संविधान की प्रस्तावना में पंथ निरपेक्ष शब्द कैसे जुड़ा? - sanvidhaan kee prastaavana mein panth nirapeksh shabd kaise juda?

भारत के संविधान में कैसे आया 'सेक्युलर' शब्द, क्या हैं इससे जुड़े विवाद  

एजुकेशन डेस्क, अमर उजाला Published by: Mohit Mudgal Updated Sun, 01 Dec 2019 09:59 AM IST

संविधान की प्रस्तावना में पंथ निरपेक्ष शब्द कैसे जुड़ा? - sanvidhaan kee prastaavana mein panth nirapeksh shabd kaise juda?

भारतीय संविधान - फोटो : Constitution of India

महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे के सीएम पद पर शपथ ग्रहण से पहले शिवसेना-एनसीपी-कांग्रेस के गठबंधन 'महा विकास अघाड़ी' के न्यूनतम साझा कार्यक्रम में सेक्युलरिज्म पर जोर के बाद इस पर चर्चा फिर तेज है। सीएमपी की प्रस्तावना में लिखा गया है, 'इस गठबंधन के साझेदार संविधान के सेक्युलर मूल्यों को बनाए रखने के लिए भी प्रतिबद्ध हैं। देश और राज्य के हित के मुद्दों पर खासतौर से देश के धर्मनिरपेक्ष तानेबाने को ध्यान में रखते हुए शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस भविष्य में मिलकर एक-दूसरे से सलाह करेंगे और तभी नतीजे पर निकलेंगे।'

इसी के साथ एक बार फिर सेक्युलर शब्द पर चर्चा शुरू हो गई है। सेक्युलर या पंथ निरपेक्ष शब्द को लेकर भारतीय राजनीति में हमेशा घमासान रहा है। इसे जानने से पहले हमें यह जानने की जरूरत है कि भारत के पंथ निरपेक्ष या सेक्युलर होने का क्या अर्थ है? एनसीआरटी के अनुसार पंथ निरपेक्ष होने का अर्थ है कि भारत नागरिकों को किसी भी धर्म को मानने की पूरी स्वतंत्रता है। लेकिन कोई धर्म आधिकारिक नहीं है। सरकार सभी धार्मिक मान्यताओं और आचरणों को समान सम्मान देगी।

भारत के संविधान की प्रस्तावना जब तैयार की गई तो शुरुआत में इसमें सेक्युलर शब्द नहीं था। साल 1976 में इमरजेंसी के दौरान प्रस्तावना में संशोधन किया गया, जिसमें 'सेक्युलर' शब्द को शामिल किया गया। इस पर एक पक्ष का मानना है कि संविधान में इससे पहले भी पंथ निरपेक्षता का भाव शामिल था। प्रस्तावना में सभी नागरिकों को विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता और समानता का अधिकार दिए गए हैं। 42वें संशोधन में 'सेक्युलर' शब्द को जोड़कर सिर्फ इसे स्पष्ट किया गया।

दूसरे पक्ष का यह मानना है कि संविधान की प्रस्तावना में 'समाजवादी', 'धर्मनिरपेक्ष' और 'अखंडता' जैसे शब्दों का जुड़ना और संविधान में मौलिक कर्तव्यों का शामिल होना एक सकारात्मक बदलाव का उदाहरण है। यही कारण है कि ये बदलाव आज भी हमारे संविधान का हिस्सा हैं, लेकिन इन चुनिंदा सकारात्मक प्रावधानों से कभी भी आपातकाल और उसकी आड़ में हुए संविधान संशोधनों की क्षतिपूर्ति नहीं की जा सकती थी।

 

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    क्या 'सेक्युलर' शब्द को संविधान से हटा सकती है सरकार?

    • सर्वप्रिया सांगवान
    • बीबीसी संवाददाता

    26 दिसंबर 2017

    संविधान की प्रस्तावना में पंथ निरपेक्ष शब्द कैसे जुड़ा? - sanvidhaan kee prastaavana mein panth nirapeksh shabd kaise juda?

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    क्या भारत के संविधान से 'सेक्युलर' शब्द हटाया जा सकता है, जैसी इच्छा केंद्रीय राज्य मंत्री अनंतकुमार हेगड़े ने जताई है?

    कर्नाटक के कोप्पल ज़िले में रविवार को ब्राह्मण युवा परिषद के कार्यक्रम में बोलते हुए 'सेक्युलरिज़्म' का विचार उनके निशाने पर था.

    उन्होंने कहा, "कुछ लोग कहते हैं कि 'सेक्युलर' शब्द है तो आपको मानना पड़ेगा. क्योंकि यह संविधान में है, हम इसका सम्मान करेंगे लेकिन यह आने वाले समय में बदलेगा. संविधान में पहले भी कई बदलाव हुए हैं. अब हम हैं और हम संविधान बदलने आए हैं."

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    अनंतकुमार हेगड़े

    उनके शब्द थे, "सेक्युलरिस्ट लोगों का नया रिवाज़ आ गया है. अगर कोई कहे कि वो मुस्लिम है, ईसाई है, लिंगायत है, हिंदू है तो मैं खुश होऊंगा. क्योंकि उसे पता है कि वो कहां से आया है. लेकिन जो खुद को सेक्युलर कहते हैं, मैं नहीं जानता कि उन्हें क्या कहूं. ये वो लोग हैं जिनके मां-बाप का पता नहीं होता या अपने खून का पता नहीं होता."

    संविधान में अब तक सौ से ज़्यादा संशोधन किए जा चुके हैं, लेकिन क्या संसद को यह अधिकार है कि वह संविधान की मूल प्रस्तावना को बदल सके?

    मिसाल है 44 साल पुराना ये केस

    पहली बार यह सवाल 1973 में सुप्रीम कोर्ट के सामने आया था. मुख्य न्यायाधीश एस एम सिकरी की अध्यक्षता वाली 13 जजों की बेंच ने इस मामले में ऐतिहासिक फैसला दिया था. यह केस था- 'केशवानंद भारती बनाम स्टेट ऑफ़ केरला', जिसकी सुनवाई 68 दिनों तक चली थी.

    संविधान के आर्टिकल 368 के हिसाब से संसद संविधान में संशोधन कर सकती है. लेकिन इसकी सीमा क्या है? जब 1973 में यह केस सुप्रीम कोर्ट में सुना गया तो जजों की राय बंटी हुई थी. लेकिन सात जजों के बहुमत से फैसला दिया गया कि संसद की शक्ति संविधान संशोधन करने की तो है लेकिन संविधान की प्रस्तावना के मूल ढांचे को नहीं बदला जा सकता है. कोई भी संशोधन प्रस्तावना की भावना के खिलाफ़ नहीं हो सकता है.

    यह केस इसलिए भी ऐतिहासिक रहा क्योंकि इसने संविधान को सर्वोपरि माना. न्यायिक समीक्षा, पंथनिरपेक्षता, स्वतंत्र चुनाव व्यवस्था और लोकतंत्र को संविधान का मूल ढांचा कहा और साफ़ किया कि संसद की शक्तियां संविधान के मूल ढांचे को बिगाड़ नहीं सकतीं. संविधान की प्रस्तावना इसकी आत्मा है और पूरा संविधान इसी पर आधारित है.

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    भारत के संविधान की प्रस्तावना

    पंथनिरपेक्षता हमेशा से है संविधान में

    प्रस्तावना में भी अब तक एक बार 1976 में संशोधन किया गया है जिसमें 'सेक्युलर' और 'सोशलिस्ट' शब्दों को शामिल किया गया. लेकिन इससे पहले भी पंथनिरपेक्षता का भाव प्रस्तावना में शामिल था.

    प्रस्तावना में सभी नागरिकों को विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता और समानता का अधिकार पहले से ही लिखित है. 1976 के 42वें संशोधन में 'सेक्युलर' शब्द को जोड़कर सिर्फ इसे स्पष्ट किया गया.

    जब संविधान के ढांचे को कमज़ोर करने की कोशिश की गई

    इंदिरा गांधी सरकार ने 1971 की जीत के बाद संविधान में कुछ ऐेसे संशोधन किए जिससे संसद की शक्ति अनियंत्रित हो गई. यहां तक कि अदालतों की आदेशों और फैसलों की न्यायिक समीक्षा की शक्ति को भी खत्म कर दिया.

    इसके बाद 1973 में केशवानंद भारती केस में सुप्रीम कोर्ट ने 703 पन्नों का फैसला दिया और स्पष्ट किया कि संसद की शक्तियां अनियंत्रित नहीं हैं.

    • पढ़ें: सेक्युलर शब्द का दुरुपयोग बंद हो: राजनाथ
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    इसके बाद वाजपेयी सरकार ने भी 1998 में संविधान की समीक्षा के लिए कमेटी बनाई. तब ये बहस उठी कि संविधान के मूल ढांचे के प्रभावित करने की कोशिश है, पंथनिरपेक्षता और आरक्षण को खत्म करने की कोशिश है.

    लेकिन तत्कालीन गृहमंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने उस वक्त एक लंबे लेख में केशवानंद भारती केस का ज़िक्र करते हुए लिखा कि सेक्युलरिज़्म भारत की संस्कृति में है.

    'द प्रिंट' ने इसी मसले पर वरिष्ठ वकील संजय हेगड़े से बात की. हेगड़े ने कहा, बाबा साहेब अम्बेडकर ने संविधान में साफ कहा है कि भारत का संविधान पूरी तरह धर्मनिरपेक्ष है. इसलिए इस पर अपना अधिकार जमाने की जरूरत नहीं है. धर्मनिरपेक्षता भारतीय संविधान का बुनियादी ढांचा है. 1994 में भी ऐसी स्थिति आई थी जब सुप्रीम कोर्ट के नौ जजों की बेंच को बैठाया गया था. हालंकि इसे बरकरार रखा गया.'

    उनका कहना है, "संसद में एक पार्टी का बहुमत होने के बावजूद भी संविधान की बुनियादी बिंदुओं को नहीं बदला जा सकता."

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    केशवानंद भारती केस में सरकार की ओर से संसद की असीमित शक्तियों के पक्ष में दलील दे रहे वकील एच एम सीरवई ने भी अपना किताब में माना कि सुप्रीम कोर्ट का संविधान के मूल ढांचे को बचाए रखने का फैसला सही था.

    हाल ही में उप-राष्ट्रपति वैंकेया नायडू ने राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग के लिए अपने भाषण में कहा था कि भारत सिर्फ इसलिए सेक्युलर नहीं है क्योंकि यह हमारे संविधान में है. भारत सेक्युलर है क्योंकि सेक्युलरिज़्म हमारे 'डीएनए' में है.

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    संविधान की प्रस्तावना में पंथनिरपेक्ष शब्द कैसे जुड़ा?

    धर्मनिरपेक्ष शब्द, भारतीय संविधान की प्रस्तावना में बयालीसवें संशोधन (1976) द्वारा डाला गया था। भारत का इसलिए एक आधिकारिक राज्य धर्म नहीं है। हर व्यक्ति को उपदेश, अभ्यास और किसी भी धर्म के चुनाव प्रचार करने का अधिकार है। सरकार के पक्ष में या किसी भी धर्म के खिलाफ भेदभाव नहीं करना चाहिए।

    भारतीय संविधान में पंथनिरपेक्षता क्या है?

    भारतीय संविधान में धर्मनिरपेक्षता शब्द की बजाय पंथनिरपेक्ष शब्द का प्रयोग 1976 में 42वें संविधान संशोधन के द्वारा संविधान की प्रस्तावना में शामिल किया गया है। ⇒ संविधान के अधीन भारत एक पंथनिरपेक्ष राज्य हैं, ऐसा राज्य जो सभी धर्मों के प्रति तटस्थता और निष्पक्षता का भाव रखता है।

    पंथनिरपेक्ष का मतलब क्या होता है?

    पंथ-निरपेक्ष का हिंदी अर्थ पंथों या संप्रदायों के परस्पर विरोधी विचारों से अप्रभावित; (सेक्युलर)।

    भारतीय संविधान की प्रस्तावना में धर्मनिरपेक्ष शब्द कब जोड़ा गया?

    सन 1976 में 42वें संविधान संशोधन अधिनियम द्वारा इसमें संशोधन किया गया था जिसमें तीन नए शब्द समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष और अखंडता को जोड़ा गया था I.