ईश्वर की पहचान कब होती है? - eeshvar kee pahachaan kab hotee hai?

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ईश्वर की पहचान कब होती है? - eeshvar kee pahachaan kab hotee hai?

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परमेश्वर वह सर्वोच्च परालौकिक शक्ति है जिसे इस संसार का सृष्टा और शासक माना जाता है। हिन्दी में परमेश्वर को भगवान, परमात्मा या परमेश्वर भी कहते हैं। अधिकतर धर्मों में परमेश्वर की परिकल्पना ब्रह्माण्ड की संरचना से जुड़ी हुई है। संस्कृत की ईश् धातु का अर्थ है- नियंत्रित करना और इस पर वरच् प्रत्यय लगाकर यह शब्द बना है। इस प्रकार मूल रूप में यह शब्द नियंता के रूप में प्रयुक्त हुआ है। इसी धातु से समानार्थी शब्द ईश व ईशिता बने हैं।[1]

ईश्वर की पहचान कब होती है? - eeshvar kee pahachaan kab hotee hai?

धर्म और दर्शन में परमेश्वर की अवधारणाएँ[संपादित करें]

ईश्वर में विश्वास सम्बन्धी सिद्धान्त-
  • ईश्वरवाद (थीइज़म)
  • बहुदेववाद
  • एकेश्वरवाद
  • ईश्वरवाद (थीइज़म)
  • तटस्थेश्वरवाद (deism)
  • सर्वेश्वरवाद
  • निमित्तोपादानेश्वरवाद
  • गैर-ईश्वरवाद (नॉन-थीज्म)
  • अनीश्वरवाद (अथीज्म)
  • अज्ञेयवाद (agnosticism)
  • संदेहवाद (sceptism)

ईसाई धर्म[संपादित करें]

ईसाई धर्म में परमात्मा को निराकार मना जाता है, परंतु सच्चाई यह है कि परमात्मा साकार है सह शरीर है और उसका नाम कबीर है। प्रमाण के लिए देखें: बाइबल (उत्पत्ति 1:1), (इब्रियों 11:6), (रोमन 1:20), (रोमन 1:19, 20), साल्म/स्तोत्र 53:1-3)।[2][3]

  • (उत्पत्ति 1:1) : आरंभ में, परमेश्वर ने आकाश और पृथ्वी को बनाया (उत्पत्ति 1:1)
  • (इब्रियों 11:6) : विश्वास के बिना, भगवान को प्रसन्न करना असंभव है, क्योंकि जो कोई भी उनके पास आता है उसे विश्वास करना चाहिए कि वह अस्तित्व में है और वह उन लोगों को पुरस्कृत करता है जो दृढ़ता से उसकी तलाश करते हैं
  • (रोमन 1:20) : सृष्टि रचना के बाद से उनकी (परमात्मा की) अदृश्य विशेषताओं, उनकी शाश्वत शक्ति और दिव्य प्रकृति को स्पष्ट रूप से देखा गया है।

इस्लाम धर्म[संपादित करें]

ईश्वर की पहचान कब होती है? - eeshvar kee pahachaan kab hotee hai?

वो ईश्वर को अल्लाह कहते हैं। इस्लाम धर्म की धार्मिक पुस्तक कुरान है और प्रत्येक मुसलमान ईश्वर शक्ति में विश्वास रखता है।

इस्लाम का मूल मंत्र "लॉ इलाह इल्ल , अल्लाह , मुहम्मद उर रसूल अल्लाह" है, अर्थात अल्लाह के सिवा कोई माबूद नही है और मोहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) उनके आखरी रसूल (पैगम्बर)हैं।

इस्लाम मे मुसलमानो को खड़े खुले में पेशाब(इस्तीनज़ा) करने की इजाज़त नही क्योंकि इससे इंसान नापाक होता है और नमाज़ पढ़ने के लायक नही रहता इसलिए इस्लाम मे बैठके पेशाब करने को कहा गया है और उसके बाद पानी से शर्मगाह को धोने की हुक्म दिया गया है।

इस्लाम मे 5 वक़्त की नामाज़ मुक़र्रर की गई है और हर नम्र फ़र्ज़ है।इस्लाम मे रमज़ान एक पाक महीना है जो कि 30 दिनों का होता है और 30 दिनों तक रोज़ रखना फ़र्ज़ है जिसकी उम्र 12 या 12 से ज़्यादा हो।12 से कम उम्र पे रोज़ फ़र्ज़ नही।सेहत खराब की हालत में भी रोज़ फ़र्ज़ नही लेकिन रोज़े के बदले ज़कात देना फ़र्ज़ है।वैसा शख्स जो रोज़ा न रख सके किसी भी वजह से तो उसको उसके बदले ग़रीबो को खाना खिलाने और उसे पैसे देने या उस गरीब की जायज़ ख्वाइश पूरा करना लाज़मी है।

हिन्दू धर्म[संपादित करें]

वेद के अनुसार व्यक्ति के भीतर पुरुष ईश्वर ही है। परमेश्वर एक ही है। वैदिक और पाश्चात्य मतों में परमेश्वर की अवधारणा में यह गहरा अन्तर है कि वेद के अनुसार ईश्वर भीतर और परे दोनों है जबकि पाश्चात्य धर्मों के अनुसार ईश्वर केवल परे है। हिन्दू धर्म में सबसे बड़े परमात्मा कबीर साहेब जी हैं, जो आज से लगभग 600 वर्ष पहले आए थे तथा सह शरीर इस मृत्यु लोक से अपने निज़ धाम सतलोक चले गए। हिन्दू धर्म के प्रवित्र सद्द ग्रंथ भी इसका प्रमाण देते हैं। [4]

प्रमाण के लिए देखें: ऋग्वेद मंडल 9 सूक्त 96 मंत्र 17 में है:

“शिशुम् जज्ञानम् हर्य तम् मृजन्ति शुम्भन्ति वहिन मरूतः गणेन। कविर्गीर्भि काव्येना कविर् सन्त् सोमः पवित्रम् अत्येति रेभन्।।17।।

अनुवाद: सर्व सृष्टी रचनहार (हर्य शिशुम्) सर्व कष्ट हरण पूर्ण परमात्मा मनुष्य के विलक्षण बच्चे के रूप में (जज्ञानम्) जान बूझ कर प्रकट होता है तथा अपने तत्वज्ञान को (तम्) उस समय (मृजन्ति) निर्मलता के साथ (शुम्भन्ति) उच्चारण करता है। (वुिः) प्रभु प्राप्ति की लगी विरह अग्नि वाले (मरुतः) भक्त (गणेन) समूह के लिए (काव्येना) कविताओं द्वारा कवित्व से (पवित्रम् अत्येति) अत्यधिक निर्मलता के साथ (कविर् गीर्भि) कविर् वाणी अर्थात् कबीर वाणी द्वारा (रेभन्) ऊंचे स्वर से सम्बोधन करके बोलता है, हुआ वर्णन करता (कविर् सन्त् सोमः) वह अमर पुरुष अर्थात् सतपुरुष ही संत अर्थात् ऋषि रूप में स्वयं कविर्देव ही होता है। परन्तु उस परमात्मा को न पहचान कर कवि कहने लग जाते हैं। परन्तु वह पूर्ण परमात्मा ही होता है। उसका वास्तविक नाम कविर्देव है।

जैन धर्म[संपादित करें]

जैन धर्म में अरिहन्त और सिद्ध (शुद्ध आत्माएँ) ही भगवान है। जैन दर्शन के अनुसार इस सृष्टि को किसी ने नहीं बनाया।

नास्तिकता[संपादित करें]

नास्तिक लोग और नास्तिक दर्शन ईश्वर को झूठ मानते हैं। परन्तु ईश्वर है या नहीं इस पर कोई ठोस तर्क नहीं दे सकता।

विभिन्न हिन्दू दर्शनों में ईश्वर का अस्तित्व/नास्तित्व[संपादित करें]

भारतीय दर्शनों में "ईश्वर" के विषय में क्या कहा गया है, वह निम्नवत् है-

सांख्य दर्शन[संपादित करें]

इस दर्शन के कुछ टीकाकारों ने ईश्वर की सत्ता का निषेध किया है। उनका तर्क है- ईश्वर चेतन है, अतः इस जड़ जगत् का कारण नहीं हो सकता। पुनः ईश्वर की सत्ता किसी प्रमाण से सिद्ध नहीं हो सकती. या तो ईश्वर स्वतन्त्र और सर्वशक्तिमान् नहीं है, या फिर वह उदार और दयालु नहीं है, अन्यथा दुःख, शोक, वैषम्यादि से युक्त इस जगत् को क्यों उत्पन्न करता? यदि ईश्वर कर्म-सिद्धान्त से नियन्त्रित है, तो स्वतन्त्र नहीं है और कर्मसिद्धान्त को न मानने पर सृष्टिवैचित्र्य सिद्ध नहीं हो सकता। पुरुष और प्रकृति के अतिरिक्त किसी ईश्वर की कल्पना करना युक्तियुक्त नहीं है।

योग दर्शन[संपादित करें]

हालाँकि सांख्य और योग दोनों पूरक दर्शन हैं किन्तु योगदर्शन ईश्वर की सत्ता स्वीकार करता है। पतंजलि ने ईश्वर का लक्षण बताया है- "क्लेशकर्मविपाकाराशयैरपरामृष्टः पुरुषविशेषः ईश्वरः" अर्थात् क्लेश, कर्म, विपाक (कर्मफल) और आशय (कर्म-संस्कार) से सर्वथा अस्पृष्ट पुरुष-विशेष ईश्वर है। यह योग-प्रतिपादित ईश्वर एक विशेष पुरुष है; वह जगत् का कर्ता, धर्ता, संहर्ता, नियन्ता नहीं है। असंख्य नित्य पुरुष तथा नित्य अचेतन प्रकृति स्वतन्त्र तत्त्वों के रूप में ईश्वर के साथ-साथ विद्यमान हैं। साक्षात् रूप में ईश्वर का प्रकृति से या पुरुष के बन्धन और मोक्ष से कोई लेना-देना नहीं है।

वैशेषिक दर्शन[संपादित करें]

कणाद कृत वैशेषिकसूत्रों में ईश्वर का स्पष्टोल्लेख नहीं हुआ है। "तद्वचनादाम्नायस्य प्रामाण्यम्" अर्थात् तद्वचन होने से वेद का प्रामाण्य है। इस वैशेषिकसूत्र में "तद्वचन" का अर्थ कुछ विद्वानों ने "ईश्वरवचन" किया है। किन्तु तद्वचन का अर्थ ऋषिवचन भी हो सकता है। तथापि प्रशस्तपाद से लेकर बाद के ग्रन्थकारों ने ईश्वर की सत्ता स्वीकारी है एवं कुछ ने उसकी सिद्धि के लिए प्रमाण भी प्रस्तुत किए हैं। इनके अनुसार ईश्वर नित्य, सर्वज्ञ और पूर्ण हैं। ईश्वर अचेतन, अदृष्ट के संचालक हैं। ईश्वर इस जगत् के निमित्तकारण और परमाणु उपादानकारण हैं। अनेक परमाणु और अनेक आत्मद्रव्य नित्य एवं स्वतन्त्र द्रव्यों के रूप में ईश्वर के साथ विराजमान हैं; ईश्वर इनको उत्पन्न नहीं करते क्योंकि नित्य होने से ये उत्पत्ति-विनाश-रहित हैं तथा ईश्वर के साथ आत्मद्रव्यों का भी कोई घनिष्ठ संबंध नहीं है। ईश्वर का कार्य, सर्ग के समय, अदृष्ट से गति लेकर परमाणुओं में आद्यस्पन्दन के रूप में संचरित कर देना; और प्रलय के समय, इस गति का अवरोध करके वापस अदृष्ट में संक्रमित कर देना है।

न्याय दर्शन[संपादित करें]

नैयायिक उदयनाचार्य ने अपनी न्यायकुसुमांजलि में ईश्वर-सिद्धि हेतु निम्न युक्तियाँ दी हैं-

कार्यायोजनधृत्यादेः पदात् प्रत्ययतः श्रुतेः।वाक्यात् संख्याविशेषाच्च साध्यो विश्वविदव्ययः॥ (- न्यायकुसुमांजलि. ५.१)

(क) कार्यात्- यह जगत् कार्य है अतः इसका निमित्त कारण अवश्य होना चाहिए। जगत् में सामंजस्य एवं समन्वय इसके चेतन कर्ता से आता है। अतः सर्वज्ञ चेतन ईश्वर इस जगत् के निमित्त कारण एवं प्रायोजक कर्ता हैं।

(ख) आयोजनात्- जड़ होने से परमाणुओं में आद्य स्पन्दन नहीं हो सकता और बिना स्पंदन के परमाणु द्वयणुक आदि नहीं बना सकते. जड़ होने से अदृष्ट भी स्वयं परमाणुओं में गतिसंचार नहीं कर सकता. अतः परमाणुओं में आद्यस्पन्दन का संचार करने के लिए तथा उन्हें द्वयणुकादि बनाने के लिए चेतन ईश्वर की आवश्यकता है।

(ग) धृत्यादेः - जिस प्रकार इस जगत् की सृष्टि के लिए चेतन सृष्टिकर्ता आवश्यक है, उसी प्रकार इस जगत् को धारण करने के लिए एवं इसका प्रलय में संहार करने के लिए चेतन धर्ता एवं संहर्ता की आवश्यकता है। और यह कर्ता-धर्ता-संहर्ता ईश्वर है।

(घ) पदात्- पदों में अपने अर्थों को अभिव्यक्त करने की शक्ति ईश्वर से आती है। "इस पद से यह अर्थ बोद्धव्य है", यह ईश्वर-संकेत पद-शक्ति है।

(ङ) संख्याविशेषात्- नैयायिकों के अनुसार द्वयणुक का परिणाम उसके घटक दो अणुओं के परिमाण्डल्य से उत्पन्न नहीं होता, अपितु दो अणुओं की संख्या से उत्पन्न होता है। संख्या का प्रत्यय चेतन द्रष्टा से सम्बद्ध है, सृष्टि के समय जीवात्मायें जड़ द्रव्य रूप में स्थित हैं एवं अदृष्ट, परमाणु, काल, दिक्, मन आदि सब जड़ हैं। अतः दो की संख्या के प्रत्यय के लिए चेतन ईश्वर की सत्ता आवश्यक है।

(च) अदृष्टात्- अदृष्ट जीवों के शुभाशुभ कर्मसंस्कारों का आगार है। ये संचित संस्कार फलोन्मुख होकर जीवों को कर्मफल भोग कराने के प्रयोजन से सृष्टि के हेतु बनते हैं। किन्तु अदृष्ट जड़ है, अतः उसे सर्वज्ञ ईश्वर के निर्देशन तथा संचालन की आवश्यकता है। अतः अदृष्ट के संचालक के रूप में सर्वज्ञ ईश्वर की सत्ता सिद्ध होती है।

वेदान्त[संपादित करें]

वेदान्तियों के अनुसार ईश्वर की सत्ता तर्क से सिद्ध नहीं की जा सकती. ईश्वर के पक्ष में जितने प्रबल तर्क दिये जा सकते हैं उतने ही प्रबल तर्क उनके विपक्ष में भी दिये जा सकते हैं। तथा, बुद्धि पक्ष-विपक्ष के तुल्य-बल तर्कों से ईश्वर की सिद्धि या असिद्धि नहीं कर सकती. वेदान्तियों के अनुसार ईश्वर केवल श्रुति-प्रमाण से सिद्ध होता है; अनुमान की गति ईश्वर तक नहीं है।

सन्दर्भ[संपादित करें]

  1. आप्टे, वामन शिवराम (१९६५), द प्रैक्टिकल् संस्कृत इंग्लिश डिक्शनरी (चौथा संस्करण), दिल्ली, वाराणसी, पटना, मद्रास: मोतीलाल बनारसीदास
  2. "बाइबिल के अनुसार ईसाई धर्म में परम ईश्वर - Jagat Guru Rampal Ji". www.jagatgururampalji.org. अभिगमन तिथि 2022-06-09.
  3. "ईश्वर मर्द है या औरत ?". BBC News हिंदी. 2015-06-03. अभिगमन तिथि 2022-06-09.
  4. "हिंदू धर्म के पूर्ण परमात्मा की जानकारी | वास्तविक प्रमाणों सहित - Jagat Guru Rampal Ji". www.jagatgururampalji.org. अभिगमन तिथि 2022-07-23.

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

  • ईश्वर (भारतीय दर्शन)

हमारी ईश्वर से कब पहचान होती है?

जब हम कर्मो में लिप्त रहेंगें जब हम शिक्षा प्राप्त करेंगें जब हम दूसरों पर उपकार करेंगें

ईश्वर का निवास कहाँ है?

उत्तर: ईश्वर का असली निवास स्थान मनुष्य की साँसों की तरह मनुष्य के अन्तःकरण में होता है।

ईश्वर की पहचान कैसे हो सकती है?

परमेश्वर वह सर्वोच्च परालौकिक शक्ति है जिसे इस संसार का सृष्टा और शासक माना जाता है। हिन्दी में परमेश्वर को भगवान, परमात्मा या परमेश्वर भी कहते हैं। अधिकतर धर्मों में परमेश्वर की परिकल्पना ब्रह्माण्ड की संरचना से जुड़ी हुई है। संस्कृत की ईश् धातु का अर्थ है- नियंत्रित करना और इस पर वरच् प्रत्यय लगाकर यह शब्द बना है।

ईश्वर को कहाँ और कैसे पाया जा सकता है?

उन्होंने कहा कि ईश्वर को प्राप्त करने का सबसे उत्तम और सरल उपाय प्रेम ही है। प्रेम भक्ति का प्राण भी होता है। प्रेम के बिना इंसान चाहे कितना ही जप, तप, दान कर ले, ईश्वर को प्राप्त नहीं कर सकता है। दुनिया का कोई भी साधन प्रेम के बिना जीव को ईश्वर का साक्षात नहीं करा सकता है।