जेंडर समानता में शिक्षा की भूमिका का वर्णन करें - jendar samaanata mein shiksha kee bhoomika ka varnan karen

Q.7: जेंडर असमानता के दुष्परिणाम क्या हैं? जेंडर समानता स्थापित करने में विद्यालय, संगी साथी, शिक्षक, पाठ्यक्रम तथा पाठ्यपुस्तकों की भूमिका पर प्रकाश डालिए।

उत्तर : लिंग या जेंडर संबंधी असमानता मानवाधिकारों के विरुद्ध है तथा यह मुद्दा इस तथ्य पर बल देता है कि शारीरिक संरचना के आधार पर पुरुष तथा स्त्री के मध्य विद्यमान प्राकृतिक (नेचुरल) असमानताओं को तो स्वीकार किया जा सकता है परन्तु सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक आधार पर पुरुष तथा स्त्री में असमानता संबंधी भेदभाव औचित्यपूर्ण नहीं है । आज विश्व के लगभग सभी समाजों में महिलाओं का स्तर पुरुषों के समान नहीं है तथा यही तथ्य जेंडर असमानता की अर्थ की ओर ध्यानाकर्षित करता है। संयुक्त राष्ट्र संघ के अनुसार पूरे विश्व में महिलाएं यद्यपि विश्व जनसंख्या के आधे भाग का प्रतिनिधित्व करती हैं तथा संपूर्ण कार्य के दो– तिहाई भाग को पूरा करती हैं, परन्तु इनके पास विश्व की संपत्ति का केवल दसवाँ भाग ही है। वर्तमान समय विश्व बैंक के द्वारा प्रतिपादित सदशासन– सुशासन (गुड गवर्नेस) के सिद्धान्त का संपूर्ण विश्व में जोरदार प्रचार तथा प्रसार किया जा रहा है । कानून का शासन लिंग (जेंडर) पर आधारित भेदभाव को स्वीकार नहीं करता। कानून के समक्ष सभी स्त्री पुरुष समान होते हैं । मानवता व मानवाधिकार तथा भारतीय संविधान भी समानता के विचारों का समर्थन करता है।

जेंडर असमानता संपूर्ण विश्व के लगभग सभी देशों में विद्यमान है चाहे उसकी मात्रा कहीं कम कहीं ज्यादा हो। प्रत्येक समाज में पुरुष व स्त्री के रूप में उसकी लैंगिक (जेंडरगत) पहचान तथा सामाजिक भूमिकाएं सामाजीकरण की प्रक्रिया के माध्यम से निश्चित की जाती है। जेंडर असमानता विश्व के अनेक समाजों में विशेषकर विकासशील देशों में स्त्री जाति के साथ समाज में प्रचलित विभिन्न रूढ़ियों, आर्थिक नियमों, कानूनी प्रावधानों के आधार पर भेदभाव करने तथा उन्हें (नारी जाति को) पुरुषों के समान सामाजिक व राजनैतिक अधिकारों से वंचित करने के स्वरूप में परिलक्षित होती हैं । नारीवादी या फेमिनिस्ट विद्वानों के अनुसार जेंडर असमता को स्त्री– पुरुष विभेद के सामाजिक स्वरूप या स्त्री– पुरुष के मध्य असमान संबंधों की व्यवस्था के रूप में परिभाषित किया जा सकता है ।

मानवतावाद मानव और उसकी गरिमा का पक्षधर है परंतु जेंडर असमता अर्थात् पुरुषों की तुलना में स्त्रियों को अनेक अधिकारों से वंचित करना न केवल मानवता के लिए कलंक है बल्कि संवैधानिक व कानूनी दृष्टि से भी त्रुटिपूर्ण है। एक मानव विकास रिपोर्ट में यह कहा गया है कि किसी भी समाज में महिलाओं को पुरुषों के समान अवसर उपलब्ध नहीं हैं। इससे यही सिद्ध होता है कि पुरुषों की तुलना में नारी अधिकारों से वंचित है।

जेंडर असमानता कई रूपों में घातक है तथा इसके अनेक दुष्परिणाम हैं। प्रमुख दुष्परिणाम ये हैं–

(1) व्यक्तिगत दुष्परिणाम– लड़कियों में प्रति पारिवारिक भेदभाव या सामाजिक कप्रथाओं आदि का बुरा प्रभाव मनोवैज्ञानिक रूप से पड़ता है। अधिक संवेदनशील बालिकाएं हीन भावना, कंठा, डिप्रेशन, मनोरोगों का शिकार बन जाती हैं। कुछ तो अवसादग्रस्त होकर जीवन समाप्त कर लेना या आत्महत्या जैसा कदम उठा लेती हैं। उन्हें अकेलापन अनुभव होता है तथा समाज से किसी प्रकार की उम्मीद न होने से वे हताश हो जाती हैं।

महिलाओं के प्रति शोषण व अत्याचार के समाचार आए दिन सुनाई देते हैं । ये जेंडर असमानता, नारी के प्रति सम्मान के अभाव आदि कारणों से उत्पन्न समस्या है। यौन शोषण, हिंसा घरेलू मारपीट घर बाजार में छेड़छाड़ की घटनाएं अखबारों में नित प्रकाशित होने वाले अपहरण व बलात्कार की घटनाएं किशोरी बालिकाओं व महिलाओं में असुरक्षा की भावना उत्पन्न कर देती है। अनेक प्रतिभाशाली महिलाएं स्वयं को घर की चहारदीवारी तक सीमित कर लेती हैं । बुरका पहनना, पर्दा करना,घर से बाहर न निकलना जैसे तालिबानी फरमान भी लड़कियों व महिलाओं में अवसाद (डिप्रेशन) उत्पन्न करते हैं । लैंगिक असमानता के कारण महिलाओं का व्यक्तिगत जीवन दूभर होता जा रहा है।

(2) सामाजिक दुष्परिणाम– महिलाओं के प्रति सम्मान की कमी तथा उनके मनोभावों को महत्त्व न देने से अनेक सामाजिक बुराइयाँ उत्पन्न हो जाती हैं जैसे बालविवाह, विधवा अत्याचार, पर्दा प्रथा, अशिक्षा व निरक्षरता, असामाजिक तत्त्वों के स्त्री के प्रति हिंसा व शोषण के कृत्य आदि दुष्परिणामों से समाज ग्रसित हो जाता है।

(3) शिक्षा संबंधी दुष्परिणाम– शताब्दियों से नारी शिक्षा विरोधी समाज ने बालिका शिक्षा के प्रति अरुचि प्रदर्शित कर नारी जाति के प्रति भेदभाव को बढ़ाया है। शिक्षा न होने से अज्ञान की शिकार होने वाली महिलाएं अपनी संतान तक को शिक्षित नहीं कर पातीं। पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों में साक्षरता व शिक्षा की कमी कमतर स्थिति जेंडर असमानता का दुष्परिणाम है।

(4) आर्थिक दुष्परिणाम– नारियों को उनकी योग्यता तथा प्रतिभा के अनुरूप रोजगार पाने का अधिकार होना चाहिए परन्तु केवल स्त्री होने के कारण उन्हें नौकरी के वे अवसर तथा पुरुषों के समकक्ष वेतन प्राप्त करने के अवसर नहीं मिल पाते । यह स्थिति उनमें आर्थिक शोषण को उत्पन्न करती है।

(5) सांस्कृतिक दुष्परिणाम– संस्कृति आदर्श, मूल्य, कला, साहित्य, धर्म रीति रिवाज आदि का समन्वित रूप है। नारी जेंडर के प्रति गरिमा व प्रतिष्ठा का अभाव तथा उस पर हिंसा अपराध के प्रयास सुसंस्कृति की अपेक्षा अपसंस्कृति को जन्म देते हैं। भारत देश में वैदिक काल में कहा गया कि जहाँ नारी की पूजा होती है वहाँ देवों का निवास होता है किन्तु कालांतर में नारी के प्रति गरिमा व आदर भावना में कमी आई । यह भी सांस्कृतिक अध:पतन का उदाहरण है। इस प्रकार जेंडर भेदभाव अपसंस्कृति का विकसित करता है।

(6) पारिवारिक दुष्परिणाम– परिवारों में घरेलू हिंसा मारपीट की घटनाएं महिलाओं के साथ अम्मन पाई जाती है । बालक– बालिका में भेदभाव होता है। लड़कियों को प्रायः घरों में अभिभावकों द्वारा भी जली– कटी सुनाई जाती है। लड़कियों पर खाना बनाने (रसोई) कपडे धोने. छोटे बच्चों का पालन पोषण करने जैसा घंटों क्या दिनभर व्यस्त रखने वाला बोझा डाल दिया जाता है। कुछ परिवारों में लड़कियों व महिलाओं (बहनों पत्नी आदि) को खेतीबाडी पशुपालन, घरेलू उद्योग व व्यवसाय में लगा दिया जाता है जिसके कारण महिलाएं अपना स्वतंत्र विकास करने, शिक्षा प्राप्त करने,सामाजिक गतिविधियों में भागीदारी करने के अवसरों से वंचित रह जाती है।

(7) राजनैतिक दुष्परिणाम– लोकतंत्र में जन प्रतिनिधि के रूप में निर्वाचन का अधिकार दोनों जेंडर को है परन्तु भारत जैसे विशाल लोकतंत्रात्मक देश में 60– 65 सालों की स्वतंत्रता के बाद भी स्त्रियों का राजनीति में आना उतना सफल नहीं हुआ है। महिला आरक्षण के निर्वाचन में प्रावधान के कारण यदि महिलाएं ग्राम पंचायत, जनपद पंचायत आदि में विजयी भी हो जाती हैं तो यह देखा गया है कि पति की देखरेख व इच्छा के अनुसार कार्य संपादित करती हैं। अशिक्षा व कम अनुभव के कारण वे प्रशासनिक कामकाज तथा बजट आवंटन को संधारित करने तथा समुचित निर्णय लेने में असफल होती हैं ।

(8) राष्ट्रीय क्षति– राष्ट्र की आधी मानव संसाधन व शक्ति महिलाओं की है। उनका सार्वजनिक जीवन में योगदान न दे पाने की विवशता देश की प्रगति को क्षति पहँचाती हैं। देश की प्रगति और विकास में यदि महिला फौज को लगा दिया जाए तो देश तीव्र गति से विविध क्षेत्रों में विकास व प्रगति की ओर अग्रसर हो सकता है। परिचर्या (नर्सिंग), चिकित्सा शिक्षा, पत्रकारिता, रेडियो दूरदर्शन में भूमिकाओं के द्वारा नारी शक्ति का उपयोग देश के लिए हितकारी है। परन्तु इसके लिए नारी समता व नारी सशक्तिकरण के प्रयास अपेक्षित हैं।

(9) अन्तर्राष्ट्रीय या वैश्विक क्षति– वर्तमान समय में लैंगिक असमता संबंधी निराकरण के कार्य किसी एक राष्ट्र की सीमा तक केन्द्रित न होकर अन्तर्राष्ट्रीय, वैश्विक, भूमंडलीकृत हो गए हैं। राष्ट्रों की प्रतिष्ठा उनमें मानवाधिकार तथा जेंडरगत समानता से भी आंकी जाती है। बालिका शिक्षा, सामाजिक व राजनैतिक क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी का प्रतिशत उन राष्ट्रों की गरिमा व प्रतिष्ठा को चमक प्रदान करता है।

वास्तव में जेंडर असमता महिलाओं के विकास में तो बाधक तत्त्व है ही, परिवार, समाज, राजनीति, संस्कृति, राष्ट्रीयता आदि विविध क्षेत्रों में अपने दुष्प्रभावों से प्रगति की गति को निष्फल कर देता है। महिला सशक्तिकरण केवल नारा बनकर रह जाता है तथा वास्तविक धरातल पर नारी सशक्तिकरण के प्रयास नाकाम सिद्ध होते हैं । नारी के शैक्षिक, आर्थिक, राजनैतिक व सामाजिक सशक्तिकरण की दिशा में प्रगति के सपने धूमिल हो जाते हैं।

जेंडर समानता स्थापित करने में विद्यालय, संगी साथी (पीयर्स) शिक्षक, पाठ्यचर्या तथा पाठ्यपुस्तक आदि की भूमिकाएं बालिका या स्त्री जेंडर की असमानता दूर करने तथा इस विषयक समस्याओं का निराकरण करने में अनेक अभिकरणों की भूमिकाएं महत्त्वपूर्ण हैं। शासन द्वारा कई महत्त्वपूर्ण कदम जेंडर समानता की सोच विकसित करने तथा उनको वैधानिक रूप देने हेतु उठाए गए हैं जैसे– संविधान में लिंग के आधार पर भेदभाव प्रतिबंधित हैं। सभी को समानता का अधिकार दिया गया है । हिन्दुओं में स्त्री को उत्तराधिकार प्राप्त करने का अधिकार प्रदत्त है। हिन्दुओं में तलाक या विवाह विच्छेद के उपरांत भरण पोषण को वैधानिक रूप दिया गया है। महिला को गोद लेने का अधिकार दिया गया है।

अनैतिक व्यापार दमन कानून पारित किया गया है। हाई स्कूल तक स्त्री शिक्षा की निःशुल्क व्यवस्था की गई है, दहेज नियंत्रण कानून प्रभावी है। स्त्रियों को वयस्क मताधिकार पुरुषों के समान उपलब्ध हैं। स्त्रियों को नौकरी में आरक्षण प्राप्त है। बालिकाओं से छेड़छाड़ व यौन उत्पीड़न के विरुद्ध सख्त वैधानिक उपाय किये गये हैं। शारदा एक्ट से बाल विवाह को प्रतिबंधित किया गया है । हिन्दू विवाह अधिनियम प्रभावी है । अनिवार्य बाल शिक्षा अधिनियम 2009 लागू है । संविधान तथा विधान (कानून) संबंधी अनेक प्रावधानों के साथ अनेक कार्यक्रम व योजनाएं भी संचालित हैं जिसका समुचित क्रियान्वयन जेंडर समानता का सपना पूरा करने हेतु सक्षम है। किन्तु इसके बाद भी पुरुष प्रधान सामाजिक संरचना में परिवर्तन की धीमी गति के कारण स्त्री/बालिका की प्रस्थिति में परिवर्तन अत्यन्त मंद गति से हो रहा है।

वस्तुतः जब तक शक्तिशाली जनाधार विकसित नहीं होगा तब तक स्त्री की प्रस्थिति को ऊपर उठाना तथा जेंडर समता के सामने को सफल करना संभव नहीं होगा। पिछले वर्षों में राजस्थान प्राप्त में खुले आम सतीकांड हुआ और जगद्गुरु शंकराचार्य जैसे महापद प्राप्त व्यक्तियों ने सती होने का पक्ष पोषण किया। यह इस बात का सबूत है कि स्त्री की प्रस्थिति हेत हेर मारे कानन व कार्यक्रम निष्प्रभावी हो रहे हैं । आवश्यकता इस बात की है कि जेंडर समानता स्थापित करने में विभिन्न एजेंसियों अभिकरणों की सहायता ली जाए।

विद्यालय की भूमिका– आजकल विद्यालय शिक्षकों द्वारा विद्यार्थियों को निश्चित समय में निर्धारित पाठ्यक्रम के अनुसार शिक्षा प्रदान करने का केन्द्र है। जे.एम. रास के शब्दों में "विद्यालय वे संस्थाएं हैं जिनको सभ्य मानव ने इस दृष्टि से स्थापित किया है कि समाज में सुव्यवस्थित तथा योग्य सदस्यता के लिए बालकों की तैयारी में सहायता मिले।” जॉन डीवी के अनुसार, "स्कूल एक ऐसा विशिष्ट वातावरण है जहाँ बालक ने वांछित विकास की दृष्टि से उसे विशिष्ट क्रियाओं तथा व्यक्ताओं की शिक्षा दी जाती है।” स्कूल या विद्यालयों में बालक के व्यक्तित्व का सर्वांगीण सामंजस्यपूर्ण विकास होता है। विद्यालयों में बालकों को सामुदायिक जीवन के लिए तैयार किया जाता है तथा बालक में बहमुखी सांस्कृतिक चेतना का विकास किया जाता है। विद्यालयों में शिक्षित नागरिकों का निर्माण होता है।

जेंडर समानता स्थापित करने की दृष्टि से विद्यालय की भूमिका अतिमहत्त्वपूर्ण है। सहशिक्षा वाले विद्यालयों में शिक्षकों तथा अन्य शालेय स्टाफ द्वारा बालक– बालिकाओं की गतिविधियों पर नजर रखी जाती है तथा ऐसे प्रयास किये जाते हैं कि बालक बालिकाओं के साथ समानता के व्यवहार करने हेतु प्रेरित हों । शिक्षक गण यह भी देखते हैं कि विद्यालय परिसर तथा विद्यालय के समीपवर्ती स्थानों पर ऐसी कोई घटना न हो जो बालक के बालिकाओं के प्रति व्यवहार अशोभनीय हो । विद्यालय में कक्षायें तथा परिसर में शिक्षण में तथा पाठ्यक्रमेत्तर गतिविधियों में बालक बालिकाओं के मिलकर कार्य करने तथा दूरी बनाये रखने को महत्त्व देकर अंजाम दिया जाता है।

जेंडर समानता का व्यावहारिक पाठ बालुक विद्यालय में ही सीखते हैं। इसके अतिरिक्त पाठ्यक्रम व पाठ्यपुस्तकों द्वारा वे जेंडर मुद्दे पर सैद्धान्तिक ज्ञान भी प्राप्त कर लेते हैं जो उनके भावी जीवन में उनके तथा समाज के लिए लाभप्रद होता है। असामाजिक व गंडा तत्त्वों से बालिकाओं की सुरक्षा हेतु वालेंटियर बालिक शिक्षक के मार्गदर्शन में विद्यालय के आसपास के स्थान पर सतर्कतापूर्वक दृष्टि बनाए रखते हैं। अधिकांश सह शिक्षा वाले स्कूलों में बालक बालिकाओं में भाई– बहन के समान व्यवहार करने हेतु शाला प्रशासन द्वारा प्रेरित किया जाता है ।

(2) संगी साथी (पीयर्स ग्रुप) की भूमिका– संगी साथी से आशय सहपाठी छात्र– छात्राओं तथा मित्र छात्र– छात्राओं से है । किशोरवय के बालक बालिका अधिकतर समलिंगी समूह में अपने मित्र शाला में बना लेते हैं। वे उनके साथ पढ़ने, बातचीत करने, खेलकूद में भाग लेने, सांस्कृतिक गतिविधि में भाग लेने, प्रोजेक्ट या असाइनमेंट को पूर्ण करने, मिलकर अध्ययन करने आदि में संगी– साथी का साथ पसंद करते हैं । संगी– साथी प्रायः छोटे– छोटे समह में लगभग एक जैसे विचारधारा से प्रेरित होते हैं। किशोरावस्था में समलिंगी समूह के अतिरिक्त विपरीत लिंग के प्रति आकर्षण तथा मित्रता करने की भावना प्रछन्न रूप में विद्यमान रहती है। शालेय शिक्षकों का कर्त्तव्य है कि समलिंगी व विषमलिंगी संबंधों में शैक्षिक गतिविधियों में समन्वय स्थापित करने का प्रयास करें। निर्दिष्ट कार्यों, टास्क, पाठ्य सहगामी क्रियाओं, प्रोजेक्टों प्रयोगशालाओं आदि में सहज संबंध के विकास का प्रयास करें। इससे बालक– बालिकाओं में अपने जेंडर तथा बालिका या बालक जेंडर को सम्मान देने की भावना तथा उनके साथ सहजतापूर्ण संबंध स्थापित करने की भावना विकसित होगी।

बालक– बालिकाओं के संगी साथी शैक्षिक गतिविधि में सहयोग देने के साथ खेलकूद, सांस्कृतिक सामाजिक कार्य, शैक्षणिक यात्रा, पिकनिक आदि में एक– दूसरे के प्रति सम्मानपूर्ण गरिमामय आचरण विकसित कर जेंडर असमानता को समाप्त करने की दिशा में प्रभावी भूमिका निभा सकते हैं।

(3) शिक्षक की भूमिका– शिक्षक छात्र– छात्राओं के सर्वांगीण व्यक्तित्व के विकास. अभिवृत्ति, आदत, मैसर्स तथा चरित्र के निर्माण में आकार देने तथा टालने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने वाला व्यक्ति होता है। वह मित्र, मार्गदर्शक तथा दार्शनिक माना जाता है तथा उसके विद्यार्थी शिक्षक को 'हीरो' के रूप में देखते हैं। शिक्षक न केवल छात्र– छात्राओं के पाठयक्रम को पूरा करने का कार्य करता है न कि वह अपने छात्रों के सर्वांगीण विकास हेतु प्रयत्नशील होता है। अतः जेंडर समानता की सोच स्थापित करने तथा उसे व्यावहारिक रूप देने में शिक्षक की भूमिका अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। शिक्षक कक्षा शिक्षण के दौरान, कक्षा अन्तक्रिया के दौरान, पाठ्यसहगामी क्रियाओं के दौरान छात्र– छात्राओं को जेंडर समानता संबंधी सोच विकसित करने में सहायता कर सकता है । वाद विवाद, भाषण, सांस्कृतिक कार्यक्रम, प्रोजेक्ट के सामूहिक कार्य आदि में जेंडर मुद्दे को चतुराई के साथ प्रासंगिक रूप देकर शिक्षक जेंडर समानता में अपनी भूमिका का निर्वाह कर सकता है।

जिन विद्यालय में शिक्षक– शिक्षिकाएं साथ– साथ कार्यरत हैं वहाँ शिक्षक को महिला शिक्षिकाओं के प्रति आदर तथा गरिमापूर्ण व्यवहार के साथ पेश आना चाहिए ताकि उसका अनुकरण छात्र गण कर सकें। अपने भाषण उपदेश के स्थान पर शिक्षक अपने चरित्र व व्यवहार से छात्रों को अधिक प्रभावित कर सकता है। डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने शिक्षक को उस कैंडिल (मोमबत्ती) के समान बताया है जो अपने को जलाकर छात्र– छात्राओं को प्रकाशित करने का कार्य करता है। शिक्षक छात्रों का रोलमॉडल होता है अतः उसके प्रयास निष्फल नहीं जाते । छात्राओं की दर्ज संख्या बढाने उन्हें शिक्षा हेत प्रोत्साहन देते रहने उनकी पारिवारिक व आर्थिक समस्याओं के प्रति भरसक संवेदनशीलता या हमदर्दी के द्वारा भी शिक्षक जेंडर समानता के कार्य कर सकता है ।

(4) पाठ्यचर्या की भूमिका– पाठ्यचर्या या पाठ्यक्रम वह साधन है जिसके अध्यापन– शिक्षण द्वारा शिक्षक निर्धारित शिक्षा व जीवन के उद्देश्यों को प्राप्त करने में सहायक होता है । पाठ्यचर्या की परिभाषा देते हुए वाल्टर एस मनरो ने अपने शब्दकोष में ये शब्द दिये हैं– “पाठ्यक्रम को किसी विद्यार्थी द्वारा लिये जाने वाले विषयों के रूप में परिभाषित नहीं किया जाना चाहिए । पाठ्यक्रम की कार्यात्मक संकल्पना के अनुसार इसके अंतर्गत वे सब अनुभव आ जाते हैं जो विद्यालय में शिक्षा के लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए प्रयुक्त किए जाते हैं।” कनिंघम के अनसुर पाठ्यक्रम कलाकार (शिक्षक) के हाथ में एक साधन है जिससे वह अपनी सामग्री (शिक्षार्थी) को अपने आदर्श (उद्देश्य) के अनुसार अपनी चित्रशाला (विद्यालय) में डाल सकें।” मुदालियर आयोग का माध्यमिक शिक्षा आयोग के शब्दों में, “पाठ्यक्रम का अर्थ केवल उन सैद्धान्तिक विषयों से नहीं है जो विद्यालयों में परम्परागत रूप से पढ़ाए जाते हैं, बल्कि इसमें अनुभवों की वह संपूर्णता भी सम्मिलित होती है, जिनको विद्यार्थी विद्यालय, कक्षा, पुस्तकालय, प्रयोगशाला, कार्यशाला,खेल के मैदान तथा शिक्षक व छात्रों के अनौपचारिक संपर्कों से प्राप्त करता है। इस प्रकार विद्यालय का संपूर्ण जीवन पाठ्यक्रम हो जाता है जो छात्रों के जीवन के सभी पक्षों को प्रभावित करता है और उनके संतुलित व्यक्तित्व के विकास में सहायता करता है।” इन परिभाषाओं से स्पष्ट होता है कि पाठ्यक्रम परम्परागत रूप से परीक्षा उत्तीर्ण करने हेतु पढ़ाया जाने वाला निर्धारित किया गया विषयों का क्रम ही नहीं है बल्कि पाठ्यक्रम व्यापक रूप से शाला में पढ़ाए जाने वाले व्यावहारिक तथा अन्य अनुभवों के साथ जुड़ा संपूर्ण व समग्र रूप है।

पाठयक्रम का निर्माण प्रायः विषय विशेषज्ञों की समिति या मंडल द्वारा इस रूप में किया जाता है जो इसे पढ़ाने के उद्देश्यों की पूर्ति करने वाले विविध प्रकरणों/विषयों से यक्त हो । अत: जेंडर समानता के मुद्दे को पाठ्यक्रम में शामिल किया जाना पाठ्यक्रम निर्माताओं पर निर्भर रहता है । यदि तकनीकी आदि विषयों में जेंडर समानता के प्रकरण न दिये जा सकने की विवशता हो तो भी पाठ्यक्रम के उद्देश्यों में जेंडर समानता का मुद्दा सम्मिलित किया जा सकता है। इसे बालक– बालिकाओं के सामूहिक टीम वर्क तथा पाठ्य सहगामी क्रियाओं के द्वारा सफल बनाया जा सकता है । पाठ्यक्रम में महिला सशक्तिकरण की नीति व क्रियान्वयन को भी शामिल किया जाना चाहिए।

(5) पाठ्य पुस्तकों की भूमिsका– पाठ्य पुस्तक को परिभाषित करते हुए हाल– क्वेस्ट ने लिखा है, “पाठ्य पुस्तक शिक्षण अभिप्रायों के लिए व्यवस्थित प्रजातीय चिंतन का एक अभिलेख है ।" बेकन के अनुसार, “पाठ्य पुस्तक कक्षा प्रयोग के लिए विशेषज्ञों द्वारा सावधानी से तैयार की जाती है। यह शिक्षण युक्तियों से भी सुसज्जित होती है । पाठ्य पुस्तकें कक्षा के अनुसार तैयार होती है तथा इनमें निर्धारित किये गए पाठ्यक्रम के अनुसार विषय/प्रकरणों पर अध्याय दिये गये होते हैं।

अनुदेशात्मक सामग्री के रूप में सर्वाधिक प्रयोग की जाने वाली सामग्री पाठ्य पुस्तकें ही है। आधुनिक शिक्षा प्रणाली से पाठ्य पुस्तकों का महत्त्व सर्वविदित है । पाठ्यक्रम की वास्तविक रूपरेखा को पाठ्य पुस्तकों द्वारा ही विस्तार प्राप्त होता है जिससे शिक्षक व छात्र दोनों के लिए वह सुगम हो जाती है।

पाठ्य पुस्तकें स्वाध्याय, कक्षा कार्य, परीक्षा, मूल्यांकन आदि में भी उपयोगी है । जेंडर समानता स्थापित करने में पाठ्य पुस्तकें महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकती हैं। यदि निर्धारित पाठ्यक्रम में जेंडर मुद्दे सम्मिलित हों तो पाठ्य पुस्तकें भी उसके अनुरूप तैयार होंगी। छात्र कक्षा शिक्षण में इन मुद्दों की गहराई समझेंगे तथा स्वाध्याय अन्तर्गत पाठ्य पुस्तकों को बार– बार पढ़ने से उनकी जेंडर के प्रति संवेदनशीलता, मानवतापूर्ण व्यवहार, महिला उत्थान के लिए प्रयासों, महिला अत्याचारों से मुक्ति की दिशा में छात्र प्रेरित होंगे। स्वयं बालिकाएं भी जेंडर समानता के लाभों तथा महिला सशक्तिकरण के किये जा सकने वाले प्रयासों से परिचित होंगी। जेंडर समानता लाने में जितना योगदान पुरुषों का है उतना ही महिलाओं का भी । महिलाएं असमानता वाले विषयों को गहराई से समझती हैं अत: नारीवादी विचारों व प्रयासों को स्वरूप देने में अधिक सक्षम हो सकती हैं। महिला मंडल, सखी मंडल की स्थापना द्वारा भी बालिकाएं अपने अधिकारों की लड़ाई स्वयं लड़ सकती है। पाठ्य पुस्तकें बालक– बालिकाओं में जागरुकता व सक्रियता उत्पन्न करने, मानवतावादी सोच विकसित करने में सहायक है।

पाठय पुस्तकों में जेंडर मुद्दे पर सुधार के अंतर्गत विभिन्न कक्षाओं की विभिन्न विषयों की पाठ्य पुस्तकों से विशेषकर भाषा, साहित्य, सामाजिक विज्ञानों की पाठ्य पुस्तकों से ऐसे अतरपरीक्षण कर हटाए जाने चाहिए जो जेंडर असमानता को बढ़ावा देते हों। साथ ही उनमें जेंडर समानता स्थापित करने हेतु वीर नारियों, राष्ट्र नेत्रियों, वैज्ञानिक, समाज सुधारक महिलाओं के प्रसंगों को जोड़ा जाना चाहिए । पाठ्य पुस्तक पढ़ाते समय शिक्षकों को उन प्रसंगों व प्रकरणों पर छात्रों का ध्यानाकर्षण किया जाना चाहिए जो जेंडर असमानता को दूर कर जेंडर समानता स्थापित करते हों।

उक्त एजेंसी के अतिरिक्त गैर सरकारी संगठन, मानवतावादी संघ, मीडिया, महिला मंडल, नारीवादी संगठन, जननेता व जननेत्री, समाज सेवक धर्मोपदेशक पुस्तकालय व वाचनालय तथा विभिन्न जातियों समाजों के कर्मठ कार्यकर्ता जेंडर समानता लाने हेतु विचारों के प्रचार– प्रसार तथा तदनुसार आचरण करने हेतु जागृति लाने की एजेंसी के रूप में कार्य कर जेंडर असमानता को दूर कर सकते हैं।

जेंडर समानता में शिक्षा की क्या भूमिका है?

जेंडर समानता स्थापित करने की दृष्टि से विद्यालय की भूमिका अतिमहत्त्वपूर्ण है। सहशिक्षा वाले विद्यालयों में शिक्षकों तथा अन्य शालेय स्टाफ द्वारा बालक– बालिकाओं की गतिविधियों पर नजर रखी जाती है तथा ऐसे प्रयास किये जाते हैं कि बालक बालिकाओं के साथ समानता के व्यवहार करने हेतु प्रेरित हों ।

लिंग समानता के लिए शिक्षा क्यों आवश्यक है?

लैंगिक समानता का उद्देश्य पुरुषों और महिलाओं के बीच सभी सीमाओं और मतभेदों को दूर करना है। यह पुरुष और महिला के बीच किसी भी प्रकार के भेदभाव को समाप्त करता है। लिंग समानता पुरुषों और महिलाओं दोनों के लिए समान अधिकार और अवसर सुनिश्चित करती है, चाहे वह घर पर हो या शैक्षणिक संस्थानों में या कार्यस्थलों पर।

जेंडर शिक्षा से क्या समझते हैं?

जेंडर अध्ययन विभाग बच्चों के जीवन की शिक्षा और गुणवत्ता पर महत्वपूर्ण प्रभाव डालने के लिए प्रतिबद्ध है; यह शिक्षा की बाधाओं को दूर करने में अग्रणी भूमिका निभाता है; यह शिक्षा में भेदभाव के सभी रूपों का निवारण करता है; बालिकाओं और ट्रांसजेंडर के पक्ष में सकारात्मक सामाजिक परिवर्तन लाने की दिशा में प्रतिबद्धतापूर्ण कार्य ...

जेंडर समानता से क्या तात्पर्य है?

लैंगिक समानता का अर्थ यह नहीं कि समाज का प्रत्येक व्यक्ति एक लिंग का हो अपितु लैंगिक समानता का सीधा सा अर्थ समाज में महिला तथा पुरुष के समान अधिकार, दायित्व तथा रोजगार के अवसरों के परिप्रेक्ष्य में है।