इस पोस्ट में आपको विनय-पत्रिका पद का शब्दार्थ सहित व्याख्या के बारे में जानकारी मिलेगी . Show
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शब्दार्थ-गनपति = गणोंके स्वामी । संकर = कल्याण करनेवाले, शिवजी । नन्दन = आनन्द बढ़ानेवाले या प्रसन्न करनेवाले । सिद्धि = एक अलौकिक शक्तिका नाम । यह आठ प्रकारको है-अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, ईशित्त्व, बशित्त्व, प्राकाम्य और प्राप्ति । मोदक – दूधसे गुंथे आटेमें मेवा आदि भर कर बनाया गया मिष्टान्नविशेष, लडडू । भावार्थ-संसार के वन्दनीय, श्रीगणेशजी का गुणगान कीजिये। वह शिव- पार्वतीके पुत्र हैं, और उनको (माता-पिताको) प्रसन्न करनेवाले हैं ॥१॥ वह अष्टसिद्धियों के स्थान हैं; उमका मुख हाथीके समान है; वह समस्त विघ्नों के नायक हैं यानी उनकी कृपासे सब विघ्न-बाधाएँ दूर हो जाती हैं; वह कृपाके समुद्र हैं, सुन्दर हैं और हर तरहसे योग्य हैं ।।२।। उन्हें मोदक अत्यन्त प्रिय है । वह आनन्द और कल्याणको देनेवाले हैं। वह विद्याके समुद्र और बुद्धिके विधाता हैं ।।३। ऐसे मंगलमय गणेशजीसे यह तुलसीदास हाथ जोड़कर केवल यही वर माँगता है कि मेरे मानसमें श्रीराम-जानकी निवास करें ॥४॥ विनय-पत्रिका पद 2 (सूर्य-स्तुति) का शब्दार्थ सहित व्याख्यादीनदयालु दिवाकर देवा । कर मुनि, मनुज, सुरासुर सेवा ॥१॥ शब्दार्थ-दिवाकर = सूर्य । हिम= बर्फ । तम = अन्धकार । करि= हाथी । केहरि =सिंह । करमाली किरणों की माला धारण करनेवाले । दहन= अग्नि । दुरित = पाप । रुजाली = रोग-समूह । कोक = चकवा-चकवी । कोकनद = कमल । भावार्थ –हे दीनोंपर दया करनेवाले सूर्यदेव ! मुनि, मनुष्य, देवता और राक्षस सभी आपकी सेवा करते हैं ॥१॥ हे किरणों की माला धारण करनेवाले ! आप बर्फ और अन्धकाररूपी हाथियों को मारनेके लिए सिंह हैं। अर्थात् आपकी किरणोंसे बर्फ पिघल जाता है और अन्धकार दूर हो जाता है। दोप, दुःख, पाप और रोग-समूहको आप अग्निके समान जला डालनेवाले हैं ॥२॥ आप चकवा-चकवीको प्रसन्न करनेवाले हैं; अर्थात् उनका रात्रिके कारण उत्पन्न वियोग आपके उदय होते ही नष्ट हो जाता है। चकवा-चकवी सन्ध्या होते ही एक-दूसरेसे अलग हो जाते हैं और सबेरा होते ही फिर मिल जाते हैं। आप कमलको प्रफुल्लित करने वाले तथा समूचे ब्रह्माण्ड को प्रकाशित करनेवाले हैं । आप तेज, प्रताप, रूप और रसकी राशि हैं ॥३॥ आप हैं तो दिव्य रथपर चलनेवाले, पर आपका सारथी (अरुण) पंगु है। हे स्वामी ! आप विष्णु, शिव और ब्रह्मा इन त्रिदेवोंके रूप हैं ॥४॥ वेदों और पुराणों में आपका यश जगमगा रहा है । तुलसीदास आपसे राम-भक्तिका वर माँगता है ॥ ५ ॥ विनय-पत्रिका पद 3 शिव-स्तुति का शब्दार्थ सहित व्याख्या(3) को जाँचिये सम्भु तजि आन शब्दार्थ –आन = दूसरा, और कोई । आरति = कष्ट । यशवान् = ऐश्वर्यवान् । काल- कृट = हलाहल विष । जुर-ज्वाला, ज्वर, ताप । कामरिपु-शिवजी। भावार्थ –शिवजीको छोड़कर और किससे याचना की जाय ? आप दीनों- पर दया करनेवाले, भक्तोंका कष्ट हरण करनेवाले, हर तरहसे समर्थ और ऐश्वर्यवान् हैं ॥१॥ समुद्र-मंथनके बाद जब हलाहल विषकी ज्वालासे देवता और अमुर जलने लगे, तब आप अपनी दीन-दयालुताका प्रण निभानेके लिए उस विषको पान कर गये । संसारको दुःख देनेवाले भयंकर दानव त्रिपुरासुरको आपने एक ही बाणमें मार डाला था ॥२।। सन्त, वेद और सब पुराण कहते हैं कि जिस गतिकी प्राप्ति महामुनियों के लिए अगम और दुर्लभ है, वही गति या मुक्ति आप अपने पुरमें अर्थात् काशीमें मृत्युके समय सदैव सबको समभावसे दिया करते हैं ॥ ३ ॥ सेवा करनेमें आप सुलभ हैं यानी सहज ही प्रसन्न हो जाते हैं । हे पार्वतीके पति ! हे परमज्ञानी ! आप कल्पवृक्षके समान उदार हैं । हे कामदेवको भस्म करनेवाले ! हे कृपानिधान ! तुलसीदासको श्रीरामजीके चरणोंमें भक्ति दे दीजिये। विनय-पत्रिका पद 4 शिव-स्तुति का शब्दार्थ सहित व्याख्यादानी कहुँ संकर-सम नाहीं। शब्दार्थ–दिबोई = देना ही । सोहाही = अच्छे लगते हैं । मार = कामदेव । थप्यो = स्थापित किया, रहने दिया। निवाजिबौ= कृपा करना । पुरारि-पुर-काशी। अनत = अन्यत्र । जाँचन-माँगने । भावार्थ –शिवजीके समान दानी कहीं (कोई) नहीं है। वह दीनदयालु हैं, देना ही उन्हें अच्छा लगता है। भिखमंगे उन्हें सदैव प्रिय लगते हैं ॥1॥ योद्धाओंमें अग्रगण्य कामदेवको भस्म करके फिर उसे संसारमें रहने दिया, ऐसे प्रभुका रीझकर कृपा करना मुझसे कैसे कहा जा सकता है ! ॥२॥ अनेक तरहसे योगाभ्यास करके मुनिगण जिस मोक्षको भगवान्से माँगनेमें संकोच करते हैं, उस मोक्षपदको शिवकी पुरी काशीमें कीट-पतंगतक पा जाते हैं, यह वेदोंमें विदित या प्रकट है ||३।। ऐसे ऐश्वर्यवान् परम उदार शिवजीको छोड़ कर जो लोग अन्यत्र माँगने जाते हैं, वे मूर्ख हैं; तुलसीदास कहते हैं कि उन मूल्का पेट माँगनेसे कभी भी नहीं भरता ||४|| विशेष१-जब शिवजीने कामदेवको भस्म किया, तब कामदेवकी स्त्री रति अत्यन्त दुःखिनी होकर विरह-विलाप करने लगी। इससे महाराज शिवजीको दया आ गयी और उन्होंने कामदेवको अनंग (बिना शरीर) रूपसे संसारमें रहने दिया । इससे उनकी दयालुताका परिचय मिलता है। विनय-पत्रिका पद 5 शिव-स्तुति का शब्दार्थ सहित व्याख्याबावरो रावरो नाह भवानी । निज घर की घर-चात दिलोकहु, हो तुम परम सयानी । जिनके भाल लिखी लिपि मेरी,
सुख की नहीं निसानी । दुख दीनता दुखी इनके दुख, जाचकता अकुलानी । प्रेम-प्रसंसा-विनय-व्यंगजुत, सुनि बिधि की बरवानी । शब्दार्थ–बावरो= बावला, पागल । रावरो=आपके । नाह = स्वामी। सिहानी- सिहाती हैं । नाक-स्वर्ग । नकवानी-नाकों दम । भानी (यह भणित शब्द का अपभ्रंश है) भावार्थ –(शिवजीकी अत्यधिक उदारता देखकर पार्वतीके पास जाकर ब्रह्मा कहने लगे) हे भवानी ! आपके पति पागल हैं। वह ऐसे दानी हैं कि जिन्होंने कभी कुछ भी नहीं दिया है, उन्हें भी वे प्रतिदिन दिया करते हैं; (तारीफ तो यह है कि) उनकी यह बड़ाई वेदने कही है ॥१॥ आप परम सयानी हैं, जरा अपने घरको घरेलू बातको देखिये (देते-देते अपना घर खाली करते जा रहे हैं)। शिवकी दी हुई सम्पत्तिको देखकर लक्ष्मी और सरस्वती भी सिहा रही हैं ॥२॥ जिन लोगोंके ललाटमें मैंने सुखका नाम-निशान तक नहीं लिखा था, उन कंगालों के लिए स्वर्गकी सजावट करते-करते मेरे नाकोंदम आ गया है ॥३॥
तुलसीदास कहते हैं कि प्रेम, प्रशंसा, विनय और – व्यंग्य-भरी ब्रह्माकी सुन्दर वाणी सुनकर शिवजी मन ही मन प्रसन्न हो उठे और जमीननी पार्वतीजी मसकराने लगीं ॥५॥ विशेष१-इस पद में ‘ब्याज-स्तुति’ अलंकार है । जहाँ सीधे अर्थ को छोड़कर घुमाव-फिरावसे दूसरा भाव प्रकट किया जाता है, वहाँ व्याज या व्यंग्य होता है। निन्दामें स्तुति प्रकट करनेको ब्याज-स्तुति कहते हैं और स्तुतिमें निन्दा का भाव प्रकट करनेको ब्याज-निन्दा कहते हैं । ये ही इस अलंकारके दो भेद हैं। व्याज-स्तुतिका उदाहरण सामने है । विनय पत्रिका पद 6 शिव-स्तुति का शब्दार्थ सहित व्याख्या
औढर-दानि द्रवत पुनि थोरे । सकत न देखि दीन कर जोरे ॥२॥ सुख संपति मति सुगति सुहाई । सकल सुलभ संकर-सेवकाई ॥३॥ गये सरन आरत के लीन्हे । निरखि निहाल निमिष महँ कीन्हे ॥४॥ तुलसिदास जाचक जस गावै । बिमल भगति रघुपति की पावै ॥५॥ शब्दार्थ-अनिमादिक = अणिमा आदि आठ सिद्धियाँ । औदर-दानि = बिना समझे बूझे बड़ी से बड़ी वस्तु को दे डालने वाले । द्रवत= पिघल जाते है। सुगति = मोक्ष निमिष = पलभरमें। भावार्थ–पार्वती के पति शिवजी से ही याचना करनी चाहिये। जिनका घर काशीमें है और अणिमा आदि आठो सिद्धियाँ जिनकी चेरी हैं ॥१|| एक तो शिवजी औढरदानी हैं, दूसरे थोड़ी ही सेवामें पिघल जाते हैं । वह दीनों को हाथ जोड़कर (अपने सामने) खड़े नहीं देख सकते ।।२।। शंकरकी सेवासे मुख, सम्पत्ति, सुबुद्धि और सुन्दर गति आदि सब वस्तुएँ सुलभ हो जाती हैं ।।३।। उन्होंने आर्त्त होकर शरणमें गये हुए जीवोंको अपना लिया और पलभर में ही देखते-देखते उन्हें निहाल कर दिया है ।।४॥ याचक तुलसीदास इसी आशा से उनका यश गाता है ताकि उसे श्रीरघुनाथजी की पवित्र भक्ति मिले ।।५।। विशेष अनिमादिक-आठ सिद्धियों में एक सिद्धि का नाम है। आठ सिद्धियाँ ये हैं-अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व और वशित्व । विनय-पत्रिका पद 7 शिव-स्तुति का शब्दार्थ सहित व्याख्याकस न दीन पर द्रवहु उमावर । दारुन विपति हरन, करुनाकर ॥१॥ शब्दार्थ –कृपिनतर = अधिक कृपण । भेदमति = भेदबुद्धि; ‘मैं और मेरा’ यही भेद- भावार्थ–हे उमावर ! आप मुझ दीनपर क्यों नहीं दयार्द्र होते ? आप तो घोर विपत्तियोंको हरनेकी कृपा करनेवाले हैं ।।१।। वेद और पुराण तो कहते हैं कि शिवजी अत्यन्त उदार हैं; किन्तु मेरी बारी आनेपर आप इतने अधिक कृपण क्यों हो गये ? ।।२।। गुणनिधि नामक ब्राह्मणने कौन-सी भक्ति की थी, जिसे आपने प्रसन्न होकर कैवल्य पद दे डाला ? ||३|| बड़े-बड़े मुनि जिस मोक्षको दुर्लभ कहते हैं, आपके पुर (काशी) में वह मोक्ष कीट-पतंगोंको भी मिल जाता है।।४॥ हे कामदेवको दहन करनेवाले शिवजी ! तुलसीदासको श्रीराम चरणों की भक्ति दीजिये । हे प्रभो ! उसकी भेदबुद्धि हर लीजिये ।।५।। विशेष१-गोस्वामीजीने शिवजीके लिए उदार दानी तथा काशीमें कीट-पतंग को मुक्त करनेकी बात कई बार कही है। जैसे, ‘वेद-विदित तेहि पद पुरारि-पुर, कीट पतंग समाहीं।’ ‘तव पुर कीट पतंगहु पावहिं ।’ इससे तुलसीदासजीका यह भाव प्रकट होता है कि क्या शिवजी उन्हें कीट-पतंग समझ कर भी उनकी मनोभिलाषा पूरी न करेंगे ? शिवजी बड़े दानी हैं, क्या याचक की मांग पूरी न करेंगे? क्योंकि काशीमें ही तो गोस्वामीजी भी रहते थे ! २-गुणनिधि नामक ब्राह्मण चोर था। एक दिन वह घण्टा चुरानेके लिए शिव-मन्दिरमें गया । घण्टा ऊँचा था, अतः उसे खोलनेके लिए वह शिवमूर्तिके उपर चढ़ गया। शिवजीने प्रसन्न होकर कहा,-माँग वर। और लोग तो पत्र- पुष्प चढ़ाते हैं, पर तूने आज हमपर अपना शरीर ही चढ़ा दिया, इससे हम तुझपर बहुत प्रसन्न हैं। इस प्रकार शिवजीकी कृपासे वह कैवल्य-पदका अधि- कारी हो गया । विनय पत्रिका पद 8 शिव-स्तुति का शब्दार्थ सहित व्याख्यादेव बड़े, दाता बड़े, संकर बड़े भोरे। शब्दार्थ–भोरे = भोले । पात = देलपत्र । आखत = अक्षत । गज = हाथी । बामदेव = शिबजी । किंकर = दास । वरजिये = मना कर दीजिये । सिहोरे- धूहड़ का वृद्ध, सेहुइ । भावार्थ–हे शंकर ! आप महादेव हैं, महादानी हैं और बहुत भोले हैं । जिन-जिन लोगोंने आपके सामने हाथ जोड़े, आपने उन सबके दुःख दूर कर दिये ॥१॥ आपकी सेवा, स्मरण और पूजा थोड़े-से बेलपत्र और अक्षतसे ही हो जाती है । उसके बदले आप संसारकी सब सुख-सामग्री-हाथी, रथ, घोड़े इत्यादि दे डालते हैं ॥ २ ॥ हे बामदेव ! मैं आपके गाँव (काशी) में रहता हूँ, पर अब तक आपसे कुछ नहीं माँगा। अब मुझे आधिभौतिक बाधाएँ सता रही हैं, वे आधिभौतिक दुःख आपके दास हैं ॥ ३ ॥ इसलिए आप इन कठोर करतूत- वालों को शीघ्र बुलाकर मना कर दीजिये, मैं आपको बलैया लेता हूँ। क्योंकि ये दुष्ट तुलसीदल को थूहड़ की डालियों से सँधना चाहते हैं, तुलसीदासको आधि-भौतिक बाधाएँ कुचल डालना चाहती हैं ॥ ४ ॥ विशेष१–’अधिभौतिक’-ताप तीन तरहके माने गये हैं, आधिदैविक, आधि-भौतिक और आध्यात्मिक । शारीरिक रोगादि आधिदैविक ताप हैं। किसी प्राणीसे जो कष्ट पहुँचता है, उसे आधिभौतिक ताप कहते
हैं; इसी प्रकार प्रारब्ध व शान्देवेच्छा से जो कुछ भोगना पड़ता है उसे आध्यात्मिक ताप कहते हैं। विनय-पत्रिका पद 9 शिव-स्तुति का शब्दार्थ सहित व्याख्यासिव सिव होइ प्रसन्न करु दाया। शब्दार्थ–मयन = कामदेव । अपर= दूसरे । अहि =सर्प । निहार = पाला । मराल=हंस । कासीस-काशीके ईश, शंकरजी । भावार्थ–हे शिव ! हे शिव ! प्रसन्न होकर दया करो। आप करुणामय हैं, आपकी यश-कीर्ति सब ओर फैली हुई है। मैं आपकी बलि जाता हूँ, अपनी माया हर लो ।। १ ॥ हे कमल-नेत्र ! आप सर्वगुण सम्पन्न हैं, और कामदेव को भस्म करनेवाले हैं; आपकी महिमा कोई नहीं जानता। आपकी कृपा के बिना रामचन्द्रजीके चरण-कमलों में, स्वप्नमें भी भक्ति नहीं हो सकती ॥ २ ॥ ऋषि, सिद्ध, मुनि, मनुष्य, दैत्य, देवता तथा संसारमै अन्य जितने जीव हैं, आपके चरणों से विमुख होकर भव-सागरका पार नहीं पाते-कल्प-कल्पान्त बीतता चला जाता है ॥ ३ ॥ सर्प आपके आभूषण हैं और दूषण दैत्यके मारने वाले श्रीराम जी के आप सेवक हैं। हे देवाधिदेव, आप त्रिपुरासुर के
संहारकर्ता हैं । हे काशीपुरी के स्वामी ! आप पार्वतीके मन-रूपी मानसरोवर के हंस हैं, और श्मशान-निवासी हैं। तुलसीदास को श्रीहरि के श्रेष्ठ चरणारविन्दों में अटल भक्ति दीजिये ॥ ५ ॥ विशेष१-प्रारम्भ में दो बार ‘सिव सिव’ कहना आर्ति-सूचक है। इसे वीप्सा कहते हैं। विनय-पत्रिका पद 10 शिव-स्तुति का शब्दार्थ सहित व्याख्या
अकल, निरुपाधि, निर्गुन, निरंजन ब्रह्म, कर्म-पथमेकमज निर्विकारं ।
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