कीटों में श्वसन अंग कौन सा होता है? - keeton mein shvasan ang kaun sa hota hai?

हेलो स्टूडेंट हमें क्यूशन दिया गया है किट्टू में शोषण के लिए कौन सा अंग होता है इसका आंसर देखें आंसर की 2 में शरीर के पार्श्व भाग में खेतों में खेतों में शरीर के शरीर के पार्श्व भाग में पार्श्व भाग में छोटे-छोटे छिद्र होते हैं छोटे-छोटे छिद्र होते हैं यह चिदर यह सिदार चौहान सर अंदर कहलाते हैं

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यह सिद्ध सवार अंदर कहलाते हैं सुभाष चंद्र कहलाते हैं कि 2 में गेंद भी नहीं में किट्टू में गैस विनिमय किट्टू में गैस विनिमय के लिए के लिए वायु नलिका ओं का जाल बिछा होता है वायु नलिका ओं का वायु नलिका ओं का जाल बिछा होता है

जाल बिछा होता है जो वक्त कहलाते हैं जो हुआ तक कहलाते हैं क्लियर यह चीज तो देखो कि टो में क्या होता है कीटों के शरीर में स्वसन अंग के रूप में क्या होते हैं सूक्ष्म अंदर पाए जाते हैं यानी कीटों के शरीर के पार्श्व भाग केंद्र छोटे-छोटे छिद्र होते हैं यह चित्र क्या कहलाते हैं सुभाष चंद्र कहलाते हैं और कीटों में जो गैस भी नहीं होता है यानी कि ऑक्सीजन का प्रवेश करना CO2 का बार निकलना वह किसके द्वारा होता है इन्हीं सांसदों के द्वारा होता है अब के शरीर के अंदर क्या होता है वह यूनिलिक में पाई जाती हैं ठीक है पूरे शरीर के अंदर क्या होती है वहीं ने लिखा ही पाई जाती यह वायु ने लिखा है कि टो के शरीर में प्रत्येक उत्तक तक ऑक्सीजन को पहुंचाने का काम करती हैं तो इन हवाओं ने लोगों को क्या कहते हैं वाक्य कहते हैं

ठीक है और इस बात तक के द्वारा क्या होता है गैस विनय में होता है तुम आशा करता हूं दोस्तों आपको यह ट्यूशन समझाया होगा

चेतावनी: इस टेक्स्ट में गलतियाँ हो सकती हैं। सॉफ्टवेर के द्वारा ऑडियो को टेक्स्ट में बदला गया है। ऑडियो सुन्ना चाहिये।

कीटो में एक अलग तरह का श्वसन अंग होता है जिसको ट्रैकिंग सिस्टम बोलते हैं तो ट्रैकिंग सिस्टम जो होती है वह ट्यूब होती है छोटी छोटी छोटी छोटी छोटी पूरी बॉडी में एक्स ऑक्सीजन को पहुंचाती है यानी कि जो ऑक्सीजन लेते हैं उनको पहुंचाती है

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कीटो में श्वसन अंग का कार्य कौन?...


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इंडिया फेमस कीटों में श्वसन एंड जयपुर ट्रेकिया होता है एजेंट यू लाइक संरचना होती है जो उसके अंदर होता है और इसके अंदर इयर्स होते हो प्रवेश करती है ट्रेकिया के अंदर जो एक्सर्शन मार्ग का काम करता है कीटों में श्वसन प्रक्रिया ट्रेकिया के थ्रू ही होता है

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कीटों में श्वसन अंग कौन सा होता है? - keeton mein shvasan ang kaun sa hota hai?

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  • कीटों का श्वसन अंग कौन सा है - keeton ka shwasan ang kaun sa hai

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Last updated on Nov 29, 2022

UPSC CDS I Result declared on 21st November 2022. This is the final result for the CDS I examination 2022. Earlier, the Written Exam Result was declared for CDS II. The exam was conducted on 4th September 2022. The candidates who are qualified in the written test are eligible to attend the Interview. A total number of 6658 candidates were shortlisted for the same. The Interview Schedule is going to be released. This year a total number of 339 vacancies have been released for the UPSC CDS Recruitment 2022. 

कीट
Insect
कीटों में श्वसन अंग कौन सा होता है? - keeton mein shvasan ang kaun sa hota hai?
एक टिड्डी
वैज्ञानिक वर्गीकरण
जगत: जंतु
संघ: युआर्थ्रोपोडा (Euarthropoda)
अश्रेणीत: पैनक्रस्टेशिया (Pancrustacea)
उपसंघ: षटपाद (Hexapoda)
वर्ग: इन्सेक्टा (Insecta)
लीनियस, 1758
गण, कुल, वंश, जातियाँ

१ करोड़ अनुमानित जातियाँ

कीट [1] अर्थोपोडा संघ का एक प्रमुख वर्ग है। इसके 10 लाख से अधिक जातियों का नामकरण हो चुका है। पृथ्वी पर पाये जाने वाले सजीवों में आधे से अधिक कीट हैं।[2][3] ऐसा अनुमान लगाया गया है कि कीट वर्ग के 3 करोड़ प्राणी ऐसे हैं जिनको चिन्हित ही नहीं किया गया है अतः इस ग्रह पर जीवन के विभिन्न रूपों में कीट वर्ग का योगदान 90% है।[4] ये पृथ्वी पर सभी वातावरणों में पाए जाते हैं। सिर्फ समुद्रों में इनकी संख्या कुछ कम है। आर्थिक रूप से महत्वपूर्ण कीट हैं: एपिस (मधुमक्खी) व बांबिक्स (रेशम कीट), लैसिफर (लाख कीट); रोग वाहक कीट, एनाफलीज, क्यूलेक्स तथा एडीज (मच्छर); यूथपीड़क टिड्डी (लोकस्टा); तथा जीवीत जीवाश्म लिमूलस (राज कर्कट किंग क्रेब) आदि।

परिचय[संपादित करें]

कीट प्राय: कोई भी छोटा, रेंगनेवाला, खंडों में विभाजित शरीरवाला और बहुत सी टाँगोंवाला प्राणी कीट कह दिया जाता हैं, किंतु वास्तव में यह नाम विशेष लक्षणोंवाले प्राणियों को दिया जाना चाहिए। कीट अपृष्ठीवंशियों (Invertebrates) के उस बड़े समुदाय के अंतर्गत आते है जो सन्धिपाद (Anthropoda) कहलाते हैं। लिनीयस ने सन्‌ 1735 में कीट (इनसेक्ट=इनसेक्टम्‌=कटे हुए) वर्ग में वे सब प्राणी सम्मिलित किए थे जो अब संधिपाद समुदाय के अंतर्गत रखे गए हैं। लिनीयस के इनसेक्ट (इनसेक्टम्‌) शब्द को सर्वप्रथम एम. जे. ब्रिसन ने सन्‌ 1756 में सीमित अर्थ में प्रयुक्त किया। तभी से यह शब्द इस अर्थ में व्यवहृत हो रहा है। सन्‌ 1825 में पी. ए. लैट्रली ने कीटों के लिये षट्पाद (Hexapoda) शब्द का प्रयोग किया, क्योंकि इस शब्द से इन प्राणियों का एक अत्यंत महत्वपूर्ण लक्षण व्यक्त होता है।

वास्तविक कीटों के लक्षण[संपादित करें]

इनका शरीर खंडों में विभाजित रहता है जिसमें सिर में मुख भाग, एक जोड़ी श्रृंगिकाएँ (Antenna), प्र्ााय: एक जोड़ी संयुक्त नेत्र और बहुधा सरल नेत्र भी पाए जाते हैं। वृक्ष पर तीन जोड़ी टाँगों और दो जोड़े पक्ष होते हैं। कुछ कीटों में एक ही जोड़ा पक्ष होता है और कुछेक पक्षविहीन भी होते है। उदर में टाँगें नहीं होती। इनके पिछले सिरे पर गुदा होती है और गुदा से थोड़ा सा आगे की ओर जननछिद्र होता है। श्वसन महीन श्वास नलियों (ट्रेकिया, Trachea) द्वारा होता हैं। श्वासनली बाहर की ओर श्वासरध्रं (स्पाहरेकल Spiracle) द्वारा खुलती है। प्राय: दस जोड़ी श्वासध्रां शरीर में दोनों ओर पाए जाते हैं, किंतु कई जातियों में परस्पर भिन्नता भी रहती है। रक्त लाल कणिकाओं से विहीन होता है और प्लाज्म़ा (Plasma) में हीमोग्लोबिन (Haemoglobin) भी नहीं होता। अत: श्वसन की गैसें नहीं पहुँचती। परिवहन तंत्र खुला होता हैं, हृदय पृष्ठ की ओर आहारनाल के ऊपर रहता है। रक्त देहगुहा में बहता है, बंद वाहिकाओं की संख्या बहुत थोड़ी होती है। वास्तविक शिराएँ, धमनियों और केशिकाएँ नहीं होती। निसर्ग (मैलपीगियन, Malpighian) नलिकाएँ पश्चांत्र के अगले सिरे पर खुलती हैं। एक जोड़ी पांडुर ग्रंथियाँ (Corpora allata) भी पाई जाती हैं। अंडे के निकलने पर परिवर्धन प्राय: सीधे नहीं होता, साधारणतया रूपांतरण द्वारा होता है।

प्राणियों में सबसे अधिक जातियाँ कीटों की हैं। कीटों की संख्या अन्य सब प्राणियों की सम्मिलित संख्या से छह गुनी अधिक है। इनकी लगभग दस बारह लाख जातियाँ अब तक ज्ञात हो चुकी हैं। प्रत्येक वर्ष लगभग छह सहस्त्र नई जातियाँ ज्ञात होती हैं और ऐसा अनुमान है कि कीटों की लगभग बीस लाख जातियाँ संसार में वर्तमान हैं। इतने अधिक प्राचुर्य का कारण इनका असाधारण अनुकूलन (ऐडैप्टाबिलिटी, Adaptability) का गुण हैं। ये अत्यधिक भिन्न परिस्थितियों में भी सफलतापूर्वक जीवित रहते हैं। पंखों की उपस्थिति के कारण कीटों को विकिरण (डिसपर्सल, dispersal) में बहुत सहायता मिलती हैं। ऐसा देखने में आता में है कि परिस्थितियों में परिवर्तन के अनुसार कीटों में नित्य नवीन संरचनाओं तथा वृत्तियों (हैबिट्स, habit) का विकास होता जाता है।

कीटों ने अपना स्थान किसी एक ही स्थान तक सीमित नहीं रखा है। ये जल, स्थल, आकाश सभी स्थानों में पाए जाते हैं। जल के भीतर तथा उसके ऊपर तैरते हुए, पृथ्वी पर रहते और आकाश में उड़ते हुए भी ये मिलते हैं। अन्य प्राणियों और पौधों पर बाह्य परजीवी (इंटर्नल पैरासाइट, internal parasite) के रूप मे भी ये जीवन व्यतीत करते हैं। ये घरों में भी रहते हैं और वनों में भी; तथा जल और वायु द्वारा एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुँच जाते हैं। कार्बनिक अथवा अकार्बनिक, कैसे भी पदार्थ हों, ये सभी में अपने रहने योग्य स्थान बना लेते हैं। उत्तरी ध्रुवप्रदेश से लेकर दक्षिणी ध्रुवप्रदेश तक ऐसा कोई भी स्थान नहीं जहाँ जीवधारियों का रहना हो ओर कीट न पाए जाते हों। वृक्षों से ये किसी रूप में अपना भोजन प्राप्त कर लेते हैं। सड़ते हुए कार्बनिक पदार्थ ही न जाने कितनी सहस्र जातियों के कीटों को आकृष्ट करते तथा उनका उदरपोषण करते हैं। यही नहीं कि कीट केवल अन्य जीवधारियों के ही बाह्य अथवा आंतरिक पारजीवी के रूप में पाए जाते हों, वरन्‌ उनकी एक बड़ी संख्या कीटों को भी आक्रांत करती है। और उनसे अपने लिए आश्रय तथा भोजन प्राप्त करती हैं। अत्यधिक शीत भी इनके मार्ग में बाधा नहीं डालता। कीटों की ऐसी कई जातियाँ हैं जो हिमांक से भी लगभग 50 सेंटीग्रेट नीचे के ताप पर जीवित रह सकती हैं। दूसरी ओर कीटों के ऐसे वर्ग भी हैं जो गरम पानी के उन श्रोतों में रहते हें जिसका ताप 40 से अधिक है। कीट ऐसे मरुस्थलों में भी पाए जाते हैं जहां का माध्याह्कि ताप 60 सेल्सियस तक पहुँच जाता है कुछ कीट तो मरुस्थलों में भी पाऐ जाते हैं। जहाँ का माध्यांह्कि ताप 60 सेल्सियस तक पहुँच जाता है। कुछ कीट तो ऐसे पदार्थों में भी अपने लिए पोषण तथा आवास ढँूढ लेते हैं जिसके विषय में कल्पना भी नहीं की जा सकती कि उनमें कोई जीवधारी रह सकता है या उनके प्राणी अपने लिए भोजन प्राप्त कर सकता है। उदाहरण के लिए, साइलोसा पेटरोली (Psilosa petroll) नामक कीट के डिंभ कैलीफोर्निया के पैट्रोलियम के कुओं में रहते पाये गये हैं। कीट तीक्ष्ण तथा विषैले पदार्थों में रहते तथा अभिजनन करते पाए गए हैं। जैसे अपरिष्कृत टार्टर जिसमे 80 प्रतिशत पौटेशियम वाईटार्टरेट होता है।) अफीम, लाल मिर्च अदरक नौसादर, कुचला (स्ट्रिकनीन, strychnine) पिपरमिंट कस्तूरी, मदिरा की बोतलों के काम, रँगने वाले ब्रश। कुछ कीट ऐसे भी हैं जो गहरे कुओं और गुफाओं मे रहते हैं जहाँ प्रकाश कभी नहीं पहुँचता। अधिकतर कीट उष्ण देशों में मिलते हैं और इन्हीं कीटों से नाना प्रकार की आकृतियों तथा रंग पाए जाते हैं।

सहजवृति (Instinct) के कारण कीटों का व्यवहार स्वभावत: ऐसा होता है जिससे उनके निजी कार्य में निरंतर लगे रहने की दृढ़ता प्रकट होती है। उनमें विवेक और विचारशक्ति का अभाव होता है। घरेलू मक्खियों को ही लें। बारबार किए जाने वाले प्रहार से वे न तो डरती हैं और न हतोत्साहित ही होती हैं। उन्हें हार मानना तो जैसे आता ही नहीं। जब तक उनके शरीर में प्राण रहते हैं तब तक वे अपने भोजन की प्राप्ति तथा संतानोत्पति के कार्य की पूर्ति में बराबर लगी रहती हैं।

आकार[संपादित करें]

कीटो का आकार प्राय छोटा होता है। अपने सूक्ष्म आकार के कारण वे वहुत लाभान्वित हुए हें। यह लाभ अन्य दीर्घकाय प्राणियो को प्राप्त नहीं हैं। प्रत्येक कीट को भोजन की बहुत थोड़ी मात्रा की आवश्यकता होती है। अपनी सूक्ष्म काया के कारण वे रन्ध्रो या दरारों में भी सरलता से आश्रय ले लेते हैं। इनका आकार इनकी रक्षा में सहायता करता है। इनके छोटे आकार के होते हुए भी उनमें अदम्य शक्ति होती है। अनेक कीट अपने शारीरिक भार से दस से बीस गुना तक बोझ वहन कर सकते हैं। एक पिस्सू (Flea), जिसकी टागें लगभग एक मिलीमीटर लंबी होता है, चालीस सेंटीमीटर लंबाई में और बीस सेंटीमीटर लंबाई में कूद सकता है।

कुछ कलापक्ष परजीवियों की लंबाई केवल 0.2 मिलीमीटर ही होती है। पर कुछ तृणकीट (stick insects), जैसे फाइमेसिया सेराटिपस (Pharmacia serratipus) 260 मिलीमीटर तक लंबे होते हैं। यदि पक्षों को फैलाकर एरविस एग्रिपाइना (Erbis agrippina) मापा जाए तो इसकी चौड़ाई 280 मिलीमीटर तक पहुँच जाती है। आधुनिक कीटों में यह सबसे बड़ा है, पर प्राचीन काल की ड्रेगन फ्लाई (Dragon Fly), जिनके अस्तित्वावशेष मिलते हैं, पक्ष फैलाने पर मापने पर दो दो फुट से भी अधिक लंबी पाई जाती है।

मनुष्य और कीटवर्ग में बहुत घनिष्ठ संबंध है। अनेक जातियाँ हमें अत्यधिक हानि पहुँचाती हैं, हमारे भोज्य पदार्थों को खा डालती हैं, हमारे वस्त्रों आदि को नष्ट कर देती हैं और मनुष्यों, पशुओं तथा पौधों में अनेक रोग फैलाती हैं।

बाह्य कंकाल[संपादित करें]

कीटों की अस्थियां नहीं होती। कंकाल अधिकतर बाह्य होता है। और दृण बह्यत्वक (क्यूटिकल, Cuticle) बना रहता है। यही देहभित्ति का बाह्य स्तर होता है। इस कंकाल में गुरूता अधिक होती है। अस्थियों की तुलना में यह हलका, किन्तु बहुत ही सुदृण होता है। साधारणतया विभिन्न सामान्य रासायनिक विलियनों का इस स्तर पर कुछ भी प्रभाव नहीं दिखाई पडता। इस शरीरावरण का इतना अधिक अप्रभावित होना विशेष महत्व रखता है। इस कारण साधारण कीटाणुनाशी कीटों को सरलता से नष्ट नहीं कर सकते। बाहियत्वक्‌ शरीर के प्रत्येक भाग को ढके रहते हैं, यहाँ तक कि नेत्र, श्रंगिकाएँ, नखर (क्लाज, claws) तथा मुख भागों पर भी इसका आवरण रहता है। आहारनाल के अग्र और पश्च भाग की भित्ति भीतर की और तथा श्वसननलिकाएँ बाह्यत्वक्‌ के एक बहुत महीन स्तर से ढकी रहती हैं। बाह्यत्वक के भीतर की ओर जीवित कोशिकाओं का स्तर होता है, जो हाइपोडर्मिस (Hypodermis) कहलाता है। यही स्तर बाह्यत्वक का उत्सर्जन करता है। हाइपोडर्मिस के भीतर की ओर एक अत्यधिक सूक्ष्म निम्नतलीय झिल्ली होती है।

बाह्यकंकाल संधियों पर तथा अन्य ऐसे स्थानों पर जहाँ गति होती है, झिल्लीमय हो जाता है। इन स्थानों के अतिरिक्त सारे शरीर का कंकाल भिन्न भिन्न भागों में विभक्त रहता है। ये भाग दृणक (स्किलयराइट, sclerite) कहलाते हैं। और एक दूसरे से निश्चित रेखाओं द्वारा मिले रहते हैं। ये रेखाएँ सावनिय़ाँ (सूचर, suture) कहलाती हैं। किन्तु जब संलग्न दृढ़क का आपस में समेकन हो जाता है तो सीवनियाँ लुप्त हो जाती हैं। बाह्यकंकाल कोमल पेशियों के लिए एक ढाँचे का कार्य करता है। शरीर के ऊपर विभिन्न प्रकार के शल्क, बाल, काँटे आदि विद्यमान रहते हैं।

खंडीभवन (सेगमेंटेशन, Segmentation)[संपादित करें]

कीट खंड वाले जीव हैं। खंड व्यवस्थित होने के कारण वे स्वतंत्रता से चल सकते हैं। और उनके शरीर में श्रमविभाजन हो पाता है। श्रमविभाजन के फलस्वरूप शरीर का एक खंड भोजन प्राप्त करने के लिए, दूसरा प्रगति के हेतु, तीसरा प्रजनन के निमित्त तथा चौथा रक्षार्थ होता है। इस प्रकार भिन्न-भिन्न खंड निजी कार्य पृथक्‌ पृथक्‌ रूप से संपादित करते रहते हैं। शरीर के प्रत्येक खंड में पृष्ठीय पट्ट (टर्गम, Tergum), दाँए बाएँ दो भाग पार्श्वक (प्लुराँन, Pleuron) तथा एक उरूपट्ट भाग (स्टर्नम, Sternum) होता है। आदर्श रूप से कीटों के शरीर में 20 या 21 खंड होते हैं, किन्तु यह संख्या इन खण्डों के समेकन और संकुचन के कारण बहुत कम हो जाती है।

सिर[संपादित करें]

सिर भोजन करने और संवेदना का केंद्र है। इसमे छह खण्ड होते हैं, जिनका परस्पर ऐसा समेकन हो गया है कि इनमें उपकरणों के अतिरिक्त खंडीभवन का कोई भी चिन्ह नहीं रह जाता। सामान्य कीटों के सिर के अग्रभाग में रोमन अक्षर वाई ज््ञ के आकार की एक सीवनी होती है, जो सिरोपरि (एपिक्रेनियल, Epicranial) सीवनी कहलाती है। इस सीवनी की दोनों भुजाओं का मध्य भाग ललाट (फ्रांज़, Frons) कहलाता है। भाल के पीछे वाले सिर के भाग को सिरोपरि भित्ति (एपिक्रेनियम Epicranium) कहते हैं। भाल के आगे की और वाले सिर के भाग को उदोष्ठधर (क्लिपिअस Clypeus) कहते है। उदोष्ठधर के अगले किनारे पर लेब्रम (Labrum) जुड़ा रहता है। लेब्रम की भीतरी भित्ति को एपिफैरिग्स (Epipharynx) कहते हैं। शिरोपरिभित्ति (एपिक्रेनियम Epicranium) पर एक जोड़ी श्रंगिकाएं और एक जोड़ी संयुक्त नेत्र सदा पाए जाते हैं। नेत्रों के नीचे वाले सिर के भाग को कपाल (जीनी Genae) कहते हैं। सिर पर दो या तीन सरल नेत्र, या आसेलाई (Ocelli) भी प्राय पाए जाते हैं। सिर ग्रीवा द्वारा वक्ष से जुड़ा रहता है। सिर के उस भाग में, जो ग्रीवा से मिलता है, एक बड़ा रन्ध्र होता है जो पश्चकपाल छिद्र (आक्सिपिटैल फ़ोरामेन Occipital foramen) कहलाता है। सिर के चार अवयव होते हैं, जो मैंडिबल, (Mandible) मैक्सिला (Maxilla) और लेवियम (Labium) कहलाते हैं। मैंडिवल में खंड होते हैं, जिनकी संख्या विभिन्न प्रजातियों में भिन्न-भिन्न होती है। इनकी आकृति में भी वहुत भेद रहता है। मादाओं के मैंडिबल प्राय विशेष रूप से विकसित होते हैं। मैंडिवल द्वारा ही कीटों को अपने मार्ग और संकट का ज्ञान होता है। इन्हीं के द्वारा वे अपने भोजन व अपने साथी की खोज कर पाते हैं। चीटियाँ इन्हीं के द्वारा एक दूसरे को संकेत देती हैं। मक्खियों में इन्हीं पर ्घ्रााणेंद्रियाँ पाई जाती हैं। नर मच्छर इन्हीं से सुनते हैं और कोई कोई कीट अपने संगी तथा अपने शिकार को पकड़ने के लिए भी इनसे काम लेते हैं। मैंडिबल भी प्रदान जबड़े हैं। और ये भी भोजन को पकड़ते तथा कुचलते हैं। मैक्सिला सहायक जबड़ा है। इसमें कई भाग होते हैं। यह अधोवृंत (कार्डो Cardo) द्वारा सिर से जुड़ा रहता है। दूसरा भाग उद्वृंत (स्टाइपोज Stipes) कहलाता है। इसका एक शिरा अधोवृंत से जुडा रहता है और दूसरे सिरे पर एक उष्णोव (Galea), एक अंतजिह्वा (Lacinia) और एक खंडदार स्पर्शिनी (Maxillary palp) होती हैं। अवर औष्ठ दो अवयवों से मिलकर बना होता है। दोनो अवयवों का समेकन अपूर्ण ही रहता है इसमें वह चौड़ा भाग, जो सिर से जुड़ा रहता है, अधश्चिब्रुक (Submentum) कहलाता है। इसके अगले किनारे पर चिबुंक (मेंटम, Mentum) जुड़ा रहता है। चिबुंक के अग्र के किनारे पर चिबुंकाग्र (Prementum) होता है, जो दो भागों का बना होता है और जिसके अग्र किनारे पर बाहर की ओर एक जोड़ी वहिर्जिह्वा (पैराग्लासी Paraglossae) तथा भीतर की ओर एक जिह्वा (ग्लासी Glossae) होती है। इनकी तुलना उपजंभ के उष्णीष (Galea) और अंतर्जिह्वा से की जा सकती है। ये चारों भाग मिलकर जिह्विका (Ligula) बनाते हैं। चिबुकाग्र के दाएँ व बाएँ किनारे पर एक एक खंडदार स्पर्शिनी (लेवियल पैल्प Labial palp) होती हैं। मुख वाले अवयवों के मध्य जो स्थान घिरा रहता है वह प्रमुखगुहा (प्रीओरल कैविटी peoral cavity) कहलाता है। इसी स्थान में जिह्वा (हाइपोफैरिंग्स hypopharyns) होती है। जिह्वा की जड़ पर, ऊपर की ओर मुख का छिद्र और नीचे की ओर लार नली का छिद्र होता है।

कीटों के भोजन करने की विधियाँ विभिन्न हैं। तदनुसार इनके मुख भागों की आकृति में परिवर्तन होता है। जो कीट मुखभाग के छिद्र से भोजन चूसते हैं, इनमें मैंडिवल, मैक्सिला आदि के मुखभाग सुई के समान होते हैं। भोजन का अवशोषण करने वाले कीटों के मुखभाग का अधर ओष्ठ शिंडाकार होता है इसके सिर पर द्रव पदार्थ के अवशोषण के लिए कोशिका नलिकाएँ होती है। भिन्न-भिन्न प्रकार के मुख भाग विभिन्न समुदाय के कीटों के वर्णन में बतलाए गये हैं।

वक्ष[संपादित करें]

प्रगति का केंद्र है। यह शरीर का मध्यभाग होने के कारण प्रगति के लिए बहुत ही उपयुक्त है। इस भाग में तीन खण्ड होते हैं, जो अग्रवक्ष (प्रोथोरेक्स Prothorax), मध्यवक्ष (मेसोथोरैक्स Mesothorax) और पश्चवक्ष (मेटाथोरेक्स Metathorax) कहलाते हैं। भिन्न-भिन्न समुदाय के कीटों के तीन खण्डों में अत्यधिक भेद पाया जाता है। फुदकने वाले कीटों का अग्रवक्ष सबसे अधिक विकसित होता है, किंतु मध्यवक्ष और पश्चवक्ष का आकार पक्षों की परिस्थिति पर निर्भर करता है। जब दोनों पक्षों का आकार लगभग एक-सा होता है तब दोनों वक्षों का आकार भी एक-सा पाया जाता है। द्विपक्षों में केवल एक ही जोड़ी अर्थात्‌ अग्रपक्ष ही होते हैं। इस कारण मध्यपक्ष सबसे अधिक बड़ा होता है। पक्षविहीन कीटों में प्रत्येक खंड का पृष्ठीय भाग सरल तथा अविभाजित रहता है पक्षवाले खंडों का पृष्ठीय भाग लाक्षणिक रूप से तीन भागों में विभाजित रहता है, जो एक दूसरे के पीछे क्रम से जुड़े रहते हैं और प्रग्वरूथ (प्रिस्क्यूटम Prescutum), वरूथ (स्क्यूटम Scutum) तथा वरूथिका (स्क्यूटैलम Scutalum) कहलाते हैं वरूथिका के पीछे की ओर पश्चवरूथिका (पोस्ट स्क्यूटैलम Post-Scutalum) भी जुडी रहती है। जो अंतखंडीय झिल्ली के कड़े होने से बन जाती है। इन सब भागों में वरूथिका ही प्राय सबसे मुख्य होती है। दोनो ओर के पार्श्वक भी दो दो भागों में विभाजित रहता है। अग्रभाग उदरोस्थि (एपिस्टर्नम Episternum) और पश्चभाग पार्श्वकखंड (एपिमीराँन Epimeron) कहलाता है। प्रतिपृष्ठ में बेसिस्टर्नम (Basisternum) और फर्कास्टर्नम (Fursasternum) नामक दो भाग होते हैं। फर्कास्टर्नम के पीछे की ओर अंतखंडीय झिल्ली कड़ी होकर स्पाइनास्टर्नम (Spinasternum) बनकर जुड़ जाती है।

टाँगें[संपादित करें]

वक्ष के प्रत्येक खंड में एक जोड़ी टाँग होती है। प्रत्येक टाँग पाँच भागों में विभाजित रहती है। टाँग का निकटस्थ भाग, जो वक्ष से जुड़ा होता है, कक्षांग (कोक्स Coxa) कहलाता है। दूसरा छोटा सा भाग ऊरूकट (ट्राकेटर Trochanter), तीसरा लंबा और दृण भाग उर्विका (फ़ामर Femur), चौडा लम्बा पतला भाग जंघा (टिविया Tibia) ओर पाँचवा भाग गुल्फ (टार्सस Tarsus) कहलाता है जो दो से लेकर पाँच खण्डों में विभाजित हो सकता है। गुल्फ के अंतिम खंड में नखर (क्लाज़ Claws) तथा गद्दी (उपवर्हिका Pulvillus) जुड़ी होती है। और यह भाग गुल्फाग्र (प्रोटार्सस Pretarsus) कहलाता है। नखर प्राय एक जोड़ी होते है। गद्दियों को पलविलाइ (Pulvilli), एरोलिया (Arolia), एपीडिया (Empodia) आदि नाम दिए गए हैं। टाँगों में उपयोगितानुसार अनेक विशेषताएँ दृष्टिगोचर होती हैं। खेरिया (ग्रिलोटैल्पा Gryllotalpa) की टीवियां मिट्टी खोदने के लिए हैंगी के आकार की हो जाती हैं और इसके नीचे की ओर तीन खंडवाला गुल्फ जुड़ा होता है। फुदकनेवाले टिड्डों की पश्च टागों की ऊर्विका (फ़ीमर Femur) बहुत पुष्ट होती है। श्रमिक मधुमक्खियों की पश्च टाँगें पराग एकत्र करने के लिए उपयोगी होती हैं। इनमें गुल्फ में क्रमानुसार श्रेणीबद्ध बाल लगे होते हैं, जिनसे वे पराग एकत्र करते हैं और जंघा के किनारे पर काँटे होते हैं, जो पराग को छत्ते तक ले जाने के लिए पराग डलिया का कार्य करते हैं। आखेटिपतंग की टाँगे गमन करने वाली होने के कारण ऊरूकूट दो भागों में विभाजित हो जाता है। जूँ की टाँगे बालों को पकड़ने के लिए बनी होने के कारण गुल्फ में केवल एक ही खंड होता है तथा उसमें एक ही नखर लगा होता है। बाल को पकड़े रहने के लिए नखर विशेष आकृति का होता है। जलवासी कीटों की टांगे तैरने के लिए बनी होती हैं। इनमें लम्बे बाल होते हैं, जो पतवार का काम करते हैं। बद्धहस्त (मैंटिस Mantis) की अगली टाँगे शिकार को पकड़ने के लिए होती हैं। इसका कक्षांग (कोक्सा Coaxa) बहुत लंबा, ऊर्विका और जंघा काँटेदार होती है। खाते समय वह इसी से शिकार को पकड़े रहता हैं। घरेलू मक्खी के गुल्फ में नखर, उपबर्हिकाएँ और बाल होते हैं, जिनके कारण इनका अधोमुख चलाना सम्भव होता है।

प्रगति[संपादित करें]

चलते समय कीट अपनी अगली और पिछली टाँगे एक ओर मध्य टाँग दूसरी ओर आगे बढ़ाता है। सारा शरीर क्षण भर को शेष तीन टाँगों की बनी तिपाई पर आश्रित रहता है। अगली टाँग शरीर को आगे की ओर खींचती है, पिछली टाँग उसी ओर को धक्का देती है और मध्य टाँग शरीर को सहारा देकर नीचे या ऊपर करती है। आगे की ओर बढ़ते समय कीट मोड़दार मार्ग का अनुसरण करते हैं।

पक्ष[संपादित करें]

महीन तथा दो परतों से बने होते हैं, जो मध्यवक्ष और पश्चवक्ष के पृष्ठीय भागों के किनारे से दाएँ बाएँ परत की भाँति विकसित होते हैं। पक्षों में कड़ी, महीन नलिकाओं का एक ढाँचा होता है, जो इसको दृढ़ बनाता है। ये नलिकाएँ शिराएँ (Venis) कहलाती हैं। पक्ष कुछ कुछ त्रिकोणाकार होते हैं। इसका आगे वाला किनारा पार्श्व (कौस्टैल, Costal), बाहर की ओर वाला बाहरी (Epical) और तीसरी ओर का किनारा गुदीय (Anal) कहलाता है। पार्श्व किनारे की ओर की शिरायें प्राय मोटी या अधिक पास होती हैं, क्योंकि उड़ते समय सबसे अधिक दाब पक्ष के इसी भाग पर पड़ती हैं। शिराओं की रचना कीट के वर्गीकरण में बहुत महत्व रखती हैं। मुख्य शिराओं के नाम इस प्रकार हैं: कौस्टा (Costa), सबकौस्टा (Subcosta), रेडियस (Radius), मीडियस (Medius), क्यूबिटस (Cubitus) और ऐनैल (Anal)। भिन्न-भिन्न समुदाय के कीटों के पक्षों की शिराओं की रचना में बहुत भेद पाया जाता है। इनमें से कुछ शिराएँ तो लुप्त हो जाती हैं, या उनकी शाखाओं की संख्या बढ़ जाती हैं। इन शिराओं के बीच-बीच में खड़ी शिराएँ भी पाई जाती हैं।

कीटों के जीवन में पक्षों को अत्यधिक महत्व है। पक्ष होने के कारण ये अपने भोजन की खोज में दूर दूर तक उड़ जाते हैं। इनको अपने शत्रुओं से बचकर भाग निकलने में पक्षों से बड़ी सहायता मिलती है। पक्षों की उपस्थिति के कारण कीटों को अपनी परिव्याप्ति (Dispersal) में, अपने संगों को प्रप्त करने में, अंडा रखने के लिए उपयुक्त स्थान खोजने में तथा अपना घोंसला ऐसे स्थानों पर बनाने में जहाँ उनके शत्रु न पहुँच पाएँ, बहुत सहायता मिलती है।

उड़ान[संपादित करें]

उड़ते समय प्रत्येक पक्ष में पेशियों के दो समूहों द्वारा प्रगति होती है। एक समूह तो उन पेशियों का है, जिनका प्रत्यक्ष रूप में पक्षों से कोई संबंध प्रतीत नहीं होता। ये पेशियाँ वक्ष की भित्ति पर जुड़ी होती है। इनका पक्ष की जड़ से कोई संबंध नहीं रहता। खड़ी पेशियाँ वक्ष के पृष्ठीय भाग को दबाती हैं। वक्ष के पक्षों की संधि विशेष प्रकार की होने के कारण इस दाब का यह प्रभाव होता है कि पक्ष ऊपर की ओर उठ जाते हैं। लंबान पेशियाँ वक्ष के पृष्ठीय भाग को वृत्ताकार बना देती हैं, जिसके प्रभाव से पक्ष नीचे की ओर झुक जाते हैं। दूसरे समूह की पेशियाँ, पक्षों की जड़ पर, या पक्षों की जड़ से नन्हें नन्हें स्किलेराइट पर, जुड़ी होती हैं, इनमें से पक्षों को फैलानेवाली अग्र और पश्च पेशियाँ मुख्य है। उडते समय प्रथम समूह की पेशियाँ जब पक्षों को बारी-बारी से उपर-नीचे करती है तब पक्षों को फैलानेवाली पेशियाँ पक्षों को आगे और पीछे की ओर करती है। उड़ते हुए कीट के पक्षों के आर पार हवा का बहाव इस प्रकार का होता है कि पक्ष के ऊपरी और निचले तल पर दाव मे अंतर रहता है। फलत एक वायुगति की बल बन जाता है जो पक्षों को ऊपर की ओर साधे रहता हैं और शरीर को उड़ते समय सहारा देता है।

प्राय मक्खियों और मधुमक्खियों मे पक्षकंपन सबसे अघिक होता है। घरेलू मक्खी का पक्षकंपन प्रति सेकंड 180 से 167 बार होता है, मधुमक्खी में 180 से 203 बार और मच्छर मे 278 से 307 बार। ओडोनेटा (Odonata) गण के कीटों का पक्ष कंपन 28 बार प्रति सेकंड होता है। अत्यधिक वेग से उड़ने वाले कीटों में बाजशलभ और ओडोनेटा की एक जाति के कीट की गति 90 प्रति घंटा तक पहुँच जाती है।

उदर[संपादित करें]

उदर उपापचय (Metabolism) और जनन का केंद्र है। प्राय इसमे 10 खंड होते है, किंतु अंधकगण (प्रोट्यूरा, Protura) में 12 खंड और अन्य कुछ गणों मे 11 खंड पाए जाते हैं। बहुत से गणों मे अग्र और पश्च भाग के खंडो मे भेद होता है और इस कारण इन भागों के खंडो की सीमा कठिनता से निश्चित हो पाती है, कितु गुदा सब कीटों मे अंतिम खंड पर ही होती है। कुछ कीटों मे अंतिम खंड पर एकजोड़ी खंडवाली पुच्छकाएँ (सरसाई, Cerci) लगी होती है। नर में नौवाँ खंड जनन संबंधी होता है। इसके ठीक पीछे की और प्रतिपृष्ट पर जनन संबंधी छिद्र पाया जाता है और पर जनन अवश्य लगे रहते हैं। जनन अवश्य या बाह्य जननेंद्रियाँ ये हैं-एक शिशन (ईडीगस, Aedeagus), एक जोड़ी आंतर अवयव (पेरामीयर, Paramere) और एक जोड़ी बाह्य अवयव (क्लास्पर, Clasper), जो मैथुन के समय मादा को थामने का काम करती है। ये सब अवश्य नवें खंड से विकसित होते है। मादा मे आठवाँ और नौवाँ जनन संबंधी खंड है और इन्हीं पर जनन अवश्य या बाह्य जननेंद्रियाँ लगी होती है। ये इंद्रियाँ अंडा रखने का कार्य करती है। इसलिए इनको अंडस्थापक भी कहते है। मादा का जनन संबंधी छिद्र सांतवे प्रतिपृष्ट के ठीक पीछे होता हैं किंतु कुछ गणों मे यह अधिक पीछे की और हट जाता है। अंडस्थापक विभिन्न समुदायों के कीटों मे विभिन्न कार्य करता है, यथा मधुमक्खियों, बर्रों और बहुत सी चींटियों में डंक का, साफ़िलाइज मे पौधों में अंडा रखने के लिए गहरा छेद करने का तथा आखेटिपतंग मे दूसरे कीटों के शरीर में अंड़ा रखने के लिए छेद करने का। कुछ कीटों में अंडस्थापक नहीं होता। बहुत मे कंचुकपक्षों और मक्खियों मे शरीर के अंतिम खंड दूरबीन के सदृश हो जाते हैं और अंडा रखने का कार्य करते हैं। अंडस्थापक तीन जोड़ी अवयवों का बना होता है, जो अग्र, पश्च और पृष्ठीय कपाट कहलाते हैं। अग्र कपाट आठवें खंड से और शेष दो जोड़ी कपाट नवे खंड से विकसित होते हैं।

कीटों के रंग[संपादित करें]

कीट तीन प्रकार के रंगों के होते हैं-रासायनिक, रचनात्मक और रासायनिक रचनात्मक। रासायनिक रंगों में निश्चित रासायनिक पदार्थ पाए जाते हें जो अधिकतर उपापचय की उपज होते हैं। कुछ कीटों में ये पदार्थ उत्सर्जित वस्तु के समान होते हैं। इनमें कुछ रंग बाह्यत्वक्‌ में पाए जाते हैं, जो काले, भूरे और पीले होते हैं तथा स्थायी रहते हैं। हाइपोडर्मिल वाले रंग छोटे-छोटे दानों अथवा वसाकणों के रूप में कीट की कोशिकाओं में वर्तमान रहते हैं। ये रंग लाल, पीले, नारंगी और हरे होते हैं तथा कीट की मृत्यु के पश्चात शीघ्र लुप्त हो जाते हैं। कुछ रंग रक्त और वसापिंडक में भी पाए जाते हैं। रचनात्मक रंग बाह्यत्वक्‌ की रचना के कारण प्रतीत होते हैं और बाह्यत्वक्‌ में परिवर्तन होने से नष्ट हो जाते हैं। बाह्यत्वक्‌ के सिकुड़ने, फूलने अथवा उसमें किसी अन्य द्रव्य के भर जाने से भी रंग नष्ट हो जाता है। रासायनिक-रचनात्मक रंग रासायनिक और रचनात्मक पदार्थों के मिलने से बनते हैं।

कीटों के आंतरिक शरीर की रचना इस प्रकार है :

पाचक तंत्र[संपादित करें]

पाचक तंत्र तीन भागों में विभाजित रहता है- अग्र आंत्र, मध्य आंत्र और पश्च आंत्र। अग्र और पश्चांत्र शरीरभित्ति के भीतर भित्ति भीतर की ओर महीन बाह्यत्वक्‌ से ढकी रहती है, किंतु मध्यांत्र थैली के समान पृथक विकसित होता है और अग्रांत तथा पश्चांत्र को जोड़ता है। अग्रांत में एक सकरी ग्रासनली होती है, एक थैली के आकार का अन्नग्रह (क्रॉप, Crop) और प्राय एक पेशणी भी होती है। अग्रांत के दोनों ओर लार ग्रंथियाँ होती हैं। दोनो ही मिलकर प्रमुख गुहा में खुलती हैं। मध्यांत्र छोटी होती है तथा इसमें से प्राय उंडुक (सीका, Caeca) निकले रहते हैं। पश्चांत्र दो भागों में विभाजित रहता है, अग्र भाग नलिका समान आंत्र और पश्च भाग थैली के समान मलाशय बनाता है। मध्य और पश्चांत्र के संधिस्थान के महीन महीन निसर्ग (मैलपीगियन, Malpighiam) नलिकाएँ खुलती हैं।

कीट लगभग सभी प्रकार के कार्बनिक पदार्थ अपने भोजन के काम में ले लेते हैं। इस प्रकार साधारण प्रकार के लगभग सारे किण्वज (enzyme) कीटों के पाचकतंत्र में पाए जाते हैं। लार ग्रंथियाँ एमाइलेस (Amylasa) का उत्सर्जन करती है, जो ग्रासनली में प्रवेश करते समय भोजन से मिल जाता है। कार्बोहाइड्रेट का पाचन मध्य आंत्र में ही पूरा होता है। मध्यांत्र में ये किण्वज पाये जाते हैं-एमाइलेस, इनवर्टेस (envertase), मालटेस (Maltase), प्रोटियेस (Protease), लाइपेस (Lipase) और हाइड्रोलाइपेस (Hydrolipase)। ये क्रमानुसार स्टार्च, गन्ने की शर्करा, मालटोस, प्रोटीन और चर्बी को पचाते हैं। ये किण्वज अन्नग्रह (Crop) में पहुँच जाते हैं जहाँ अधिकतर पाचन होता है, केवल तरल पदार्थ ही पेषणी द्वारा मध्यांत्र में पहुँचते हैं जहाँ केवल अवशोषण होता है। पश्चांत्र अनपची वस्तुएँ गुदा द्वारा बाहर निकाल देता है।

उत्सर्जनतंत्र[संपादित करें]

मैलपीगियन (निसर्ग) नलिकाएँ ही मुख्य उत्सर्जन इंद्रियाँ हैं। ये शरीरगुहा के रक्त में से उत्सर्जित पदार्थ अवशोषण कर पश्चांत्र में ले जाती है। नाइट्रोजन, विशेष करके यूरिक अम्ल या इसके लवण, जैसे अमोनियम यूरेट, बनकर उत्सर्जित होता है। यूरिया केवल बहुत ही मात्रा में पाया जाता है।

परिवहन तंत्र[संपादित करें]

पृष्ठवाहिका मुख्य परिवहन इंद्रिय है। यह शरीर की पृष्ठभित्ति के नीचे मध्यरेखा में पाई जाती है। यह दो भागों में विभाजित रहती है-हृदय और महाधमनी। हृदय के प्रत्येक खंड में एक जोड़ी कपाटदार छिद्र, मुखिकाएँ होती हैं। जब हृदय में संकोचन होता है तो ये कपाट रक्त को शरीरगुहा में नहीं जाने देते। कुछ कीटों में विशेष प्रकार की स्पंदनीय इंद्रियाँ पक्षों के तल पर, श्रृगिकाओं और टाँगों में, पाई जाती हैं। पृष्ठ मध्यच्छदा (डायफ्राम, diaphram) जो हृदय के ठीक नीचे की ओर होती हैं, पृष्ठवाहिका के बाहर रक्तप्रवाह पर कुछ नियंत्रण रखती है। पृष्ठ मध्यच्छदा के ऊपर की ओर से शरीरगुहा के भाग को परिहृद (परिकार्डियल, Pericardial) विवर (साइनस, sinus) कहते हैं। यह दोनों ओर पृष्ठभित्ति से जुड़ा रहता है। कुछ कीटों के प्रतिपृष्ठ मध्यच्छदा भी होती है। यह उदर में तंत्रिकातंतु के ऊपर पाई जाती हैं। उस मध्यच्छदा के नीचेवाले शरीरगुहा के भाग का परितंत्रिक्य (पेरिन्यूरल, Perineural) विवर कहते है। इसकी प्रगति के कारण इसके नीचे के रक्त का प्रवाह पीछे की ओर और दाँए-बाएँ होता है। पृष्ठवाहिका मे रक्त आगे की ओर प्रवाहित होता है और उसके द्वारा रक्तसिर में पहुँच जाता है। वहाँ के विभिन्न इंद्रियों और अवयवों में प्रवेश कर जाता है। दोंनों मध्यच्छदाओं की प्रगति के कारण शरीरगुहा मे रक्त का परिवहन होता रहता है। अंत में मध्यच्छदा के छिद्रो द्वारा रक्त परिहृद विवर में वापस आ जाता है। वहाँ से रक्त मुखिकाओं द्वारा फिर पृष्ठवाहिका में भर जाता है। रक्त में प्लाविका होती है, जिसमें विभिन्न प्रकार की कणिकाएँ पाई जाती हैं। रक्त द्वारा सब प्रकार के रसद्रव्यों की विभिन्न इंद्रियों में परस्पर अदला-बदली होती रहती है। यही हारमोन की ओर आहारनली से भोजन को सारे शरीर में ले जाता है, उत्सर्जित पदार्थ को उत्सर्जन इंद्रियों तक पहुँचाता है तथा रक्त श्वसनक्रिया में भी कुछ भाग लेता है। परिहृद कोशिकाएँ या नफ्रेोसाइट (Nephrocyte) प्राय हृदय के दोनों ओर लगी रहती हैं। ये उत्सर्जन योग्य पदार्थो को रक्त से पृथक कर जमा कर लेती है। तृणाभ कोशिकाएँ (ईनोसाइट, Oenocytes) प्राय हल्के पीले रंग की कोशिकाएँ होती है, जो विभिन्न कीटों में विभिन्न स्थानों पर पाई जाती हैं। कुछ कीटों में ये श्वासरध्रं (स्पायरेकिल, Spiracle) के पास मिलती हैं। संभवत इनका कार्य भी उत्सर्जन और विषैले पदार्थो को रक्त से पृथक करना है। इनका वृद्धि और संभवत जनन से विशिष्ट संबंध रखता है। वसापिंडक या अव्यवस्थित ऊतक शरीरगुहा में पाया जाता है। कभी कभी इनका विन्यास खंडीय प्रतीत होता है। वसापिंडक पत्तर, या ढीले सूत्रों (स्टाँड्स, Strands) अथवा ढीले ऊतकों के समान होते हैं। उनका मुख्य कार्य संचित पदार्थो के रक्त से पृथक कर अपने में जमा करना है। कुछ कीटों में यह उत्सर्जन का कार्य भी करते हैं। पांडुंरग्रंथियाँ (Corpora allata) एक जोड़ी निश्रोत ग्रंथियाँ होती हैं, जो ग्रसिका के पास, मष्तिष्क के कुछ पीछे और कॉरपोरा कार्डियेका (Corpora cordieca) से जुड़ी हुई पाई जाती हैं। ये तारुणिका हारमोन का उत्सर्जन करती हैं, जो रूपांतरण और निर्मोचन पर नियंत्रण रखता है।

श्वसनतंत्र[संपादित करें]

यह श्वासप्रणाल (Trachea) नामक बहुत सी शाखा वाली वायुनलिकाओं का बना होता है। श्वासप्रणाल में भीतर की ओर बाह्यत्वक्‌ का आवरण रहता है, जिसमें पेंटदार अर्थात घुमावदार स्थूलताएँ (thickenings) होती हैं, जिससे श्वासप्रणाल सिकुड़ने नहीं पाता। हवा भरी रहने पर ये चाँदी के समान चमकती है। श्वासप्रणाल में विभाजित हो जाती है। ये शाखाएँ स्वयं भी महीन शाखाओं में विभाजित हो जाती है। इस विभाजन के कारण अंत में श्वासप्रणाल की बहुत महीन-महीन नलिकाएँ बन जाती हैं जिन्हें श्वासनलिकाएँ (Tracheoles) कहते हैं। ये शरीर की विभिन्न इंद्रियों में पहुँचती हैं। कहीं-कहीं श्वासप्रणाल बहुत फैलकर वायु की थैली बन जाता है। शरीरभित्ति में दाएँ-बाएँ पाए जाने वाले जोडीदार छिद्रों द्वार जिन्हें श्वासरध्रं कहते हैं, वायु श्वासप्रणाल में पहुँचती है। श्वासरध्रं में बन्द करने और खोलने का भी साधन रहता है। प्राय ऐसी रचना भी पाई जाती हैं जिसके कारण कोई अन्य वस्तु इनमें प्रवेश नहीं कर पाती। लाक्षणिक रूप से कुल दस जोड़ी श्वासरध्रं होते हैं, दो जोड़ी वक्ष में और आठ जोड़ी उदर में। किंतु प्राय यह संख्या कम हो जाती है। श्वसनगति के कारण वायु सुगमता से श्वासरध्रं में से होकर श्वासप्रणाल में ओर वहाँ से विसरण (Diffusion) द्वारा श्वासनलिकाँओं में, जहाँ से अंत में ऊतकों को आक्सिजन मिलती है, पहुँचती है। कार्बन डाइ-आक्साइड कुछ तो झिल्लीदार भागों से विसरण द्वारा और कुछ श्वासरध्राें द्वारा बाहर निकल जाता है। उदर की प्रतिपृष्ठ (Dorsoventral) पेशियो के सिकुडने से शरीर चौरस हो जाता है, या उदर के कुछ खंड भीतर घुस जाते हैं, जिससे शरीर गुहा का विस्तार घट जाता है और इस प्रकार निश्वसन हो जाता है।

शरीर[संपादित करें]

खंडों की प्रत्यास्थता के कारण शरीर अपनी उत्तलता (Convexity) पुन प्राप्त कर लेता है। इस प्रकार निश्वसन होता है। बहुत से जलवासी कीट रक्त या श्वासप्रणाली की जलश्वसनिकाओं द्वारा श्वसन करते हैं। जिन कीटों में श्वासप्रणाल का लोप होता है उनमें त्वचीय श्वसन होता है।

तंत्रिकातंत्र[संपादित करें]

तंत्रिकातंत्र में केंद्रीय तंत्रिकातंत्र, अभ्यंतरांग तंत्रिकातंत्र और परिधिसंवेदक तंत्रिकातंत्र सम्मिलित हैं। केंद्रीय तंत्रिकातंत्र (Central Nervous System) में लाक्षणिक रूप से एक मस्तिष्क, जो ग्रसिका के ऊपर रहता है और एक प्रतिपृष्ठ तंत्रिकारज्जु (Ventral Nerve Cord) होता है। ये दोनों आपस में संयोजी द्वारा जुड़े रहते हैं। दोनों संयोजी (Connective) ग्रसिका के दाएँ-बाएँ रहते हैं। मस्तिष्क सिर में स्थित और तीन भागों में विभाजित रहता है-प्रोटोसेरेब्रम (Protocerebrum), ड्यूटोसेरेब्रम (Deuto-cerebrum) और ट्राइटोसेरेब्रम (Trito-cerebrum)। उनमें तंत्रिकाएँ नेत्रों और श्रृंगिकाओं को जाती हैं। प्रतिपृष्ठ तंत्रिकातंतु में शरीर के लगभग प्रत्येक खंड में एक एक गुच्छिका पाई जाती है। पहली उपग्रसिका गुच्छिका सिर में ग्रसिका के नीचे रहती है। इस में से तंत्रिकाएँ मुख भागों को जाती हैं। आगामी तीन गुच्छिकाएँ वक्ष के तीन खंडों में स्थित होती है, जिनकी तंत्रिकाएँ पक्षों और टागों को जाती हैं। तंत्रिकातंतु की शेष गुच्छिकाएँ उदर में स्थिति रहती हैं। बहुत से कीटों में इनमें से बहुत सी गुच्छिकाओं का समेकन हो जाता है, जैसे घरेलू मक्खी और गुंबरैला में उदर और वक्ष की सब गुच्छिकाएँ मिलकर एक सामान्य केन्द्र बन जाती हैं। मष्तिष्क संवेदना और आसंजन का मुख्य स्थान है तथा दाईं-बाईं पेशियों के सामान्यत रहनेवाली उचित दशा (Tonus) पर प्रभाव डालता है। उदर की गुच्छिकाएँ विशेष रूप से स्वतंत्रता प्रदर्शित करती हैं। प्रत्येक गुच्छिका अपने खंड का स्थानीय केन्द्र सी बन जाती है। यदि उचित रीति से उद्दीपन किया जाए और अंतिम गुच्छिका तथा इसकी तंत्रिकाओं को कोई हानि न पहुँची तो जीवित उदर, जो वक्ष से पृथक कर दिया गया है, अंडारोपण कर सकता है। अभ्यंतरांग तंत्रिकातंत्र (Stomato-gastric Nervous System) अभयंत्र के ऊपर पाया जाता है और इसमें से हृदय तथा अग्रतंत्र तो तत्रिकाएँ जाती हैं। परिधि तंत्रिकातंत्र (Peripheral Nervous System) इंटेग्यूमेंट (Integument) के नीचे रहता है।

ज्ञानेंद्रियाँ[संपादित करें]

संयुक्त नेत्र और सरल नेत्र दृष्टि संबंधी इंद्रियाँ हैं। लाक्षणिक रूप से प्रोढ़ों और प्राय निम्फो में दोनों ही प्रकार के नेत्र पाए जाते हैं; किंतुं डिंभों में केवल सरल नेत्र ही पाए जाते हैं जो दाएँ बाएँ होते हैं। संयुक्त नेत्र में बहुत से पृथक-पृथक चाक्षुष भाग होते हैं, जिन्हें नेत्राणु

(ओमेटिडिया, Ommatidia) कहते हैं। ये बाहर से पारदर्शक कोर्निया से ढके रहते हें। कोर्निया षट्कोण लेंज़ों (लेंज़ेज, Lenses) में विभाजित रहती है। लेंज़ों की संख्या इनकी भीतरी ओमेटीडिया की संख्या से ठीक बराबर होती है। सरल नेत्र में केवल एक ही उभयोत्तल लेंज़ होता है जो चाक्षुष भाग के ऊपर रहता है। दिन और रात में उड़नेवाले कीटों के /नेत्रों में अंतर होता है। रात में उड़नेवाले कीटों नेत्रों में अंतर होता है। रात में उड़ने वाले कीटों के संयुक्त नेत्रों में एक रचना होती है, जो टेपेटम (Tapetum) कहलाती है। टेपटेम नेत्रों में प्रवेश करनेवाले प्रकाश को परावर्तित करता है, अत: नेत्र अँधेरे में चमकते हैं। संयुक्त नेत्रों में प्रतिबिंब दो प्रकार का बनता है। जो नेत्राणु चारों और से काले रंजक (Pigment) से ढका रहता है, उसमें केवल वे ही किरणें प्रवेश कर पाती हैं जो नेत्राणु के समांतर होती हैं। शेष सब किरणें रंजक द्वारा अवशोषित हो जाती हैं। इस प्रकार बना हुआ प्रतिबिंब एक कुट्टम चित्र (मोज़ेइक, mosaic) होगा और उतने भागों का बना होगा जितनी कोर्निया में मुखिकाएँ होंगी। इस रचना के कारण केवल थोड़ा-सा ही प्रकाश उपयोगी होता है, किंतु प्रतिबिंब अधिक स्पष्ट होता है जिन नेत्राणुओं के केवल भीतरी भाग ही रंजक से ढके रहते हैं उनमें उनकी मुखिकाओं के अतिरिक्त पासवाली अन्य मुखिकाओं की किरणें भी प्रवेश कर पाती हैं। ऐसे प्रतिबिंब में लगभग सभी किरणों का उपयोग हो जाता है, किंतु प्रतिबिंब प्राय: कम स्पष्ट होता है।

कर्ण[संपादित करें]

बहुत से कीटों में कर्ण होते हैं, जो शरीर के विभिन्न भागों में पाए जाते हैं। बहुत से टिड्डों और टिड्डियों में उदर के अग्रभाग में दोनों ओर कर्ण पाए जाते हैं। खेरिया के कर्ण में बाहरी ओर एक झिल्ली होती है, जिसके भीतर की ओर संवेदक कोशिकाओं का एक गुच्छा रहता है। श्वासप्रणाल की वायुथैलियों का कर्ण से समागम रहता है। ये अनुनादक (रेज़ोनेटर, Resonator) का कार्य करते हैं। जब ध्वनितरंगे झिल्ली पर टकराती हैं तो उसमें कंपन उत्पन्न होता है, जो अंत में संवेदक कोशिकओं को प्रभावित करता है। कीट अधिक उच्च आवृत्ति की ध्वनियाँ भी सुन सकते हैं, जैसे लगभग 45,000 आवृत्ति प्रति सेंकड तक की ध्वनि। कीटों में वाणी नहीं होती, किंतु वे ध्वनि उत्पन्न कर सकते हैं। ध्वन्युत्पादन की अनेक विधियाँ हैं। टिट्टिभ अपने पश्च ऊर्विका का भीतरी किनारा, जिसपर नन्हीं कीलें सीधी रेखा में पाई जाती हैं। उसी ओर के अग्रपक्ष की रेडियस शिरा के मोटे भाग पर रगड़कर ध्वनि उत्पन्न करता है। खेरिया अपने एक अग्रपक्ष के क्यूविटस शिरा की कीलों के दूसरे अग्रपक्ष के किनारे के मोटे भाग पर रगड़ कर ध्वनि उत्पन्न कराता।

घ्राणेद्रियाँ[संपादित करें]

घ्राणेद्रियाँ विशेषकर श्रृंगिकाओं पर ही पाई जाती है और विभिन्न प्रकार की होती हैं। इनकी संख्या नर में प्राय: अधिक होती है, जैसे नर मधुमक्खी की श्रृंगिका पर लगभग 30,000 कर्मकार में 6,000 और रानी में केवल 2,000। स्वादेंद्रियाँ बहुत से कीटों में एपिफैरिंग्स पर, कई एक में मुख के किनारे तथा स्पर्शिनियों पर पाई जाती हैं। अन्य प्रकार का ज्ञान शरीर के विभिन्न भागों पर उगे हुए परिवर्तित बालों या विशेष प्रकार के नन्हें काँटों द्वारा होता है। ये इंद्रियाँ बाल, रिकाबी या कील आदि के आकार की होती हैं।

पेशीतंत्र[संपादित करें]

कीटों में रेखित पेशियाँ पाई जाती हैं, जो दो भागों में विभाजित की जा सकती है: 1. कंकाल पेशियाँ ये फीते के आकार की होती हैं, शरीरभित्ति पर जुड़ी रहती हैं और शरीर के खंडों में गति करने का कार्य करती है: 2. आंतरंगीय पेशियाँ आंतरिक अंगों को ढके रहती है; इनके तंतु लंबाकार और वर्तुलाकार होते हैं, जैसे आंत्र के चारों ओर। कीटों में पेशियों की संख्या बहुत अधिक होती है, कभी कभी लगभग 4,000 तक पेशियाँ होती हैं। कुछ कीट बहुत ही धीमे चलते हैं, कुछ दौड़ते हैं और कुछ बड़ी चपलता से उड़ते हैं। अनेक कीट अपने शारीरिक भार से दस से बीस गुना तक बोझ वहन सकते हैं। पिस्सू, जिसकी टाँगे 1। 20 इंच लंबी होती हैं, 8 इंच तक की ऊँचाई और 13 इंच तक की लंबाई कूद सकता है। यह शक्ति इसकी पेशियों के परिमाण के अनुरूप है। जो पेशी जितनी अधिक छोटी होगी उसमें अनुपातिक दृष्टि से उतनी ही अधिक क्षमता होगी।

जननेंद्रियाँ और मैथुन[संपादित करें]

नर और मादा दोनों प्रकार जननेंद्रियाँ कभी भी एक ही कीट में नहीं पाई जातीं। नर कीट मादा कीट से प्राय: छोटा होता है। नर में एक जोड़ी वृषण होता है और प्रत्येक वृषण में शुक्रीय नलिकाएँ होती हैं, जो शुक्राणु का उत्पादन करती हैं। वृषण से शुक्राणु शुक्रवाहक में पहुँच जाते हैं और अंत में स्खलनीय (Ejaculatory) नलिका में पहुँचते हैं, जो शिश्न में खुलती है। कभी-कभी शुक्रवाहक किसी निश्चित स्थान में फैल जाते हैं और शुक्राणु जमा करने के लिए शुक्राशय बन जाते हैं। किन्हीं-किन्हीं में सहायक (accessory) ग्रंथियाँ भी पाई जाती हैं। मादा में एक जोड़ी अंडाशय होता है, प्रत्येक में अंडनलिकाएँ होती हैं, जिनमें विकसित होते हुए अंडे पाए जाते हैं। अंडनलिकाओं की संख्या विभिन्न जाति के कीटों में भिन्न-भिन्न हो सकती है। परिपक्व होकर अंडे अंडवाहिनी में आ जाते हैं और वहाँ से सामान्य अंडवाहिनी (Common Oviduct) में पहुँचकर मादा के जनन संबंधी छिद्र द्वारा बाहर निकल जाते हैं प्राय: एक शुक्रधानी शुक्राणु जमा करने के लिये और एक या दो जोड़ी सहायक ग्रंथियाँ भी उपस्थित रहती हैं। नर की सहायक ग्रंथियाँ एक द्रव पदार्थ उत्सर्जित करती हैं जो शुक्राणुओं में मिश्रित हो जाता है। कभी कभी शुक्राणुओं को कोषाकार पैकेट बन जाता है, जो शुक्रकोष (स्पमैटोफोर, Spermatophore) कहलाता है मादा की सहायक ग्रंथियाँ का स्राव अंडों को एक साथ जोड़ता है, या पत्तियों अथवा अंडों को अन्य वस्तुओं से चिपकाता है। कभी कभी इस स्राव से अंडों को रखने के लिए थैली भी बन जाती है, जैसे तेलचट्टा में। बर्रे की ये ग्रंथियाँ विष उत्पन्न करती हैं, जो डंक मारते समय शिकार के शरीर में प्रविष्ट कर जाता है। अंडसंसेचन दोनों लिंगों के संयोग पर निर्भर है। कुछ कीटों में यह जीवन में कई बार हो सकता है।

जनन[संपादित करें]

यह साधारण रूप से मैथुन और शुक्राणु द्वारा अंडे के संसेचन पर निर्भर करता है। अधिकतर कीट अंडे देते हें, जिनसे कालांतर में बच्चे निकलते हैं, किंतु कुछ कीट अंडों के स्थान में डिंभ या निंफ के जन्म देते हैं। ऐसे कीटों को जरायुज कहते हैं, जैसे द्रुयूका और ग्लोसाइना (Glossina)

अनिषेक जनन[संपादित करें]

कुछ कीट अंडे का शुक्राणु से संसेचन नहीं करते। इस प्रकार का जनन अनिषेकजनन (Parthenogenesis) कहलाता है। कुछ जातियों में यह एक अनूठी और कभी कभी होनेवाली घटना होती है, तथा कुछ शलभों में असंसेचित (अनफर्टिलाइज्ड, unfertilized) अंडों से नर और मादा दोनों ही उत्पन्न होती हैं। सामाजिक मधुमक्खियों में अनिषेकजनन बहुधा होता है, किंतु असंसेचित अंडों से केवल नर ही उत्पन्न होते हैं। कुछेक स्टिक (Stick) कीटों में असंसेचित अंडों से अधिकतर मादा ही उत्पन्न होती हैं और नर बहुत ही कम। साफिलाईज़ में नरों की उत्पत्ति संभवत: होती ही नहीं, इस कारण संसेचन हो ही नहीं सकता। फलत: केवल अनिषेकजनन होता है। द्रुमयूका (Aphides) में चक्रीय अनिषेकजनन होता है, अर्थात असंसेचित और संसेचित अंडों में उत्पादन नियमानुसार क्रम से होता रहता है। कुछेक जातियों में अपरिपक्व (Immature) कीट भी जनन करते हैं। इस घटना को पीडोज़ेनेसिस (Paedogenesis) कहते हैं। माइएस्टर (Miastor) कीट के डिंभ अन्य डिंभों का उत्पादन करते हैं और इस प्रकार कई पीढ़ी तक उत्पादन होता रहता है। इसके पश्चात्‌ इनमें से कुछ डिंभ परिवर्धित होकर प्रौढ़ नर और मादा बन जाते हैं, जो परस्पर मैथुन के पश्चात्‌ डिंभ उत्पन्न करते हैं। इन डिंभों से पहले की भांति फिर उत्पादन आरंभ हो जाता है। बहुभ्रूणता (पॉलिएंब्रियोनी, Polyembryony) का अर्थ है। एक अंडे से एक से अधिक कीटों का उत्पन्न होना। इस प्रकार का उत्पादन पराश्रयी कलापक्षों में पाया जाता है। प्लैटिगैस्टर हीमेलिस (Platigastor hiemalis) के कुछ अंडों में से दो डिंभ उत्पन्न होते हैं, किंतु किसी किसी पराश्रयी कैलसिड (Chalcid) के प्रत्येक अंडे से लगभग एक सहस्र तक डिंभ उत्पन्न हो जाते हैं।

मैथुन[संपादित करें]

कुछ कीटों में मैथुन केवल एक ही बार होता है। तत्पश्चात्‌ मृत्यु हो जाती है, जैसा एफिमेरॉप्टरा (Ephimeroptero) गण के कीटों में। मधुमक्खी की रानी यद्यपि कई वर्ष तक जीवित रहती है, तथापि मैथुन केवल एक ही बार करती है और एक ही बार में इतनी पर्याप्त मात्रा में शुक्राणु पहुँच जाते हैं कि जीवन भर इसके अंडों का संसेचन करते रहते हैं। मैथुन के पश्चात्‌ नर की शीघ्र ही मृत्यु हो जाती है। बहुत से कीटों के नर जीवन में कई बार पृथक्‌-पृथक्‌ मादाओं से मैथुन करते हैं और बहुत से कंचुकपक्षों के नर और मादा दोनों बारबार मैथुन करते हैं।

अंडे[संपादित करें]

अंडे साधारणतया बहुत छोटे होते हैं। फिर भी अंडे को देख कर यह बतलाना प्राय: संभव होता है कि अंडे से किस प्रकार का कीट निकलेगा। बहुधा यह बात बहुत महत्व रखती है, क्योंकि इससे हानिकारक कीटों की हानिकारक दशा के विषय में भविष्यवाणी की जा सकती है। इसलिए अंडों के आकार, रूप और रंग तथा अंडे रखने के स्थान और विधि का ध्यान रखना आवश्यक है। अंडे समतल, शल्क्याकार, गोलाकार, शंक्वाकार तथा चौड़े हो सकते हैं। अंडे का ऊपरी आवरण पूर्ण रूप से चिकना या विभिन्न प्रकार के चिन्ह्नोंवाला होता है। अंडे पृथक्‌ पृथक्‌ या समुदायों में रखे जाते हैं। तेलचट्टे (Cockroach) के अंडे डिंभकोष्ठ (Ootheca) के भीतर रहते हैं। जलवासी कीटों के अंडे चिपचिपे लसदार पदार्थ से ढके रहते हैं। अंडे में वृद्धि करते हुए भ्रूण के पोषण के लिए पर्याप्त मात्रा में भोजन, जो योक (Yolk) कहलाता है, पाया जाता है।

अंडरोपण और अंडा रखने की शक्ति[संपादित करें]

अंडारोपण विभिन्न प्रकार से होता है। अंडे ऐसे स्थानों पर रखे जाते हैं, जहाँ उत्पन्न होनेवाली संतान की तत्कालीन आवश्यकताएँ पूर्ण हो सकें। कुछ जातियों की मादाएँ नीची उड़ान उड़ती, अपने अंडे अनियमित रीति से गिराती चली जाती हैं। बहुत से शलभों की मादाएँ, जिनके डिंभ घास या उसकी जड़ खाते है, उड़ते समय अपने अंडे घास पर गिराती चली जाती हैं। साधारणतया अंडे ऐसे पौधों पर रखे, पौधों के ऊतकों में प्रविष्ट कर दिए जाते हैं जिनको डिंभ खाते हैं, जैसे कुछ प्रकार के टिड्डों में। कुछ कीट अपने अंडे मिट्टी में रखते हैं। पराश्रयी जातियों के कीट अपने अंडों को उन पोषकों के ऊपर या भीतर रखते हैं, जो उनकी संतानों का पोषण करते हैं।

विभिन्न जातियों की मादाओं के अंडों की संख्या विभिन्न होती है। द्रुमयूका की कुछ जातियों की मादाएँ शीतकाल में केवल एक ही बड़ा अंडा रखती हैं। घरेलू मक्खी अपने जीवन में 2,000 से अधिक अंडे रखती है। दीमक की रानी में अंडा रखने की शक्ति सबसे अधिक होती है। यह प्रति सेकंड एक अंडा दे सकती है और अपने छह से बारह वर्ष तक के जीवन में 10,00,000 अंडे देती है।

परिवर्धन[संपादित करें]

अंडे के संसेचन के पश्चात्‌ परिवर्धन आरंभ हो जाता है। प्रारंभ में दो स्तरवाला मूल पट्टा या जर्म बैंड (Germ band) बनता है, जो अनुप्रस्थ (transverse) रेखाओं द्वारा बीस अंडों में विभक्त हो जाता है। अगले छह खंड सिर, परवर्ती तीन खंड वक्ष और शेष खंड टेलसन (Telson) के साथ मिलकर उदर बनाते हैं। प्रथम खंड और टेलसन के अतिरिक्त प्रत्येक खंड में एक जोड़ा भ्रूणीय अवयव विकसित हो जाता है। अवयवों के प्रथम युग्म का संबंध द्वितीय खंड से रहता है और इनसे श्रृंगिकाएँ बनती हैं। द्वितीय जोड़ी बहुत ही छोटी और क्षणिक होती है। तीसरी, चौथी और पाँचवी जोड़ी के अवयव विकसित होकर मैंडिबल, मैक्सिला और लेबियम बन जाते हैं। इनके पीछे वाले तीन जोड़ी अवयव कुछ बड़े तथा स्पष्ट होते हैं। ये टाँगों के अग्रवर्ती है। उदर के अवयवों की अंतिम जोड़ी सरसाई बन जाती हैं किंतु शेष सब जोड़ियाँ डिंभ निकलने से पूर्व ही प्राय: नष्ट हो जाती है।

अंडे से बच्चा निकलना-भ्रूण जब पूर्ण रीति से विकसित हो जाता है और अंडे से बाहर निकलने को तैयार होता है, तब शुक्ति में पहले से बनी हुई टोपी को अपने अंडा फोड़ने वाले काँटों से हटाकर बाहर निकल आता है। कुछ कीटों में आरंभ में भ्रूण वायु निगलकर अपना विस्तार इतना बढ़ा लेते हैं कि शुक्ति टूट जाती है। बच्चे को बाहर निकलने में उसकी पेशियाँ सहायता करती हैं।

वृद्धि[संपादित करें]

अंडे से निकलने के पश्चात्‌ ही वृद्धि आरंभ होती है। जन्म से प्रौढ़ता तक कीट के आकार में जो वृद्धि होती है वह अत्यधिक आश्चर्य जनक है। प्रौढ़ कीट की तौल जन्म होने के समय की तौल से 1,000 से 70,000 गुना तक हो सकती है। इतनी अधिक वृद्धि ऐसे खोल के भीतर, जिसका विस्तार बढ़ नहीं सकता, नहीं हो सकती। अत: खोल का टूटना अति आवश्यक है। यह केंचुल के पतन (Moulting) से ही संभव है। जीर्ण बाह्यत्वक्‌ को केंचुल कहते हैं। जीर्ण बाह्यत्वक्‌ (केंचुल) के फटने से पूर्व ही इसके भीतरवाले अधिचर्म की कोशिकाएँ नवीन बाह्यत्वक्‌ का उत्सर्जन कर देती हैं। तत्पश्चात्‌ इनमें से कुछ विशेष प्रकार की कोशिकाओं से, जो केंचुल ग्रंथियाँ कहलाती हैं, एक द्रव पदार्थ निकलता है। यह द्रव पदार्थ पुराने बाह्यत्वक्‌ के भीतरी स्तर को विलीन कर नए बाह्यत्वक्‌ से पृथक कर देता है, इसको कोमल भी बना देता है तथा स्वयं पुराने और नए बाह्यत्वक्‌ के मध्य एक महीन झिल्ली सी बन जाती है। ऐसे समय में कीट में वृद्धि हो जाती है। केंचुल पतन के पश्चात्‌ कीट की आकृति को इन्स्टार (Instar) कहते हैं। जब कीट अंडे से निकलता है तो प्रथम इन्स्टार होता है, प्रथम केंचुल पतन के पश्चात्‌ कीट द्वितीय इन्स्टार होता है, अंतिम इनस्टार पूर्ण कीट या प्रौढ़ कीट कहलाता है।

रूपांतरण[संपादित करें]

अधिकतर कीटों में अंडे से जो डिंभ निकलता है उसकी आकृति और रूप वयस्क कीट से बहुत भिन्न होता है। बहुत से कीटों में डिंभ की आकृति और रूप में प्रौढ़ बनने तक अनेक परिवर्तन आ जाते हैं। इस प्रकार के परिवर्तनों को रूपांतरण (metamorphosis) कहते हैं। जिन कीटों में रूपांतरण नहीं होता उन्हें रूपांतरणहीन (एमेटाबोला, Ametabola) कहते हैं। इसका उदाहरण लेहा (लेपिज़मा, Lepisma) है। अधिकतर कीटों में रूपातंरण होता है और ऐसे कीट मेटाबोला (Metabola) कहलाते हैं। कीटों में दो प्रकार के क्रियाशील अप्रौढ़ पाए जाते हैं। ये निंफ और डिंभ कहलाते हैं। निंफ उस अप्रौढ़ अवस्था के कीट को कहते हैं जो अंडे से निकलने पर अधिक उन्नत होता है। निंफ का पूर्ण कीट से यह भेद होता है कि इसमें पक्ष तथा बाह्य जननेंद्रियाँ विकसित नहीं होती। ये स्थल पर रहते हैं और पक्षों का विकसन बाह्य रूप से होता है। निंफ से पूर्ण कीट तक की वृद्धि क्रमिक होती है और प्यूपा नहीं बनता है। इस प्रकार के परिवर्तन का अपूर्ण रूपांतरण तथा कीट समुदाय को हेमिमेटाबोला (hemimetabola) कहते हैं, जैसे ईख की पंखी। डिंभ उस अप्रौढ़ अवस्था के कीट से बहुत भिन्न होता है। इसमें पक्षों का कोई भी बाह्य चिन्ह नहीं पाया जाता। डिंभ को पूर्ण कीट बनने से पहले प्यूपा बनना पड़ता है। इस प्रकार के परिवर्तन को पूर्ण रूपांतरण (होलोमेटाबोला, Holometabola) कहते हैं, जैसे घरेलू मक्खी में। अत्यल्प कीटों में उपरिपरिवर्धन होता है। इन डंभों में डिंभ अवस्था में भी अत्यधिक परिवर्तन पाया जाता है। इनमें चार या इससे अधिक स्पष्ट इन्स्टार होते हैं। इनके जीवन और व्यवहार में भी बहुत भेद पाया जाता है। इस प्रकार के परिवर्तन को हायपर (Hyper) रूपांतरण कहते हैं, जैसा कैंथेरिस (Cantharis) में। कीटों में रूपांतरण के नियमन का दो हारमोनों से संबंध होता है- केंचुल पतन कारक हारमोन और शैशव (juvenile) हारमोन। केंचुल-पतन-कारक हारमोन प्राय: वक्षीय ग्रंथि उत्सर्जित करता है। यह हारमोन कीट का केंचुलपतन करता है। प्रौढ़ में वक्षीय ग्रंथि लुप्त हो जाती है, इसलिये केंचुलपतन भी समाप्त हो जाता है। यदि निंफ की वक्षीय ग्रंथि प्रौढ़ में जमा दी जाए तो प्रौढ़ भी केंचुलपतन करने लगेगा। शैशव हारमोन कारपोरा अलाटा उत्सर्जित करते हैं। यह हारमोन प्रौढ़ के लक्षणों को दबाए रखता है और निंफों के लक्षणों के तीव्रता से उभाड़ने में सहायता करता है। रूपांतरण के समय वक्षीय ग्रंथि की क्रियाशीलता बढ़ जाती है और इसके हारमोन का प्रभाव इतना पर्याप्त होता है कि शैशव हारमोनों के प्रभाव को कुचल देता है और इस प्रकार रूपांतरण हो जाता है।

नेऐड (Naiad) जलवासी और बहुत क्रियाशील अप्रौढ़ होते हैं। इनके श्वासरध्रं बंद होते है। श्वसन जलश्वसनिकाओं द्वारा होता है। ये कैंपोडीईफॉर्म (Campodeiform) होते हैं, अर्थात टाँगे भली-भाँति विकसित और शरीर चौरस होता है।

डिंभ[संपादित करें]

डिंभ होलोमेटाबोलस और हाइपरमेटाबोलस कीटों की एक अप्रौढ़ अवस्था है। डिंभ जब अंडे से निकलते है, तब भिन्न-भिन्न जातियों के अनुसार उनके परिवर्धन की दशाएँ भिन्न-भिन्न हो सकती हैं। इनकी यह दशा कुछ अंश तक योक की मात्रा पर, जो इनकी वृद्धि के लिए अंडे में उपस्थित रहता है, निर्भर रहती है। प्राय: ऐसा देखा गया है कि जब अंडे में योक की मात्रा कम होती है, तब अंडे से निकलते समय डिंभ अधिक अपूर्ण होता है। डिंभ चार प्रकार के होते हैं (1) प्रोटोपॉड (Protopod) डिंभ पर जीवी कलापक्षों में पाए जाते हैं, क्योंकि इनके अंडों में योक अत्यल्प मात्रा में होता है। ये डिंभ लगभग भ्रूणीय अवस्था में ही होते हैं। इनका जीवित रहना इसलिए संभव होता है कि या तो ये अन्य कीटों के अंडों में या उनके शरीर के भीतर रहते हैं, जहाँ इनको वृद्धि करने के लिए अत्यधिक पुष्टिकर भोजन मिलता है। इनके उदर में खंड या किसी प्रकार के अवयव नहीं पाए जाते हैं। (2) पॉलिपॉड (Polypod) या इरूसिफॉर्म (Eruciform) डिंभों के शरीर में स्पष्ट खंड और उदर पर अवयव भी होते हैं। श्रृंगिकाएँ और विद्यमान होती हैं, किंतु छोटी होती हैं। ये अपने भोजन के समीप रहते हैं और इस कारण आलसी होते हैं। ऐसे डिंभ इल्ली कहलाते हैं और तितलियों, शलभों तथा साफिलाइज़ में पाए जाते हैं। (3) ऑलिगोपॉड (Oligopod) डिंभों के वक्षीय अवयव (टाँगें) भली प्रकार विकसित होते हैं, किंतु उदर में पुच्छीय अवयव के अतिरिक्त अन्य कोई अवयव नहीं पाए जाते। ये मांसाहारी होते हैं और शिकार की खोज में घूमते फिरते हैं। इन क्रियाशील जीवन के कारण इनके नेत्र तथा अन्य इंद्रियाँ भली प्रकार विकसित होती हैं। ये डिंभ स्थल पर रहने वाले कंचुकपक्षों और जालपक्षों में पाए जाते हैं। (4) ऐपोडस (Apodous) डिंभ कृमि की आकृति के होते हैं। इनकी टाँगे बहुत छोटी होती हैं या पूर्णतया लुप्त हो जाती हैं। ये अनेक समुदाय के कीटों में पाए जाते हैं, जैसे घरेलू मक्खी का डिंभ।

प्रिप्यूपा[संपादित करें]

डिंभ अवस्था के अंत के निकट कीट रूपांतर की तैयारी करता है और निश्चित रूपांतर होने के पूर्व (प्रिप्यूपा, Prepupa) की दशा में आ जाता है। इस दशा में कीट भोजन करना बंद कर देता है। शरीर बहुत सिकुड़ जाता है और उसका रंग नष्ट हो जाता है। प्रिप्यूपा दशा के पश्चात्‌ कीट के शरीर की आकृति में परिवर्तन आ जाते हैं। भविष्य में होने वाले प्रौढ़ के नेत्र और टाँगों के बाह्य विकसन के चिह्न प्रथम बार दृष्टिगोचर होते हैं। प्राय: इसी अवस्था में कोया (कोकून) बनता है। द्विपक्षों में इसी अवस्था में प्यूपा का खोल बनता है।

प्यूपा[संपादित करें]

प्यूपा की अवस्था में कीट विश्राम करता है। इसी अवस्था में पक्ष तथा अन्य अवयव अपने अधिचर्म की थैलियों से बाहर निकल आते हैं और प्रत्यक्ष हो जाते हैं। आंतरिक इंद्रियों को भविष्य में बननेवाले पूर्णकीट की आवश्यकताओं के अनुसार पुनर्निर्माण हो जाता है। प्राथमिक प्रकार का प्यूपा डेक्टिकस (Decticous) प्यूपा कहलाता है। इसके अवयव इसके शरीर से नहीं चिपके रहते, वरन्‌ गति कर सकते हैं। मच्छर के प्यूपा जलवासी हैं और चपलता से तैरते रहते हैं। ऑबटेक्ट (Obtect) अर्थात्‌ कवचित प्यूपा के पक्ष और टाँगे शरीर से चिपकी रहती हैं। इनमें प्रगति नहीं होती। इस प्रकार के प्यूण अधिकतर शलभों में पाए जाते हैं। कोआर्कटेट (Coarctate) प्यूपा में डिंभ की अंतिम केंचुल का पतन नहीं होता है, किंतु यही केंचुल कड़ी बनकर प्यूपा के बाहर प्यूपरियम बन जाती है। इस प्रकार का प्यूपा घरेलू मक्खी में पाया जाता है।

प्यूपेरियम से निकलते समय कीट अपने खोल का विभिन्न प्रकार से तोड़ते है। चबाकर खाने वाले कीट अपने जंभ (मैंडिबल) से अपने प्यूपेरियम को कुतर-कुतर कर बाहर निकलते हैं। चूसकर भोजन करनेवाले कीट एक तरल पदार्थ का उत्सर्जन करते हैं, जो कोया के रेशम को एक ओर से कोमल कर देता है और इस कारण सहज में ही टूट जाता है। कुछ शल्कि-पक्षों में काँटे होते हैं, जिनसे वे प्यूपेरियम में दरार बनाते है। कुछ द्विपक्षों के सिर पर एक थैली होती हैं, जिसमें वायु भरकर वे प्यूपेरियम के सिरे को दबाते हैं। इस प्रकार यह सिरा टूट जाता है और मक्खी निकल आती है। प्यूपेरियम से निकलते समय कीट सबसे पहले अपने अवयवों को बाहर निकालता है। इस समय इसके पग सिकुड़े होते हैं, फिर रेंगकर सबसे समीप यह जो भी अवलंब पा जाता है उस पर इसी दशा में विश्राम करने लगता है। पक्षों में शरीर के रक्तप्रवाह से और पेशियों के सिकुड़ने तथा फैलने से पक्ष भी शीघ्रता से फैल जाते हैं। प्यूपेरियम से निकलने के कुछ समय पश्चात्‌ ही कीट उड़ने का प्रयत्न करने लगता है।

पूर्णकीट का परिवर्धन अपूर्ण रूपांतरणवाले कीटों में पूर्णकीट के परिवर्धन में परिवर्तन क्रमिक और र्निविघ्न होते हैं। ये बाह्य तथा आंतरिक दोनों होते हैं। र्निफ की इंद्रियाँ पूर्णकीट की इंद्रियों में परिवर्तित हो जाती है। इसके आकार में वृद्धि के अतिरिक्त बहुत ही थोड़ा अन्य परिवर्तन आता है। पूर्ण रूपांतरणवाले कीटों में डिंभों की इंद्रियाँ और ऊतक प्यूपा की अवस्था में विभिन्न मात्रा में विलय हो जाते हैं। इस विधि को हिस्टोलिसिस (Histolysis) कहते हैं। साथ ही साथ उनके स्थान में प्रौढ़ की इंद्रियाँ बन जाती हैं। नवीन ऊतकों का यह उत्पादन हिस्टोजिनेसिस (histogenesis) कहलाता है। दोनों प्रकार के परिवर्तन इंद्रियों की अविच्छिन्नता को नष्ट किए बिना ही साथ-साथ होते रहते हैं। वास्तव में पूर्णकीट का बनना डिंभ में ही आरंभ हो जाता है। सबसे पहले पूर्णकीट की कलिकाएँ बनती हैं। ये कलिकाएँ भविष्य में होने वाले कीट के उन सब भागों का, जिनकी इसको आवश्यकता होगी, पुनर्निमाण करती हैं तथा उन सब इंद्रियों को भी बनाती हैं जो डिंभ में नहीं पाई जाती।

डायपाज (Diapause) अर्थात्‌ वृद्धि की रोक-अनुकूल परिस्थितियों में बहुत से कीटों का परिवर्धन र्निविघ्न होता रहता है। इस बीच यदि कोई प्रतिकूल परिस्थिति आ जाती है, जैसे निम्न ताप; तो कुछ समय के लिये परिवर्धन रूक जाता है, किंतु परिस्थिति सुधरते ही परिवर्धन तुरंत ही फिर आरंभ हो जाता है। किंतु बहुत से ऐसे कीट भी हैं जिनमें बाह्य दशाएँ तो अनुकूल प्रतीत होती है। किंतु कुछ निश्चित परिस्थितियों के कारण परिवर्धन रूक जाता है। वृद्धि की यह रुकावट कुछ सप्ताहों से लेकर कई वर्षों तक की हो सकती है। विभिन्न जातियों के कीटों में यह अवधि प्राय: भिन्न होती है और इस प्रकार परिवर्तन में विलंब हो जाता है। किंतु अंत में यह रूकावट जीव ने इतिहास की किसी एक निश्चित अवस्था में ही होती है। यह अवस्था अंडे की, अपूर्ण कीट की, या वयस्क की, किसी की भी हो सकती है और कीट की जाति पर निर्भर रहती है। रेशम क कृमि शलभ, बांबिक्स मोराइ (Bombyx mori) जो अंडे शरद् ऋ तु में देता है उनमें डायपॉज़ होता है। जब तक गरमी देने से पहले इनके सेंटीग्रेड पर न रखा जाय इन अंडों से डिंभ नहीं निकलते।

जीवनचक्र[संपादित करें]

समशीतोष्ण और शीतल देशों के कीटों के जीवनचक्र में शीतकाल में शीतनिष्क्रियता (हाइबर्नेशन, Hibernation) पाई जाती है। इन दिनों कीट शिथिल रहता है। अयनवृत्त के देशों में, जहाँ की जलवायु सदा उष्ण और नम होती है, कीटों के जीवचक्र में शीतनिष्क्रियता प्राय: नहीं पाई जाती और एक पीढ़ी के पश्चात्‌ दूसरी पीढ़ी क्रमानुसार आ जाती है। भारतीय शलभों में ईख की जड़ को भेदनेवाला शलभ इल्ली की अवस्था में दिसंबर के प्रथम सप्ताह में शीतनिष्क्रिय हो जाता है और प्यूपा बनना मार्च में आरंभ करता है। पैपिलियो डिमोलियस (Papilio demoleus) नामक तितली प्यूपा अवस्था में और पीत बर्रे प्रौढ़ावस्था में शीतनिष्क्रिय होते हैं। पीरिऑडिकल सिकेडा (Periodical cieada) के, जो उत्तरी अमरीका में पाया जाता है, जीवनचक्र पूरे होने में तेरह से सत्रह वर्ष तक लग जाते हैं, किंतु बहुत सी द्रमयूका ऐसी होती हैं जिनकी एक पीढ़ी लगभग एक सप्ताह में ही पूर्ण हो जाती है। सबसे छोटा जीवनचक्र नन्हें नन्हें कैलसिड नामक कलापक्ष के कीटों का होता है। इन कीटों के डिंभ दूसरे कीटों के अंडों के भीतर पराश्रयी की भाँति रहते हैं और इनका जीवनचक्र केवल सात ही दिन में पूर्ण हो जाता है।

संगीतज्ञ कीट[संपादित करें]

बहुत से कीट संगीतज्ञ होते हैं। कीट वाणीहीन होते हैं, इसलिए इनका संगीत वाद्य संगीत होता है। ये केवल प्रौढ़ावस्था में ही अपना वाद्य जानते है। प्राय: नर कीट ही संभवत: मादा को आकर्षित करने के लिए संगीत उत्पन्न करते हैं। इनके वाद्य अधिकतर ढोल के आकार के होते है, अर्थात्‌ इन वाद्यों में एक झिल्ली होती है जिसमें तीव्र कंपन होने से ध्वनि उत्पन्न होती है। कंपन उत्पन्न करने की दो विधियाँ है। एक भाग को दूसरे भाग पर रगड़कर जो ध्वनि उत्पन्न की जाती है। उसकी बेला (Violin) से उत्पन्न हुई ध्वनि से तुलना कर सकते हैं। दूसरी विधि में कीट की पेशियों का संकोचन विमोचन होता है। ये पेशियाँ झिल्ली से जुड़ी रहती हैं और इसलिए झिल्ली में भी कंपन होने लगता है। इस प्रकार से ध्वनि उत्पन्न करने का मनुष्य के पास कोई साधन नहीं है। झींगुर, कैटीडिड (Katydid), टिड्डे तथा सिकेडा कीटसमाज की गानेवाली प्रसिद्ध मंडली के सदस्य हैं। झींगुर, कैटीडिड और टिड्डे एक ही गण के अंतर्गत आते हैं। झींगुर और कैटीडिड के एक अग्र पक्ष पर रेती के समान एक फलक होता है, जो दूसरे अग्रपक्ष के उस भाग को रगड़ता है जो किनारे की ओर मोटा सा हो जाता है। कैटीडिड में रेती बाएँ पक्ष पर होती है। कुछ झींगुर अपने दाएँ पक्षवाली रेती से ही काम लेते हैं। टिड्डे के पक्षों पर दाते होते हैं और पिछली टाँगों पर भीतर की ओर तेज किनारा होता है। सिकेडा की पीठ पर दोनों ओर पक्षों के पीछे एक एक अंडाकार छिद्र होता है, जिसपर एक झिल्ली बनी रहती है। इस प्रकार एक ढोल सा बन जाता है। इस झिल्ली पर भीतर की ओर पेशियाँ जुड़ी रहती हैं, जो इसमें कंपन उत्पन्न करती हैं। ढोल में तीलियाँ होती है। इन तीलियों की संख्या भिन्न-भिन्न जातियों में भिन्न होती है। मच्छर दो प्रकार का गान करते हैं, जो प्रेमगान और लालसागान कहलाते हैं। लालसागान द्वारा एक मादा अन्य मादाओं को संदेश देती है कि उसने रुधिर चूसने के लिये शिकार ढूँढ़ लिया है और वे वहाँ पहुँचकर रुधिर चूस सकती हैं। प्रेमगान नर को मैथुन करने के लिए आकर्षित करता है।

वनस्पति और कीटों का संबंध[संपादित करें]

कीटों की एक बहुत बड़ी संख्या का जीवन वनस्पतियों पर ही निर्भर है। लगभग प्रत्येक प्रकार का पौधा और उसका प्रत्येक भाग किसी न किसी जाति के कीट का भोजन बन जाता है। ऐसा अनुमान है कि लगभग पचास प्रतिशत कीट अपना निर्वाह पौधों से ही करते हैं। टिड्डियाँ और टिड्डे खुले में रहकर लगभग प्रत्येक पौधा खा जाते हैं। शलभों के डिंभ, साफिलाइज और कंचुकपक्षों की बहुत सी जातियाँ भी पौधों के लगभग प्रत्येक भाग को, या तो खुले में रहकर या छिपकर, खा जाती हैं। ये पत्ते, स्तंभ, जड़ तथा काष्ठ के भीतर रहकर भी अपना भोजन पा जाती हैं। झल्लरीपक्ष, द्रुमयूका तथा पौधों के अन्य मत्कुण पौधों में छेदकर रस चूसते हैं। बहुत से शलभ, मधुमक्खियाँ तथा इनके संबंधी पुष्पस्राव चूसते हैं। कुछ कीट पौधों के ऊत्तकों का रूपांतर कर विचित्र प्रकार की रचना बना देते हैं, जो द्रुस्फोट (Gall) कहलाते हैं। इन रचनाओं में कीट के डिंभों को आश्रय तथा भोजन मिलता है। प्रत्येक पौधा कीटों की अनेक जातियों का पोषण करता है। दो सौ जाति के कीट मकई पर, चार सौ जाति के सेब पर तथा एक सौ पचास से अधिक जातियों के कीट चीड़ के वृक्ष पर निर्वाह करते पाए गए हैं। प्राय: भिन्न-भिन्न जातियों के कीट वृक्ष के भिन्न-भिन्न भागों पर पाए जाते हैं और इस प्रकार कुछ सीमा तक स्पर्धा से बचे रहते हैं। बहुत से कीट अपना पूर्ण जीवन एक ही पौधे पर व्यतीत करते हैं। पत्तों के भीतर रहने वाले, पौधों के भीतर छेद कर रहनेवाले तथा द्रुस्फोट बनाने वाले कीट इसी प्रकार अपना जीवन व्यतीत करते हैं। इनका पौधों में प्रवेश करना पौधे की विशेष दशा पर निर्भर रहता है। अनेक कीट अनेक पौधों पर, या एक ही वर्ग की अनेक जातियों के पौधों पर, आक्रमण करते हैं। साधारणतया प्रत्येक जाति के कीट का पौधा निर्धारित रहता है, तथा अनेक कीट निर्धारित जाति के पौधों के अतिरिक्त किसी अन्य पौधे को नहीं खाते, चाहे उनकी मृत्यु भले ही हो जाए।

बहुत से कीटों और पौधों का संबंध अन्योन्य होता है। ऐसे कीट पराग और मकरंद प्राप्त करने के लिए पुष्पों पर जाते हैं। इन वस्तुओं को प्राप्त करते समय अज्ञान में ही ये पुष्परागण कर देते हैं। पुष्पों से भोजन प्राप्त करने वाले कीटों में प्राय: विशेष प्रकार की रचनाएँ पाई जाती हैं। ये रचनाएँ बहुत गहराई पर के मकरंदकोषों से मकरंद चूसने में सहायता करती हैं। कर्मकारी मधुमक्खियों में पराग को एकत्र करने के लिये पिछली टाँगों पर पराग डलियाँ होती हैं। पुष्पों में भी कीटों को आकर्षित करने के लिए रंग और सुगंध होती है। कुछ पुष्पों की रचना ऐसी होती है कि कीट बिना पराग एकत्र किए मकरंद प्राप्त कर ही नहीं सकता और जब वह दूसरे पुष्प पर जाता है तो पुष्प की रचना के कारण इसके वर्तिकाग्र पर पराग गिराए बिना मकरंदकोष तक पहुँच ही नहीं सकता। यूका पुष्प और यूका शलभ इसके बहुत सुंदर उदाहरण हैं।

सफाई करने वाले कीट[संपादित करें]

जो कीट वनस्पति नहीं खाते, वे उच्छिष्ट वस्तुओं, अन्य कीटों या अन्य जीवों को अपना भोजन बनाते हैं। सफाई करने वाले कीट कूड़ा कर्कट आदि इसी प्रकार की अन्य परित्यक्त वस्तुओं पर अपना जीवननिर्वाह करते हैं। सड़ी गली वनस्पतियों से बहुत से कंचुकपक्ष, मक्खियाँ तथा अन्य कीट आश्रय तथा भोजन पाते हैं। गोबर, जीवों के सड़ते हुए शव तथा इनके अन्य अवशेष किसी न किसी कीट का भोजन अवश्य बन जाते हैं। कीटों की ये कृतियाँ मनुष्य के लिए बहुत लाभदायक हैं। अपाहारी (प्रिडेटर, Predator) वह जीव है जो अन्य जीवों पर निर्वाह करता है, मांसाहारी होता है, अपने शिकार की खोज में रहता है और पाने पर उसको खा जाता है। इस प्रकार का व्यवहार विभिन्न वर्गों के कीटों में पाया जाता है। इनका शिकार कोई अन्य कीट, या अपृष्ठवंशी जीव होता है। ऐसे जीवन के कारण इन कीटों की टाँगों, मुख भागों और संवेदक इंद्रियों में बहुत से परिवर्तन हो जाते हैं। ऐसे कुछ कीटों के व्यवहार में भी स्पष्ट पविर्तन दृष्टिगोचर होता है। कुछ कीट अपनी टाँगों का अपने शिकार को पकड़ने तथा भक्षण करते समय थामने के लिए उपयोग करते हैं। व्याध पतंग (Dragon fly) अपनी तीनों जोड़ी टाँगे और जलमत्कुण तथा मैंटिड (Mantid) केवल बगली टाँगों का ही इस कार्य में उपयोग करते हैं। इस कारण इनकी टाँगों में परिवर्तन पाया जाता है। डिस्टिकस (Disticus) के जंभ अपने शिकार को पकड़ने के लिए नुकीले तथा आगे की ओर निकले रहते हैं। व्याधपतंग के निंफ का ओष्ठ (Labium) अन्य कीटों के पकड़ने के लिए विशेष आकृति का बन जाता है। इन कीटों के संयुक्त नेत्र विशेष रूप से विकसित होते हैं। कुछ अपाहारी कीटों की टाँगे दौड़ने के लिए उपयुक्त होती हैं और कुछ तीव्रता से उड़ सकते हैं। अनेक अपाहारी अपने अंडे अपने शिकार के संपर्क में रखते हैं, जैसे लेडी-बर्ड बीटल (Lady-bird beetle) अपने अंडे द्रुमयूका के पास रखता है। अनेक अपाहारी अपने शिकार की प्रतीक्षा में छिपे बैठे रहते हैं और जैसे ही उनका शिकार उनकी पहुँच में आता है, उस पर एकबारगी झपटा मारते हैं, जैसे मैंटिस में अपने को गुप्त रखने के लिए पत्ती जैसा रंग होता है। जलपक्ष के कुछ डिंभ अपने शिकार, चींटियों, को पकड़ने के लिए गड्ढा बनाते हैं।

परजीवी[संपादित करें]

परजीवी वे कीट हैं जो अन्य जीवों पर निर्वाह तो करते हैं, किंतु उनका वध किए बिना ही उनसे भोजन प्राप्त करते हैं और प्राय: एक ही पोषक पर निर्भर रहते हैं। ये अपने अंडे प्राय: अपने पोषक के शरीर पर देते हैं। परजीवी कीट दो प्रकार के होते हैं-एक जो कशेरु क दंडियों पर और दूसरे जो अन्य कीटों तथा उनके संबंधियों पर जीवित रहते हैं। प्रथम वर्ग के कीट ऐनोप्ल्यूरा (Anopleura), मैलोफैगा (Mallophaga) और साइफोनैप्टरा (Siphonaptera) गणों तथा हिप्पोबोसाइडी (Hippoboscidae) वंश के अंतर्गत आते हैं। ये परजीवी अपने पोषक की तुलना में बहुत छोटे होते हैं। पोषक में इनको सहने करने की शक्ति विकसित हो जाती है और इस कारण इनका प्रभाव प्राणनाशक नहीं होता। इनमें से अधिकतर ब़ाह्य परजीवी हैं और पोषक के शरीर पर रहते हैं। साइफोनैप्टरा के अतिरिक्त अन्य का शरीर ऊपर नीचे से चौरस होता है और ये पोषक के शरीर से चिपके रहते हैं। इनके पैरों पर पोषक को पकड़े रहने के लिए हुक होते हैं तथा नेत्र क्षीण या लुप्त हो जाते हैं। पक्षों का भी प्राय: अभाव रहता है और यदि वे होते भी है तो बहुत छोटे होते हैं। कीटों के परजीवी इने गिने ही हैं। स्ट्रेप्सिप्टस गण के अतिरिक्त मधुमक्खी की जूँ, ब्रेउला (Braula) ही केवल इनका अन्य उदाहरण है।

अर्ध परजीवी (पैरासिटॉइड Parasitoide) का व्यवहार अपाहारी और परजीवी के मध्य का सा होता है। आरंभ में यह परजीवी की तरह रहता है, अर्थात्‌ पोषक की अति आवश्यक इंद्रियों को नष्ट नहीं करता, किंतु बाद में इसका व्यवहार अपाहारी जैसा हो जाता है और यह अपने पोषक का भक्षण कर जाता है। यह प्राय: अपने अंडे पोषक के शरीर के ऊपर या भीतर रखता है। इसके डिंभ पोषक से स्थायी रूप से चिपके रहते है और अपना भोजन पोषक के शरीर के भीतर या बाहर से प्राप्त करते हैं। अधिकतर ये कीट द्विपक्ष वंश की टैकिनाइडी (Tachyniade) और कलापक्ष के पैरासाइटिका (Parasitica) वर्ग में ही पाए जाते हैं। इनके प्रौढ़ क्रियाशील होते हैं और पराश्रयी नहीं होते। अर्धपरजीवी का आकार पोषक के आकार की तुलना में बड़ा होता है और यह अपने व्यवहार से पोषक को प्राय: सदा ही नष्ट कर देता है। पोषक अधिकतर अन्य कीट ही होते हैं, जिनके अंडों या अन्य अप्रौढ़ अवस्थाओं पर अर्धपरजीवी का आक्रमण होता है। प्रौढ़ कीट पर कभी भी आक्रमण नहीं होता। टैकिनाइडी वंश के कीट पोषक के भीतर रहते हैं, किंतु अंडे पोषक के ऊपर, या पोषक से दूर, रखते हैं। बहुत से पराश्रयी कलापक्ष बाह्य पराश्रितों की भाँति रहते हैं, किंतु अधिकतर आंतरिक पराश्रयी हैं और अपने अंडे पोषक की त्वचा के भीतर प्रविष्ट कर देते हैं। अर्धपरजीवियों में सबसे अधिक महत्व की बात इनके श्वसनतंत्र में पाई जती है, विशेष करके आंतरिक अर्धपरजीवियों में, जो अपने पोषक के रक्त में मिली हुई आक्सिजन का श्वसन करते हैं। किंतु कुछ आंतरिक अर्धपरजीवी ऐसे भी हैं। जो सीधे वायुमंडल से आक्सीजन प्राप्त करते हैं।

इन्क्विलाइन (Inquiline)[संपादित करें]

कुछ कीट दूसरे कीटों का तो भक्षण नहीं करते, किंतु उनकी एकत्र की हुई सामग्री को खा जाते हैं। ऐसे कीट इन्क्विलाइन कहलाते हैं। ये कीट सामाजिक कीटों के घोसलों में बहुतायत से पाए जाते हैं। इनका बहुत प्रसिद्ध उदाहरण मोम का शलभ हैं, जो मधुमक्खी के छत्तों में रहता है और छत्तें को नष्ट कर देता है। वोलुसिला (Volucella) नामक चक्कर खानेवाली मक्खी भिन-भिनानेवाली मक्खियों और बर्रों के छत्तों में रहकर उच्छिष्ट कार्बनिक मक्खी पदार्थों को खाती हैं। ऐटेल्युरा (Atelura) नामक कीट चीटियों के विवरों में रहता है और जब एक चींटी दूसरी चींटी को अपना उलटी किया हुआ भोजन देने लगती है तो उसको पी लेता है। कुछ ऐसे भी कीट हैं जो अपने पोषकों को, उनके साथ रहने के बदले में, लाभ पहँचाते हैं। कुछ कंचुकपक्ष चीटियों के विवरों में आश्रय और भोजन पाते हैं और इसके बदले में अपने शरीर से स्राव निकाल कर देते हैं, जिसको पाने के लिए ये चीटियाँ बहुत लालायित रहती हैं। इस संबंध की अंतिम श्रेणी यह हैं की चीटियाँ स्राव के बदले में अतिथि कंचुकपक्ष को वस्तुत: भोजन देती हैं। परस्पर लाभ पहुँचाने का यह एक सुंदर उदाहरण है (देखें सामाजिक कीट)।

कीटमंडलियाँ और सामाजिक कीट[संपादित करें]

अधिकतर कीटों की प्रकृति अकेले ही रहने की होती है, किंतु कुछ जातियों के कीट नियत परिस्थिति में अपनी मंडली बना लेते हैं। शीतकाल में जब ताप बहुत नीचे गिर जाता है, घरेलू मक्खियाँ प्राय: एक साथ एकत्र हो जाती हैं। कुछ इल्लियाँ यूथचारी हैं और एक साथ जन्मी हुई सब इल्लियाँ एक ही जाले में एक साथ-साथ रहती हैं, किंतु ऐसी मंडलियाँ भोजन समाप्त होते ही तितर बितर हो जाती हैं और प्रत्येक इल्ली स्वतंत्र रहने लगती है। बहुत से कीट अनेक परिस्थितियों से विवश हो ग्रीष्मकाल बिताने, प्यूपा बनने और शीत निष्क्यिता के लिए एकत्र हो जाते हैं। इनमें से एक परिस्थिति है सुरक्षित स्थान की खोज। कीटों की मंडली में रहने की प्रकृति के कारण परजीवी और अपाहारी शत्रुओं से तथा प्रतिकूल परिस्थितियों से इनकी संभवत: रक्षा हो जाती है। भ्रमणकारी कंचुकपक्षों की झुंडों में रहने और क्रियाशील होने के कारण कुछ रक्षा हो जाती है। टिड्डियाँ और तितिलियाँ प्र्व्राजन के समय यूथचारा बन जाती हैं। हेलिक्टस (Helictus) नामक एकाकी मक्षिका भूमि में बनी हुई सुरंग के मुख के चारों और नन्हें-नन्हें कमरे बनाती हैं। इन कमरों में भोजन और एक एक अंडा रख देती है, तत्पश्चात इनकी रक्षा करती रहती है। यह उस समय तक जीवित भी रह जाती हैं जब तक अंडों से मक्षिकाएँ निकल न आएँ। वह कीट, जो अपनी संतानों की कम से कम उनके जीवन के आरंभ में देखभाल करता है, सामाजिक जीवन की प्रथम श्रेणी का कहा जा सकता है। भिन्न-भिन्न वर्गों के सामजिक कीटों में भिन्न-भिन्न विलक्षणताएँ दृष्टिगोचर होती हैं, किंतु इनकी प्रत्येक मंडली का सबसे महत्वपूर्ण लक्षण यह हैं कि एक ही कुटुब होता है, जिसमें एक नर, एक मादा और उनकी संतान, या एक गांभत मादा और उसकी संतान, अर्थात्‌ कम से कम दो पीढ़ियां एक ही स्थान पर ही मिल जुलकर रहती हैं। वास्तविक सामाजिक जीवन बरा, मधुमक्खियों, चीटियों और दीमकों में पाया जाता है। (देखें सामाजिक कीट)।

फॉरिसी (Phoresy)[संपादित करें]

एक अन्य प्रकार का सहजीवन है जिसमें एक कीट दूसरे कीट के शरीर पर चिपका रहता है। जिन कीटों के शरीर पर चिपकते हैं वे प्राय: बड़े होते हैं, किंतु छोटा कीट उनको खाता नहीं हैं, अर्थात्‌ कोई हानि नहीं पहुँचाता। मिलोइडी (Melodiae) वंश के ट्राइऐंगुलिन (Triangulin) डिंभ को सामाजिक कलापक्ष अपने शरीर पर अपने घोंसलें में ले जाते हैं। वहाँ ये डिंभ उनकी संतान को खा जाते है। सिलिओनाइडी (Scelionidae) वंश के कुछ परजीवी, मादा टिड्डों की पीठ पर, बैठ जाते हैं। जब तक टिड्डे अंडे न रख दें उनकी पीठ पर चढ़े रहते हैं। अंत में अपने अंडे टिड्डों के अंडों में प्रविष्ट कर देते हैं। सबसे सुंदर उदाहरण बॉटफ्लाइ (Botfly) का है। मादा मक्षिका अपने अंडों को मच्छर की टाँगों और शरीर पर चिपका देती है और जब मच्छर रक्त चूसने मनुष्य के पास पहुँचता है तब इन अंडों में से डिंभ निकलकर अपने पोषक मनुष्य पर आक्रमण कर देते हैं।

जलवासी कीट[संपादित करें]

कीटों की एक बड़ी संख्या जल में रहती है। ये अधिकतर मीठे पानी में रहते हैं, कुछ खारे पानी और समुद्र में भी पाए जाते हैं। इन कीटों के बहुत से लक्षण उपयोगी होते हैं। बहुत से कलापक्षों की चिकनी और चमकती हुई देह तैरते समय पानी की रुकावट कम कर देती है। बहुत से कीटों में जलप्रवाह में बहने से बचने के लिए विशेष प्रकार के साधन पाए जाते हैं, जैसे काली मक्खियों के डिंभ रेशम के धागों को अटकाए रखते हैं। मच्छरों के डिंभों में श्वासरध्रं के चारों ओर पाई जानेवाली ग्रंथियों से तेल मिला हुआ स्राव निकलता है। इसके कारण इन स्थानों के बाह्यत्वक्‌ में जलसंत्रासिक गुण आ जाता है और वहाँ जल ठहर नहीं पाता। अत: श्वसन बेरोक टोक होता रहता है। कुछ कीटों, जैसे पौड्यूरा ऐक्वाटिका (Podura aquatica) में ऐसे बाल होते हैं जिनके कारण बाह्यत्वक्‌ जलसंत्रासिक हो जाता है। इस गुण के कारण श्वासप्रणाल में जल नहीं प्रवेश कर पाता। इनमें भोजन प्राप्त करने के लिए भी विशेष साधन होते हैं, यथा-ओडीनेटा के निंफों में लेबियम का घूँघट एक जाल का कार्य करता है। मच्छरों के डिंभों के मुखों में कंपनकारी बुरुश होते हैं जो जल में लहरें उत्पन्न करते हैं और इस प्रकार भोजन के सूक्ष्मकण इनकी ग्रसिका में पहँुच जाते हैं। डाइटिस्कस (Dytiscus) की पिछली टाँगे पतवार के आकर की हो जाती हैं। नोटोनैक्टा (Notonecta) और डाइटिस्कस (Dytiscus) तैरते समय अपनी दोनों पतवारें एक साथ ही चलाते हैं, किंतु हाइड्रोफिलस (Hydrophilus) अपनी पिछली टाँगे (पतवारें) पारी पारी से चलाता है। जिराइनस (Gyrinus) नामक कंचुकपक्ष मध्य और पश्च टाँगों से, जिनमें बहुत परिवर्तन आ जाता है, तीव्रता से चक्कर लगाते हुए घूमता और तैरता है। कुछ मक्खियों और मच्छरों के डिंभ उदर की पेशियों के प्रबल उद्योग द्वारा तैरते हैं। बहुत छोटे छोटे पोलिनीमा (Polynema) नामक कलापक्ष, जो जलवासी कीटों के अंडों में पराश्रयी होते हैं, अपने पक्षों की सहायता से जल में तैरते हैं। जलवासी कीटों के श्वसनतंत्र में बहुत से परिवर्तन आ जाते हैं। ये ट्रेकिया, जलश्वसनिका या रक्त जलश्वासनिका द्वारा श्वसन करते हैं। कुछ कीट वायु को अपने पास जमा कर लेते हैं और जब वे जल में डूबे होते हैं तब उसका उपयोग करते हैं। द्विपक्षों के कोर्थ्रेाा (Corethro) नामक कीट के पारदर्शी डिंभ का ट्रेकिया तंत्र सेम के आकार की दो जोड़ी थैली सी बन जाती है। ये थैलियां उत्प्लावन इंद्रिय का कार्य करती हैं। यह डिंभ इन थैलियों का परिमाण किसी अज्ञात विधि से पविर्तित क सकता है और इस प्रकार जल की जिस गहराई में चाहे उसी के अनुसार आपेक्षिक गुरु त्व उत्पन्न कर पाता है।

भौगोलिक वितरण[संपादित करें]

कीट सारे संसार में, हिमाच्छादित ध्रुवीय भागों से लेकर भूमध्य रेखा के पासवाले, तपते हुए भागों तक में पाए जाते हैं। इनका वितरण अन्य सब स्थलीय जीवों का तुलना में सबसे अधिक विस्तृत है। ये लगभग उन सभी स्थानों में पाए जाते हैं जहाँ वनस्पतियाँ उग सकती हैं, अर्थात्‌ जहाँ भी इनको भोजन प्राप्त हो सकता है। कीटों और अन्य जीवों का भोजन वनस्पतियाँ हैं। पक्ष एक महान महत्ववाली रचना है। पक्षों के कारण कीटों में अतुलित वितरणसामर्थ्य आ जाता है, जो अन्य स्थलीय जीवों में नहीं पाया जाता। वितरण की शक्ति कीटों की प्रत्येक जाति को तीव्र स्पर्धा से और कठोर निर्वाचन के प्रभाव से, जिसका परिणाम परिमित क्षेत्र में अत्यधिक भीड़ होना होता है, बचने के लिए स्वतंत्रता प्रदान करती है, किंतु बहुत से कीट ऐसे भी हैं जिनका वितरण सीमित है। सारे संसार में मनुष्यों के घरों में पाए जानेवाले कीटों में तेलचट्टा (Cockroach), चावल का सूँडवाला कीट, दालों के कीट आदि प्रसिद्ध है। इनके अतिरिक्त आजकल चने का शलभ (हीलिओथिस,Heliothis), आलू क शलभ (फ्योरिमीया ओपरकुलेला, Phthorimaea oparculella), शकरकंद का सूँडवाला कीट (साइलस, Cylas) और बंदगोभी का शलभ (प्लुटेला, Plutella), भी सारे संसार में पाए जाते हैं। इसी प्रकार ऐसे भी बहुत से कीट हैं जो किसी विशेष प्रदेश या देश में ही पाए जाते हैं। ऐसा वितरण बहुत सी परिस्थितियों पर निर्भर रहता है। भोजनप्राप्ति और प्राकृतिक दशाएं निस्संदेह बहुत अधिक प्रभावशाली परिस्थितियाँ हैं। जलवासी कीट वहाँ नहीं रह सकते जहाँ जल नहीं है। वृक्षों की छाल में रहने वाले कीट उन स्थानों में नहीं पाए जा सकते जहाँ वृक्ष ही न हो। प्राकृतिक अवरोध, जैसे ऊँचे ऊँचे पहाड़, समुद्र तथा मरुस्थल, कीटों का वितरण एक देश से दूसरे देश में नहीं होने देते। कुछ कीट, जैसे साफिलाइज, बंदगोभी की तितली आदि समशीतोष्ण कटिबंध में ही पाए जाते हैं। फलों की मक्खियाँ, धान के कीट आदि केवल अयनवृत्त में ही मिलते हैं। कुछ कीटों में जैसे टिड्डियों और कुछ तितलियों में, कभी-कभी प्रवजन की प्रवृत्ति होती है और ये सुदूर देशों तक पहँुच जाते हैं। किंतु बहुत से कीटों के आधुनिक वितरण की व्याख्या पृथ्वी की आधुनिक दशा और जलवायु के आधार पर नहीं की जा सकती और इसलिए प्राय: भौवृत्तीय परिवर्तनों का सहारा लेना पड़ता है। स्प्रिंग टेल नामक कीट न्यूजीलैंड और चिली में पाया जाता है। इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि किसी काल में इन दोनों देशों के बीच ऐटाक्टिक महाद्वीप फैला हुआ था, क्योंकि यह कीट इतना कोमल और पक्षहीन है कि इसका अन्य किसी प्रकार से वितरण हो ही नहीं सकता। स्प्रिंग टेल का अन्य कीटों की तुलना में सबसे अधिक विस्तृत वितरण है और इस कारण इसने अपने को इन विभिन्न परिस्थितियों के अनुकूल बना लिया है। चीटियों का भी लगभग इसी प्रकार वितरण है और इन्होंने भी अपने को विभिन्न परिस्थितियों के अनुकूल कर लिया है।

कीटों के पूर्वज[संपादित करें]

द बीअर (de Beer), ने सन्‌ 1954-55 में यह बतलाया कि मिरियापोडा के जो डिंभ डिंभावस्था में जनन कर सकें उनको ही कीटों का पूर्वज मानना चाहिए। यह सिद्ध करने के लिए कीटों के प्रौढ़ और कुछ मिरियापोडा के डिंभों की, उदाहरणार्थ, आइयूलस (Iulus) की, जो एक मिलीपीड है, तुलना करने में महत्पूर्ण हैं। आइयूलस का डिंभ जब अंडे से निकलता है, इसका सिर उतने ही खंडों का बना मालूम होता है जितने खंडों का कीटों का सिर। शरीर के शेष भाग में लगभग 12 खंड होते हैं, जिनमें से प्रथम तीन खंडों में प्रत्येक पर एक जोड़ी टाँगे होती हैं। चौथा तथा इनके पीछेवाले खंड भी बिना टाँगों के नहीं होते। किंतु इनके परिवर्धन में रुकावट आ जाती है और ये बहुत ही छोटे रह जाते हैं। इस प्रकार यह छह टाँगों वाला आइयूलस का डिंभ अंत में लंबा प्रौढ़ बन जाता है, जिसके शरीर में बहुत से खंड और बहुत सी टाँगे होती है। यदि इस डिंभ की प्रथम तीन जोड़ी के पश्चात्‌वाली टाँगों के परिवर्धन में अधिक रुकावट हो और डिंभ के शरीर के लगभग 12 खंड प्रौढ़ावस्था में दृढ़ रहें तो यह जीव (डिंभ) कीट के आकार का होगा, जिसमें प्रथम तीन जोड़ी टाँगों के पीछेवाली टाँगे या तो इतनी क्षीण होंगी कि केवल उनके अवशेष ही होंगे या वे सर्वथा लुप्त होंगी। यह बात बहुत ही रोचक है कि वास्तव में ऐसे कीट हैं जिनमें उदर पर भी टाँगों के अवशेष वर्तमान होते हैं, जैसे कैंपोडिया (Campodea), जेपिक्स (Japyx) और मैचिलिस (Machilis)। इन कीटों के पक्ष नहीं होते और इनमें वे रचनाएं वर्तमान रहती हैं जो अन्य कीटों में लुप्त हो गई हैं, जैसे जननग्रंथियों का खंडीभवन। इसलिए कीटों के विकास में इन कीटों को मिरियापोडा के डिंभावस्था में जनने वाले डिंभों और अन्य कीटों की मध्यवाली दशा का समझना चाहिए। अन्य अनेक तर्कों से भी यह अनुमोदित होता है कि मिरियापोडा की तरह की आकृतियों से ही कीटों की उत्पत्ति हुई है। अत्यधिक संभावना यह है कि उन सब लंबे शरीर और टाँगोवाले जीवों में मिरियापोडा ही कीटों के पूर्वज हैं, क्योंकि इन में कई रचनाएँ एक-सी होती हैं उदाहरणार्थ, मैलपीगियन नलिकाएँ और ट्रेकियल नलिकाएँ। किंतु इसका भी ध्यान रखना चाहिए कि कीटों की उत्पत्ति प्रौढ़ मिरियापोडा से नहीं हो सकती थी, क्योंकि इनमें बहुत सी विशेषताएँ और विलक्षणताएँ हैं।

कीटगणों में परस्पर संबंध[संपादित करें]

एप्टरिगोटा (Apterygota) उपवर्ग अधिकतर विविध प्रकार के कीटों का एक समूह है और उस उपवर्ग का केवल थाइसान्यूरा (Thysanura) गण ही टेरिगोट (Pterygote) कीटों की विकासवाली मुख्य श्रेणी के संभवत: समीप है। ऐसा तर्क द्वारा सिद्ध किया गया है कि ऐप्टरिगोटा के शेष तीन गणों को कीट मानना ही नहीं चाहिए। किंतु ऐसा कोई संतोषजनक कारण प्रतीत नहीं होता है, जिससे इन तीनों गणों को इस उपवर्ग से पृथक कर दिया जाए, यद्यपि इसमें कोई संदेह नहीं कि ये विलक्षण रचनाएँ प्रदर्शित करते हैं, उदाहरणार्थ कोलेंबोला (Collembola) गण के कीटों में केवल नौ खंड ही होते हैं। प्रोट्यूरा (Protura) गण के कीटों में ऐनामॉर्फोसिस (Anamorphosis) होता है, डिप्ल्यूरा (Diplura), गण के कीटों में अलाक्षणिक ट्रेकियल तंत्र पाया जाता है, डिप्ल्यूरा और कोलेंबाला की श्रृंगिकाओं के कशाभ (Flagellum) में पेशियाँ होती हैं। उपवर्ग टेरिगोटा दो भागों में विभाजित किया गया है-एक्सोप्टरिगोटा (Exopterygota) और एंडोप्टरिगोटा (Endopterygota)। एक्सोप्टरिगोटा गणों के एफिमेराप्टरा (Ephemaroptera) और ओडोनेटा (Odonata) में परस्पर निकट संबंध है, क्योंकि ये दोनों ही पेलीआप्टेरॉन (Palaeopteron), गण हैं। यदि आधुनिक कीटों के शरीर के सिद्धांत से विचार किया जाय तो ब्लैटेरिया (Blattaria), मैंटोडिया (Mantodea), आइसॉप्टरा (Isoptera), जोरेप्टरा (Zoraptere), गाइलॉब्लैटोडिया (Gylloblattodea), ऋ जुपज (Orthoptera), फेज़माइडा (Phasmida), प्लिकॉप्टरा (Plecoptera), डर्मेप्टरा (Dermaptera) और एंबिऑप्टरा (Embioptera) ऋ जुपाक्षिका आर्थोप्टराएड, (Orthopteroid) समुदाय के अंतर्गत आते हैं। निम्नलिखित लक्षणों के कारण ये सब गुण एक समुदाय बनाते हैं-अपरिवर्तित मुखभाग, पश्चपक्ष में विशाल ऐनेल लोब (Anal lobe) उदर के पश्च सिरे पर एक जोड़ी सरसाई (Cerci), अगणित मैलीपगियन नलिकाएँऔर प्रतिपृष्ठ तंत्रिक ा तंतु में कई एक पृथक-पृथक गुच्छिकाएं। इन गणों में से ब्लैटेरिया और मैंटोडिया में बहुत अधिक निकट संबंध होने के कारण इन दोनों को साथ-साथ डिक्टियॉप्टरा (Dictyopotera) के अंतर्गत रखते हैं। एक्सोप्टरिगोटा के शेष गण, जिनके नाम हैं सोकोप्टरा (Psocoptera), मैलोफैगा (Mallophaga), साइफनकुलेटा (Siphonculata), मत्कुणगण (हेमिप्टरा, Hemiptera) और झल्लरीपक्ष (Thysanoptera), मत्कुणगणिक (Hemipteroid) समुदाय के अंतर्गत आते हैं। मत्कुणगणिक समुदाय के लक्षण इस प्रकार है: विशेष प्रकार के मैंडिबुलेट या चूसनेवाले मुखभाग होते हैं, पश्चपक्ष में ऐनेल लोब नहीं पाया जाता, सरसाई का अभाव होता है। मैलपीगियन नलिकाओं की संख्या बहुत थोड़ी होती है और प्रतिपृष्ठ तंत्रिकतंतु की गुच्छिकाएँ लगभग एकत्रीभूत हो जाती है। ऋ जुपाक्षिक और मत्कुणगणिक समुदायों में स्पष्ट भेद नहीं हैं, क्योंकि जोरेप्टरा में पक्षों की शिराएँ कुछ क्षीण हो जाती है, मैलीपीगियन नलिकाओं की संख्या भी कम होती है और तंत्रिकातंतु की गुच्छिकाएँ भी कुछ कुछ एकत्रीभूत हो जाती है। सोकोप्टरा और मैलोफैगा में स्पष्ट संबंध प्रतीत होता है, क्योंकि दोनों में विलक्षण प्रकार का हाइपोफैरिक्स (Hypopharynx) होता है। संभवत: साइफनकुलेटा मैलोफैगा से निकट संबंध रखते हैं। इनसे वे केवल अनेक बाह्य और आंतरिक रचनाओं तथा प्रकृति में ही सादृश्य नहीं रखते, अपितु श्वासरध्रं की रचना और अंडे से बच्चे निकलने की विधि में भी सादृश्य है। अब प्रश्न यह उठता है कि जुँओं के दोनों गणों को एक ही गण के अंतर्गत क्यों नहीं माना जाता। इसका कारण यह है कि दोनों गणों के मुखभागों में इतना अधिक अंतर होता है। कि इनका पृथक्‌ पृथक्‌ गणों में रखना ही प्राय: उचित समझा जाता है।

इंडोप्टेरिगोट कीटों के विषय में ध्यान दे तो कलापक्ष (Hymenoptera), स्ट्रेप्सिप्टरा (Strepsiptera) और कंचुकपक्ष (Coleoptera) को अन्य गणों के साथ रखने में अत्यधिक कठिनता उपस्थित होती है, अत: इनके अतिरिक्त शेष सब गण पैनोरपिड (Panorpid) समुदाय के अंतर्गत रखे गए हैं। पैनोरपिड समुदाय जालपक्ष न्यूरॉप्टरा (Neuroptera) के साथ मिकाप्टरा (Mecoptera) पर केंद्रीभूत है और कुछ कुछ पृथक्‌ किंतु संबंधी शाखा बनाता है। ऐसा अधिक संभव है कि मिकाप्टरा के निम्नस्थ सदस्यों से एक ओर द्विपक्ष (Diptera) और दूसरी ओर शल्कि पक्ष (Lepidoptera) और लोमपक्ष (Trichoptera) की उत्पत्ति हुई हो। साइफोनैप्टरा (Siphonaptera) के प्रौढ़ों की रचना बहुत भिन्न होती हैं, किंतु इसके डिंभ द्विपक्ष के उपगण निमेटोसेरा (Nimatocera) के कुछ डिंभों से भिन्न नहीं होते और यदि साइफोनैप्टरा की उत्पत्ति आदि द्विपक्षों से न हुई हो तो कम से कम पैनोरपिड समुदाय से तो हुई ही होगी। कलापक्ष, कंचुकपक्ष और स्ट्रेप्सिप्टरा के विषय में भी कुछ कठिनता प्रतीत होती है। कलापक्ष के उपगण सिंफायटा (Symphyta) के डिंभ और पैनोरपिड कीटों के डिंभों में सादश्य है, साथ ही साथ सिंफायटा के पक्षों की शिरा की उत्पत्ति बिना किसी कठिनता के, मेगालोप्टरन पैटर्न (megalopteran pattern) से प्रतीत होती है। इन दो कारणों से ऐसा भी कहा जाता है कि कलापक्ष के पूर्वज तथा जालपक्ष और अन्य पैनोरपिड गणों के पूर्वज एक ही थे। कंचुक पक्ष के विषय में ऐसा विचार है कि इनकी उत्पत्ति अन्य इंडोप्टेरिगोट से भिन्न रूप में हुई। किंतु कुछ लेखकों का ऐसा अनुमान है कि कंचुकपक्ष की उत्पत्ति जालपक्षीय आकृतिवाले पूर्वजों से हुई। स्ट्रेप्सिप्टरा प्राय: कंचुकपक्ष से संबंधित समझे जाते हैं, किंतु कुछ लेखक इनका संबंध कलापक्ष के निर्धारित करते हैं।

संदर्भ ग्रंथ[संपादित करें]

  • स ऐंड आर. जी. डेविस (1957) ;
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  • वी. बी. विगिल्वर्थ: इंसेक्ट फिज़ियॉलोजी (1953)

दीर्घा[संपादित करें]

  • कीटों में श्वसन अंग कौन सा होता है? - keeton mein shvasan ang kaun sa hota hai?

    कीट

  • कीट

  • कीटों में श्वसन अंग कौन सा होता है? - keeton mein shvasan ang kaun sa hota hai?

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सन्दर्भ[संपादित करें]

  1. "Insect". मूल से 7 अप्रैल 2020 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 19 मई 2020.
  2. Chapman, A. D. (2006). Numbers of living species in Australia and the World. पपृ॰ 60pp. ISBN 978-0-642-56850-2. मूल से 19 मई 2009 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 8 अक्तूबर 2008.
  3. Threats to Global Biodiversity Archived 2015-02-20 at the Wayback Machine (Accessed December 2007
  4. Erwin, Terry L. (1982). "Tropical forests: their richness in Coleoptera and other arthropod species". Coleopt. Bull. 36: 74–75.

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]

  • प्रभात कीट पाठशाला (हिन्दी ब्लॉग)

कीटों में श्वसन अंग कौन सा है?

Solution : वायु नलिका अथवा श्वासनली।

कीटों में श्वसन क्रिया विधि कैसे होती है?

Solution : कीटों के शरीर में नलिकाओं का एक जाल (tracheal system ) पाया जाता हैं जिससे वातावरण की आयु उनके शरीर में सीधे पहुँचती हैं और गैसों का आदान-प्रदान (Exchange ) होता हैं।

कीटों में गैसों का आदान प्रदान कैसे होता है?

Solution : कीटों में श्वसन क्रियाविधि-कीटों, शतपाद, सहस्रपाद एवं कुछ मकड़ियों में गैस विनिमय के लिए शरीर के अन्दर पतली नलिकाएँ होती हैं। ये नलिकाएँ शाखित होती हैं तथा शरीर सतह से सभी ऊतकों तक फैली रहती हैं। इन नलिकाओं को ट्रेकिया कहते हैं। ये एक तंत्र के रूप में व्यवस्थित रहती हैं, जिसे ट्रेकियल तंत्र कहते हैं।

कीटों में गैस विनिमय के लिए वायु नलिका के जाल को क्या कहते हैं?

सही उत्तर ट्रेकिआ है। कीड़ों के शरीर में वायु नलिकाएँ होती हैं जिन्हें ट्रेकिआ और ट्रेकिओल्स कहते हैं