तुम साँप सम्य तो हुए नहीं नगर में बसना भी तुम्हें नहीं आया एक बात पूछँ उत्तर दोगे ?) तब कैसे सीखा डसना? - tum saanp samy to hue nahin nagar mein basana bhee tumhen nahin aaya ek baat poochhan uttar doge ?) tab kaise seekha dasana?

साप

साप तुम सभ्य तो हुए नहीं

नगर में बसना भी तुम्हे

नहीं आया।

एक बात पूछूं--(उतर दोगे?)

तभ कैसे सीखा डसना----

विश कहा पाया?

प्रसंग-

यह कविता हमारी पाठ्य पुस्तक छायावाद से ली गई है यह कविता अज्ञेय द्वारा लिखित है.... इसमें मनुष्य की तुलना सांप द्वारा की गई है कि कैसे मनुष्य सभ्य होकर भी असभ्य है।

व्याख्या

सांप एक ऐसा जानवर है जिससे मानवीय व्यवस्था के द्वारा सत्य नहीं कहा जा सकता। और ना ही वह नगरी व्यवस्था के अनुरूप रह सकता है इसलिए कवि को आश्चर्य होता है कि ना तो वह सत्य है और ना उसे शहर में रहना ही आता है किंतु उसका एक गुण है कि वह ड स्ता हैं और ऐसा विश्ववह मन करता है जैसे नगरों में शब्द फैलाने वाले लोग कृतज्ञ करते हैंअंत में कवि सांप को संबोधित करते हुए कहते हैं कि यह तो बताओ कि यह डसने की कला कहां से सीखी जबकि तुम वास्तव में नगर के निवासी नहीं हो वास्तव में मनुष्य एक दूसरे को दस्ते हैं अज्ञ जी द्वारा रचित मुक्तक काव्य नगरों में बसने वाले सभ्य कहलाने वाले लोगों पर तीखा व्यंग है नगर में अनेक ऐसे व्यक्ति है जो दिखने में तो सब कहलाते हैं किंतु उनके दांत विषधर से भी जहरीले हैं कवि का विचार है कि समाज में कई ऐसे लोग हैं जो से भी अधिक विषधारी होते हैं और समाज में ऐसा विश फैलाते हैं जिसका कोई इलाज नहीं होता है सांप वास्तव में सभ्य नहीं है और ना ही नगरवासी किंतु नगर में असभ्य जनों की भांति डसना जानता है।इस पर कवि को आश्चर्य है प्रस्तुत मुक्तक नगर में रहने वाले सभी जनों का वास्तव में कृतज्ञ जने होने के प्रति इशारा करना कवि का उद्देश्य है।


काव्य्य विशेषताएं

यह एक व्यंग्य्य्य कविता है।

शेली प्रभावशालीी एवं हृदयस्पर्शीी है।

मुक्तक छंद में रची गई रचना है।

भाषा शुद्ध खड़ी बोली है।


उपमा और उत्प्रेक्षाा अलंकार।

संदर्भ[सम्पादन]

"सांप" मुक्तक काव्य आधुनिक हिंदी साहित्य के कवि,शैलीकार,कथा-साहित्य को एक महत्वपूर्ण मोड़ देने वाले कथाकार,ललित-निबंधकार संपादक एवं अध्यापक श्री सच्चिदानंद हीरानंद वात्सायन"अज्ञेय"(जन्म-1911) जी के काव्य-संग्रह "इंद्र-धनु रौंदे हुए थे"(1954) से लिया गया है। अज्ञेय जी आधुनिक साहित्य के एक शलाका-पुरूष थे जिसने हिंदी साहित्य में भारतेंदु के बाद एक दूसरे आधुनिक युग का प्रवर्तन किया।

प्रसंग[सम्पादन]

'साँप' कवि साँप के माध्यम से मनुष्य की ओर संकेत करते हैं, कि भले ही साँप तुम नगर में बसने लगे पर सभ्य नही बन पाए,तो कैसे नगरी विचारधारा की भांति तुम्हे डसना आ गया और तुम्हे विष प्राप्त हुआ।मनुष्य के दोगले व्यक्तित्व की ओर कवि व्यंग्य करते हैं।

व्याख्या[सम्पादन]

कविवर अज्ञेय आधुनिक कलाकार के मर्मज्ञ एवं दार्शनिक कवि हैं। सांप कविता के आधार पर उन्होंने शहरों में रहने वाले कृतघ्न जनों को बड़े तीक्ष्ण ढंग से व्यंग किया है। सांप एक ऐसा जीव है, जिसे मानवीय व्यवस्था के अनुरूप सभ्य नहीं कहा जा सकता और ना ही नगरीय व्यवस्था के अनुरूप वह रह ही सकता है, फिर कवि को आश्चर्य होता है कि, वह ना तो सभ्य है और ना ही शहर में रहना उसे आता है किंतु उसका एक गुण है कि वह डसता है और ऐसा विष वमन करता है जैसे नगरों में सभ्य कहलाने वाले कृतघ्न लोग करते हैं। अतः कवि सांप को संबोधित करते हुए कहता है कि यह तो बताओ कि तुमने यह डसने की कला कहां से सीखी जबकि तुम वास्तव में नगर के निवासी नहीं हो। वास्तव में आज के परिपेक्ष्य में 'आदमी-आदमी को डस रहा है और सांप बगल में हंस रहा है'। अज्ञेय जी द्वारा रचित सांप मुक्तक काव्य नगरों में रहने वाले सभ्य कहलाने वाले व्यक्तियों पर एक तीखा व्यंग्य है। नगर में अनेक ऐसे व्यक्ति हैं जो दिखने में तो सभ्य लगते हैं किंतु उनके दंत(व्यवहार) सांप से भी अधिक विषैले होते हैं। कवि का विचार है कि सभ्य समाज में अनेक ऐसे लोग हैं जो सर्प से भी अधिक विषधारी हैं, और वे समाज में ऐसा विष फैलाते हैं जिसका कोई इलाज नहीं है। सांप वास्तव में सभ्य नहीं है और ना ही नगरवासी किंतु नगर में सभ्य जनों की भांति डसना जानता है, इस पर कवि को आश्चर्य होता है। प्रस्तुत मुक्तक नगर में रहने वाले सभ्य जनों को वास्तव में कृतघ्न होने के प्रति इशारा करना कवि का उद्देश्य है, और मानव मात्र को डसने वाले मनुष्य पर एकमात्र सांप के माध्यम से यह कविता व्यंग है।

विशेष[सम्पादन]

1. यह एक व्यंग्य कविता है। 2.मुक्तक छंद में रची गयी रचना है। 3.भाषा-शुद्ध खड़ी हिंदी बोली। 4.नगरीय कृतघ्न जनों की तुलना सांप से की गई है,इसलिए उपमा व उत्प्रेक्षा की छठा विद्यमान है। 5.शैली-प्रभावशाली एवं हृदयशाली।