गुप्तों के उदय और विकास के पीछे क्या कारण थे उनकी अर्थव्यवस्था का वर्णन कीजिए? - gupton ke uday aur vikaas ke peechhe kya kaaran the unakee arthavyavastha ka varnan keejie?

गुप्त वंश की वंशावली और प्रारंभिक इतिहास के बारे में बहुत कम जानकारी है, जिसके फ़लस्वरूप बहुत सारी शंकायें उठ खड़ी हुई हैं। उनके नामों के बाद में गुप्त शब्द का प्रयोग होने से यह तर्क दिया गया है कि सातवाहन शिलालेख में प्रयोग हुए “शिवगुप्त” के साथ उनके वंश की उत्पत्ति का संबंध है | परंतु इस प्रकार के सुझाव स्थिति को जटिल बना देते हैं | विभिन्‍न विद्वान उनकी उत्पत्ति के स्थान के विषय में विभिन्‍न स्थानों का नाम बताते हैं।

  कुछ बंगाल में, कुछ बिहार (मगध) में, और अन्य फुछ उत्तर प्रदेश फो उनकी उत्पति का स्थल बताते हैं | निम्नलिखित तकाँ के आधार पर इस समय हम यह कह सकते हैं कि गुप्तो की उत्पति का स्थल पूर्वी उत्तर प्रदेश थाः

  • ·         इलाहाबाद' स्तम्भ अभिलेख जिसमें गुप्त वंश के प्रारंभिक शासक की उपलब्धियों को उल्लेखित किया गया है, इसी क्षेत्र में स्थित है। इस क्षेत्र में पाये जाने वाले गुप्त शासकों के सिक्‍कों के भण्डार से भी ऐसा प्रतीत होता है।
  • ·         प्रारंभिक गुप्तों के क्षेत्रों के विषय में एल्ाकों में जो विवरण दिया गया है उससे भी इसका संकेत मिलता है।

   यह भी संभव है कि तीसरी शताब्दी सी.ई. के अंतिम दशकों में कुषाण शासकों की एक शाखा के सहायकों के रूप में उत्तर-पश्चिम भारत में गुप्त शासक शासन करते हों। साहित्यिक एवं पुरातात्विक स्रोतों से स्पष्ट है कि वे चौथी शताब्दी सी.ई. के दूसरे दशक में स्वतंत्र शासक हो गये।

   अभिलेख हमें बताते हैं कि श्रीगुप्त प्रथण राजा था और उसके बाद घटोत्कच राजा हुआ। चन्द्रगुप्त पहला स्वतंत्र राजा था जिसने यहाराजाधिरज की उपाधि को धारण किया। मगध में अपनी स्वतंत्रता को घोषित करने के बाद लिच्छिवियों के साथ वैवाहिक संबंधों की मदद से उसने अपने राज्य का प्रसार किया | इस संबंध की जानकारी हमें एक विशेष प्रकार के सिक्‍कों से होती है। इन सिक्कों के अनुभाग पर चन्द्रगुप्त और उसकी रानी कुमारदेवी का चित्र बना हुआ है। और इनके दूसरे भाग पर लिच्छवायह (अर्थात्‌ लिच्छवी) की कहानी से संबंधित बैठी देवी का चित्र बना है| ये सिक्के सोने के बने हुए हैं| गुप्तों ने सिक्कों के वजन के लिए कुषाण प्रणाली के सोने के सिक्कों का अनुसरण किया जिससे यह निष्कर्ष निकाला गया कि गुप्त शासक कुषाण शासकों के क्षेत्रों से संबंधित थे।

   चंद्रगुप्त- के राज्य की सीमा निर्धारण के लिए कोई ठोस प्रमाण उपलब्ध नहीं हैं। परन्तु ऐसा माना जाता है कि उसके राज्य के अंतर्गत वर्तमान उत्तर प्रदेश, बिहार एवं बंगाल के भाग थे।

   चन्द्रगुप्त ने 319-320 सी.ई. से नये वर्ष का प्रारम्भ किया | यह किसी भी प्रमाण से स्पष्ट नहीं है कि उसने वास्तव में नये वर्ष का प्रारम्म किया जिसे गुप्त संक्‍त के नाम से जाना जाता है। परन्तु उसने गरहाय़जाधिशज की उपाधि धारण की थी, इसीलिए ऐसा माना जाता है कि उसने एक नयीन वर्ष का प्रारम्भ किया | उसके पुत्र समुद्रगुप्त के शासन काल में गुप्त साम्राज्य का काफी प्रसार हुआ।

समुद्रगुप्त

प्रयागराज में स्थित अशोक के स्तम्भ पर एक अभिलेख (बाद की तारीख में) खुदा हुआ है (जिसको ग्रयाय प्रथस्ति नाम से भी जाना जाता है) जो समुद्रगुप्त के सिंहासनारोहण और विजयों के विषय में सूचनायें देता है| हरिशेण नाम के एक महत्वपूर्ण राज्यधिकारी ने 33 पंक्तियों को संकलित किया था और उन्हीं को इस स्तम्म पर खुदवाया गया है। अमिलेख में उद्धत है कि महाराजाधिराज चन्द्रगुप्त- ने अति मायनात्मक आयाज़ में अपने पुत्र समुद्रगुप्त को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया। यह सभी दरबारियों के आनन्द की अनुभूति और बहुत से राज्य परिवार वालों की ईर्ष्या का कारण बना। इससे यह भी निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि जो राजकुमार राजा बनने का दावा पेश कर रहे थे उनको इस घोषणा के द्वारा शांत कर दिया गया। कच्छ के नाम से जारी किये गये कुछ सोने के  सिक्‍कों की प्राप्ति ने इस संबंध में विवाद को एक नया मोड़ दिया। यह विवाद इसलिए उत्पन्न हुआ क्योंकि (i) कच्छ के सिक्के बिलकुल समुद्रगुप्त के सिक्कों के ही समान हैं, (ii) कच्छ का नाम गुप्त शासकों की अधिकृत सूची में शामिल नहीं है जैसा कि वह गुप्त शासकों के अन्य अभिलेखों में वर्णित है। इस सन्दर्भ में बहुत से तर्क प्रस्तुत किये गये हैं :

·         यहां एक परिभाषा दी जाती है कि समुद्रगुप्त के भाइयों ने उसके विरूद्ध विद्रोह कर दिया और सबसे बड़े भाई कच्छ को सिंहासन पर बैठा दिया | किन्तु उत्तराधिकार की लड़ाई में वह मारा गया।

·         दूसरा विचार यह है कि समुद्रगुप्त ने अपने भाई की स्मृति में इन सिक्कों को जारी किया।

·         तीसरे विचार के अनुसार समुद्रगुप्त का प्रारंभिक नाम कच्छ था और दक्षिण की विजय करने यो याद उससे समुद्रगुप्त नाम फो धारण फिया।

इस विवाद का कोई हल नहीं है क्योंकि प्रत्येक विचार के समर्थन एवं विरोध में तर्क दिय जा सकते हैं। हम केवल यही कह सकते हैं कि कच्छ के सिक्के इतनी कम संख्या में पाये गये हैं कि अगर वह सिंहासन पर बैठा तो बहुत थोड़े समय के लिये। यह भी है कि चन्द्रगुप्त की उद्घोषणा के बावजूद भी समुद्रगुप्त ने सिंहासन के उत्तराधिकार के संबंध में समस्या का सामना किया हो किन्तु अंततः उसने इस पर विजय प्राप्त की |

प्रसार एवं सुदृढ़ीकरण

गुप्त शक्ति के प्रसार एवं सुदृढ़ीकरण के लिये समुद्रगुप्त ने विजयों की आक्रामक नीति को अपनाया | इससे उस प्रक्रिया का श्रीगणेश हुआ जिसकी पराकाच्ठा गुप्त साम्राज्य के निर्माण के रूप में हुई | हमें इस वास्तविकता को भी रेखांकित करना चाहिये कि कुछ क्षेत्रों में, विशेषकर दक्षिण मैं, उसने उन राजाओं को पुनः स्थापित किया जिनकों उसने पराजित किया था तथा उन क्षेत्रों पर अपने शासन को कायम भी रखा। वास्तव में उन शासकों ने उसके अधिपत्य को स्वीकार किया और उसको उपहार भेंट किये। इस प्रकार की नीति का अनुसरण उन क्षेत्रों के लिये किया गया जो काफी दूरी पर थे और इससे सम्पर्क की समस्या का हल कर लिया गया तथा नीति काफी लाभदायक सिद्ध हुई और इससे कारगर नियंत्रण भी कायम रखा जा सका। इस नीति से कुछ समय के लिये स्थायित्व भी स्थापिल हो गया। अब हम संक्षेप में समुद्रगुप्त द्वारा विभिन्‍न क्षेत्रों में अपनायी गई आक्रामक नीति की विवेचना करेंगे।

1) आरयावित में सैनिक अभियान

कुछ इतिहासकारों का मानना है कि समुद्रगुप्त ने आर्यावर्त में केवल एक बार अपना सैनिक अभियान किया। परन्तु कुछ अन्य इतिहासकारों का कहना है कि प्रयाय अ्रशश्ति में समुद्रगुप्त की विजयों का विवरण समयानुसार दिया गया है| जिसका यह अर्थ निकलता है कि समुद्रगुप्त ने उत्तर भारत में दो अभियान चलाये। ऐसा इसलिये है कि पहले आर्यावर्त के तीन राजाओं का नाम उद्धृत हैं और फिर उसके दक्षिण अभियान को उद्धृत किया गया है तथा फिर आर्यावर्त के नौ राजाओं के नामों को उद्धृत किया गया है। ऐसा प्रतीत होता है कि समुद्रगुप्त के उत्तराधिकार के संघर्ष में फंसा हुआ होने के कारण कुछ शासकों ने अपने आधिपत्य को स्थापित करने का प्रयास किया | इस सर्दर्म में यह भी हो सकता है कि समुद्रगुप्त ने अच्युत नागसेन ओर काय-कुलजा को पराजित किया हो।| इन विजयों के विषय में कोई विस्तृत विवरण उपलब्ध नहीं है और न ही उन विशेष क्षेत्रों की विशेष जानकारी है जिन पर ये शासक शासन करते थे। फिर भी इतिहासकारों का कहना है कि अच्युत अहिच्छत्न पर, नागसेन ग्वालियर क्षेत्र पर और कोटा-कुलजा या कोटा परिवार पूर्वी पंजाब और दिल्‍ली क्षेत्रों के ऊपर शासन कर रहे थे। यद्यपि इन क्षेत्रों की स्पष्टतल: पहिचान करने पर भिन्‍नातायें हैं, परन्तु यह स्पष्ट है कि समुद्रगुप्त ने उनको पराजित कर न केवल गंगा घाटी पर अपना अधिकार कर लिया बल्कि उसके आस-पास के क्षेत्र भी उसके नियंत्रण के अंतर्गत आ गये।

2) दक्षिण में अभियान

अयाय ग्रशस्ति में दक्षिणापएथ या दक्षिण भारत के 12 शासकों के नाम दिये गये हैं जिनको समुद्रगुप्त ने पराजित किया था। ये निम्नलिखित थे :

  • ·         कोसल (रायपुर, दुर्ग, सम्बलपुर, और बिलासपुर जिले) के शासक महेन्द्र |
  • ·         महाकांतार (उडीशा प्रदेश का जेयपुर जंगल) के शासक व्याप्रराज|
  • ·         कोरता (संभवत: मध्य प्रदेश का सोनपुर क्षेत्र या महेन्द्र पहाड़ी का उत्तर-पूर्वी मैदानी भाग) का शासक मन्तराज |
  • ·         पिष्टपुर (पिठासुरम, पूर्वी गोदावरी जिला) का महेन्द्रगिरि |
  • ·         कोट्टूरा (गंजाम जिला) का स्वामीदत्ता |
  • ·         सरंपल्‍ला (चिकाकोले या पश्चिमी गोदावरी जिला) का दमन।
  • ·         कांची (चिंग्लेपुट जिला) का विष्णुगोप |
  • ·         अयामुक्‍ता (योदावरी घाटी) का नीलराज।
  • ·         वेंगी (कृष्णा-गोदायरी घाटी में सिलोर) का हस्तीवर्मन।
  • ·         पालक्का (नेललोर जिला) का अग्रसेन।
  • ·         देवराष्ट्र (विशाखापटनम जिले में येलामांचिलि) का कुबेर |
  • ·         कुस्थलपुर (संमवतः तमिलनाडु के उत्तरी अरकोट में) का धननन्‍जय।

परन्तु इन राजाओं और इनके राज्यों की पहचान को लेकर इतिहासकारों के बीच मतभेद हैं| प्रयाग प्रशस्ति बताती है कि समुद्रगुप्त ने कश्षिणायक्ष के राजाओं के प्रति अपनी सहानुभूति को दिखाया क्योंकि पहले तो उसने उनको अधिकृत कर (ग्रहगे लिया और फिर उनको मुक्त कर (मोक्क दिया।

   समुद्रगुप्त ने आयाक्त या उत्तरी भारत के राजाओं की अपेक्षा दक्षिणाए्थ के राजाओं के प्रति पूर्णत: भिन्‍न नीति का अनुसरण किया। उसने जआर्यावर्त के राजाओं को न केवल पराजित किया बल्कि उनके राज्य गुप्त साम्नाज्य के अभिन्न अंग बन गये। उत्तरी भारत में पराजित राजा इस प्रकार थे : रूद्रदेव, मतिला, नागदत्त, चन्द्रवर्मा, गणपति नाग, नागसेन, अच्युत, नन्‍दी, बलवर्मा और अन्य | उन सबकी पहचान करना असंभव है, लेकिन यह निश्चित है कि वे सब उत्तरी भारत के विभिन्‍न क्षेत्रों पर शासन कर रहे थे | उनमें से कुछ निश्चित रूप से नागराजा थे जो गुष्तों से पूर्व बहुत से क्षेत्रों में शक्तिशाली थे। कुछ शासक जैसे कि चन्द्रवर्मा जो पश्चिमी बंगाल के क्षेत्र पर शासन करता था, नये वंशों का प्रतिनिधित्व करते थे। अशश्ति में आगे विवरण है कि वन क्षेत्रों के सभी राज्यों को समुद्रगुप्त ने सेवकों जैसी स्थिति में पहुँचा दिया। दूसरी श्रेणी में सीमावर्ती राज्यों जैसे कि सामतट (दक्षिण-पूर्वी बंगाल), कामरूप (असम), नेपाल आदि, गंणत़तांत्रिक राज्यों जैसे कि मालवा, योधेय, मद्रक, अभिर आदि का वर्णन है।

   इन राज्यों ने वस्तुओं के रूप में भेंट और नज़राना दिया, उसकी आज्ञाओं का पालन किया और उन्होंने उसकी उपासना की | अन्य श्रेणी के राज्यों के शासकों ने उसकी सम्प्रभुता को  दूसरे रूपों में स्वीकार किया | उन्होंने “स्वयं को समर्पित करके, अपनी पुत्रियों को विवाह के लिये प्रस्तुत किया और स्वयं अपने राज्यों एवं जिलों का प्रशासन करने के लिये उससे प्रार्थना की” | इसका तात्पर्य यह हुआ कि वे अधीनस्थ राज्य थे और उनको अपनी स्वतंत्रता के लिये समुद्रगुप्त की स्वीकृति प्राप्त करनी पड़ती थी | इस श्रेणी में उत्तर-पश्चिम भारत के विदेशी शासकों, जैसे कि अन्तिम कुषाणों और शकों को, तथा इसमें विभिन्‍न द्वीपों जैसे कि सिम्हल (श्रीलंका) के शासकों को भी शामिल किया जा सकता है। प्रयाग अलश्ति के संकलनकर्ता हरिशेण द्वारा दिये गये इस विवरण में कुछ को बहुत बढ़ा- चढ़ा कर लिखा गया है परन्तु कुछ इनमें उचित भी हैं। परन्तु यह निश्चित है कि गुप्त साम्राज्य की सैनिक आधारशिला समुद्रगुप्त द्वारा रखी गयी और उसके उत्तराधिकारियों ने इसी आधारशिला पर गुप्त साम्राज्य का निर्माण किया।

अर्थव्यवस्था

कृषि के उत्पाद ही प्रमुख संसाधनों का निर्धारण करते थे, जिनका उत्पादन समाज के द्वारा किया जाता था और राजस्व का बड़ा भाग कृषि से ही आता था। परंतु इसका तात्पर्य यह कतई भी नहीं है कि केवल कृषि ही लोगों का व्यवसाय था या लोग केवल गांवों में ही रहते थे। व्यापार एवं दस्तकारी वस्तुओं का उत्पादन जैसे दूसरे व्यवसाय भी थे जो विशेषज्ञ व्यवसाय हो चुके थे। इनमें विभिन्‍न गुट संलग्न थे। इसका यह तात्पर्य होता है कि, जैसे कि प्रारम्भिक काल में भी हुआ, लोग जंगलों, कृषि क्षेत्रों, नगरों एवं शहरों में रहते थे, परन्तु आर्थिक उत्पादन के तरीकों में विभिन्‍न प्रकार के परिवर्तन प्रारम्भ हो चुके थे और जिनके परिणामस्वरूप समाज के विभिन्‍न गुटों के सम्बन्धों में भी परिवर्तन हुआ।

1. कृषि

सबसे पहले हम कृषि उत्पादन के प्रतिमान के विषय में लिखेंगे | कृषि उत्पादन का समाज के साथ क्‍या रिश्ता था, यह गुप्त काल के उन स्रोतों से स्पष्ट है जिनमें कृषि सम्बन्धी क्रिया कलापों के बहुत से पक्षों का विवरण किया गया है। अभिलेखों में कई किस्म की भूमि की चर्चा है: जैसे कि जिस भूमि पर खेती की जाती थी उसको क्षेत्र कहा गया है। जो भूमि कृषि योग्य नहीं होती थी उसको /खिलः अपरहत आदि नामों से जाना जाता था और अभिलेखों से यह भी संकेत मिलता है कि खेती न की जाने वाली भूमि को लगातार खेती करने के अनार्जन लाया जाता था| भूमि का उसकी किस्म, उर्वरकता और उपयोगिता के आधार पर कोई वर्गीकरण गुप्त काल में किया गया हो, इसके प्रमाण नहीं मिलते | भूमि के नाप के लिये विभिनल क्षेत्रों में भिन्‍न-भिन्‍न तौर तरीकों को अपनाया गया, इसके बावजूद भी यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि अमुक नाप वास्तव में क्‍या इंगित करता है। कुछ क्षेत्रों में भूमि के नाप के लिये निदार्तन प्रणाली का उपयोग किया जाता था जबकि बंगाल से प्राप्त अभिलेखों में भूमि के क्षेत्र को नापने के लिये कुल्यावाप और द्रोणवाय प्रणालियों का प्रयोग किया गया। फसलों के उत्पादन के अनुसार क्षेत्रों का निर्धारण करना सम्भव नहीं है। लेकिन बड़ी श्रेणियों की अन्न से सम्बन्धित फसलों, जैसे कि जौ, गेंहू और धान, विभिन्‍न किस्म की दालें एवं चना और सब्जियाँ तथा इन्हीं की तरह नकदी फसलें जैसे कि कपास और गन्ना की पैदावार के विषय में हम गुप्त काल के पूर्व से भी जानते हैं और इनकी पैदावार इस काल में भी जारी थी। लेकिन इससे यह नहीं समझा जाना चाहिये कि गुप्त काल में किसानों को मक्का जैसे अनाज की फसल, आलू एवं टमाटर जैसी सब्जियों की जानकारी थी।

2. दस्तकारी उत्पादन और व्यापार

दस्तकारी उत्पादन के अन्तर्गत अनेक वस्तुय्यें आती थीं। इसके अन्तर्गत घरेलू उपयोग की वस्तुयें जैसे कि मिट्टी के बर्तन, असबाब ( शिग्रांप्राए) की चीज़ें, टोकरियां, घरेलू उपयोग के लिए धातु के औज़ार आदि-आदि आती थीं और इसी के साथ-साथ विलासिता की वस्तुर्यें भी दस्तकारी उत्पादन के अन्तर्गत आती थीं जैसे कि सोने, चांदी एवं मूल्यवान पत्थरों से बने आभूषण, हाथी दांत की बनी चीज़ें, शानदार किस्म के सूती एवं रेशमी कपड़ें और वे महंगी वस्तुएं जिनका उपयोग समाज के सम्पन्न लोग करते थे। इनमें से कुछ वस्तुओं को व्यापार के माध्यम से उपलब्ध कराया जाता था तो कुछ का स्थानीय स्तर पर उत्पादन भी किया जाता। उत्खनन के द्वारा जो वस्तुएं प्राप्त हुई हैं उनमें विलासिता की वस्तुएं नहीं मिली हैं परन्तु इन वस्तुओं का विवरण साहित्यिक ग्रंथों और अभिलेखों में पाया जाता है। इन स्रोतों में विभिन्‍न श्रेणियों के दस्तकारों का भी उल्लेख है और क्षौम और पटटवक्‍स्त्र के नाम के सूती वस्त्रों का भी उल्लेख है| पश्चिमी मालवा में मंदसौर से प्राप्त एक अभिलेख में रेशम के कपड़े बनाने वालों की एक श्रेणी का उल्लेख है जो गुजरात प्रदेश को छोड़कर मालवा के क्षेत्र में आकर बस गये थे। अमरकरोश और ब्रह्त सहित जैसे ग्रंथों में, जो संभवत: गुप्त काल मेँ लिखे गये थे, संस्कृत भाषा में ऐसी बहुत सी वस्तुओं के नाम दिये गये हैं और इसी के साथ-साथ इन ग्रंथों में उन दस्तकारी की कई श्रेणियों का उल्लेख किया गया है जो इनका निर्माण करते थे।

गुप्तों के उदय और विकास के पीछे क्या कारण थे उनकी अर्थव्यवस्था का वर्णन?

कुषाण वंश के पतन के पश्चात उत्तर भारत में गुप्त वंश का उदय हुआ । इस वंश के शासकों ने बड़े साम्राज्य की स्थापना की, जिसमें पूरा उत्तर भारत शामिल था। गुप्तों के पास कुछ अनुकूल भौतिक परिस्थितियां थी, जिन्होंने साम्राज्य के गठन में सहायता प्रदान की ।

गुप्त साम्राज्य का उदय कैसे हुआ?

चंद्रगुप्त प्रथम ने 320 ईस्वी को गुप्त वंश की स्थापना की थी और यह वंश करीब 510 ई तक शासन में रहा। 463-473 ई में सभी गुप्त वंश के राजा थे, केवल नरसिंहगुप्त बालादित्य को छोड़कर। लादित्य ने बौद्ध धर्म अपना लिया था, शुरुआत के दौर में इनका शासन केवल मगध पर था, पर फिर धीरे-धीरे संपूर्ण उत्तर भारत को अपने अधीन कर लिया था।

गुप्त साम्राज्य के पतन के लिए कौन कौन से कारण उत्तरदाई थे वर्णन कीजिए?

अयोग्य तथा निर्बल उत्तराधिकारी परवर्ती मौर्य शासकों में कोई भी इतना सक्षम नहीं था कि वह समस्त राज्यों को एकछत्र शासन-व्यवस्था के अन्तर्गत संगठित करता । विभाजन की इस स्थिति में यवनों का सामना संगठित रूप से नहीं हो सका और साम्राज्य का पतन अवश्यम्भावी था ।

गुप्तकाल में व्यापारियों को क्या कहा जाता था?

राजा चन्द्रगुप्त द्वितीय के नाम से जोड़ा जाता है और ऐसा कहा जाता है कि उन्होंने शकों पर विजय के प्रतीक के रूप में इस संवत् की स्थापना की तथा विक्रमादित्य की उपाधि धारण की थी।