निर्मल वर्मा (अंग्रेज़ी: Nirmal Verma, जन्म: 3 अप्रॅल, 1929; मृत्यु: 25 अक्तूबर, 2005) हिन्दी के आधुनिक साहित्यकारों में से एक थे। हिन्दी साहित्य में नई कहानी आंदोलन के प्रमुख ध्वजवाहक निर्मल वर्मा का कहानी में आधुनिकता का बोध लाने वाले कहानीकारों में अग्रणी स्थान है। ‘रात का रिपोर्टर’, ‘एक चिथड़ा सुख’, ‘लाल टीन की छत’ और ‘वे दिन’ निर्मल वर्मा के चर्चित उपन्यास है। उनका अंतिम उपन्यास ‘अंतिम अरण्य’ 1990 में प्रकाशित हुआ था। उनकी सौ से अधिक कहानियाँ कई कहानी संग्रहों में प्रकाशित हुई। जीवन परिचयनिर्मल वर्मा का जन्म तीन अप्रॅल 1929 को शिमला में हुआ था। ब्रिटिश भारत सरकार के रक्षा विभाग में एक उच्च पदाधिकारी श्री नंद कुमार वर्मा के घर जन्म लेने वाले आठ भाई बहनों में से पांचवें निर्मल वर्मा की संवेदनात्मक बुनावट पर हिमांचल की पहाड़ी छायाएं दूर तक पहचानी जा सकती हैं। उन्होंने कम लिखा है परंतु जितना लिखा है उतने से ही वे बहुत ख्याति पाने में सफल हुए हैं। उन्होंने कहानी की प्रचलित कला में तो संशोधन किया ही, प्रत्यक्ष यथार्थ को भेदकर उसके भीतर पहुंचने का भी प्रयत्न किया है। हिन्दी के महान् साहित्यकारों में से अज्ञेय और निर्मल वर्मा जैसे कुछ ही साहित्यकार ऐसे रहे हैं जिन्होंने अपने प्रत्यक्ष अनुभवों के आधार पर भारतीय और पश्चिम की संस्कृतियों के अंतर्द्वन्द्व पर गहनता एवं व्यापकता से विचार किया।[1] दिल्ली के सेंट स्टीफेंस कॉलेज से इतिहास में एम.ए. करने के बाद उन्होंने कुछ दिन तक अध्यापन किया। 1959 से 1972 के बीच उन्हें यूरोप प्रवास का अवसर मिला। वह प्राग विश्वविद्यालय के प्राच्य विद्या संस्थान में सात साल तक रहे। उनकी कहानी ‘माया दर्पण’ पर 1973 में फ़िल्म बनी जिसे सर्वश्रेष्ठ हिन्दी फ़िल्म का पुरस्कार मिला।[2] कार्यक्षेत्रवे इंडियन इंस्टीटयूट ऑफ़ एडवांस स्टडीज़ (शिमला) के फेलो (1973), निराला सृजनपीठ भोपाल (1981-83) और यशपाल सृजनपीठ (शिमला) के अध्यक्ष रहे। 1988 में इंग्लैंड के प्रकाशक रीडर्स इंटरनेशनल द्वारा उनकी कहानियों का संग्रह 'द वर्ल्ड एल्सव्हेयर' प्रकाशित हुआ। इसी समय बीबीसी द्वार उन पर एक डाक्यूमेंट्री फ़िल्म भी प्रसारित हुई।[1] कृतियाँ‘रात का रिपोर्टर’, ‘एक चिथड़ा सुख’, ‘लाल टीन की छत’ और ‘वे दिन’ निर्मल वर्मा के चर्चित उपन्यास है। उनका अंतिम उपन्यास ‘अंतिम अरण्य’ 1990 में प्रकाशित हुआ। उनकी सौ से अधिक कहानियाँ कई कहानी संग्रहों में प्रकाशित हुई। 1958 में ‘परिंदे’ कहानी से प्रसिद्धी पाने वाले निर्मल वर्मा ने ‘धुंध से उठती धुन’ और ‘चीड़ों पर चाँदनी’ यात्रा वृतांत भी लिखे, जिसने उनकी लेखन विधा को नये मायने दिए।[2] निर्मल वर्मा ने अनेक कहानियाँ, उपन्यास, यात्रा वृतांत, संस्मरण आदि लिखे हैं। उनकी प्रकाशित पुस्तकें हैं[3]: उपन्यास
योगदानप्रेमचंद और उनके समकक्ष साहित्यकारों जैसे भगवतीचरण वर्मा, फणीश्वरनाथ रेणु आदि के बाद साहित्यिक परिदृश्य एकदम से बदल गया। विशेषकर साठ-सत्तर के दशक के दौरान और उसके बाद बहुत कम लेखक हुए जिन्हें कला की दृष्टि से हिन्दी साहित्य में अभूतपूर्व योगदान के लिये याद किया जायेगा। संख्या में गुणवत्ता के सापेक्ष आनुपातिक वृद्धि ही हुई। इसके कारणों में ये प्रमुख रहे। हिन्दी का सरकारीकरण, नये वादों-विवादों का उदय, उपभोक्तावाद का वर्चस्व आदि। उनके जैसे साहित्यकार से उनके समकालीन और बाद के साहित्यकार जितना कुछ सीख सकते थे और अपने योगदान में अभिवृद्धि कर सकते थे उतना वे नहीं कर पाये। उन्हें जितना मान दिया गया उतना ही उनका अनदेखा भी हुआ। जितनी चर्चा उनकी कृतियों पर होनी चाहिये थी शायद वह हुई ही नहीं। वे उन चुने हुए व्यक्तियों में थे जिन्होंने साहित्य और कला की निष्काम साधना की और जीवनपर्यन्त अपने मूल्यों का निर्वाह किया। सम्मान और पुरस्कार
निधननिर्मल वर्मा का निधन 25 अक्टूबर 2005 को नई दिल्ली में हुआ। पन्ने की प्रगति अवस्था
टीका टिप्पणी और संदर्भ
बाहरी कड़ियाँ
संबंधित लेख
96 परिंदे कहानी के कहानीकार कौन हैं?निर्मल वर्मा जी को इसी कहानी से ख्याति मिली थी। इनकी कहानी संग्रह 'परिंदे' 1960 में प्रकाशित हुई थी। यात्रा वृतांत: चीड़ों पर चाँदनी (यूरोप प्रवास से संबंध 1964), हर बारिश में (1970), धुंध से उठती धुन (1996) यह उनके यात्रा वृतांत हैं जिन्होंने लेखन की इस विधा को नए मायने दिए है।
परिंदे के रचनाकार कौन हैं?निर्मल वर्मा
परिंदे कहानी का प्रमुख पात्र कौन है?परिंदे कहानी के पात्र डॉक्टर मुकर्जी व मिस्टर ह्यूबर्ट है। लतिका- इस कहानी की नायिका या केन्द्र बिन्दु यही है। सुधा- होस्टल में शायद वह सबसे अधिक लोकप्रिय लड़की। जूली- होस्टल की लड़की, जिसका प्रेमपत्र लतिका के हाँथ लग गया है।
परिंदे कहानी में परिंदे किसका प्रतीक है?कहानी में 'परिंदे' का प्रयोग कहानीकार एक प्रतीक के रूप में करता है। यह प्रतीक कथानक के साथ इतना बिंधा हुआ है कि लतिका, मि. ह्यूबर्ट, डॉ. मुकर्जी जैसे चरित्रों में उलझा पाठक समझ ही नहीं पाता कि 'परिंदे' किस प्रकार 'मुक्ति' या 'स्वतन्त्रता' की सांकेतिकता को अभिव्यंजित करने लगता है!
|