Topi Shukla Class 10 – CBSE Class 10 Hindi Sanchayan Bhag 2 lesson 3 along with meanings of difficult words. Given here is the complete explanation of the lesson
टोपी शुक्ला, all the exercises and Question and Answers given at the back of the lesson. यहाँ हम हिंदी कक्षा 10 “संचयन भाग-2” के पाठ-3 “टोपी शुक्ल” कहानी के पाठ-प्रवेश, पाठ-सार, पाठ-व्याख्या, कठिन-शब्दों के अर्थ और NCERT की पुस्तक के अनुसार प्रश्नों के उत्तर, इन सभी का वर्णन कर रहे हैं।   लेखक परिचयलेखक – राही मासूम रज़ा Topi Shukla पाठ प्रवेश‘टोपी शुक्ला’कहानी के लेखक ‘राही मासूम रजा’हैं। इस कहानी के माध्यम से लेखक बचपन की बात करता है। बचपन में बच्चे को जहाँ से अपनापन और प्यार मिलता है वह वहीं रहना चाहता है। यह नामों का जो चक्कर होता है वह बहुत ही अजीब होता है। परन्तु खुद देख लीजिए कि केवल नाम बदल जाने से कैसी-कैसी गड़बड़ हो जाती है। यदि नाम कृष्ण हो तो उसे अवतार कहते हैं और अगर नाम मुहम्मद हो तो पैगम्बर (अर्थात पैगाम देने वाला)। कहने का अर्थ है की एक को ईश्वर और दूसरे को ईश्वर का पैगाम देने वाला कहा जाता है। नामों के चक्कर में पड़कर लोग यह भूल जाते हैं कि दोनों ही दूध देने वाले जानवरों को चराया करते थे। दोनों ही पशुपति, गोवर्धन और ब्रज में रहने वाले कुमार थे। प्रस्तुत पाठ में भी लेखक ने दो परिवारों का वर्णन किया है जिसमें से एक हिन्दू और दूसरा मुस्लिम परिवार है। दोनों परिवार समाज के बनाए नियमों के अनुसार एक दूसरे से नफ़रत करते हैं परन्तु दोनों परिवार के दो बच्चों में गहरी दोस्ती हो जाती है। ये दोस्ती दिखती है कि बच्चों की भावनाएँ किसी भेद को नहीं मानती। आज के समाज के लिए ऐसी ही दोस्ती की आवश्यकता है। जो धर्म के नाम पर खड़ी दीवारों को गिरा सके और समाज का सर्वांगीण विकास कर सके। Top Topi Shukla Class 10 Video ExplanationTop Topi Shukla Chapter SummaryTopi Shukla Summary – प्रस्तुत पाठ में लेखक टोपी की कहानी पाठकों को सुनाना चाहते हैं। इसलिए लेखक कहता है कि वह इफ़्फ़न की कहानी पूरी नहीं सुनाएगा बल्कि केवल उतनी ही सुनाएगा जितनी टोपी की कहानी के लिए उसे जरुरी लग रही है। इफ़्फ़न टोपी की कहानी का एक ऐसा हिस्सा है जिसके बिना शायद टोपी की कहानी अधूरी है। ये दोनों लेखक की कहानी के दो चरित्र हैं। एक का नाम बलभद्र नारायण शुक्ला है और दूसरे का नाम सय्यद जरगाम मुरतुज़ा। एक को सभी प्यार से टोपी कह कर पुकारते हैं और दूसरे को इफ़्फ़न। इफ़्फ़न की दादी पूरब की रहने वाली थी। नौ या दस साल की थी जब उनकी शादी हुई और वह लखनऊ आ गई, परन्तु जब तक ज़िंदा रही, वह पूरब की ही भाषा बोलती रही। लखनाऊ की उर्दू तो उनके लिए ससुराल की भाषा थी। उन्होंने तो मायके की भाषा को ही गले लगाए रखा था क्योंकि उनकी इस भाषा के सिवा उनके आसपास कोई ऐसा नहीं था जो उनके दिल की बात समझ पाता। जब उनके बेटे की शादी के दिन आए तो गाने बाजाने के लिए उनका दिल तड़पने लगा, परन्तु इस्लाम के आचार्यों के घर गाना-बजाना भला कैसे हो सकता था? बेचारी का दिल उदास हो गया। लेकिन इफ़्फ़न के जन्म के छठे दिन के स्नान/पूजन/उत्सव पर उन्होंने जी भरकर उत्सव मना लिया था। लेखक कहता है कि इफ़्फ़न की दादी किसी इस्लामी आचार्य की बेटी नहीं थी बल्कि एक जमींदार की बेटी थी। दूध-घी खाती हुई बड़ी हुई थी परन्तु लखनऊ आ कर वह उस दही के लिए तरस गई थी। जब भी वह अपने मायके जाती तो जितना उसका मन होता, जी भर के खा लेती। क्योंकि लखनऊ वापिस आते ही उन्हें फिर मौलविन बन जाना पड़ता। इफ़्फ़न को अपनी दादी से बहुत ज्यादा प्यार था। प्यार तो उसे अपने अब्बू, अम्मी, बड़ी बहन और छोटी बहन नुज़हत से भी था परन्तु दादी से वह सबसे ज्यादा प्यार किया करता था। अम्मी तो कभी-कभार इफ़्फ़न को डाँट देती थी और कभी-कभी तो मार भी दिया करती थी। बड़ी बहन भी अम्मी की ही तरह कभी-कभी डाँटती और मारती थी। अब्बू भी कभी-कभार घर को न्यायालय समझकर अपना फैसला सुनाने लगते थे। नुजहत को जब भी मौका मिलता वह उसकी कापियों पर तस्वीरें बनाने लगती थी। बस एक दादी ही थी जिन्होंने कभी भी किसी बात पर उसका दिल नहीं दुखाया था। वह रात को भी उसे बहराम डाकू, अनार परी, बारह बुर्ज, अमीर हमज़ा, गुलबकावली, हातिमताई, पंच फुल्ला रानी की कहानियाँ सुनाया करती थी। इफ़्फ़न की दादी की बोली टोपी के दिल में उतर गई थी, उसे भी इफ़्फ़न की दादी की बोली बहुत अच्छी लगती थी। इफ़्फ़न की दादी टोपी को अपनी माँ की पार्टी की दिखाई दी कहने का अर्थ है टोपी की माँ और इफ़्फ़न की दादी की बोली एक जैसी थी। टोपी को अपनी दादी बिलकुल भी पसंद नहीं थी। उसे तो अपनी दादी से नफ़रत थी। वह पता नहीं कैसी भाषा बोलती थी। टोपी को अपनी दादी की भाषा और इफ़्फ़न के अब्बू की भाषा एक जैसी लगती थी। लेखक कहता है कि टोपी जब भी इफ़्फ़न के घर जाता था तो उसकी दादी के ही पास बैठने की कोशिश करता था। टोपी को इफ़्फ़न की दादी का हर एक शब्द शक़्कर की तरह मिठ्ठा लगता था। पके आम के रस को सूखाकर बनाई गई मोटी परत की तरह मज़ेदार लगता। तिल के बने व्यंजनों की तरह अच्छा लगता था। लेखक कहता है कि इफ़्फ़न की दादी टोपी से हमेशा एक ही सवाल पूछ कर बात आगे बढ़ती थी कि उसकी अम्माँ क्या कर रही है। पहले-पहले तो टोपी को समझ में नहीं आया कि ये अम्माँ क्या होता है परन्तु बाद-बाद में उसे समझ में आ गया कि माता जी को ही अम्माँ कहा जाता है। जब टोपी ने अम्माँ शब्द सुना तो उसे यह शब्द बहुत अच्छा लगा। जिस तरह गुड़ की डाली को मुँह में रख कर उसके स्वाद का आनंद लिया जाता है उसी तरह वह इस शब्द को भी बार-बार बोलता रहा। “अम्माँ”। “अब्बू”। “बाजी”। उसे ये शब्द बहुत पसंद आए। एक दिन टोपी को बैंगन का भुरता ज़रा ज्यादा अच्छा लगा। रामदुलारी (टोपी की माँ) खाना परोस रही थी। टोपी ने कह दिया कि अम्मी, ज़रा बैंगन का भुरता। अम्मी! यह शब्द सुनते ही मेज़ पर बैठे सभी लोग चौंक गए, उनके हाथ खाना खाते-खाते रुक गए। वे सभी लोग टोपी के चेहरे की ओर देखने लगे। टोपी की दादी सुभद्रादेवी तो उसी वक्त खाने की मेज़ से उठ गई थी और टोपी की माँ रामदुलारी ने टोपी को फिर बहुत मारा । एक ही बात बार-बार पूछ रही थी कि क्या अब वो इफ़्फ़न के घर जाएगा? इसके उत्तर में हर बार टोपी “हाँ” ही कहता था। मुन्नी बाबू और भैरव जो टोपी के भाई थे वे टोपी की पिटाई का तमाशा देखते रहे। लेखक कहता है कि जब टोपी की पिटाई हो रही थी, उसी समय मुन्नी बाबू एक और बात जोड़ कर बोले कि एक दिन, उन्होंने इसे रहीम कबाबची की दुकान पर कबाब खाते देखा था। सच्ची बात यह थी कि टोपी ने मुन्नी बाबू को कबाब खाते देख लिया था और मुन्नी बाबू ने उसे एक इकन्नी रिश्वत की दी थी। ताकि टोपी घर पर उनकी शिकायत न कर दे। उस दिन तो टोपी की इतनी पिटाई हो गई थी कि उसका सारा शरीर दर्द कर रहा था। दूसरे दिन जब टोपी स्कूल गया और स्कूल में इफ़्फ़न से मिला तो उसने उसे पिछले दिन की सारी बातें बता दी। दोनों भूगोल शास्त्र की कक्षा को छोड़कर बाहर निकल गए। पंचम की दूकान से इफ़्फ़न ने केले ख़रीदे क्योंकि बात यह थी कि टोपी फल के अलावा बाहर की किसी भी चीज़ को हाथ नहीं लगाता था। टोपी बहुत ही भोलेपन से इफ़्फ़न से कहता है कि क्या ऐसा नहीं हो सकता कि वे लोग दादी बदल ले? उसकी दादी इफ़्फ़न के घर और इफ़्फ़न की दादी उसके घर आ जाए। टोपी कहता है कि उसकी दादी की बोली तो इफ़्फ़न के परिवार की बोली की तरह ही है। टोपी की इस बात का जवाब देते हुए इफ़्फ़न कहता है कि टोपी की यह इच्छा पूरी नहीं हो सकती। उसके अब्बू यह बात नहीं मानेंगे। क्योंकि उसकी दादी उसके अब्बू की अम्माँ भी तो हैं। जब टोपी और इफ़्फ़न बात कर रहे थे उसी समय इफ़्फ़न का नौकर आया और खबर दी कि इफ़्फ़न की दादी का देहांत हो गया है। शाम को जब वह इफ़्फ़न के घर गया तो वहाँ शांति थी। घर लोगों से भरा हुआ था। परन्तु एक दादी के न होने से टोपी के लिए पूरा घर खली हो चूका था। जबकि टोपी को दादी का नाम भी मालूम नहीं था, परन्तु उसका इफ़्फ़न की दादी से बहुत गहरा सम्बन्ध बन गया था। दोनों अपने घरों में अजनबी और भरे घर में अकेले थे क्योंकि दोनों को ही उनके घर में कोई समझने वाला नहीं था। दोनों ने एक दूसरे का अकेलापन दूर कर दिया था। टोपी इफ़्फ़न को सहानुभूति देता हुआ कहता है कि इफ़्फ़न दादी की जगह उसकी दादी मर गई होती तो ठीक हुआ होता। लेखक कहता है कि टोपी ने दस अक्तूबर सन पैंतालीस को कसम खाई कि अब वह किसी भी ऐसे लड़के से कभी भी दोस्ती नहीं करेगा जिसके पिता कोई ऐसी नौकरी करते हो जिसमें बदली होती रहती हो। दस अक्तूबर सन पैंतालीस का टोपी के जीवन के इतिहास में बहुत अधिक महत्त्व है, क्योंकि इस तारीख को इफ़्फ़न के पिता बदली पर मुरादाबाद चले गए। टोपी दादी के मरने के बाद तो अकेला महसूस कर ही रहा था और अब इफ़्फ़न के चले जाने पर वह और भी अकेला हो गया था क्योंकि दूसरे कलेक्टर ठाकुर हरिनाम सिंह के तीन लड़कों में से कोई उसका दोस्त नहीं बन सका था। डब्बू बहुत छोटा था। बीलू बहुत बड़ा था। गुड्डू था तो बराबर का परन्तु केवल अंग्रेजी बोलता था। अब न तो इफ़्फ़न था और न ही इफ़्फ़न की दादी जो उसे समझ सके। घर में ले-देकार एक बूढ़ी नौकरानी सीता थी जो उसका दुःख-दर्द समझती थी। तो वह अब सीता के साथ ही समय गुजारने लगा। ठण्ड के दिन शुरू हो गए थे और मुन्नी बाबू के लिए कोट का नया कपड़ा आया और भैरव के लिए भी नया कोट बना लेकिन टोपी को मुन्नी बाबू का पुराना कोट मिला। वैसे कोट बिलकुल नया ही था क्योंकि जब वह बनाया गया तब वह मुन्नी बाबू को पसंद नहीं आया था। टोपी ने वह कोट उसी वक्त दूसरी नौकरानी केतकी के बेटे को दे दिया। वह खुश हो गया। नौकरानी के बच्चे को दे दी गई कोई भी चीज़ वापिस तो ली नहीं जा सकती थी, इसलिए तय हुआ कि टोपी ठण्ड ही खाएगा। इस पर दादी और टोपी के बीच बहस हो गई और दादी ने पूरा घर अपने सिर पर उठा लिया। जब टोपी को उसकी माँ ने दादी को उल्टा जवाब देने के लिए पीटा तो उनकी बूढ़ी नौकरानी सीता टोपी को समझाने लगी कि अब वह दसवीं कक्षा में पहुँच गया है। उसे दादी से इस तरह बात नहीं करनी चाहिए । सीता ने तो बड़ी आसानी से कह दिया कि टोपी दसवीं कक्षा में पहुँच गया है परन्तु टोपी के लिए दसवीं कक्षा में पहुँचना इतना भी आसान नहीं था। दसवीं कक्षा में पहुँचने के लिए टोपी को बहुत अधिक मेहनत करनी पड़ी थी। दो साल तो टोपी फेल ही हुआ था। वह पढ़ाई में बहुत तेज़ था परन्तु उसे कोई पढ़ने ही नहीं देता था। जब भी टोपी पढ़ाई करने बैठता था तो कभी उसके बड़े भाई मुन्नी बाबू को कोई काम याद आ जाता था या उसकी माँ को कोई ऐसी चीज़ मँगवानी पड़ जाती जो नौकरों से नहीं मँगवाई जा सकती थी, अगर ये सारी चीज़े न होती तो कभी उसका छोटा भाई भैरव उसकी कापियों के पन्नों को फाड़ कर उनके हवाई जहाज़ बना कर उड़ाने लग जाता। यह तो थी पहले साल की बात। दूसरे साल उसे टाइफ़ाइड हो गया था। जिसके कारण वह पढ़ाई नहीं कर पाया और दूसरी साल भी फेल हो गया। तीसरे साल वह पास तो हो गया परन्तु थर्ड डिवीज़न में। यह थर्ड डिवीज़न कलंक के टिके की तरह उसके माथे से चिपक गया। टोपी के सभी दोस्त दसवीं कक्षा में थे। इसलिए वह उन्हीं से मिलता और उन्हीं के साथ खेलता था। अपने साथ नवीं कक्षा में पढ़ने वालों में से किसी के साथ उसकी दोस्ती नहीं थी। वह जब भी कक्षा में बैठता, उसे अजीब लगता था। टोपी ने किसी न किसी तरह इस साल को झेल लिया। परन्तु जब सन इक्यावन में भी उसे नवीं कक्षा में ही बैठना पड़ा तो वह बिलकुल गीली मिट्टी का पिंड हो गया, क्योंकि अब तो दसवें में भी कोई उसका दोस्त नहीं रह गया था। जो विद्यार्थी सन उनचास में आठवीं कक्षा में थे वे अब दसवीं कक्षा में थे। जो सन उनचास में सातवीं कक्षा में थे वे टोपी के साथ पहुँच गए थे। उन सभी के बीच में वह अच्छा-ख़ासा बूढ़ा दिखाई देने लगा था। वहीद जो कक्षा का सबसे तेज़ लड़का था, उसने टोपी से पूछा कि वह उन लोगों के साथ क्यों खेलता है। उसे तो आठवीं कक्षा वालों से दोस्ती करनी चाहिए। क्योंकि वे लोग तो आगे दसवीं कक्षा में चले जाएँगे और टोपी को तो आठवीं वालों के साथ ही रहना है तो उनसे दोस्ती करना टोपी के लिए अच्छा होगा। यह बात टोपी को बहुत बुरी लगी और ऐसा लगा जैसे यह बात उसके दिल के आर-पार हो गई हो। और उसने उसी समय कसम खाई कि इस साल उसे टाइफ़ाइड हो या टाइफ़ाइड का बाप, वह पास होकर ही दिखाएगा। परन्तु साल के बीच में ही चुनाव आ गए। टोपी के पिता डॉक्टर भृगु नारायण, नीले तेल वाले, चुनाव लड़ने के लिए खड़े हो गए। अब जिस घर में कोई चुनाव के लिए खड़ा हो, उस घर में कोई पढ़-लिख कैसे सकता है? वह तो जब टोपी के पिता चुनाव हार गए तब घर में थोड़ी शांति हुई और टोपी ने देखा कि उसकी परीक्षा को ज्यादा समय नहीं रहा है। वह पढ़ाई में जुट गया। परन्तु जैसा वातावरण टोपी के घर में बना हुआ था ऐसे वातावरण में कोई कैसे पढ़ सकता था? इसलिए टोपी का पास हो जाना ही बहुत था। टोपी के दो साल एक ही कक्षा में रहने के बाद जब वह पास हुआ तो उसकी दादी बोली कि वाह! टोपी को भगवान नजरे-बंद से बचाए। बहुत अच्छी रफ़्तार पकड़ी है। तीसरे साल पास हुआ वो भी तीसरी श्रेणी में, चलो पास तो हो गया। परन्तु लेखक कहता है कि सभी को उसकी मुश्किलों को भी ध्यान में रखना चाहिए कि वह किस वजह से दो साल फेल हुआ और तीसरी साल में थर्ड डिवीज़न से पास हुआ। Related – Class 10 Hindi Writing Skills Topi Shukla Chapter Explanation पाठ व्याख्याइफ़्फ़न के बारे में कुछ जान लेना इसलिए ज़रूरी है कि इफ़्फ़न टोपी का पहला दोस्त था। इस इफ़्फ़न को टोपी ने सदा इफ्फन कहा। इफ़्फ़न ने इसका बुरा माना। परन्तु वह इफ्फन पुकारने पर बोलता रहा। इसी बोलते रहने में उसकी बड़ाई थी। यह नामों का चक्कर भी अजीब होता है। उर्दू और हिंदी एक ही भाषा, हिंदवी के दो नाम हैं। परन्तु आप खुद देख लीजिए कि नाम बदल जाने से कैसे-कैसे घपले हो रहे हैं। नाम कृष्ण हो तो उसे अवतार कहते हैं और मुहम्मद हो तो पैगम्बर। नामों के चक्कर में पड़कर लोग यह भूल गए कि दोनों ही दूध देने वाले जानवर चराया करते थे। दोनों ही पशुपति, गोवर्धन और ब्रजकुमार थे। इसलिए तो कहता हूँ कि टोपी के बिना इफ़्फ़न और इफ़्फ़न के बिना टोपी न केवल यह कि अधूरे हैं बल्कि बेमानी हैं। इसलिए इफ़्फ़न के घर चलना ज़रूरी है। यह देखना ज़रूरी है कि उसकी आत्मा के आँगन में कैसी हवाएँ चल रही है और परम्पराओं के पेड़ पर कैसे फल आ रहे हैं। घपला – गड़बड़ पैगम्बर – पैगाम देने वाला लेखक कहता है कि इफ़्फ़न के बारे में कुछ जान लेना इसलिए ज़रूरी है क्योंकि इफ़्फ़न टोपी का पहला दोस्त था। इस इफ़्फ़न को टोपी हमेशा ही इफ्फन कहकर पुकारता था। इफ़्फ़न को इस बात का बुरा लगता था। परन्तु जब भी टोपी उसे इफ्फन पुकारता है इफ़्फ़न उसे बोलता रहा की वह गलत बोल रहा है। वह हर समय टोपी को अपने नाम को सही बोलने के लिए कहता रहता था। लेखक कहता है कि यह नामों का जो चक्कर होता है वह बहुत ही अजीब होता है। हिंदवी एक भाषा है जिसके उर्दू और हिंदी दो अलग-अलग नाम हैं। परन्तु खुद देख लीजिए कि केवल नाम बदल जाने से कैसी-कैसी गड़बड़ हो जाती हैं। यदि नाम “कृष्ण” हो तो उसे अवतार कहते हैं और अगर नाम “मुहम्मद” हो तो पैगम्बर (अर्थात पैगाम देने वाला)। कहने का अर्थ है की एक को ईश्वर और दूसरे को ईश्वर का पैगाम देने वाला कहा जाता है। नामों के चक्कर में पड़कर लोग यह भूल जाते हैं कि दोनों ही दूध देने वाले जानवरों को चराया करते थे। दोनों ही पशुपति, गोवर्धन और ब्रज में रहने वाले कुमार थे। इसलिए लेखक कहता है कि टोपी के बिना इफ़्फ़न और इफ़्फ़न के बिना टोपी न केवल अधूरे हैं बल्कि यह बेमानी कही जायगी। इसलिए इफ़्फ़न के घर चलना ज़रूरी है। यह देखना ज़रूरी है कि उसकी आत्मा के आँगन में कैसी हवाएँ चल रही है और परम्पराओं के पेड़ पर कैसे फल आ रहे हैं। अर्थात इफ़्फ़न क्या सोच रहा है। (2) इफ़्फ़न की कहानी भी बहुत लंबी है। परन्तु हम लोग टोपी की कहानी कह-सुन रहे हैं। इसलिए मैं इफ़्फ़न की पूरी कहानी नहीं सुनाऊँगा बल्कि केवल उतनी ही सुनाऊँगा जितनी टोपी की कहानी के लिए जरुरी है। मैंने इसे ज़रूरी जाना कि इफ़्फ़न के बारे में आपको कुछ बता दूँ क्योंकि इफ़्फ़न आपको इस कहानी में जगह-जगह दिखाई देगा। न टोपी इफ़्फ़न की परछाई है और न इफ़्फ़न टोपी की। ये दोनों दो आज़ाद व्यक्ति हैं। इन दोनों व्यक्तियों का डेवलपमेंट एक-दूसरे से आज़ाद तौर पर हुआ। इन दोनों को दो तरह की घरेलू परम्पराएँ मिलीं। इन दोनों ने जीवन के बारे में अलग-अलग सोचा। फिर भी इफ़्फ़न टोपी की कहानी का एक अटूट हिस्सा है। यह बात बहुत महत्वपूर्ण है कि इफ़्फ़न टोपी की कहानी का एक अटूट हिस्सा है। डेवलपमेंट – विकास लेखक कहता है कि इफ़्फ़न की कहानी भी बहुत लंबी है। परन्तु प्रस्तुत पाठ में लेखक टोपी की कहानी पाठकों को सुनाना चाहते हैं। इसलिए लेखक कहता है कि वह इफ़्फ़न की कहानी पूरी नहीं सुनाएगा बल्कि केवल उतनी ही सुनाएगा जितनी टोपी की कहानी के लिए उसे जरुरी लग रही है। लेखक कहता है कि उसे यह ज़रूरी लगा कि इफ़्फ़न के बारे में वह पाठकों को कुछ बता दे क्योंकि इफ़्फ़न इस कहानी में जगह-जगह दिखाई देने वाला है। वह कहानी में टोपी के साथ हर जगह है पर यह जान लेना चाहिए कि न तो टोपी इफ़्फ़न की परछाई है और न इफ़्फ़न टोपी की परछाई है। ये दोनों ही इस कहानी के दो आज़ाद व्यक्ति हैं। इन दोनों व्यक्तियों का विकास एक-दूसरे से आज़ाद तौर पर हुआ अर्थात इन दोनों के विकास में एक-दूसरे का कोई योगदान नहीं है। इन दोनों को दो तरह के घरेलू रीती रिवाज़ मिले। इन दोनों ने ही जीवन के बारे में हमेशा से अलग-अलग सोचा। फिर भी इफ़्फ़न टोपी की कहानी का एक ऐसा हिस्सा है जिसके बिना शायद टोपी की कहानी अधूरी है। यह बात बहुत महत्वपूर्ण है कि इफ़्फ़न टोपी की कहानी का सबसे अहम हिस्सा है। मैं हिन्दू-मुस्लिम भाई-भाई की बात नहीं कर रहा हूँ। मैं यह बेवकूफ़ी क्यों करूँ! क्या मैं रोज अपने बड़े या छोटे भाई से यह कहता हूँ कि हम दोनों भाई-भाई हैं? यदि में नहीं कहता तो क्या आप कहते हैं? हिन्दू-मुस्लिम अगर भाई-भाई हैं तो कहने की जरुरत नहीं। यदि नहीं हैं तो कहने से क्या फ़र्क पड़ेगा। मुझे कोई चुनाव तो लड़ना नहीं है। मैं
तो एक कथाकार हूँ और एक कथा सुना रहा हूँ। मैं टोपी और इफ़्फ़न की बात कर रहा हूँ। ये इस कहानी के दो चरित्र हैं। एक का नाम बलभद्र नारायण शुक्ला है और दूसरे का नाम सय्यद जरगाम मुरतुज़ा। एक को टोपी कहा गया और दूसरे को इफ़्फ़न। लेखक कहता है कि वह हिन्दू-मुस्लिम भाई-भाई की बात नहीं कर रहा है। लेखक कहता है कि वह यह बेवकूफ़ी आखिर करे भी तो क्यों करे। क्या वह रोज अपने बड़े या छोटे भाई से यह कहता फिरता है कि वे दोनों भाई-भाई हैं? लेखक पाठकों से पूछता है कि यदि वह नहीं कहता तो क्या पाठकों में से कोई यह कहता हैं? हिन्दू-मुस्लिम अगर भाई-भाई हैं तो कहने की जरुरत ही नहीं है। और यदि नहीं है तो लेखक के कहने से क्या फ़र्क पड़ जाएगा क्योंकि लेखक कहता है कि उसे कोई चुनाव तो लड़ना नहीं है। चुनाव की बात लेखक ने इसलिए की है क्योंकि अक्सर चुनावों में नेता इस पंक्ति का प्रयोग करते हैं। लेखक कहता है कि वह तो एक कथा-सुनाने वाला है और एक कथा सुना रहा है। लेखक टोपी और इफ़्फ़न की कहानी की बात कर रहा है। ये दोनों लेखक की कहानी के दो चरित्र हैं। एक का नाम बलभद्र नारायण शुक्ला है और दूसरे का नाम सय्यद जरगाम मुरतुज़ा। एक को सभी प्यार से टोपी कह कर पुकारते हैं और दूसरे को इफ़्फ़न। इफ़्फ़न के दादा और परदादा बहुत प्रसिद्ध मौलवी थे। काफ़िरों के देश में पैदा हुए। काफ़िरों के देश में मरे। परन्तु वसीयत करके मरे कि लाश करबला ले जाई जाए। उनकी आत्मा ने इस देश में एक साँस तक ना ली। उस खानदान में जो पहला हिन्दुस्तानी बच्चा पैदा हुआ वह बढ़कर इफ़्फ़न का बाप हुआ। जब इफ़्फ़न के पिता सय्यद मुरतुज़ा हुसैन मरे तो उन्होंने यह वसीयत नहीं की कि उनकी लाश करबला ले जाई जाए। वह एक हिन्दुस्तानी कब्रिस्तान में दफन किए गए। इफ़्फ़न की परदादी भी बड़ी नमाजी बीबी थीं। करबला, नजफ़, खुरासान, काज़मैन और जाने कहाँ की यात्रा कर आई थीं। परन्तु जब कोई घर से जाने लगता तो वह दरवाज़े पर पानी का एक घड़ा जरूर रखवातीं और माश का सदका भी जरूर उतरवातीं। मौलवी – इस्लाम धर्म का आचार्य लेखक कहता है कि इफ़्फ़न के दादा और परदादा इस्लाम धर्म के बहुत प्रसिद्ध आचार्य थे। गैर मुस्लिम देश में पैदा हुए। और गैर मुस्लिम देश में ही मरे। परन्तु मरने स े पहले ही उन्होंने लिखित रूप में कह रखा था कि मरने के बाद उनकी लाश करबला (इस्लाम का एक पवित्र स्थान) ले जाई जाए। उनकी आत्मा ने हिंदुस्तान में एक साँस तक नहीं ली। उस खानदान में जो पहला हिन्दुस्तानी बच्चा पैदा हुआ वह इफ़्फ़न के पिता थे। इफ़्फ़न की परदादी नियमित रूप से नमाज पढ़ने वाली बीबी थीं। करबला, नजफ़, खुरासान, काज़मैन और न जाने कहाँ-कहाँ की यात्रा कर के आई थीं। परन्तु जब कोई घर से जाने लगता तो वह दरवाज़े पर पानी का एक घड़ा जरूर रखवातीं और माश का एक टोटका भी जरूर उतरवातीं। यह एक हिन्दू रीती-रिवाज़ के अंतर्गत आता है। इफ़्फ़न की दादी भी नमाज़-रोज़े की पाबंद थीं। परन्तु जब इकलौते बेटे को चेचक निकली तो वह चारपाई के पास एक टाँग पर खड़ी हुईं और बोलीं, “माता मोरे बच्चे को माफ़ करद्यो।” पूरब में रहने वाली थीं। नौ या दस बरस की थीं जब ब्याह कर लखनऊ आईं, परन्तु जब तक ज़िंदा रहीं पूरबी बोलती रहीं। लखनाऊ की उर्दू ससुराली थी। वह तो मायके की भाषा को गले लगाए रहीं क्योंकि इस भाषा के सिवा इधर-उधर कोई ऐसा नहीं था जो उसके दिल की बात समझता। जब बेटे की शादी के दिन आए तो गाने बाजाने के लिए उनका दिल फड़का परन्तु मौलवी के घर गाना-बजाना भला कैसे हो सकता था! बेचारी दिल मसोसकर रह गईं। हाँ इफ़्फ़न की छठी… पर उन्होंने जी भरकर जश्न मना लिया। बात यह थी कि इफ़्फ़न अपने दादा के मरने के बाद पैदा हुआ था। मर्दों और औरतों के इस फ़र्क को ध्यान में रखना ज़रूरी है क्योंकि इस बात को ध्यान में रखे बगैर इफ़्फ़न की आत्मा का नाक-नक्शा समझ में नहीं आ सकता। पाबंद – नियम, वचन आदि का पालन करनेवाला लेखक कहता है कि इफ़्फ़न की दादी भी नमाज़-रोज़े का नियम के अनुसार पालन करने वाली थी। परन्तु जब इकलौते बेटे
को चेचक के दाने निकले तो वह चारपाई के पास एक टाँग पर खड़ी हुई और बोली कि माता मेरे बच्चे को माफ़ कर दो। ऐसा इसलिए कहा क्योंकि हिन्दू धर्म में चेचक को माता कहा जाता है। इस बात का ज़िक्र लेखक ने इसलिए किया है क्योंकि इफ़्फ़न की दादी मुस्लिम होते हुए भी हिन्दू धर्म का अनुसरण कर रही थी। इफ़्फ़न की दादी पूरब की रहने वाली थी। नौ या दस साल की थी जब उनकी शादी हुई और वह लखनऊ आ गई, परन्तु जब तक ज़िंदा रही, वह पूरब की ही भाषा बोलती रही। लखनाऊ की उर्दू तो उनके लिए ससुराल की भाषा थी। उन्होंने तो मायके की
भाषा को ही गले लगाए रखा था क्योंकि उनकी इस भाषा के सिवा उनके आसपास कोई ऐसा नहीं था जो उनके दिल की बात समझ पाता। जब उनके बेटे की शादी के दिन आए तो गाने बाजाने के लिए उनका दिल तड़पने लगा, परन्तु इस्लाम के आचार्यों के घर गाना-बजाना भला कैसे हो सकता था? बेचारी का दिल उदास हो गया। लेकिन इफ़्फ़न के जन्म के छठे दिन के स्नान/पूजन/उत्सव पर उन्होंने जी भरकर उत्सव मना लिया था। इफ़्फ़न की दादी किसी मौलवी की बेटी नहीं थी बल्कि एक जमींदार की बेटी थीं। दूध-घी खाती हुई आई थीं परन्तु लखनऊ आ कर वह उस दही के लिए तरस गईं जो घी पिलाई हुई काली हाँडियों में असामियों के यहाँ से आया करता था। बस मायके जातीं तो लपड़-शपड़ जी भर के खा लेतीं। लखनऊ आते ही उन्हें फिर मौलविन बन जाना पड़ता। अपने मियाँ से उन्हें यही तो एक शिकायत थी कि वक्त देखे न मौका, बस मौलवी ही बने रहते हैं। ससुराल में उनकी आत्मा सदा बेचैन रही। जब मरने लगीं तो बेटे ने पूछा कि लाश करबला जाएगी या नज़फ, तो बिगड़ गईं। बोलीं, “ए बेटा जउन तूँ से हमरी लाश ना सँभाली जाए त हमरे घर भेज दिहो।” हाँडियाँ – मिट्टी का वह छोटा गोलाकार बरतन लेखक कहता है कि इफ़्फ़न की दादी किसी इस्लामी आचार्य की बेटी नहीं थी बल्कि एक जमींदार की बेटी थी। दूध-घी खाती हुई बड़ी हुई थी परन्तु लखनऊ आ कर वह उस दही के लिए तरस गई थी जो घी से भरी हुई काली मिट्टी के छोटे गोलाकार बरतन में असम के व्यापारी लाया करते थे। जब भी वह अपने मायके जाती तो लपड़-शपड़ अर्थात जितना उसका मन होता, जी भर के खा लेती। क्योंकि लखनऊ वापिस आते ही उन्हें फिर मौलविन बन जाना पड़ता। अपने पति से उन्हें यही एक शिकायत थी कि वे हर वक्त जब भी देखो बस मौलवी ही बने रहते थे। इफ़्फ़न की दादी की आत्मा ससुराल में सदा बेचैन रही अर्थात वे ससुराल में बहुत खुश नहीं थी। जब मरने वाली थी तो उनके बेटे ने उनसे पूछा कि वे क्या चाहती है कि उनकी लाश करबला जानी चाहिए या नज़फ, तो वह बिगड़ गई और गुस्से में बोली कि बेटा अगर उससे उनकी लाश नहीं सँभाली जाती तो वह उनकी लाश को उनके घर भेज दें। मौत सिर पर थी इसलिए उन्हें यह याद नहीं रह गया कि अब घर कहाँ है। घरवाले कराची में हैं और घर कस्टोडियन का हो चुका है। मरते वक्त किसी को ऐसी छोटी-छोटी बातें भला कैसे याद रह सकती हैं। उस वक्त तो मनुष्य अपने सबसे ज्यादा खूबसूरत सपने देखता है (यह कथाकार का खयाल है, क्योंकि वह अब तक मरा नहीं है!) इफ़्फ़न की दादी को भी अपना घर याद आया। उस घर का नाम कच्ची हवेली था। कच्ची इसलिए कि वह मिट्टी से बनी थी। उन्हें दसहरी आम का वह बीजू पेड़ याद आया जो उन्होंने अपने हाथ से लगाया था और जो उन्हीं की तरह बूढ़ा हो चुका था। ऐसी ही छोटी-छोटी और मीठी-मीठी बेशुमार चीज़ें याद आई। वह इन चीज़ों को छोड़कर भला करबला या नज़फ कैसे जा सकती थीं! वह बनारस के ‘फातमैन’ में दफ़न की गईं क्योंकि मुरतुज़ा हुसैन की पोस्टिंग उन दिनों वहीं थी। इफ़्फ़न स्कूल गया हुआ था। नौकर ने आकर खबर दी कि बीबी का देहांत हो गया। इफ़्फ़न की दादी बीबी कही जाती थीं। कस्टोडियन – जिस सम्पति पर किसी का मालिकाना हक़ न हो उसका सरक्षण करने वाला विभाग लेखक कहता है की इफ़्फ़न की दादी मौत के नजदीक थी इसलिए शायद उन्हें यह याद नहीं रहा कि अब उनका घर कहाँ है। उनके सभी मायके वाले अब कराची में हैं और उनके मायके के घर का सरक्षण हो चुका है। लेखक का मानना है कि मरते वक्त किसी को ऐसी छोटी-छोटी बातें भला कैसे याद रह सकती हैं क्योंकि उस वक्त तो मनुष्य अपने सबसे ज्यादा खूबसूरत सपने देखता है, ऐसा लेखक इसलिए सोचता है क्योंकि वह अब तक मरा नहीं है। इफ़्फ़न की दादी को भी अपना घर याद आया। उस घर का नाम कच्ची हवेली था। कच्ची इसलिए कि वह मिट्टी से बनी थी। उन्हें दसहरी आम का वह बीजू पेड़ जो उन्होंने खुद आम की गुठली की मदद से उगाया था, याद आया। वह उन्होंने अपने हाथ से लगाया था और वह पेड़ भी उन्हीं की तरह बूढ़ा हो चुका था। ऐसी ही छोटी-छोटी और मीठी-मीठी बहुत सारी चीज़ें उन्हें याद आई। वह इन चीज़ों को छोड़कर भला करबला या नज़फ कैसे जा सकती थी। वह बनारस के ‘फातमैन’ में दफ़न की गई क्योंकि मुरतुज़ा हुसैन यानी इफ़्फ़न के पिता की पोस्टिंग उन दिनों वहीं थी।
जब इफ़्फ़न की दादी का देहांत हुआ उस समय इफ़्फ़न स्कूल गया हुआ था। नौकर ने स्कूल आकर खबर दी कि बीबी का देहांत हो गया। इफ़्फ़न की दादी को सभी बीबी कह कर पुकारते थे। उस समय इफ़्फ़न चौथी कक्षा में पढ़ता था और टोपी से उसकी मुलाकात हो चुकी थी। “सोता है संसार जागता है पाक परवरदिगार। आँखों से देखी नहीं कहती। कानों की सुनी कहती हूँ कि एक मुलुक में एक बादशाह रहा…..” पाक – पवित्र लेखक कहता है कि इफ़्फ़न की दादी पूरब की भाषा में इफ़्फ़न को कहानी सुनाते हुए
कहती थी कि जब सारा संसार सोता है तब परमेश्वर जागता है। दादी इफ़्फ़न से कहती, कि वह आँखों से देखी घटना नहीं सुनाती। वह कानों की सुनी हुई घटना को सुनाती है कि “एक देश में एक बादशाह रहता था…..” इफ़्फ़न की दादी की बोली टोपी के दिल में उतर गई थी, उसे भी इफ़्फ़न की दादी की बोली बहुत अच्छी लगती थी। टोपी की माँ और इफ़्फ़न की दादी की बोली एक जैसी थी। टोपी को अपनी दादी बिलकुल भी पसंद नहीं थी। उसे तो अपनी दादी से नफ़रत थी। वह पता नहीं कैसी भाषा बोलती थी। टोपी को अपनी दादी की भाषा और इफ़्फ़न के अब्बू की भाषा एक जैसी लगती थी। वह जब इफ़्फ़न के घर जाता तो उसकी दादी ही के पास बैठने की कोशिश करता। इफ़्फ़न की अम्मी और बाजी से वह बातचीत करने की कभी कोशिश ही न करता। वे दोनों अलबत्ता उसकी बोली पर हँसने के लिए उसे छेड़तीं परन्तु जब बात बढ़ने लगती तो दादी बीच-बचाव करवा देतीं- लेखक कहता है कि टोपी जब भी इफ़्फ़न के घर जाता था तो उसकी दादी के ही पास बैठने की कोशिश करता था। इफ़्फ़न की अम्मी और बड़ी बहन से तो वह बातचीत करने की कभी कोशिश नहीं करता था। क्योंकि वे दोनों ही टोपी की बोली पर हँसने के लिए उसे छेड़तीं थी परन्तु जब बात बढ़ने लगती थी तो दादी बीच-बचाव करवा देतीं थी और टोपी को डाँटते
हुए कहती थी कि वो क्यों उन सब के पास जाता है उनके पास कोई काम नहीं होता उसे परेशान करने के आलावा। ये कह कर दादी टोपी को अपने पास बुला लेती । टोपी को इफ़्फ़न की दादी की डाँट का हर एक शब्द शक़्कर की तरह मीठा लगता था। पके आम के रस को सूखाकर बनाई गई मोटी परत की तरह मज़ेदार लगता। तिल के बने व्यंजनों की तरह अच्छा लगता और वह दादी की डाँट सुन कर चुपचाप उनके पास चला आता। लेखक कहता है कि इफ़्फ़न की दादी टोपी से हमेशा एक ही सवाल पूछ कर बात आगे बढ़ाती थी कि उसकी अम्मा क्या कर रही है। पहले-पहले तो टोपी को
समझ में नहीं आया कि ये अम्मा क्या होता है परन्तु बाद में उसे समझ में आ गया कि माता जी को ही अम्मा कहा जाता है। चुभलाना – मुँह में कोई खाद्य पदार्थ रखकर उसे जीभ से बार-बार हिलाकर इधर-उधर करना लेखक कहता है कि जब टोपी ने अम्मा शब्द सुना तो उसे यह शब्द बहुत अच्छा लगा। जिस तरह गुड़ की डाली को मुँह में रख कर उसे जीभ से बार-बार हिलाकर इधर-उधर करके उसके स्वाद का
आनंद लिया जाता है उसी तरह वह इस शब्द को भी बार-बार बोलता रहा। “अम्माँ”। “अब्बू”। “बाजी”। उसे ये शब्द बहुत पसंद आए। डॉक्टर भृगु नारायण शुक्ला नीले तेल वाले (टोपी के पिता) के घर में भी बीसवीं सदी प्रवेश कर चुकी थी। कहने का अर्थ है कि अब टोपी के
घर में भी खाना मेज़-कुरसी पर खाया जाता था। लगती तो थालियाँ ही थीं परन्तु जैसे पहले जमीन पर पालथी मार कर खाना खाया जाता था, उसकी जगह पर मेज़-कुरसी का प्रयोग किया जाने लगा था। उस दिन ऐसा हुआ कि टोपी को बैंगन का भुरता ज़रा ज्यादा अच्छा लगा। रामदुलारी (टोपी की माँ) खाना परोस रही थी। टोपी ने कह दिया कि अम्मी, ज़रा बैंगन का भुरता। अम्मी! यह शब्द सुनते ही मेज़ पर बैठे सभी लोग चौंक गए, उनके हाथ खाना खाते-खाते रुक गए। वे सभी लोग टोपी के चेहरे की ओर देखने लगे। लेखक कहता है कि सभी यह सोच रहे थे कि यह “अम्मी” शब्द इस घर में कैसे आया। ऐसा लग रहा था जैसे रीति-रिवाजों की दीवार हिलने लगी हो। सुभद्रादेवी (टोपी की दादी) ने टोपी से सवाल किया कि ये लफ़्ज़ उसने कहाँ से सीखा? लफ़्ज़ सुनते ही टोपी ने अपनी आँखें घुमाई और
अपनी माँ से लफ़्ज़ का अर्थ पूछने लगा। दादी फिर से गुस्से से पूछने लगी कि ये अम्मी कहना उसको किसने सिखाया है? इस पर टोपी ने उत्तर दिया कि यह उसने इफ़्फ़न से सीखा है। इफ़्फ़न सुनते ही दादी ने उसका पूरा नाम जानना चाहा परन्तु टोपी ने कहा कि उसे नहीं पता कि इफ़्फ़न का पूरा नाम क्या है? इतने में टोपी की माँ रामदुलारी बोल पड़ी कि “तैं कउनो मियाँ के लइका से दोस्ती कर लिहले बाय का रे?” अर्थात कहीं किसी मियाँ यानि मुस्लिम के लड़के से तो दोस्ती नहीं कर ली है। रामदुलारी की इस बोली पर सुभद्रादेवी बरस पड़ीं
और कहने लगी की उसने कितनी बार रामदुलारी से कहा है कि इस तरह उसके सामने गँवारों की यह ज़बान न बोला करे। लेखक कहता है कि अब ऐसा लग रहा था कि लड़ाई का विषय ही बदल गया हो। कुटाई – पिटाई लड़ाई का दूसरा दिन था इसलिए जब टोपी के पिता डॉक्टर भृगु नारायण नीले तेल वाले को यह पता चला कि टोपी ने कलेक्टर साहब के लड़के से पक्की दोस्ती कर ली है (कहने का अर्थ है कि इफ़्फ़न के पिता कलेक्टर थे) तो वह अपना गुस्सा पी गए और तीसरे ही दिन टोपी की दोस्ती का फायदा उठा कर उन्होंने इफ़्फ़न के पिता से कपड़े और शक्कर के परमिट (अनुमति जो सरकार द्वारा आधिकारिक तौर पर लिखित रूप में दी जाती है) ले लिए । ये बात तो दूसरे-तीसरे दिन की है परन्तु जिस
दिन सभी को पता चला था कि टोपी ने एक मुस्लिम लड़के से दोस्ती कर रखी है, तो उस दिन टोपी की बड़ी बुरी दशा हुई थी। टोपी की दादी सुभद्रादेवी तो उसी वक्त खाने की मेज़ से उठ गई थी और टोपी की माँ रामदुलारी ने टोपी को फिर बहुत मारा था और एक ही बात बार-बार पूछ रही थी कि क्या अब वह इफ़्फ़न के घर जाएगा? इसके उत्तर में हर बार टोपी “हाँ” ही कहता था। रामदुलारी उसके हर बार “हाँ” कहने पर कहती थी कि वह उसकी हाँ को मिट्टी में मिला देगी। टोपी की माँ टोपी को मारते-मारते थक गई परन्तु टोपी ने यह नहीं कहा कि वह इफ़्फ़न
के घर नहीं जाएगा। मुन्नी बाबू और भैरव जो टोपी के भाई थे, वे टोपी की पिटाई का तमाशा देखते रहे। घिन्न – नफ़रत लेखक कहता है कि जब टोपी की पिटाई हो रही थी, उसी समय मुन्नी बाबू एक और बात जोड़ कर बोले कि एक दिन टोपी को उन्होंने रहीम कबाबची की दुकान पर कबाब खाते देखा था। कबाब का नाम सुनते ही टोपी की माँ रामदुलारी
नफ़रत के साथ दो कदम पीछे हट गई और “राम, राम, राम” कहने लगी। टोपी मुन्नी की तरफ़ देखने लगा क्योंकि सच्ची बात यह थी कि टोपी ने मुन्नी बाबू को कबाब खाते देख लिया था और मुन्नी बाबू ने उसे एक इकन्नी रिश्वत की दी थी ताकि टोपी घर पर उनकी शिकायत न कर दे। टोपी को यह मालूम था परन्तु वह शिकायत करने वाला नहीं था। उसने अब तक मुन्नी बाबू की कोई बात इफ़्फ़न के सिवा किसी और को नहीं बताई थी। टोपी मुन्नी बाबू की ओर देख कर बोला क्या उसने टोपी को कबाब खाते देखा था? तो मुन्नी ने फिर से कहा क्यों उस दिन नहीं देखा था
क्या? इस पर टोपी की दादी सुभद्रादेवी ने मुन्नी बाबू से सवाल किया कि उसने उसी दिन क्यों नहीं बताया? टोपी बस बोलता रह गया कि मुन्नी झूठ बोल रहा है। बदन – शरीर लेखक कहता है कि जिस दिन टोपी की पिटाई हुई थी, उस दिन टोपी बहुत उदास रहा। टोपी अभी इतना बड़ा नहीं हुआ था कि वह झूठ और सच को साबित करने की कोशिश करता और सच्ची बात तो यह है कि वह इतना बड़ा कभी हो भी नहीं सका। उस दिन तो टोपी की इतनी पिटाई हो गई थी कि उसका सारा शरीर दर्द कर रहा था। वह बस लगातार एक ही बात सोचता रहा कि
अगर एक दिन के लिए वह अपने बड़े भाई मुन्नी बाबू से बड़ा हो जाता तो वह जरूर उन्हें सबक सिखाता। परन्तु मुन्नी बाबू से बड़ा होना उसके लिये बिलकुल नामुमकिन था। वह मुन्नी बाबू से छोटा पैदा हुआ था और हमेशा उनसे छोटा ही रहने वाला था। “अय्यसा ना हो सकता का की हम लोग दादी बदल लें,” टोपी ने कहा। “तोहरी दादी हमरे घर आ जाएँ अउर हमरी तोहरे घर चली जाएँ। हमरी दादी त बोलियो तूँहीं लोगन को बो-ल-थीं।” अय्यसा – ऐसा टोपी बहुत ही भोलेपन से इफ़्फ़न से कहता है कि क्या ऐसा नहीं हो सकता कि वे लोग दादी बदल ले? उसकी दादी इफ़्फ़न के घर और इफ़्फ़न की दादी उसके घर आ जाए। टोपी कहता है कि उसकी दादी की बोली तो इफ़्फ़न के परिवार की बोली की तरह ही है। टोपी की इस बात का जवाब देते हुए इफ़्फ़न कहता है कि टोपी की यह इच्छा पूरी नहीं हो सकती। उसके अब्बू यह बात नहीं मानेंगे। और अगर उसकी दादी टोपी के घर चली जायगी तो उसे कहानी कौन सुनाएगा? इफ़्फ़न टोपी से पूछता है कि क्या उसकी दादी को बारह बुर्ज की कहानी आती है? टोपी इफ़्फ़न के इस तरह के जवाब को सुनकर अंदर से टूट गया और इफ़्फ़न से कहने लगा कि क्या वह उसे एक दादी भी नहीं दे सकता है। फिर इफ़्फ़न टोपी को समझाते हुए कहता है कि जो उसकी दादी हैं वह उसके अब्बू की अम्माँ भी तो हैं। यह बात टोपी को समझ आ गई। फिर इफ़्फ़न टोपी से पूछता है कि टोपी की दादी भी तो उसकी दादी की तरह बूढ़ी होंगी। टोपी हामी भरता है। इफ़्फ़न टोपी को कहता है कि वह चिंता न करे क्योंकि उसकी दादी कहती हैं कि बूढ़े लोग मर जाते हैं। टोपी कहता है कि
उसकी दादी नहीं मारेगी। इस पर इफ़्फ़न कहता है कि कैसे नहीं मारेगी? क्या उसकी दादी झूठ बोलती है? इफ़्फ़न चला गया। टोपी अकेला रह गया। वह मुँह लटकाए हुए जिम्नेज़ियम में चला गया। बूढ़ा चपड़ासी एक
तरफ बैठा बीड़ी पी रहा था। वह एक कोने में बैठकर रोने लगा। शाम को वह इफ़्फ़न के घर गया तो वहाँ सन्नाटा था। घर भरा हुआ था। रोज़ जितने लोग हुआ करते थे उससे ज्यादा ही लोग थे। परन्तु एक दादी के न होने से टोपी के लिए घर खली हो चूका था। जबकि उसे दादी का नाम तक नहीं मालूम था। उसने दादी के हज़ार कहने के बाद भी उनके हाथ की कोई चीज़ नहीं खाई थी। प्रेम इन बातों का पाबन्द नहीं होता। टोपी और दादी में एक ऐसा ही सम्बन्ध हो चूका था। इफ़्फ़न के दादा जीवित होते तो वह इस सम्बन्ध को बिलकुल उसी तरह न समझ पाते जैसे
टोपी के घरवाले न समझ पाए थे। दोनों अलग-अलग अधूरे थे। एक ने दूसरे को पूरा कर दिया था। दोनों प्यासे थे। एक ने दूसरे की प्यास बुझा दी थी। दोनों अपने घरों में अजनबी और भरे घर में अकेले थे। दोनों ने एक दूसरे का अकेलापन मिटा दिया था। एक बहत्तर बरस की थी और दूसरा आठ साल का। सन्नाटा – शांति लेखक कहता है कि जब नौकर ने आकर बताया कि इफ़्फ़न की दादी का देहांत हो गया है तो इफ़्फ़न स्कूल से घर चला गया। टोपी स्कूल में अकेला रह गया। वह मुँह लटकाए हुए जिम्नेज़ियम में चला गया। वहाँ बूढ़ा चपड़ासी एक तरफ बैठा बीड़ी पी रहा था। टोपी वहाँ एक कोने में बैठकर रोने लगा। शाम को जब वह इफ़्फ़न के घर गया तो वहाँ शांति थी। ऐसा नहीं है की घर में कोई नहीं था, घर लोगों से भरा हुआ था। जितने लोग रोज़ हुआ करते थे उससे ज्यादा ही लोग थे। परन्तु एक दादी के न होने से टोपी के लिए पूरा घर खाली हो चूका था। जबकि टोपी को दादी का नाम भी मालूम नहीं था परन्तु उसका इफ़्फ़न की दादी से बहुत गहरा सम्बन्ध बन गया था। उसने दादी के हज़ार कहने के बाद भी उनके हाथ की कोई चीज़ नहीं खाई थी। प्रेम इन बातों को नहीं मानता। टोपी और दादी में एक ऐसा सम्बन्ध हो चूका था जिसे शायद अगर इफ़्फ़न के दादा जीवित होते तो वह भी बिलकुल उसी तरह न समझ पाते जैसे टोपी के घरवाले नहीं समझ पाए थे। दोनों अलग-अलग अधूरे थे। एक ने दूसरे को पूरा कर दिया था। दोनों ही प्यार के प्यासे थे और एक ने दूसरे की इस प्यास को बुझा दिया था। दोनों अपने-अपने घरों में अजनबी और भरे घर में अकेले थे क्योंकि दोनों को ही उनके घर में कोई समझने वाला नहीं था। दोनों ने एक दूसरे का अकेलापन दूर कर दिया था। एक बहत्तर बरस की थी और दूसरा आठ साल का। टोपी इफ़्फ़न को सहानुभूति देता हुआ कहता है कि इफ़्फ़न की दादी की जगह उसकी दादी मर गई होती तो ठीक हुआ होता। इफ़्फ़न ने टोपी की इस बात का कोई जवाब नहीं दिया, असल में इफ़्फ़न को टोपी की इस बात का जवाब आता ही नहीं था। फिर दोनों दोस्त चुपचाप रोने लगे।
(3) टोपी ने दस अक्तूबर सन पैंतालीस को कसम खाई कि अब वह किसी ऐसे लड़के से दोस्ती नहीं करेगा जिसका बाप ऐसी नौकरी करता हो जिसमें बदली होती रहती है। आत्म-इतिहास – जीवन के इतिहास लेखक कहता है कि टोपी ने दस अक्तूबर सन पैंतालीस को कसम खाई कि अब वह किसी भी ऐसे लड़के से कभी भी दोस्ती नहीं करेगा जिसके पिता कोई ऐसी नौकरी करते हो जिसमें बदली होती रहती हो। दस अक्तूबर सन पैंतालीस का ऐसे तो कोई महत्त्व नहीं है परन्तु टोपी के जीवन के इतिहास में इस तारीख का बहुत अधिक महत्त्व है, क्योंकि इस तारीख को इफ़्फ़न के पिता बदली पर मुरादाबाद चले गए। इफ़्फ़न की दादी के मरने के थोड़े दिनों बाद ही इफ़्फ़न के पिता की बदली हुई थी। टोपी दादी के मरने के बाद तो अकेला महसूस कर ही रहा था और अब इफ़्फ़न के चले जाने पर वह और भी अकेला हो गया था क्योंकि दूसरे कलेक्टर ठाकुर हरिनाम सिंह के तीन लड़कों में से कोई उसका दोस्त नहीं बन सका था। डब्बू बहुत छोटा था। बीलू बहुत बड़ा था। गुड्डू था तो बराबर का परन्तु केवल अंग्रेजी बोलता था। और उन तीनो को इसका एहसास था कि वे कलेक्टर के बेटे हैं इसलिए अकड़ कर रहते थे और किसी को अपने से ऊपर नहीं समझते थे। यही कारण था कि उनमें से किसी ने भी टोपी को मुँह नहीं लगाया अर्थात किसी ने भी टोपी के साथ दोस्ती नहीं की। माली और चपरासी टोपी को पहचानते थे। इसलिए वह
बंगले में चला गया। बीलू, गुड्डू और डब्बू उस समय क्रिकेट खेल रहे थे। डब्बू ने हिट किया। गेंद सीधे टोपी मुँह पर आई। उसने घबराकर हाथ उठाया। गेंद उसके हाथों में आ गई। हेड माली अंपायर था। उसने उँगली उठा दी। वह बेचारा यह समझ सका कि जब ‘हाउज़ दैट’ का शोर हो तो उसे उँगली उठा देनी चाहिए “हू
आर यू?” डब्बू ने सवाल किया। मसहूर – प्रसिद्ध लेखक कहता है कि माली और चपरासी टोपी को पहचानते थे। इसलिए टोपी इफ़्फ़न के जाने के बाद बंगले में गया। बीलू, गुड्डू और डब्बू उस समय क्रिकेट खेल रहे थे। डब्बू ने गेंद को बोन्ड्री की ओर मारा। गेंद सीधे टोपी के मुँह पर आई। उसने घबराकर जैसे ही हाथ उठाया, गेंद उसके हाथों में आ गई। जैसे ही गेंद टोपी के हाथों में आई, वैसे ही गेंद करने वाला गुड्डू चिल्लाया “हाउज़ दैट”। हेड माली अंपायर था। उसने उँगली उठा दी। उस बेचारे को अब तक सिर्फ यह समझ आ सका था कि जब ‘हाउज़ दैट’ का शोर हो तो उसे उँगली उठा देनी चाहिए। टोपी को देख कर डब्बू ने सवाल किया कि तुम कौन हो? डब्बू के इस सवाल के जवाब में टोपी ने अपना पूरा नाम बताया की वह बलभद्र नरायण है। फिर गुड्डू ने सवाल किया कि उसके पिता का क्या नाम है? टोपी ने बताया कि उसके पिता का नाम भृगु नरायण है। बीलू ने अंपायर बने हेड चपरासी को आवाज़ दी और उससे पूछा कि ये भृगु नरायण कौन है? क्या वो उनके चपरासियों में से एक है? अंपायर बने हेड चपरासी ने बीलू के प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा कि भृगु नरायण उनका कोई चपरासी नहीं है, वह तो शहर का प्रसिद्ध दागदर है। डब्बू माली के दागदर शब्द को सही करता हुआ पूछता है कि क्या वह डॉक्टर कहना चाहता है। हेड माली हामी भरता है। उसे उनके साथ रहते हुए इतनी अंग्रेजी तो आ ही गई थी। बीलू टोपी को देख कर बोलता है कि वह भद्दा दिख रहा है। टोपी यह सुन कर घमंड के साथ बोलता है कि वह अपनी जुबान संभाल कर बात करे। अगर उसने उन्हें एक थप्पड़ मार दिया तो वे नाचने लगेंगे।
इतना सुनते ही बीलू ने टोपी पर हाथ चला दिया और टोपी गिर गया। फिर टोपी उसे गालियाँ बकता हुआ उठा। परन्तु हेड माली उनकी लड़ाई को ख़त्म करने के लिए बीच में आया। इतने में डब्बू ने अपने अलसेशियन कुत्ते को आवाज दे कर टोपी के पीछे छोड़ दिया। भुकीं – चुभी लेखक कहता है कि जब डब्बू ने अपने अलसेशियन कुत्ते को आवाज दे कर टोपी के पीछे छोड़ दिया तो कुत्ते ने टोपी को काट लिया। फिर जब टोपी के पेट में सात सुइयाँ चुभाई गई तो टोपी के होश ठिकाने आए। और फिर उसने कलेक्टर साहब के बँगले की ओर चेहरा नहीं किया। परन्तु अब प्रश्न यह खड़ा हो गया कि फिर आखिर वह करे क्या? क्योंकि अब न तो इफ़्फ़न था और न ही इफ़्फ़न की दादी जो उसे समझ सके। घर में ले-देकार एक बूढ़ी नौकरानी सीता थी जो उसका दुःख-दर्द समझती थी। तो वह अब सीता के साथ ही समय गुजारने लगा और सीता की छाया में जाने के बाद उसकी आत्मा भी छोटी हो गई। क्योंकि सीता को घर के सभी छोटे-बड़े डाँट लिया करते थे और टोपी को भी घर के सभी छोटे-बड़े डाँट लिया करते थे। तो दोनों की स्थिति एक सी थी इसलिए दोनों एक-दूसरे से प्यार करने लगे। एक रात जब मुन्नी बाबू और भैरव की बराबरी करने के कारण टोपी बहुत पीटा तो सीता ने उसे अपनी कोठरी में ले जा कर समझाना शुरू किया कि वह इस तरह किसी की बराबरी करने की कोशिश न किया करे। बात यह हुई कि जाड़ों के दिन थे। मुन्नी बाबू के लिए कोट का नया कपड़ा आया। भैरव के लिए भी नया कोट बना। टोपी को मुन्नी बाबू का कोट मिला। कोट बिलकुल नया था। मुन्नी बाबू को पसंद नहीं आया था। फिर भी बना तो था उन्ही के लिए। था तो उतरन। टोपी ने वह कोट उसी वक्त दूसरी नौकरानी केतकी के बेटे को दे दिया। वह खुश हो गया। नौकरानी के बच्चे को दे दी जाने वाली चीज़ वापिस तो ली नहीं जा सकती थी, इसलिए तय हुआ कि टोपी जाड़ा खाए। “हम
जाड़ा-ओड़ा ना खाएँगे। भात खाएँगे।” टोपी ने कहा। जाड़ा – ठण्ड लेखक कहता है कि सीता टोपी को इसलिए समझा रही थी क्योंकि बात यह हुई कि ठण्ड के दिन थे और मुन्नी बाबू के लिए कोट का नया कपड़ा आया और भैरव के लिए भी नया कोट बना लेकिन टोपी को मुन्नी बाबू का पुराना कोट मिला। वैसे कोट बिलकुल नया ही था क्योंकि जब वह बनाया गया तब वह मुन्नी बाबू को पसंद नहीं आया था। फिर भी बना तो उन्हीं के लिए था। भले ही वह उसे ना पहनते हो। टोपी ने वह कोट उसी वक्त दूसरी नौकरानी केतकी के बेटे को दे दिया। वह खुश हो गया। नौकरानी के बच्चे को दे दी गई कोई भी चीज़ वापिस तो ली नहीं जा सकती थी, इसलिए तय हुआ कि टोपी ठण्ड ही खाएगा। टोपी छोटा था इसलिए ठण्ड खाने का अर्थ समझा नहीं और भोलेपन से बोला कि वह कोई ठण्ड नहीं खाएगा। वह तो भात खाएगा। इस पर टोपी की दादी सुभद्रादेवी बोली कि वह तो जूते खाएगा। टोपी उनकी इस बात पर झट से बोल पड़ा कि क्या उन्हें इतना भी नहीं पता कि जूता खाया नहीं जाता बल्कि पहना जाता है। टोपी के इस तरह बोलने पर मुन्नी बाबू गुस्से से टोपी को डाँटते हुए बोले कि वह दादी का अपमान क्यों कर रहा है? इस पर भी टोपी उल्टा जवाब देता हुआ बोला कि तो क्या वह उनकी पूजा करे? यह सुनते ही दादी ने बहुत अधिक शोर मचाना शुरू कर दिया और टोपी की माँ रामदुलारी ने टोपी को पीटना शुरू कर दिया। “तूँ दसवाँ में पहुँच गइल
बाड़।” सीता ने कहा, “तूँ हें दादी से टर्राव के त ना न चाही। कीनों ऊ तोहार दादी बाड़िन।” तीसरे साल वह थर्ड डिवीज़न में पास हो गया। यह थर्ड डिवीज़न कलंक के टिके की तरह उसके माथे से चिपक गया। पापड़ बेलना – बहुत मेहनत करना जब टोपी को उसकी माँ ने दादी को उल्टा जवाब देने के लिए पीटा तो उनकी बूढ़ी नौकरानी सीता टोपी को समझाने लगी कि अब वह दसवीं कक्षा में पहुँच गया है। उसे दादी से इस तरह बात नहीं करनी चाहिए आखिरकार वह उसकी दादी है। सीता ने तो बड़ी आसानी से कह दिया कि टोपी दसवीं कक्षा में पहुँच गया है परन्तु टोपी के लिए दसवीं कक्षा में पहुँचना इतना भी आसान नहीं था। दसवीं कक्षा में पहुँचने के लिए टोपी को बहुत अधिक मेहनत करनी पड़ी थी। दो साल तो टोपी फेल ही हुआ था। नवीं कक्षा में तो टोपी सन उनचास ही में पहुँच गया था, परन्तु दसवीं कक्षा में पहुँचते-पहुँचते साल बावन हो चूका था। जब टोपी पहली बार फेल हुआ तो उसका बड़ा भाई मुन्नी बाबू माध्यमिक (10th) कक्षा में प्रथम आया और उसका छोटा भाई भैरव छठी कक्षा में प्रथम आया। सभी घरवाले हर समय टोपी की ही बात करने लगे। उस समय टोपी बहुत रोया था। ऐसी बात नहीं थी कि वह मुर्ख या मन्दबुद्धि था। वह पढ़ाई में बहुत तेज़ था परन्तु उसे कोई पढ़ने ही नहीं देता था। जब भी टोपी पढ़ाई करने बैठता था तो कभी उसके बड़े भाई मुन्नी बाबू को कोई काम याद आ जाता था या उसकी माँ को कोई ऐसी चीज़ मँगवानी पड़ जाती जो नौकरों से नहीं मँगवाई जा सकती थी, अगर ये सारी चीज़े न होती तो कभी उसका छोटा भाई भैरव उसकी कापियों के पन्नों को फाड़ कर उनके हवाई जहाज़ बना कर उड़ाने लग जाता। यह तो थी पहले साल की बात। दूसरे साल उसे टाइफ़ाइड हो गया था। जिसके कारण वह पढ़ाई नहीं कर पाया और दूसरी साल भी फेल हो गया। तीसरे साल वह पास तो हो गया परन्तु थर्ड डिवीज़न में। यह थर्ड डिवीज़न कलंक के टिके की तरह उसके माथे से चिपक गया। परन्तु लेखक कहता है कि सभी को उसकी मुश्किलों को भी ध्यान में रखना
चाहिए कि वह किस वजह से दो साल में फेल हुआ और तीसरी साल में थर्ड डिवीज़न से पास हुआ। “क्या मतलब है साम अवतार (या मुहम्मद अली?) बलभद्र की तरह इसी दर्जे में टिके रहना चाहते हो क्या?” दर्जे – कक्षा लेखक कहता है कि सन उनचास में टोपी अपने साथियों के साथ था। जब वह फेल हो गया तो उसके सभी साथी आगे निकल गए और वह नवीं कक्षा में ही रह गया। सन पचास में उसे उसी कक्षा में उन लड़कों के साथ बैठना पड़ा जो पिछले साल आठवीं कक्षा में थे। पिछली कक्षा वालों के साथ एक ही कक्षा में बैठना कोई आसान काम नहीं होता। टोपी के सभी दोस्त दसवीं कक्षा में थे। इसलिए वह उन्हीं से मिलता और उन्हीं के साथ खेलता था। अपने साथ नवीं कक्षा में पढ़ने वालों में से किसी के साथ उसकी दोस्ती नहीं हो सकी थी। वह जब भी कक्षा में बैठता, उसे अपना उस कक्षा में बैठना अजीब लगता था। उस पर ज़ुल्म यह हुआ कि कक्षा के कमज़ोर लड़कों को जब मास्टर जी समझाते तो उस का उदाहरण देते हुए Related – Class 10 hindi grammer Lessons कहते कि साम अवतार (या मुहम्मद अली), बलभद्र की तरह इसी कक्षा में टिके रहना चाहते हो क्या? यह सुन कर सारी कक्षा हँसने लगती। हँसने वाले वे विद्यार्थी होते थे जो
पिछले साल आठवीं कक्षा में थे। टोपी ने किसी न किसी तरह इस साल को झेल लिया। परन्तु जब सन इक्यावन में भी उसे नवीं कक्षा में ही बैठना पड़ा तो उसे बहुत अधिक शर्म महसूस होने लगी, क्योंकि अब तो दसवें में भी कोई उसका दोस्त नहीं रह गया था। जो विद्यार्थी सन उनचास में आठवीं कक्षा में थे वे अब दसवीं कक्षा में थे। जो सन उनचास में सातवीं कक्षा में थे वे टोपी के साथ पहुँच गए थे। उन सभी के बीच में वह अच्छा-ख़ासा बूढ़ा दिखाई देने लगा था। बरस – साल लेखक कहता है कि जिस तरह टोपी अपने भरे-पूरे घर में भी अकेलापन महसूस करता था, उसी तरह अपने स्कूल में भी अकेला हो गया था। मास्टरों ने उसकी ओर ध्यान देना
बिलकुल ही छोड़ दिया था, कोई सवाल किया जाता और जवाब देने के लिए जब टोपी भी हाथ उठाता, तो कोई मास्टर उससे जवाब नहीं पूछता था। परन्तु जब टोपी ने हार नहीं मानी और अपना हाथ उठाता ही रहा, तो एक दिन अंग्रेजी-साहित्य के मास्टर साहब ने कहा कि टोपी तो तीन साल से यही किताब पढ़ रहा है, उसे तो सारे जवाब ज़ुबानी याद हो गए होंगे, उसके साथ बैठे इन लड़कों को अगले साल हाई स्कूल की परीक्षा देनी है। उन्हें इस साल इन लड़कों से प्रश्न पूछने दो, टोपी से तो वे आने वाले साल में भी पूछ सकते हैं। अंग्रेजी-साहित्य के
मास्टर साहब की इस बात को सुन कर टोपी इतना शर्माया कि उसका काला रंग भी लाल हो गया। और जब सभी बच्चे खिलखिलाकर हँस पड़े तो टोपी मानो बिलकुल मर ही गया हो। जब वह पहली बार नवीं कक्षा में आया था, तो वह भी इन्हीं बच्चों की तरह बिलकुल बच्चा ही था। और अब दो साल इसी कक्षा में होने के कारण वह बिलकुल बूढ़ा लगता था। रिसेज़ – लंच, स्कूल में दोपहर के भोजन का समय और सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि वह लाल तेल वाले डॉक्टर शुरफ़ुद्दीन का बेटा था। अबदुल वहीद ने टोपी से कहा कि वह उन लोगों के साथ क्यों खेलता है। उसे तो आठवीं कक्षा वालों से दोस्ती करनी चाहिए क्योंकि वे लोग तो आगे दसवीं कक्षा में चले जाएँगे और टोपी को तो आठवीं वालों के साथ ही रहना है तो उनसे दोस्ती करना टोपी के लिए अच्छा होगा। यह बात टोपी को बहुत बुरी लगी और ऐसा लगा जैसे यह बात उसके दिल के आर-पार हो गई हो। और उसने उसी समय कसम खाई कि इस साल उसे टाइफ़ाइड हो या टाइफ़ाइड का बाप, वह पास होकर ही दिखाएगा। परन्तु साल के बीच में ही चुनाव आ गए। टोपी के पिता डॉक्टर भृगु नारायण, नीले तेल वाले, चुनाव लड़ने के लिए खड़े हो गए। अब जिस घर में कोई चुनाव के लिए खड़ा हो, उस घर में कोई पढ़-लिख कैसे सकता है? वह तो जब डॉक्टर साहब चुनाव हार गए तब घर में थोड़ी शांति हुई और टोपी ने देखा कि उसकी परीक्षा को ज्यादा समय नहीं रहा है। वह पढ़ाई में जुट गया। परन्तु जैसा वातावरण टोपी के घर में बना हुआ था ऐसे वातावरण में कोई कैसे पढ़ सकता था? इसलिए टोपी का पास हो जाना ही बहुत था। टोपी के दो साल एक ही कक्षा में रहने के बाद जब वह पास हुआ तो उसकी दादी बोली कि वाह! टोपी को भगवान नजरे-बंद से बचाए। बहुत अच्छी रफ़्तार पकड़ी है। तीसरे साल पास हुआ वो भी तीसरी श्रेणी में, चलो पास तो हो गया। Top Topi Shukla Question Answersप्रश्न 1 – इफ़्फ़न टोपी शुक्ला की कहानी का महत्वपूर्ण हिस्सा किस तरह से है? प्रश्न 2 – इफ़्फ़न की
दादी अपने पीहर क्यों जाना चाहती थीं? प्रश्न 3 – दादी अपने बेटे की शादी में गाने-बजाने की इच्छा पूरी क्यों नहीं कर
पाई? प्रश्न 4 – ‘अम्मी’ शब्द पर टोपी के घरवालों की क्या प्रतिक्रिया हुई? प्रश्न 5 – दस अक्तूबर सन पैंतालीस का दिन टोपी के जीवन में क्या महत्त्व रखता है? प्रश्न 6 – टोपी ने इफ़्फ़न से दादी बदलने की बात क्यों कही? प्रश्न 7 – पूरे घर में इफ़्फ़न को अपनी दादी से ही विशेष स्नेह क्यों था? प्रश्न 8 – इफ़्फ़न की दादी के देहांत के बाद टोपी को उसका घर खाली-सा क्यों लगा? प्रश्न 9 – टोपी और इफ़्फ़न की दादी अलग-अलग मज़हब और जाति के थे पर एक अनजान अटूट रिश्ते से बँधे थे। इस कथा के आलोक में अपने विचार लिखिए।
प्रश्न 10 – टोपी नवीं कक्षा में दो बार फेल हो गया। बताइए – (ख) एक ही कक्षा में दो-दो बार बैठने से टोपी को किन भावनात्मक चुनौतियों का सामना करना पड़ा? (ग) टोपी की भावनात्मक परेशानियों को मद्देनज़र रखते हुए शिक्षा व्यवस्था में आवश्यक बदलाव सुझाइए। प्रश्न 11 – इफ़्फ़न की दादी के मायके का घर कस्टोडियन में क्यों चला गया? Top
टोपी का पहला पुत्र कौन था?उत्तर- 'टोपी शुक्ला' पाठ से पता चलता है कि टोपी को अपने मित्र इफ्फ़न, उसकी दादी और घर की नौकरानी सीता से अपनापन मिलता है।
टोपी शुक्ला में सीता कौन थी?वह एक ज़मींदार परिवार की तथा पूरब की रहने वाली थी। उनकी ससुराल लखनऊ में थी, जहाँ गाना-बजाना बुरा समझा जाता था। इफ्फन के पिता की शादी पर उनके मन में विवाह के गीत गाने की इच्छा थी, परंतु इफ्फन के दादा के डर से नहीं गा पाई। उन्हें इफ्फन के दादा से केवल एक शिकायत थी कि वे सदा मौलवी बने रहते थे।
टोपी शुक्ला के पिता क्या काम करते थे?टोपी एक लड़के का नाम था। उसका पूरा नाम बलभद्र नारायण शुक्ला था। उसके पिता एक डॉक्टर थे, उनका नाम भृगु शुक्ला नीले तेल वाला था।
बचपन में टोपी को सबसे अधिक प्यार कौन करता था?इफ़्फ़न की दादी स्नेहमयी थीं। वह टोपी को बहुत दुलार करती थीं। टोपी को भी स्नेह व अपनत्व की जरूरत थी। टोपी जब भी इफ्फन के घर जाता था, वह अधिकतर उसकी दादी के पास बैठने की कोशिश करता था क्योंकि उस घर में वही उसे सबसे अच्छी लगती थीं।
|