भारत भारती का प्रकाशन वर्ष क्या है - bhaarat bhaaratee ka prakaashan varsh kya hai

भारत भारती, मैथिलीशरण गुप्तजी की प्रसिद्ध काव्यकृति है जो १९१२-१३ में लिखी गई थी। यह स्वदेश-प्रेम को दर्शाते हुए वर्तमान और भावी दुर्दशा से उबरने के लिए समाधान खोजने का एक सफल प्रयोग है। भारतवर्ष के संक्षिप्त दर्शन की काव्यात्मक प्रस्तुति "भारत-भारती" निश्चित रूप से किसी शोध कार्य से कम नहीं है। गुप्तजी की सृजनता की दक्षता का परिचय देनेवाली यह पुस्तक कई सामाजिक आयामों पर विचार करने को विवश करती है। भारतीय साहित्य में भारत-भारती सांस्कृतिक नवजागरण का ऐतिहासिक दस्तावेज है।

मैथिलीशरण गुप्त जिस काव्य के कारण जनता के प्राणों में रच-बस गए और 'राष्ट्रकवि' कहलाए, वह कृति भारत भारती ही है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के शब्दों में पहले पहल हिन्दीप्रेमियों का सबसे अधिक ध्यान खींचने वाली पुस्तक भी यही है। इसकी लोकप्रियता का आलम यह रहा है कि इसकी प्रतियां रातोंरात खरीदी गईं। प्रभातफेरियों, राष्ट्रीय आन्दोलनों, शिक्षा संस्थानों, प्रातःकालीन प्रार्थनाओं में भारत भारती के पद गांवों-नगरों में गाये जाने लगे। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने सरस्वती पत्रिका में कहा कि यह काव्य वर्तमान हिंदी साहित्य में युगान्तर उत्पन्न करने वाला है। इसमें यह संजीवनी शक्ति है जो किसी भी जाति को उत्साह जागरण की शक्ति का वरदान दे सकती है। 'हम कौन थे क्या हो गये हैं और क्या होंगे अभी' का विचार सभी के भीतर गूंज उठा।

यह काव्य 1912 में रचा गया और संशोधनों के साथ 1914 में प्रकाशित हुआ। यह अपूर्व काव्य मौलाना हाली के 'मुसद्दस' के ढंग का है। राजा रामपाल सिंह और रायकृष्णदास इसकी प्रेरणा में हैं। भारत भारती की इसी परम्परा का विकास माखनलाल चतुर्वेदी, नवीन जी, दिनकर जी, सुभद्राकुमारी चौहान, प्रसाद-निराला जैसे कवियों में हुआ।

प्रयोजन[संपादित करें]

गुप्त जी ने 'भारत भारती' क्यों लिखी, इसका उत्तर उन्होने स्वयं 'भारत भारती' की प्रस्तावना में दिया है-

यह बात मानी हुई है कि भारत की पूर्व और वर्तमान दशा में बड़ा भारी अन्तर है। अन्तर न कहकर इसे वैपरीत्य कहना चाहिए। एक वह समय था कि यह देश विद्या, कला-कौशल और सभ्यता में संसार का शिरोमणि था और एक यह समय है कि इन्हीं बातों का इसमें शोचनीय अभाव हो गया है। जो आर्य जाति कभी सारे संसार को शिक्षा देती थी वही आज पद-पद पर पराया मुँह ताक रही है! ठीक है, जिसका जैसा उत्थान, उसका वैसा हीं पतन! परन्तु क्या हम लोग सदा अवनति में हीं पड़े रहेंगे? हमारे देखते-देखते जंगली जातियाँ तक उठकर हमसे आगे बढ जाएँ और हम वैसे हीं पड़े रहेंगे? क्या हम लोग अपने मार्ग से यहाँ तक हट गए हैं कि अब उसे पा हीं नहीं सकते? संसार में ऐसा कोई काम नहीं जो सचमुच उद्योग से सिद्ध न हो सके। परन्तु उद्योग के लिए उत्साह की आवश्यकता होती है। इसी उत्साह को, इसी मानसिक वेग को उत्तेजित करने के लिए कविता एक उत्तम साधन है। परन्तु बड़े खेद की बात है कि हम लोगों के लिए हिन्दी में अभी तक इस ढंग की कोई कविता-पुस्तक नहीं लिखी गई जिसमें हमारी प्राचीन उन्नति और अर्वाचीन अवनति का वर्णन भी हो और भविष्य के लिए प्रोत्साहन भी। इस अभाव की पूर्त्ति के लिए मैंने इस पुस्तक के लिखने का साहस किया।

ग्रन्थ की संरचना[संपादित करें]

यह ग्रन्थ तीन भागों में बाँटा गया है - अतीत खण्ड, वर्तमान खण्ड तथा भविष्यत् खण्ड।

भारत-भारती का अतीत खण्ड भारतवर्ष के इतिहास पर गर्व करने को पूर्णतः विवश करता है। उस समय के दर्शन, धर्म-काल, प्राकृतिक संपदा, कला-कौशल, ज्ञान-विज्ञान, सामाजिक-व्यवस्था जैसे तत्त्वों को संक्षिप्त रूप से स्मरण करवाया गया है। अतिशयोक्ति से दूर इसकी सामग्री संलग्न दी गयी टीका-टिप्पणियों के प्रमाण के कारण सरलता से ग्राह्य हो जाती हैं। मेगस्थनीज से लेकर आर. सी. दत्त तक के कथनों को प्रासंगिक ढंग से पाठकों के समक्ष रखना एक कुशल नियोजन का सूचक है। निरपेक्षता का ध्यान रखते हुए निन्दा और प्रशंसा के प्रदर्शन हुए है, जैसे मुगल काल के कुछ क्रूर शासकों की निन्दा हुई है तो अकबर जैसे मुग़ल शासक का बखान भी हुआ है। आविष्कार और आधुनिकीकरण के प्रचार के कारण अंग्रेजों की प्रशंसा भी हुई है।

वर्तमान-खण्ड में दारिद्र्य, नैतिक पतन, अव्यवस्था और आपसी भेदभाव से जूझते उस समय के देश की दुर्दशा को दर्शाते हुए, सामाजिक नूतनता की माँग रखी गयी है। नैतिक और धार्मिक पतन के लिए गुप्तजी ने उपदेशकों, सन्त-महन्तों और ब्राह्मणों की निष्क्रियता और मिथ्या-व्यवहार को दोषी मान शब्द बाण चलाये हैं। इस प्रकार गुप्तजी की लेखनी सामाजिक दुर्दशा के मुख्य कारणों को खोज उनके सुधार की माँग करती है। हमारे सामाजिक उत्तरदायित्व की निष्क्रियता को उजागर करते हुए भी 'वर्तमान-खण्ड' आशा की गाँठ को बाँधे रखती है।

भविष्यत्-खण्ड में अपने ज्ञान, विवेक और विचारों की सीमा को छूते हुए गुप्तजी ने समस्या समाधान के हल खोजने और लोगों से उसके के लिए आवाहन करने का भरसक प्रयास किया है।


अतीत खण्ड का मंगलाचरण द्रष्टव्य है -

मानस भवन में आर्यजन जिसकी उतारें आरती-भगवान् ! भारतवर्ष में गूँजे हमारी भारती।हो भद्रभावोद्भाविनी वह भारती हे भवगते।सीतापते! सीतापते !! गीतामते! गीतामते !! ॥१॥

इसी प्रकार उपक्रमणिका भी अत्यन्त "सजीव" है-

हाँ, लेखनी ! हृत्पत्र पर लिखनी तुझे है यह कथा,दृक्कालिमा में डूबकर तैयार होकर सर्वथा ॥१॥स्वच्छन्दता से कर तुझे करने पड़ें प्रस्ताव जो,जग जायँ तेरी नोंक से सोये हुए हों भाव जो। ॥२॥संसार में किसका समय है एक सा रहता सदा,हैं निशि दिवा सी घूमती सर्वत्र विपदा-सम्पदा।जो आज एक अनाथ है, नरनाथ कल होता वही;जो आज उत्सव मग्न है, कल शोक से रोता वही ॥३॥

इस ग्रन्थ के अन्त की दो रचनाएँ 'शुभकामना' और 'विनय' गुप्तजी के देशभक्ति की परिचायक हैं। वह अमर लेखनी ईश्वर से प्रार्थना करती है-

इस देश को हे दीनबन्धो!आप फिर अपनाइए,भगवान्! भारतवर्ष को फिर पुण्य-भूमि बनाइये,जड़-तुल्य जीवन आज इसका विघ्न-बाधा पूर्ण है,हेरम्ब! अब अवलंब देकर विघ्नहर कहलाइए।

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

  • साकेत
  • जयद्रथ-वध

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]

  • भारत-भारती (भारतदर्शन)
  • भारत भारती (गूगल पुस्तक)
  • भारत का गौरवमय अतीत : भारत-भारती और मैथिलीशरण गुप्त (सृजनगाथा)
  • आर्य (भारत भारती) (कविता कोश)
  • राष्ट्रकवि व उनकी भारत भारती (जागरण)
  • भारतीय-संस्कृति का आख्यान ‘भारत-भारती’ (डॉ॰ राजकुमारी शर्मा)

भारत भारती का प्रकाशन काल क्या है?

'भारत-भारती', 'पंचवटी', 'जयद्रथ वध', 'साकेत', 'यशोधरा', 'द्वापर', 'कुणाल गीत', 'जयभारत', 'झंकार' और 'मंगलघट' आदि उनकी कृतियाँ है। उनकी प्रथम पुस्तक रंग में भंग का प्रकाशन संवत् 166 में हुआ। तत्पश्चात् 'भारत-भारती' का प्रकाशन हुआ जिसमें राष्ट्र गौरव की भावना कूट-कूटकर भरी हुई थी ।

भारत भारती किसकी काव्य ग्रंठ है?

मैथिलीशरण गुप्त जिस काव्य के कारण जनता के प्राणों में रच-बस गए और राष्ट्रकवि कहलाए, वह कृति भारत भारती है

भारत भारती की रचना का मूल उद्देश्य क्या है?

'भारत-भारती' नवजागरण की चेतना का काव्य है

भारत भारती की रचना कौन सी विधा है?

✔ (द) काव्य​ ✎... 'भारत-भारती' मैथिलीशरण गुप्त द्वारा रचित काव्य विधा की रचना है। 'भारत-भारती' राष्ट्र कवि मैथिली शरण गुप्त द्वारा रचित एक एक काव्य रचना है, इसकी रचना उन्होंने वर्ष 1912-13 में की थी।