पर्यावरण को प्रभावित करने वाले तत्व - paryaavaran ko prabhaavit karane vaale tatv

पर्यावरण के तत्व | Paryaavaran Ke Tatv | Elements of Environment in Hindi. The elements are:- 1. स्थिति (Location) 2. उच्चावच (Relief) 3. जलवायु (Climate) 4. प्राकृतिक वनस्पति (Natural Vegetation) 5. मृदा (Soils or Edaphic Factor) 6. जल राशियों (Water Bodies).

पर्यावरण अनेक तत्वों के समूह का नाम है तथा प्रत्येक तत्व का इसमें महत्वपूर्ण स्थान है । प्राकृतिक पर्यावरण के तत्व ही पारिस्थितिकी के भी तत्व हैं, क्योंकि पारिस्थितिकी का एक मूल घटक पर्यावरण है ।

अनेक विद्वानों ने पर्यावरण के तत्वों या कारकों का समूहीकरण अपने-अपने अध्ययन के अनुसार किया है, यद्यपि मूल तत्व उच्चावच, जलवायु, प्राकृतिक वनस्पति, मृदा एवं जल राशियाँ हैं । जीव अर्थात् मानव एवं अन्य जीव-जंतु भी इसका एक अंग है । कुछ विद्वानों ने पर्यावरण के तत्वों को दो समूहों में विभक्त किया है ।

वे हैं:

i. प्रत्यक्ष कारक- जैसे तापक्रम, आर्द्रता, मृदा, भूमिगत जल, भूमि की पोषकता आदि ।

ii. अप्रत्यक्ष कारक- जैसे भूमि की संरचना, जीवाणु, ऊँचाई, हवा, ढाल आदि ।

वनस्पतिवेत्ता ओस्टिंग (1948) ने पर्यावरण के निम्न कारक व्यक्त किये हैं:

a. पदार्थ- अर्थात मृदा एवं जल ।

b. दशायें- तापक्रम एवं प्रकाश ।

c. बल- वायु एवं गुरुत्वाकर्षण ।

d. जीव- वनस्पति एवं जीव-जन्तु ।

e. समय ।

इस प्रकार डोबेनमीर (1959) ने पर्यावरण के सात तत्व क्रमशः मृदा, जल, प्रकाश, वायु मण्डल, अग्नि एवं जैविक तत्व वर्णित किये हैं । कुछ अन्य विद्वान इन्हें चार समूहों अर्थात् जलवायु संबंधी कारक, भूआकारिक कारक, मृदा संबंधी कारक एवं जैविक कारक में विभक्त करते हैं । भौगोलिक अध्ययन में भी पर्यावरण के उपयुक्त तत्वों का ही विवेचन मिलता है, जिनका संक्षिप्त विवेचन अपेक्षित है ।

पर्यावरण के प्रमुख तत्व/कारक निम्नलिखित हैं:

1. स्थिति,

2. उच्चावच,

3. जलवायु:

(अ) तापमान,

(ब) वर्षा,

(स) आर्द्रता,

(द) वायु ।

4. प्राकृतिक वनस्पति,

5. मृदा,

6. जल राशियाँ ।

मानव एवं अन्य जीव जंतुओं को भी पर्यावरण का एक कारक स्वीकार किया जाता है ।

Element # 1. स्थिति (Location):

स्थिति एक ऐसा कारक है जिसका सामान्यतया वर्णन नहीं किया जाता किंतु यह पर्यावरण अध्ययन में अति महत्वपूर्ण तथ्य माना जाता है और वास्तविकता यह है कि स्थिति एक क्षेत्र के पर्यावरण की द्योतक है स्थिति को ज्योमितीय एवं निकटवर्ती क्षेत्रों के संदर्भ में स्थिति के रूप में व्यक्त करते हैं ।

ज्योमितीय स्थिति से तात्पर्य है अक्षांश एवं देशान्तर के संदर्भ में स्थिति, जिसके द्वारा संपूर्ण पृथ्वी के संदर्भ में स्थान विशेष का ज्ञान हो जाता है । इसमें अक्षांश के समन्वय होता है और ये जलवायु के द्योतक होते हैं, जैसे- उष्ण, शीतोष्ण, शीत जलवायु प्रदेशों का ज्ञान तुरंत उसकी अक्षांशीय स्थिति से हो जाता है ।

इसी प्रकार विषुवत् रेखीय एवं ध्रुवीय जलवायु इससे स्पष्ट हो जाती है और जैसी जलवायु होती है प्राकृतिक वनस्पति एवं जीव-जंतु तथा मानव व्यवसाय आदि वैसे ही होते हैं । अत: अक्षांशीय स्थिति पर्यावरण के एक संकेतक तत्व के रूप में कार्य करती है ।

स्थिति का दूसरा महत्वपूर्ण आयाम है निकटवर्ती क्षेत्र के संदर्भ में स्थिति अर्थात् वह पूर्णतया स्थल आवृत्त या महाद्वीप है अथवा चारों ओर से समुद्र से आवृत्त द्वीपीय है या उसकी तीन सीमायें, दो सीमायें या एक सीमा सागरीय है ।

उसके अनुसार महाद्वीपीय, द्वीपीय एवं प्रायद्वीपीय स्थिति होती है । यह स्थिति भी जलवायु को नियंत्रित करती है, सामुद्रिक स्थिति जहाँ जलवायु पर समकारी प्रभाव डालती है, वहीं महाद्वीपीय स्थिति कठोर जलवायु से युक्त होती है ।

स्थिति को पर्यावरण का एक ऐसा तत्व माना जाता है जो परिवर्तित नहीं होता, स्थिर होता है, इसी कारण अन्य विषय के विद्वान इसकी उपेक्षा भी कर देते हैं, किंतु वास्तव में स्थिति का ज्ञान पर्यावरण के अन्य तत्वों को समझने एवं विश्लेषण करने में सहायक होता है ।

Element # 2. उच्चावच (Relief):

भू-आकार या उच्चावच पर्यावरण का एक अति महत्वपूर्ण तत्व है । जैसा कि ज्ञात है कि संपूर्ण पृथ्वी का धरातल या उच्चावच विविधता में युक्त है । यह विविधता महाद्वीपीय स्तर से लेकर स्थानीय स्तर तक देखी जा सकती है ।

सामान्यतया उच्चावच के तीन स्वरूप पर्वत, पठार एवं मैदान हैं । इनमें भी विस्तार, ऊँचाई संरचना आदि की क्षेत्रीय विविधता होती है तथा अपरदन एवं अपक्षय क्रियाओं से अनेक भू-रूपों या स्थलाकृतियों का जन्म हो जाता है ।

जैसे- कहीं मरुस्थली स्थलाकृति है, तो कहीं चूना प्रदेश की, तो कहीं हिमानी कृत है, तो दूसरी ओर नदियों द्वारा निर्मित मैदानी या डेल्टाई प्रदेश । ये सभी तथ्य संपूर्ण जीव मण्डल, महाद्वीप के पर्यावरण को ही नहीं अपितु प्रादेशिक एवं स्थानीय पर्यावरण को भी निर्धारित करने में महत्वपूर्ण भूमिका रखते हैं ।

उच्चावच का प्रभाव पर्यावरण के अन्य कारकों जैसे- जलवायु, प्राकृतिक वनस्पति, मृदा पर प्रत्यक्ष दृष्टिगत होता है जो सामूहिक रूप से मानव के सांस्कृतिक एवं आर्थिक स्वरूप को निर्धारित करते हैं । यही कारण है कि मैदानी प्रदेश सदैव से सभ्यता के पोषक रहे हैं, यदि वहाँ अन्य कारक उपयुक्त हों तथा दूसरी ओर पर्वतीय क्षेत्र असमतल एवं अनियमित धरातल के कारण मानव बसाव एवं अन्य आर्थिक क्रियाओं में बाधक रहे हैं ।

एक प्रदेश में उच्चावच का प्रभाव वहाँ की जलवायु एवं प्राकृतिक वनस्पति पर स्पष्ट दृष्टिगत होता है । उच्चावच में पर्वतीय क्षेत्रों का पर्यावरण पर अत्यधिक प्रभाव होता है । पर्वत श्रेणियों की ऊँचाई ढाल विस्तार एवं दिशा का जलवायु एवं प्राकृतिक वनस्पति पर प्रत्यक्ष प्रभाव होता है ।

यह एक सामान्य नियम है कि जैसे-जैसे ऊँचाई में वृद्धि होती जाती है तापमान में कमी होती जाती है और तापमान में कमी से जलवायु में परिवर्तन होता है तथा जलवायु में परिवर्तन से प्राकृतिक वनस्पति में परिवर्तन होता है । सामान्यतया प्रति 1000 मीटर की ऊँचाई पर 6° से 7° से.ग्रे. तापमान कम हो जाता है ।

अत: सामान्य दशा में पर्वतों के निचले ढालों पर उष्ण, मध्यम ऊँचाई पर शीतोष्ण ओर अधिक ऊँचाई पर शीत जलवायु होती है । हिम रेखा के पश्चात् वर्षपर्यन्त हिम का जमाव होने से ध्रुव प्रदेशों जैसी स्थिति होती है ।

जलवायु का यह परिवर्तन अक्षांशीय स्थिति से प्रभावित होता है, जैसे- विषुवत् रेखीय प्रदेशों में हिम रेखा अधिक ऊँचाई पर होती है जबकि शीतोष्ण प्रदेशों में कम और ध्रुवीय प्रदेशों में अत्यधिक कम या सर्वत्र हिम का जमाव होता है ।

जलवायु में हुए इस परिवर्तन के कारण उष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों के पर्वतीय भागों जैसे- हिमालय आदि के निचले भागों में उष्ण कटिबंधीय वनस्पति, मध्यम ऊँचाई पर शीतोष्ण, इसके पश्चात् कोणधारी वन और तत्पश्चात् छोटे पौधे और फिर हिम मण्डित प्रदेश जो वनस्पति रहित प्रदेश होता है ।

पर्वत श्रेणियों का वर्षा पर सीधा प्रभाव होता है, यह उनके विस्तार की दिशा एवं वायु प्रवाह के मार्ग पर निर्भर करता है । यदि पर्वतों का विस्तार वायु मार्ग में अवरोध का है तो उसके कारण वायु ऊपर होगी, उसका तापमान कम होगा तथा आर्द्रता धारण करने की क्षमता कम होने से वर्षा होगी ।

यह वर्षा पर्वत श्रेणी के वायु अभिमुख ढाल पर ही होती है, दूसरा अर्थात् वायु विमुख ढाल ‘वृष्टि छाया प्रदेश’ में रह कर शुष्क या अति अल्प वर्षा प्राप्त करता है । वर्षा की इस मात्रा में परिवर्तन के कारण पर्वत के दोनों ढ़ालों पर वनस्पति में भी अंतर होता है ।

किंतु यदि पर्वत का विस्तार वायु की दशा में होगा तो उसका प्रभाव वर्षा पर नगण्य होता है जैसा कि राजस्थान की अरावली पर्वतमाला का है । पर्वतीय धरातल स्थानीय रूप से जलवायु एवं वनस्पति को अत्यधिक प्रभावित करता है ।

अनेक बार ये शीत या गर्म हवाओं को रोककर स्थानीय मौसम में परिवर्तन का कारण बनते हैं । पर्वतीय ढाल की प्रकृति अर्थात् तीव्र, मध्यम एवं मंद का सूर्य ताप की मात्रा, जल प्रवाह की गति, मृदा अपरदन एवं वनस्पति पर प्रभाव होता है । उत्तरी गोलार्द्ध के उच्च क्षेत्रों में जहाँ तीव्र ढाल होता है वहाँ दक्षिणी ढाल पर अधिक सूर्य ताप तथा उत्तरी ढाल ठण्डे होते हैं जबकि दक्षिणी गोलार्द्ध में इससे विपरीत होता है ।

इस सूर्य ताप की मात्रा से तापमान एवं तदनुसार प्राकृतिक वनस्पति में अंतर आ जाता है । मृदा की बनावट पर ढाल की तीव्रता का प्रभाव होता है, यहाँ तक कि बहते हुए जल के साथ अधिकांश मृदा बह जाती है और वहाँ केवल चट्टानें रह जाती हैं ।

संक्षेप में, हम कह सकते हैं कि उच्चावच का जहाँ पर्यावरण का प्रभाव पड़ता है वहीं जनसंख्या निवास, कृषि, परिवहन, उद्योग आदि आर्थिक एवं सांस्कृतिक गतिविधियों पर भी प्रभाव पड़ता है । पर्वतीय क्षेत्र आज भी वनों के संरक्षक हैं । यद्यपि इन पर संकट आया हुआ है । कुछ क्षेत्रों में खनन हेतु भी पर्वतों को नष्ट किया जा रहा है । वास्तव में उच्चावच प्रादेशिक एवं क्षेत्रीय पारिस्थितिक तंत्र को संतुलित रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है ।

Element # 3. जलवायु (Climate):

जलवायु पर्यावरण का नियंत्रक तत्व है, क्योंकि इसका प्रभाव अन्य पर्यावरण के कारकों, जैसे- प्राकृतिक वनस्पति, मृदा, जल राशियों, जीव-जंतुओं आदि पर सर्वाधिक होता है । यहीं नहीं मानव स्वयं भी जलवायु से अत्यधिक प्रभावित होता है, उनका भोजन, वस्त्र, आवास, व्यवसाय ही नहीं अपितु कृषि उत्पादन, जनसंख्या बसाव आदि भी इससे प्रभावित होता है ।

जलवायु मूलत: सूर्य ताप (प्रकाश एवं तापमान), वर्षा, आर्द्रता एवं हवाओं का सम्मिलित स्वरूप है, जो विश्व के विभिन्न भागों में ही नहीं अपितु एक देश में भी परिवर्तित होती रहती है, तदनुसार पर्यावरण की दशाओं एवं पारिस्थतिक-तंत्र में भी परिवर्तन दृष्टिगत होता है ।

प्रकाश का स्रोत सूर्य है जो वनस्पति को अत्यधिक प्रभावित करता है । वनस्पति की अनेक क्रियायें, जैसे- फोटोसिन्थेसिस क्लोरोफिल बनना, श्वसन, गर्मी प्राप्त करना, बीजों का अंकुरण, विकास एवं वितरण प्रभावित होता है । प्रकाश की प्राप्ति पर वायु मण्डल में उपस्थित गैस, बादलों की सघनता, वायु मण्डल में विस्तीर्ण धूल के कण, वनस्पति, जल एवं स्थल की आकृति का प्रभाव होता है । केवल वनस्पति ही नहीं अपितु जीव-जंतु और स्वयं मनुष्य पर भी इसका विविध प्रकार से प्रभाव पड़ता है ।

तापक्रम का सीधा प्रभाव वायु मण्डल के अतिरिक्त वनस्पति, पशुओं एवं मनुष्य पर होता है । तापक्रम जीवन के लिए आवश्यक है चाहे वे धरातल पर वनस्पति, पशु, पक्षी या अन्य जीवाणु हों या समुद्री जीवन हो । मनुष्य के सभी क्रिया-कलापों का सीधा संबंध तापक्रम से होता है । एक सामान्य नियम है कि अत्यधिक तापमान या अत्यधिक न्यून तापमान जीवन के लिए हानिकारक होता है । वनस्पति का सीधा तापमान से संबंध होता है जो अक्षांशीय स्थिति एवं ऊँचाई के साथ परिवर्तित होता जाता है ।

विषुवत रेखीय प्रदेशों में उच्च तापमान एवं वर्षा अति सघन वनों का कारण है, संपूर्ण उष्ण कटिबंध में उष्ण वर्षा वाले वन मिलते हैं, जबकि मध्यम अक्षांशों में घास के मैदान पतझड़ वाले वन और शीत प्रदेशों के सीमावर्ती भाग में कोणधारी वन उसके पश्चात् टुण्ड्रा प्रदेश की वनस्पति और फिर हिम मण्डित प्रदेश ।

यही क्रम ऊँचाई की वृद्धि के साथ भी देखा जा सकता है जिसका उल्लेख उच्चावच के साथ किया जा चुका है । जलवायु का अन्य प्रमुख तत्व वर्षा है, यह भी जीवन का स्रोत है चाहे वह मानव हो, वनस्पति हो अथवा अन्य जीव-जंतु ।

पृथ्वी के विशाल क्षेत्र पर जल का विस्तार है, जिससे निरंतर वाष्पीकरण के माध्यम से जल वाष्प वायु मण्डल में प्रवेश करती है तथा संघनन की क्रिया द्वारा पुन: वर्षा एवं अन्य रूपों में धरातल पर आ जाती है । जल का वायु मण्डल में प्रवेश एवं पुन: वर्षा के रूप में आना एक चक्र के रूप में चलता रहता है इसे ‘जल चक्र’ कहते हैं ।

पृथ्वी तल पर वर्षा का वितरण अत्यधिक असमान है । एक ओर वर्ष पर्यन्त अत्यधिक वर्षा वाले क्षेत्र हैं तो दूसरी ओर शुष्क मरुस्थली क्षेत्र और कहीं मध्यम या सामान्य वर्षा के प्रदेश हैं । इसी के अनुसार वहाँ का पर्यावरण होता है ।

एक ओर विषुवत रेखा के प्रदेशों के सघन वन है जहाँ प्रकाश भी धरातल तक नहीं पहुँच पाता, दूसरी ओर सवाना घास के मैदान और कहीं शुष्क मरुस्थली कंटीली झाड़ियाँ हैं । वर्षा के द्वारा कृषि की विभिन्न उपजों के उत्पादन का निर्धारण होता है ।

अति वर्षा बाढ़ का कारण बन जाती है तो वर्षा के अभाव में सूखा और अकाल पड़ जाता है । जलवायु के अन्य तत्व आर्द्रता है जो वायु में उपस्थित रहती है । तापक्रम के अनुरूप वायु में आर्द्रता धारण करने की क्षमता होती है और यही नमी तापक्रम के गिरने पर वर्षा, कोहरा, धुंध, हिम आदि के रूप में प्रगट होता है ।

हवाओं का संबंध वायु भार एवं तापमान से होता है । हवायें उच्च वायु भार से निम्न वायु भार की ओर चलती हैं । विश्व में वर्ष पर्यन्त चलने वाली व्यापारिक, पछुआ और ध्रुवीय हवायें हैं, तो दूसरी ओर मौसम के साथ परिवर्तित होने वाली मानसुनी हवायें हैं ।

इनके अतिरिक्त स्थानीय हवायें एवं चक्रवात भी चलते हैं । ये सभी हवायें जलवायु अर्थात् तापक्रम वर्षा आदि को प्रभावित करती हैं तथा इनका प्रभाव वनस्पति एवं मानव पर भी होता है । संक्षेप में हम कह सकते हैं कि जलवायु पारिस्थितिक-तंत्र का नियंत्रक है । विश्व के वृहत् जलवायु विभाग जहाँ विश्वव्यापी पर्यावरण की दशाओं को नियंत्रित करते हैं वहीं प्रादेशिक एवं स्थानीय जलवायु की दशा क्षेत्रीय पर्यावरण की नियंत्रक है ।

Element # 4. प्राकृतिक वनस्पति (Natural Vegetation):

प्राकृतिक वनस्पति के अंतर्गत सघन वनों से लेकर कंटीली झाड़ियों, घास एवं छोटे पौधे जो प्राकृतिक परिस्थितियों में पल्लवित हों, सम्मिलित किये जाते हैं । प्राकृतिक वनस्पति जलवायु, उच्चावच एवं मृदा से अस्तित्व में आती है और इन्हीं में जो परिवर्तन होता है उसके अनुरूप प्राकृतिक वनस्पति में भी परिवर्तन होता है ।

जहाँ प्राकृतिक वनस्पति पर्यावरण की उपज है वहीं वह पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी को अत्यधिक प्रभावित करती है । प्राकृतिक वनस्पति का प्रभाव जलवायु एवं मृदा पर स्पष्ट दृष्टिगत होता है । वनस्पति को जलवायु का नियंत्रक माना जाता है । यह तापमान को उच्च होने से रोकती है तथा वायु मण्डल की आर्द्रता में वृद्धि करती है जो वर्षा में सहायक होती है । यह वायु मण्डल में विभिन्न गैसों की मात्रा में संतुलन बनाये रखती है ।

पेड़-पौधों से निकलने वाली ऑक्सीजन प्राण वायु है साथ ही ये दूषित कार्बन-डाई-ऑक्साइड को ग्रहण कर उसे प्रदूषित होने से बचाती है । वायु मण्डल अथवा वायु के प्रदूषण को रोकने में वनस्पति की अत्यधिक भूमिका है ।

यही कारण है कि वनों के विनाश से वायु प्रदूषण का खतरा अधिक होता जा रहा है । वनों के कटने से मरुस्थलीकरण की प्रक्रिया में वृद्धि होने से मरुस्थलों का विस्तार हो रहा है । प्राकृतिक वनस्पति मृदा की संरक्षक है क्योंकि वृक्षों की जड़ें भूमि को जकड़े रहती है जिससे उसका अपरदन नहीं होता और जहाँ भूमि कटाव हो रहा हो वहाँ वृक्षारोपण द्वारा इसे रोका जा सकता है ।

यही नहीं अपितु भूमि की उर्वरता के लिये आवश्यक जीवांश भी मृदा को इसी से प्राप्त होता है । वन जंगली जानवरों के आवास स्थल एवं सौंदर्य से युक्त पर्यटन स्थल होते हैं जिन्हें अभयारण्य तथा राष्ट्रीय पार्क के रूप में विकसित किया जाता है । निःसंदेह वन मानव के विकास में तथा पर्यावरण को स्वच्छता प्रदान करने में महतीं भूमिका निभाते हैं ।

Element # 5. मृदा (Soils or Edaphic Factor):

मृदा धरातल की ऊपरी उथली परत का सामान्य नाम है जिसका निर्माण चट्टानों के निरंतर अपक्षय एवं अपरदन तथा कार्बनिक पदार्थों के मिश्रण के फलस्वरूप होता है । अत: मृदा में विभिन्न प्रकार के रासायनिक तत्वों का समावेश होता है जिससे यह विभिन्न प्रकार की वनस्पति एवं उपजों को पोषकता प्रदान करती है ।

मृदा का सर्वाधिक महत्व वनस्पति एवं कृषि उपजों हेतु है, क्योंकि यही पौधों को आधार प्रदान करती है और पौधों पर प्राणियों का जीवन निर्भर करता है । मृदा की बनावट एवं संरचना के विस्तार में न जाकर संक्षेप में कह सकते हैं कि मृदा का निर्माण चार घटकों अर्थात् खनिज पदार्थ, कार्बनिक पदार्थ, मृदा जल और मृदा वायु से होता है ।

सामान्य रूप से मृदा तीन प्रकार की अर्थात् रेतीली मृदा, चिकनी मृदा और दुमटी मृदा होती है । मृदा प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप से वनस्पति को प्रभावित करती है । पौधों के लिये पोषक तत्व तथा जल मृदा से ही प्राप्त होते हैं ।

मृदा की रासायनिक संरचना में नाइट्रोजन, कार्बन और जल मुख्य होता है । इसके अतिरिक्त सोडियम, पोटेशियम, मैग्नीशियम, कैल्शियम, सिलिका आदि अनेक तत्व होते हैं । एक अन्य महत्वपूर्ण तत्व जीवांश है जो वनस्पति से प्राप्त होता है ।

मृदा का उपजाऊपन उसके महत्व में वृद्धि करता है । क्षारीय एवं अम्लीय मृदा सामान्य पौधों की वृद्धि में बाधक होती है । भूमि का जल तथा वायु से कटाव अनेक क्षेत्रों में प्रमुख समस्या है, यह समस्या वनों के विनाश से और अधिक होती जा रही है जो पर्यावरण अवकर्षण का एक प्रमुख कारण है । पर्यावरण के तत्व के रूप में मृदा वनस्पति को जीवन प्रदान करने वाली तथा कृषि उपजों के उत्पादन में सहायक की भूमिका निभाती है तथा यह नमी संग्रह कर वाष्पीकरण की प्रक्रिया में भी सहयोग देती है ।

Element # 6. जल राशियों (Water Bodies):

प्राकृतिक जल राशियों में महासागर, सागर, झीलें, नदियाँ एवं प्राकृतिक जलाशय सम्मिलित किये जाते हैं । महासागर संपूर्ण विश्व के जीव जगत् या जीव मण्डल अथवा विश्व पारिस्थितिक-तंत्र को नियंत्रित करते हैं । जलवायु पर महासागरों एवं सागरों का अत्यधिक प्रभाव होता है । वायु-मण्डल में नमी की मात्रा, वाष्पीकरण, वायु में नमी, तापक्रम में कमी, आदि प्रभाव वृहत् जल राशियों का होता है ।

समुद्र का जलवायु पर समकारी प्रभाव होता है अर्थात् वहाँ तापमान न तो बहुत उच्च, न निम्न हो पाता है । समुद्री पवनें हमेशा जल वर्षा प्रदायक होती हैं । समुद्र का अपना सागरीय पारिस्थितिक-तंत्र होता है, जिसमें समुद्री जीव-जंतु, वनस्पति का वहाँ का पर्यावरण के अनुरूप विकास होता है ।

इसी प्रकार झील पारिस्थितिक-तंत्र एवं तालाब पारिस्थितिक-तंत्र का विकास होता है । नदियाँ जल प्रदायक होती है और मैदानी भागों को उपजाऊ बनाने का कार्य करती हैं साथ ही डेल्टाई प्रदेश में दलदली भाग का विकास । सभी प्रकार की जलराशियाँ जल चक्र के संचालन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं ।

उपर्युक्त तत्वों के अतिरिक्त अनेक जीव-जंतु एवं सूक्ष्म जीवाणु भी पर्यावरण के अंग होते हैं । कुछ विद्वान खनिजों को भी प्राकृतिक तत्वों में सम्मिलित करते हैं, किंतु खनिज स्वत: उद्भूत न होकर खनन क्रिया से सक्रिय होते हैं अत: मानवीय क्रिया में सम्मिलित किये जाते हैं ।

वर्णित पर्यावरण के सभी तत्व एकाकी रूप में तो प्रभावित करते ही हैं, वस्तुत: इनका सामूहिक प्रभाव ही पर्यावरण एवं पारिस्थितिक-तंत्र को नियंत्रित करता है । पर्यावरण एवं प्रदूषण के अध्ययन में पर्यावरण के तत्वों का अत्यधिक महत्व है ।

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पर्यावरण को प्रभावित करने वाले कारक कौन कौन से हैं?

पर्यावरण के प्रमुख कारक (Major environmental factors).
पर्यावरण का स्थानिक तथा समय मापक्रम (Spatial and time scale of the environment) ... .
जलवायु (Climate) ... .
सूक्ष्म जलवायु (Micro climatic).

पर्यावरण के चार प्रमुख तत्व कौन से है?

Solution : पर्यावरण के तत्व-पर्यावरण के चार तत्व हैं-स्थल, जल, वायु और जीव। इनमें से प्रथम तीन परस्पर मिलकर भौतिक पर्यावरण का निर्माण करते हैं और जीव-जन्तु जैवमण्डल का निर्माण करते हैं। उपयुक्त चारों तत्वों में अत्यन्त घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित है। उदाहरण के लिए, जलमण्डल से जल का वाष्पीकरण होता है।

पर्यावरण का तत्व क्या है?

इस प्रकार डोबेनमीर (1959) ने पर्यावरण के सात तत्व क्रमशः मृदा, जल, प्रकाश, वायु मण्डल, अग्नि एवं जैविक तत्व वर्णित किये हैं । कुछ अन्य विद्वान इन्हें चार समूहों अर्थात् जलवायु संबंधी कारक, भूआकारिक कारक, मृदा संबंधी कारक एवं जैविक कारक में विभक्त करते हैं ।

हमारे पर्यावरण के पांच मुख्य तत्व कौन से हैं?

पर्यावरण दिवस पर जानिए 5 तत्वों की महत्ता.
पृथ्‍वी तत्व : इसे जड़ जगत का हिस्सा कहते हैं। ... .
जल तत्व : जल से ही जड़ जगत की उत्पत्ति हुई है। ... .
अग्नि अत्व : अग्नि से जल की उत्पत्ति मानी गई है। ... .
वायु तत्व : वायु के कारण ही अग्नि की उत्पत्ति मानी गई है। ... .
आकाश तत्व : आकाश एक ऐसा तत्व है जिसमें पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु विद्यमान है।.