आज के आर्टिकल में हम कार्यपालिका किसे कहते हैं (Karyapalika Kise Kahate Hain),कार्यपालिका क्या है (Karyapalika Kya Hai) ,कार्यपालिका के कार्य(Karyapalika ke karya ka varnan) और कार्यपालिका का गठन कैसे होता है(karyapalika ka gathan),Karyapalika in Hindi – इन सभी बिन्दुओं पर चर्चा करने वाले है। Show
कार्यपालिका किसे कहते है – Karyapalika Kise Kahate HainKaryapalika Kise Kahate Hain : कानूनों का क्रियान्वयन करने वाली संस्था या कानून का निर्माण करने वाली संस्था कार्यपालिका कहलाती है। कार्यपालिका सरकार का दूसरा महत्त्वपूर्ण अंग है। कार्यपालिका क्या है – Karyapalika Kya Hai
कार्यपालिका की परिभाषाएँ
कार्यपालिका के कितने प्रकार होते हैं ?विश्व के विभिन्न देशों में प्रचलित कार्यपालिका के स्वरूपों के आधार पर कार्यपालिका के प्रमुख प्रकार निम्नलिखित है-
(1) वास्तविक तथा नाममात्र की कार्यपालिका –वास्तविक और नाममात्र की कार्यपालिका का भेद संसदात्मक शासन प्रणाली के अन्तर्गत देखने को मिलता है। जैसे – इंग्लैंड, भारत आदि संसदात्मक देशों में सम्राट तथा राष्ट्रपति नाममात्र की या प्रतीकात्मक कार्यपालिका के उदाहरण हैं। वास्तविक कार्यपालिका – व्यवहार में इन कार्यपालिका शक्तियों का प्रयोग जिस कार्यपालिका के द्वारा किया जाता है, उसे वास्तविक कार्यपालिका कहा जाता है। वास्तविक कार्यपालिका का प्रधान शासन का प्रधान होता है। वास्तविक कार्यपालिका में व्यक्ति द्वारा वास्तविक रूप में शासन का समस्त कार्य किया जाता है। जैसे – प्रधानमंत्री के नेतृत्व में मंत्रिपरिषद् वास्तविक कार्यपालिका का उदाहरण है। (2) एकल और बहुल (बहुत व्यक्तियों वाली) कार्यपालिका –एकल कार्यपालिका – एकल कार्यपालिका उसको कहते हैं जहाँ पर कार्यपालिका की सारी शक्ति एक मुखिया के हाथों में होती है। एकल कार्यपालिका में शक्तियों के पृथक्करण का सिद्धान्त होता है। इसमें शासन की समस्त शक्तियों का प्रयोग केवल राष्ट्रपति ही करता है, इसमें मंत्रिमण्डलों नहीं होता। राष्ट्रपति अपने इच्छानुसार ही स्वयं ही कार्यपालक शक्तियों का प्रयोग करता है। एकल कार्यपालिका का तात्पर्य ऐसे संगठन से है जिसके अन्तर्गत निर्णायक और अन्तिम रूप से कार्यपालिका की समस्त शक्ति एक व्यक्ति के हाथों में केन्द्रित होती है। शासन प्रबन्ध की सुविधा के लिए कार्यपालिका शक्ति का विभाजन अवश्य किया जाता है, लेकिन अन्तिम रूप में सम्पूर्ण शासन व्यवस्था के लिए कोई एक व्यक्ति ही जिम्मेदार होता है। वर्तमान समय में अमरीका का राष्ट्रपति एकल कार्यपालिका का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है। इसके अतिरिक्त इंग्लैंड व भारत आदि संसदीय शासनों की कार्यपालिका भी एकल कार्यपालिका के उदाहरण हैं। यद्यपि इन देशों की कार्यपालिका शक्ति मंत्रिमंडल के हाथों होती हैं, जो व्यक्तियों की एक संस्था है, किन्तु मंत्रिमंडल सामूहिक उत्तरदायित्व के सिद्धान्त पर एक इकाई की भांति कार्य करता है और प्रधानमंत्री मंत्रिमंडल का अध्यक्ष तथा प्रभावशाली नियंत्रणकर्ता है। अतः प्रधानमंत्री को कार्यपालिका का वास्तविक प्रधान कहा जा सकता है। इस प्रकार संसदीय शासन भी एकल कार्यपालिका का ही उदाहरण है। जैसे – अमरीका में राष्ट्रपति। बहुल कार्यपालिका – बहुल कार्यपालिका उसको कहते हैं जहाँ पर कार्यकारी शक्तियाँ एक से अधिक व्यक्तियों के हाथ में होती है। बहुल कार्यपालिका में सामूहिक उत्तरदायित्व का सिद्धान्त होता है। इसमें मन्त्रिमण्डल (व्यक्तियों का समूह) के पास ही शासन की सारी शक्तियाँ होती हैं। इसमें एक ही व्यक्ति शासन की शक्तियों का प्रयोग नहीं करता है, बल्कि सम्पूर्ण मन्त्रिमण्डल शासन की शक्तियों का प्रयोग करता है। बहुल कार्यपालिका का तात्पर्य कार्यपालिका के ऐसे प्रकार से है जिसके अन्तर्गत कार्यपालिका शक्ति अन्तिम रूप से किसी एक व्यक्ति में निहित न होकर व्यक्तियों के एक समुदाय में निहित होती है। वर्तमान काल में स्विट्जरलैंड में बहुल कार्यपालिका हैं। स्विट्जरलैंड में कार्यपालिका सत्ता 7 सदस्यों की एक संघीय परिषद् में निवास करती है और यह परिषद् सामूहिक रूप से राज्य की कार्यपालिका के प्रधान के रूप में कार्य करती है। इस परिषद् का ही एक सदस्य वरिष्ठता के क्रम से एक वर्ष के लिए कार्यपालिका के अध्यक्ष के रूप में कार्य करता है। परन्तु इस अध्यक्ष का कार्य केवल परिषद् की बैठकों का सभापतित्व करना मात्र है। उसकी शक्ति व स्थिति अन्य सदस्यों के समान होती है। जैसे – इंग्लैण्ड, भारत का मन्त्रीमण्डल, स्विट्जरलैण्ड की कौंसिल। (3) संसदीय (उत्तरदायी) तथा अध्यक्षात्मक (अनुत्तरदायी) कार्यपालिका –संसदीय कार्यपालिका –
जैसे – इंग्लैण्ड, फ्रांस, जापान, श्री लंका, भारत, जर्मनी, इटली, स्वीडन, डेनमार्क, नार्वे, बेल्जियम और हालैण्ड में यह पद्धति प्रचलित है। अध्यक्षात्मक कार्यपालिका –
जैसे – संयुक्त राज्य अमेरिका, ब्राजील तथा दक्षिणी अमेरिका के कई अन्य देशों में यह पद्धति प्रचलित है। (4) पैतृक या वंशानुगत और निर्वाचित कार्यपालिका –पैतृक कार्यपालिका – जहाँ पर राजा, राज्य का मुखिया होता है। राजा के मरने के बाद उसका पुत्र या उसके अभाव में कोई निकट सम्बन्धी गद्दी पर बैठता है, उस पद्धति को पैतृक कार्यकारिणी कहा जाता है। जैसे – इंग्लैण्ड राजपद। निर्वाचित कार्यपालिका – जहाँ पर राज्य का अध्यक्ष जनता या उनके प्रतिनिधियों द्वारा प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से चुनाव के आधार पर चुना जाता है, उस पद्धति को निर्वाचित या चुनी हुई कार्यकारिणी कहते हैं। जैसे – भारत का राष्ट्रपति, अमेरिका, श्रीलंका, बांग्लादेश। (5) तानाशाही व लोकतांत्रिक कार्यपालिका –तानाशाही कार्यपालिका – तानाशाही में सारे राष्ट्र की शक्ति एक व्यक्ति के हाथ में होती है। तानाशाह किसी विशेष दल या सेना की सहायता से शक्ति प्राप्त करता है और बाद में उस देश का सर्वेसर्वा हो जाता है। जैसे – मुसोलिनी और हिटलर की तानाशाही। लोकतांत्रिक कार्यपालिका – लोकतांत्रिक कार्यपालिका वह होती है, जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से जनता द्वारा निर्वाचित होती है। विश्व में वर्तमान में अधिकांश कार्यपालिकाएँ निर्वाचित कार्यपालिकाएँ ही हैं। (6) स्थायी एवं राजनीतिक कार्यपालिका –नौसिखियों और विशेषज्ञों के भेद के आधार पर कार्यपालिका को स्थायी और अस्थायी में बांटा जाता है। स्थायी कार्यपालिका – स्थायी कार्यपालिका वह है जिसमें प्रशासन व अधिकारी वर्ग स्थायी रूप से कार्य करता है, सरकारों के बदलने का इन पर कोई प्रभाव नहीं पङता। सिविल सेवक या नौकरशाही स्थायी कार्यपालिका का प्रतिनिधित्व करती है। यह अपने विशेष ज्ञान के कारण विद्यमान होती है। इसमें अधिकारी स्थायी रूप से अपने पद पर रिटायरमेन्ट की अवधि तक रहते हैं। इन्हें अपने पद पर कार्य करने के लिए राजनीतिक समर्थन की आवश्यकता नहीं होती है। यह जो भी सरकार बनती है उसका ही सहयोग करते है। राजनीतिक कार्यपालिका – राजनीतिक कार्यपालिका में राजनीतिक दल बहुमत के आधार पर सत्ता प्राप्त करके शासन का संचालन करते हैं लेकिन यह अस्थायी कार्यपालिका होती है जो बहुमत समाप्त होने पर भंग हो जाती है। मंत्री अस्थायी कार्यपालिका का प्रतिनिधित्व करते हैं। राजनीतिक कार्यपालिका में मंत्रियों का चुनाव जनता द्वारा एक निश्चित कार्याविधि के लिए किया जाता है। इसमें मंत्री अपनी निश्चित अवधि के बाद प्रशासन छोङ देते है और उनके स्थान पर चुनावों के आधार नई कार्यपालिका अस्तित्व (नई मंत्री बनते है।) में आ जाती है। इसे राजनीतिक कार्यपालिका कहते है। इसका स्वरूप अस्थायी होता है। कार्यपालिका का गठन कैसे होता है ?कार्यपालिका के संगठन के अन्तर्गत कार्यपालिका के प्रधान की नियुक्ति की विधि तथा मंत्रिमंडल के अन्य मंत्रियों की नियुक्ति तथा कार्यपालिका के प्रधान की पदावधि एवं पुनः निर्वाचन आदि बातें आती हैं। यथा – (1) मुख्य कार्यपालिका प्रधान को चुनने की विधि –वर्तमान समय में कार्यपालिका प्रधान की नियुक्ति विभिन्न देशों में अलग-अलग पद्धतियों से की जाती है। इस सम्बन्ध में निम्नलिखित पद्धतियाँ प्रमुख हैं- (ब) जनता द्वारा प्रत्यक्ष निर्वाचन – कुछ राज्यों में कार्यपालिका प्रधान का चुनाव जनता द्वारा प्रत्यक्ष रूप से किया जाता है। बोलविया, मैक्सिको, ब्राजील, पेरू आदि राज्यों में राष्ट्रपति को सर्वसाधारण जनता ही निर्वाचित करती है। (स) जनता द्वारा अप्रत्यक्ष निर्वाचन – इस पद्धति के अन्तर्गत सर्वसाधारण जनता द्वारा एक निर्वाचक मण्डल का निर्वाचन किया जाता है और इस निर्वाचक मण्डल द्वारा कार्यपालिका प्रधान का चुनाव किया जाता है। सैद्धान्तिक रूप से अमरीका के राष्ट्रपति के निर्वाचन की यह पद्धति है, किन्तु व्यवहार में राष्ट्रपति के चुनाव ने प्रत्यक्ष चुनाव का रूप ग्रहण कर लिया है। भारत के राष्ट्रपति का चुनाव भी एक निर्वाचक मण्डल द्वारा ही किया जाता है। (द) व्यवस्थापिका द्वारा निर्वाचन – इस पद्धति में कार्यपालिका को व्यवस्थापिका द्वारा चुना जाता है। संसदीय शासन व्यवस्थाओं में यह परम्परा विकसित हो गई है कि संसद के निम्न सदन में जिस राजनैतिक दल या दल समूह को बहुमत प्राप्त होगा, उसका नेता प्रधानमंत्री के पद पर नियुक्त होगा। ब्रिटेन तथा भारत में प्रधानमंत्री का चुनाव इसी विधि से होता है। स्विट्जरलैंड में कार्यपालिका प्रधान का चुनाव भी व्यवस्थापिका द्वारा होता है। (2) कार्यपालिका प्रधान की पदावधि –कार्यपालिका प्रधान के कार्यकाल के सम्बन्ध में बहुत अधिक अन्तर विद्यमान है। अमरीकी संघ की अनेक इकाइयों में कार्यपालिका प्रधान का कार्यकाल केवल एक वर्ष है, वहाँ फ्रेंच गणराज्य के राष्ट्रपति का कार्यकाल 7 वर्ष है। आम धारणा यही है कि कार्यपालिका प्रधान के कार्यकाल की अवधि 4 या 5 वर्ष होनी चाहिए। भारत, अमरीका आदि अधिकांश देशों में व्यवहार में यही कार्यकाल है। (3) पुनः निर्वाचन की व्यवस्था –इस सम्बन्ध में भी विद्वानों में मतभेद है। यदि कार्यपालिका प्रधान का कार्यकाल अति दीर्घ है तो उसका पुनर्निर्वाचन अत्यन्त अस्वाभाविक हो जाता है, लेकिन यदि सामान्य कार्यकाल (4 या 5 वर्ष) है तो पुनर्निर्वाचन की व्यवस्था होना आवश्यक है। अमरीका में राष्ट्रपति दो अवधियों तक रह सकता है। भारत में भी राष्ट्रपति पुनः निर्वाचित हो सकता है। कार्यपालिका की शक्तियाँ या कार्य(1) प्रशासन सम्बन्धी कार्य –
(2) कानून निर्माण सम्बन्धी कार्य –
(3) कानून को क्रियान्वित करना –कार्यपालिका का सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य व्यवस्थापिका द्वारा बनाये गये कानूनों को संविधान के अनुसार को क्रियान्वित करना होता है। कार्यपालिका कानूनों को कार्यरूप में परिणत करती है तथा उनके आधार पर शासन का संचालन करती है। कार्यपालिका ही कानून को लागू करती है। (4) न्याय सम्बन्धी कार्य –
(5) सैनिक कार्य –
(6) विदेशी सम्बन्ध, युद्ध एवं सन्धियाँ –
(7) वित्तीय कार्य –
(8) नीति-निर्माण करना –कार्यपालिका का सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य नीति निर्धारण करना होता है। कार्यपालिका अपने नीति का निर्धारण करने के बाद उसे संसद के सामने प्रस्तुत करती है। इसके अलावा कार्यपालिका का कार्य नीतियों को लागू करना भी होता है। (9) राष्ट्रीय कार्य –देश की राष्ट्रीय नीति को लागू करना कार्यपालिका का कार्य है। देश के नीति सम्बन्धी महत्त्वपूर्ण निर्णय लेना तथा सरकार के प्रमुख के रूप में शासन चलाना। (10) कार्यपालिका के आर्थिक कार्य –कार्यपालिका पर ही देश का आर्थिक जीवन निर्भर है। कार्यपालिका का आर्थिक साधनों जैसे – व्यापार, वाणिज्य, उद्योग आदि पर और इनके उत्पादन एवं वितरण प्रणाली पर भी नियन्त्रण है। कार्यपालिका द्वारा अनेक आर्थिक योजना बनाई जाती है जिससे देश का आर्थिक विकास हो रहा है। (11) संकटकालीन कार्य –कार्यपालिका बाहरी आक्रमण, सशस्त्र विद्रोह, युद्ध की स्थिति, आर्थिक संकट, सैनिक संकट आदि स्थितियाँ पैदा होने पर संकटकालीन शक्तियों का प्रयोग करती है। देश में आर्थिक नुकसान होने या आर्थिक संकट होने की स्थिति में कार्यपालिका ’आर्थिक आपातकाल’ की घोषणा कर सकती है। कार्यपालिका का महत्त्वकार्यपालिका को महत्त्व लगातार बढ़ रहा है इसके लिए निम्न कारक उत्तरदायी है – (1) व्यवस्थापिका की अक्षमता –आधुनिक राज्यों में व्यवस्थापिका की संरचना और व्यवस्थापिकाओं में विद्यमान दलीय गतिरोध इन्हें विधायी कार्य तथा कार्यपालिका के नियन्त्रण की भूमिका निभाने में अक्षम बना देते हैं। विधान मण्डल राष्ट्र सम्बन्धी संकटों का समाधान नहीं करके उनको अधिक गम्भीर बनाने का माध्यम बनने लगे है। इसका सीधा परिणाम, मुख्य कार्यपालक में शक्ति का केन्द्रण है। अतः स्पष्ट है कि व्यवस्थापिका में कमजोरी या अक्षमता कार्यपालिका को शक्ति का केन्द्र बनाने का कारण बन जाती है। (2) कार्यपालिका की आक्रामकता –कार्यपालिका का नेतृत्व आज आक्रामक-सा बनने लग गया है। कार्यपालिका को देश की प्रगति हेतु व्यापक व विविध उत्तरदायित्वों को निभाना पङता है। ये उत्तरदायित्व कार्यपालिका की आक्रामकता को बढ़ा देते हैं। इस आक्रामकता के कारण कार्यपालिका नीति-निर्माण में भी व्यवस्थापिका को केवल औपचारिक भूमिका निभाने वाला निकाय बनाने में सफल होती जा रही है। (3) लोक कल्याणकारी राज्य की धारणा –वर्तमान काल की कल्याणकारी राज्य की धारणा – वर्तमान काल की कल्याणकारी राज्य की अवधारणा ने कार्यपालिका की शक्तियों में अभूतपूर्व वृद्धि कर दी है। जिन राज्यों के द्वारा समाज कल्याण की धारणा को अपना लिया गया है ,वहाँ पर सामाजिक और आर्थिक सुधारों से सम्बन्धित व्यवस्थापन ने कार्यपालिका को बहुत अधिक शक्ति प्रदान कर दी है। (4) प्रदत्त व्यवस्थापन –वर्तमान काल में कानून निर्माण का कार्य अत्यधिक बढ़ गया है तथा अत्यन्त जटिल व पेचीदा भी हो गया है। इस कारण व्यवस्थापिकाओं ने स्वेच्छा से ही अपनी कानून निर्माण की कुछ शक्ति कार्यपालिका के विभिन्न विभागों को सौंप दी है। इसे ही प्रदत्त व्यवस्थापन कहा जाता है। इस प्रदत्त व्यवस्थापन की व्यवस्था के कारण भी कार्यपालिका की शक्ति में बहुत वृद्धि हो गई है। (5) दल और प्रश्रय –दलीय पद्धति के विकास ने भी कार्यपालिका की शक्ति में बहुत अधिक वृद्धि कर दी है। अपने दलीय बहुमत के कारण कार्यपालिका अध्यक्ष, विधान मण्डल से सब-कुछ करा सकने की अवस्था में आ जाता है। (6) कार्यपालिका पदों में वृद्धि –पिछले कुछ वर्षों से कार्यपालिका से सम्बद्ध अधिकारियों व संस्थाओं में संख्यात्मक व कार्यात्मक वृद्धि बङी तेजी से हो रही है। इससे राजनीतिक व्यवस्था में प्रत्येक स्तर पर कार्यपालिका ही कार्यों की संयोजक, नियन्त्रक व निर्देशक बन जाती है और राजनीतिक व्यवस्था में सब जगह कार्यपालिका सक्रिय बनी रहती है। (7) नियोजन एवं केन्द्रीकरण –विश्व के अधिकांश राष्ट्रों द्वारा आर्थिक विकास के लिए ’नियोजन’ की पद्धति को अपनाया गया है। आर्थिक विकास एवं जनकल्याण हेतु योजना निर्माण, योजनाओं को कार्यरूप में लाने तथा लागू की गयी योजनाओं का मूल्यांकन करने का कार्य कार्यपालिका के द्वारा ही किया जाता है। (8) राष्ट्रीय संकट –एलेन बाल का कथन है कि आधुनिक कार्यपालिका ने संकटों को परिभाषित करने के लिए और उनसे निपटने के लिए अनियन्त्रित शक्ति का विकास कर लिया है। राष्ट्रीय संकट के समय प्रायः कार्यपालिका सब प्रकार के प्रतिबन्धों से मुक्त हो जाती है और उसे असीमित शक्तियाँ प्राप्त हो जाती हैं। (9) संवैधानिक संशोधन –वर्तमान में तेजी से बदलती हुई परिस्थितियों के कारण संविधान को उनके अनुरूप बनाए रखने के लिए उसमें बार-बार संशोधन किया जाने लगा है। इन संशोधनों में एक प्रवृत्ति सर्वत्र एक-सी पायी जाती है कि ये संशोधन कार्यपालिका के शक्ति क्षेत्र में वृद्धि करने के उद्देश्य से उत्प्रेरित होते हैं। अतः संवैधानिक संशोधन भी वर्तमान में कार्यपालिका की शक्ति बढ़ाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। (10) नेतृत्व की आवश्यकता –सम्पूर्ण राजनीतिक व्यवस्था में सुदृढ़ नेतृत्व की आवश्यकता ने भी कार्यपालिका की शक्तियों की वृद्धि में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। (11) मंत्रिपरिषद् द्वारा व्यवस्थापिका के विघटन की शक्ति –वर्तमान संसदात्मक शासन प्रणाली में कार्यपालिका का व्यवस्थापिका के प्रति उत्तरदायित्व तो नाममात्र का रह गया है, अधिक वास्तविक तो मंत्रिपरिषद् द्वारा व्यवस्थापिका को विघटित करने की शक्ति है। मंत्रिपरिषद् की इस शक्ति के कारण भी संसदीय शासन में कार्यपालिका की सत्ता में बहुत अधिक वृद्धि हो गई है। (12) संचार साधनों का योगदान –संचार साधनों ने कार्यपालिका को सीधे जन-सम्पर्क में ला दिया है। कार्यपालिका व जन-साधारण के बीच यह सम्पर्क तथा कार्यपालिका के पक्ष में प्रचार, हर देश के मुख्य कार्यपालिका को शक्ति केन्द्र बनाने में सहयोगी रहा है। (13) अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों तथा विदेशी व्यापार का संचालन –अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के संचालन तथा विदेशी व्यापार के क्षेत्र में भी मुख्य कार्यपालिका अत्यधिक सक्रिय तथा अंशतः स्वतन्त्र होती है। इस प्रकार अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के संचालन की प्रकृति ने भी कार्यपालिका को शक्तिशाली बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। कार्यपालिका के प्रमुख कार्य क्या हैं?कार्यपालिका का सबसे अधिक महत्वपूर्ण कार्य नीति निर्धारण करना भी है। संसदीय सरकार में कार्यपालिका अपनी नीति निर्धारण करके संसद के सामने प्रस्तुत करती है। अध्यक्षात्मक सरकार में वह अपनी नीतियों की स्वतन्त्र निर्धारक होती है। कार्यपालिका ही देश की आन्तरिक व बाहरी नीति का निर्धारण करती है और उसी के आधार पर शासन चालती है।
कार्यपालिका किसे कहते हैं और कितने प्रकार की होती है?कार्यपालिका सरकार का वह अंग है जो विधायिका द्वारा स्वीकृत नीतियों और कानूनों को लागू करने के लिए जिम्मेदार है। कार्यपालिका प्राय: नीति-निर्माण में भी भाग लेती है। कार्यपालिका का औपचारिक नाम अलग-अलग राज्यों में भिन्न-भिन्न होता है। कुछ देशों में राष्ट्रपति होता है, तो कहीं चांसलर।
कार्यपालिका का प्रमुख कौन होता है?Abhishek Mishra. भारत में संघीय कार्यपालिका का संवैधानिक प्रमुख राष्ट्रपति होता है। केंद्र की समस्त शक्तियां राष्ट्रपति में ही निहित होती है, जिनका प्रयोग वह स्वयं या अपने अधीनस्थ अधिकारियों के माध्यम से करता है। राष्ट्रपति भारत का प्रथम नागरिक होता है, कार्यपालिका संबंधी कार्य उसी के नाम से संचालित किए जाते हैं।
कार्यपालिका के कितने अंग होते हैं?संघीय (केन्द्रीय) सरकार के तीन अंग हैं- विधायिका (संसद) कार्यपालिका ( राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और मंत्री परिषद) और न्यायपालिका (सर्वोच्च न्यायालय)।
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