योंकि यह प्रश्न श्री कृष्ण के सम्बन्ध में है और इससे भलीभाँति आत्मशुद्धि हो जाती है। मनुष्यों के लिये सर्वश्रेष्ठ धर्म वही है, जिससे भगवान श्री कृष्ण में भक्ति हो, वो भक्ति भी ऐसी, जिसमें किसी प्रकार की कामना न हो और जो नित्य-निरन्तर बनी रहे। ऐसी भक्ति से हृदय आनन्दस्वरूप परमात्मा की उपलब्धि करके कृतकृत्य हो जाता है।

श्री सूतजी ने कहा ‘अहैतुक्यप्रतिहता’ यानी किसी प्रकार की कामना न हो और नित्य-निरन्तर हो। अतएव भगवान को धारण करना ये आत्मा का धर्म है। और ये आत्मा का जो धर्म है वो नित्य-निरन्तर धर्म है अर्थात् सदा धारण करना है, किसी भी समय आत्मा के धर्म का त्याग नहीं करना है।

अतएव आत्मा का धर्म है - भगवान की उपासना (भक्ति) करना, जिसमें कामना न हो और वो उपासना नित्य-निरन्तर हो। इस आत्मा के धर्म में परिवर्तन नहीं होता क्योंकि आत्मा परिवर्तनशील नहीं है। सभी को भक्ति करनी चाहिए चाहे वो किसी भी अवस्था में हो।

२. शरीर के लिए

शरीर का धर्म है - माया को धारण करना। अर्थात् शरीर के लिए केवल माया धारण करने योग्य है। क्योंकि परमात्मा, आत्मा और माया ये तीन तत्व है। इनमें से शरीर संसार का अंश है यानी शरीर माया से (पंचतत्व से) बना है।

अब यह शरीर संसार में रहता है इसलिये संसार अच्छे से चले, उसके लिए क्या शरीर धारण करे वो ग्रंथों ने कहा है, जिसे हम वर्णाश्रम धर्म के नाम से जानते है। “वर्णाश्रम धर्म" वर्णा - “ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र”, और आश्रम - “ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास यह चार आश्रम हैं।” ध्यान दे - यह शरीर परिवर्तनशील है। इसलिए शरीर के सभी धर्म परिवर्तनशील है। जैसे १०० वर्ष की मनुष्य आयु के अनुसार २५ वर्ष ब्रह्मचर्य, फिर २५ वर्ष गृहस्थ, फिर २५ वर्ष वानप्रस्थ और २५ वर्ष संन्यास। यहाँ हर २५ वर्षों के बाद शरीर का धर्म बदल रहा है।

अस्तु, यह शरीर पंचतत्व (आकाश, पृथिवी, जल, अग्नि, हवा पंच तत्व) से बना है। इसलिये इस शरीर को पंचतत्व चाहिए तभी यह जीवित रह सकेगी। अर्थात् शरीर को आकाश चाहिए यानी खली जगह - हमारे शरीर में तमाम खली जगह है, फिर पृथिवी अर्थात् ठोस पदार्थ जैसे धातुएं आयरन (लोहा), फिर जल, फिर अग्नि (शरीर को गर्म रखने के लिए), फिर हवा। ये सब हमारे शरीर को धारण करना है जबतक जीवन है तब तक। तभी शरीर सही ढंग से चल पायेगा। अतएव हमारा आहार भी धर्म युक्त हो, यानी धारण करने योग हो। अन्यथा अधर्म युक्त भोजन (गलत भोजन) का सेवन करने से, यह शरीर सही नहीं चलेगा।

जिस प्रकार वर्णाश्रम धर्म परिवर्तनशील है, उसी प्रकार जो हम खाते है वो भी परिवर्तनशील है। युवा अवस्था में हम जो भोजन ग्रहण करते है, वो वृद्धा अवस्था में नहीं कर सकते। अतएव भोजन को भी अवस्था अनुसार बदल कर ग्रहण करना पड़ता है।

हमारा क्या धर्म है?

हम आत्मा है शरीर नहीं। इसलिए हमारा मुख्य धर्म तो आत्मा का ही है जो है भक्ति (उपासना) करना। परन्तु, भक्ति करने के लिए एक स्वस्थ शरीर एवं भक्ति के अनुकूल समाज चाहिए। अतएव जो वर्णाश्रम धर्म है इनका भी ठीक-ठीक पालन हो तभी एक अच्छा समाज बन पायेगा, जिसमें सभी व्यक्ति उपासना कर जीवन को सफल बनपायेंगे।

तो वर्णाश्रम धर्म जो शरीर का धर्म है वो परिवर्तनशील हैं। जैस ब्रह्मचर्य के बाद गृहस्थ, के बाद वानप्रस्थ और वानप्रस्थ के बाद संन्यास। ये बदलते जाते है। परन्तु, आत्मा का धर्म परिवर्तन शील नहीं हैं, क्योंकि आत्मा के धर्म का पालन ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास यह चारो आश्रमों में करना हैं। अर्थात् जो गीता ८.७ कहती है - “तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।”अर्थात् तू सब समय में मेरा स्मरण कर और युद्ध भी कर। यानी सब समय भक्ति अवश्य हो और शरीर के धर्म का भी पालन हो।

भगवत गीता में धर्म क्या है?

यह महाभारत के भीष्मपर्व का अंग है। गीता में 18 अध्याय और 700 श्लोक हैं। आज से (सन 2022) लगभग 5560 वर्ष पहले गीता जी का ज्ञान बोला गया था। गीता की गणना प्रस्थानत्रयी में की जाती है, जिसमें उपनिषद् और ब्रह्मसूत्र भी सम्मिलित हैं।

गीता के अनुसार मनुष्य का धर्म क्या है?

इस प्रकार धर्म का तात्पर्य यह है कि वह जो किसी वस्तु का अस्तित्व प्रकट करता है । जैसे सूर्य का धर्म प्रकाश है अग्नि का धर्म उष्णता है । धर्म का अर्थ केवल साधुता या नैतिकता नहीं है वरन अपने सच्चे स्वरूप को पहचान उसी के अनुरूप कार्य करना है । इस प्रकार मनुष्य का धर्म मानवता है ।

कृष्ण के अनुसार धर्म का क्या अर्थ है?

यहाँ श्री कृष्ण जी यह कह रहे है कि तू सभी धर्मों का परित्याग कर; याने जिनको तू (या संसार) धर्म समझकर बैठा है वह वास्विकता में धर्म नहीं है। धर्म तो सिर्फ एक ही है, जो शाश्वत है। सर्वान् धर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणम् व्रज ।

कृष्ण का कौन सा धर्म है?

श्रीकृष्ण, हिन्दू धर्म में भगवान हैं। वे विष्णु के 8वें अवतार माने गए हैं। कन्हैया, श्याम, गोपाल, केशव, द्वारकेश या द्वारकाधीश, वासुदेव आदि नामों से भी उनको जाना जाता है।