जैन धर्म में कितने ग्रंथ है? - jain dharm mein kitane granth hai?

भारत बहुत बड़ा देश है। आर्य जाति की विविध शाखाओं ने भारत के विविध प्रदेशों में बस कर अनेक जनपदों का निर्माण किया था। शुरू में इनमें एक ही प्रकार का धर्म प्रचलित था। प्राचीन आर्य ईश्वर के रूप में एक सर्वोच्च शक्ति की पूजा किया करते थे। प्रकृति की भिन्न-भिन्न शक्तियों में ईश्वर के विभिन्न रूपों की कल्पना कर के देवताओं के रूप में उनकी भी उपासना करते थे। यज्ञ इन देवताओं की पूजा का क्रियात्मक रूप था। धीरे-धीरे यज्ञों का कर्मकाण्ड अधिकाधिक जटिल होता गया। याज्ञिक लोग विधि-विधानों और कर्मकाण्ड को ही स्वर्ग व मोक्ष की प्राप्ति का एकमात्र साधन समझने लगे। प्राचीन काल में यज्ञों का स्वरूप बहुत सरल था। बाद में पशुओं की बलि अग्निकुण्ड में दी जाने लगी। पशुओं की बलि पाकर अग्नि व अन्य देवता प्रसन्न व सन्तुष्ट होते हैं, और उससे मनुष्य स्वर्गलोक को प्राप्त कर सकता है, यह विश्वास प्रबल हो गया। इसके विरुद्ध अनेक विचारकों ने आवाज़ उठाई। यज्ञ एक ऐसी नौका के समान है, जो अदृढ़ है और जिस पर भरोसा नहीं किया जा सकता, यह विचार ज़ोर पकड़ने लगा। शूरसेन देश के सात्वत लोगों में जो भागवत-सम्प्रदाय महाभारत के समय से प्रचलित था, वह यज्ञों को विशेष महत्त्व नहीं देता था। वासुदेव कृष्ण इस मत के अन्यतम आचार्य थे। भागवत लोग वैदिक मर्यादाओं में विश्वास रखते थे, और यज्ञों को सर्वथा हेय नहीं मानते थे। पर याज्ञिक अनुष्ठानों का जो विकृत व जटिल रूप भारत के बहुसंख्यक जनपदों में प्रचलित था, उसके विरुद्ध अधिक उग्र आन्दोलनों का प्रारम्भ होना सर्वथा स्वाभाविक था। आर्यों में स्वतन्त्र विचार की प्रवृत्ति विद्यमान थी, और इसी का यह परिणाम हुआ कि छठी सदी ई० पू० में उत्तरी बिहार के गणराज्यों में अनेक ऐसे सुधारक उत्पन्न हुए, जिन्होंने यज्ञप्रधान वैदिक धर्म के विरुद्ध अधिक बल के साथ आन्दोलन किया, और धर्म का एक नया स्वरूप जनता के सम्मुख उपस्थित किया।

इन सुधारकों ने केवल याज्ञिक अनुष्ठानों के खिलाफ़ ही आवाज़ नहीं उठाई, अपितु वर्ण भेद का भी विरोध किया, जो छठी ई० पू० तक आर्यों में भली-भाँति विकसित हो गया था। आर्य-भिन्न जातियों के सम्पर्क में आने से आर्यों ने अपनी रक्तशुद्धता को कायम रखने के लिये जो अनेक व्यवस्थाएं की थीं, उनके कारण आर्य और दास (शूद्र) का भेद तो वैदिक युग से ही विद्यमान था। धीरे-धीरे आर्यों में भी वर्ण या जाति भेद का विकास हो गया था। याज्ञिक अनुष्ठानों के विशेषज्ञ होने के कारण ब्राह्मण लोग सर्वसाधारण ’आर्य विश:’ से अपने को ऊँचा समझने लगे थे। निरन्तर युद्धों में व्यापृत  रहने के कारण क्षत्रिय सैनिकों का भी एक ऐसा वर्ग विकसित हो गया था, जो अपने को सर्वसाधारण जनता से पृथक समझता था। ब्राह्मण और क्षत्रिय न केवल अन्य आर्यों से ऊँचे माने जाते थे, अपितु उन दोनों में भी कौन अधिक ऊँचा है, इस सम्बन्ध में भी वे मतभेद रखते थे। इस दशा में छठी सदी ई० पू० के इन सुधारकों ने जातिभेद और सामाजिक ऊँच-नीच के विरुद्ध भी आवाज़ उठाई, और यह प्रतिपादित किया कि कोई भी व्यक्ति अपने गुणों व कर्मों के कारण ही ऊँचा व सम्मानयोग्य होता है, किसी कुल-विशेष में उत्पन्न होने के कारण नहीं।

यहाँ यह भी ध्यान में रखना चाहिये कि उत्तरी बिहार के जिन राजगण्यों में इस धार्मिक सुधार का प्रारम्भ हुआ, उनके निवासियों में आर्यभिन्न जातियों के लोग बड़ी संख्या में विद्यमान थे। वहाँ के क्षत्रिय भी शुद्ध आर्य-रक्त के न होकर व्रात्य क्षत्रिय थे। सम्भवत: छठी सदी ई०पू० से पहले भी उनमें वैदिक मर्यादा का सर्वांश में पालन नहीं होता था। ज्ञातृक गण में उत्पन्न हुए वर्धमान महावीर ने जिस नये जैन धर्म का प्रारम्भ किया, उससे पूर्व भी इस धर्म के अनेक तीर्थंकर व आचार्य हो चुके थे। इन जैन तीर्थंकरों के धर्म में न याज्ञिक अनुष्ठानों का स्थान था, और न ही वेदों के प्रामाण्य का। वसु चैद्योपरिचर के समय में प्राच्य भारत में याज्ञिक कर्म-काण्ड के सम्बन्ध में स्वतन्त्र विचार की जो प्रवृत्ति शुरू हुई थी, शायद उसी के कारण उत्तरी बिहार के इस धर्म ने वैदिक मान्यताओं की सर्वथा उपेक्षा कर दी थी।

जैन-धर्म का प्रादुर्भाव: छठी सदी ई० पू० के लगभग भारत में जो नये धार्मिक आन्दोलन प्रारम्भ हुए, उनमें दो प्रधान हैं: (१) जैन धर्म, और (२) बौद्ध धर्म।

जैन लोगों के अनुसार उनके धर्म का प्रारम्भ बौद्ध काल में महावीर स्वामी द्वारा नहीं हुआ था। वे अपने धर्म को सृष्टि के समान ही अनादि मानते हैं। उनके मतानुसार वर्धमान महावीर जैन धर्म का अन्तिम तीर्थंकर था। उनसे पहले २३ अन्य तीर्थंकर हो चुके थे। पहला तीर्थंकर राजा ऋषभ था। वह जम्बूद्वीप का प्रथम चक्रवर्ती सम्राट था, और वृद्धावस्था में अपने पुत्र भरत को राज्य देकर स्वयं तीर्थंकर हो गया था। यहाँ यह सम्भव नहीं है, हम सब तीर्थंकरों के सम्बन्ध में लिख सकें, यद्यपि जैन ग्रन्थों में उनके विषय में अनेक कथाएँ उल्लिखित हैं। पर तेईसवें तीर्थंकर पार्श्व का कुछ विवरण इस इतिहास के लिये उपयोगी होगा।

तीर्थंकर पाश्र्वमहावीर स्वामी के प्रादुर्भाव से २५० वर्ष पूर्व तीर्थंकर पार्श्व का समय है। वह बनारस के राजा अश्वसेन का पुत्र था। उसका प्रारम्भिक जीवन एक राजकुमार के रूप में व्यतीत हुआ। युवावस्था में उसका विवाह कुशस्थल देश की राजकुमारी प्रभावती के साथ हुआ। तीस वर्ष की आयु में राजा पार्श्वनाथ को वैराग्य हुआ, और उसने राजपाट छोड़कर तापस का जीवन स्वीकृत किया। तिरासी दिन तक वह घोर तपस्या करता रहा। घोर तपस्या के अनन्तर चौरासीवें दिन पार्श्वनाथ को ज्ञान प्राप्त हुआ, और उसने अपने ज्ञान का प्रचार करना आरम्भ किया। उसकी माता और धर्मपत्नी सबसे पहले उसके धर्म में दीक्षित हुई। सत्तर वर्ष तक पार्श्वनाथ निरंतर अपने धर्म का प्रचार करता रहा। अन्त में पूरे सौ साल की आयु में एक पर्वत की चोटी पर, जो कि अब पार्श्वनाथ-पर्वत के नाम से प्रसिद्ध है, उसने मोक्ष पद को प्राप्त किया। पार्श्वनाथ के जीवन की ये ही थोड़ी-सी बाते हैं, जो जैन ग्रन्थों के अनुशीलन से एकत्रित की जा सकती है।

वर्तमान महावीर: वज्जि राज्य-संघ के अन्तर्गत ज्ञातृक गण में महावीर उत्पन्न हुए थे। ज्ञातृक लोगों के प्रमुख राजा का नाम सिद्धार्थ था। सिद्धार्थ का विवाह वैशालिक राजकुमारी त्रिशला के साथ हुआ था। त्रिशला लिच्छिवि राजकुमारी थी, और लिच्छवियों के प्रमुख राजा चेटक की बहन थी। इसी चेटक की कन्या का मगध के प्रसिद्ध सम्राट बिम्बिसार के साथ विवाह हुआ था, जिससे कि अजातशत्रु उत्पन्न हुआ था। ज्ञातृक राजा सिद्धार्थ और लिच्छिवि कुमारी त्रिशला के तीन सन्तानें हुईं,एक कन्या और दो पुत्र। छोटे लड़के का नाम वर्धमान रखा गया। यही आगे चलकर महावीर बना।

इस बालक का जन्म का नाम वर्धमान था। वीर,महावीर,जिन,अर्हत,भगवत आदि भी उसके नाम के रूप में जैन-ग्रन्थों में आते हैं, पर ये उसके विशेषण मात्र हैं।

वर्धमान का बाल्य-जीवन राजकुमारों की तरह व्यतीत हुआ। वह एक समृद्ध क्षत्रिय सरदार का पुत्र था। वज्जि राज्य-संघ में कोई वंशक्रमानुगत राजा नहीं होता था, वहाँ ग्णतंत्र शासन प्रचलित था। परन्तु विविध क्षत्रिय घरानों के बड़े-बड़े कुलीन सरदारों का-जो कि ’राजा’कहलाते थे—स्वाभाविक रूप से इस गणराज्य में प्रभुत्व था। वर्धमान का पिता सिद्धार्थ भी इन्हीं राजाओं’ में से एक था। वर्धमान को छोटी आयु से ही शिक्षा देनी प्रारम्भ की गई। शीघ्र ही वह सब विद्याओं और शिल्पों में निपुण हो गया। अपने पूर्वजन्म के संस्कारों की प्रबलता के कारण उसे विद्या-प्राप्ति में ज़रा भी परिश्रम नहीं करना पड़ा। वर्धमान की बाल्यावस्था के सम्बन्ध में बहुत-सी कथाएँ जैन-ग्रन्थों में लिखी हैं। ये कथाएँ उसके अद्भुत पराक्रम,बुद्धि तथा बल को सूचित करती हैं। उचित आयु में वर्धमान का विवाह यशोदा नामक कुमारी के साथ किया गया। उनके एक कन्या भी उत्पन्न हुई। आगे चलकर जमालि नामक क्षत्रिय के साथ इसका विवाह हुआ जो कि वर्धमान महावीर के प्रधान शिष्यों में से एक था।

यद्यपि वर्धमान का प्रारम्भिक जीवन साधारण गृहस्थ के समान व्यतीत हुआ पर उसकी प्रवृत्ति सांसारिक जीवन की ओर नहीं थी। वह ’प्रेय’मार्ग को छोड़कर ’श्रेय’मार्ग की ओर जाना चाहता था। जब वर्धमान तीस वर्ष की आयु के थे तो उनके पिता की मृत्यु हो गई। ज्ञातृक लोगों का राजा अब सिद्धार्थ का ज्येष्ठ पुत्र नन्दिवर्धन बना। वर्धमान की प्रवृत्ति पहले ही वैराग्य की ओर थी। अब पिता की मृत्यु के अनन्तर उन्होंने सांसारिक जीवन को त्यागकर भिक्षु बनना निश्चित किया। नन्दिवर्धन तथा अन्य निकट सम्बन्धियों से अनुमति ले वर्धमान ने घर का परित्याग कर दिया। उसके परिवार के लोग पहले से ही पार्श्वनाथ द्वारा प्रतिपादित जैन-धर्म के अनुयायी थे, अत: वर्धमान ने स्वाभाविक रूप से जैन-भिक्षुओं की तरह अपने केशश्मश्रु का परित्याग कर तपस्या करनी आरम्भ कर दी। आचारांग सूत्र में इस तपस्या का बड़ा सुन्दर वर्णन किया गया है। हम उसमें से कुछ बातें यहाँ उद्धृत करेंगे:–वर्धमान ने भिक्षु बनते समय जो कपड़े पहने हुए थे,वे तेरस मास में बिल्कुल जर्जरित हो गये और फटकर स्वयं शरीर से उतर गये। उसके बाद उसने फिर वस्त्रों को धारण नहीं किया। वह छोटे बच्चे के समान नग्न ही विचरण करने लगा। जब वह समाधि लगाकर बैठा हुआ था तो नानाविध जीव-जन्तु उसके शरीर पर चलने-फिरने लगे। उन्होंने उसे अनेक प्रकार से काट लिया परन्तु वर्धमान ने इसकी ज़रा भी परवाह नहीं की। जब वह ध्यान-मग्न हुआ इधर-उधर परिभ्रमण करता था तो लोग उसे चारों ओर से घेर लेते थे, वे उसे मारते थे,शोर मचाते थे पर इसका ज़रा भी ख्याल नहीं करता था। जब कोई उससे पूछता था तो वह जवाब नहीं देता था। जब लोग उसे प्रणाम करते थे तब वह प्रणाम का भी उत्तर नहीं देता था। बहुत से दुष्ट उसे डण्डों से पीटते थे परन्तु उसे इसकी ज़रा भी परवाह नहीं थी। बारह वर्ष तक घोर तपस्या कर अन्त में तेरहवें वर्ष में वर्धमान महावीर को अपनी तपस्या का फल प्राप्त हुआ। उन्हें पूर्ण सत्य ज्ञान की उपलब्धि हुई और उन्होंने ’केवलिन’ पद प्राप्त कर लिया।

जिस समय मनुष्य संसार के संसर्ग से सर्वथा मुक्त हो जाता है, सुख-दु:ख के अनुभव से वह ऊपर उठ जाता है, वह अपने को अन्य सब वस्तुओं से प्रथक ’केवलरूप’ समझने लगता है, तब यह ’केवलिन’ की दशा आती है। वर्धमान महावीर ने इस दशा को पहुँच कर बारह वर्ष के तपस्या काल में जो सत्य-ज्ञान प्राप्त किया था, उसका प्रचार करना प्रारम्भ किया। महावीर की ख्याति शीघ्र ही दूर-दूर तक पहुँच गई। अनेक लोग उनके शिष्य होने लगे। महावीर ने इस समय जिस सम्प्रदाय की स्थापना की, उसे ’निर्ग्रन्थ’ नाम से कहा जाता है, जिसका अभिप्राय ’बन्धनों से मुक्त’ लोगों के सम्प्रदाय से है। महावीर के शिष्य भिक्षु लोग ’निर्ग्रन्थ’ या निगन्थकहलाते थे। इन्हें ’जैन’ भी कहा जाता था, क्योंकि ये ’जिन’ (वर्धमान को केवलिन-पद प्राप्त करने के पश्चात वीर, महावीर, जिन, अर्हत आदि सम्मानसूचक शब्दों से कहा जाता था) के अनुयायी होते थे। निर्ग्रन्थ महावीर के विरोधी इन्हें प्राय: ’निर्ग्रन्थ ज्ञातृपुत्र’ (निगन्थ नाट्पुत्त) के नाम से पुकारते थे। ज्ञातृपुत्र उन्हें इसलिये कहा जाता था, क्योंकि वे ज्ञातृक-जाति के क्षत्रिय थे।

वर्धमान महावीर ने किस प्रकार अपने धर्म का प्रचार किया, इस सम्बन्ध में भी अनेक बातें प्राचीन जैन-ग्रन्थों से ज्ञात होती हैं। महावीर का शिष्य गौतम इन्द्रभूति था। जैन-धर्म के इतिहास में इस गौतम इन्द्रभूति का भी बड़ा महत्त्व है। आगे चलकर इसने भी ’केवलिन’ पद को प्राप्त किया। महावीर का यह ढंग था, कि वह किसी एक स्थान को केन्द्र बना कर अपना कार्य नहीं करते थे, अपितु अपनी शिष्य-मंडली के साथ एक स्थान से दूसरे स्थान पर भ्रमण करते हुए अपने धर्म-सन्देश को जनता तक पहुँचाने का उद्योग करते थे। स्वाभाविक रूप से सबसे पूर्व उन्होंने अपनी जाति के लोगों-ज्ञातृक क्षत्रियों में ही अपनी शिक्षाओं का प्रसार किया। वे शीघ्र ही उसके अनुयायी हो गये। उसके बाद लिच्छवि तथा विदेह-राज्यों में प्रचार कर महावीर ने राजगृह (मगध की राजधानी) की ओर प्रस्थान किया। वहाँ उस समय प्रसिद्ध सम्राट श्रेणिक राज्य करता था। जैन-ग्रन्थों के अनुसार श्रेणिक महावीर के उपदेशों से बहुत प्रभावित हुआ, और उसने अपनी सम्पूर्ण सेना के साथ महावीर का बड़े समारोह से स्वागत किया।

अपनी आयु के ७२वें वर्ष में महावीर स्वामी की मृत्यु हुई। मृत्यु के समय महावीर राजगृह के समीप पावा नामक नगर में विराजमान थे। यह स्थान इस समय भी जैन लोगों का बड़ा तीर्थ है। वर्तमान समय में इसका दूसरा नाम पोखरपुर है, और यह स्थान बिहार शरीफ़ स्टेशन से ६ मील की दूरी पर स्थित है।

जैन धर्म में कितने ग्रंथ है? - jain dharm mein kitane granth hai?

महात्मा बुद्ध: उत्तरी बिहार में एक जनपद था, जिसका नाम शाक्य गण था। इसकी राजधानी कपिलवस्तु थी। वहाँ केगणराजा का नाम शुद्धोदन था। इनकी पत्नी का नाम था माया। इन्हीं के घर कुमार सिद्धार्थ का जन्म हुआ, जोआगे चलकर महात्मा बुद्ध के नाम से प्रसिद्ध हुए। सिद्धार्थ का दूसरा नाम गौतम था, यह नाम सम्भवत: गौतमगोत्र के कारण था। जन्म के एक सप्ताह बाद ही कुमार सिद्धार्थ की माता का देहान्त हो गया। माया की बहिन महाप्रजावती थी। सिद्धार्थ का उसी ने पालन किया।

कपिलवस्तु का शाक्यगण वज्जिसंघ के समान शक्तिशाली नहीं था। पर क्षत्रियों के लिए उचित वीरता की शाक्यों में कमी नहीं थी। शाक्य कुमारों की शिक्षा में उस समय शारीरिक उन्नति की ओर अधिक ध्यान दिया जाता था। सिद्धार्थ को भी इसी प्रकार की शिक्षा दी गई। तीरन्दाज़ी, घुड़सवारी और मल्लविद्या में उसे बहुत प्रवीण बनाया गया। उस युग में पड़ोस के राजा गणराज्यों पर आक्रमण कर उन्हें अपने अधीन करने में लगे हुए थे। कोशल राज्य के कई हमले शाक्यों पर हो चुके थे। अत: यह स्वाभाविक था, कि शाक्य-कुमारों को वीर और पराक्रमी बनने की शिक्षा दी जाय। सिद्धार्थ का बाल्यकाल बड़े सुख और ऐश्वर्य से व्यतीत हुआ। सरदी, गरमी और वर्षा इन ऋतुओं में उसके निवास के लिए अलग-अलग महल बने हुए थे। इनमें ऋतु के अनुसार ऐश्वर्य तथा भोग-विलास के सब सामान एकत्र किये गये थे। सिद्धार्थ एक सम्पन्न शाक्य राजा का पुत्र था। उसके पिता की इच्छा थी, कि सिद्धार्थ भी शाक्यगण में खूब प्रतिष्ठित तथा उन्नत स्थान प्राप्त करे।

युवा होने पर सिद्धार्थ का विवाह यशोधरा नाम की कुमारी के साथ किया गया। विवाह के अनन्तर सिद्धार्थ का जीवन बड़े आनन्द के साथ व्यतीत होने लगा। सुख-ऐश्वर्य की उन्हें कमी ही क्या थी? कुछ समय बाद उन्हें एक पुत्र उत्पन्न हुआ, जिसका नाम राहुल रखा गया।

एक बार की बात है कि कुमार सिद्धार्थ कपिलवस्तु का अवलोकन करने के लिए निकले। उस दिन नगर को खूब सजाया गया था। कुमार सिद्धार्थ नगर की शोभा को देखता हुआ चला जा रहा था, कि उसका ध्यान सड़क के एक ओर लेटे हुए एक बीमार की ओर गया जो अन्तिम श्वास ले रहा था। सारथि ने पूछने पर बताया कि यह एक बीमार है, जो कष्ट के कारण भूमि पर पड़ा हुआ तड़प रहा है, और थोड़ी देर में इसका देहान्त हो जाएगा। ऐसी घटना सभी आदमी देखते हैं, पर सिद्धार्थ पर इसका गहरा प्रभाव पड़ा। इसके बाद उसे क्रमश: लाठी टेककर जाता हुआ एक बूढ़ा, श्मशान की ओर जाती हुई एक अरथी और एक शान्तमुख संन्यासी दिखाई दिये। पहले तीनों दृश्यों को देखकर सिद्धार्थ का दबा हुआ वैराग्य एकदम प्रबल हो गया। उसे भोग-विलासमय जीवन अत्यन्त तुच्छ और क्षणिक जान पड़ने लगा। संन्यासी को देखकर उसमें भी उमंग जगी, कि मैं भी इसी प्रकार संसार से विरक्त हो जाऊँ।

सिद्धार्थ को वैरागी-सा होता देखकर शुद्धोदन को बड़ी चिन्ता हुई। उसने संसार के तीव्र विलासों द्वारा सिद्धार्थ का वैराग्य दबाने का प्रयत्न किया। एक रात सिद्धार्थ को सुन्दरी वेश्याओं के बीच में अकेला छोड़ दिया गया। नवयुवती वेश्याएँ नाना-प्रकार के हाव-भाव, नाच व गान द्वारा उसे रिझाने का प्रयत्न करने लगीं। सिद्धार्थ उदासीन भाव से स्थिरदृष्टि होकर वहाँ बैठा रहा। कुछ समय में उसे नींद आ गई। रंग न जमने के कारण वेश्याओं को भी नींद सताने लगी। वे सब वहीं सो गई। जब आधी रात को सिद्धार्थ की नींद अचानक टूटी, तब उसने देखा कि कुछ समय पूर्व जो नवयुवतियाँ सचमुच सौन्दर्य का अवतार-सी प्रतीत हो रही थीं, उनकी ओर अब आँख उठाने से भी ग्लानि होती थी। किसी के बाल अस्तव्यस्त थे, किसी का भयंकर स्वप्न देखने के कारण मुख विकृत हो गया था। किसी के शरीर से वस्त्र उतर गया था थोड़ी देर तक इस दृश्य को देखकर सिद्धार्थ वहाँ से अपने शयनागार में चला गया। इस दृश्य ने सिद्धार्थ के कोमल हृदय को वैराग्य की तरफ़ और भी प्रेरित कर दिया। उसने संसार का परित्याग कर संन्यास ले लेने का दृढ़ संकल्प कर लिया।

एक दिन अँधेरी रात को कुमार सिद्धार्थ घर से निकल गया। शयनागार से बाहर आकर जब वह सदा के लिए अपने छोटे से परिवार से विदा होने लगा, तो उसे अपने प्रिय अबोध बालक राहुल और प्रियतमा यशोधरा की स्मृति सताने लगी। वह पुन: अपने शयनागार में प्रविष्ट हुआ। यशोधरा सुख की नींद सो रही थी। राहुल माता की छाती से सटा सो रहा था। कुछ देर तक सिद्धार्थ इस अनुपम दृश्य को एकटक देखता रहा। उसके हृदय पर दुर्बलता प्रभाव करने लगी। पर अगले ही क्षण अपने हृदय के निर्बल भावों को एक साथ परे ढकेल कर वह बाहर चला गया। गृह-त्याग के समय उसकी आयु २९ वर्ष की थी।

प्रात: काल हो जाने पर सिद्धार्थ ने अपने घोड़ों को भी छोड़ दिया। घोड़ा स्वयं अपने घर लौट आया। सिद्धार्थ ने अपने राजसी कपड़े एक साधारण किसान के साथ बदल लिये थे। प्रात:काल शुद्धोदन ने सिद्धार्थ को ढूँढने के लिये अपने अनुचरों को भेजा, पर साधारण किसान के पहने हुए कुमार को वे नहीं पहचान सके। सिद्धार्थ निश्चिन्त होकर अपने मार्ग पर अग्रसर हुआ।

इसके बाद लगभग सात साल तक सिद्धार्थ ज्ञान और सत्य की खोज में इधर-उधर भटकता रहा। शुरू-शुरू में उसने दो तपस्वियों को अपना गुरू धारण किया। इन्होंने उसे मोक्ष प्राप्ति के लिए खूब तपस्या करवाई। शरीर की सब क्रियाओं को बन्द कर घोर तपस्या करना ही इनकी दृष्टि में मोक्ष का उपाय था। सिद्धार्थ ने घोर तपस्याएँ कीं। शरीर को तरह-तरह से कष्ट दिए। पर इन साधानों से उसे आत्मिक शान्ति नहीं मिली। उसने यह मार्ग छोड़ दिया।

मगध का भ्रमण करता हुआ सिद्धार्थ उरुवेला पहुँचा। यहाँ के मनोहर प्राकृतिक दृश्यों ने उसके हृदय पर बड़ा प्रभाव डाला। इस प्रदेश के निस्तब्ध और सुंदर जंगलों और मधुर शब्द करने वाले स्वच्छ जल के झरनों को देखकर उसका चित्त बहुत प्रसन्न हुआ। उरुवेला के इन जंगलों में सिद्धार्थ ने फिर तपस्या प्रारम्भ की। यहाँ पाँच अन्य तपस्वियों से भी उसकी भेंट हुई। ये भी कठोर तप द्वारा मोक्ष प्राप्ति में विश्वास रखते थे। सिद्धार्थ लगातार पद्मासन लगाकर बैठा रहता। भोजन तथा जल का उसने सर्वथा परित्याग कर दिया। इस कठोर तपस्या सेउसका शरीर निर्जीव सा हो गया। पर फिर भी उसे सन्तोष नहीं हुआ। उसने अनुभव किया कि उसकी आत्मा वहीं पर है, जहाँ पहले थी। इतनी घोर तपस्या के बाद भी उसे आत्मिक उन्नति के कोई चिन्ह दिखाई नहीं दिये। उसे विश्वास हो गया, कि शरीर को जान-बूझकर कष्ट देने से मोक्ष प्राप्त नहीं हो सकता। सिद्धार्थ ने तपस्या के मार्ग का परित्याग कर फिर से अन्न ग्रहण करना प्रारम्भ कर दिया। उसके साथी तपस्वियों ने समझा, कि सिद्धार्थ मार्ग-भ्रष्ट हो गया है, और अपने उद्देश्य से च्युत हो गया है। उन्होंने उसका साथ छोड़ दिया और अब सिद्धार्थ फिर अकेला ही रह गया। तपस्या के मार्ग से निराश होकर सिद्धार्थ उस स्थान पर पहुँचा जहाँ वर्तमान समय में बोधगया है। वहाँ एक विशाल पीपल का वृक्ष था। थक कर सिद्धार्थ उसकी छाया में बैठ गया। इतने दिनों तक वह सत्य को ढूँढने के लिए अनेक मार्गों को ग्रहण कर चुका था। अब उसने अपने अनुभवों पर विचार करना प्रारम्भ किया। सात दिन और सात रात वह एक ही जगह पर ध्यानमग्न दशा में बैठा रहा। अन्त में उसे बोध हुआ। उसे अपने हृदय में एक प्रकार का प्रकाश सा जान पड़ा। उसकी आत्मा में एक दिव्य ज्योति का आविर्भाव हुआ। उसकी साधना सफल हुई। वह अज्ञान से ज्ञान की दशा को प्राप्त हो गया। इस बोध या सत्य ज्ञान के कारण वह सिद्धार्थ से ’बुद्ध’ बन गया। बौद्धों की दृष्टि में इस पीपल के वृक्ष का बड़ा महत्त्व है। यही बोधिवृक्ष कहलाता है। इसी के कारण समीपवर्ती नगरी गया भी ’बोधगया’ कहलाती है। इस वृक्ष के नीचे ध्यानमग्न दशा में जो बोधकुमार सिद्धार्थ को हुआ था, वही “बौद्ध-धर्म” है। महात्मा बुद्ध उसे आर्यमार्ग व मध्यमार्ग कहते थे। इसके बाद सिद्धार्थ व बुद्ध ने अपना सम्पूर्ण जीवन इसी आर्य मार्ग का प्रचार करने में लगा दिया।

बौद्ध-साहित्य में सिद्धार्थ की इस ज्ञान-प्राप्ति की दशा का बड़ा विस्तृत और अतिरंजित वर्णन किया गया है। इसके अनुसार ज्ञान-प्राप्ति के अवसर पर मार (कामदेव) आदि राक्षसों ने अपनी सेना सहित सिद्धार्थ पर चढ़ाई की। उसके सामने नाना प्रकार के प्रलोभन व कँपा देने वाले भय उपस्थित किये गये। पर सिद्धार्थ ने इन सब पर विजय पायी। सम्भवत:, ये वर्णन महात्मा बुद्ध के हृदय के अच्छे-बुरे भावों के संघर्ष को चित्रित करने के लिए किये गए थे। बुद्ध ने अपने हृदय में विद्यमान बुरे भावों पर विजय प्राप्त की, और सत्य-ज्ञान द्वारा धर्म के आर्य मार्ग का ग्रहण किया।

शब्दार्थ

  • अग्रसर अग्रगामी 
  • अनुचर साथी 
  • अबोध नासमझ 
  • अरर्थी टिकठी 
  • अवलोकन अनुसंधान 
  • एकटक बिना पलक गिरे या गिराये 
  • ऐश्वर्य धन, वैभव 
  • उमंग उल्लास 
  • कुल घराना, वंश 
  • ग्लानि थकावट 
  • ज्योति प्रकाश 
  • जर्जरित टूटाफूटा 
  • ढकेलना धक्का दे कर आगे बढ़ाना  
  • तड़पना छटपटाना 
  • तीरन्दाज़ी तीर चलाने की क्रिया या विद्या 
  • तुच्छ क्षुद्र 
  • नानाविध नाना + विविध 
  • निस्तब्ध जो हिलता डुलता न हो 
  • भोगविलास शारीरिक या इंद्रिय जन्य सुखों का अधिक भोग 
  • मल्लविद्या पहलवान बनना 
  • विरक्त उदासीन 
  • संसर्ग संपर्क 
  • समाधि योग का अंतिम अंग मन को ब्रह्म पर केंद्रित करना; तपस्या

_______________

*प्रेय = सांसरिक सुख; श्रेय + मुक्ति

*केवलिन = केवल ज्ञान वाला, मुक्ति का अधिकारी, साधु

*केवलरूप = सम्यक ज्ञान

*व्रात्य = मगध के निवासियों; दस संस्कार के बिना व्यक्ति

अभ्यास

मौखिक:

1. नये धार्मिक आंदलनों की उत्पत्ति के लिये मुख्य कारण क्या है?

2. उत्तरी बिहार में धार्मिक सुधार का प्रारम्भ होना क्यों स्वाभाविक था?

3. जैनधर्म के प्रादुर्भाव के बारे में क्या जानते हैं?

4. वर्धमान महावीर के जीवन का परिचय दस वाक्यों में दीजिये।

5. सिद्धार्थ गौतम ने क्यों यह फ़ैसला किया कि मैं भी इसी प्रकार संसार से विरक्त हो जाऊँ?

लिखित :

1. निम्नलिखित शब्दों के संज्ञा रूप लिखिये :

  • संतुष्ट –            
  • एकत्रित
  • संभव                        
  • उदधृत

2. नीचे लिखे शब्दों के निकटतम विपरीतार्थक शब्द पाठ से चुनिये:

  • ________ =/ बिगाड़, विकार, दूषण
  • ________ =/ अपकर्ष, अवनति, अधोगति, पतन
  • ________ =/ तरतंत्र, पराधीन, परवश, गुलाम

3. नीचे लिखें शब्दों के पर्यायवाची शब्द पाठ में से चुन कर लिखिये :

  • ________ =/ परिष्कार, संस्कार, मार्जन ; संशोधन
  • ________ =/ प्रस्तुत, मौजूद, हाज़िर, उपस्थित
  • ________ =/ तालमेल, सामंजस्य, संयोग, संश्र्लेषण
  • ________ =/ धनी, धनवान, संपन्न, संपत्ति, संपत्तिशाली, मालदार, दौलतमंद
  • ________ =/ सहज, नैसर्गिक, प्राकृतिक, कुदरती
  • ________ =/ स्वभाव, वृत्ति, मनोवृत्ति, आदत, मिजाज, चरित्र, चालचलन
  • ________ =/ मौत, मरण, अंत, निधन, प्राणन्त ; देहावसान, देहान्त, स्वर्गवास, इन्तकाल
  • ________ =/ नमन, नमस्कार, अभिवादन, सलाम, सिर झुकाना, हाथ जोड़ना
  • ________ =/ घूमना, यात्रा, पर्यटन ; परिक्रमा, चक्कर काटना, फेरे लगाना ; सैर सपाटा
  • ________ =/ सृष्टि, संसृति, सर्ग, जग, जगत, लोक, विश्व, दुनिया, ख़ल्क ; ब्रह्मांड, भुवन
  • ________ =/ प्रचंड, उत्कट/प्रखर, तीक्षण, तीव्र ; प्रबल, सशक्त, अदम्य, दुर्दम ; तेज,             जोरदार, ज़बरदस्त

4. दुष्ट, शीघ्रशब्दों के कुछ पर्यायवाची शब्द याद करके लिखिये।

5. आपके अनुसार क्या बौद्ध और जैन ध्रर्म के तादुर्भाव में समानता है? 

6. छठी शताब्दी की मुख्य सांस्कृतिक तथा सामाजिक विशेषताएँ स्पष्ट कीजिये। 

सूक्ष्म अन्तरवाले पर्यायवाची शब्द

आचार, व्यवहार: आचार से चरित्र का बोध होता है। शरीर आदि की पवित्रता को भी आचार कहते हैं। व्यवहार से समाज के व्यक्तियों के साथ सम्पर्क का बोध होता है। आचार अपने लिये और व्यवहार दूसरों के लिये होता है। आज कल के पढ़ेलिखे लोग बहुधा आचार हीन होते हैं। जीवन में व्यक्तिगत आचार का महत्त्व अत्याधिक है। जो लोग व्यवहार में कुशल होते हैं, वे ही लोकप्रिय होते हैं। केवल विद्वान होने से काम नहीं चलता, मनुष्य को व्यवहार भी जानना चाहिये।

आनन्द, उल्लास, हर्ष, प्रसन्नता, खुशी: आनन्द बहुत ही व्यापक अर्थों में प्रयुक्त होता है। रुपया मिलने पर आनन्द होता है, पुत्र जन्म का समाचार सुन कर आनन्द होता है, भक्तों को भगवान के भजन में आनंद मिलता है, योगी ब्रह्मानन्द में रहते हैं। आनन्द में सात्विक भाव रहता है। उल्लास में उत्साह का भाव रहता है। विजय का उल्लास रहता है, सफ़लता का उल्लास होता है, रणयात्रा के समय सैनिकों में उल्लास रहता है। हर्ष साधारण और क्षणिक आनन्द के अर्थ में आता है। हर्ष राजस और तपस भी हो सकता है। आनन्द में हर्ष की अपेक्षा अधिक स्थायित्व होता है। वास्तव में, सात्विक आनंद शाश्वत होता है। मित्र से मिलने पर हर्ष होता है। खोई पुस्तक मिल जाने पर हर्ष होता है।मुकदमे में जीत होने पर हर्ष होता है। शत्रु के नाश पर हर्ष होता है। दुष्टों को किसी का अनिष्ट करके हर्ष होता है। ईर्ष्यालु मनुष्यों को अपने पड़ोसी के विपत्ति में फ़ँसने पर हर्ष होता है। भगवान की मूर्ति देखकर भक्तों को आनन्द की सात्विकता होती है, किन्तु हर्ष की तरह साधारणता है। मित्र से मिलकर प्रसन्नता होती है, पड़ोसी के निरोग होने पर प्रसन्नता होती है। खुशी व्यापक अर्थों में प्रयुक्त होता है, सात्विक आनन्द के अर्थ में इसका प्रयोग नहीं होता। साधारणताः पर हर्ष और प्रसन्नता के अर्थ में आता है।

इच्छा, कामना, लालसा, संकल्पइच्छा प्रयोग साधारण अर्थ में होता है। किसी भी बात की इच्छा हो सकती है। मिठाई खाने की, अपने मित्र को देखने की, बाज़ार जाने की, कपड़े खरीदने की, विद्वान बनने की और भगवान के दर्शनों की इच्छा होती है। विशेष इच्छा को कामना कहते हैं। किसी को पुत्र की, किसी को धन की और किसी को स्वास्थय की कामना होती है। लालसा भी कामना के ही अर्थ में ही प्रयुक्त होता है। कभी कभी लालसा से कामना की अपेक्षा तीव्रता का बोध होता है। भगवान के दर्शनों की लालसा भक्तों को दूर दूर से खींच लाती है। संकल्प दृढ़ इच्छा को कहते हैं। यह पक्का इरादाके अर्थ में प्रयुक्त होता है। राम ने सत्विक जीवन व्यतीत करने का संकल्प किया। अच्छे संकल्पों से ही हमारी उन्नति हो सकती है।

जैन धर्म के कितने ग्रंथ है?

जैन धर्म में 46 आगम ग्रंथ है जैन धर्म ग्रंथ के सबसे पुराने आगम ग्रंथ 46 माने जाते हैं. ये ग्रंथ संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश भाषाओं में लिखे गए थे.

जैन धर्म के प्रमुख ग्रंथ कौन कौन से हैं?

जैन धर्म का प्रमुख ग्रन्थ समयसार है। यह आचार्य कुन्दकुन्द देव द्वारा आज से 2000 साल पहले लिखा गया है। इसमें कुल 415 गाथाएँ( एक तरह के छंद) है। यह प्राकृत भाषा में है।

जैन धर्म का पवित्र ग्रंथ का नाम क्या है?

'आगम' जैन धर्म का पवित्र ग्रंथ है।

जैन धर्म में कितनी शाखाएं हैं?

जैन धर्म की दो मुख्य शाखाएँ है - दिगम्बर और श्वेतांबर। दिगम्बर संघ में साधु नग्न (दिगम्बर) रहते है और श्वेतांबर संघ के साधु श्वेत वस्त्र धारण करते है। इन्हीं मुख्य भिन्नताओं के कारण यह दो संघ बने।