हाथ कंगन को आरसी क्या पढ़े लिखे को फारसी क्या का अर्थ क्या है? - haath kangan ko aarasee kya padhe likhe ko phaarasee kya ka arth kya hai?

हाथ कंगन को आरसी क्या पढ़े लिखे को फारसी क्या का अर्थ क्या है? - haath kangan ko aarasee kya padhe likhe ko phaarasee kya ka arth kya hai?

टीम हिंदी

“हाथ कंगन को आरसी क्या, पढ़े लिखे को फ़ारसी क्या” वाली कहावत भी है जिसकी दोनों पंक्तियों की आपसी रिश्तेदारी उलझन भरी है। यह जानना ज़रूरी है कि इस कहावत के दो पद हैं। पहला पद है “हाथ कंगन को आरसी क्या” दूसरा पद है “पढ़े लिखे को फ़ारसी क्या”। इन दोनों पदों की भाषा का गठन आधुनिक हिन्दी है। अगर आरसी शब्द को छोड़ दें तो कहावत का एक भी शब्द ऐसा नहीं है जिसे समझने में मुश्किल हो। आरसी यानी आईना, मिरर, शीशा। हिन्दी में अब आरसी शब्द का प्रचलन नहीं रहा अलबत्ता मराठी में इसका रूप आरसा होता है और यह खूब प्रचलित है। तो “हाथ कंगन को आरसी क्या” वाला पूर्वपद अपने आप में पूरी कहावत है।

मूलतः यह प्राकृत-संस्कृत परम्परा की उक्ति है और फ़ारसी के उत्कर्ष काल से भी सदियों पहले यह कहावत प्रचलित थी। इसका प्राकृत रूप देखिए- “हत्थकंकणं किं दप्पणेण पेक्खि अदि”। इसी बात को संस्कृत में इस तरह कहा गया है- “हस्ते कंकणं किं दर्पणेन”। यह नहीं कहा जा सकता कि संस्कृत उक्ति के आधार पर प्राकृत रूप बना या प्राकृत उक्ति के आधार पर संस्कृत उक्ति गढ़ी गई। कहावतें सार्वजनीन सत्य की अभिव्यक्ति का आसान ज़रिया होती हैं इसलिए वही कहावत जनमानस में पैठ बनाती हैं जो लोकभाषा में होती हैं। इस सन्दर्भ में आठवीं-नवीं सदी के ख्यात संस्कृत साहित्यकार राजशेखर के प्रसिद्ध प्राकृत नाट्य ‘कर्पूरमंजरी’ में “हत्थकंकणं किं दप्पणेण पेक्खि अदि” का उल्लेख मिलता है।

इस कहावत के दूसरे पद को समझने के लिए इसकी बुनियाद समझना ज़रूरी है। मुस्लिम काल की राजभाषा फ़ारसी थी। जिस तरह ब्रिटिश राज में अंग्रेजी जानने वाले की मौज थी और तत्काल नौकरी मिल जाती थी उसी तरह मुस्लिम काल में फ़ारसी का बोलबाला था। हिन्दू लोग फ़ारसी नहीं सीखते थे क्योंकि यवनों, म्लेच्छों की भाषा थी। हिन्दुओं के कायस्थ तबके में विद्या का वही महत्व था जैसा बनियों में धनसंग्रह का। कायस्थों का विद्याव्यवसन नवाचारी था। नई-नई भाषाओं के ज़रिये और ज्ञान का क्षेत्र और व्यापक हो सकता है यह बात उनकी व्यावहारिक सोच को ज़ाहिर करती है। उन्होंने अरबी भी सीखी और फ़ारसी भी। नवाबों के मीरमुंशी ज्यादातर कायस्थ ही होते थे। रायज़ादा, कानूनगो, मुंशी, बहादुर यहाँ तक की नवाब जैसी उपाधियाँ इन्हें मिलती थी और बड़़ी बड़ी जागीरें भी। वे अपने बड़े अधिकारियों को हमेशा अपनी विद्वता का एहसास कराते और बदले में लाभ कमाते थे।

इस पृष्ठभूमि में देखें कि हिन्दुस्तान में फ़ारसी का दौर बारहवी-तेरहवीं सदी से शुरू होता है। “हाथ कंगन को आरसी क्या, पढ़े लिखे को फ़ारसी क्या” इस पूरी कहावत का गढ़न आज की हिन्दी का लगता है। हिन्दी में प्रचलित अनेक प्राचीन कहावतें सीधे-सीधे फ़ारसी समेत अवधी, बृज, बुंदेली, राजस्थानी व अन्य देसी भाषाओं से आती है। लेकिन यह भी सच है कि बारहवीं सदी से ही हिन्दी ने वह रूप लेना शुरू कर दिया था जिसकी बुनियाद पर आज की हिंदी खड़ी है। चौदहवीं –पन्द्रहवीं सदी की हिन्दी के अनेक प्रमाण उपलब्ध है जो आज की हिन्दी से मेल खाते हैं। मुमकिन है कि “हत्थकंकणं किं दप्पणेण पेक्खि अदि” खुसरो काल तक आते-आते इस रूप में ढल गई हो। पर यह तय है कि उस वक्त तक भी समूची कहावत का पहला पद ही प्रचलित रहा होगा।

Hath kangan ko aarsi kya

हाथ कंगन को आरसी क्या पढ़े लिखे को फारसी क्या का अर्थ क्या है? - haath kangan ko aarasee kya padhe likhe ko phaarasee kya ka arth kya hai?

हाथ कंगन को आरसी क्या का अर्थ एवं वाक्य प्रयोग 

हाथ कंगन को आरसी क्या (hath kangan ko aarsi kya) और पढ़े लिखे को फ़ारसी क्या यह दो वास्तव में लोकोक्तियाँ हैं. जिसे आपस मे जोड़ दिया है. इसलिए आज हम इन दोनों लोकोक्तियों को अलग-अलग समझने की कोशिश करते हैं.

आरसी शब्द से हमारा तात्पर्य होता है आईना यानि शीशा अर्थात यदि महिला हाथ में कंगन पहनती है तो उसे आईने की जरूरत नहीं. यह हमें प्रत्यक्ष रूप से दिख रहा है. इसलिए हम कह सकते है कि “प्रत्यक्ष को प्रमाण की आवश्यकता नहीं पढ़ती”

पढ़े लिखे को फ़ारसी क्या – यहाँ पर फ़ारसी भाषा के दो कारण हैं. पहला इसलिए क्योंकि यह आरसी शब्द से मेल खाता है. दूसरा इसलिए क्योंकि मुगलों के समय में फ़ारसी शब्द को राजभाषा का दर्जा प्राप्त था. जिसके कारण जो यक्ति पढ़ा लिखा भी होता था उसे भी यह भाषा सीखनी पड़ती है.

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आम जनों में यह बात फैल गई कि जो व्यक्ति पढा लिखा है वह फ़ारसी जरुर जानता होगा. अत: कहा जाने लगा कि पढ़े लिखे व्यक्ति के लिए फ़ारसी सीखना कोई बड़ी बात नहीं है. इसलिए हम कह सकते है कि वह व्यक्ति जो ज्ञानी है उसके लिए कुछ भी मुश्किल नहीं होता है. फ़ारसी शब्द को यहाँ मुश्किल ज्ञान के पर्यायवाची के रूप में प्रयोग किया गया है.

Hath kangan ko aarsi kya मुहावरें का अर्थ होता है “प्रत्यक्ष को प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती” वहीं पढ़े लिखे को फ़ारसी क्या का मतलब होता है “ज्ञानी व्यक्ति के लिए कुछ भी मुश्किल नहीं होता”

मुहावरे का वाक्य मे प्रयोग

1. इंटरव्यू देने गए रामू ने मैनेजर से कहा कि टाईपिंग करवा के देख लीजिए कि मेरी स्पीड कितनी है.
2. लाला ने चावल हाथ में पकड़ाए और कहा साहब ले जाओ और बना के देख लो जो मैंने कहीं उसमें से रत्ती भर भी फर्क पडे तो कहना हाथ कंगन को आरसी क्या पढ़ें लिखे को फारसी क्या.
3. हरीदेव की आंखो के सामने उसके पडोसी का घर जल गया और फिर कुछ लोग हरीदेव को बताने लगे की आखिर उसके पडोसी का घर किस तरह से जला यह सुनते ही हरीदेव ‌‌‌ने कहा की यह तो वही बात हो गई हाथ कंगन को आरसी क्या.
4. पुलिस के सामने ही चोर ने चोरी कर ली और पकडे जाने पर चोर कहने लगा की मैंने चोरी नही की तब पुलिस ने कहा की तुम्हे पता नही हाथ कंगन को आरसी क्या? आशा करते है कि यह लेख आपको पसंद आया होगा ऐसे ही लेख और न्यूज पढ़ने के लिए कृपया हमारा ट्विटर फॉलो करें.

हाथ कंगन को आरसी क्या और पढ़े लिखे को फारसी क्या?

"हाथ कंगन को आरसी क्या और पढ़े लिखे को फारसी क्या" का क्या तात्पर्य है? हाथ कंगन को आरसी क्या -आरसी शब्द का अर्थ होता है आईना (शीशा) अर्थात यदि हाथ में कंगन पहना है तो उसे आईने की जरूरत नहीं। पढ़े लिखे को फारसी क्या - वह व्यक्ति जो ज्ञानी है उसके लिए कुछ भी मुश्किल नहीं होता।

आरसी क्या मुहावरे का अर्थ?

Explanation हाथ कंगन को आरसी क्या (Hath Kangan Ko Aarsi Kya) मुहावरे का अर्थ–'प्रत्यक्ष को प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती है' होता है।

हाथ कंगन को आरसी क्या '

'हाथ कंगन को आरसी क्या' लोकोक्ति का अर्थ है "प्रत्यक्ष को प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती" जो हमें प्रत्यक्ष ही दिख रहा है उसे आईने में देखने या प्रमाणित करने की कोई आवश्यकता नहीं होती।

कर कंगन को आरसी क्या मुहावरे में सही पर्यायवाची शब्द का प्रयोग करें?

हाथ कंगन को आरसी क्या एक प्रसिद्ध हिन्दी मुहावरा/लोकोक्ति है जिसका का अर्थ है– प्रत्यक्ष को प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती; यथार्थ को साबित करने की जरुरत नहीं होती।