भारतीय अर्थव्यवस्था की वर्तमान संरचना के सूत्र इतिहास में बहुत गहरे है।भारत 15 अगस्त 1947 को स्वतंत्रा प्राप्ति के पूर्व दो सौ वर्षोो तक ब्रिटिश शासन के अधीन था।भारत में ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन का मुख्य उद्येश्य इंग्लैंड में तेजी से विससित हो रहे औद्योगिक आधार के लिए भारतीय अर्थव्यवस्था को केवल एक कच्चा प्रदायक तक ही सीमित रखना था.ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन की स्थापना से पूर्व भारतीय अर्थव्यवस्था स्वतंत्र थी। कृषि जनसामान्य की आजीविका और सरकार की आय का मुख्य स्रोत था,फिर भी विनिर्माण गतिविधियाँ भी जारी थी।सूती व रेशमी वस्त्रों,धातु आधारित तथा बहुमूल्य मणि-रत्न आदि से जुड़ी शिल्पकलाओं के उत्कृष्ट केन्द्र के रूप में भारत विश्व भर में सुविख्यात हो चुका था।भारत में निर्मित इन वस्तुओं का विश्व के बाजोरों में अच्छी सामग्री के प्रयोग तथा उच्च स्तर की कलात्मकता के आधार पर काफी प्रतिष्ठा प्राप्त था। [१] ढाका के मलमल ने उत्कृष्ट कोटि के सूती वस्त्र के रूप में विश्व भर में ख्याति अर्जित की थी। शाही मलमल 17 वीं शताब्दी में भारत आए फ्रांसीसी यात्री फ्रांस्वा बर्नीयर के अनुसार उस समय का बंगाल मिश्र से अधिक समृद्ध था ।यहां से सूती रेशमी वस्त्र,चावल ,शक्कर और मक्खन का प्रचुर मात्रा में निर्यात होता था। Show औपनिवेशिक शासन के दौरान निम्न-स्तरीय आर्थिक विकास[सम्पादन]ब्रिटिश अर्थशास्त्री एंगस मैडिसन के अनुसार, विश्व अर्थव्यवस्था अर्थात् वैश्विक सकल घरेलू उत्पादन(GDPमें भारत की हिस्सेदारी 1700 में 24.4% से घटकर 1950 में 4.2% हो गई। भारत की जीडीपी (पीपीपी) प्रति व्यक्ति मुगल साम्राज्य के दौरान स्थिर रही और ब्रिटिश शासन की शुरुआत से पहले ही गिरावट शुरू हो गई। [२] एंगस मैडिसन के आकलन के अनुसार,1000 ईस्वी से 2008 ईस्वी तक भारत सहित कई देशों का सकल घरेलू उत्पादन(GDP) में वैश्विक योगदान चित्र:वैश्विक सकल घरेलू उत्पादन(GDP) में भारत तथा अन्य देशों का योगदान।[३] वैश्विक औद्योगिक उत्पादन में भारत की हिस्सेदारी 1750 में 25% से घटकर 1900 में 2% हो गई।[४]इसी समय, विश्व अर्थव्यवस्था में यूनाइटेड किंगडम का हिस्सा 1700 में 2.9% से बढ़कर 1870 में 9% हो गया, [५]और ब्रिटेन ने भारत को 19 वीं शताब्दी में दुनिया के सबसे बड़े कपड़ा निर्माता के रूप में प्रतिस्थापित किया। भारतीय अर्थव्यवस्था जनसंख्या वृद्धि के अनुरूप 1890 से 1910 तक प्रति वर्ष लगभग 1% बढ़ी,[६] औपनिवेशिक शासकों ने कभी भी भारत की राष्ट्रीय तथा प्रतिव्यक्ति आय का आकलन करने का ईमानदारी से प्रयास नहीं किया।फिर भी देश की राष्ट्रीय तथा प्रति व्यक्ति आय का आकलन निजी स्तर पर दादा भाई नौरोजी,विलियम डिग्बी,फिंडले शिराज,डॉ वी.के. आर .वी.राव तथा आर.सी. देसाई ने किया।इनमें डॉ राव द्वारा लगाए गए अनुमान बहुत महत्वपूर्ण माने जाते हैं। इनके अनुसार बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में भारत की राष्ट्रीय आय की वार्षिक वृद्धि दर 2% से कम तथा प्रति व्यक्ति उत्पाद वृद्धि दर मात्र आधा प्रतिशत ही रही है।[७] देश की राष्ट्रीय तथा प्रति व्यक्ति आय का आकलन निजी स्तर पर दादा भाई नौरोजी विलियम डिग्री हिंदले सिराज डॉक्टर वीके आरवी राव तथा आरसी देसाई 1820 में भारत की जीडीपी विश्व का कुल 16% थी, 1870 तक यह गिरकर 12% हो गई और 1947 तक 4% तक गिर गई थी। भारत की प्रति व्यक्ति आय ब्रिटिश राज के दौरान अधिकांशतः स्थिर रही, इसकी अधिकांश जीडीपी वृद्धि का विस्तार आबादी से हुआ। 1850 से 1947 तक भारत की प्रति व्यक्ति जीडीपी 16% से थोड़ी ही बढ़ी,जो 533$(डॉलर) से बढ़कर 618$ हुई।(1990 के अंतर्राष्ट्रीय डॉलर में।)[८] कृषि क्षेत्रक[सम्पादन]औपनिवेशिक शासन से पूर्व भारत मूलत: कृषि अर्थव्यवस्था हीं बना रहा। उस समय भारत की 80% जनसंख्या गाँवों में बसी थी जो प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से कृषि के माध्यम से अपनी रोजी-रोटी कमा रही थी।अंग्रेजों के भू-राजस्व निर्धारण और संग्रहण के नये तरीके ने यहां के परंपरागत कृषि ढांचे को नष्ट कर दिया। कृषि क्षेत्र की गतिहीनता का मुख्य कारण औपनिवेशिक शासन द्वारा लागू की गई भूव्यवस्था प्रणाली थी।1757 के प्लासी के युद्ध के पश्चात् बंगाल की दीवानी प्राप्त करने के बाद कंपनी के गवर्नर-जनरल वारेन हेस्टिंग्स ने 1772 में बंगाल में द्वैध शासन व्यवस्था को समाप्त कर फार्मिंग सिस्टम (इजारेदारी प्रथा) की शुरुआत भू-राजस्व की वसूली के लिए की।फार्मिंग सिस्टम के अंतर्गत कंपनी किसी क्षेत्र या जिले के भू-क्षेत्र से राजस्व वसूली की जिम्मेदारी उसे सौंपती थी, जो सबसे अधिक बोली लगाता था।[९] प्रौद्योगिकी का निम्न स्तर,सिंचाई सुविधाओं का अभाव और उर्वरकों का नगण्य प्रयोग भी कृषि उत्पादकता के स्तर को बहुत निम्न रखने के लिए उत्तरदीयी था। कृषि के व्यवसायीकरण के कारण नकदी फसलों की उत्पादकता के प्रमाण भी मिले हैं मिलते हैं। परंतु उसका लाभांश किसानों को नहीं मिलता था।उन्हें तो खाद्दान्न की खेती के स्थान पर नकदी फसलों का उत्पादन करना पड़ता था,जिनका प्रयोग अंतत:इंग्लैंड में लगे कारखानों में किया जाता था। सिंचाई व्यवस्था में कुछ सुधार के बावजूद भारत बाढ़ नियंत्रण एवं भूमि की उपजाऊ शक्ति के मामले में पिछड़ा हुआ था।काश्तकारों के एक बड़े वर्ग तथा छोटे किसानों के पास कृषि क्षेत्र में निवेश करने के लिए न ही संसाधन थे न तकनीक और न हीं कोई प्रेरणा। औद्योगिक क्षेत्रक[सम्पादन]औपनिवेशिक शासन के दौरान देश की विश्व प्रतिष्ठित शिल्प कलाओं का पतन हो रहा था और उसका स्थान इंग्लैंड के तैयार वस्त्र ले रहे थे। वास्तव में भारत के औद्योगिकरण के पीछे विदेशी शासकों का दौरा उद्देश्य था। औपनिवेशिक शासकों द्वारा अपने देश इंग्लैंड के हितों के संरक्षण और संवर्धन के लिए निर्मित नीतियों ने भारत की अर्थव्यवस्था के स्वरूप को मूल रूप से बदल डाला।भारत इंग्लैंड को कच्चे माल की पूर्ति करने तथा वहांके बने तैयार माल का आयात करने वाला देश बनकर रह गया। एक तो वह भारत को इंग्लैंड में विकसित हो रहे लोगों के लिए कच्चे माल का निर्यात निर्यातक बनाना चाहते थे दूसरा उद्योगों के उत्पादन के लिए भारत को ही एक विशाल बाजार भी बनाना चाहते थे। उद्यमी जमशेदजी टाटा (1839-1904) ने 1877 में बॉम्बे में सेंट्रल इंडिया स्पिनिंग, वीविंग और मैन्युफैक्चरिंग कंपनी के साथ अपना औद्योगिक करियर शुरू किया। जबकि अन्य भारतीय मिलों ने ब्रिटेन से आयातित स्थानीय लघु-स्टेपल कपास और सरल मशीनरी का उपयोग करके सस्ते मोटे यार्न (और बाद में कपड़े) का उत्पादन किया, टाटा ने मिस्र से महंगे लंबे स्टेपल कपास आयात करके और संयुक्त राज्य से अधिक जटिल रिंग-स्पिंडल मशीनरी खरीदकर बेहतर प्रदर्शन किया। ब्रिटेन से आयात के साथ प्रतिस्पर्धा कर सकते हैं कि बेहतर यार्न स्पिन करने के लिए राज्यों 1860 में अहमदाबाद में पहला सूती वस्त्र मिल स्थापित पटसन उद्योग की स्थापना का श्रेय विदेशियों को दिया जा सकता है यह उद्योग केवल बंगाल प्रांत तक ही सीमित रहा टाटा आयरन एंड स्टील कंपनी की स्थापना 1960 में हुई दूसरे विश्व युद्ध के पश्चात(1939-45) चीनी सीमेंट कागज आदि के कारखाने स्थापित हुए। पूंजीगत उद्योगों यह तत्कालिक उपभोग में काम आने वाली वस्तुओं के उत्पादन के लिए मशीनों और कल पुर्जों का निर्माण करते हैं इसके अभाव के कारण औद्योगिकरण के विकास में समय लगा । जीडीपी में भी इसका योगदान काफी कम रहा इसने उत्पादन की एक और महत्वपूर्ण कमी यह थी कि इसमें रेल विद्युत उत्पादन संचार बंदरगाहों जैसे सीमित सार्वजनिक क्षेत्र की आप आए जिनका कार्यक्षेत्र बहुत कम था। विदेशी व्यापार और निवेश की सरकार की वस्तु उत्पादन व्यापार और सीमा शुल्क की प्रतिबंध कारी नीतियों के कारण भारत कच्चे उत्पादों का निर्यात अब होकर रह गया। निर्यात- रेशम कपास चीनी मील और पटसन आयात सूती रेशमी ऊनी वस्त्रों और इंग्लैंड के कारखानों में बनी हल्की मशीनों का आयातक आदि व्यापार लैंड तक सीमित रह से श्रीलंका और ईरान तक। निर्यात का आकार बड़ा होने के कारण आंतरिक बाजारों में अनाज कपड़ा और मिट्टी का तेल जैसी अनेक आवश्यक वस्तुएं उपलब्ध हो पाती थी इस निर्यात का देश में सोने और चांदी के प्रवाह पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा।
सन्दर्भ[सम्पादन]
स्वतंत्रता के समय भारतीय अर्थव्यवस्था कौन सी अर्थव्यवस्था थी?विभिन्न नीतिगत उपायों के द्वारा कृषि उत्पादन और उत्पादकता में वृद्धि हुई, जिसके फलस्वरूप एक बड़ी सीमा तक खाद्य सुरक्षा प्राप्त हुई । कृषि में वृद्धि ने अन्य क्षेत्रों में भी अधिकतम रूप से अनुकूल प्रभाव डाला जिसके फलस्वरूप सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था में और अधिकांश जनसंख्या तक लाभ पहुँचे ।
स्वतंत्रता के समय भारतीय अर्थव्यवस्था का प्रकार क्या था?भारतीय अर्थव्यवस्था स्वतंत्रता प्राप्ति के समय अल्पविकसित अर्थव्यवस्था थी। इसमें प्रतिव्यक्ति आय तथा औद्योगिक विकास का स्तर निम्न था । कृषि पर अधिक निर्भरता थी तथा आधारभूत संरचना बहुत पिछड़ी हुई अवस्था में थी। आयातों पर अधिक निर्भरता थी तथा गरीबी, बेरोजगारी व निरक्षरता जैसी सामाजिक चुनौतियाँ भारत में विद्यमान थीं ।
भारत ने कौन सी अर्थव्यवस्था को अपनाया है?यह भारत को इन तीनों वर्ष में पूरी दुनिया में सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था के रूप में पेश करता है। पहले पूर्वानुमान का हवाला देते हुए समीक्षा में बताया गया है कि भारतीय अर्थव्यवस्था के 2021-22 में सही मायने में 9.2 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज करने का अनुमान है जो 2020-21 में 7.3 प्रतिशत थी।
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