गुप्त काल के शासन व्यवस्था का वर्णन कीजिए - gupt kaal ke shaasan vyavastha ka varnan keejie

गुप्तकालीन प्रशासनिक व्यवस्था पर निबंध लिखें

गुप्तकालीन शासन व्यवस्था का स्वरूप

प्रारंभिक गुप्त शासकों की विजय के परिणाम स्वरूप गुप्त साम्राज्य पूर्वी समुद्र से पश्चिमी समुद्र तथा हिमालय से नर्मदा नदी तक विस्तृत हो गया था। गुप्त शासकों ने मौर्य के सामान समस्त प्रदेशों को अपने साम्राज्य में विलीन नहीं किया बल्कि अपना राज्य आर्यों तक ही सीमित रखा। गुप्त साम्राज्य मौर्यों के साम्राज्य के समान केंद्रित व विशाल नहीं था। अनेक सामंत, गणराज्य, अधीनस्थ राजा आदि थे जो गुप्तों के आधिपत्य को स्वीकार करते थे।

1. सामंत- गुप्त शासकों के अनेक सामंतों का उल्लेख मिलता है यह महाराज, उपारीक आदि धारण करते थे। सामंतों की अलग सेना होती थी। सामंत समय-समय पर राजस्व एवं उपहर देते थे, युद्ध के समय सैनिक सहायता देते थे तथा राजकीय उत्सवों पर उपस्थित होकर सम्राट के वैभव को प्रदर्शित करते थे। 

2. गणराज्य- गुप्त साम्राज्य की अधीनता अनेक गणराज्य ने भी स्वीकार की थी।

3. अधीनस्थ राजा- दक्षिण भारत के अभियान के समय समुद्रगुप्त ने अनेक शासकों को परास्त किया था। किंतु उसके राज्यों को नहीं छीना था, यह शासक भी गुप्तों का आधिपत्य स्वीकार करते थे।

4. समवर्ती एवं विदेशी शासक- अनेक समवर्ती एवं विदेशी शासक भी गुप्तों का आधिपत्य स्वीकार करते थे।

केंद्रीय शासन

केंद्रीय शासन के प्रमुख अंग इस प्रकार से हैं:-

1. सम्राट- गुप्त काल में राजतंत्र आत्मक शासन प्रणाली कार्यरत थी और सम्राट की सभी विभाग का सर्वोच्च अधिकारी होता था, गुप्त शासकों में परमदैवत, महाराजधीराज, एकाधीराज, परमेश्वर तथा चक्रवर्तिन उपाधि धारण करते थे। गुप्त काल में राजा को देव तुल्य तथा पृथ्वी पर ईश्वर का प्रतिनिधि स्वीकार किया जाता था। राजा युद्ध में सेना का संचालन करता था और अमात्यो व मंत्रियों की सहायता से शासन करता था। कालिदास की रचनाओं से क्या पता चलता है कि राजा का सारा समय प्रशासनिक कार्यों में लगा रहता था और राजा का व्यक्तिगत सुख त्याग कर लोकहित में कार्यरत रहना पड़ता था। राजा उच्च अधिकारियों की नियुक्ति करते समय अत्यंत सतर्कता बरतते थे और ऐसे व्यक्तियों की नियुक्ति करते थे जो सभी के हितों में होता था।

2. मंत्री परिषद- राजा को प्रशासनिक कार्यों में सहायता देने के लिए एक मंत्री परिषद होती थी जिसके सदस्यों को अमात्य सचिव अथवा मंत्री कहा जाता था। मंत्रियों की नियुक्ति राजा ही करता था इस पद पर ऐसे व्यक्ति को नियुक्त किया जाता था जो मेधावान, स्मृतिवान, सत्यवादी वाले व्यक्ति होते थे। मंत्रियों का पद पैतृक होता था।

3. केंद्रीय कर्मचारी- गुप्त शासन प्रणाली में नौकरशाही का विशेष महत्व था। केंद्रीय शासन विभिन्न विभागों द्वारा संचालित होता था जिनके अध्यक्ष उच्च पदाधिकारी होते थे। गुप्त अभिलेखों से केंद्रीय कर्मचारियों के नाम के विषय में जानकारी मिलती है। गुप्त काल में कुमारामात्य नामक एक महत्वपूर्ण अधिकारी होता था। डॉ अल्तेकर के अनुसार कुमारामात्य आधुनिक आई.ए.एस. अधिकारियों के समान अधिकारियों का सर्वश्रेष्ठ वर्ग था। कर्मचारियों को वेतन प्रायः नगद दिया जाता था, कुछ कर्मचारियों को भूमि के रूप में भी वेतन दिया जाता था।

4. सैन्य संगठन- गुप्त शासकों ने सैन्य शक्ति के आधार पर ही एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की थी, अतः वे सैन्य विभाग के महत्व से भलीभांति परिचित थे। राजा सेना का सर्वोच्च अधिकारी होता था वह युद्ध में सेनापति के रूप में सेना का संचालन व नेतृत्व करता था। राजा के अधिक वृद्ध होने पर युवराज सेना का संचालन करता था। राजा के पश्चात सेना का सर्वोच्च अधिकारी सेनापति होता था जिसे महा दंडनायक भी कहते थे। महा दंडनायक के अतिरिक्त अनेक उप सेनापति भी होते थे। गुप्त काल में रथ सेना का विशेष महत्व नहीं रह गया था। हस्तीसेना के अध्यक्ष को महापीलुपति व अश्वसेना के अध्यक्ष को महाश्वपति कहते थे। गुप्त युग की सेना की एक विशेषता अश्वसेना में अश्वारोही धनुर्धरों का होना था। गुप्त काल में नौसेना भी विद्यमान थी। सैनिक युद्ध में फरसा, बाण, शंकु, शक्ती तोमार, नाराच आदि शस्त्रों का प्रयोग करते थे, युद्ध के समय गुप्तों के सामंत भी सैनिक सहायता प्रदान करते थे।

5. पुलिस विभाग- देश में आंतरिक शक्ति व सुरक्षा के लिए पुलिस विभाग भी था। इस विभाग का सर्वोच्च अधिकारी दंड दे सकता था। डॉ. अल्तेकर ने दंड देने की तुलना आधुनिक पुलिस अधीक्षक से की है। पुलिस विभाग की सहायता गुप्तचर भी करते थे। गुप्त काल में संभवत पुलिस विभाग अत्यंत सूक्ष्म था, क्योंकि फाह्यान ने लिखा है “कि भारत में अपराध बहुत कम होते थे वह चोरी डकैती का भय नहीं रहता था फाह्यान ने स्वयं हजारों मील की यात्रा की थी परंतु उसे कहीं चोर-डाकुओं का सामना नहीं करना पड़ा।”

6. आय व्यय के साधन- राज्य की आय का प्रमुख स्रोत भूमि कर था। भूमि कर को ऊपरीकर व 'उदंग्र' कहा जाता था। अस्थाई कृषकों से लिए जाने वाले कर को उपरिकर व स्थाई कृषकों से लिए जाने वाले कर को ‘उदंग्र’ कहते थे। उपज का जो हिस्सा राजा को दिया जाता था, उसे भाग करते थे जो कुल उपज का 1/6 भाग होता था, ग्राम वासियों को मौसमी फल फूल व इंधन आदि पर भी भाग कर देना होता था। व्यापारियों से सीमा पर लिए जाने वाले कर को शुल्क व वनों से होने वाली आय को ‘गुल्म’ कहते थे। कारीगरों से उद्योग कर लिया जाता था। और माफ तौल कर राजकीय मुहर लगवाने के लिए प्रति वैधानिक कर देना पड़ता था। अपराध करने वालों से भी कर लिया जाता था किंतु अपराध कम होने के कारण यह कर कम की जाती थी, इससे कम ही कर प्राप्त होते थे। इसके अतिरिक्त सामंत राज्यों से प्राप्त होने वाले करों और उपहार भी राज्य की आय के साधन थे।

इस तरह से सभी स्रोतों से प्राप्त धन जन कल्याण और सार्वजनिक हितों पर खर्च किया जाता था।

7. न्याय एवं दंड व्यवस्था- गुप्तकालीन न्याय एवं दंड व्यवस्था अत्यंत व्यवस्थित और संगठित थी। न्याय विभाग का सर्वोच्च अधिकारी राजा होता था। राजधानी में मुख्य न्यायाधीश होता था। इसके अधीन नगरों व ग्रामों के न्याय अधिकारी होते थे। न्यायालय को न्यायाधीकरण कहा जाता था। न्यायालयों में प्रवाह गवाही भी ली जाती थी दिव्य प्रथा भी गुप्त काल में प्रचलित थी, न्यायालयों के अतिरिक्त पंचायतें भी न्यायालय का कार्य करती थी।

चीनी यात्री फाह्यान के वर्णन से ज्ञात होता है कि गुप्त काल में दंड व्यवस्था कठोर नहीं थी। फाह्यान के अनुसार अंग भंग या मृत्युदंड नहीं दिया जाता था। केवल अपराध की गुरुता के अनुरूप दंड दिया जाता था। फाह्यान ने यह भी लिखा है कि अपराध बहुत कम होते थे अतः लोगों को न्यायालय अथवा कानूनों की आवश्यकता बहुत ही कम पड़ती थी।

प्रांतीय शासन

प्रांतीय शासन के सभी अंग इस प्रकार से हैं:-

1. नगर प्रशासन- प्रत्येक विषय के अंतर्गत अनेक नगर होते थे, नगर का अधिकारी नगरपति होता था। नगर की व्यवस्था के लिए एक परिषद होती थी जो आधुनिक नगरपालिका के समान थी। इस परिषद का कार्य नगर में शांति की स्थापना सभागृह, सरोवर, मंदिर बनवाना तथा अन्य सार्वजनिक कार्यों को करवाना था।

2. ग्राम प्रशासन- प्रशासन की न्यूनतम इकाई ग्राम थी। प्रत्येक नगर अनेक ग्रामों में बटे हुए थे। प्रत्येक ग्राम का अधिकारी मुखिया ग्रामिक कहलाता था। ग्रामीणों की सहायता एक समिति होती थी जिसे ग्रामसभा कहते थे। ग्रामसभा का प्रमुख कार्य मुकदमों का निर्णय भूमि की सीमा का निर्धारण सार्वजनिक हितों के कार्य कृषि और सिंचाई की उचित व्यवस्था करना था।

3. भुक्ति- गुप्त साम्राज्य अत्यंत विशाल था। अतः राज्य के राजधानी में रहते हुए यह संभव न था, कि वह प्रशासनिक कार्य सुचारू रूप से कर सकता अतः प्रशासनिक सुविधाओं के उद्देश्य से गुप्त साम्राज्य को अनेक प्रांतों में विभक्त किया गया था। प्रत्येक प्रांत को भुक्ति देश भोग आदि कहा जाता था गुप्त युग में उल्लेखनीय भुक्ति मगध, वर्धमान, तीरभक्ति, पूर्वीमलवा, पश्चिमीमलवा व सौराष्ट्र थे। प्रत्येक भुक्ति आधुनिक मंडल के समान होती थी, प्रत्येक भक्ति के सर्वोच्च अधिकारी को उपरिक कहते थे। उपरिक प्रया: राज पुत्र अथवा राजवंश से संबंधित होते थे। उपरिक की नियुक्ति सम्राट करता था। गुप्तकालीन प्रमुख उपरिक देश भक्ति की राज्यपाल गोविंदगुप्त पूर्वी मलवा का घटोत्कच गुप्त (कुमार गुप्त का पुत्र) व सौराष्ट्र का दर्पणदत्त थे। प्रत्येक उपरिक के अधीन अनेक कर्मचारी होते थे, जिनकी नियुक्ति वह स्वयं करता था।

4. विषय- प्रत्येक भुक्ति अनेक विषयों में विभक्त होता था। विषय आधुनिक जनपद के समान होता था। विषय का सर्वोच्च अधिकारी विषय पति कहलाता था। विषयपति की नियुक्ति उपरिक द्वारा होती थी। प्रशासन में विषयपति की सहायता एक समिति होती थी। जिसमें 4 सदस्य नगर श्रेष्ठ, सर्वाववाह, प्रथम कुलिक व प्रथम कायस्थ होते थे। इसके अतिरिक्त तीन पुस्तपाल होते थे, जो सभी विषयों का लेखा-जोखा करते थे।

निष्कर्ष

उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि गुप्त शासकों ने अत्यंत उच्च कोटि की प्रशासनिक व्यवस्था को कार्यान्वित कर अपने विशाल साम्राज्य पर सुचारू रूप से शासन किया। डॉ. अलतेकर ने गुप्त शासन की प्रशंसा करते हुए लिखा है, “गुप्तकालीन शासन प्रणाली तथा उसकी उपलब्धियों के विषय में हमारे पास विस्तृत सामग्री है जिसके आधार पर यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि वह केंद्र व प्रांत दोनों में अत्यंत सुव्यवस्थित थी” उन्होंने पुनः लिखा है कि “जनता धनी, समृद्ध और धार्मिक थी। सरकार ने जो शक्ति और समृद्धि स्थापित कि वह कला साहित्य दर्शन और विज्ञान के साथ आश्चर्यजनक विकास का कारण बनी अर्थ एवं गुप्त प्रशासन पर अच्छी तरह गर्व कर सके जो तत्कालीन तथा बाद के राज्यों के लिए आदर्श बना।”

यहां पर यह भी उल्लेखनीय है कि गुप्त शासन व्यवस्था के सुव्यवस्थित एवं संगठित होने के साथ ही उसमें कुछ ऐसे दोष थे जो गुप्तों के पतन के लिए उत्तरदाई बने। उपरिक के अत्यधिक अधिकारों एवं सुविधाओं ने उन्हें विद्रोही बनाने में सहयोग दिया तथा केंद्र में निर्बल शासक के आते ही उन्होंने अपनी स्वतंत्रता घोषित कर गुप्त साम्राज्य के विघटन में सहयोग दिया। इसी प्रकार सामान्य व्यवस्था अपनाकर गुप्तों ने अपने पतन के बीज बो लिए। सामान्तीय राज्यों की उपस्थिति ही अंततः केंद्रीय शक्ति को विकेंद्रित करने में सहायक बनकर गुप्त साम्राज्य के लिए घातक सिद्ध हुई। गुप्त साम्राज्य के विनाश होने का प्रमुख कारण हूणों के आक्रमण से अधिक गुप्त सामंतों द्वारा जनित द्रोह था।

इन्हे भी पढ़ें :-

  • मौर्य कालीन शासन व्यवस्था
  • चंद्रगुप्त मौर्य का प्रारंभिक जीवन
  • गुप्त काल की विशेषताएं
  • समुद्रगुप्त की विजय का वर्णन करें

गुप्तकालीन शासन व्यवस्था की मुख्य विशेषताएं क्या थी?

गुप्तकालीन शासन व्यवस्था विकेंद्रीकृत थी। समस्त साम्राज्य की शासन-व्यवस्था चार भागों में विभक्त थी-केंद्रीय शासन, प्रांतीय शासन, जिले का शासन और ग्रामीण शासन। इसके अन्तर्गत राजा अर्थात सम्राट का पद वंशानुगत था। अपने सहयोग तथा सत्परामर्श के लिए सम्राट मंत्रिपरिषद का गठन करता था।

गुप्त काल की प्रशासनिक व्यवस्था क्या थी?

एक गुप्त शासन प्रणाली प्राक् सामंतीय थी। राजा को रक्षाकर्त्ता तथा पालनकर्त्ता के रूप में सर्वोच्च महत्व दिया जाता था। राजा की सहायता के लिए अधिकारी वर्गों की नियुक्ति की जाती थी जिसमें कुमारामात्य सबसे बड़े अधिकारी थे। इसके अलावा, संधिविग्रह, दंडपाशिक तथा ध्रुवाधिकरण जैसे अधिकारियों का प्रमुख स्थान था।

गुप्त काल की विशेषताएं क्या है?

गुप्तकालीन मंदिरों की विशेषताएँ: तथा मंदिरों की छत सपाट होती थी। गुप्तकालीन मंदिरों का गर्भगृह काफी साधारण होता था। गर्भगृह में देवताओं को स्थापित किया जाता था। प्रारंभिक गुप्त मंदिरों में अलंकरण नहीं मिलता है, लेकिन बाद में स्तंभों, मंदिर के दीवार के बाहरी भागों, चौखट आदि पर मूर्तियों द्वारा अलंकरण किया गया है।

गुप्त वंश में कितने शासक हुए?

समुद्रगुप्त थे गुप्त वंश के दूसरे शासक। गुप्तकाल में भारत में हुआ था राजनीतिक विकास। 40 सालों तक रहा समुद्रगुप्त का शासन।