गाय का दूध खारा क्यों होता है? - gaay ka doodh khaara kyon hota hai?

थनैला रोग को न करें नजरंदाज, इस बीमारी से ग्रसित पशु का दूध पीया तो आप भी हो सकते हैं बीमार

थनैला रोग गाय भैंस भेड़ बकरी ऊंटनी आदि सभी पशुओं को प्रभावित करता है। जन स्वास्थ्य की दृष्टि से भी यह रोग महत्वपूर्ण है क्योंकि दूध में आने वाले रोगाणु मनुष्य में भी विभिन्न प्रकार की बीमारियां कर सकते हैं।

जागरण संवाददाता, हिसार। थनैला रोग दुधारू पशुओं की लेवटी एवं थनों को प्रभावित करने वाला रोग है जो पशुपालकों के लिए चिंता का विषय बना हुआ है। यह रोग भारत ही नहीं दुनिया की सबसे महंगी बीमारीयों में से एक है जिसके कारण प्रतिवर्ष करोडों का नुकसान होता है। थनैला रोग गाय, भैंस, भेड़, बकरी, ऊंटनी आदि सभी पशुओं को प्रभावित करता है। जन स्वास्थ्य की दृष्टि से भी यह रोग महत्वपूर्ण है क्योंकि दूध में आने वाले रोगाणु मनुष्य में भी विभिन्न प्रकार की बीमारियां कर सकते हैं।

मुख्यतः थनैला रोग जीवाणुओं द्वारा ही होता है, लेकिन इनके अलावा अन्य रोगाणु जैसे-विषाणु, कवक, माइकोप्लाज्मा इत्यादि भी यह रोग उत्पन्न करते हैं। अयन या थन में चोट लगना, बाड़े में अच्छी तरह साफ-सफाई का न होना, असंतुलित पशु आहार, रोजाना के आहार में खनिजों की कमी, अपूर्ण दूध निकालना, समय पर दूध निकालने में देरी, बछड़े/ बछड़ी द्वारा दूध पीते समय चोट पहुंचाना, गलत तरीके से दूध निकालना, मक्खी मच्छरों का प्रकोप आदि रोग होने में सहायक कारक हैं।

थनैला रोग मुख्यतः दो प्रकार का होता है - लाक्षणिक थनैला और अलाक्षणिक थनैला

लाक्षणिक थनैला की पहचान रोग के लक्षण देखकर आसानी से की जा सकती है जैसे कि थनों में सूजन आना, पानी जैसा दूध आना अथवा दूध में छिछ्ड़े आना, दूध का नमकीन या बेस्वाद होना, पावस ढ़ीला होना या बिल्कुल नहीं होना आदि। अलाक्ष्णिक थनैला में रोग के बाहरी लक्षण नहीं दिखते हैं इसलिए इसकी पहचान के लिए दूध की प्रयोगशाला में जांच करवाकर ही पता लगाया जा सकता है। रोग का सफल उपचार प्रारंभिक अवस्था में ही संभव है इसलिए उपचार में कभी देरी न करें।

यदि एक बार अयन सख्त (फाइब्रोसिस) हो गया तो उसका इलाज हो पाना लगभग असंभव होता है। अगर आसपास कोई पशु चिकित्सा संस्थान अथवा रोग परीक्षण प्रयोगशाला है तो सबसे पहले दूध के नमूने को एंटीबॉयोटिक सेन्सिटिविटी परीक्षण के लिए जीवाणु रहित शीशी या 5 मि.ली. की नई सिरिंज (चारों थनों का दूध अलग अलग सिरिंज/शीशी) में प्रयोगशाला में लेकर जाएं।

एंटीबॉयोटिक सेन्सिटिविटी परीक्षण से रोग के कीटाणु के लिए उपयुक्त दवा पता चल जाती है एवं इलाज आसान हो जाता है। लुवास की रोग परीक्षण प्रयोगशाला हिसार, अम्बाला, भिवानी, रोहतक, महेन्द्रगढ़, सिरसा में हैं। पशुपालक बीमारी का ईलाज पूरा करवाएं व ईलाज बीच में न छोडें। थनैला रोग से पीड़ित पशु के दूध का उपयोग पीने में नहीं करना चाहिए क्योंकि इसमें एन्टीबायोटिक एवं जीवाणुओं की संख्या बहुत अधिक होती है। शुष्क काल पशु उपचार विधि को अपनाना भी फायदेमंद रहता है।

किसान इन उपायों को अपनाएं

थनैला रोग से बचाव के लिए दुधारू पशुओं के बाडे को समतल, साफ व सूखा रखें, सभी थनों को दूध दुहने के बाद जीवाणु नाशक घोल में डुबोएं या जीवाणु नाशक स्प्रे का छिडकाव करें, दूध हमेशा सही तरीके से (मुठ्ठी द्वारा), जल्दी (5-7 मिनट में) निर्धारित समय पर, पूरा व लेवटी को साफ पानी से धोकर, साफ कपडे़ से पोंछकर तथा सूखे हाथों से निकालें। पशुओं को नियमित संतुलित आहार व खनिज मिश्रण दें इससे उनकी रोगों से लड़ने की सकती बनी रहती है। समय समय पर दूध की जांच काले बर्तन पर धार मारकर या प्रयोगशाला में करवातें रहें ताकि अलाक्षणिक थनैला का समय पर पता चल सके।

दूध निकालने के बाद थन का छेद लगभग 30 मिनट तक खुला रहता है। अतः दूध निकालने के बाद पशु को आधे घंटे तक बैठने ना दें। रोगी पशुओं को स्वस्थ पशुओं से अलग रखें तथा उन्हें दुहने वाले भी अलग हों। अगर ऐसा संभव न हो तो रोगी पशु को सबसे अंत में दुहें। ज्यादा दूध देने वाले पशु को कंक्रीट के फर्श रखने से बचना चाहिए। बिछावन के लिए पुआल या रेत का प्रयोग करें। रेत एक आदर्श बिछावन है क्योंकि इसमें

जीवाणुओं की संख्या कम होती है।

Edited By: Manoj Kumar

-राजू पाण्डेय

दूध को अपने आप में संपूर्ण आहार माना जाता है। दूध में कैल्शियम पर्याप्त मात्रा में होता ही है, साथ में विटामिन डी की भी मात्रा होती है, जो हड्डियों को मजबूती देती है।

दूध को सफेदी कैसीन नामक प्रोटीन से मिलती है। यह प्रोटीन कैल्शियम के साथ दूध को सफेद रंग देने का काम भी करता है। दूध में मौजूद वसा भी सफेद रंग का होता है। यही कारण है कि दूध में जितनी ज्यादा मात्रा में वसा या चिकनाई होती है, वह उतना ही ज्यादा सफेद होता है जबकि कम वसा या क्रीम वाला दूध हल्का मटमैला दिखाई देता है।

वसा की अधिकता के कारण ही भैंस का दूध गाय के दूध से अधिक सफेद होता है। इसके अतिरिक्त एक कारण और भी है, जो दूध को सफेद दिखाता है। कारण कुछ चीजें प्रकाश का पूरी तरह से अवशोषण नहीं कर पाती हैं। वे प्रकाश को जैसे का तैसा लौटा देती हैं। ऐसा ही कैसीन के अणु भी करते हैं। वे पूरा प्रकाश लौटा देते हैं। देखने में दूध का रंग सफेद लगता है। 

साभार - देवपुत्र 

गाय का दूध खारा क्यों होता है? - gaay ka doodh khaara kyon hota hai?

गाय का दूध खारा क्यों होता है? - gaay ka doodh khaara kyon hota hai?

इस गाय को थनैला रोग होने के बाद गेंग्रीन हो गया है।

थनेला रोग या स्तनशोथ (Mastitis) दुधारू पशुओं को लगने वाला एक रोग है। थनैला रोग से प्रभावित पशुओं को रोग के प्रारंभ में थन गर्म हो जाता हैं तथा उसमें दर्द एवं सूजन हो जाती है। शारीरिक तापमान भी बढ़ जाता हैं। लक्षण प्रकट होते ही दूध की गुणवत्ता प्रभावित होती है। दूध में छटका, खून एवं पीभ (पस) की अधिकता हो जाती हैं। पशु खाना-पीना छोड़ देता है एवं अरूचि से ग्रसित हो जाता हैं।

यह बीमारी समान्यतः गाय, भैंस, बकरी एवं सूअर समेत लगभग सभी वैसे पशुओं में पायी जाती है, जो अपने बच्चों को दूध पिलातीं हैं। थनैला बीमारी पशुओं में कई प्रकार के जीवाणु, विषाणु, फफूँद एवं यीस्ट तथा मोल्ड के संक्रमण से होता हैं। इसके अलावा चोट तथा मौसमी प्रतिकूलताओं के कारण भी थनैला हो जाता हैं।

प्राचीन काल से यह बीमारी दूध देने वाले पशुओं एवं उनके पशुपालको के लिए चिंता का विषय बना हुआ हैं। पशु धन विकास के साथ श्वेत क्रांति की पूर्ण सफलता में अकेले यह बीमारी सबसे बड़ी बाधक हैं। इस बीमारी से पूरे भारत में प्रतिवर्ष करोड़ों रूपये का नुकसान होता हैं, जो अतंतः पशुपालकों की आर्थिक स्थिति को प्रभावित करता हैं।

लक्षण[संपादित करें]

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थनैला रोग से ग्रसित पशु का दूध (बाएँ) तथा सामान्य (रोगरहित) पशु का दूध (दाएँ)

अलाक्षणिक या उपलाक्षणिक प्रकार के रोग में थन व दूध बिल्कुल सामान्य प्रतीत होते हैं लेकिन प्रयोगशाला में दूध की जाँच द्वारा रोग का निदान किया जा सकता है। लाक्षणिक रोग में जहाँ कुछ पशुओं में केवल दूध में मवाद/छिछड़े या खून आदि आता है तथा थन लगभग सामान्य प्रतीत होता है वहीं कुछ पशुओं में थन में सूजन या कडापन/गर्मी के साथ-साथ दूध असामान्य पाया जाता है। कुछ असामान्य प्रकार के रोग में थन सड़ कर गिर जाता है। ज़्यादातर पशुओं में बुखार आदि नहीं होता। रोग का उपचार समय पर न कराने से थन की सामान्य सूजन बढ़ कर अपरिवर्तनीय हो जाती है और थन लकडी की तरह कडा हो जाता है। इस अवस्था के बाद थन से दूध आना स्थाई रूप से बंद हो जाता है। सामान्यतः प्रारम्भ में मेंएक या दो थन प्रभावित होते हैं जो कि बाद में अन्य थनों में भी रोग फैल सकता है। कुछ पशुओं में दूध का स्वाद बदल कर नमकीन हो जाता है।

इस अदृश्य प्रकार की बीमारी को समय रहते पहचानने के लिए निम्न प्रकार के उपाय किए जा सकते हैं।

  • 1. पी.एच. पेपर द्वारा दूध का समय-समय पर जांच या संदेह की स्थिति में विस्तृत जांच।
  • 2. कैलिफोर्निया मॉस्टाईटिस सोल्यूशन के माध्यम से जांच।
  • 3. संदेह की स्थिति में दूध कल्चर एवं सेन्सीटिभीटी जांच।

इसके अलावे पशुओं का उचित रख रखाव, थन की रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने वाली औषधियों का प्रयोग एवं रोग का ससमय उचित ईलाज करना श्रेयस्कर हैं।

उपचार[संपादित करें]

रोग का सफल उपचार प्रारम्भिक अवस्थाओं में ही संभव है अन्यथा रोग के बढ़ जाने पर थन बचा पाना कठिन हो जाता है। इससे बचने के लिए दुधारु पशु के दूध की जाँच समय पर करवा कर जीवाणुनाशक औषधियों द्वारा उपचार पशु चिकित्सक द्वारा करवाना चाहिए। प्रायः यह औषधियां थन में ट्‌यूब चढा कर तथा साथ ही मांसपेशी में इंजेक्शन द्वारा दी जाती है।

थन में ट्‌यूब चढा कर उपचार के दौरान पशु का दूध पीने योग्य नहीं होता। अतः अंतिम ट्‌यूब चढने के 48 घंटे बाद तक का दूध प्रयोग में नहीं लाना चाहिए। यह अत्यन्त आवश्यक है कि उपचार पूर्णरूपेण किया जाये, बीच में न छोडें। इसके अतिरिक्त यह आशा नहीं रखनी चाहिए कि (कम से कम) वर्तमान ब्यांत में पशु उपचार के बाद पुनः सामान्य पूरा दूध देने लग जाएगा।

थनैला बीमारी की रोकथाम प्रभावी ढ़ंग से करने के लिए निम्नलिखित विन्दुओं पर ध्यान देना आवश्यक हैं।

  • 1. दूधारू पशुओं के रहने के स्थान की नियमित सफाई जरूरी हैं। फिनाईल के घोल तथा अमोनिया कम्पाउन्ड का छिड़काव करना चाहिए।
  • 2. दूध दुहने के पश्चात् थन की यथोचित सफाई लिए लाल पोटाश या सेवलोन का प्रयोग किया जा सकता है।
  • 3. दूधारू पशुओं में दूध बन्द होने की स्थिति में ड्राई थेरेपी द्वारा उचित ईलाज करायी जानी चाहिए।
  • 4. थनैला होने पर तुरंत पशु चिकित्सक की सलाह से उचित ईलाज करायी जाय।
  • 5. दूध की दुहाई निश्चित अंतराल पर की जाय। थनैला बीमारी से अर्थिक क्षति का मूल्याकंन करने के क्रम में एक आश्चर्यजनक तथ्य सामने आता है जिसमें यह देखा गया हैं कि प्रत्यक्ष रूप मे यह बीमारी जितना नुकसान करती हैं, उससे कहीं ज्यादा अप्रत्यक्ष रूप में पशुपालकों को आर्थिक नुकसान पहुँचाता हैं। कभी-कभी थनैला रोग के लक्षण प्रकट नहीं होते हैं परन्तु दूध की कमी, दूध की गुणवत्ता में ह्रास एवं बिसुखने के पश्चात (ड्राई काउ) थन का आंशिक या पूर्णरूपेण क्षति हो जाता है, जो अगले बियान के प्रारंभ में प्रकट होती है।

रोग से बचाव/रोकथाम[संपादित करें]

1. पशुओं के बांधे जाने वाले स्थान/बैठने के स्थान व दूध दुहने के स्थान की सफाई का विशेष ध्यान रखें।

2. दूध दुहने की तकनीक सही होनी चाहिए जिससे थन को किसी प्रकार की चोट न पहुंचे।

3. थन में किसी प्रकार की चोट (मामूली खरोंच भी) का समुचित उपचार तुरंत करायें।

4. थन का उपचार दुहने से पहले व बाद में दवा के घोल में (पोटेशियम परमैगनेट 1:1000 या क्लोरहेक्सिडीन 0.5 प्रतिशत) डुबो कर करें।

5. दूध की धार कभी भी फर्श पर न मारें।

6. समय-समय पर दूध की जाँच (काले बर्तन पर धार देकर) या प्रयोगशाला में करवाते रहें।

7. शुष्क पशु उपचार भी ब्यांने के बाद थनैला रोग होने की संभावना लगभग समाप्त कर देता है। इसके लिए पशु चिकित्सक से संपर्क करें।

8. रोगी पशुओं को स्वस्थ पशुओं से अलग रखें तथा उन्हें दुहने वाले भी अलग हों। अगर ऐसा संभव न हो तो रोगी पशु सबसे अंत में दुहें।

Let down of milk in cow or buffalo | गाय भैंस में दूध का उतरना== बाहरी कड़ियाँ ==

  • थनैला : कारण एवं प्रतिबंधन
  • [https://web.archive.org/web/20130711041720/http://https/ Archived 2013-07-11 at the Wayback Machine://kissanmadad.blogspot.com/2022/06/treatment-of-mastitis.html
  • UC Davis fact sheet
  • NMC - Global organization for mastitis control and milk quality

गाय भैंस में थनैला रोग की पहचान | Identification of mastitis disease in cow buffalo

दूध उजला क्यों होती है?

दूध को सफेदी कैसीन नामक प्रोटीन से मिलती है। यह प्रोटीन कैल्शियम के साथ दूध को सफेद रंग देने का काम भी करता है। दूध में मौजूद वसा भी सफेद रंग का होता है। यही कारण है कि दूध में जितनी ज्यादा मात्रा में वसा या चिकनाई होती है, वह उतना ही ज्यादा सफेद होता है जबकि कम वसा या क्रीम वाला दूध हल्का मटमैला दिखाई देता है।

गाय का दूध सफेद क्यों होता है बताइए?

दूध में मौजूद कैसीन प्रोटीन और क्रीम के कण प्रकाश की किरणों को परावर्तित कर देते हैं. इसके अलावा कैसीन में कैल्शियम होने के कारण भी इसका रंग सफेद होता है. यही वजह है कि दूध सफेद नजर आता है. दूध कितना सफेद होगा, इसके लिए कैसीन के कण जिम्‍मेदार होते हैं.

गाय के थन बढ़ाने के लिए क्या करना चाहिए?

गाय या भैंस के थन बढ़ाने की दवा.
विटामिन एच आपको पाउडर या तरल पदार्थ के रूप में आसानी से मिल जाएगी।.
अगर आप तरल विटामिन एच की एक बोतल खरीदते हैं तो इसकी कीमत करीब 700 रुपए तक हो सकती है।.
आप भैंस या गाय को पाल रहे हैं तो आप उन्हें प्रसव से 2 महीने पहले विटामिन एच की दवा देना शुरू कर सकते हैं.

थनैला रोग कितने दिन में ठीक होता है?

इसके अंतर्गत थनैला रोग से ग्रसित दुधारू पशुओं 15 दिन तक आवले की निर्धारित खुराक देने से न सिर्फ रोग दूर होगा बल्कि दूध की गुणवत्ता में सुधार हुआ।