अबुल फजल किसका दरबारी कवि था? - abul phajal kisaka darabaaree kavi tha?

इसे सुनेंरोकेंअबुल फजल का इतिहास लेखन – वह एक महान राजनेता, राजनायिक और सौन्य जनरल होने के साथ–साथ उसने अपनी पहचान एक लेखक के रूप ने भी वह भी इतिहास लेखक के रूप में बनाई। उसने इतिहास के परत-दर-परत को उजागर का लोगों के सामने लाने का प्रयास किया । खास कर उसका ख्याति तब और बढ़ जाती है जब उसने अकबरनामा और आईने अकबरी की रचना की।

अबू फजल की मृत्यु कैसे हुई?

इसे सुनेंरोकेंशराब से संबंधित समस्याओं के कारण 32 वर्ष की कम उम्र में उनकी मृत्यु हो गई।

फजल किसका दरबारी कवि था?

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इसे सुनेंरोकें१५८८ में वह अकबर का मलिक-उश-शु’आरा (विशेष कवि) बन गया था। फ़ैज़ी अबुल फजल का बड़ा भाई था। सम्राट अकबर ने उसे अपने बेटे के गणित शिक्षक के पद पर नियुक्त किया था। बाद में अकबर ने उसे अपने नवरत्नों में से एक चुना था।

शेख अबु अल-फ़ैज़ (२४ सितंबर १५४७, आगरा–५ अक्टूबर १५९५, आगरा[2]), प्रचलित नाम: फ़ैज़ी, मध्यकालीन भारत का फारसी कवि था। १५८८ में वह अकबर का मलिक-उश-शु‘आरा (विशेष कवि) बन गया था।[3] फ़ैज़ी अबुल फजल का बड़ा भाई था। सम्राट अकबर ने उसे अपने बेटे के गणित शिक्षक के पद पर नियुक्त किया था। बाद में अकबर ने उसे अपने नवरत्नों में से एक चुना था। फ़ैज़ी के पिता का नाम शेख मुबारक नागौरी था। ये सिंध के सिविस्तान, सहवान के निकट रेल नामक स्थान के एक सिन्धी शेख, शेख मूसा की पांचवीं पीढ़ी से थे।[3] इनका जन्म आगरा में ९५४ हि. (१५४७ ई.) में हुआ। पूरी शिक्षा अपने पिता से प्राप्त की। शेख मुबारक सुन्नी, शिया, महदवी सबसे सहानुभूति रखते थे। फ़ैज़ी तथा अबुल फ़ज़ल इसी दृष्टिकोण के कारण अकबर के राज्यकाल में सुलह कुल (धार्मिक सहिष्णुता) की नीति को स्पष्ट रूप दे सके। हुमायूँ के पुन: हिंदुस्तान का राज्य प्राप्त कर लेने पर ईरान के अनेक विद्वान भारत पहुँचे। वे शेख मुबारक के मदरसे, आगरा में भी आए। फैज़ी को उनके विचारों से अवगत होने का अवसर मिला।

९७४ हि. (१५६७ ई.) में फ़ैज़ी शाही दरबार के कवि बने, किंतु अभी तक धार्मिक विषयों पर अकबर ने स्वतंत्र रूप से निर्णय लेना प्रारंभ नहीं किया था, अत: दरबार के आलिमों के अत्याचार के कारण शेख मुबारक, फ़ैज़ी तथा अबुल फ़ज़ल को कुछ समय तक बड़े कष्ट भोगने पड़े। १५७४ ई. में अबुल फ़ज़ल भी दरबार में पहुँचे। उस समय से फ़ैज़ी की भी उन्नति होने लगी। १५७८ ई. में अकबर ने अपने पुत्र शाहज़ादे सलीम व मुराद की शिक्षा का भार उनको दिया। १५७९ ई. में अकबर ने फ़तहपुर की जामा मस्जिद में जो खुतबा पढ़ा उसकी रचना फ़ैज़ी ने की थी। हि. ९९० (१५८१) में इन्हें अकबर द्वारा आगरा, कालपी एवं कलिंजर का सदर नियुक्त किया गया। ११ फ़रवरी १५८९ ई. को उन्हें 'मलिकुश्शु अरा' (कविसम्राट्) की उपाधि प्रदान की गई। हि. ९९९ (अगस्त, १५९१ ई.) में उन्हें खानदेश के राजा अली खां एव अहमदनगर के बुरहानुलमुल्क के पास राजदूत बनाकर भेजा गया। १ वर्ष ८ माह १४ दिन के बाद वह दरबार में वापस पहुँचे। १० सफ़र, १००३ हि. (१५ अक्टूबर १५९५ ई.) को दक्खिन से वापस लौटने के कुछ वर्षोपरांत फ़ैज़ी को क्षय रोग अत्यधिक बढ़ जाने से आगरा में उनकी मृत्यु हो गई। पहले उन्हें आगरा में रामबाग में दफ़नाया गया, किन्तु बाद में सिकंदरा के निकट उनके मकबरे में दफ़नाया गया।[2]

कार्य

दक्षिण से जो पत्र उन्होंने अकबर के पास भेजे उन्हें उसके भानजे नूरुद्दीन मुहम्मद अब्दुल्लाह ने लतायफ़े फ़ैज़ी के नाम से संकलित कर दिया है। इन पत्रों से उस समय की सामाजिक एवं संस्कृतिक दशा का बड़ा अच्छा ज्ञान प्राप्त होता है तथा ईरान और तूरान के विद्वानों एवं अकबर द्वारा विद्वानों के प्रोत्साहन पर प्रकाश पड़ता है। १५९४ ई. में उसने निज़ामी गंजबी के खम्से (पाँच मसनवियों का संग्रह) के समान पाँच मसनवियों की रचना की योजना बनाई जिसमें निज़ामी के मखज़ने असरार के समान मरकज़े अदवार की और लैला मजनू के समान नल दमन (राजा नल तथा दमयन्ती की प्रेमकथा) की रचना समाप्त कर ली। नलदमन को उसने स्वयं उसी वर्ष अकबर को समर्पित किया। सिकंदरनामा के समान, अकबरनामा की रचना की योजना बनाई किंतु केवल गुजरात विजय पर कुछ शेर लिख सका। अमीर खुसरो और शीरीं के समान सुलेमान और विल्क़ीस तथा हफ्त पैकर के समान हफ्त किश्वर की रचना की भी उसने योजना बनाई थी किंतु उन्हें पूरा न कर सका। १००२ हि. (१५९३ ई.) में उसने कुरान की अरबी में एक टीका लिखी जिसमें केवल ऐसे शब्दों का प्रयोग किया है जिनके अक्षरों पर नुक्ते नहीं है। फैजी की गज़लों का संग्रह (दीवान) भी बड़ा महत्वपूर्ण है। उसके शेरों का लोहा ईरानवाले भी मानते हैं। उत्साह एवं स्वतंत्र दार्शनिक विचार, उसके शेरों की मुख्य विशेषता हैं। उसे धार्मिक संकीर्णता से बहुत घृणा थी और वह दरवेशों, फक़ीरों तथा संतों से आदरपूर्वक व्यवहार करता था। उसका पुस्तकालय बड़ा विशाल था। फ़ैज़ी ने भास्कराचार्य के गणित पर प्रसिद्ध संस्कृत ग्रन्थ, लीलावती का फारसी में अनुवाद किया। उसमें निहित प्रस्तावना के अनुसार यह कार्य हि. ९९५ (१५८७) में पूरा हुआ था।[4]

परिचय – अबुल फजल का पूरा नाम अबुल फजल इब्न मुबारक था। इसका संबंध अरब के हिजाजी परिवार से था। इसका जन्म 14 जनवरी 1551 में हुआ था। इसके पिता का नाम शेक मुबारक था। अबुल फजल ने अकबरनामा एवं आइने अकबरी जैसे प्रसिद्ध पुस्तक की रचना की। अबुल फजल अकबर के नवरत्नो में से एक रत्न थे। प्रारंभिक जीवन – अबुल फजल का पुरा परिवार देशांतरवास कर पहले ही सिंध आ चुका था। फिर हिन्दुस्तान के राजस्थान में अजमेर के पास नागौर में हमेशा के लिए बस गया। इसका जन्म आगरा में हुआ था। अबुल फजल बचपन से ही काफी प्रतिभाशाली बालक था। उसके पिता शेख मुबारक ने उसकी शिक्षा की अच्छी व्यवस्था की शीध्र ही वह एक गुढ़ और कुशल समीक्षक विद्वान की ख्याति अर्जित कर ली। 20 वर्ष की आयु में वह शिक्षक बन गया। 1573 ई. में उसका प्रवेश अकबर के दरबार में हुआ। वह असाधारण प्रतिभा, सतर्क निष्ठा और वफादारी के बल पर अकबर का चहेता बन गया। वह शीध्र अकबर का विश्वासी बन गया और शीध्र ही प्रधानमंत्री के ओहदे तक पहुँच गया। अबुल फजल इब्न का इतिहास लेखन – वह एक महान राजनेता, राजनायिक और सौन्य जनरल होने के साथ–साथ उसने अपनी पहचान एक लेखक के रूप ने भी वह भी इतिहास लेखक के रूप में बनाई। उसने इतिहास के परत-दर-परत को उजागर का लोगों के सामने लाने का प्रयास किया। खास कर उसका ख्याति तब और बढ़ जाती है जब उसने अकबरनामा और आईने अकबरी की रचना की। उसने भारतीय मुगलकालीन समाज और सभ्यता को इस पुस्तक के माध्यम से बड़े ही अच्छे तरीके से वर्णन किया है।

अबुल फजल किसका दरबारी था?

1573 ई. में उसका प्रवेश अकबर के दरबार में हुआ। वह असाधारण प्रतिभा, सतर्क निष्ठा और वफादारी के बल पर अकबर का चहेता बन गया।

अकबर के दरबारी इतिहासकार कौन था?

तीसरा मुग़ल बादशाह अकबर को उनके दरबारी इतिहासकार और जीवनी लेखक, अबुल फ़ज़ल, जो अकबर के दरबार के नौ रत्नों में से एक थे, द्वारा खुद से प्रमाणित किया गया था

अबुल फजल द्वारा अकबरनामा पूरा किया गया था?

अकबरनामा को अबुल फजल ने सात वर्ष में पूरा किया थाअबुल फजल ने 1589 में अकबरनामा लिखना शुरू किया था। इसे अबुल फजल ने 1589 और 1596 के बीच लिखा था। यह अकबर के शासनकाल का सबसे विस्तृत इतिहास है।

जहांगीर ने अबुल फजल को क्यों मारा?

अबुल फजल की मौत कहा जाता है कि जैसे-जैसे अबुल फजल अकबर के खास बनते जा रहे थे, वैसे-वैसे वह दूसरों की नजरों में खटकते जा रहे थे। खासकर शहजादा सलीम यानी जहांगीर उन्हें बिलकुल पंसद नहीं करता था। इतिहासकार बताते हैं कि 1602 ई. में सलीम ने वीरसिंह बुन्देला द्वारा अबुल फजल हत्या करवा दी।