इस वर्ग के उद्योग कृषि क्षेत्र द्वारा उत्पादित कच्चे माल पर निर्भर होते हैं। इनके उत्पादों में मुख्यतः उपभोक्ता सामान शामिल हैं। औद्योगिक उत्पादन में योगदान तथा रोजगार निर्माण की दृष्टि से कृषि-आधारित उद्योगों का महत्वपूर्ण स्थान है। संगठित उद्योगों में, कपड़ा उद्योग का भारतीय अर्थव्यवस्था में बेजोड़ स्थान है। विभिन्न कृषि आधारित उद्योगों का सर्वेक्षण नीचे दिया गया है। Show सूती वस्त्र उद्योग कुल कपड़ा उत्पादन में सूती कपड़े का योगदान लगभग 70 प्रतिशत है। मुंबई में पारसी उद्यमियों द्वारा सर्वप्रथम सूती कपड़ा मिल स्थापित की गयी। मुंबई तथा उसके आसपास सूती वस्त्र उद्योग के संकेंद्रित होने के पीछे कई कारकों का योगदान है, जो इस प्रकार हैं-
अहमदावाद भी एक अन्य सूती वस्त्र उद्योग केंद्र के रूप में विकसित हुआ है। यहां की मिलों का आकार छोटा है किंतु इनमें उत्पादित सूती वस्त्र की गुणवत्ता उच्च है। उद्योगों के लिए कच्चे माल की आपूर्ति महाराष्ट्र एवं गुजरात के कपास उत्पादक क्षेत्रों द्वारा की जाती है। चूंकि कपड़ा उद्योग एक महत्व कम न होने वाला उद्योग है इसके या तो कच्चे माल या अंतिम उत्पाद के परिवहन में भारी अंतर, (वजन के दृष्टिगत नहीं होता। इसलिए यह उद्योग बाजार से बेहतर तरीके से जुड़ी हुई जगहों पर अवस्थित होता है। सूती कपड़ा उद्योग के वितरण का एक बेहद उल्लेखनीय पहलू, यहां तक कि एक राज्य के भीतर, है कि यह एक विशेप क्षेत्र और प्रदेश के भीतर स्थानिक होने का प्रयास करता है, तथा अन्यों से पूरी एकांतता रखता है। भौगोलिक वितरण: सूती वस्त्र उत्पादक केंद्रों का राज्यानुसार विवरण इस प्रकार है-
भारतीय सूती कपड़ा उद्योग की एक जटिल त्रि-स्तरीय अवसंरचना है-
सूती वस्त्र का अधिकांश भाग हैंडलूम तथा पॉवरलूम क्षेत्रों से आता है। भारत का सूती कपड़ा उद्योग एकमात्र सबसे बड़ा संगठित उद्योग है। यह काफी संख्या में श्रमिकों को रोजगार प्रदान करता है तथा अनेक सहायक उद्योगों को समर्थन देता है। विभाजन के फलस्वरूप कच्चे माल की आपूतिं में समस्या आयी क्योंकि कपास उत्पादक क्षेत्र का 52 प्रतिशत भाग पाकिस्तान के हिस्से में चला गया था। इस समस्या से निपटने के लिए आयात तथा कपास उत्पादक क्षेत्र के विस्तार का सहारा लिया गया। देश में एक-तिहाई करघे तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, असम और उत्तर प्रदेश राज्यों में स्थित हैं। तीन-चौथाई करघे कपास का उत्पादन करते हैं जबकि शेष सिल्क स्टेपल फाइबर, कम्पोजिट फाइबर, ऊन, कृत्रिम सिल्क और सिंथेटिक फाइबर का उत्पादन करते हैं। सूती कपड़ा उद्योग की समस्याएं:
बंद मिलों की बढ़ती हुई संख्या कपड़ा क्षेत्र के संरचनात्मक रूपांतरण का संकेत देती है। संगठित क्षेत्र की बुनाई मिलें विकेन्द्रीकृत क्षेत्र के पॉवरलूनों के लिए स्थान खाली छोड़ती जा रही है, जिसका कारण पॉवरलूमों का अधिक लागत प्रभावी होना है। ऊनी कपड़ा उद्योग पहली ऊनी कपड़ा मिल 1876 में कानपुर में स्थापित की गयी, क्योंकि कानपुर ब्रिटिश सेना का मुख्य केंद्र था। किंतु यह उद्योग भारत के अल्प शीतकात व तंवे ग्रीष्म काल तथा अपर्याप्त मांग के कारण पनप नहीं सका। उत्पादित ऊनी कपड़ा भी निम्न गुणवत्ता का था। स्वतंत्रता के बाद एक निर्यातोन्मुखी उद्योग के रूप में ऊनी वस्त्र उद्योग का तेजी से विकास हुआ। भारत का ऊनी कपड़ा उद्योग अंशतः कुटीर तथा अंशतः कारखाना उद्योग है। इस संगठित क्षेत्र के तीन उप-क्षेत्र हैं-
भौगोलिक वितरण: अधिकांश ऊनी कपडा मिलें पंजाब की अमृतसर-गुरदासपुर-लुधियाना पेटी तथा धारीबाल एवं पटियाला में स्थित हैं। पंजाब में संकेन्द्रण का कारण पहाड़ी क्षेत्रों तथा उत्तर भारत के उच्च मांग वाले भागों का निकट होना है। साथ ही, जम्मू-कश्मीर व हिमाचल प्रदेश के भेड़पालन क्षेत्र भी पंजाब के निकट में पड़ते हैं। ऊनी कपड़ा उद्योग के केंद्रों का प्रदेशानुसार वितरण इस प्रकार है:
ऊनी वस्त्र उद्योग की समस्याएं:
टेरीवूल और कृत्रिम यार्नवूल मिश्रित उत्पादों के साथ कड़ी प्रतिस्पद्ध का सामना करना पड़ता है। रेशमी वस्त्र उद्योग रेशमी कीट पालन गहन श्रमवाला उद्योग है। इसकी सभी गतिविधियों में श्रम की आवश्यकता होती है। कीट पालन आहार, और बाद की प्रक्रियाओं जैसे रंगाई, बुनाई, छपाई और सज्जा के कामों में लगभग 72.5 लाख छोटे और सीमांत किसानों को रोजगार मिला हुआ है। भारतीय उद्योग के इस क्षेत्र को प्राचीन एवं मध्यकाल में व्यापक राजकीय संरक्षण प्राप्त था। प्रसिद्ध रेशम मार्ग भारत से होकर गुजरता था, जिससे भारतीय रेशम को विश्वव्यापी बाजार प्राप्त हुआ। भारत का प्राकृतिक रेशम के उत्पादन में, चीन के बाद, दूसरा स्थान है। भारत एकमात्र ऐसा देश है, जो प्राकृतिक रेशम की सभी चारों किस्मों- टसर, मल्बरी, इरी एवं मूंगा- का उत्पादन करता है। भारतीय रेशम परिघानों व दुपट्टों का निर्यात अमेरिका, राष्ट्रकुल देशों, यूरोप, कुवैत, सऊदी अरब तथा सिंगापुर को किया जाता है। फिर भी, जापान एवं इटली के साथ बढ़ती प्रतिस्पद्ध के कारण बाजार सिकुड़ता जा रहा है। दूसरी ओर सस्ते कृत्रिम रेशम तथा कृत्रिम रेशे के प्रचलन में आने के बाद रेशमी वस्त्र उद्योग को कड़ी प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ रहा है। भौगोलिक वितरण: देश का सबसे अधिक रेशम का उत्पादन अकेले कर्नाटक द्वारा किया जाता है। इस राज्य के प्रमुख उत्पादक केंद्र हैं- तुमकुर, डोडबल्लापुर, बंग्लुरु एवं मैसूर। अन्य राज्यों के रेशम उत्पादक केंद्रों का विवरण नीचे दिया गया है-
कृत्रिम वस्त्र उद्योग यद्यपि कृत्रिम रेशे का निर्माण 1920 में ही आरंभ हो गया था, किंतु भारत में पहला रेयॉन संयंत्र केरल के रेयॉनपुरम में स्थापित किया गया। सिंथेटिक कपड़े के निर्माण में प्रयुक्त कच्चे माल के अंतर्गत सेलुलोज पल्प, जिससे विस्कोस या एसीटेट रेयॉन धागे का निर्माण होता है, तथा नाप्था तथा कैप्रोलैक्टम जैसे पेट्रोरसायन शामिल हैं, जिनसे नाइलोन, पॉलिएस्टर, टेरेलीन तथा एक्रोलिक धागे का निर्माण किया जाता है। सिंथेटिक धागों के निर्माण हेतु पहले-पहल हैंडलूम व पॉवरलूम का प्रयोग किया गया तथा वाद में बुनाई मिलें अस्तित्व में आयीं। वर्तमान में, अधिकांश कृत्रिम धागा सूती कपड़ों की बुनाई मिलों द्वारा उत्पादित किया जाता है। पिछले चार टशकों में सिंथेटिक वस्त्र उद्योग की क्षमता 100 गुनी से ज्यादा बढ़ चुकी है। पेट्रोरसायनों की वृद्धि ने सिंथेटिक कपड़े के उत्पादन में वृद्धि का मार्ग प्रशस्त किया है। कच्चे कपास की कभी के कारण मिलों द्वारा मिश्रित कच्चे माल का प्रयोग किया जा रहा है। फिर भी कृत्रिम रेशे की ऊंची कीमतें एक समस्या बनी हुई हैं। इस उद्योग के केंद्र मुंबई, अहमदाबाद, दिल्ली, सूरत कोलकाता, अमृतसर और ग्वालियर हैं। जूट उद्योग पहली आधुनिक जूट मिल 1855 में कलकत्ता के निकट रिशरा में स्थापित की गयी। 1859 में इस कारखाने में कताई और युनाई दोनों शुरू की गयी थीं। स्वतंत्रता के उपरांत इस उद्योग ने निर्यातोन्मुखी उद्योग के रूप में तेजी से प्रगति की। किंतु वांग्लादेश में 80 प्रतिशत जूट उत्पादक क्षेत्र के चले जाने से उद्योग को एक विशेष चुनौती का सामना करना पड़ा। इससे निबटने के लिए भारत में जूट एवं मेस्टा उत्पादक क्षेत्रों का विस्तार किया गया। जूट उत्पादों में थैते, बोरे, रस्सी, कालीन, इत्यादि शामिल हैं। अब जूट का प्रयोग प्लास्टिक फर्नीचर, रोधक तथा विरंजित रेशों के निर्माण में भी किया जा रहा है। जूट के रेशों को ऊनी या सूती कपड़े के साथ मिश्रित करके कवतों और कालीनों का निर्माण किया जाता है। जूट उद्योग का राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में एक महत्वपूर्ण स्थान है। पूर्वोत्तर क्षेत्र, खासकर पश्चिम बंगाल में, यह प्रमुख उद्योगों में से एक है। जूट (पटसन) क्षेत्र का सामाजिक-आर्थिक महत्व न केवल इसके द्वारा नियति और करों तथा लेवी द्वारा कमाई से राष्ट्रीय कोप में योगदान से है, अपितु यह कृषि और औद्योगिक क्षेत्र में काफी अधिक रोजगार भी प्रदान करता है। पटसन सुरक्षा की दृष्टि से सर्वोत्तम धागा होता है, जो प्राकृतिक ढंग से भी अच्छा होता है, यह नवीकरणीय जीवाणु द्वारा अपघटित होने वाला और पर्यावरण के अनुकूल होता है। विश्व में भारत जूट से बनी वस्तुओं का सबसे बड़ा उत्पादक और दूसरा बड़ा निर्यातक है, जिसमें 40 ताख कृपक परिवारों को रोजगार मिता है। इसमें 4 लाख प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष कर्मचारी हैं। भौगोलिक अवस्थिति: जूट उद्योग की 90 प्रतिशत निर्माण क्षमता हुगली नदी के किनारे स्थित 100 किमी. लम्बी तथा 3 किमी. चौड़ी एक संकरी पेटी में अंतर्निहित है। हुगती क्षेत्र में इस संकेन्द्रण के पीछे निम्नलिखित कारण विद्यमान हैं-
हाल के कुछ वर्षों में जूट उद्योग थोड़ा-सा विस्तार उत्तर प्रदेश, विहार, झारखंड एवं आंध्र प्रदेश में हुआ है, क्योंकि विकसित चीनी व सीमेंट उयोग के फलस्वरूप इन क्षेत्रों में बोरों एवं पैकिंग सामग्री की काफी मांग है। यहां मेस्टा तथा बिमलीपटलान जैसे स्थानीय रेशे भी उपलब्ध हो जाते हैं। जूट उद्योग की समस्याएं:
इस प्रकार जूट उद्योग के आधुनिकीकरण तथा विविधीकरण के अतिरिक्त उत्पादन लागत में कमी लाना एवं नये उत्पादों को बाजार में लाना भी जरूरी हो गया है। चीनी उद्योग चीनी का उत्पादन भारत में प्राचीनकाल से होता रहा है किंतु आधुनिक चीनी उद्योग की विकास यात्रा 20वीं शती के पहले दशक में आरंभ हुई। चीनी उद्योग भारत का दूसरा सबसे पहा कृषि-आधारित उद्योग है। इसके लिए मूलभूत कच्चा माल गन्ना है, जिसकी कुछ गुणात्मक विशेषताएं निम्नलिखित हैं-
इन कारणों से चीनी मिलों की स्थापना गन्ना उत्पादक क्षेत्रों के आसपास ही की जाती है। इसके अतिरिक्त गन्ने की कटाई का एक विशेष समय होता है और उसी समय में इसकी पिराई की जाती है। अतः उस सीमित काल को छोड़कर शेष समय में चीनी मिलें बिना कामकाज के खाली पड़ी रहती हैं। इससे चीनी उत्पादन पर कई सीमाएं आरोपित हो जाती हैं। भौगोलिक वितरण: देश में चीनी की कुल उत्पादन क्षमता का लगभग 70 प्रतिशत उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और तमिलनाडु में होता है। भारत में चीनी उद्योग के प्रमुख केंद्रों का प्रदेशवार विवेचन इस प्रकार है- उत्तर प्रदेश: यहां दो पेटी हैं- एक पश्चिमी उत्तर प्रदेश और दूसरी पूर्वी उत्तर प्रदेश। पश्चिमी पेटी में मेरठ, सहारनपुर, मुजफ्फरनगर, बिजनौर, और मुरादाबाद तथा पूर्वी पेटी में गोरखपुर, देवरिया, बस्ती एवं गोंडा स्थित हैं। बिहार: यहां दरभंगा, सारण, चम्पारण और मुजफ्फरपुर में चीनी मिलें स्थित हैं। इन दोनों प्रदेशों में चीनी उद्योग संकेन्द्रित होने के निम्न कारण हैं-
उत्तरी भारत एवं प्रायद्वीपीय भारत के चीनी उत्पादन में अंतर:
उष्णकटिबंधीय जलवायु, सिंचाई तथा यातायात की सुविधाओं के बावजूद प्रायद्वीपीय भारत के चीनी उद्योग की प्रगति तुलनात्मक रूप से धीमी रही है, जिसके पीछे निम्नलिखित कारण हैं-
चीनी उद्योग की समस्याएं:
वनस्पति तेल उद्योग वनस्पति तेल भारतीय आहार में वसा का एक प्रमुख स्रोत है। वनस्पति तेल हाइड्रोजेनेटेड तेल होता है। विभिन्न क्षेत्रों में वनस्पति तेल निर्माण के लिए अलग-अलग कच्चे मालों का प्रयोग किया जाता है। तेल निर्माण हेतु प्रयुक्त की जाने वाली प्रमुख तीन तकनीकें हैं, जो इस प्रकार हैं:
उद्योग व्यापक रूप से बिखरा हुआ है तथा इकाइयों का आकार भी अलग-अलग है। महाराष्ट्र में सर्वाधिक वनस्पति तेल उत्पादक इकाइयां हैं। इसके बाद गुजरात, उत्तर प्रदेश, प. बंगाल, कर्नाटक, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान एवं पंजाब का स्थान है। खाद्य तेल हेतु नये उभर रहे कच्चे मालों में सोयाबीन, सूरजमुखी, कपास के बीज इत्यादि शामिल हैं। चाय उद्योग भारत में चाय की खेती का आरंभ 1835 से दार्जिलिंग, असम एवं नीलगिरि क्षेत्रों में हुआ। कुल चाय उत्पादन का 98 प्रतिशत असम, पबंगाल, तमिलनाडु व केरल से प्राप्त होता है। शेष चाय कर्नाटक, उत्तर प्रदेश के तराई क्षेत्र, हिमाचल प्रदेश, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर एवं त्रिपुरा से प्राप्त की जाती है। सामान्यतः चाय की खेती पहाड़ी ढालों पर की जाती है, जबकि असम में बाढ़ स्तर के ऊपर की निम्न भूमियों पर चाय की खेती की जाती है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से चाय के उत्पादन में दुगुनी से अधिक की वृद्धि हुई है, जिसका कारण उन्नत किस्मों के प्रयोग द्वारा उत्पादकता में सुधार लाना तथा आगतों का अपेक्षित प्रयोग करना है। चाय उद्योग द्वारा 10 लाख से भी ज्यादा श्रमिकों को प्रत्यक्ष रोजगार प्रदान किया जाना है, जो मुख्यतः समाज के पिछड़े व कमजोर वगों से जुड़े होते हैं। यह उद्योग विदेशी मुद्रा अर्जन के अतिरिक्त राज्यों एवं केंद्र सरकार के कोप में भी अपना महत्वपूर्ण योगदान देता है। भारत में चाय के बागान मुख्यतः पूर्वोत्तर भारत एवं दक्षिणी भारत के ग्रामीण, पिछड़े एवं पहाड़ी इलाकों में स्थित है। कॉफी उद्योग सर्वप्रधम 17वीं शती के दौरान कर्नाटक की बावाबुदान पहाड़ियों में कॉफी उगायी गयी किंतु इसका बागान 1820 में चिकमंगलूर (कर्नाटक) में स्थापित किया गया। बाद में वायनाड, सेवारॉय तथा नीलगिरि में कॉफी की खेती का विस्तार हुआ। रोपण फसलों में, कॉफी ने पिछले कुछ दशकों में भारतीय अर्थव्यवस्था को महत्वपूर्ण योगदान दिया है। हालांकि विश्व उत्पादन में भारत मात्र एक छोटा हिस्सा रखता है, भारतीय कॉफी ने अंतरराष्ट्रीय बाजार में अपने लिए एक स्थान बनाया है, विशेष रूप से भारतीय रोबुस्टास ने, जो अपनी उच्च गुणवत्ता के लिए बेहद मांगी जाती है। भारत की अरेबिका कॉफी की भी अंतरराष्ट्रीय बाजार में अच्छी मांग है। देश के कुल कॉफी उत्पादन का आधे से अधिक भाग कर्नाटक (जिसमें कुर्ग और चिकमंगलूर से 80 प्रतिशत) से प्राप्त होता है। राज्य में तीसरा सबसे बड़ा उत्पादक जिला हासन है। केरल के वायनाड, कोझीकोड तथा कन्नानूर में कॉफी पैदा की जाती है। तमिलनाडु में कॉफी का उत्पादन नीलगिरि, अन्नामलाई शेवरॉय, पालनी पहाड़ियां तथा तिरुनेतवेत्ती एवं मदुरई में किया जाता है। कॉफी की कुछ मात्रा ओडीशा, आंध्र प्रदेश तथा पूर्वोत्तर राज्यों में भी उत्पादित की जाती है। चर्म उद्योग इस क्षेत्र का महत्व व्यापक विस्तार, विशाल रोजगार तथा निर्यात संभावनाओं में निहित है। खाल भेड़ों से प्राप्त किया जाता है। पश्चिम बंगाल एवं तमिलनाडु गौ पशुओं की खालों के सबसे बड़े उत्पादक हैं, जबकि उत्तर प्रदेश व प. वंगाल बकरी के चमड़े के सर्वाधिक बड़े उत्पादक हैं। राजस्थान एवं मध्य प्रदेश में भी खालों का महत्वपूर्ण उत्पादन किया जाता है। प्रमुख जूता निर्माण कद्रों में कानपुर, आगरा, लखनऊ, कोलकाता, चन्नई, मुंबई, बंगलुन एवं जयपुर शामिल हैं। भारत में चमड़ा एक उच्च श्रम गहन और उन्मुखी उद्योग है, तथा निर्यात का एक बड़ा क्षेत्र माना जाता है। यह भारत का एक, परम्परागत उद्योग है जो संगठित और असंगठित क्षेत्र में फैला हुआ है। लघु, कुटीर और दस्तकारी क्षेत्र कुल चमड़ा उत्पादन का 75 प्रतिशत से अधिक इस्तेमाल करता है। भारत परम्परागत रूप से इस उद्योग में कच्चे माल और कुशल श्रम दोनों के संदर्भ में बेहद लाभकारी स्थिति में है। इस क्षेत्र में काम करने वाले लोग प्रधान रूप से अल्पसंख्यक तथा समाज के वंचित वर्गों से हैं। चमड़ा उद्योग ने 1990 के दशक के दौरान तथा बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में महत्वपूर्ण उपलब्धि हासिल की। भारत में कृषि आधारित उद्योग कौन कौन से हैं?कृषि-आधारित उद्योग-धंधों में कपास उद्योग, गुड व खांडसारी, फल व सब्जियों-आधारित, आलू-आधारित कृषि उद्योग, सोयाबीन-आधारित, तिलहन-आधारित, जूट-आधारित व खाद्य संवर्धन-आधारित आदि प्रमुख उद्योग हैं। पिछले कुछ वर्षों में दूसरे उद्योगों की भांति कृषि-आधारित उद्योगों में भी काफी सुधार हुआ है।
कृषि आधारित सबसे बड़ा उद्योग कौन सा है?कपड़ा उद्योग सबसे बड़ा कृषि आधारित उद्योग है और भारत में सबसे बड़ा उद्योग है, जो औद्योगिक उत्पादन का लगभग 20% हिस्सा है। यह 20 मिलियन से अधिक व्यक्तियों को रोजगार प्रदान करता है और कुल निर्यात में लगभग 33% का योगदान देता है।
भारत में सबसे बड़ा कृषि आधारित उद्योग कौन सा है?बता दें कि कपड़ा उद्योग पूरी तरह से कृषि पर आधारित है। कपड़ा उद्योग में आप सूती वस्त्र, रेशमी वस्त्र, कृत्रिम रेशे और जूट के वस्त्रों का उत्पादन कर सकते है। कपड़ा उद्योग भारत का सबसे बड़ा उद्योग है, इससे देश की अर्थव्यवस्था मजबूत होती है। कपड़ा उद्योग देश का सबसे बड़ा कृषि आधारित उद्योग है।
उद्योग कितने प्रकार के होते हैं?उद्योगों के प्रकार. कुटीर उद्योग. सरकारी क्षेत्र के उद्योग. फुटलूज उद्योग. पर्यटन उद्योग. फिल्म उद्योग. लघु उद्योग. |