Apsara a hindi book by Suryakant Tripathi Nirala - अप्सरा - सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला Show प्रस्तुत है पुस्तक के कुछ अंशआधुनिक हिन्दी कविता के सर्वाधिक तेजस्वी और युगांतरकारी व्यक्तित्व सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला एक समर्थ, सोद्देश्य कथाकार के नाते भी सुप्रतिष्ठित हैं। काव्य-रचना के साथ-साथ उन्होंने जिन कई उपन्यासों की रचना की, उनमें अप्सरा पहला है यानी ‘निराला’
की कथा-यात्रा का प्रथम सोपान। अप्सरा को साहित्य में सबसे पहले मंद गति से सुंदर-सुकुमार कवि-मित्र सुमित्रानन्दन पंत की ओर बढ़ते हुए देखा, पंत की ओर नहीं। मैंने देखा, पंत जी की तरफ एक स्नेह-कटाक्ष कर, सहज फिरकर उसने मुझसे कहा, इन्हीं के पास बैठकर इन्हीं से मैं अपना जीवन रहस्य कहूँगी, फिर चली गई। वक्तव्यअन्यान्य भाषाओं के मुकाबले हिंदी
में उपन्यासों की संख्या थोड़ी है। साहित्य तथा समाज के गले पर मुक्ताओं की माला की तरह इने-गिने उपन्यास ही हैं। मैं श्री प्रेमचन्द जी के उपन्यासों के उद्देश्यों पर कह रहा हूँ। इनके अलावा और भी कई ऐसी रचनाएँ हैं, जो स्नेह तथा आदर-सम्मान प्राप्त कर चुकी हैं। इन बड़ी-बड़ी तोंदवाले औपन्यासिक सेठों की महफ़िल में मेरी दंशिताधरा अप्सरा उतरते हुए बिल्कुल संकुचित नहीं हो रही—उसे विश्वास है, वह एक ही दृष्टि से इन्हें अपना अनन्य भक्त कर लेगी। किसी दूसरी रूपवाली अनिंद्य सुंदरी से भी आँखें मिलाते हुए वह नहीं
घबराती, क्योंकि वह स्पर्द्धा की एक ही सृष्टि, अपनी ही विद्युत् से चमकती हुई चिर-सौंदर्य के आकाश-तत्त्व में छिप गई है। एकइडेन-गार्डेन में, कृत्रिम सरोवर के तट पर, एक कुंज के बीच, शाम सात बजे के करीब, जलते हुए एक प्रकाश-स्तंभ के नीचे पड़ी हुई एक कुर्सी पर सत्रह साल की चंपे की कली-सी एक किशोरी बैठी सरोवर की लहरों पर चमकती चाँद की किरणें और जल पर खुले हुए, काँपते, बिजली
की बत्तियों के कमल के फूल एकचित्त से देख रही थी। और दिनों से आज उसे कुछ देर हो गई थी, पर इसका उसे खयाल न था। दोकनक धीरे-धीरे अठारहवें वर्ष के पहले चरण में आ पड़ी। अपार अलौकिक सौंदर्य, एकांत में, कभी-कभी अपनी मनोहर रागिनी सुना जाता। वह कान लगा उसके अमृत-स्वर को सुनती पान किया करती। अज्ञात एक अपूर्व आनन्द का प्रवाह अंगों को अपाद-मस्तक नहला जाता। स्नेह की विद्युल्लता काँप उठती। उस अपरिचित कारण की तलाश में विस्मय से आकाश की ओर ताककर रह जाती। कभी-कभी खिले हुए अंगों के स्नेहभार में एक
स्पर्श मिलता, जैसे अशरीर उसकी आत्मा में कोई प्रवेश कर रहा हो। उस गुदगुदी में उसके तमाम अंग काँपकर खिल उठते। अपनी देह के वृंत अपलक खिली हुई ज्योत्स्ना के चंद्र-पुष्प की तरह, सौंदर्योज्ज्वल पारिजात की तरह एक अज्ञात प्रणय की वायु डोल उठती। आँखों में प्रश्न फूट पड़ता, संसार के रहस्यों के प्रति विस्मय। तीनधीरे-धीरे, ऋतुओं के सोने के पंख फड़का, एक साल और उड़ गया। मन के खिलते हुए प्रकाश के
अनेक झरने उसकी कमल-सी आँखों से होकर बह गए। पर अब उसके मुख से आश्चर्य की जग-ज्ञान की मुद्रा चित्रित हो जाती । वह स्वयं अब अपने भविष्य के तट पर तूलिका चला लेती है। साल-भर से माता के पास उसे नृत्य और संगीत की शिक्षा मिल रही है। इधर उसकी उन्नति के चपल क्रम को देख सर्वेश्वरी पहले की कल्पना की अपेक्षा शिक्षा के पथ पर उसे और दूर तक ले चलने का विचार करने लगी, और गंधर्व जाति के छूटे हुए पूर्व गौरव को स्पर्द्धा से प्राप्त करने के लिए उसे उत्साह भी दिया करती थी। कनक अपलक ताकती हुई माता के वाक्यों को
सप्रमाण सिद्ध करने का मन-ही-मन निश्चय करती, पतिज्ञाएँ करती। माता ने उसे सिखलाया, ‘‘किसी को प्यार मत करना। हमारे लिए प्यार करना आत्मा की कमजोरी है, यह हमारा धर्म नहीं।’’ चारअखबारों के बड़े-बड़े अक्षरों में सूचना निकली : शकुंतला ! शकुंतला !! शकुंतला !!! निराला द्वारा रचित अप्सरा क्या है?अप्सरा (निराला का उपन्यास) एक उपन्यास है। इसकी रचना भारत के महान कवि एवं साहित्यकार सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' ने की। यह उपन्यास ई॰ सन् १९३१ में प्रकाशित हुआ।
सूर्यकांत त्रिपाठी निराला द्वारा रचित कौन सी कविता है?गीतिका सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
पावन करो नयन ! भारती वन्दना-भारति, जय, विजय करे ! रे, न कुछ हुआ तो क्या ? वर दे वीणावादिनी वर दे !
अप्सरा किसकी रचना है?सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला'अप्सरा / लेखकnull
सूर्यकांत त्रिपाठी निराला को प्रगतिवाद का अग्रदूत क्यों कहा जाता है?इनमें कवि ने आत्म परक और अध्यात्म से सम्बन्धित कविताएं लिखीं हैं । निराला का प्रगतिवाद का दौर सन् 1941 से 1950 तक रहा है । इस तरह कहा जा सकता है कि निराला हिन्दी की प्रगतिशील और प्रगतिवादी कवियों में शीर्ष स्थान के अधिकारी हैं । हिन्दी में प्रगतिवाद के प्रवर्तन का श्रेय निराला के सिवाय और किसे मिल सकता है।
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