भाषा और जेंडर में क्या संबंध है? - bhaasha aur jendar mein kya sambandh hai?

Q.15: पाठ्यक्रम तथा पाठ्यपुस्तकों में क्या संबंध है? इनमें जेंडर भूमिका के प्रतिनिधित्व का स्वरूप कैसा होना चाहिए?

उत्तर : पाठ्यक्रम शब्द अंग्रेजी के 'करीक्यूलम' शब्द का हिन्दी रूपांतर है । करीक्यूलम शब लैटिन भाषा से 'कुर्' शब्द से बना है जिसका अर्थ 'दौड़ का मैदान' है। दूसरे शब्दों में करीक्यूलम वह क्रम है जिसे किसी व्यक्ति को अपने गंतव्य (मंजिल) स्थान पर पहुँचने के लिए पार करना होता है। अतः पाठ्यक्रम अध्ययन का निश्चित, लक्ष्यपूर्ण तथा तर्कपूर्ण क्रम है। संकुचित अर्थ में पाठ्यक्रम केवल विभिन्न विषयों के निर्धारित किये गए विषयों या प्रकरणों को कह सकते हैं परन्तु अपने विस्तृत अर्थ में पाठ्यक्रम में विद्यालय जीवन के वे सभी अनुभव समाहित होते हैं जिनसे किसी न किसी रूप में विद्यार्थी ज्ञान अर्जित करता है। इस दृष्टि से पाठ्य सहगामी तथा पाठ्यक्रमेत्तर गतिविधियाँ भी पाठ्यक्रम के दायरे में सम्मिलित हो जाती है ।

पाठ्यक्रम की सीमित शब्दों में दिये गये अर्थ को तथा संप्रत्यय को स्पष्ट करने वाली ये परिभाषाएं पाठ्यक्रम की प्रकृति को समझने में सहायक होंगी–

(1) बविट– “उच्चतर जीवन के लिए प्रतिदिन तथा चौबीस घंटे की जा रही समस्त • क्रियाएं पाठ्यक्रम के अंतर्गत आ जाती हैं।”

(2) वाल्टर एस मनरो– “पाठ्यक्रम को किसी विद्यार्थी द्वारा लिये जाने वाले विषयों के रूप में परिभाषित नहीं किया जाना चाहिए। पाठ्यक्रम की कार्यात्मक संकल्पना के अनुसार इसके अंतर्गत वह सब अनुभव आ जाते हैं जो विद्यालय में शिक्षा के लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए प्रयुक्त किये जाते हैं।”

(3) रॉबर्ट एम. डब्ल्यू ट्रेवर्स– “एक शताब्दी पूर्व पाठ्यक्रम की संकल्पना उस पाठ्यसामग्री का बोध कराती थी जो छात्रों के लिए निर्धारित की जाती थी, परन्तु वर्तमान समय में पाठयक्रम की संकल्पना में परिवर्तन आ गया है । यद्यपि प्राचीन संकल्पना अभी भी पूरी तरह लुप्त नहीं हुई है लेकिन अब माना जाने लगा है कि पाठ्यक्रम की संकल्पना में छात्रों की ज्ञान वद्धि के लिए नियोजित सभी स्थितियाँ, घटनाएं तथा उन्हें उचित रूप में क्रमबद्ध करने वाले सैद्धान्तिक आधार स्थापित रहते हैं।'

(4) माध्यमिक शिक्षा आयोग (1952–54)– “पाठ्यक्रम का अर्थ केवल उन सैद्धान्तिक विषयों से नहीं है जो विद्यालयों में परम्परागत रूप से पढ़ाए जाते हैं, बल्कि इसमें अनुभवों की वह संपूर्णता भी सम्मिलित होती है, जिनको विद्यार्थी विद्यालय, कक्षा, पुस्तकालय, प्रयोगशाला, कार्यशाला खेल के मैदान तथा शिक्षकों एवं छात्रों के अनेक अनौपचारिक संपर्कों से प्राप्त करता है। इस प्रकार विद्यालय का संपूर्ण जीवन पाठ्यक्रम हो जाता है जो छात्रों के जीवन के सभी पक्षों को प्रभावित करता है और उनके संतुलित व्यक्तित्व के विकास में सहायता देता है।" इस प्रकार पाठयक्रम में शैक्षिक क्रियाएं,पाठ्य सहगामी क्रियाएं,रुचि कार्य,शैक्षिक उद्देश्य,मूल्यांकन सभी पक्ष आ जाते हैं।

पाठय पस्तकें पाठ्यक्रम के अनुसार तैयार की जाती हैं जिन्हें अनुभवी लेखक,शिक्षक, शिक्षाविद या पुस्तक निर्माण मंडल या समिति तैयार करती है। पाठ्यक्रम की वास्तविक रूपरेखा को पाठ्यपुस्तकों द्वारा ही विस्तार मिलता है।

किसी विषय के ज्ञान को जब एक स्थान पर लिखित या प्रकाशित रूप में सुसगात कर प्रस्तुत किया जाता है तो उसे पाठ्य पुस्तक की संज्ञा दी जाती है । पाठ्य पुस्तक क अप को निम्न विद्वानों की परिभाषाओं व कथनों से स्पष्ट किया जा सकता है–

(1) हाल क्वेस्ट– “पाठ्य पुस्तक शिक्षण अभिप्रायों के लिए व्यवस्थित प्रजातीय चितन का एक अभिलेख है।”

(2) बेकन– “पाठ्य पुस्तक कक्षा प्रयोग के लिए विशेषज्ञों द्वारा सावधानी से तैयार की जाती है। यह शिक्षण युक्तियों से भी सुसज्जित होती है ।”

(3) हैरेलिंकर– पाठ्यपुस्तकें, ज्ञान, आदतों, भावनाओं, क्रियाओं तथा प्रवृत्तियों का संपूर्ण योग है।

पाठ्य पुस्तकों से निर्धारित पाठ्यक्रम के अनुसार विषय का संगठित ज्ञान एक ही स्थान पर मिल जाता है । अतः पाठ्यक्रम व पाठ्यपुस्तकों में गहन अन्तर्सम्बन्ध है जो निम्नलिखित बिन्दुओं से स्पष्ट होता है

(1) पाठ्य पुस्तकों में विलय के पाठ्यक्रम की संपूर्ण रूप में व्याख्या की जाती है। संश्लिष्ट पाठ्यक्रम के विभिन्न विषयों–प्रकरणों का विश्लेषण पाठ्यपुस्तकों से अर्जित होता है ।

(2) पाठ्य पुस्तकें किसी निश्चित पाठ्यक्रम के आधार पर निश्चित कक्षा स्तर के लिए लिखी जाती हैं । यद्यपि इन पुस्तकों का विस्तार क्षेत्र सीमित होता है, किन्तु विद्यार्थियों के लिए ये बहुत उपयोगी होती हैं क्योंकि ये पाठ्यक्रम से सीधे जुड़ी हुई होती हैं।

(3) पाठ्यक्रम के निर्माण के साथ पाठ्यक्रम के उद्देश्य भी दिये गए होते हैं। उससे संबंधित पाठ्य पुस्तकें इस प्रकार तैयार की जाती हैं ताकि उनके द्वारा पाठ्यक्रम के उद्देश्य का लक्ष्य अर्जित किये जा सकें।

(4) कुछ सामान्य पाठ्य पुस्तकें किसी विषय विशेष पर सामान्य अध्ययन की दृष्टि से भी लिखी जाती हैं। इनमें किसी निर्धारित पाठ्यक्रम को आधार नहीं बनाया जाता तथा प्रकरणों को विषय सामग्री की उपलब्धता एवं उपयोगिता की दृष्टि से विस्तार प्रदान किया जाता है । ये पुस्तकें विशेष रुचि रखने वाले विद्वानों/लेखकों द्वारा लिखी जाती हैं । ये पुस्तकें शिक्षकों एवं विद्यार्थियों के लिए सहायक पुस्तकों की तरह उपयोगी होती हैं। इनका प्रयोग उच्चतर माध्यमिक कक्षाओं या इनसे ऊपर की कक्षाओं में किया जाता है । पाठ्यक्रम का स्वाध्याय करने में इन पुस्तकों से विषय सामग्री लेकर छात्रगण अपने नोट्स तैयार करते हैं।

(5) पाठ्यपुस्तकों का निर्माण भी पाठ्यक्रम निर्माण के सिद्धान्तों के अनुरूप होता है। पाठ्यक्रम निर्माण के प्रमुख सिद्धान्त हैं– बाल केन्द्रीयता का सिद्धान्त, जीवन से संबंधित होने का सिद्धान्त,अनुभवों की पूर्णता का सिद्धान्त,उपयोगिता का सिद्धान्त,सामुदायिक जीवन से सम्बद्धता का सिद्धान्त, पाठ्य प्रकरणों के परस्पर सहसंबंध का सिद्धान्त । पाठ्य पुस्तकें भी इन्हीं सिद्धान्तों के अनुरूप तैयार की जाती हैं ।

(6) पाठ्यक्रम में निर्धारित किये गये विषयों व प्रकरणों की रूपरेखा भर होती है तथा उनका संकेत भर किया जाता है । हेनरी हरेप ने लिखा है, “पाठ्यक्रम केवल छपी हुई मार्गदर्शिका है जो यह बताती है कि छात्रों को क्या–क्या सीखना है ।” पाठ्य पुस्तकें इन विषयों/प्रकरणों को विस्तारपूर्वक विवेचन को प्रस्तुत करती हैं। पाठ्य पुस्तकें पाठ्यक्रम के संक्षिप्त अमूर्त रूपरेखा का सावस्तार, सुबोध बनाकर प्रस्तुत करता है अर्थात् पाठ्यक्रम में संकेत, सारांश व रूपरेखा हाता है जबकि पाठ्यपुस्तकों में इनका विस्तार वर्णित होता है । इस दृष्टि से पाठयक्रम व पाठय पुस्तक में घनिष्ठ अन्तर्सम्बन्ध है।

(7) पाठ्यक्रम यदि लक्ष्य है तो पाठ्य पुस्तक उस लक्ष्य को प्राप्त करने की सहायक सामग्री है । पाठ्य पुस्तकों, पाठ्यक्रम के संकेतों को समझने में शिक्षकों–छात्रों की सहायक है।

बेकन ने लिखा है, “पाठ्य पुस्तक कक्षा प्रयोग के लिए विशेषज्ञों द्वारा सावधानी से तैयार की जाती है । यह शिक्षण युक्तियों से सुसज्जित भी होती है।”

(8) पाठ्यक्रम मूल रूप में उल्लेख भर करता है जबकि पाठ्य पुस्तकों में चित्र,मानचित्र चार्ट, ग्राफ आंकड़े, अभ्यास के प्रश्न, मूल्यांकन आदि विषय को सुगम व सुबोध बनाने वाली सामग्री भी दी जाती है। पाठ्य पुस्तक में पाठ्यक्रम के निर्धारित विषयों/प्रकरणों को तार्किक रूप से तथा रोचक रूप में प्रस्तुत किया जाता है।

अमेरिका के प्रसंग में पाठ्यक्रम व पाठ्यपुस्तक का अन्तर्सम्बन्ध तथा महत्त्व कॉनबैक ने इन शब्दों में दिया है जो सर्वत्र लागू होता है–“अमेरिका में आज के शैक्षिक चित्र का केन्द्र बिन्दु पाठ्य पुस्तक है। इसका विद्यालय में महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसका अतीत में भी अधिक महत्त्व था तथा आज भी है । इसको जनसामान्य की लोकप्रियता प्राप्त होती है क्योंकि पाठ्यपुस्तक कक्षा हेतु छात्रों तथा शिक्षकों के लिए विशेष रूप से तैयार की जाती है जो एक विषय या संबंधित विषयों के पाठ्यक्रम को प्रस्तुत करती है।"

पाठ्यक्रम व पाठ्य पुस्तकों का गहरा अन्तर्सम्बन्ध है । पाठ्यक्रम तथा पाठ्य पुस्तक एक–दूसरे के बगैर अछूते हैं । पाठ्यक्रम के बिना पाठ्य पुस्तक का निर्माण नहीं किया जा सकता तथा पाठ्य पुस्तक से पाठ्यक्रम का विस्तार व सरलीकरण होता है । पाठ्यक्रम व पाठ्य पुस्तकें दोनों शिक्षकों तथा छात्रों का मार्गदर्शन करती हैं।

पाठयक्रम तथा पाठय पस्तकों में जेंडर भमिका के प्रतिनिधित्व का स्वरूप

जेंडर मुद्दा इस तथ्य पर बल देता है कि शारीरिक संरचना के आधार पर लड़के तथा लड़कियों के मध्य प्राकृतिक असमानताओं को तो स्वीकार किया जा सकता है परन्तु सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक आधार पर पुरुष व स्त्री में मतभेद करने का कोई औचित्य नहीं है। ऐसा करना मानवता व मानव अधिकारों की धारणा के नितांत विपरीत है। जेंडर असमता का व्यवहार कुत्सित है, त्याज्य है। यह धारणा भी वर्तमान में विकसित हो रही है कि शताब्दियों से विश्व में जेंडर असमानता विद्यमान है तथा उसकी अग्नि में विश्व की आधी आबादी वाली महिलाएं जल रही हैं अतः नयी पीढ़ी हेतु विद्यालयीन पाठ्यक्रम में तथा पाठ्य पुस्तकों में जेंडर समानता लाने तथा महिला सशक्तिकरण को बढ़ावा देने वाले प्रसंग व प्रकरण जोड़े जाने चाहिए जिनसे जनमानसिकता व जनमत में परिवर्तन आएगा तथा भविष्य में जेंडर असमता की सोच व तदनुसार आचरण पर धीरे–धीरे कमी आएगी।

निश्चय ही सामाजिक परिवर्तन लाने में शिक्षा की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। शिक्षा जनमत के निर्माण तथा अच्छे नागरिक की भूमिका निभाने हेतु छात्र–छात्राओं को तैयार करती है। विद्यालयों तथा उच्च शिक्षा की संस्थाओं में लैंगिक असमता तथा उसके दुष्परिणामों महिला के विकास में बाधक तत्त्वा, महिला कल्याण व महिला सशक्तिकरण, लेगिक संवेदनशीलता महिलाओं की पारिवारिक व सामाजिक समस्याओं, महिलाओं के विरुद्ध हिंसा विषयक अपराधों. काननी प्रावधानों, जेंडर अंतराल आदि विषयों को सम्मिलित कर छात्रों तथा छात्राओं में जेंडर भमिकाओं का प्रतिनिधित्व किया जा सकता है । इस हेतु विद्यालयीन महाविद्यालयीन पाठ्यक्रमों तथा पाठ्य पुस्तकों की पुनर्रचना आवश्यक है।

पाठयक्रम व पाठ्य पुस्तकों में प्राथमिक स्तर, माध्यमिक स्तर, उच्चतर माध्यमिक स्तर तथा महाविद्यालयीन स्तर सभी स्तरों में जेंडर भूमिकाओं का प्रतिनिधित्व कक्षा स्तर के अनुरूप किया जा सकता है। प्राथमिक स्तर पर कहानियों, गीलों, अभिनय गीतों, नारों, सुविचार वाक्यों, चित्रों, पोस्टरों. स्मार्ट क्लास में विजुअल प्रदर्शनों,टीम भावना की की जाने वाली छात्र–छात्राओं की सांस्कृतिक, शैक्षिक गतिविधियों तथा शाला परिसर में जेंडर असमता विरोधी तथा जेंडर समता संबंधी बालक–बालिकाओं के आचरण द्वारा प्राथमिक स्तर के बालक–बालिकाओं के अनुरूप पाठ्यक्रम बनाकर तथा सचित्र आकर्षक,रंगीन पाठ्य पुस्तकों के द्वारा जेंडर समानता के प्रयास किये जा सकते हैं। पाठयक्रम व पाठय पस्तक के कक्षा शिक्षण में शिक्षक–शिक्षिका का प्रयास वास्तव में छात्र हित करने का तथा जेंडर असमता के उन्मूलन का होना चाहिए ।

माध्यमिक तथा उच्चतर माध्यमिक स्तर के किशोर बालक–बालिकाओं में जडर संवेदनशीलता तथा तदनुसार आचरण का प्रयास नितांत आवश्यक है अन्यथा उनक विधामा कमार्गी होने की आशंकाएं हो सकती हैं। इस स्तर पर महापरुषों तथा महान नारिया कावामन क्षेत्रों में जेंडर समानता लाने के प्रयासों की कहानियों, कविताओं, गद्य पाठों व निबधा, सामान विज्ञान की पुस्तिकाओं में जेंडर समता के विषय पाठ्यक्रम व पाठ्य पुस्तकों के रूप म किए जाने चाहिए। इस स्तर पर पाठ्य सहगामी क्रियाओं,खेलकूद, वार्षिकोत्सव, विद्यालयात वार्षिक पत्रिकाओं में शिक्षक व छात्र–छात्राओं के लेखों द्वारा भी जेंडर समानता को पाठ्यक्रम में व पाठय पुस्तकों में जोड़ा जा सकता है। सहशिक्षा वाले माध्यमिक विद्यालय म अत्यन्त संवेदनशीलता व सूझ बूझ के साथ पाठ्य सहगामी क्रियाएं अपेक्षित हैं । यदि विद्यालया। बालिकाओं के साथ बालकों के छेड़छाड, भद्दे कमेंट्स करना फिल्मी गानों द्वारा बालिका का तंग करना जैसे आचरण के विरुद्ध शक्ति से कदम उठाए जाने चाहिए। विद्यालय में पाठ्यक्रम का स्वरूप विद्यालय के समस्त जीवन से संबंधित है अत: जेंडर समानता के सैद्धान्तिक ज्ञान क साथ व्यावहारिक क्रियाएं भी इस शिक्षा स्तर पर आवश्यक हैं। शिक्षक–शिक्षिकाओं का आचरण भी मर्यादित होना चाहिए ताकि उनके अनुचित व्यवहार छात्रों पर कुप्रभाव न डालें । कार्यस्थल पर महिलाओं के शोषण जैसी छोटी–मोटी घटनाओं को गंभीरता से लेना होगां ताकि तमाम पाठ्यक्रम व पाठ्य पुस्तकों का जेंडर समानता के लक्ष्य प्राप्त करने के मार्ग में अवरोध प्रतिरोध न हो।

महाविद्यालयीन शिक्षा के स्तर पर रैगिंग एक बडी चिंताजनक समस्या है और यदि छात्राओं के साथ रेगिंग की जाती है तो यह बेहद शर्मनाक होती है । कई छात्राएं कॉलेज जाना ही छोड़ देती हैं। महाविद्यालयीन पाठ्यक्रम व पाठ्य पुस्तकों में विचारात्मक, वैश्विक प्रकरणों को भाषा की पाठ्य पुस्तकों, समाजशास्त्र व सामाजिक विज्ञान के पाठ्यक्रम में जेंडर समानता के लक्ष्य प्राप्त करने हेतु स्थान दिया जाना चाहिए । जेंडर समानता संबंधी अनुसंधान कार्यों को भी महाविद्यालयीन विश्वविद्यालयीन स्तर पर बढ़ावा देना चाहिए तथा शोध छात्रों हेत स्कॉलरशिप की व्यवस्था की जानी चाहिए।

पाठ्यक्रम तथा पाठ्य पुस्तकों द्वारा जेंडर भूमिका के प्रतिनिधित्व संबंधी निम्नलिखित विषयों प्रकरणों को पाठ्यक्रम–पाठ्य पुस्तकों में सम्मिलित किया जा सकता है–

(1) जेंडर अंतराल (गैप) – यह जानकारी छात्र–छात्राओं में होनी चाहिए जेंडर गैप किन–किन क्षेत्रों में हैं। अर्थात् स्त्री वर्ग किन क्षेत्रों में पुरुषों की तुलना में अधिक पीछे है। शिक्षा का क्षेत्र जेंडर गैप की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है जहाँ शताब्दियों से नारी शिक्षा पुरुषों की शिक्षा के प्रतिशत की अपेक्षा कमतर रही है तथा आज भी है। शिक्षा द्वारा महिलाओं में आत्म विश्वास, जागृति तथा रोजगार प्राप्त करने के अवसर आते हैं । शिक्षित महिला पूरे परिवार को शिक्षित करने में योगदान देती है । आर्थिक क्षेत्र में महिलाओं के लिए रोजगार के अवसरों का अभाव दूसरा महत्त्वपूर्ण क्षेत्र है जहाँ अंतराल (गैप) अधिक दिखाई देता है । यदि महिलाएं नौकरी करने लगेंगी तो उनका पारिवारिक व सामाजिक सम्मान बढ़ जाए। धनोपार्जन में वे सक्षम होकर अपने बूते पर संतान के पालन में सक्षम हो सकेंगी। राजनैतिक क्षेत्र में पुरुष महिला में अंतराल अधिक है क्योंकि निर्वाचन लड़ने तथा जनप्रतिनिधित्व का पद पाने को दूसरे कई राजनैतिक दल टिकट देने में भेदभाव करते हैं । सामाजिक क्षेत्र में आज दहेज, सतीप्रथा, बालविवाह, कन्या भ्रूण हत्या, पर्दा व बुरका प्रथा, वेश्यावृत्ति, विधवाओं की दयनीय स्थिति महिलाओं की सामाजिक स्थिति को कमतर स्थान देती है। जेंडर अंतराल की दिशा में सामाजिक क्षेत्र में महिलाएं स्वतंत्रतापूर्वक अपने विकास में सक्षम नहीं हो पाती तथा उन्हें अबला' जैसे संबोधनों से संबोधित होना पड़ता है । पाठ्यक्रम तथा पाठ्य पुस्तकों में जेंडर गैप के क्षेत्रों की जानकारी छात्र–छात्राओं को दी जानी युक्तिसंगत है।

(2) जेंडर असमानता– जनमानसिकता, परम्परागत नारी संबंधी कुविचार, परिसर में चहारदीवारी में कैद नारी स्वतंत्रता, महिलाओं पर अत्याचारों की अधिकता तथा उनके साथ घरेलू अहिंसा, अशिक्षा, लड़की के विवाह में कठिनाई, खराब स्वास्थ्य, यौन हिंसा का भय, सामाजिक कुप्रथाएं (दहेज, बाल विवाह, अनमेल विवाह, वेश्यावृत्ति इत्यादि) महिलाओं की लैंगिक असमता की ओर संकेत करती है। पाठ्यक्रम व पाठ्यपुस्तकों में जेंडर असमता के मुद्दे को सम्मिलित किया जाना चाहिए ताकि इसके दुष्परिणामों से बालक–बालिका परिचित होकर निवारक कदम उठाने में सफल होंगे।

(3) लैंगिक संवेदनशीलता– पाठ्यक्रम में ऐसे विषय शामिल होने चाहिए जो पुरुषों में महिलाओं के प्रति संवेदनशीलता उत्पन्न करते हैं। महिलाओं की समस्याओं के प्रति संवेदनशीलता, भ्रूण हत्या, दहेज हत्या, नारी से छेड़छाड़, बलात्कार आदि की घटनाओं की जानकारी दी जानी चाहिए ताकि छात्रों में नारी के विकास में बाधक तत्त्वों की जानकारी हो उससे युवा पीढ़ी समाज सुधार के उपायों की ओर अग्रसर होगी।

नारी माँ, बहन, पुत्री, पत्नी के विविध रूपों में पुरुषों की सबसे बड़ी हितैषी होती है अतः मानवतावादी उपागम निर्देशित करते हैं कि पुरुषों को नारी दुर्दशा के प्रति संवेदनशीलता बरतते हुए नारी उत्थान कल्याण के प्रयत्न करने चाहिए। यदि पाठ्यक्रम व पाठ्य पुस्तकों में ये प्रकरण होंगे तो सामाजिक संवेदनशीलता में नारी के प्रति वृद्धि होगी तथा अत्याचार व हिंसा में कमी आयेगी।

(4) महिलाओं संबंधी कानूनी प्रावधानों की जानकारी– हमारे देश में संविधान में लिंग के आधार पर भेदभाव वर्जित है। केन्द्र तथा राज्य सरकारों ने महिलाओं की स्थिति में सुधार लाने के लिए अनेक कानून बनाए हैं। जैसे–

(i) सती प्रथा समाप्ति अधिनियम, 1829

(ii) विधवा पुनर्विवाह, अधिनियम, 1856

(iii) बाल विवाह निषेध अधिनियम (शारदा एक्ट) 1929

(iv) दहेज प्रतिषेध अधिनियम, 1961

(v) मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों की सुरक्षा) अधिनियम, 1986

(vi) हिन्दू विवाह अधिनियम, 1965

(vii) हिन्दू माइनोरिटी तथा गार्जेयनशिप एक्ट, 1956

(viii) द इनडिसेंट रिप्रजेन्टेशन ऑफ वुमेन (प्रोहिबिटेशन) एक्ट, 1986

(ix) प्री नेटल डायग्नोस्टिक टेक्निक (रेगुलेशन एंड प्रिवेंशन ऑफ मिसयूज) एक्ट,1994

(x) इममोरल ट्रेफिकिंग (प्रिवेंशन) एक्ट, 1986

(xi) प्रिवेंशन ऑफ वूमेन फॉम डोमेस्टिक वायलेंस एक्ट, 2005

(xii) मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रिग्नेंसी एक्ट, 1971

(xiii) सेक्सुअल हरासमेंट एट वर्क प्लेस प्रिवेंशन,प्रोहिबिशन एंड रिड्रेसल एक्ट, 2013

छात्र–छात्राओं के पाठ्यक्रम पाठ्यपुस्तकों में यदि इन वैधानिक प्रावधानों की जानकारी विस्तार से या प्रासंगिक रूप से दी जाए तो युवा वर्ग जागृत होगा तथा दूसरी पीढी भी प्रशिक्षित होकर अधिनियम के प्रावधानों का उल्लंघन करने से हिचकेगी। अधिनियमों की जानकारी जनजागृति तथा महिला हितैषी कार्य करने हेतु प्रेरित करेगी।

(5) महिला कल्याण व विकास कार्यक्रमों योजनाओं की जानकारी – महिलाओं– बालिकाओं के कल्याण हेत केन्द्र शासन के अतिरिक्त विभिन्न राज्य सरकार का अनेक योजनाएं व कार्यक्रम संचालित किए जा रहे हंल जिनमें प्रमुख है –

(i) काम (महाराष्ट्र), अपंग, परित्यक्त, आश्रमविहीन महिलाओं के हितार्थ । (ii) किशोरी बालिका याजना (बिहार) – 11 वर्ष से 18 वर्ष तक की लडकियों के पोषण व स्वास्थ्य सुधार हतु (iii) स्वर सखी योजना (उत्तर प्रदेश) 8वीं तक पढी 18– 35 वर्ष की अनसचित महिलाआ का मजला का प्रशिक्षण, (iv) बेटी बचाओ बेटी पढाओ (केन्द्र शासन) की योजना, (v) देवी रूपक योजना (हरियाणा) जनसंख्या नियंत्रण की योजना, (vi) बालिका संरक्षण योजना (आंध्र प्रदेश) निधन परिवारों की बालिकाओं की शिक्षा तथा 18 वर्ष की आय के बाद विवाह, (vii) वात्सल्य योजना (मप्र) प्रसवकाल में बुनियादी स्वास्थ्य लाभ हेतु, (viii) ग्राम्या योजना (मप्र) ग्रामीण महिलाआ को लघु उद्योग हेतु कार्यशील पूँजी प्रदाय, (ix) आयुष्मति योजना (मप्र) निधन माहला का बीमारी के अगर व पौष्टिक आहार हेतु, (x) सामाजिक सुरक्षा पेंशन योजना (मप्र) निराश्रित विधवाओं हेतु पेंशन इत्यादि।

पाठ्यक्रम व पाठ्य पुस्तकों में ऐसे कार्यक्रमों तथा योजनाओं को सम्मिलित करने से छात्र– छात्राओं को लाभ होगा तथा समाज में वांछित वर्ग को लाभ दिला सकने में वे सक्षम होंगे।

(6) राष्ट्रीय महिला उत्थान नीति 2001 की जानकारी– केन्द्र सरकार द्वारा देश में महिलाओं को राजनैतिक, आर्थिक और सामाजिक विकास में बराबरी की भागीदारी के अवसर प्रदान करने के प्रमुख उद्देश्य को सामने रखकर यह राष्ट्रीय नीति घोषित की गई है जिसके प्रमुख प्रावधान हैं– महिलाओं को मानव अधिकारों का उपयोग करने में सक्षम बनाना, शिक्षा– स्वास्थ्य– रोजगार व सामाजिक सुरक्षा में सहभागिता, भेदभाव दूर कर कानूनी संरक्षण दिलाना, समाज में बराबरी की भागीदारी हेतु स्त्री– पुरुषों को भागीदार बनाना, महिलाओं व बालिकाओं के प्रति अपराध के रूप में व्याप्त असमानताओं को दूर करना।

छात्रों के पाठ्यक्रम व पाठ्य पुस्तकों में इस बड़ी व राष्ट्रीय नीति के प्रकरण पर शिक्षा से छात्रवर्ग तथा परिणामस्वरूप समाज में जागृति आएगी।

(7) महिला सशक्तिकरण को बढ़ावा– लैंगिक असमता दूर करने हेतु महिला सशक्तिकरण का विचार वैश्विक सार्वभौमिक ग्लोबल रूप धारण कर गया है जिसके अंतर्गत प्रमुख प्रयास है– उन कारणों को समझना जो महिला सशक्तिकरण में बाधक हैं । स्त्रियों को परिवार एवं समुदाय में निर्णय लेने तथा सहभागिता बढ़ाना, स्त्रियों को उन नवीन भूमिकाओं हेत प्रोत्साहित करना जो पुरुषों का अधिकार क्षेत्र मानी जाती रही हैं, स्त्रियों को उन अन्यायपर्ण व असमान विश्वासों, प्रथाओं, संस्थाओं से बदलाव हेतु सम्मुख लाना जो लैंगिक असमता के लिए जिम्मेदार हैं, स्त्रियों को प्राकृतिक, मौद्रिक व बौद्धिक संसाधनों पर पहुँच बढ़ाने के अवसर देना स्त्रियों को स्वप्रतिष्ठा व अबला होने की धारणा बदलना इत्यादि।

महिला सशक्तिकरण वैश्विक आंदोलन है जिस पाठ्यक्रम व पाठ्य पुस्तकों में स्थान देकर नवजागृति व महिलाओं के हित में क्रांति या परिवर्तन लाने का प्रयास किया जा सकता है ।

(8) पाठ्य सहगामी क्रियाओं के द्वारा जागृति– पाठ्यक्रम व पाठ्य पुस्तकों में जो विषय सैद्धान्तिक रूप में दिए गए हैं उन्हें पाठ्य सहगामी क्रियाओं द्वारा विद्यालयों– महाविद्यालयों में व्यावहारिक रूप देना होगा ताकि छात्र– छात्राओं की सहभागिता हो तथा वे जेंडर मद्दों को गहनता से समझ सकें । महिला दिवस, महिला सुरक्षा वर्ष, महिला शिक्षा वर्ष जैसे आयोजन की पाठ्यक्रम में तथा पाठ्य पुस्तकों में शामिल कर आयोजन करने की प्रक्रिया स्पष्ट की जानी चाहिए।

भाषा और जेंडर के बीच क्या संबंध है?

शब्द "भाषा और लिंग" मर्दाना और महिला भाषा के बीच की कड़ी को दर्शाता है। लिंग भेद न केवल पुरुषों और महिलाओं के बयानों में बल्कि उनकी विशिष्ट जीवन शैली और दृष्टिकोण में भी परिलक्षित होता है। भाषा व्यवहार काफी हद तक सीखा हुआ व्यवहार है। पुरुष पुरुष बनना सीखते हैं और महिलाएं महिला बनना सीखती हैं।

जेंडर क्या है स्पष्ट कीजिए?

लिंग की परिभाषा – Definition of Gender in Hindi “संज्ञा के जिस रूप से व्यक्ति या वस्तु की नर या मादा जाति का बोध हो, उसे व्याकरण में 'लिंग' कहते है।” दूसरे शब्दों में – संज्ञा शब्दों के जिस रूप से उसके पुरुष या स्त्री जाति होने का पता चलता है, उसे लिंग कहते है।

जेंडर और विकास का क्या संबंध है?

जेंडर समाज में समावेशिता का एक महत्वपूर्ण चिन्ह है. व्यक्ति और समुदाय के विकास में जेंडर की भूमिका सर्वोपरि है. अत: मानव विकास की समझ बनाने के लिए व्यक्तिगत व सामाजिक स्तर पर जेंडर व् उससे जुड़े विभिन्न दृष्टिकोण को समझने की आवश्यकता है.

जेंडर का सिद्धांत क्या है?

जब हम कहते हैं कि जेंडर परिवर्तनशील है, यह बदलता रहता है तो हमारा मतलब ऐसे ही बदलावों से होता है । यह अलग-अलग समय पर, अलग-अलग परिवारों व समाज में अलग हो सकता है। इस सबका अर्थ है कि सालिंग (जेंडर) प्रकृति का रचा नहीं है, समाज का रचा है । सच तो यह है कि हम स्वयं या समाज या संस्कृति हमारे शरीर तक को बदल सकते हैं।