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आज के आर्टिकल में हम राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2005 (Ncf 2005 in Hindi) के बारे में विस्तार से जानकारी प्राप्त करेंगे ,इसके महत्त्वपूर्ण फैक्ट पढेंगे । आर्टिकल के अंत में परीक्षापयोगी महत्त्वपूर्ण प्रश्न भी दिए गए है । राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा, 2005 (National Curriculum Framework, 2005)
एन सी एफ क्या है – Ncf 2005 kya haiNCF 2005 एक डॉक्यूमेंट है ,अर्थात एक पाठ्यचर्या है अगर बिल्कुल आसान भाषा में जाने तो यह स्कूल में जितनी भी एक्टिविटी होती है उनका कच्चा चिटठा होता है । पाठ्यक्रम तो इसका हिस्सा होता है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 के अनुसार, ’’राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा, राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली को विकसित करने का एक साधन है, तथा शैक्षिक घटकों के साथ-साथ, यह भारत की भौगोलिक एवं सांस्कृतिक वातावरण की विविधता का उत्तरदायित्व निभाते हुए मूल्यों के सामान्य आधार निश्चित कर सके।’’ शिक्षा नीति 1986 के संदर्भ में 1988 में राष्ट्रीय पाठ्यचर्या प्राथमिक एवं माध्यमिक शिक्षा के लिए एक रूपरेखा को विकसित किया गया था। लगभग 12 वर्षा में अतंराल के बाद सन् 2000 में तथा तत्पश्चात् सन् 2005 में स्कूलीय शिक्षा के लिए राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा विकसित की गई। Ncf Full Form : National Curriculum FrameworkNcf Full Form in Hindi – राष्ट्रीय पाठ्यचर्या रूपरेखा राष्ट्रीय पाठ्यचर्या रूपरेखा, 2005 (NCF 2005) के ’नेशनल स्टेयरिंग कमेटी’ के अध्यक्ष के प्रो. यशपाल को नियुक्त किया गया। राष्ट्रीय पाठ्यचर्या 2005 प्रारम्भ करने के लिए 21 फोकस समूह बनाए गए जिन्होंने स्कूलीय शिक्षा का गहनता से अध्ययन किया और राष्ट्रीय स्तर पर इन पर चर्चा करने के पश्चात् इन्हें एनसीईआरटी(NCERT) द्वारा प्रकाशित किया गया। NCF 2005 का प्रमुख सूत्र- Learning Without Burdon (बिना भार के अधिगम) राष्ट्रीय पाठ्यचर्या 2005 के प्रमुख बिंदु – Salient Features🔶Ncf 2005 में स्कूलीय शिक्षा के प्रत्येक स्तर पर चर्चा की गई है। इसमें पूर्व प्राथमिक, प्राथमिक, उच्च प्राथमिक, माध्यमिक एवं उच्च माध्यमिक विद्यालय शामिल है । 🔷 इसके लिए 21 केन्द्र समूह (Center Group) बनाए गए थे। 🔶Ncf 2005 का मूल आधार भारतीय संविधान है- धर्म निरपेक्ष, समतावादी, बहुलतावादी समाज जो सामाजिक न्याय एवं समानता के प्रमुख मूल्यों पर आधारित है। 🔷 ज्ञान और सूचना के विभेद करना। 🔶 शिक्षण रटने के स्थान पर बोध के लिए। 🔷 बालक को संसार के ज्ञान के लिए क्रिया एक प्रमुख साधन है। छात्रों को स्वअध्ययन का अवसर मिले, प्राकृतिक संसार तथा सामाजिक वातावरण की खोज कर सके। 🔶 छात्र स्वयं ज्ञान का निर्माण कर सके। 🔷 पाठ्यचर्या समता, समावेशी शिक्षा के लिए। 🔶 पाठ्यचर्या का बोझ कम किया जाए। 🔷 पर्यावरण शिक्षा को अन्य स्कूली विषयों के साथ एकीकृत किया जाए। 🔶 एक मानवीय, छात्र-मित्रवत् मूल्यांकन प्रणाली विकसित की जाए। 🔷 ग्रेडिंग पर बल दिया जाए। 🔶 विद्यालय प्रणाली और अन्य नागरिक समूह में भागीदारी बनाई जाए। 🔷 विवेचनात्मक शिक्षा शास्त्र पर बल दिया जाए। 🔶 शिक्षा में गुणवत्ता और उत्तरदायित्व को निश्चित किया जाए। 🔷 अधिगम में छात्र की सक्रियता सुनिश्चित करना। 🔶 अधिगम में चिंतन की सरलता की उपलब्धता। 🔷 अधिगम में शैक्षिक तकनीकी की भव्यता। 🔶 समृद्ध, सम्पोषित, अनुभवात्मक अधिगम वातावरण उपलब्ध कराना। 🔷 सम्प्रेषण एवं सहभागिता को प्रोत्साहित करना। एन सी एफ 2005 का सारांश – Summary of NCF 2005राष्ट्रीय पाठ्यचर्या रूपरेखा, 2005 में पांच अध्याय दिए गए है।
Ncf 2005 की रूपरेखा के लक्ष्य – objectives of ncf 2005
अध्याय 1: परिप्रेक्ष्य (Perspective)परिचय:शिक्षा के मूल सरोकार आज भी निस्संदेह महत्त्व रखते है, ये हैं- बच्चों को इतना सक्षम बनान कि वे जीवन का अर्थ समझ सकें और अपनी योग्यताओं का विकास कर सके, अपने जीवन का एक उद्देश्य निश्चित करें और उसे प्राप्त करने का प्रयास करें तथा दूसरे व्यक्ति को भी ऐसा करने का अधिकार दे। शिक्षा को उन मूल्यों को प्रसारित करने में सक्षम होना चाहिए जो शांति, मानवता और सांस्कृतिक-विविधता वाले समाज में सहिष्णुता को पोषित करें। यह दस्तावेज ऐसी रूपरेखा प्रस्तुत करता है जिसके अंतर्गत शिक्षक व स्कूल उन अनुभवों का चुनाव कर सकते है और उनकी योजना बना सकते है, जो उनके अनुसार बच्चों के लिए लाभप्रद हो सकते है। शैक्षिक उद्देश्यों को पूरा करने के लिए पाठ्यचर्या की परिकल्पना ऐसी संरचना के रूप में की गई है। Ncf 2005 की रूपरेखा2000 का पुनरावलोकन विशेष रूप से बच्चे पर पाठ्यचर्या के बढ़ते बोझ की समस्या केा संबोधित करने के लिए उद्देश्य से आरंभ किया गया था। नब्बे के दशक की शुरूआत में मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने इस समस्या के विश्लेषण के लिए एक समिति (प्रो. यशपाल समिति, 1993) नियुक्त की थी जिसने इसके विश्लेषण के बाद पाया था कि इस समस्या की जङ में व्यवस्था की वह प्रवृत्ति है जो सूचना को ज्ञान समझती है। इसकी रिपोर्ट ’’शिक्षा बना बोझ के’’ में समिति ने इस बात की और इंगित किया कि स्कूलों में शिक्षा/पढ़ाई तब तक एक आनंदपूर्ण अनुभव नहीं हो सकता जब तक बच्चों के संबध में हम अपनी इस समझ को न बदल लें कि बच्चे ज्ञान के ग्रहणकर्ता मात्र हैं और पाठ्यपुस्तकें की परीक्षा का आधार है। ’शिक्षा बिना बोझ के’ (लर्निंग विदाउट बर्डन) ने पाठ्यक्रम व पाठ्यपुस्तकों की रूपरेखा में विशेष परिवर्तन लाने की सिफारिश की और इस बात की भी सिफारिश की कि समाज की इस मानसिकता में बदलाव आना चाहिए जो बच्चों पर उग्र रूप से प्रतिस्पद्र्धी बनने व असामान्य योग्यता दर्शाने के लिए दबाव डालती है। अध्यापन को बच्चे के रचनात्मक स्वभाव के सदुपयोग का माध्यम बनाने के लिए इस रिपोर्ट ने सिफारिश की कि स्कूली पाठ्यचर्या और परीक्षा व्यवस्था दोनों में, जो बच्चों को बहुत-सी जानकारी रटने और उसे उगलने के लिए विवश करती है, मूलभूत परिवर्तन किए जाएँ। पश्चावलोकन (Retrospect)महात्मा गांधी के शिक्षा को एक ऐसे माध्यम के रूप में देखा था, जो सामाजिक व्यवस्था में व्याप्त अन्याय, हिंसा व असमानता की प्रति राष्ट्र की अंतरात्मा को जगा सके। ’नयी तालीम’ ने आत्मनिर्भरता व व्यक्ति के आत्म-सम्मान पर जोर दिया था जो ऐसे सामाजिक संबंधों का आधार बने जिनकी खासियत हो समाज के भीतर व बाहर अहिंसा। गांधी जी ने सुझाया था कि बच्चे को रूपांतरित होते सामाजिक परिदृश्य का एक अंग बनाने के लिए बच्चे के आस-पास के पर्यावरण, जिसमें मातृभाषा एवं कार्य भी आते है, का एक साधन के रूप में उपयोग किया जाए। उन्होेंने ऐसे भारत का सपना देखा था जिसमें प्रत्येक बालक अपनी योग्यता व संभावनाओं की तलाश कर सके और दूसरों के साथ विश्व के पुनर्निर्माण के लिए काम कर सके, एक ऐसा विश्व जिसमें आज भी राष्ट्रों के बीच समाज के भीतर, तथा मानवता व प्रकृति के बीच संघर्ष बरकरार है। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान अभिव्यक्त शिक्षा सरोकारों को स्वतंत्रता के बाद, राष्ट्रीय आयोंगो द्वारा मुखरित किया गया। ये आयोग थे- माध्यमिक शिक्षा आयोग (1952-53) व शिक्षा आयोग (1964-66)। दोनों आयोगों ने बदले हुए सामाजिक-राजनैतिक संदर्भ में राष्ट्रीय विकास पर विशेष बल देते हुए महात्मा गांधी के शिक्षा-दर्शन मुख्य बिंदुओं को विस्तार दिया। वर्ष 1976 तक भारतीय संविधान के अंतर्गत राज्य सरकारों की स्कूली शिक्षा संबंधी सभी निर्णय लेने का अधिकार था। इसके अंतर्गत उनके अधिकार क्षेत्र में पाठ्यचर्या भी आती थी। इन परिस्थितियों में 1968 में राष्ट्रीय शिक्षा नीति और एन.सी. ई. आर. टी. (राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षा परिषद्) द्वारा 1975 में पाठ्यचर्या रूपरेखा की रचना की गई। 1976 में संविधान में संशोधन किया गया और शिक्षा के उत्तरादायित्व को समवर्ती सूची में लाया गया और पहली बार वर्ष 1986 में शिक्षा पर पूरे देश की एक राष्ट्रीय नीति बनी। शिक्षा की राष्ट्रीय नीति (1986) ने सिफारिश की कि पूरे देश की स्कूली पाठ्यचर्या के मूल में एक सर्वसामान्य (काॅमन कोर) तत्व हो। इस नीति ने राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद् को राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा विकसित करने व इस रूपरेखा की समय-समय पर समीक्षा करने का उत्तरदायित्व सौंपा। वर्ष 1975 के बाद पाठ्यचर्या संबंधी कार्य को जारी रखते हुए परिषद् ने कुछ अध्ययन किए व परामर्श दिए और अपनी गतिविधियों के एक भाग के रूप में वर्ष 1984 में पाठ्यचर्या की एक रूपरेखा भी तैयार की। इस गतिविधि का उद्देश्य था पूरे देश में गुणवता के स्तर पर स्कूली शिक्षा की तुलनीय अर्थात् लगभग समान बनाना तथा देश की विविधता पर समझौता न करते हुए शिक्षा को राष्ट्रीय एकता का माध्यम बनाना। ऐसे ही अनुभव पर आधारित परिषद् के कार्य की अततः परिणति हुई स्कूली शिक्षा के लिए राष्ट्रीय पाठ्यचर्या रूपरेखा, 1988 के रूप में। प्रोफेसर यशपाल की अध्यक्षता में गठित समिति की रिपोर्ट, जिसका शीर्षक था ’लर्निंग विदाउट बर्डन’ (शिक्षा बिना बोझ के), 1933 ने इस पहलू को स्पष्ट व सुसंगत रूप से रखा। National Curriculum Framework 2005’राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा’ को प्रायः गलत समझा गया है मानो यह एकरूपता लाने के लिए प्रस्तावित दस्तावेज हो। जबकि राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एन.पी.ई.) 1986 और प्रोग्राम ऑफ एक्शन (पी. ओ. ए.), 1992 में स्पष्ट किया गया उद्देश्य इसके ठीक विपरित था। ’एन. पीत्र ई.-पी. ओ. ए. ने 14 वर्ष की आयु तक सभी बच्चों को सार्वभौमिक नामांकन तथा गुणवत्ता में ठोस सुधार के लिए ’बाल केंद्रित उपगाम’ का विचार प्रस्तुत किया था।’ राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा की खासियत के रूप में प्रासंगिकता, लचीलापन तथा गुणवत्ता पर बल देते हुए पी. ओ. ए. ने एन. पी. ई. की दृष्टि को विस्तारित किया है। इस प्रकार इन दोनों दस्तावेजों ने राष्ट्रीय पाठ्यचर्या रूपरेखा की परिकल्पना शिक्षा व्यवस्था को आधुनिक बनाने के साधन के रूप में की। Principles of NCF 2005(मार्गदर्शी सिद्धांत)हमें व्यवस्थागत मुद्दों पर ध्यान देने व उन्हें नियोजित करने की आवश्यकता है जिससे हम उन अनेक अच्छे विचारों को कार्यान्वित कर सकें जिनके बारे में पहले भी बात की जा चुकी है। इनमें सबसे अहम
बच्चे काफी कुछ सहजता से अपने परिवेश में बङे होते हुए सीख लेते है। उनकी जिज्ञासाओं से पाठ्यचर्या अधिक समृद्ध और रचनात्मक बनेगी, इन सुधारों से स्वीकृत पाठ्यचर्या की सिद्धान्तों- ’ज्ञात से अज्ञात की ओर’, ’मूर्त से अमूर्त की ओर’ और ’स्थानीय से वैश्विक की ओर’ की बल मिलेगा। इस उद्देश्य के लिए स्कूली शिक्षण के सभी आयामों में विवेचनात्मक शिक्षाशास्त्र को अपनाने की आवश्यकता है, जिनमें शिक्षक शिक्षा भी शामिल है। बच्चों को पर्यावरण व पर्यावरण संरक्षण के प्रति संवेदनशील बनाना भी पाठ्यचर्या का एक महत्वपूर्ण सरोकार है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986 ने इस आवश्यकता पर जोर दिया कि पर्यावरण को शिक्षा के सभी स्तरों पर व समाज के सभी वर्गों के लिए समाहित कर पर्यावरण संबंधी सरोकार के प्रति जागरूकता पैदा की जाए। एक व्यक्ति के व्यक्तितव का भलीभांति विकास एक ऐसे माहौल में ही संभव हो सकता है जो शांतिपूर्ण हो। एक अशांत प्राकृतिक व सामाजिक वातावरण अक्सर मानव संबंधों में तनाव लाता है जिससे असहिष्णुता व संघर्ष पैदा होता है। शांति की संस्कृति का निर्माण करना शिक्षा का निर्विवाद उद्देश्य है। शिक्षा सार्थक तभी हो सकती है जब वह व्यक्ति को इतना समर्थ बनाए ताकि वह शांति को जीवन शैली के रूप में चुन सके और संघर्ष को सुलझाने की क्षमता रखे न कि केवल संघर्ष का एक निष्क्रिय दर्शक बने। राष्ट्र के रूप में हम एक मुखर व सक्रिय लोकतंत्र को कायम रखने में सफल हुए है। गुणवत्ता के आयाम (Quality dimensions)श्री जे. पी. नायक ने समानता, गुणवत्ता व परिमाण को भारतीय शिक्षा का ’दुग्र्राह्य त्रिकोण’ बताया था। इस ’दुर्गाह्य त्रिकोण’ को समझने के लिए अभी तक उपलब्ध गुणवत्ता की गहन सैद्धांतिक समझ से अपेक्षाकृत अधिक गहरे अध्ययन की आवश्यकता है। भौतिक संसाधन अपने आप में गुणवत्ता के द्योतक नहीं माने जा सकते फिर भी सरकार या स्थानीय संस्थाओं द्वारा संचालित स्कूलों में भौतिक संसाधनों की अत्यधिक व दीर्घकालिक कमी जिसमें मूल ढाँचागत सुविधाओं की कमी भी शामिल है, गुणवत्ता को गंभीर रूप से सीमित करती है। योग्य व उत्साही शिक्षकों को उपलब्धता जो अध्यापन को कैरियर के विकल्प के रूप में देखते है, स्कूलों के सभी वर्गों में गुणवत्ता की एक आवश्यक शर्त है। बच्चों के लिए जानकारी व हुनर के संदर्भ में परिकल्पित (संरचित) अनुभवों के दृष्टिकोण से भी गुणवत्ता के आयाम को परखना एवं पाठ्यक्रम में सुधार आवश्यक है। शिक्षा के समक्ष सबसे बङी राष्ट्रीय चुनौती है, हमारे सहभागिता-आधारित लोकतंत्र व संविधान में प्रतिस्थापित मूल्यों को सुदृढ़ करना। इस चुनौती का सफलतापूर्वक सामना करने का अर्थ है कि हम गणुवत्ता और सामाजिक न्याय को पाठ्यचर्या में सुधार का केंद्रीय बिंदु बनाएँ। शिक्षा का सामाजिक संदर्भ (Social Context of Education)शिक्षा व्यवस्था का उस समाज से अलग-थलग होकर काम नहीं करती जिसका वह एक भाग है। जातिगत, आर्थिक तथा स्त्री-पुरुष संबंधों का पदानुक्रम, सांस्कृतिक विविधता और असमान विकास से, जो भारतीय समाज की विशेषताएँ है, शिक्षा की प्राप्ति और स्कूलों में बच्चों की सहभागिता, प्रभावित होती है। असमान लैंगिक संबंध न केवल वर्चस्व को बढ़ावा देते है बल्कि वे लङके-लङकियों में तनाव भी पैदा करते है तथा उनकी मानवीय क्षमताओं के पूर्ण विकास की स्वतंत्रता में बाधा पहुँचाते है। यह सबके हित में है कि मनुष्य को लिंग असमानताओं से मुक्त कराया जाए। शिक्षा के लक्ष्य (Target of Education)शिक्षा के लक्ष्यों में व्यापक दिशानिर्दश है जो शैक्षणिक प्रक्रियाओं के तय किए गए आदेशों जो स्वीकृत सिद्धांतों से संगति बिठाने में मदद करते है। शिक्षा के लक्ष्य समाज की मौजूदा महत्त्वाकांक्षाओं व जरूरतों के साथ शाश्वत मूल्यों तथा समाज के तात्कालिक सरोकरों सहित वृहद मानवीय आदर्शों को भी प्रतिबिंबित करते है। इन्हें व्यापक और शाश्वत मानवीय आकांक्षाओं और मूलयों की समकालीन और प्रासंगिक अभिव्यक्ति कहा जा सकता है। मार्गदर्शक सिद्धांत सामाजिक मूल्यों को परिप्रेक्ष्य प्रदान करते है, जिसमें हम अपने शैक्षिक उद्देश्यों को रख सकते है। पहला है लोकतंत्र, समानता, न्याय, स्वतंत्रता, परोपकार, धर्मानिरपेक्षता, मानवीय गरिमा व अधिकार तथा दूसरे कारण और प्रति आदर जैसे मल्यों के प्रति प्रतिबद्धता। शिक्षा का उद्देश्य कारण और समझ पर आधारित इन्हीं मूल्यों के प्रति प्रतिबद्धता का निर्माण करना होना चाहिए। अध्याय 2ः सीखना और ज्ञान (Learning and Knowledge),Ncf 2005बचपन विकास और निरंतर बदलाव की अवस्था है जिसमें शारीरिक एवं मानसिक क्षमताओं का पूर्ण विकास शामिल होता है। इस विकास में वयस्क समाज में समाजीकृत होना भी शामिल है जिसमें बच्चा संसार का ज्ञान ग्रहण करता है और नए ज्ञान का सृजन भी करता है। बच्चा अपने आप को दूसरों से जोङ कर देखना सीखता है जिससे उसकी समझ बनती है, वह कार्य कर पाता है और रूपांतरण कर पाता है। समाज के हरेक नयी पीढ़ी को विरासत में संस्कृति एवं ज्ञान का एक भंडार मिलता है, जिसे वह अपनी गतिविधियों तथा समझ से समाहित करते हुए नया ज्ञान रचने की सार्थकता महसूस करता है। सक्रिय विद्यार्थी की प्राथमिकतासमाज में मिलने वाली अनौपचारिक शिक्षा, विद्यार्थी में अपना ज्ञान स्वयं सृजित करने की स्वभाविक क्षमता को विकसित करती है। जिससे विद्यार्थी में अपने आस-पास के सामाजिक एवं भौतिक वातावरण से और विभिन्न कार्यों से जुङने की क्षमता बढ़ती है। स्कूल औपचारिक शिक्षा की जिन प्रक्रियाओं को संभव बनाता है वे विद्यार्थियों के जीवन में समझ व दुनिया से जुङने की नयी संभावनाएँ खोल सकती है। पाठ्यचर्या का वर्तमान सरोकार बच्चों को सार्थक अनुभव देने वाली तथा समाहित करने वाली शिक्षा प्रदान करने का है। बाल केंद्रित शिक्षा-शास्त्र का अर्थ है बच्चों के अनुभवों, उनके स्वरों और उनकी सक्रिय सहभागिता को प्राथमिकता देना। इस प्रकार के शिक्षा-शास्त्र में बच्चों के मनौवैज्ञानिक विकास व अभिरूचियों के मद्देनजर शिक्षा को नियोजित करने की आवश्यकता होती है। प्रायः अच्छे विद्यार्थी की जिस धारणा को प्रोत्साहित किया जाता है। उसमें अध्यापकों की आज्ञा का पालन, नैतिक चरित्र और अध्यापक के शब्दों को ’आधिकारिक’ ज्ञान की तरह स्वीकार शामिल है। विद्यार्थी को संदर्भ में रखनाबच्चों की आवाज व अनुभवों को कक्षा में अभिव्यक्ति नहीं मिलती। बच्चे विकास केवल अध्यापक के सवालों का जवाब देने के लिए या अध्यापक के शब्दों को दोहराने के लिए ही बोलते है। उन्हें पहल करने के अवसर भी नहीं मिलते है। इस उद्देश्य से पाठ्यचर्या का ’पुर्नउन्मुखीकरण’ (Reconsidering orientation) हमारी सबसे बङी प्राथमिकताओं में से एक होना चाहिए ताकि अध्यापकों के प्रशिक्षण, स्कूलों की वार्षिक योजना, पाठ्यपुस्तकों की रूपरेखा, शैक्षणिक सामग्री व योजनाओं, मूल्यांकन व परीक्षा व्यवस्था में भी बदलाव लाया जा सके। बच्चे उसी वातावरण में सीख सकते है जहाँ उन्हें लगे कि उन्हें महत्त्वपूर्ण माना जा रहा है। हमारे स्कूल आज भी सभी बच्चों को ऐसा महसूस नहीं करवा पाते। विकास और सीखना (Development and Learning)शैशवकाल से किशोरावस्था तक का समय बहुत तेजी से होने वाले विकास और परिवर्तन का होता है। सीखने व विकास के प्रति पाठ्यचर्या का ऐसा रूख होना चाहिए जो शारीरिक व मानसिक विकास के बीच अंतर्संबंध को देख सके और उनके विभाजन से ऊपर उठ सके। शारीरिक विकास, विशेषकर छोटे बच्चों में मानसिक व संज्ञानात्मक विकास में मददगार है। सोचने व तर्क करने की क्षमता, स्वयं व दुनिया को समझने तथा भाषा का प्रयोग करने का सामर्थ्य अकेले व परस्पर मिलकर काम करने और दूसरों से अंतःक्रिया करने से घनिष्ट रूप से जुङा हुआ है। संज्ञानात्मक विकाससंज्ञान का अर्थ है कर्म व भाषा के माध्यम से स्वयं और दुनिया को समझना। सार्थक अधिगम है ठोस चीजों एवं मानसिक द्योतकों को प्रस्तुत करने व उसमें बदलाव लाने की उत्पादक प्रक्रिया न कि जानकारी इकट्ठा कर उसे रटना। आरम्भ में बच्चों की संज्ञानात्मक प्रवृत्ति ’यहाँ’ और ’अभी’ के बारे में जानने की होती है, वे ठोस अनुभवों पर तर्क और कार्य करते है। जैसे-जैसे उनकी भाषायी क्षमता और दूसरों के साथ काम करने के सामर्थ्य का विकास होता है, उनके कार्यों में अपेक्षाकृत अधिक जटिल विवेचना की संभावनाएँ खुलती जाती है जिनमें अमूर्तीकरण नियोजन व वे उद्देश्य समाहित होते है जो तत्काल दिखाई नहीं देते। इस तरह काल्पनिक विचारों के साथ काम करने तथा संभावनाओं की दुनिया में विवेचन करने की क्षमता बढ़ती जाती है। अतः अवधारणात्मक विकास संबंधों को समृद्ध और प्रगाढ़ बनाने व नए अर्थों को प्राप्त करने की एक निरंतर प्रक्रिया है। नजरिए, भावनाएँ और आदर्श, संज्ञानात्मक विकास के अभिन्न हिस्से है और भाषा विकास, मानसिक चित्रण, अवधारणाओं व तार्किकता से इनका गहरा संबंध है। जैसे-जैसे बच्चों की अधिसंज्ञानात्मक क्षमताएँ विकसित होती है, वे अपनी आस्थाओं के प्रति अधिक जागरूक हो जाते है और इस तरह अपने सीखने को स्वयं नियंत्रित व नियमित करने में सक्षम हो जाते है। 🔷 अर्थ निकालना, अमूर्त सोच की क्षमता विकसित करना, विवेचना व कार्य, अधिगम की प्रक्रिया के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण पहलू है। 🔶 बच्चे मानसिक रूप से तैयार हों, उससे पहले ही उन्हें पढ़ा देना, बाद की अवस्थाओं में उनमें सीखने की प्रवृत्ति को प्रभावित करता है। 🔷 स्कूल के भीतर व बाहर, दोनों जगहों पर सीखने की प्रक्रिया चलती है। इन दोनों जगहों में यदि संबंध रहे तो सीखने की प्रक्रिया पुष्ट होती है। कला और कार्य, समग्र सीखने के अवसर प्रदान करते है जो सौंदर्यबोध से पुष्ट होता है। ऐसे अनुभव भाषायी रूप से ज्ञात चीजोंके लिए महत्त्वपूर्ण है विशेषकर नैतिक मुद्दों में ताकि प्रत्यक्ष अनुभवों में सीखा जा सके और जीवन में समाहित किया जा सके। 🔶 सीखने के एक उचित गति होनी चाहिए ताकि विद्यार्थी अवधारणाओं को रट कर और परीक्षा के बाद सीखे हुए को भूल न जाएँ बल्कि उसे समझ सकें और आत्मसात कर सके। ऊब महसूस होना इस बात का संकेत है कि वह कार्य बच्चा अब यांत्रिक रूप से दोहरा रहा है और उसका संज्ञानात्मक मूल्य खत्म हो गया है। किशोरावस्था अस्मिता के विकास के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण समय है। स्वयं के बारे में समझते की प्रक्रिया का संबंध शारीरिक बदलावों और वयस्क के रूप में सामाजिक और शारीरिक माँगों से संगति बिठाने से है। स्वतंत्रता, घनिष्ठता, मित्रमंडली पर निर्भरता आदि कुछ ऐसे सरोकार है जिनको पहचानने और उनसे निपटने की दिशा में उचित सहयोग देने की जरूरत है। अधिकतर किशोर इन परिवर्तनों का सामना बिना पूर्ण ज्ञान एवं समझ के करते है जो उन्हें खतरनाक स्थितियाँ जैसे यौन रोगों, यौन दुर्व्यवहार, एचआईवी/एड्स एवं नशीली दवाओं के सेवन का शिकार बना सकती है। यह समय होता है जब आत्मसात किए गए विचारों व मानदण्डों पर प्रश्न उठाया जाता है, साथ ही अपने दोस्तों का मत बहुत महत्त्वपूर्ण बन जाता है। किशारों की इन आवश्यकताओं की पहचान कर उनको जीवन में सकंट से निपटने के कौशल सीखने की दिशा में सामाजिक और भावात्मक सहारा दिया जा सकता है। समावेशी शिक्षायह महत्वपूर्ण है कि कक्षा में सभी बच्चों के लिए समावेशी माहौल तैयार किया जा सके। विशेषकर उनके लिए जिनके हाशिए पर धकेले जाने का खतरा हो। उदाहरण के लिए वे विद्यार्थी जिनमें कुछ असमर्थताएँ यथा अपंगता, निर्योग्यता, असमर्थता, पिछङा हुआ, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति आदि है। विद्यार्थियों या विद्यार्थी-समूहों को अपंग/निर्योग्य शब्दों से संबोधित करने से उनमेें एक प्रकार की कुंठा और असहायता की भावना घर कर जाती है। इससे उन कठिनाइयों पर परदा पङ जाता है, जिसका सामना विद्यार्थियों को विविध सामाजिक, सांस्कृतिक वातावरण से आने के कारण या कक्षा में अपर्याप्त शिक्षण-विधि अपनाने के कारण करना पङता है। इन बच्चों के भी अन्य बच्चों के समान अधिकार होते है। विद्यार्थियों के बीच मतभेदों को समस्या के रूप में न देखकर शिक्षण के सहयोगी संसाधन के रूप में देखा जाना चाहिए। शिक्षा में समावेश समाज में समावेश का ही एक घटक है। इसीलिए स्कूलों का यह दायित्व बनता है कि वे एक ऐसी उदार पाठ्यचर्या को अपनाएँ जो सभी विद्यार्थियों के लिए सुलभ हो। पाठ्यचर्या में उचित चुनौती और विद्यार्थियों के लिए पर्याप्त अवसर हों, ताकि वे अध्ययन में सफलता पा सके और अपनी संभावनाओं का पूर्ण विकास कर सकें। कक्षा में शिक्षण और अध्यापन की प्रक्रिया इस प्रकार नियोजित हो कि वह विद्यार्थियों की विविध आवश्यकताओं को पूरा कर सके। शिक्षकों को ऐसी सकारात्मक कार्यनीति अपनाने की आवश्यकता है ताकि असमर्थ समझे जाने वाले विद्यार्थियों सहित सबको शिक्षा को माहौल मिले। पाठ्यचर्या एवं व्यवहार के लिए निहितार्थ (Implications for curriculum and practice)ज्ञान सृजन के लिए अध्यापनरचनात्मक परिप्रेक्ष्य में सीखना ज्ञान के निर्माण की एक प्रक्रिया है। विद्यार्थी सक्रिय रूप से पूर्व प्रचलित विचारों में उपलब्ध सामग्री/गतिविधियों के आधार पर अपने लिए ज्ञान की रचना करते है। निर्मिति यह संकेत देती है कि हर विद्यार्थी व्यक्तिगत और सामाजिक तौर पर अर्थ का निर्माण करता है। अर्थ निर्माण सीखना है। रचनात्मक परिप्रेक्ष्य ऐसी रणनीतियाँ उपलब्ध करवाता है जो सबके द्वार सीखने को प्रोत्साहित करता है। बच्चों के संज्ञान में अध्यापकों की भूमिका भी बढ़ सकती है यदि वे ज्ञान निर्माण की उस प्रक्रिया में व्यस्त एक बालक या बालिका अपने ज्ञान का सृजन खुद करती है। पूछताछ, अन्वेषण, प्रश्न पूछना, वाद-विवाद, व्यावहारिक प्रयोग व ऐसा चिंतन जिससे सिद्धान्त बन सकें और विचार/स्थितियों की रचना हो सके ये सभी बच्चों की सक्रिय व्यस्तता को सुनिश्चित करते है। अंतःक्रिया का मूल्यसीखने की प्रक्रिया का अभिन्न अंग है आसपास के वातावरण, प्रकृति, चीजों व लोगों से कार्य व भाषा दोनों के माध्यम से अंतःक्रिया करना। स्कूली शिक्षा में अधिगम का एक बङा हिस्सा अब भी व्यक्ति-आधारित है (हालांकि वैयक्तिक नहीं है)। अध्यापकों को ’ज्ञान’ हस्तांरित करने वालों के रूप में देखा जाता है यद्यपि ज्ञान को हम जानकारी मान बैठते है। दूसरों की संगत में सीखना पारस्परिक अंतःक्रिया करने की ही प्रक्रिया है। इस तरह का अधिगम तब और भी रोचक व परिपुष्ट होता है जब स्कूल विभिन्न सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि के बच्चों को प्रवेश देता है। शिक्षक की भूमिकाइस संदर्भ में, शिक्षक एक उत्प्रेरक है जो विद्यार्थियों को अभिव्यक्ति के लिए और ज्ञान सृजन के क्रम में व्याख्या और विश्लेषण के लिए प्रोत्साहित करता है। सामूहिक कार्य/सामूहिक अधिगमप्राथमिक स्कूली शिक्षा के प्रारंभिक सालों में सामूहिक कार्य के क्षेत्र में एक नयी शुरूआत की गई है। माध्यमिक व उच्च माध्यमिक स्कूलों में भी समूह में की जाने वाली परियोजनाओं और गतिविधियों को पढ़ाई का एक अंग बनना चाहिए। समूह में काम सीखना, जिम्मेदारी लेना और जो काम दिया गया है उसे पूरा करना ये सभी ज्ञान प्राप्त करने के ही नहीं बल्कि कलाएँ और कौशल इत्यादि सीखने के भी महत्वपूर्ण पहलू है। ’बहु-श्रेणीय कक्षा’ की स्थिति में शिक्षाशास्त्रीय नजर से यह एक अच्छी पाठ्यचर्या बनाने की उम्दा तरकीब हो सकती है। शैक्षिक अनुभवों की रूपरेखा बनानाशैक्षिक कार्य की गुणवत्ता, उससे सीख पाने की योग्यता और विद्यार्थी के लिए उसकी महत्ता को प्रभावित करती है। वे अभ्यास जो बहुत सरल होते है या बहुत कठिन, जो बार-बार एक ही बात यांत्रिक रूप से दोहराते है, जो पाठ्यपुस्तक को याद करने पर आधारित होते है, जो बच्चे को आत्माभिव्यक्ति व प्रश्न पूछने की अनुमति नहीं देते, शिक्षक के जाँच कार्य पर ही निर्भर रहते है, वे बच्चे को आज्ञापालन करने वाली निष्क्रिय कठपुतली बना देते है। शिक्षार्थी अपने विचारों व विवेक को महत्त्व देना नहीं सीखते है। वे यह सीखते है कि ज्ञान दूसरों के द्वारा बनाया जाता है और उन्हें सिर्फ ज्ञान को ग्रहण करना चाहिए। शिक्षार्थी नियंत्रित होना स्वीकार कर लेते है और यह चाहने लगते है कि उन्हें नियत्रंण में रहना आए। यह अंततः संज्ञानात्मक आत्म-चिंतन और उस लचीलेपन के विकास के लिए हानिकारक है जो दरअसल अधिगम से विद्यार्थी को सशक्त बनाने के लिए आवश्यक है। सीखने के कार्य जो यह सुनिश्चित करने के लिए रचे गए है कि बच्चे पाठ्यपुस्तकों के अलावा अन्य स्रोतों से भी ज्ञान प्राप्त करने के लिए प्रोत्साहित होंगे, इस दर्शन को संप्रेषित करते है कि बच्चे खुद ही खोज करके एवं प्रमाण जुटा के सीखते है एवं ज्ञान का सृजन करते है। हाल के वर्षों में कक्षा एक और दो में वातावरण और पाठ्यचर्या की रूपरेखा को सुधारने के प्रयास हुए है। अब हम ’तथ्य-केंद्रित ज्ञान’ पर अब तक दिए जाने वाले बल में एक बदलाव देख रहे है। मौजूदा शैक्षिक सुधार अब भी केंद्रवाद से ग्रस्त है। प्रभावी विकेन्द्रीकरण तभी संभव होगा जब खंड और संकुल संदर्भ केंद्रों की भागीदारी बढ़े, स्थानीय संदर्भ व्यक्ति उपलब्ध हों और अध्यापकों के पास संसाधन और प्रासंगिक सामग्री भी मौजूद हो। नियोजन के उपागमहमारी शिक्षा आज भी सीमित ’पाठ योजना’ पर आधारित है जिसका लक्ष्य हमेशा परिमेय ’आचरणों’ को हासिल करना होता है। इस दृष्टिकोण से बच्चे ऐसे प्राणी माने जाते है जिन्हें हम प्रशिक्षित कर सकते है। इसीलिए ’परिणामों’ पर बहुत ज्यादा ध्यान दिया जाता है। जोर इस बात पर रहता है कि ज्ञान को जानकारी के टुकङों के रूप में प्रस्तुत किया जाए जिससे बच्चे प्रात्सोहित होने के बाद उन्हें सीधे पाठ से याद कर सके। अंत में यह देखने के लिए बच्चे के मूल्यांकन पर भी बङा जोर रहता है कि बच्चे ने याद किया कि नहीं। जबकि जरूरत यह है कि हम बच्चे को हमेशा ज्ञान सृजन में तत्कालीन रखने की आवश्यकता को समझे। 🔷 गतिविधियाँ शिक्षक को मौका देती है कि वे हर बच्चे पर ध्यान दे सकें और काम के दौरान बच्चे की जरूरत और रूचि के अनुसार बदलाव ला सके। शिक्षक आज भी प्रत्येक बच्चे की पढ़ाई में पर्याप्त रूप से शामिल नहीं हो पाते। सामान्यतः बच्चों की पहचान सामूहिक रूप से होती है, जो बच्चे या तो ’स्टार’ होते है या फिर ’कठिन’ उन पर ही अधिक ध्यान जाता है। 🔶 एक नयी समस्या यह भी है कि गतिविधि और ’खेल-खेल में पढ़ाई’ प्रणाली के नाम पर बच्चों की उनकी क्षमता से निचले स्तर का काम देकर काम को हल्का कर दिया जाता है। 🔷 बहुस्तरीय, बहुक्षमता या अनुलंबिता पर आधारित कक्षा में व्यक्तिमूलक कार्य के लिए उपयुक्त सामग्री और संसाधनों की मदद से छोटे-बङे समूहों के लिए किए गये नियोजन से पढ़ाई बहुत ही प्रभावशाली ढंग से संचालित होती है। विवेचनात्मक शिक्षाशास्त्र,Ncf 2005कक्षा में शिक्षक व शिक्षार्थी की अंतःक्रिया विवेचनात्मक होती है क्योंकि उसमें यह परिभाषित करने की ताकत होती है कि किसका ज्ञान स्कूल-संबंधी ज्ञान का हिस्सा बनेगा और किसकी आवाज उसे आकार देगी। बच्चों में चेतना होनी चाहिए कि उनके अनुभव व उनकी अनुभूतियाँ भी महत्वपूर्ण है। उन्हें अपनी मानसिक योग्यता को विकसित करने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए ताकि वे स्वतंत्र रूप से तर्क व विचार कर सकें और असहमत होने का साहस रखें। बच्चे जो स्कूल से बाहर सीखते है- उनकी क्षमताएँ, सीखने का सामर्थ्य और ज्ञान जिसे वे स्कूल लेकर आते है वह भी अधिगम की संवृद्धि में बहुत महत्त्वपूर्ण है। यह उन बच्चों के लिए और भी महत्त्वपूर्ण है जो वंचित पृष्ठभूमि से आते है, खासकर लङकियों के लिए क्योंकि उनकी दुनिया और उनकी
वास्तविकताएँ स्कूली ज्ञान में बहुत कम दिखलाई देती है। अध्यापक की भूमिका है बच्चों को अभिव्यक्ति के लिए कए सुरक्षित स्थान व अवसर देना और साथ ही निश्चित प्रकार की अंतःक्रिया स्थापित करन। उन्हें ’नैतिक संज्ञा’ की परंपरागत भूमिका से बाहर निकलना होगा और यह सीखना पङेगा कि निर्णयात्मक हुए समानुभूति के साथ कैसे सुनते है। ज्ञान और समझशिक्षा के उद्देश्य क्या होने चाहिए। इसका उत्तर है वे क्षमताएं और मूल्य जो हर व्यक्ति में होने चाहिए और समाज के लिए एक सामाजिक-राजनीतिक एवं सांस्कृतिक दर्शन। यह कोई एक लक्ष्य नहीं है बल्कि लक्ष्यों का एक समुच्चय है। पाठ्यचर्या ऐसी हो जो शिक्षार्थियों को ऐसे अनुभव उपलब्ध करवाए जो उसमें क्रमशः विवेक की क्षमता बढ़ाते हुए उसके ज्ञान के आधार को पुष्ट करें। विभिन्न विषयों के माध्यम से दुनिया को समझने का मौका दे; उनमें सौंदर्यबोध को पुष्ट करे और दूसरों के प्रति संवेदनशील बनाए; उन्हें काम करने और आर्थिक प्रक्रियाओं करने दे। ज्ञान की कल्पना संगठित अनुभव के रूप में की जा सकती है, जो भाषा, विचार शंृखला के माध्यम से अर्थ बोध पैदा करती है, जिसके माध्यम से हमें अपने संसार को समझने में सफलता मिलती है। दूसरी ओर, ज्ञान को अगर तैयार माल की श्रेणी में रखा जाए, तो उसको ऐसी सूचना के तौर पर व्यवस्थित करना होगा। जिसका बच्चों के दिमाग में स्थानांतरण हो सके। ज्ञान के इस दृष्टिकोण के मुताबिक सीखने वाले की परिकल्पना निष्क्रिय भाव से ग्रहण करने वाले के रूप में प्रकट की गई है, जबकि पिछले दृष्टिकोण में अवलोकन द्वारा विश्व के साथ सक्रिय जुङाव, संवेदना, मनन, कर्म और बाँटना शामिल है। पाठ्यचर्या उन क्षमताओं के विकास की योजना होती है, जिनके माध्यम से चयनित शैक्षणिक लक्ष्यों को प्राप्त किया जा सके। बुनियादी क्षमताएँबच्चों की बुनियादी क्षमताएँ वे होती है जो बोध के विकास, मूल्यों और कौशल-संबंधी वृहत आधार तैयार करती है। व्यवहार में ज्ञानमानव गतिविधियों और व्यवहार का विस्तृत क्षेत्र सामाजिक जीवन एंव संस्कृति को जीवित रखता है। कताई, काष्ठकला, मिट्टी के बर्तन बनाने जैसी शिल्पकलाएँ विविध प्रकार की प्रदर्शन और दृश्यकलाओं तथा खेलकूद सभी ज्ञान के मूल्यवान रूप है। ये ज्ञान व्यावहारिक प्रकृति के होते है, जिनकी पूरी अभिव्यक्ति नहीं हो पाती। समझ के रूपज्ञान के पुष्टिकरण व औचित्य को स्थापित करने की प्रक्रिया में जिन अवधारणाओं व अर्थों का उपयोग किया जाता है, उनके आधार पर भी ज्ञान का वर्गीकरण किया जा सकता है। गणित की अपनी विशिष्ट अवधारणाएँ होती है; जैसे- मूलांक, वर्गमूल, भिन्न, पूर्णांक आदि। उसकी भी वैधता निर्धारण की अपनी प्रक्रिया होती है, जैसे कि जो सिद्धांत स्थापित किया जाना है उसका कदम दर कदम प्रदर्शन। गणित में पुष्टिकरण की प्रक्रिया अभी आनुभविक नही होती है और न ही अवलोकन या प्रयोग पर आधारित होती है। वह तो उस संरचना के अंदर मौजूद उपयुक्त परिभाषाओं एवं स्वयंसिद्ध के आधार पर एक प्रदर्शन होता है। गणित की ही तरह विज्ञानों की भी अपनी अवधारणाएँ होती है। बहुधा वे सिद्धांतों के माध्यम से एक दूसरे से सबंद्ध होते है और प्राकृतिक विश्व की व्याख्या करने का प्रयास करते है। अवधारणाओं में अणु, चुंबकीय क्षेत्र, कोशिका और न्यूराॅन आते है। वैज्ञानिक परख में सैद्धांतिक आधारों पर की गई घोषणाओं को परीक्षण के आधार पर वैध ठहराया जाता है जिनमें अकसर उपकरणों और नियंत्रण की सहायता ली जाती है। सिद्धांत निर्माण और मानक तय करते हुए कभी कभार गणितीय परिशुद्धता की आवश्यकता पङती है लेकिन केवल निरीक्षण-परीक्षण के स्तर पर ही। यहाँ प्रयास यह किया जाता है कि ऐसा आख्यान तैयार हो जो किसी तरह से यथार्थ के सदृृश्य हो। सामाजिक विज्ञानों तथा मानविकी की अपनी अवधारणाएँ होती है, उदाहरण के लिए, समुदाय, आधुनिकता, संस्कृति, अस्मिता और राजनीति। सामाजिक विज्ञानों का लक्ष्य मनुष्यों और समाज में मौजूद मानव समूहों की एक सामान्य और समीक्षात्मक समझ विकसित करना है। सामाजिक विज्ञानों का सरोकार सामाजिक संसार के विवरण, उसकी व्याख्या और उसके बारे में पूर्वानुमान लगाने से है। सामाजिक विज्ञानों की प्राक्कल्पना सामूहिक जीवन में मानव व्यवहार के बारे में होती है और उनकी वैधता अंततः समाज में किए गए अवलोकन पर भी निर्भर करती है। ज्ञान निर्माण की प्रक्रिया में विज्ञान और सामाजिक विज्ञान लगभग एकसमान होते है लेकिन उनमें दो भेद भी है, जो पाठ्यचर्या की योजना बनाने के लिए बहुत ही प्रासंगिक है। प्रथम, सामाजिक विज्ञान मानव व्यवहार का अध्ययन करते है जिसका आधार तर्क होता है, जबकि विज्ञान ’कारण-प्रभाव’ के आधार पर काम करता है। दूसरे, सामाजिक विज्ञानों के निष्कर्ष बहुधा नैतिकता और वांछनीयता के सवाल उठाते है जबकि प्राकृतिक घटनाएँ समझी जाती है उन पर नैतिकता के सवाल तभी उठाए जाते है जब वे मानव के कार्य व्यवहार में शामिल हो जाती है। कला और सौंदर्यशास्त्र में जानी-पहचानी शब्दावली का प्रयोग होता है, जैसे लय, सामंजस्य, अभिव्यक्ति और संतुलन। हालाँकि वह इनको नए संदर्भ या नए अर्थ देती है। कला-उत्पाद का परीक्षण यथार्थ या सत्य के लिए नहीं किया जा सकता। नीतिशास्त्र का संबंध समस्त मानवीय मूल्यों, नियमों, सिद्धांतों, मानकों और आदर्शों के साथ होता है जो उसको अभिव्यक्ति प्रदान करते है। अतः कर्म व चयन के संबंध में नीतिशास्त्र को समझ में किसी निर्णय के कारणों की समझ शामिल होती है। कुछ कृत्य क्यों सही है और दूसरे क्यों गलत है फिर चाहे ये निर्णय कितने ही सत्तावान व्यक्ति क्यों न हो। इसके अलावा, ये तर्क प्रत्येक व्यक्ति के लिए समान रहते है: तर्क, समानता और वैयक्तिक स्वायत्तता की अवधारणाएँ आपस में गहनता से जुङी हुई है। दर्शनशास्त्र में एक ओर तो जीवन के संबंध में उपरोक्त वर्णित विधाओं का विश्लेषणात्मक स्पष्टीकरण, मूल्यांकन और संयोगात्मक समन्वय के साथ जुङाव होता है, तो दूसरी ओर वह समग्रता, परम अर्थ औ अनुभवातीत से भी जुङा हुआ होता है। बुनियादी सामर्थ्य, व्यवहार का ज्ञान और समझ के रूप ही वे प्रधान तरीके रहे है जिनके माध्यम से इतिहास के दौर में मानवीय अनुभवों का विस्तार किया गया है। सहज मानवीय गतिविधि को छोङकर मानव समाज की बाकी सारी गतिविधियाँ प्रधान तरीकों का प्रयोग करती है। इन सारी गतिविधियों में उदार पेशे, तकनीक, उपयोग एवं वाणिज्य शामिल है। ये मानव संस्कृति का केंद्र बिंदु है। कल्पना और आलोचनात्मक चिंतन का सीधा संबंध बोध और तर्कशक्ति के विकास से होता है, और इसी तरह ही भावनाओं का भी होता है। ज्ञान को फिर से रचनाहम स्कूली पाठ्यचर्या के माध्यम से समझ की क्षमताएँ, व्यवहार और कौशल विकसित करना चाहते है। ज्ञान के इन सभी क्षेत्रों के लिए परियोजना कार्य, अंतर अनुशासनात्मक पाठ निरीक्षण, पुस्तकालयों एवं प्रयोगशालाओं की आवश्यकता होती है। भारत में हमने परंपरागत रूप से पाठ्यचर्या निर्धारण में विषय आधारित दृष्टिकोण अपनाया है, जो केवल विषयों पर आधारित होता है। यह तरीका ज्ञान को पाठ्यपुस्तकों में एक ’पुलिंदे’ की तरह प्रस्तुत करता है, जिसके साथ विषय क्षेत्रों से जुङी योग्यता के परीक्षण के लिए दी जाने वाली परीक्षाओं की विधि भी दी जाती है। इसके साथ ही उस विषय क्षेत्र में दक्षता को जाँचने हेतु अंक भी दिए जाते है। इस कारण हमारी शिक्षा व्यवस्था में कई समस्याएँ आ गई है। प्रथम, ज्ञान के जो स्वरूप पाठ्यपुस्तकों के अंतर्गत नहीं आते या जिनका मूल्यांकन अंकों के आधार पर नहीं हो सकता उनको एक तरफ करके ’अतिरिक्त’, या पाठ्यविषयेतर करार दे दिया जाता है जबकि उन्हें पाठ्यचर्या का समेकित अंग होना चाहिए। ज्ञान के अन्य रूप जैसे शिल्प और खेलकूद, जो कौशल, सौंदर्यबोध, चतुराई, रचनात्मकता, समूह में काम करने की क्षमता आदि की दृष्टि से बेहद समृद्ध होते है, परे छूट जाते है। दूसरे, विषयों का आपस में कई तालमेल नहीं होता वे बिल्कुल अपरिवर्तनीय उपखंड बन जाते है इसीलिए ज्ञान भी समेकित और जुङा हुआ लगने की बजाए ये विषय ही ज्ञान के आरंभ बिन्दु बन जाते है और स्कूली ज्ञान और बाहरी ज्ञान के बीच कए सीमारेखा खींच जाती है। तीसरा, पहले से मौजूद ज्ञान को ज्यादा तरजीह दी जाती है जिससे बच्चे की खुद ज्ञान सृजित करने और इस प्रक्रिया के नए तरीके खोजन की क्षमता नष्ट हो जाती है। सूचना, ज्ञान से ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाती है। चौथी, समस्या का संबंध नए विषयों को शामिल करने से है। लेकिन इससे एक अनुचित प्रवृत्ति यह बन गई है कि स्कूली पाठ्यचर्या में इन मुद्दों को संबोधित करने के लिए नए विषय ’बना’ दिए जाते है। बच्चों का ज्ञान और स्थानीय ज्ञानबच्चे का समुदाय और उसका स्थानीय वातावरण अधिगम प्राप्ति के लिए प्राथमिक सन्दर्भ होता है जिसमें ज्ञान अपना महत्व अर्जित करता है और जीवन में सार्थकता पाता है। शिक्षार्थी जब तक अपने व्यक्तिगत दृष्टिकोण को पाठ्यपुस्तक में निरूपित संदर्भों के संबंध में स्थित नहीं कर पाते और इस ज्ञान को समाज के अपने अनुभवों से जोङ नहीं पाते, तब तक ज्ञान मात्र सूचना के ही स्तर पर रहता है। स्थानीय परिवेश केवल भौतिक-प्राकृतिक नहीं होता, बल्कि सामाजिक-सांस्कृतिक भी होता है। सामुदायों का सांस्कृतिक स्रोत भी प्रचुर होता है, लोककथाएँ, लोकगीत, चुटकुले, कलाएँ आदि जो स्कूल में भाषा और ज्ञान को समृद्ध बना सकते है। इससे मौखिक इतिहास भी समृद्ध होगा। लेकिन हम कक्षा में चुप्पी को लादकर बच्चों को दबाते है। स्कूली ज्ञान और समुदाययह जरूरी है कि सामाजिक-सांस्कृतिक संसार के अनुभवों को भी पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाया जाए। विद्यार्थियों के लिए यह और भी बेहतर होगा कि वे सामाजिक अध्ययन के पाठ के अंतर्गत स्थानीय सामाजिक समूहों का खुद ही चित्रा करें। बच्चे सीधे ग्राम पंचायत के सदस्य से संपर्क-संवाद कर सकते है। कुछ विकासमूलक विचारबच्चों में रूचि, शारीरिक क्षमता, भाषिक क्षमता, अमूर्तन और सामान्यीकरण की क्षमता का विकास स्कूल-पर्व शिक्षा से लेकर माध्यमिक स्तर की शिक्षा तक में होता है। यह समय गहन वृद्धि एवं विकास का, रूचियों एवं क्षमताओं में मूलभूत बदलाव का होता है। अध्याय 3: पाठ्यचर्या के क्षेत्र, स्कूल की अवस्थाएँ और आकलन(Curriculum Areas, School Stages and Assessment)इस अध्याय में पाठ्यचर्या के विविध विषयों पर चर्चा की गई है। भाषाइस दस्तावेज में भाषा में द्वि/बहुभाषिकता निहित है और जब हम घर की भाषा और मातृभाषा की बात करते है तो इसके अंतर्गत घर की भाषा, बङे कुनबे की भाषा, आस-पङोस की भाषा आदि आ जाती है, जो बच्चा स्वाभाविक रूप से अपने घर और समाज के वातावरण से ग्रहण कर लेता है। बच्चों में भाषा की जन्मजात क्षमता होती है। कई बार जब बच्चे स्कूल आते है तो उनमें पहले से ही दो या तीन भाषाओं को समझने और बोलने की क्षमता होती है। प्रभावी समझ और भाषा के प्रयोग के माध्यम से बच्चे विचारों, व्यक्तियों और वस्तुओं तथा अपने आसपास के संसार से अपने आपको जोङ पाते है। शिक्षा में भाषाओं के लिए आदर्श यही है कि उनका इसी संसाधन के आधार पर विकास हो और साक्षरता के विकास के साथ (लिपियों में
ब्रेल भी) अकादमिक भाषा के रूप में इसे विकसित करने के लिए समृद्ध भी किया जाए। जिन बच्चों में भाषा संबंधी अक्षमता हो उनके लिए मानक संकेत भाषा अपनाई जाए जिससे उनके सतत् और पूर्ण विकास को समर्थन मिलता रहे। विद्यार्थियों की भाषिक क्षमता की पहचान से उनका स्वयं के और अपनी सांस्कृतिक जङों के प्रति विश्वास भी बढ़ेगा। भारत केवल इस मामले में ही अनूठा नहीं है कि यहाँ अनेक प्रकार की भाषाएँ बोली जाती है, बल्कि उन भाषाओं में अनेक भाषा-परिवारों का प्रतिनिधित्व भी है। दुनिया के और किसी भी देश में पांच-भाषा परिवारों की भाषाएँ नहीं पाई जाती। संरचना के स्तर पर वे इतनी भिन्न है कि उन्हें विभिन्न भाषा परिवारों में वर्गीकृत किया जा सकता है जिनके नाम है- इंडो-आर्यन, द्रविङ, ऑस्ट्रो-एशियाटिक, तिब्बतो-बर्मन और अंडमानी। ये भाषाएँ आपस में सतत संपर्क संवाद भी करती रहती है। शास्त्रीय भाषाएँ जैसे लैटिन, अरबी, फारसी, तमिल और संस्कृति विभक्ति प्रधान व्याकरण के मामले में और सौंदर्यबोध की दृष्टि से काफी समृद्ध रही है और जीवन को प्रदिप्त करती रही है, क्योंकि अनेक भाषाएँ उनसे शब्द लेती रहती है। त्रिभाषा फार्मूलाआज, हम यह निश्चित रूप से जानते है कि द्विभाषिकता या बहुभाषिकता से निश्चित संज्ञानात्मक लाभ होते है। हम संज्ञानात्मक लाभ के लिए त्रिभाषा फार्मूला को अपनाने की अनुशंसा करते है। त्रिभाषा फार्मूला के अंतर्गत प्राथमिक स्तर पर घर की भाषा (मदर्स टंग), स्कूली उच्च स्तर पर मातृ भाषा तथा बाद के स्तरों पर शास्त्रीय या विदेशी भाषा काम में ली जा सकती है। त्रिभाषा-फाॅर्मूला भारत की भाषा-स्थिति की चुनौतियों और अवसरों को संबोधित करने का एक प्रयास है। यह एक रणनीति है जिसे कई भाषाएँ सीखने के मार्ग को प्रशस्त करना चाहिए। इसे कार्यरूप और भावरूप दोनो ही में अपनाने की आवश्यकता है। इसका प्राथमिक उद्देश्य भारत में बहुभाषिकता और राष्ट्रीय सद्भाव का प्रसार है। निम्नलिखित दिशा-निर्देश इन लक्ष्यों की प्राप्ति में सहायक हो सकते है: 🔷 भाषा शिक्षण बहुभाषिक होना चाहिए, केवल कई भाषाओं के शिक्षण के ही अर्थ नहीं, बल्कि रणनीति तैयार करने के लिहाज से भी ताकि बहुभाषिक कक्षा को एक संसाधन के तौर पर प्रयोग में लाया जाए। 🔶 बच्चों की घरेलू भाषा स्कूल में शिक्षण का माध्यम होनी चाहिए। 🔷 अगर स्कूल में उच्चतर स्तर पर बच्चों की घरेलू भाषा में शिक्षण की व्यवस्था न हो, तो प्राथमिक स्तर की स्कूली शिक्षा अवश्य घरेलू भाषा के माध्यम से ही दी जाए। यह आवश्यक है कि हम बच्चे की घरेलू भाषाओं को सम्मान दें। हमारे संविधान की धारा-350 क के मुताबिक, ’’प्रत्येक राज्य और राज्य के भीतर प्रत्येक स्थानीय प्राधिकारी भाषाई अल्पसंख्यक-वर्गों के बालकों को शिक्षा के प्राथमिक स्तर पर मातृभाषा में शिक्षा की पर्याप्त सुविधाओं की व्यवस्था करने का प्रयास करेगा।’’ 🔶 बच्चे प्रारंभ से ही बहुभाषिक शिक्षा प्राप्त कर सकेंगे। त्रिभाषा फाॅर्मूला को उसके मूलभाव के साथ लागू किए जाने की जरूरत है, ताकि वह बहुभाषी देश में बहुभाषी संवाद के माहौल को बढ़ावा दे। 🔷 गैर-हिंदी भाषी राज्यों में, बच्चे हिंदी सीखते है। हिंदी प्रदेशों के मामले में, बच्चे वह भाषा सीखे जो उस इलाके में नहीं बोली जाती है। इन भाषाओं के अलावा आधुनिक भारतीय भाषा के रूप में संस्कृत का अध्ययन भी शुरू किया जा सकता है। 🔶 बाद में स्तरों पर शास्त्रीय और विदेशी भाषाओं से परिचय करवाया जा सकता है। घरेलू/प्रथम भाषा या मातृभाषा शिक्षाएक बच्चा न केवल सही-सही समझना और बोलना जानता है, बल्कि वह अपनी भाषा का उचित प्रयोग भी करता है। कक्षा में क्षमता को उच्च स्तर के संवाद तथा ज्ञान-संवेदना के द्वारा विकसित करना ही प्रथम भाषा के शिक्षण का उद्देश्य होना चाहिए। कक्षा 3 के बाद से मौखिक और लिखित माध्यमों से उच्चस्तरीय संवाद कौशल और आलोचनात्मक चिंतन के विकास के प्रयास हो। प्राथमिक स्तर पर बच्चों की भाषा को बिना सुधारे उसी रूप में स्वीकार करना चाहिए जिस रूप में वे होती है। कक्षा 4 के बाद अगर समृद्ध और रूचिकर मौके दिए जाएँ, तो बच्चे स्वयं भाषा के मानक रूप को ग्रहण कर लेते है। गलतियाँ और कमियों पर ध्यान दिए जाने की बजाय अधिक समय बच्चों को विस्तृत, रूचिकर और चुनौतीपूर्ण निवेश दिए जाने चाहिए। द्वितीय भाषा सीखनाभारत के बहुभाषायी समाज में अंग्रेजी एक वैश्विक भाषा है। भारत में शिक्षण की दृष्टि से अंग्रेजी द्वितीय भाषा है। यहाँ अंग्रेजी-शिक्षण में विविधता की स्थिति दो कारणों से है, एक शिक्षकों की अंग्रेजी में दक्षता और विद्यार्थियों का स्कूल से बाहर अंग्रेजी भाषा से सामना। द्वितीय भाषा की पाठ्यचर्या के दोहरे लक्ष्य है: वैसी बुनियादी दक्षता प्राप्त करना, जैसी प्राकृतिक भाषा ज्ञान में अर्जित की गई हो, और साक्षरता द्वारा भाषा का ऐसा विकास कि वह अमूर्त चिंतन और ज्ञान का उपकरण बने। अपनी भाषा में पढ़ने में यदि कोई असफल होता है, तो उससे भाषा के पठन पर भी प्रतिकूल प्रभाव पङता है। अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों की तुलनात्मक सफलता यह बताती है कि भाषा तब सीखी जाती है जब वह भाषा के रूप में नहीं पढ़ाई जाती बल्कि सार्थक संदर्भों से जोङकर उसं पढ़ाया जाता है। इसलिए अंग्रेजी को अन्य विषयों के संदर्भ में देखा जाना चाहिए, प्राथमिक शिक्षा की दृष्टि से संपूर्ण पाठ्यचर्या के अंतर्गत भाषा शिक्षण का विशेष महत्व है और बाद में सभी शिक्षण एक अर्थ में भाषा शिक्षण ही होता है। यह दृष्टिकोण ’विषय के रूप में अंग्रेजी’ और ’माध्यम के रूप में अंग्रेजी’ की दूरी को पाट सकेगा। इस तरह से हम समान स्कूली पद्धति की दिशा में प्रगति कर सकते है जिसमें भाषा शिक्षण और शिक्षण के माध्यम के रूप में भाषा के उपयोग में भेद न हो। ’निवेश-समृद्ध संप्रेषण का वातावरण’ भाषा शिक्षण की पूर्व शर्त है, चाहे वह पहली भाषा हो या दूसरी। निवेश के अंतर्गत आते है- पाठ्यपुस्तकें, शिक्षार्थी द्वारा चयनित पाठ और कक्षा पुस्तकालय जिसमें अनेक विधाओं के लिए जगह हो; छपी सामग्री (उदाहरण के लिए युवा शिक्षार्थियों के लिए बङी पुस्तकें); एक से अधिक भाषा में समांतर पुस्तकें और सामग्री; मीडिया सामग्री (मैगजीन/समाचारपत्र के स्तंभ, रेडियो/ओडियो कैसेट); और प्रामाणिक सामग्री। वंचित शिक्षार्थियों के लिए भाषा माहौल को समृद्ध बनाने की जरूरत है जिसके लिए स्कूलों को सामुदायिक शिक्षण के केंद्र के रूप में विकसित करना चाहिए। इस दिशा में कई सफल नवाचार मौजूद है जिनके सामान्यीकरण को खोजने और बढ़ावा देने की जरूरत है। पद्धतियाँ और दृष्टिकोण विशिष्ट न हों, बल्कि मोटे तौर पर विस्तृत संज्ञानात्मक दर्शन के अनुकूल रहते हुए पारस्परिक रूप से समर्थक हों (जिसमें वायगोत्सकी, पियाजे और चाॅमस्की के सिद्धान्त शामिल हों)। उच्चस्तरीय कौशल (जिसमें साहित्यिक आस्वाद और जेंडर संबंधी दृष्टिकोण निर्धारण में भाषा की भूमिका शामिल है) विकसित करने की ओर ध्यान दिया जाए जब बुनियादी दक्षता सुनिश्चित हो चुकी थी। पढ़ना-लिखना सीखनाहालांकि हम भाषा के विभिन्न कौशलों को एकीकृत रूप में पढ़ाने की प्रस्तावना की जोर-शोर से वकालत करते है लेकिन कई मामलों में स्कूल को पठन और लेखन पर विशेष ध्यान देने की जरूरत है, खासकर घरेलू भाषाओं के संदर्भ में। दूसरी, तीसरी या शास्त्रीय या विदेशी भाषा के संदर्भ में वाचिक दक्षता सहित सभी कौशल महत्वपूर्ण हो जाते है। बच्चे सर्वांगीण परिस्थितियों में अधिक सीखते है जिनमें बच्चों को सार्थकता दिखती है बजाय एक योगात्मक या बँधे बँधाए ढर्रे से जिसमें कोई अर्थ नहीं होता। बोलना और सुनना, पढ़ना और लिखना सभी सामान्य कौशल है। बोलनापरंपरागत रूप स प्रशिक्षित भाषा-शिक्षक बोलने के प्रशिक्षण को, भाषा के सहभागी और अभिव्यक्तिमूलक कौशल पर जोर देने के बजाय शुद्धता से जोङता है। इसीलिए कक्षा में बोलने को हमारी व्यवस्था में नकारात्मक मूल्य समढा जाता है और शिक्षक की काफी ऊर्जा बच्चों को शांत कराने या उनके उच्चारण को ठीक करने में चली जाती है। किस प्रकार विषयवस्तु को बच्चों की छोटे समूह में चर्चा करने में चली जाती है। किस प्रकार विषयवस्तु को बच्चों की छोटे समूह में चर्चा द्वारा और ऐसी गतिविधियों के द्वारा आगे प्रवर्तन किया जाए जो बच्चों में तुलना और विपरीतता, आश्चर्य और स्मरण और चुनौती तथा मूल्यांकन और पहचान की क्षमता का विकास करे। सुनने के क्रम में, इसी प्रकार गतिविधियों की योजना तैयार कर पाठ्यपुस्तकों और गार्मदर्शिकाओं में उनका समावेश कर महत्वपूर्ण कौशलों और मूल्यों के विकास में काफी कुछ किया जा सकता है। इसके अंतर्गत ध्यान देने की क्षमता अन्य व्यक्तियों की बात को महत्व देना और जो बोला या उसका अर्थ-निर्धारण, मुक्त अभिव्यक्ति और कही गई बात पर लचीली परिकल्पना शामिल है। सुननाठीक इसी प्रकार, बातचीत की तरह सुनना भी कई जटिल कौशलों का जाल है। स्थानीय रूप से उपलब्ध संसाधनों में लोककथाएँ और कहानी सुनाना, सामुदायिक गायन और नाटक आते है। पठनजबकि पठन को भाषा शिक्षण का महत्वपूर्ण अवयव माना जाता है। पढ़ने की संस्कृति के विकास के क्रम में वैयक्तिक पठन को प्रोत्साहित किए जाने की आवश्यकता है, और शिक्षकों को इस संस्कृति का हिस्सा बनकर स्वयं उदाहरण पेश करना चाहिए। इसके लिए स्कूल और सामुदायिक स्तर पर पुस्तकालयों को बढ़ावा देने की जरूरत है। लिखनालिखने का महत्व सर्वविदित है, लेकिन पाठ्यचर्या में इसको लेकर नवाचार अपनाने की जरूरत है। शिक्षकों का जोर इस पर होता है कि बच्चे सही तरीके से लिखें। लिखने के माध्यम से अपने विचारों की अभिव्यक्ति को महत्वपूर्ण नहीं माना जाता। आरंभिक वर्षों में, लिखने की क्षमता का विकास, बोलने, सुनने और पढ़ने की क्षमता की संगति में होना चाहिए। स्कूल में माध्यमिक और उच्चतर स्तर पर नोट तैयार करने को
कौशल विकास के प्रशिक्षण के तौर पर देखा जाना चाहिए। आगे चलकर इससे श्यामपट्ट, पाठ्यपुस्तकों और कुंजी से टीपने की प्रवृत्ति हतोत्साहित होगी। गणितगणित शिक्षण के उद्देश्यगणित की शिक्षा का मुख्य उद्देश्य बच्चे की गणितीकरण की क्षमताओं का विकास करना है। स्कूली गणित की सीमित लक्ष्य है ’लाभप्रद’ क्षमताओं का विकास, विशेषकर अंक ज्ञान-संख्या से जुङी क्षमताएँ, सांख्यिक संक्रियाएँ, माप, दशमलव व प्रतिशत। इससे उच्च लक्ष्य है बच्चे के साधनों को विकसित करना ताकि वह गणितीय ढंग से सोच सके व तर्क कर सके, मान्यताओं के तार्किक परिणाम निकाल सके और अमूर्त को समझ सके। इसके अंतर्गत चीजों को करने और समस्याओं को सूत्रबद्ध करने व उनका हल ढूँढ़ने की क्षमता का विकास करना आता है। पाठ्यचर्याइसके लिए ऐसी पाठ्यचर्या होनी चाहिए जो महत्वकांक्षी हो, सुसंगत हो और गणित के महत्वपूर्ण सिद्धान्तों को पढ़ाए। उसे महत्वाकांक्षी इस अर्थ में होना चाहिए कि वह उपरोक्त उच्च लक्ष्य की प्राप्ति का प्रयास करे न कि केवल सीमित लक्ष्य की प्राप्ति का। इसे सुसंगत होना चाहिए ताकि टुकङे-टुकङे में उपलब्ध विभिन्न प्रणालियाँ व शिक्षा एक ऐसी क्षमता में ढल सकें जो माध्यमिक कक्षाओं में आने वाले विज्ञान व सामाजिक अध्ययन के क्षेत्र की समस्याओं को भी संबोधित कर सके। यह इस अर्थ में महत्वपूर्ण होना चाहिए कि विद्यार्थी ऐसी समस्याओं को हल करने की आवश्यकता को महसूस करें और शिक्षक व विद्यार्थी दोनों ऐसी समस्याओं को हल करने में जो अपना समय और ऊर्जा लगाएँ उसे सदुपयोग मानें। गणित के समस्या-समाधान की युक्तियाँसमस्या के समाधान की अनेक सामान्य युक्तियाँ स्कूल की विभिन्न अवस्थाओं में सिखाई जा सकती है: अमूर्तता, परिमाणन, सादृश्यता, स्थिति विश्लेषण, समस्या को सरल रूप में बदलना, अनुमान लगाना व उसकी पुष्टि करना- ये समस्या समाधान के अनेक संदर्भों में उपयोगी है। जब बच्चे ये विभिन्न युक्तियाँ सीख लेते है तो उनके संसाधन समृद्ध हो जाते है और वे यह भी सीखते है कि कौन सी युक्ति सर्वश्रेष्ठ है। बच्चों को गणित के अन्वेषणात्मक नियमों से परिचय की भी आवश्यकता होती है न कि केवल इस विश्वास की कि गणित एक ’सटीक विज्ञान’ है। परिमाण और हलों का अनुमान लगाता है तो अनुमान लगाने के कौशल, जैसे सन्निकटता और इष्टीकरण के कौशलों का उपयोग होता है। स्कूली गणित की इस तरह की उपयोगी बातें सिखाने और उनके परिष्कार में महत्वपूर्ण भूमिका है। कंप्यूटर विज्ञानहालांकि कई देशों ने कंप्यूटर विाान या सूचना प्रौद्योगिकी पाठ्यचर्या अपने स्कूलों में लागू किए है लेकिन हमें उन चुनौतियों का ख्याल रखना होगा जो भारतीय स्कूली विद्यार्थियों के सामने है। पहली चुनौती कंम्यूटर विज्ञान के लिए तकनीकी संसाधनों की कमी की है। संसाधनों के अभाव में ’कंप्यूटर विज्ञान’ पढ़ाना निरर्थक है। सभी विद्यार्थियों के लिए कंप्यूटर और उसकी संयोजकता उपलब्ध कराना एक बङी तकनीकी व आर्थिक चुनौती है। लेकिन कंप्यूटर प्रौद्योगिकियों का बढ़ता प्रभाव देखते हुए हमें इस बुनियादी चुनौती को गंभीरता के मामले में ऐसे व्यवहारिक और कल्पनाशील विकल्प ढूंढने होंगे जो भारतीय शहरी और ग्रामीण स्कूलों के लिए उपयोगी हो। विज्ञानविज्ञान गत्यात्मक और निरंतर परिवर्धित ज्ञान का भंडार है जिसमें अनुभव के नए-नए क्षेत्रों को शामिल किया जाता है। एक प्रगतिशील और भविष्योन्मुखी समाज में विज्ञान सचमुच मुक्तिदायी भूमिका निभा सकता है, इसके सहयोग से लोगों को गरीबी, अज्ञान और अंधविश्वास के दुष्चक्र से निकााला जा सकता है। विज्ञान और तकनीकी के विकास ने कृषि उद्योगों के परंपरागत स्वरूप को बिल्कुल बदल दिया है। अच्छी विज्ञा शिक्षा बच्चे, जीवन व विज्ञान के प्रति ईमानदार होती है। इस सरल निष्कर्ष विज्ञान पाठ्यचर्या के निम्नलिखित वैध मानकों की ओर इंगित करता हैः 1. संज्ञानात्मक वैधता सामाजिक विज्ञानसामाजिक विज्ञान के अंतर्गत समाज के विविध सरोकार आते है। इसकी अंतर्वस्तु बहुत विविध है जिसमें इतिहास, भूगोल, राजनीति विज्ञान, अर्थशास्त्र, समाजाशास्त्र और मानव विज्ञान जैसे विषयों की विषयवस्तु समाहित की जाती है। वास्तव में ’सामाजिक विज्ञान’ व्यक्तियों और उनके पर्यावरण अध्ययन है। सामाजिक विज्ञान की अनुभूतियाँ औ ज्ञान, एक समतामूलक और शांतिमूलक समाज का ज्ञान-आधार तैयार करने की दिशा में अपरिहार्य है। सामाजिक विज्ञान को विषयवस्तु का लक्ष्य जानी पहचानी सामाजिक सच्चाई की समीक्षात्मक जाँच तथा उस पर प्रश्न करते हुए विद्यार्थियों में आलोचनात्म्क जागरूकता का सवंर्धन, होना चाहिए। विद्यार्थियों के अपने जीवन-संदर्भों के संबंध में नए आयामों और नए पहलुओं को जगह दी जा सकती है। एक सार्थक पाठ्यचर्या के लिए सामग्री चयन और उनका निर्धारण, ऐसी पाठ्यचर्या जो विद्यार्थियों में समाज के प्रति आलोचनात्मक समझ का विकास करे, यह एक चुनौतीपूर्ण कार्य है। विषयवस्तु में परीखा के लिए तथ्यों का अंबार लगाए जाने की बजाए उनकी संज्ञानात्मक समझ विकसित किए जाने की आवश्यकता है ’शिक्षा बिना बोझ के’ की अनुशंसाओं को फिर से रेखांकित कर इस बात पर जोर दिया जाना चाहिए कि अवधारणाओं की समझ और सामाजिक-राजनीतिक यथार्थ के विश्लेषण की क्षमता के विकास का प्रयास हो, न कि केवल बिना व्याख्या के तथ्यों के रटने पर बल हो। सामाजिक विज्ञान इस दायित्व का वहन करते है कि स्वतंत्रता, विश्वास, परस्पर सम्मान और विविधता के आदर जैसे मानवीय मूल्यों का सुदृढ़ आधार तैयार हो। सामाजिक विज्ञान के शिक्षण का लक्ष्य विद्यार्थियों में आलोचनात्मक मानसिक और नैतिक क्षमता का विकास होना चाहिए, ताकि वे उन सामाजिक शक्तियों से सावधान रह सकें जो इन मूल्यों को खतरा पहुँचाती है। सामाजिक अध्ययन का मुख्य प्रयोजन व्यक्तिगत एवं सामाजिक आवश्यकताओं के अनुरूप नागरिकों को वैज्ञानिक ज्ञान (आलोचनात्मक दृष्टिकोण) व शिक्षा की व्यवस्था करना है। जिन विषयों को समाज विज्ञान के तहत माना जाता है, वे हैं इतिहास, भूगोल, राजनीति शास्त्र और अर्थशास्त्र। उनकी अपनी विशिष्ट पद्धतियाँ होती है जो बहुधा सीमाएँ बाँधने को उचित ठहराती है। परन्तु साथ ही, विषयों की परस्परता को भी इसमे शामिल किया जाना चाहिए। पाठ्यचर्या को समर्थ बनाने के लिए, कुछ ऐसे विषयों को भी इसमें शामिल किया जाना चाहिए जिससे अंतः अनुशासनात्मक चिंतन को बढ़ावा मिले। कला शिक्षाअगर अपनी अनूठी सांस्कृतिक पहचान को उसकी विविधता और समृद्धता सहित बचाए रखना है तो औपचारिक शिक्षा में कला शिक्षा को तत्काल समेकित करना होगा। हमारी शिक्षा व्यवस्था कला को ’उपयोगी शौक’ या ’मनोरंजक गतिविधि’ मात्र मनाती है। कला बस स्कूल के स्थापना दिवस, वार्षिक दिवस, गणतंत्र दिवस या स्कूल निरीक्षण के दौरों के अवसर पर प्रदर्शन की वस्तु बनकर रह गई है। स्वास्थय और शारीरिक शिक्षास्वास्थ्य बच्चे के समग्र विकास का सूचक होता है और यह नामांकन, स्कूल में उपस्थिति और पढ़ाई पूरी करने को प्रभावित करता है। इस संबंध में पाठ्यचर्या में स्वास्थ्य को लेकर एक समग्र दृष्टिकोण अपनाया जा सकता है जिसमें योग और शारीरिक शिक्षा बच्चे के शारीरिक, सामाजिक, भावनात्मक और मानसिक विकास में अपना योगदान कर सकते है। 1940 के दशक में स्कूलों के लिए विस्तृत स्वास्थ्य कार्यक्रम की रूपरेखा बनाई गई थी जिसके छह प्रमुख घटक थे- स्वास्थ्य सेवा, स्वच्छ स्कूल पर्यावरण, दोपहर का भोजन, स्वास्थ्य और शारीरिक शिक्षा इत्यादि। ये घटक बच्चों के सर्वांगीण विकास के लिए आवश्यक है और इनको पाठ्यचर्या में शामिल किए जाने की जरूरत है। पाठ्यचर्या में योग हाल में जोङा गया है। पाठ्यचर्या में योग हाल में जोङा गया है। पाठ्यचर्या के मुख्य अवयव के रूप में खलों और योग के लिए जो समय निर्धारित है उसे किसी भी परिस्थिति में न तो काम किया जाए न ही समाप्त किया जाए। काम और शिक्षाकाम के बारे में सामान्य अर्थों में कहें तो यह एक ऐसी गतिविधि है। जो कुछ बनाने या करने की तरफ इशारा करती है। इसका यह भी मतलब होता है कि धन या किसी अन्य वस्तु के बदले किसी और के लिए श्रम। इस प्रकार की कई गतिविधियाँ भोजन तथा दैनिक उपयोग की वस्तुओं के उत्पादन और लोगों के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य की देखरेख से संबंधित है। अन्य गतिविधियों का संबंध समाज में प्रशासन और व्यवस्था से है। समाज में इन दो बुनियादी आयामों के अलावा (भोजन उत्पादन और सुचारू व्यवस्था की स्थापना) और भी कई ऐसी गतिविधियाँ है जिनका संबंध मुनष्य के हित से होता है और इसलिए उनको भी काम की श्रेणी में डाला जा सकता है। अध्याय 4: विद्यालय एवं कक्षा का वातावरण (School and Classroom Environment)सीखने की प्रक्रिया सामाजिक संबंधों के ताने-बाने में लगातार चलती रहती है जब शिक्षक एवं विद्यार्थी औपचारिक एवं अनौपचारिक रूप से अंतःक्रिया करते है। विद्यालय शिक्षार्थियों के समुदाय के लिए, जिसमें शिक्षक और विद्यार्थी दोनों आते है संस्थागत स्थान होते है। विद्यालय की सभी गतिविधियाँ इस समुदाय को जोङते हुए उसे एक शैक्षिक समुदाय की पहचान देती है। विद्यालय एवं कक्षा के वातावरण को किस प्रकार व्यवस्थित किया जाए कि इस तरह की अन्तःक्रियाएँ सीखने-सिखाने को समर्थन एवं बढ़ावा दें। स्कूल का एक ऐसे संदर्भ की तरह पोषण कैसे किया जाए जिसमें बच्चे स्वयं को सुरक्षित, खुश एवं स्वीकृत महसूस करें और जिसे अध्यापक सार्थक एवं व्यावसायिक रूप से संतोषजनक पाएँ ? वातावरण के भौतिक एवं मनोवैज्ञानिक आयाम महत्वपूर्ण एवं परस्पर संबंधित है। भौतिक वातावरण (Physical Environment)चेतन और अचेतन रूप से बच्चे संरचित या असंरचित समय में अपने विद्यालय के भौतिक वातावरण से निरंतर अंतःक्रिया करते रहते है। इसके बावजूद शिक्षा के भौतिक वातावरण के महत्व पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया जाता। प्रायः बिना किसी वैकल्पिक शिक्षा स्थल के, कक्षाओं में भीङ होती है। वे बिल्कुल भी आकर्षक नही होती। स्कूल की अनुपयुक्त डिजाइन अध्यापकों के उत्पादकता एवं कक्षा की व्यवस्था को प्रबल रूप से प्रभावित करती है। हमाई करे स्कूल आज भी जीर्ण-शीर्ण और घुटे हुए भवनों से चल रहे है। जो कि नीरस, अनुत्तेजक, अरुचिकर भौतिक परिस्थितियों को उत्पन्न करते है। स्थान, भवन तथा फर्नीचर संबंधी नियम व मानक तय करने से गुणवत्ता की समझ भी पुष्ट होगी। सक्षम बनाने वाले वातावरण का पोषण (Enabling Environments of Nature)सार्वजनिक स्थल के रूप में स्कूल में समानता, सामाजिक विविधता और बहुलता के प्रति सम्मान का भाव होना चाहिए, साथ ही बच्चों के अधिकारों और उनकी गरिमा के प्रति सजगता का भाव होना चाहिए। सीखने की क्षमता देने वाला वातावरण वह होता है जहाँ बच्चे सुरक्षित महसूस करते है, जहाँ भय का कोई स्थान नहीं होता और स्कूली रिश्तों में बराबरी और जगह में समता होती है। विद्यार्थियों की टिप्पणी की अनसुनी करने और चुप्पी को सख्ती से कक्षा में लागू करने की बजाए अगर शिक्षक विद्यार्थियों को चर्चा के लिए प्रोत्साहित करें तो पाएंगे कि कक्षा जीवंत बन गई है और शिक्षण मानसिक अंतःक्रिया की रोमांच स्थली बन जाता है। इस तरह का वातावरण इस उम्र के विद्यार्थी में आत्मबल और आत्मविश्वास का विकास करेगा। सभी बच्चों की भागीदारी (Participation of all children)बच्चे और वयसक अपने घर, समाज और आसपास के अनुभवों से सीखते है। एक समुदाय के लोगों के एक जैसे अनुभव होते है। इसीलिए उनके मूल्य भी एक जैसे हो जाते है। ये मूल्य, संस्कृति में और कभी-कभी विचाराधारा में बदल जाते है। यह एक चक्र है और जितनी बार अनुभवों का चक्र दोहराया जाता है। उतनी बार मूल्यों और संस्कृति को पुनर्वलन मिलता है जब तक कि अनुभव में कोई बदलाव नहीं होता। अतः विपरीत अनुभव को इतना सशक्त होना चाहिए कि वह पिछली अनुभूति को परिवर्तित कर दे। अध्याय 5: व्यवस्थागत सुधार (Systematic Improvement)स्कूल का माहौल और शिक्षको का व्यवहार दरअसल व्यवस्था के स्थापत्य पर टिका है। गुणवत्ता के लेकर सरोकारवर्तमान में पाठ्यचर्या की जो हालत है उसे इस प्रकार से संबोधित करने की जरूरत है: 🔶 बच्चों की शिक्षा में विकासात्मक मानकों का प्रयोग किया जाना चाहिए। 🔷 पाठ्यचर्या संबंधी चुनाव विद्यार्थियों के संदर्भ का उचित ख्याल रखते हुए किए जाने चाहिए। राष्ट्रीय शिक्षा की नीति 1986 और 1992 की कार्य योजना में रेखांकित किए गए लचीले रुख और विविधतापूर्ण आयामों को सुनिश्चित करना चाहिए। 🔶 शिक्षा तकनीकी को कक्षा और शिक्षक-प्रक्षिशण दोनों ही जगह सहायक सामग्री के रूप में देखा जाना चाहिए, न कि प्रत्यक्ष अनुभव के विकल्प के तौर पर। 🔷 गुणवत्ता एक व्यवस्थागत गुण है न कि शिक्षण और उपलब्धि का एक तत्व मात्र। गुणवत्ता केवल असरकारिता का पैमाना ही नहीं होता; इसका मूल्कपरक आयाम भी होता है। Ncf 2005 in Hindi Pdfमहत्त्वपूर्ण प्रश्न1. NCF 2005 बल देता है………….। 2. राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2005 में बातचीत की गई है- 3. · राष्ट्रीय पाठ्यचर्या रूपरेखा, 2005 के अंतर्गत निःशक्त बालकों की रक्षा के लिए प्रावधान किया जा सकता है- 4. राष्ट्रीय पाठ्यचर्या रूपरेखा, 2005 निम्न में से किस परीक्षा संबंधी सुधारों को सुझाया गया है ? 5. · राष्ट्रीय पाठ्यचर्या रूपरेखा, 2005 में ’बहुभाषा’ को एक संसाधन के रूप में समर्थन दिया गया है क्योंकि- 6. राष्ट्रीय पाठ्यचर्या रूपरेखा
2005 में गणित शिक्षा के किस किस बिन्दु पर मुख्यतया प्रकाश डाला गया है ? 7. बालकों के स्कूली जीवन को बाहर के जीवन से जोङा जाना चाहिए। इस कथन का सम्बन्ध है – 8. राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा, 2005 के अनुसार पाठ्यचर्या निर्माण के पांच निर्देशक सिद्धांतों में से एक है- 9. राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा, 2005 के अंतर्गत कितने केन्द्र समूह गठित किए गए थे ? 10. निम्न में से कौन
नेशनल स्टीयरिंग कमेटी NCF 2005 के अध्यक्ष थे ? 11. NCF 2005 के अनुसार बालक के सर्वांगीण विकास में शामिल है- 12. NCF 2005 में ’अनुशासन एवं सहभागी प्रबंधन’ शीर्षक के अंतर्गत कक्षा में शांति बनाए रखने से संबधित जो नियम होते है, इनके पालन से अध्यापक कक्षा से- 13. NCF 2005 के अनुसार ’जो कमा जिस स्तर पर संभव है, उसे उसी स्तर पर किया जाना चाहिए न कि उससे उच्च स्तर पर’ इसे कहा गया है- 14. NCF 2005 में ’समक्ष के रूप’ में दी गई · गणितीय की विशिष्ट अवधारणाओं में किसी शामिल नहीं किया गया ? 15. NCF 2005 के ’विकास को सीखना’ शीर्षक के अंतर्गत संज्ञानात्मक विकास का अर्थ है- 16. · गणित की प्रकृति एवं संरचना में निम्नलिखित विशेषता नहीं है ? 17. NCF 2005 में कला शिक्षा को विद्यालय में जोङने का उद्देश्य है 18. राष्ट्रीय पाठ्यक्रम रूपरेखा, 2005 में शांति शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए कुछ क्रियाओं की अनुशंसा की गई है। पाठ्यक्रम रूपरेखा में निम्न में से किसे सूचीबद्ध किया गया है ? 19. राष्ट्रीय पाठ्यचर्या रूपरेखा, 2005 के अंतर्गत ’परीक्षा सुधारों’ में निम्न में से किस सुधार को सुझाया गया है ? 20. राष्ट्रीय पाठ्यचर्या रूपरेखा, 2005 में ’गुणवत्ता आयाम’ शीर्षक के अंतर्गत अधिक महत्व दिया गया है- 21. NCF 2005 में प्राथमिक विद्यालयों के बालकों के लिए निम्न में किसे बेहतर माना गया ? 22. राष्ट्रीय पाठ्यचर्या रूपरेखा, 2005 में भारत की धार्मिक एवं सांस्कृतिक विविधता को मानना, स्त्रियों के प्रति सम्मान एवं जिम्मेदारी का दृष्टिकोण को बढ़ाने के प्रोग्राम का आयोजन एवं वृत्त चित्र
तथा फिल्मों को एकत्र करना एवं दिखाना जिनके माध्यम से न्याय एवं शांति में वृद्धि हो, को सुझाया गया है ताकि 23. NCF 2005 के अनुसार सामान्यतया विद्यार्थियों की गणित सीखने में रूचि नहीं है क्योंकि- 24. राष्ट्रीय पाठ्यक्रम रूपेरखा, 2005 में ’सामाजिक अध्ययन’ में निम्न में से किन मुद्दों को शामिल करने की अनुशंसा की गई है ? 25. राष्ट्रीय नीति-1986 में यह कहा गया है कि- 26. राष्ट्रीय पाठ्यचर्या 2005 की रूपरेखा के अनुसार शिक्षक है: 27. राष्ट्रीय पाठ्यचर्या रूपरेखा,
2005 के अनुसार स्कूलीय स्तर पर त्रिभाषा फाॅर्मूला को स्वीकार किया गया है, इस संदर्भ मेें से कौनसा कथन सही नहीं है ? 28. NCF 2005 में शिक्षा के वृत्तीकरण (Vocationalization) का उद्देश्य निम्न में से कौनसा है ? 29. राष्ट्रीय पाठ्यक्रम रूपरेखा 2005 का लक्ष्य है- 30. राष्ट्रीय पाठ्यचर्या रूपरेखा, 2005 में ’गुणवत्ता आयाम’ शीर्षक के अन्तर्गत
अधिक महत्व दिया गया है ? 31. राष्ट्रीय पाठ्यचर्या रूपरेखा, 2005 में निम्न में से किस परीक्षा सम्बन्धी सुधारों को सुझाया जाता है ? 32. राष्ट्रीय पाठ्यक्रम रूपेरखा 2005 की विशेषता है ? 33. राष्ट्रीय पाठ्यक्रम रूपरेखा, 2005 में शान्ति शिक्षा को बढ़ावा देने के
लिए कुछ क्रियाओं की अनुशंसा की गई है। पाठ्यक्रम रूपरेखा में निम्न में से किसे सूचीबद्ध किया गया है ? 34. राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा, 2005 में बातचीत की गई है- 35. राष्ट्रीय पाठ्यचर्या 2005 के अनुसार प्राथमिक स्तर की विद्यालय शिक्षा का माध्यम होना चाहिए 36. राष्ट्रीय पाठ्यक्रम रूपरेखा 2005 का मुख्य सूत्र है- पर्यायवरण प्रदुषण के बारे में पूरी जानकारी पढ़ें
राष्ट्रीय पाठ्यक्रम 2005 की संरचना के मुख्य लक्ष्य क्या है?NCF 2005 भारत में स्कूलों के लिए पाठ्यक्रम, पाठ्यपुस्तकों और शिक्षण प्रथाओं के लिए एक दिशानिर्देश के रूप में कार्य करता है। NCF 2005 ने शिक्षा पर पिछली सरकार की रिपोर्टों, जैसे लर्निंग विदाउट बर्डन और नेशनल पॉलिसी ऑफ़ एजुकेशन 1986-1992, और फ़ोकस ग्रुप डिस्कशन पर अपनी नीतियों को आधारित किया है ।
पाठ्यक्रम का लक्ष्य क्या है?पाठ्यक्रम का उद्देश्य छात्रों के ज्ञानात्मक , भावात्मक एवं क्रियात्मक पक्ष का विकास करना हैं। पाठ्यक्रम का उद्देश्यों छात्रो का नैतिक एवं चारित्रिक विकास करना हैं। पाठ्यक्रम का उद्देश्य छात्रों के व्यक्तित्व का विकास करना हैं। पाठ्यक्रम का उद्देश्य छात्रों में सामाजिक उत्तरदायित्व एवं सामाजिक भावनाओं का विकास करना हैं।
पाठ्यक्रम संरचना से आप क्या समझते हैं?एक पाठ्यक्रम के तौर पर यह अपनी संरचना और विन्यास में उन पारम्परिक अकादमिक कार्यक्रमों से एक महत्त्वपूर्ण प्रस्थान है, जो ज्ञान और कौशल के हस्तांतरण पर ही प्राथमिक रूप से अपना ध्यान एकाग्र करते हैं और शिक्षार्थियों की अन्य क्षमताओं के विकास में बाधक होते हैं।
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