किसी भाषा में जिन सिद्धान्तों एवं प्रक्रियाओं के द्वारा वाक्य बनते हैं, उनके अध्ययन को भाषा विज्ञान में वाक्यविन्यास, 'वाक्यविज्ञान' या सिन्टैक्स (syntax) कहते हैं। वाक्य के क्रमबद्ध अध्ययन का नाम 'वाक्यविज्ञान' कहते हैं। वाक्य विज्ञान, पदों के पारस्परिक संबंध का अध्ययन है। वाक्य भाषा का सबसे महत्त्वपूर्ण अंग है। मनुष्य अपने विचारों की अभिव्यक्ति वाक्यों के माधयम से ही करता है। अतः वाक्य भाषा की लघुतम पूर्ण इकाई है। Show
वाक्यविज्ञान का स्वरूप[संपादित करें]वाक्य विज्ञान के अन्तर्गत निम्नलिखित बातों का विचार किया जाता है- वाक्य की परिभाषा, वाक्यों और भाषा के अन्य अग् का सम्बन्धा, वाक्यों के प्रकार, वाक्यों में परिवर्तन, वाक्यों में पदों का क्रम, वाक्यों में परिवर्तन के कारण आदि। वाक्य विज्ञान के स्वरूप के विषय में डॉ॰ कपिलदेव द्विवेदी ने विस्तार से विवेचन किया है। उनका मत इस प्रकार हैः- वाक्य-विज्ञान में भाषा में प्रयुक्त विभिन्न पदों के परस्पर संबन्ध का विचार किया जाता है। अतएव वाक्य-विज्ञान में इन सभी विषयों का समावेश हो जाता है- वाक्य का स्वरूप, वाक्य की परिभाषा, वाक्य की रचना, वाक्य के अनिवार्य तत्त्व, वाक्य में पदों का विन्यास, वाक्यों के प्रकार, वाक्य का विभाजन, वाक्य में निकटस्थ अवयव, वाक्य में परिवर्तन, परिवर्तन की दिशाएँ, परिवर्तन के कारण, पदिम (Taxeme) आदि। इस प्रकार वाक्य-विज्ञान में वाक्य से संबद्ध सभी तत्वों का विवेचन किया जाता है।पदविज्ञान और वाक्य-विज्ञान में अन्तर यह है कि पद-विज्ञान में पदों की रचना का विवेचन होता है। अतः उसमें पद विभाजन (संज्ञा, क्रिया, विशेषण आदि), कारक, विभक्ति, वचन, लिंग, काल, पुरुष आदि के बोधाक शब्द किस प्रकार बनते हैं, इस पर विचार किया जाता है। वाक्य-विज्ञान उससे अगली कोटि है। इसमें पूर्वाेक्त विधि से बने हुए पदों का कहाँ, किस प्रकार से रखने से अर्थ में क्या अन्तर होता है, आदि विषयों का विवेचन है। धवनि निर्मापक तत्त्व हैं। जैसे मिट्टी, कपास आदि; पद बने हुए वे तत्त्व हैं, जिनका उपयोग किया जा सकता है, जैसे- ईंट, वस्त्रा आदि; वाक्य वह रूप है, जो वास्तविक रूप में प्रयोग में आता है, जैसे- मकान, सिले वस्त्रा आदि। पद ईंट है तो वाक्य मकान या भवन। तात्त्विक दृष्टि से ध्वनि, पद और वाक्य में मौलिक अन्तर है। धवनि मूलतः उच्चारण से संबद्ध है। या शारीरिक व्यापार से उत्पन्न होती है, अतः ध्वनि में मुख्यतया शारीरिक व्यापार प्रधान है। पद में ध्वनि और सार्थकता दोनों का समन्वय है। ध्वनि शारीरिक पक्ष है और सार्थकता मानसिक पक्ष है। पद में शारीरिक और मानसिक दोनों तत्त्वों के समन्वय से वह वाक्य में प्रयोग के योग्य बन जाता है। सार्थकता का संबन्ध विचार से है। विचार मन का कार्य है, अतः पद में मानसिक व्यापार भी है। वाक्य में विचार, विचारों का समन्वय, सार्थक एवं समन्वित रूप में अभिव्यक्ति, ये सभी कार्य विचार और चिन्तन से संबद्ध है, अतः मानसिक कार्य है। वाक्य में मानसिक अथवा मनोवैज्ञानिक पक्ष मुख्य होता है। विचारों की पूर्ण अभिव्यक्ति वाक्य से होती है, अतः वाक्य ही भाषा का सूक्ष्मतम सार्थक इकाई माना जाता है। इनका भेद इस प्रकार भी प्रकट किया जा सकता है-
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वाक्य भाषा का सबसे महत्त्वपूर्ण अंग है। मनुष्य अपने विचारों की अभिव्यक्ति वाक्यों के माध्यम से ही करता है। अत: वाक्य भाषा की लघुतम पूर्ण इकाई है। वाक्य विज्ञान का स्वरूपवाक्य विज्ञान के अन्तर्गत निम्नलिखित बातों का विचार किया जाता है- वाक्य की परिभाषा, वाक्यों और भाषा के अन्य अग् का सम्बन्ध, वाक्यों के प्रकार, वाक्यों में परिवर्तन, वाक्यों में पदों का क्रम, वाक्यों में परिवर्तन के कारण आदि। वाक्य विज्ञान के स्वरूप के विषय में डा. कपिलदेव द्विवेदी ने विस्तार से विवेचन किया है। उनका मत इस प्रकार है:- वाक्य-विज्ञान में भाषा में प्रयुक्त विभिé पदों के परस्पर संबन्ध का विचार किया जाता है। अतएव वाक्य-विज्ञान में इन सभी विषयों का समावेश हो जाता है- वाक्य का स्वरूप, वाक्य की परिभाषा, वाक्य की रचना, वाक्य के अनिवार्य तत्त्व, वाक्य में पदों का विन्यास, वाक्यों के प्रकार, वाक्य का विभाजन, वाक्य में निकटस्थ अवयव, वाक्य में परिवर्तन, परिवर्तन की दिशाएँ, परिवर्तन के कारण, पदिम (Taxeme) आदि। इस प्रकार वाक्य-विज्ञान में वाक्य से संबद्ध सभी तत्वों का विवेचन किया जाता है। पद-विज्ञान और वाक्य-विज्ञान में अन्तर यह है कि पद-विज्ञान में पदों की रचना का विवेचन होता है। अत: उसमें पद विभाजन (संज्ञा, क्रिया, विशेषण आदि), कारक, विभक्ति, वचन, लिंग, काल, पुरुष आदि के बोधक शब्द किस प्रकार बनते हैं, इस पर विचार किया जाता है। वाक्य-विज्ञान उससे अगली कोटि है। इसमें पूर्वोक्त विधि से बने हुए पदों का कहाँ, किस प्रकार से रखने से अर्थ में क्या अन्तर होता है, आदि विषयों का विवेचन है। ध्वनि निर्मापक तत्त्व हैं। जैसे मिट्टी, कपास आदि; पद बने हुए वे तत्त्व हैं, जिनका उपयोग किया जा सकता है, जैसे- र्इंट, वस्त्र आदि; वाक्य वह रूप है, जो वास्तविक रूप में प्रयोग में आता है, जैसे- मकान, सिले वस्त्र आदि। पद र्इंट है तो वाक्य मकान या भवन। ताित्त्वक दृष्टि से ध्वनि, पद और वाक्य में मौलिक अन्तर है। ध्वनि मूलत: उच्चारण से संबद्ध है। या शारीरिक व्यापार से उत्पé होती है, अत: ध्वनि में मुख्यतया शारीरिक व्यापार प्रधान है। पद में ध्वनि और सार्थकता दोनों का समन्वय है। ध्वनि शारीरिक पक्ष है और सार्थकता मानसिक पक्ष है। पद में शारीरिक और मानसिक दोनों तत्त्वों के समन्वय से वह वाक्य में प्रयोग के योग्य बन जाता है। सार्थकता का संबन्ध विचार से है। विचार मन का कार्य है, अत: पद में मानसिक व्यापार भी है। वाक्य में विचार, विचारों का समन्वय, सार्थक एवं समन्वित रूप में अभिव्यक्ति, ये सभी कार्य विचार और चिन्तन से संबद्ध है, अत: मानसिक कार्य है। वाक्य में मानसिक अथवा मनोवैज्ञानिक पक्ष मुख्य होता है। विचारों की पूर्ण अभिव्यक्ति वाक्य से होती है, अत: वाक्य ही भाषा का सूक्ष्मतम सार्थक इकाई माना जाता है। इनका भेद इस प्रकार भी प्रकट किया जा सकता है-
वाक्य की परिभाषाप्राचीन मतभारत के प्राचीन वैयाकरणों और भाषा शािस्त्रायों ने वाक्य के विषय में सूक्ष्मता से विचार किया है। डा. कपिलदेव द्विवेदी ने इन मतों को सार रूप में प्रस्तुत किया है और इन मतों की समीक्षा भी की है जो इस प्रकार है:
मीमांसकों, नैयायिकों और साहित्यशािस्त्रायों ने साकांक्ष पद-समूह को ‘वाक्य’ माना है। आचार्य विश्वनाथ ने ‘अकांक्षा, योग्यता और आसत्ति से युक्त पद-समूह को वाक्य माना है। आचार्य ‘भर्तहरि’ ने अपने पूर्ववर्ती वैयाकरणों और दार्शनिकों के मतों का संग्रह ‘वाक्यपदीय’ में करते हुए वाक्य की निम्नलिखित परिभाषाएं दी हैं।
पतंजलि और थ्रॉक्सईसा से पूर्व भाषाशास्त्रीय तत्त्व-चिन्तकों में भारत में पतंजलि’ (150 ई. पू. के लगभग) और यूरोप में ‘डायोनिसियस थ्रॉक्स’ (प्रथम शताब्दी ई. पू.) का नाम उल्लेखनीय है। दोनों ही आचार्यों ने वाक्य की परिभाषा इस प्रकार दी है- ‘पूर्ण अर्थ की प्रतीति कराने वाले वाले शब्द-समूह को वाक्य कहते हैं।’
डा. कर्ण सिंह ने भी प्राचीन मतों के आधार पर वाक्य की तात्विक परिभाषा दी है जो इस प्रकार है- वाक्य की तात्त्विक परिभाषावाक्य की तात्त्विक परिभाषा अत्यधिक विवादस्पद विषय है। भारत के प्राचीन वैयाकरणों, नैयायिकों, मीमांसकों तथा साहित्यकारों का इस विषय में पर्याप्त मतभेद है। प्राचीन वैयाकरण ‘पतंजलि’- “कारक, अव्यय, विशेषण, क्रियाविशेषण तथा क्रिया के एक साथ प्रयोग” को या “मात्रा क्रिया पद के प्रयोग” को या “कभी-कभी क्रियापदरह्ति एकमात्रा ‘तर्पणम्’ या ‘पिण्डीम्’ – जैसे “संज्ञापद” को भी वाक्य मानते हैं; क्योंकि यह भी ‘तर्पण करो’ या ‘ग्रास खाओ’ जैसे पूर्ण अर्थ का द्योतक है।’ न्यायभाष्यकार वात्सययान, आचार्य जगदीश तथा आचार्य विश्वनाथ अपनी-अपनी शब्दावली में ‘साकांक्ष पदसमूह’ को ही वाक्य मानते हैं। ‘भतृ हरि’ ने अपने ग्रन्थ ‘वाक्यपदीय’ में अपने पूर्ववर्ती न्यायवादी आचार्यों के मतों को संकलित करते हुए उनके द्वारा मान्य वाक्य की आठ परिभाषाएँ दी हैं-
वस्तुत: जैसा पूर्व भी संकेत किया गया है, वाक्य की ताित्त्वक परिभाषा करना बहुत ही कठिन है। यह विषय पूर्णतया दार्शनिक है। अत: निदर्शनमात्रा लिए ही उपर्युक्त मतों का उल्लेख किया गया है। ‘भाषाविज्ञान’ के प्रारम्भिक पाठकों क लिए इस विषय को, संक्षिप्त तथा सरल शैली में ही, आगे प्रस्तुत किया जा रहा है। भारत के प्राचीन आचार्यों में से ‘पत×जलि’ ( 150 ई. पू.) को, तथा पाश्चात्य आचार्यों में से ‘डियोनिसियस थ्रॉक्स’ (प्रथम शताब्दी ई. पू.) को
इस विषय में प्रामाणिक मानते हुए वाक्य की परिभाषा इस प्रकार की जा सकती हैं- किन्तु, वाक्य की यह परिभाषा भी विवाद से परे नहीं है। इस परिभाषा के अनुसार वाक्य की दो विशेषताएँ हैं-
विचार करने पर वाक्य की इन दोनों ही विशेषताओं का खण्डन हो जाता हे। वस्तुत: न तो “वाक्य, शब्दों का समूह” ही है और न ही “वाक्य, पूर्ण अर्थ की प्रतीति कराता है”। इन दोनों विषयों पर यहाँ पृथक्-पृथक् विचार करना आवश्यक है। (क) वाक्य, शब्दों का समूह है‘भाषा’ के प्रसंग में यह कहा जा चुका है, कि भाषा का उद्देश्य भावों या विचारों की अभिव्यक्ति है। विचार या भाव का ही बाह्य रूप वाक्य है। इस दृष्टि से वाक्य ही भाषा की इकाई है, जिसे पदों या खण्डों में विभाजित किया जा सकता है। वाक्य का पदों में विश्लेषण या विभाजन तो कृित्राम है, जो वैयाकरणों ने अपनी सुविधा के लिए किया है। वस्तुत:, हमारा विचारना-बोलना आदि सब वाक्य में ही होता है। हाँ, बोलचाल में हम अपने भाग या विचार को व्यक्त करने के लिए आवश्यकतानुसार कभी तो अनेक पदों का प्रयोग करते हैं और कभी केवल एक ही पद का; उदाहरण के लिए-
प्रकरण के अनुसार, उपर्युक्त दोनों ही प्रकार के वाक्य हमारे भाव या विचार को प्रकट कर देते हैं। यदि शब्दों का समूह ही वाक्य” हो, तो एक पद वाले वाक्य से काम नहीं चलना चाहिए। इसके विपरीत, संवादों में प्राय: एक पद वाले वाक्यों से ही भाव को व्यक्त किया जाता है। “हाँ”, “नहीं।”, “आओ।”, “जाओ।” “कल।”, “परसो।” “दिल्ली।” “घर।” आदि ऐसे अनेक वाक्यों का प्रयोग हम अपने प्रतिदिन के उत्तर-प्रत्युत्तर आदि में करते हैं। वैयाकरण पत×जलि ने भी “तर्पणम्।”, “पिण्डीम्।”, “प्रविश।” इत्यादि एक पद वाले वाक्यों का अस्तित्व स्वीकार किया है। इस प्रकार इस मान्यता का खण्डन हो जाता है कि “पदों का समूह वाक्य होता है।” (ख) वाक्य, पूर्ण अर्थ की प्रतीति कराता हैविचार करने पर वाक्य इस कसौटी पर भी खरा नहीं उतरता है। वस्तुत: जिस विचार या भाव को व्यक्त करने के लिए ‘वाक्य’ का प्रयोग किया जाना है, वह विचार, केवल एक वाक्यमात्रा नहीं होता है। भाषा-व्यवहार में, जब कोई वक्ता अपना कोई विशेष विचार व्यक्त करता है, तो वह उसके लिये एक ही नहीं, अपितु अनेक वाक्यों का प्रयोग करता है। प्राय: किसी निबंध, प्रबन्ध या लिखित रचना का मूल विचार तो एक ही होता है, किन्तु उसके लिए अनेक वाक्यों का ही नहीं, अपितु अनेक अनुच्छेदों, अघ्यायों तथा खण्डों तक का प्रयोग होता है, फिर भी ताित्त्वक दृष्टि से विचार की पूर्ण अभिव्यक्ति असम्भव ही है। सामान्यतया भी, जब कोई वक्ता बोलचाल में, किसी वाक्य का प्रयोग करता है, तो उसका विचार केवल एक वाक्य तक सीमित नहीं होता है। उसके साथ अन्य अनेक विचार भी सम्बद्ध होते हैं, जिन्हें व्यक्त करना उस समय न तो सम्भव ही होता है और न ही आवश्यक। वस्तुत:, विचार और वाक्य का सम्बन्ध, वक्ता-व्यक्ति के स्वभाव, उसकी कथन-शैली और परिस्थितियों पर निर्भर करता है। इतना ही नहीं, दार्शनिक दृष्टि से विचार, ‘ब्रह्म’ के समान ही अखण्डनीय है। यही कारण है कि प्राचीन भारतीय विचारकों ने ‘शब्दब्रह्म’ की कल्पना की है। इस प्रकार “वाक्य द्वारा पूर्ण अर्थ की प्रतीति” का भी खण्डन हो जाता है।” वाक्य की ऊपर दी गई परिभाषा यद्यपि बहुत सूक्ष्म और ताित्त्वक है। परन्तु दार्शनिक होने के करण सामान्य विद्यार्थियों के लिए कठिन है। अत: विद्वानों ने वाक्य की व्यावहारिक परिभाषा भी दी है: वाक्य की व्यावहारिक परिभाषाइस विषय में डा. भोलानाथ तिवारी का मत इस प्रकार है- वाक्य को प्राय: लोग सार्थक शब्दों का समूह मानते हैं, जो भाव को व्यक्त करने की दृष्टि से अपने आप पूर्ण हों। कोषों तथा व्याकरणों में भी वाक्य की इसी प्रकार की परिभाषा मिलती है। यूरोप में इस दृष्टि से प्रथम प्रयास थ््रााक्स ( 1 ली सदी ई. पू.) का है। भारत में पतंजलि1 (150 ई. पू. के लगभग) का नाम लिया जा सकता है। ये दोनों ही आचार्य ‘पूर्ण अर्थ की प्रतीति कराने वाले शब्द-समूह को वाक्य मानते हैं। यों समझने समझाने के लिए परिभाषाएँ ठीेक हैं, किन्तु तत्त्वत: इन्हें ठीक नहीं कहा जा सकता। थोड़ा ध्यान दें तो यह स्पष्ट हुए बिना नहीं रहेगा कि भाषा में या बोलने में वाक्य ही प्रधान है। वाक्य भाषा की इकाई है। व्याकरणवेत्ताओं ने कृित्राम रूप से वाक्य को तोड़कर शब्दों को अलग-अलग कर लिया है। हमारा सोचना, बोलना या किसी भाव को हृदयंगम करना सब कुछ ‘वाक्य’ में ही होता है। ऐसी स्थिति में ‘वाक्य शब्दों का समूह है’ कहने की अपेक्षा ‘शब्द वाक्यों के कृित्राम खंड है’ कहना अधिक समीचीन है। ऊपर वाक्य की जो परिभाषाएँ दी गई हैं उनमें मूलत: दो बातें हैं-
‘वाक्य शब्दों का समूह है’ पर एक दृष्टि से ऊपर विचार किया जा चुका है, और कहा जा चुका है कि वाक्य का शब्द रूप में विभाजन स्वाभाविक नहीं हैं आज भी घर में ऐसी भाषाएँ हैं जिनमें वाक्य का शब्द रूप में कृित्राम विभाजन नहीं हुआ है। ऐसी भाषाओं में वाक्य ही वाक्य हैं, शब्द नहीं। ‘वाक्य शब्दों का समूह है’ इस पर एक और दृष्टि से भी विचार किया जा सकता है। ‘वाक्य शब्दों का समूह है’ का अर्थ है कि वाक्य
एक से अधिक शब्दों का होता है, पर यह बात भी पूर्णत: ठीक नहीं है। एक शब्द के भी वाक्य होते हैं। छोटा बच्चा प्रात: जब माँ से ‘बिछकुट’ (विस्कुट) कहता है तो इस एक शब्द के वाक्य से ही वह अपना पूरा भाव व्यक्त कर लेता है। बातचीत में भी प्राय: वाक्य एक शब्द के होते हैं। उदाहरणस्वरूप: वाक्य की पूर्णता भी कम विवादास्पद नहीं है। उसे पूर्णत: पूर्ण नहीं कहा जा सकता। कुछ उदाहरण लिये जा सकते हैं। प्राय: अपने किसी भाव को हम कई वाक्यों द्वारा व्यक्त करते हें। यहाँ वह भाव अपने में पूर्ण है और कई वाक्य मिलकर उसे व्यक्त करते हैं, अतएव निश्चय ही ये वाक्य पूर्ण (पूरे भाव) के खंड मात्रा हैं, अत: अपूर्ण हैं। यह विवाद यहीं समाप्त नहीं हो जाता। मनोविज्ञानवेत्ता उस भाव या एक पूरी बात (जिसमें बहुत से वाक्य होते हैं) को भी अपूर्ण मानता है, क्योंकि जन्म से लेकर मृत्यु तक उसके अनुसार भाव की एक ही अविच्छिé धारा प्रवाहित होती रहती है ओर बीच में आने वाले छोटे मोटे सारे भाव या बातें उस धारा की लहरें मात्रा हैं अतएव वह अविच्छिé धारा ही केवल पूर्ण है। कहने की आवश्यकता नहीं कि उस अविच्छिé घारा की पूर्णता की तुलना में एक भाव या विचार भी बहुत ही अपूर्ण है तो फिर एक वाक्य की पूर्णता का तो कहना ही क्या जो पूरे भाव या विचार का एक छोटा खंड मात्रा है। इस प्रकार हम देखते हैं कि ‘वाक्य’ की प्रचलित परिभाषा बहुत ही अपूर्ण तथा
अशुद्ध है। यदि बहुत संक्षेप में कहना चाहें तो वाक्य को ‘लघुतम पूर्ण कथन या भाव’ भी कह सकते हैं। स्पष्ट ही ये परिभाषाऐं भी हर दृष्टि से पूर्ण वैज्ञानिक नहीं है, किन्तु किसी अधिक समीचीन परिभाषा के अभाव में काम दे सकती हैं। डा. कपिलदेव द्विवेदी ने वाक्य की व्यावहारिक परिभाषा इस प्रकार दी है- “भाषा की तघुतम पूर्ण सार्थक इकाई को वाक्य कहते हैं।” अर्थात् ‘पूर्ण अर्थ की बोधक सार्थक लघुतम इकाई को वाक्य कहते हैं। यह भाषण या विचारों का एक अंग होता है।’ कोई भी वाक्य ताित्त्वक रूप से पूर्ण अर्थ का बोध नहीं कराता है। वह विचार-धारा का एक अंश होता है। पूरा भाषण या पूरा ग्रन्थ ही पूर्ण अर्थ का बोधक होता है। उसे हम ‘महावाक्य’ कह सकते हैं। वाक्य उसका अंग होगा। पतंजलि ने वाक्य की सत्ता के साथ ही ‘महावाक्य’ की सत्ता भी मानी है और वाक्य को अंग माना है। सा चावश्यं वाक्यसंज्ञा वक्तव्या, समानवाक्याधिकारश्च। डा. कर्णसिंह ने वाक्य की व्यावहारिक परिभाषा इस प्रकार दी है- “तात्कालिक विचराभिव्यक्ति के लिए वाक्य भाषा का चरम अवयव है। या व्यावहारिक दृष्टि से वाक्य भाषा का चरम अवयव है। वाक्य की इस परिभाषा के अनुसार, हम वाक्य को ठीक वैसा ही मान सकते हैं, जैसे मानते हुए हम उसका व्यवहार भाषा में करते हैं। अत: वाक्य में अनेक शब्द भी हो सकते हें तथा वाक्य केवल एक शब्द का भी हो सकता है; उदाहरणार्थ-
अभिप्राय को व्यक्त करने के दृष्टि से (i) तथा (ii) दोनों ही वाक्य हैं।” पद और वाक्य में सम्बन्धप्राय: सभी विद्वान् यह मानते हैं कि वाक्य एक अखण्ड इकाई है। वाक्य का पदों में विभाजन वाक्यार्थ को समझने के लिए एक कल्पित प्रक्रिया है। परन्तु यह भी निर्विवाद सत्य है कि वाक्य में पदों की सत्ता को नकारा नहीं जा सकता। यद्यपि वाक्य में पद का कोई स्वतंत्रा अर्थ नहीं है क्योंकि पद वाक्यार्थ का बोध कराने में सहायक होते हैं और वाक्यार्थ का बोध कराकर पद गौण हो जाते हैं, परन्तु पदों के बिना भी वाक्य का कोई अस्तित्व नहीं हो सकता। जिस प्रकार बिना अवयवों के शरीर का अस्तित्व नहीं हो सकता, उसी प्रकार बिना पदों के वाक्य का कोई अस्तित्व नहीं हो सकता। पद किस प्रकार वाक्य में प्रयुक्त होकर परस्पर अन्वित होते हैं इस विषय में भारतीय विद्वानों में मतभेद है। प्राय: दो मत प्रचलित हैं-
डा. कपिदेव द्विवेदी ने दोनों मतों का विवेचन करते हुए वाक्य और पदों के सम्बन्ध को इस प्रकार अभिव्यक्त किया है- अभिहितान्वयवादइस वाद के प्रवर्तक आचार्य कुमारिल भट्ट है। इनका मत ‘अभिहितान्वयवाद’ कहा जाता है। इसका अर्थ है- ‘अभिहितानां पदार्थानाम् अन्वय:’ पद अपने अर्थ को कहते हैं और उनका वाक्य में अन्वय हो जाता है। इस अन्वय से एक विशिष्ट प्रकार का वाक्यार्थ निकलता है। इस वाद को ‘पद-वाद’ कह सकते हैं। इस बाद में पदों का महत्त्व है और पद-समूह ही वाक्य है। पद के अतिरिक्त वाक्य का कोई महत्त्व नहीं है। अन्विताभिधानवादइस वाद के प्रवर्तक आचार्य कुमारिल भट्ट के शिष्य आचार्य प्रभाकर गुरु हैं। इनका नाम प्रभाकर है। योग्यता में अपने गुरु कुमारिल से भी अधिक बढ़े हुए थे, अत: अपने गुरु का भी गुरु हो जाने के कारण इन्हें ‘गुरु’ कहा जाने लगा। इनका मत ‘अन्विताभिधानवाद’ कहा जाता है। इसका अर्थ है- अन्वितानां पदार्थानाम् अभिधानम्’ वाक्य में पदों के अर्थ समन्वित रूप से विद्यमान रहते हैं। वाक्य को तोड़ने से पृथक्-पृथक् पदों का अर्थ ज्ञात होता है। वाक्य से पदों को निकालने को ‘अपोद्धार’ (Analysis) कहते हैं। इस वाद में वाक्य को महत्त्व दिया गया है, अत: इसे ‘वाक्यवाद’ भी कह सकते हैं। ‘अन्विताभिधानवाद’ के अनुसार पदों की स्वतंत्रा सत्ता नहीं है। वे वाक्य के अवयव हैं और वाक्य-विश्लेषण से उनका अर्थ निकलता है। इस मत के अनुसार ‘वाक्य ही भाषा की सार्थक इकाई है’। आधुनिक भाषा-विज्ञान भी इस मत का पोषक है कि ‘Sentence is a significant unit’ (वाक्य ही सार्थक इकाई है)। आचार्य भतर्ृहरि ने वाक्यपदीय में इसी मत का समर्थन करते हुए कहा है- पदे न वर्णा विद्यते वर्णेष्ववयवा न च। वाक्यात् पदानामत्यन्तं प्रविवेको न कथन।। वाक्य . 1-73 (वर्णों की स्वतन्त्र सत्ता नहीं है और न वर्णों में अवयवों की। वाक्य के अतिरिक्त पदों की कोई स्वतंत्राता सत्ता नहीं है।) विचार करने से ज्ञात होता है कि ‘वाक्यवाद’ ही ग्राह्य मत है। इसको इस प्रकार समझा जा सकता है। ‘अंगों का समूह शरीर है’ या ‘शरीर के अवयव अंग हैं’। विचार करने पर स्पष्ट ज्ञात होता है कि- हाथ, पाँव, आँख, नाक आदि को मिलाकर शरीर नहीं बना है- अपितु ये सभी अंग हमारे शरीर के अवयव है। इसी प्रकार भाषा विचारों की अभिव्यक्ति का साधन है। मन में विचार या भाव समन्वित रूप में वाक्य के रूप में उदय होते हैं। उन वाक्यों को धारावाहिक रूप में हम उच्चारण द्वारा प्रकट करते हैं। विचार संज्ञा, सर्वनाम, क्रिया आदि पदों के रूप में उदय नहीं होते हैं, अत: वाक्य ही स्वाभाविक एवं स्वतंत्र सत्ता है। सामान्य जन को सिखाने के लिए वाक्य-विश्लेषण (अपोद्धार) द्वारा नाम, आख्यात, उपसर्ग, निपात के रूप में वाक्य-विश्लेषण करके पद बनाए जाते हैं और उनका अर्थ निर्धारित किया जाता है। यदि चिन्तन पदों के रूप में होगा तो विचारों का प्रवाह ही नहीं बनेगा। वाक्य-प्रयोग वस्तुत: एक जटिल मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया है। वाक्य-प्रयोग का मनोवैज्ञानिक क्रम यह है-
डा. कर्णसिंह ने पद और वाक्य के सम्बन्ध को इस प्रकार अभिव्यक्त किया है- “वाक्य एवं पद के पसग् में भारतीय विचारधारा में ‘अभिहितान्वायवाद’ तथा ‘अन्विताभिधानवाद’ का महत्त्व है। ये दोनों ही सिद्धान्त मीमांसकों के हैं तथा यह बतलाते हैं कि “वाक्यार्थ क्या है?’” भट्ट कुमारिल तथा उनके अनुयायी ‘अभिहितान्वयवादी’ हैं तथा गुरु प्रभाकर तथा उनके अनुयायी ‘अन्विताभिधानवादी’ हैं। अभिहितान्वयवादियों के अनुसार वाक्य की अपेक्षा ‘पद’ का महत्व अधिक है। पद से ही, पहले पदार्थ का ज्ञान होता है, पुन: पदार्थों के अन्वय से वाक्यार्थ का ज्ञान होता है। अत: पदों से मिलकर ही वाक्य बनता है। सरलता के लिए इस वाद को हम ‘पदवाद’ भी कहते हैं। इसके विपरीत ‘अन्विताभिधानवादियों के अनुसार पद की अपेक्षा ‘वाक्य’ का महत्त्व अधिक है। उनके अनुसार वाक्य से ही वाक्यार्थ का ज्ञान होता है। अपनी सुविधा के लिए ही वैयाकरण वाक्य का विश्लेषण पदों में करते हैं। अत: वाक्य को तोड़कर ही पदेां को पृथक्-पृथक् किया जाता है। वस्तुत:, पदों का अपना स्वतंत्रा कोई महत्व नहीं है। सुविधा के लिए इस वाद को हम ‘वाक्यवाद’ कह सकते हैं इस दृष्टि से आधुनिक भाषाविज्ञान तथा अन्विताभिधानवाद में पर्याप्त समानता है।” वाक्य के आवश्यक तत्त्वभारतीय मनीषियों के अनुसार वाक्य में तीन तत्त्व अनिवार्य हैं-
आचार्य विश्वनाथ ने वाक्य की परिभाषा देते हुए इन्हीं तीन तत्त्वों को स्वीकार किया है- वाक्यं स्याद् योग्यताकांक्षासत्रायुक्त: पदोच्चय:। डा. कर्ण सिंह ने वाक्य के छह आवश्यक तत्त्व माने हैं। उपर्युक्त तीन तत्वों के अतिरिक्त वे सार्थकता, अन्वय और क्रम को भी आवश्यक तत्त्व मानते हैं। उन्होंने इन तत्त्वों का इस प्रकार वर्णन किया है- सार्थकतासार्थकता से तात्पर्य है कि वाक्य में प्रयुक्त पद सार्थक होने चाहिएँ। भाषा का अभिप्राय ही सार्थकता है, अत: उसकी इकाई, वाक्य में भी पदों का सार्थक होना अनिवार्य है। ‘कमल सुन्दर है’ में सभी पद सार्थक है, तथा ‘मकल रसुन्द’ आदि निरर्थक है। अत: वाक्य में ऐसे निरर्थक पदों का प्रयोग नहीं होना चाहिए। योग्यतायोग्यता से तात्पर्य है कि पदों में विवक्षित भाव को कहने की क्षमता होनी चाहिए; अर्थात् पदार्थों के परस्पर सम्बन्ध मं बाधा नहीं होनी चाहिए। ‘अिग्न सिचति’ या ‘आग से सींचता है’ वाक्य में ‘अग्नि’ या ‘आग’ पद सींचने की योग्यता वाला नहीं है। अत: अयोग्य पदों का वाक्य में प्रयोग नहीं होना चाहिए। आकांक्षाआकांक्षा से तात्पर्य है- ‘श्रोता की जिज्ञासा’। वाक्य में एक पद को सुनकर श्रोता में जो जिज्ञासा होती है, वाक्य के अन्य पदों से उसकी पूर्ति होनी चाहिए। अत: वाक्य में प्रयुक्त पद साकांक्ष होने चाहिऐं। इसके विपरीत ‘आकांक्षा शून्य’ ‘गौकोरश्व: पुरुषो हस्ती: आदि या ‘गाय, घोड़ा, पुरुष, हाथी, आदि पद-समूह वाक्य नहीं है; क्योंकि, इनमें से किसी भी एक पद को सुनकर श्रोता में दूसरे की सुनने की आकांक्षा नहीं होती। सन्निधि:सन्निधि से तात्पर्य है पदों का अविलम्ब उच्चारण। वाक्य में प्रयुक्त पदों का उच्चारण, बिना किसी विलम्ब के, एकसाथ किया जाना चाहिए। बहुत विलम्ब से कहे गये- “राम”, “अच्छा”, “लड़का” है” आदि पद वाक्य कहलाने के योग्य नहीं है। अन्वय या अन्वितिअन्वय या अन्विति से तात्पर्य है कि पदों में व्याकरण की दृष्टि से लि ग्, परुष, वचन, कारक आदि का सामंजस्य होना चाहिए। प्रत्येक भाषा में अन्विति के लिये अपने स्वतंत्रा नियम होते हैं। संस्कृत तथा हिन्दी में कतर्ृवाच्य में कर्ता तथा क्रिया में, कर्मवाक्य में कर्म तथा क्रिया में अन्विति होती है। उदाहरणार्थ- संस्कृत में-“राम: पठन्ति।” या “बालका: पठति”। या हिन्दी में-“राम जाती है।” “मैं आते हैं।” अंग्रेजी में- “Ram go” या “I goes” आदि में क्रिया तथा कर्ता में पुरुष तथा वचन की दृष्टि से अन्विति नहीं है। अत: प्रत्येक भाषा में अन्विति-सम्बन्धी जो भी नियम है, वाक्य में उनका पालन होना चाहिए। क्रमक्रम से तात्पर्य है- पदक्रम। इस सम्बन्ध में भी प्रत्येक भाषा में अपने नियम होते हैं। उदाहरणार्थ-
डा. कपिलदेव द्विवेदी विश्वनाथ द्वारा बताए गए तीन तत्त्व अर्थात् आकांक्षा, योग्यता और आसत्ति को ही आवश्यक मानते हैं। परन्तु उन्होंने सार्थकता और अन्विति को भी स्वीकार कर लिया है। डा. द्विवेदी योग्यता का विश्लेषण करते हुए दो प्रकार की अयोग्यता
स्वीकार करते हैं- अर्थमूलक अयोग्यता तथा व्याकरणमूलक अयोग्यता। विषय को समझने के लिए उनके ही शब्द उद्घृत करना समीचीन है-
इस प्रकार आचार्य विश्वनाथ ने आकांक्षा, योग्यता और आसत्ति से युक्त पदों के समूह को वाक्य कहा है। इसी प्रकार उक्त गुणों से युक्त वाक्यों के समूह को ‘महावाक्य’ नाम दिया है। सभी महाकाव्य आदि ग्रन्थ ‘महावाक्य’ हैं। कुमारिल ने तन्त्रावार्तिक में वाक्यों से महावाक्य बनने में अंगांगिभाव से अपेक्षा होने से पुन: समन्वय होकर एकवाक्यता मानी है।1 कुछ विद्वानों ने आकांक्षा, योग्यता और आसत्ति के अतिरिक्त दो अन्य तत्त्वों का उल्लेख किया है- 1. सार्थकता; 2. अन्विति। वस्तुत: ये दोनों तत्त्व ‘योग्यता’ में ही आ जाते हैं।
डा. भोलानाथ तिवारी ने ‘वाक्य के आवश्यक तत्त्व’ जैसी अवधारणा का विवेचन करते हुए पाँच तत्त्वों को स्वीकार किया है। पदक्रम को आवश्यक तत्त्वों में सम्मिलित नहीं किया है। वाक्य में पदविन्यासपाश्चात्य विद्वानों ने वाक्य में प्रयुक्त होने वाले पदों से सम्बन्धित चार आवश्यक विशेषताओं का वर्णन किया है-
डा. कपिलदेव द्विवेदी ने इन चारों तत्त्वों का विवेचन इस प्रकार किया है- वाक्य में पद-विन्यास के आवश्यक गुणभारतीय आचायोऋ ने वाक्य में आकांक्षा, योग्यता और आसत्ति गुणों का होना अनिवार्य बताया है। पाश्चात्य भाषाशािस्त्रायों ने वाक्य में पद-विन्यास-संबंधी चार विशेषताओं का उल्लेख किया है। इन्हें (Features of arrangement) जाता है। ये हैं- 1. चयन (Selection), 2. क्रम (Order), 3. ध्वनि परिवर्तन (Modification) तथा 4. स्वर परिवर्तन (Modulation)। चयनचयन का अर्थ है- वाक्य में प्रयुक्त होने वाले उपयुक्त पदों का चयन। यह चयन दो प्रकार से होता है- (i) अर्थ की दृटि से, (ii) रूप की दृष्टि से
क्रमक्रम का अभिप्राय है कि भाषा में प्रयुक्त वाक्यों के पदों को किस क्रम में रखा जाए। इसको पद-क्रम कहते हैं। सभी भाषाओं में पद-क्रम एक प्रकार नहीं है। संस्कृत और हिन्दी में सामान्यतया पदक्रम का प्रकार है- कर्ता, कर्म, क्रिया। अंग्रे्रजी भाषा आदि में पदक्रम है- कर्ता, क्रिया, कर्म। जैसे- संस्कृत- राम: पुस्तकं पठति। हिन्दी – राम पुस्तक पढ़ता है। अंग्रेजी- Ram Reads the book. संस्कृत में पद-क्रम में परिवर्तन भी होते हैं, परन्तु वह सामान्य नियम नहीं है। संस्कृत में पद-क्रम में परिवर्तन करने पर भी विभक्तियों के कारण कर्ता कर्ता ही रहता है और कर्म कर्म। जैसे- राम: रावणं हन्ति। रावणं राम: हन्ति। हन्ति रावणं राम:। इन तीनों में भी मारने वाला राम रहा और मरने वाला रावण। संस्कृत, जर्मन, रूसी आदि श्लिष्ट योगात्मक भाषाओं में विभक्तियाँ शब्दों के साथ मिली रहती हैं। शब्दों का अर्थ निश्चित रहता है। अत: पदक्रम बदलने पर भी अर्थ में भेद नहीं आता। सामान्यतया पदक्रम बदलने के दो कारण हैं- 1. बल, 2. छन्द में प्रयोग। किसी शब्द पर बल देना होता है तो उसे पहले रख देते हैं। ‘नहीं पढ़ूँगा’ नहीं पर बल है। छन्द की मात्राओं आदि की पूर्ति के लिए शब्दों को आगे-पीछे रखा जाता है। ध्वनि-परिवर्तनवाक्य में दो ध्वनियों के समीप आने से उनमें कुछ ध्वनि-परिवर्तन हो जाते हैं। इसको ‘सन्धि’ कहते हैं। जैसे- जगत् + ईश = जगदीश, अच् + अन्त = अजन्त, रामा + ईश = रमेश, पुन: + जन्म = पुनर्जन्म, मनस् + रथ = मनोरथ। इसी प्रकार महात्मा, महोदय, अध्यात्म आदि में ध्वनि-परिवर्तन है। बोलचाल में ध्वनि-परिवर्तन के अनेक उदाहरण मिलते हैं। लिखते कुछ हैं, बोलते कुछ और हैं । जैसे- कब आओगे > कब आओगे > कबाओगे। कब तक > कब्तक्, जल लाना > जल्लाना, रखा > रक्खा, नारायण विहार > नरैना बिहार, पंडितजी > पंडिज्जी। स्वर-परिवर्तनवाक्यों में बलाघात आदि के कारण स्वरों में कहीं आरोह, कहीं अवरोह होता है। जिस ध्वनि पर बल देते हैं, वह उदात्त हो जाती है। उसे ऊँची आवाज (आरोह) के साथ बोलते हैं। जिस पर बल नहीं देते, वह मध्यम या निम्न ध्वनि में बोली जाती है। स्वर-परिवर्तन से ही उठा (उठा गया) और उठा’ (उठावो), पढ़ा (पढ़ लिया)- पढ़ा’ (पढ़ावो) में अर्थ में अन्तर हो जाता है। ‘आपने पुस्तक पढ़ ली न’, ‘आपने खाना खा लिया है न’ में निषेधार्थक ‘न’ (नहीं) शब्द उच्चारण में स्वर-भेद के कारण ही विधि-वाचक हो गया है। यहाँ ‘न’ का निषेध अर्थ नहीं है। वाक्य और पदक्रमवाक्य में पदक्रम एक महत्त्पूर्ण तत्त्व हैं संस्कृत जैसे श्लिष्ट योगात्मक भाषाओं में पदक्रम इतना महत्त्वपूर्ण नहीं क्योंकि शब्द के साथ जुड़ी हुई विभक्ति सर्वत्रा अपना वही अर्थ देगी चाहे उस पद को किसी भी स्थान पर रख दें। जैसे राम: पुस्तकं पठति वाक्य में पदों के स्थान बदलने से उनके अर्थ में कोई अन्तर नहीं आएगा। पुस्तकं पठति राम: या पठति पुस्तकं राम: कैसे भी लिखें अर्थ एक ही होगा- राम पुस्तक पढ़ता है। परन्तु जो धातु वियोगात्मक हो गई है उनमें या अयोगात्मक भाषाओं में पदक्रम का बहुत महत्त्व है। इन भाषाओं में पदों के स्थान परिवर्तन के साथ ही अर्थ में परिवर्तन हो जाता है। पदक्रम से सम्बन्धित डा. भोलानाथ तिवारी का मत इस प्रकार है। वाक्य में पद-क्रमवाक्य में किस प्रकार के पदों का क्या स्थान, होता है, इसका भी अध्ययन वाक्य विज्ञान में करते हैं। (आगे अयोगात्मक वाक्य पर विचार करते समय इस सम्बन्ध में प्रकाश डाला जाएगा)। वाक्य में पद-क्रम की दष्टि से भाषाएँ दो प्रकार की हैं। एक तो वे हैं, जिन वाक्य में शब्दों (पदों) का स्थान निश्चित नहीं है। इन भाषाओं में शब्दों में विभक्ति लगी होती है, अतएव किसी भी शब्द को उठाकर कहीं रख दें अर्थ में परिवर्तन नहीं होता। ग्रीक, लैटिन, अरबी, फारसी तथा संस्कृत आदि इसी प्रकार की हैं।1 इनके ही वाक्य को शब्दों के स्थान में परिवर्तन करके कई प्रकार से कहा जा सकता है। उदाहरण हैं- अरबीज़रब्अ जैदुन अम्रन = जै़द ने अमर को मारा। फ़ारसीजै़द अमररा ज़द = ज़ैद ने अमर को मारा। संस्कृतज़ैद:
अमरं अहनत् = ज़ैद ने अमर को मारा। दूसरी प्रकार की भाषाएँ वे होती हैं, जिनमें वाक्य में शब्द (पद) का क्रम निश्चित रहता है। ऊपर के उदाहरणों में हम देखते हैं कि शब्दों के स्थान परिवर्तन से अर्थ में कोई फर्क नहीं आया किंतु निश्चित स्थान या स्थान-प्रधान भाषाओं में वाक्य में शब्द का स्थान बदलने से अर्थ बदल जाता है। इसका सर्वोत्तम उदारण चीनी है। यों हिंदी, अंगे्रजी आदि आदि आधुनिक आर्य भाषाओं में भी यह प्रवृत्ति कुछ है। अंग्रेजी का एक उदाहरण है- अंग्रेजीZaid killed Amar = ज़ैद ने अमर को मारा। अंग्रेजी में सामान्यत: कर्त्ता, क्रिया और तब कर्म आता है पर प्रश्नवाचक
वाक्य में क्रिया का कुछ अंश पहले ही आ जाता है। विशेषण संज्ञा के पहले आता है और क्रिया-विशेषण क्रिया के बाद में। हिन्दी में कर्त्ता, कर्म और तब क्रिया रखते हैं। सामान्यत: विशेषण संज्ञा के पूर्व तथा क्रिया-विशेषण क्रिया के पूर्व रखते हैं। चीनी में अंग्रेजी की भाँति कर्ता के बाद क्रिया और तब कर्म रखते हैं। यद्यपि इसकी कुछ बोलियों में कर्म पहले भी आ जाता है। विशेषण और क्रिया-विशेषण हिन्दी की भाँति प्राय: संज्ञा और क्रिया के पूर्व आते हैं। प्रश्नवाचक शब्द (जैसे क्या) अंगे्रजी तथा हिन्दी में वाक्य के
आरम्भ में आते है पर चीनी में वाक्य के अन्त में। पदक्रम के सम्बन्ध में डा. द्विवेदी का विवेचन इस प्रकार है- 1. विश्व की अधिकांश भाषाओं में वाक्य में पद-क्रम निश्चित है। उसी क्रम से उस भाषा में वाक्यों का प्रयोग होता है। पद-क्रम की दृष्टि से विश्व की भाषाओं को दो वर्गों में बाँटा जा सकता है-
2. वाक्य में स्वाराघात: वाक्य में संगीतात्मक और कलात्मक दोनों प्रकार का स्वराघात प्राप्त होता है। संगीतात्मक स्वराघात से आश्चर्य, शंका, निराश आदि का भाव व्यक्त किया जाता है। जैसे- ‘वे चले गए’ के अनेक अर्थ होंगे। संगीतात्मक स्वराघात वाक्य-सुर के रूप में होता है। किसी पद-विशेष पर बल देने से बलात्मक स्वराघात होता है। जैसे- ‘मैं अभी जाऊँगा’ में मैं, अभी और जाऊँगा में से जिस पर बल देंगे, वह अर्थ मुख्य होगा। 3. वाक्य में पद-लोप: प्रयोग और व्यवहार के आधार पर वाक्य में संक्षेप के लिए पदों का लोप हो जाता है। ऐसे स्थानों पर क्रिया का लोप रहता है और उसका अध्याहार (स्मरण) करके पूर्ण अर्थ का ज्ञान होता है। जैसे- कुत:? (कहाँ से, कहाँ से आ रहे हो?) प्रयागात् (प्रयाग से, अर्थात् प्रयाग से आ रहा हूँ)। इस प्रकार कर्ता, क्रिया आदि से हीन वाक्यों में यथायोग्य कर्ता, क्रिया आदि का अध्याहार कर लिया जाता है। 4. वाक्य और पदक्रम-विषयक तथ्य: वाक्य और पदक्रम के संबन्ध में विचार करते समय निम्नलिखित तथ्यों का ध्यान रखना चाहिए:-
वाक्य रचनापाश्चात्य विद्वानों ने वाक्य रचना के दो प्रकार माने हैं-
डा. भोलानाथा तिवारी ने इनकी विवेचन इस प्रकार किया है-
जो रचना ऐसी नहीं होती उसे बहिष्केन्द्री या बहिष्केन्द्रित कहते
हें। इसमें अन्त:केन्द्रित भी की भाँति केवल एक शब्द पूरी रचना के स्थान पर नहीं आ सकता। या दूसरे शब्दों में पूरी रचना एक शब्द के विशेषता नहीं बतलाती। ‘हाथ से’ इसी प्रकार की रचना है। इसमें न तो केवल ‘हाथ’ ‘हाथ से’ का कार्य कर सकता है, और न ‘से’। दोनों की आवश्यक हैं। किसी के बिना रचना पूर्ण नहीं हो सकती है। यहाँ रचना के दोनों घटकों के काम वाक्य में पूर्णत: दो हैं। इन दोनों धटकों या अवयवों में किसी का भी केन्द्र इस रचना में नहीं है। (बहि-केन्द्री)। ‘आदमी गया’, ‘घोड़े को’, ‘पानी में’ आदि ऐसी ही रचनाएँ
हैं।
वाक्यों के प्रकारविश्व की भाषाओं में अनेक प्रकार की वाक्य रचना देखने को मिलती है। वाक्य रचना का विश्लेषण अनेक आधारों पर
किया जाता है। डा. कर्णसिंह ने चार आधार माने हैं जबकि डा. द्विवेदी ने पाँच आधार माने गए हैं। डा. द्विवेदी ने डा. कर्णसिंह द्वारा बताए गए सभी आधारों को स्वीकार किया है तथा शैली के आधार को अतिरिक्त माना है। डा. द्विवेदी का विवेचन इस प्रकार है-
आकृतिमूलक भेदविश्व की भाषाओं का आकृतिमूलक-भेद (Morphological classification) किया जाता है। प्रकृति (Root) और प्रत्यय (Affix) या अर्थतत्त्व और संबन्धतत्त्व किस प्रकार मिलते हैं, इसके आधार पर वाक्य भी चार प्रकार के मिलते हैं-
रचना-मूलक भेदवाक्य की रचना या गठन के आधार पर वाक्य के तीन भेद होते हैं।
अर्थमूलक भेदअर्थ या भाव (Mood) की दृष्टि से वाक्य के प्रमुख 7 भेद किए जाते हैं-
सुर आदि के आधार पर अन्य भेद भी किए जा सकते हैं। क्रिया-मूलक भेदवाक्य में क्रिया के आधार पर दो भेद होते हैं-
शैली-मूलक भेदशैली के आधार पर वाक्यों के तीन भेद किए जो हैं-
वाक्य में परिवर्तन की दिशाएँविकास-क्रम के अनुसार विश्व की प्रत्येक भाषा में परिवर्तन होते हैं। भाषा में परिवर्तन के कारण वाक्यों के गठन और प्रयोग में भी परिवर्तन होता है। यदि संस्कृत और हिन्दी की तुलना करें तो ज्ञात होगा कि संस्कृत में पद-क्रम में परिवर्तन किया जा सकता है- पुस्तकं पठ- पठ पुक्तकम्, गोविन्दं भज-भज गोविन्दम्, परन्तु हिन्दी में कांव्य-प्रयोगों आदि को छोड़कर सामान्यतया पद-क्रम में परिवर्तन नहीं किया जा सकता है। पद-क्रम निश्चित है- कर्ता, कर्म, क्रिया। राम गाँव जाता है, के स्थान पर- गाँव राम जाता है, नहीं कह सकते। संस्कृत के तिड़न्त धातुरूपों में तीनों लिंगों में क्रिया एक ही रहती है- बालक: पतति (गिरता है), बालिका पतति, पत्रां पतति, परन्तु हिन्दी में लिंग-भेद से क्रिया में भेद होता है- बालक पढ़ता है, बालिका पढ़ती है। वाक्य में परिवर्तन की मुख्य दिशाएँ ये हैं:- पदोंम में परिवर्तनहिन्दी में नवीनता के लिए पदक्रम में कुछ नये परिवर्तन दृष्टिगोचर होते हैं। पहले ‘मात्रा’ का प्रयोग संबद्ध शब्द के बाद होता था; अब पहले होने लगा है। जैसे- मानवमात्रा, प्राणिमात्रा, एक रुपयामात्रा के स्थान पर मात्रा मानव, मात्रा प्राणी, मात्रा एक रुपये के लिए, आदि। विशेषण का प्रयोग विशेष्य से पूर्व होता है, परन्तु नवीनता के लिए विशेष्य के बाद भी विशेषण का प्रयोग होता है। काला आदमी, प्राकृतिक दृश्य, उस महात्मा की जीवन लीला, सूअर का बच्चा, निर्धानता का अभिशाप के स्थान पर आदमी काला, दुश्य प्राकृतिक, जीवनलीला उस महात्मा की, बच्चा सूअर का, जैसे प्रयोग प्रचलित हो गए हैं। अन्वय में परिवर्तनसंस्कृत में विशेष्य-विशेषण में लिंग और वचन की अन्विति अनिवार्य है- शोभन: बालक:, शोभनौ बालकौ, शोभना बालिका, शोभनं पुष्पम्, विद्वान् शिष्य:, विदुषी शिष्या। हिन्दी में प्रारम्भ में इसी आधार पर पूज्य पिताजी, पूज्या माताजी, सुन्दर बालक, सुन्दरी कन्या आदि प्रयोग प्रचिलत थे, परन्तु अब इस भेद को हटाकर केवल पुँलिंग विशेषण का ही प्रयोग किया जाता है। पूज्य पिताजी, पूज्य माताजी, सुन्दर कन्या आदि। अधिक पद-प्रयोगअज्ञान आदि के कारण वाक्य में कुछ अधिक पदों का प्रयोग किया जाता है। जैसे- ‘फजूल’ (व्यर्थ) के स्थान ‘बेफूजल’; ‘दरअसल’ (वस्तुत:) के स्थान पर ‘दरअसल में’; घर जाता हूँ- घर को जाता हूँ, मुझे-मेरो को, वह दुर्जन व्यक्ति, श्रेष्ठ-श्रेष्ठतम, सौन्दर्य-सौन्दर्यता। 126 भाषा-विज्ञान पद या प्रत्यय का लोप:संक्षेप या प्रयत्नलाघव के लिए कहीं-कहीं पर पद या प्रत्यय का लोप कर दिया जाता है। जैसे- अहं गच्छामि के स्थान पर ‘गच्छामि’; त्वं पठ, त्वं लिख, पठ, लिख। ‘त्वं कुत: आगच्छसि’ को कुत:?। ‘मैं नहीं पढ़ता हूँ’को ‘मैं नहीं पढ़ता’। ‘वह बीमार उठ नहीं सकता है और न बैठ सकता है’ को ‘वह बीमार उठ-बैठ नहीं सकता’। कोष्ठ और डैश का प्रयोगअर्थ की स्पष्टता के लिए कहीं-कहीं पर कोष्ठ ( ) और डैश ( – ) का प्रयोग किया जाता है। जैसे- (i) राम (परशुराम) ने क्षत्रिय वंश का नाश किया। (ii) राम-जमदग्नि पुत्रा, परशुराम-का क्रोध असह्य था। आदरार्थ बहुवचनआदर या महत्त्व दिखाने के लिए एक के लिए भी बहुवचन का प्रयोग होता है। जैसे- गुरु: पूज्य:’ । ‘अत्राभवान्’ (पूज्य) का अत्रावन्त:। ‘राम वन गया’ को -राम वन गए’। इसी प्रकार ‘आपके शुभदर्शन हुए’, ‘आप कब पधारे’, ‘हमारा (मेरा) अनुरोध है’। प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष कथनअंग्रेजी के वाक्यगठन के प्रभाव के कारण हिन्दी में भी तदनुरूप वाक्यों का प्रयोग होने लगा है। ‘शीला ने कहा कि मैं कल नहीं आऊंगी’ के स्थान पर ‘शीला ने कहा कि वह कल नहीं आएगी’। कारक के लिए अर्धविराम –अंग्रजी के अनुसरण पर हिन्दी में भी संक्षेप के लिए कारक-चिन्हों के स्थान पर अर्ध-विराम (कॉमा ) का प्रयोग होता है। जैसे- ‘प्रयाग विश्वविद्यालय के कुलपति’ के स्थान पर ‘कुलपति, प्रयाग विश्वविद्यालय’। इसी प्रकार ‘अध्यक्ष, लोकसभा’ प्रधानमंत्राी, भारत सरकार’ आदि वाक्य परिवर्तन के कारणध्वनि, रूप और अर्थ के समान वाक्य-रचना में भी परिवर्तन होना स्वाभाविक है। वाक्यरचना में परिवर्तन के कारण लगभग वही हैं जो भाषा-परितर्वन के विषय में बताए गए हैं। सभी विद्वानों ने लगभग एक जैसे कारण माने हैं। यहाँ कुछ प्रमुख कारणों का उल्लेख किया जा रहा है। अन्य भाषाओं का प्रभावविश्व की विविध भाषाओं के परस्पर सम्पर्क के कारण भाषाओं के वाक्य-गठन पर प्रभाव पड़ता है। भारत में भवनों की भाषा अरबी, फारसी और अंग्रेजी की भाषा अंगे्रजी का प्रभाव हिन्दी भाषा पर पड़ा। वाक्यों में ‘कि’ और ‘चूँकि’ का प्रयोग फारसी का प्रभाव है। हिन्दी के प्रारम्भिक साहित्य में ‘कि’ वाले प्रयोग नहीं मिलते हैं। संस्कृत में ‘कि’ के लिए ‘यत्’ निपात है। प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष कथन वाले वाक्यों में अंगे्रजी का प्रभाव पड़ा है। ‘सीता ने कहा कि मैं भी वन जाऊँगी’ के स्थान पर ‘सीता ने कहा कि वह भी वन जाएगी’। अंगे्रजी के प्रभाव के कारण हिन्दी में भी बड़े-बड़े वाक्यों की रचना होने लगी है। संस्कृत में विशेषण-बहुल लम्बे वाक्य दूसरे ढंग के हैं। अंगे्रजी के प्रभाव के कारण क्रिया के बाद कर्म का प्रयोग भी कुछ चलने लगा है- ‘वह पुस्तक पढ़ता है’ के स्थान पर ‘वह पढ़ता है पुस्तक’। इसी प्रकार के वाक्य हैं- मैं पीता हूं चाय, मैं लाया हूँ गुड़िया, मैं खाता हूँ मक्खन, आदि। संस्कृत में किसी अन्य के कथन को ‘इति’ बाद में लगाकर कहा जाता है। इसके लिए अब हिन्दी में ‘ ‘ इन्वर्टेड कामा का प्रयोग अंगे्रजी के देन है। विभक्तियों का घिस जानासंस्कृत, लैटिन, ग्रीक आदि प्राचीन भाषाएँ संयोगात्मक (Synthetical) थीं। विकासक्रम के अनुसार वे वियोगात्मक (Analytical) हो गर्इं। इसके परिणामस्वरूप वाक्य-रचना में अन्तर आ गया। विभक्तियों, प्रत्ययों का कार्य परसर्गोंऋ, सहायक क्रिया आदि से लिया जाने लगा। संयोगात्मक अवस्था में पदक्रम में परिवर्तन हो सकता था। कर्ता, कर्म, क्रिया को आगे-पीछे रख सकते थे, परन्तु वियोगात्मक अवस्था में पदक्रम निश्चित हो जाता है, जैसा कि हिन्दी, अंगे्रजी आदि में विद्यमान है। इसमें कर्ता और कर्म का स्थान बदलने पर अर्थ का अनर्थ हो जाता है। हिन्दी में ने (तृ. एक. एन), पर (उपरि) आदि घिसे हुए कारक-चिन्ह हैं। बलाघातबलाघात के कारण वाक्य-गठन में परिवर्तन हो जाता है। ‘मैं पराजय जैसी चीज नहीं जानता’, के स्थान पर ‘पराजय, मैं नहीं जानता’। स्पष्टतास्पष्टता के लिए वाक्य-गठन में परिवर्तन होता है। इसके लिए कोष्ठ या डैश का प्रयोग होता है। ‘अमरत्व (मोक्ष की कामना) मानव-जीवन का लक्ष्य है’। मानसिक स्थितिभाषा में वाक्यों की रचना पर वक्ता की मानसिक स्थिति का भी पर्याप्त प्रभाव पड़ता है। यदि किसी बाह्य अथवा आन्तरिक कारण से वक्ता क्षुब्ध है, घबराया हुआ है, तो उसकी भाषा में वाक्य छोटे-छोटे, पदक्रम अव्यवस्थित रहता है। यही कारण है कि युद्धकालीन भाषा तथा शान्तिकालीन भाषा में बड़ा अन्तर रहता है। शान्ति-काल में भाषा में प्रयुक्त वाक्यों में व्यवस्था अधिक रहती है। प्रयत्न-लाघवप्रयत्न-लाघव के लिए तो सभी जगह अवकाश रहता है। अत: भाषा के अन्य अंगों की ही भाँति वाक्य-परिवर्तन में भी यह कारणरूप में रहता है। वाक्यों में कुछ प्रत्ययों तथा पदों का लोप इसी का परिणाम है। जैसे “आँखों से देखी बात सच होती है।” के स्थान पर “आँखों देखी बात सच होती है” आदि। अनुकरण की प्रवृत्तिअनेक वक्ताओं में कुछ विशेष कारणों से विशेषत: उच्चता की भावना के कारण किसी भाषा के अनुकरण की प्रवृत्ति उत्पé हो जाती है। ऐसे वक्ता उस तथाकथित उच्च भाषा का अनुकरण जानबूझकर करने लगते हैं, जिससे उनकी अपनी भाषा के वाक्यों में परिवर्तन हो जाता है; जैसे- “मैं जा रहा हूँ।”- मोहन ने कहा। “तुम नहीं जा सकते।”- सोहन ने उसे रोका। यह अंगे्रजी की वाक्य-रचना का अनुकरण है। अन्य भाषा का प्रभाव जहाँ वाक्य-रचना को अनजाने में प्रभावित करता है, वहाँ अनुकरण से जानबूझकर अपनी भाषा को दूसरी भाषा के आधार पर बदलने का प्रयास किया जाता है। नवीनता का प्रयासअनेक वक्ता तथा लेखक अपनी भाषा में नवीनता लाने के लिए वाक्यों के नये-नये प्रयोग करते हैं। इस प्रयास में वाक्य में प्रचलित पदक्रम को बदल दिया जाता है: जैसे- ‘‘यह स्थान मनुष्य मात्रा के लिए है।” के स्थान पर “यह स्थन मात्रा मनुष्यों के लिए है।” इसके अतिरिक्त अनेक बार कर्ताविहीन या क्रियाविहीन वाक्यों का प्रयेाग भी देखा जाता है। अज्ञानअज्ञान के कारण भी वाक्यों में अधिक पदों का प्रयोग होने से, वाक्य-परिवर्तन हो जाता है। अनेक वक्ता ‘दरअसल’, ‘दरहकीकत’, ‘सज्जन’ आदि शब्दों के स्थान पर वाकयों में ‘दरअसल में’ ‘दरहकीकत में’, ‘सज्जन पुरुष’ आदि का प्रयोग करते हैं, जिससे वाक्य-रचना में परिवर्तन हो जाता है। परम्परावादिताकभी-कभी परम्परावादिता से भी वाक्यों में परिवर्तन हो जाता है। संस्कृत के विशेषण-विशेष्य का अन्वय
आवश्यक था, और विशेषण भी पुल्लिंग, स्त्राीलिंग तथा नपुंसकलिंग होता था। हिन्दी में, इस परम्परा का पालन कुछ विशेषणों में तो हो रहा है, किन्तु कुछ में हिन्दी की प्रकृति के अनुसर विशेषण का एक ही लिग् रह गया है। जैसे, ‘चतुर: बालक: या ‘चतुरा बालिका’। संस्कृत के प्रति आग्रह रखने वाले कुछ विद्वान हिन्दी में भी ‘चतुरा बालिका’ जैसा प्रयोग करते हें, जिससे हिन्दी-वाक्यों में परिवर्तन हो जाता है। पदिमपदिम शब्द ब्लूमफील्ड द्वार प्रयुक्त Taxeme शब्द का हिन्दी अनुवाद है। पदिम शब्द का विवरण डा. कपिलदेव द्विवेदी ने इस प्रकार किया है। पदिम क्या है? – वाक्य के लघुतम अवयव को ‘पदिम’ कहते हैं। वाक्य का लघुतम अवयव ‘पद’ होता है। वाक्य के अंग के रूप में ‘पद’ का अध्ययन ‘पदिम’ है। वाक्य में पद किस प्रकार कार्य करते हैं; वे किन आर्यों की अभिव्यक्ति करते हैं; उनके स्थान-परिवर्तन से क्या अर्थभेद होता है? – आदि का विवेचन ‘पदिम’ का विषय
है। पदिम का अवयव को ‘संपद’ ; (Allotax) कहते हैं।
Syntax में ही इन सभी बातों का विवेचन एवं विश्लेषण किया जाता है, अत: Taxeme (पदिम,) के अलग विवेचन की आवश्यकता नहीं मानी जाती है। वाक्य विज्ञान से आप क्या समझते हैं?किसी भाषा में जिन सिद्धान्तों एवं प्रक्रियाओं के द्वारा वाक्य बनते हैं, उनके अध्ययन को भाषा विज्ञान में वाक्यविन्यास, 'वाक्यविज्ञान' या सिन्टैक्स (syntax) कहते हैं। वाक्य के क्रमबद्ध अध्ययन का नाम 'वाक्यविज्ञान' कहते हैं। वाक्य विज्ञान, पदों के पारस्परिक संबंध का अध्ययन है।
वाक्य का क्या महत्व है?शब्दों को जब हम व्याकरण के अनुसार एक सार्थक कर्म में बॉधते है तो वाक्य बनता है। Explanation: वाक्य के बिना हम अपनी बात दूसरो तक नहीं पहुंचा सकते। केवल शब्दो के सहारे कर पाना मुमकिन नहीं।
वाक्य संरचना क्या है स्पष्ट कीजिए?अांग्रेजी भाषा के व्याकरण में Syntax के अन्तगणत वाक्य रचना के बारे में ववचार ककया जाता है।
वाक्य विधि क्या है?पदों या सार्थक शब्दों का व्यवस्थित समूह, जिससे वक्ता के कथन का अभीष्ट आशय अर्थ पूर्ण रूप से स्पष्ट होता है, वाक्य कहलाता है। शब्दों के सार्थक मेल से बनने वाली इकाई वाक्य कहलाती है।
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