शक्ति पृथक्करण का क्या तात्पर्य है? - shakti prthakkaran ka kya taatpary hai?

इसे सुनेंरोकेंशक्तियों के पृथक्करण का सिद्धान्त (principle of separation of powers) राज्य के सुशासन का एक प्रादर्श (माडल) है। उसके अनुसार राज्य की शक्ति उसके तीन भागों कार्यपालिका, विधानपालिका, तथा न्यायपालिका मे बांट देनी चाहिये। यह सिद्धांत राज्य को सर्वाधिकारवादी होने से बचा सकता है तथा व्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा करता है।

इसे सुनेंरोकेंशक्ति के पृथक्करण से आशय सरकार के कार्यों (विधायी, कार्यकारी और न्यायिक) का विभाजन है। चूँकि किसी भी कानून के निर्माण, उसे लागू करने और प्रशासन के लिये इन तीनों शाखाओं की मंजूरी आवश्यक है, ऐसे में यह व्यवस्था सरकार द्वारा मनमानी या ज़्यादतियों की संभावना को कम करती है।

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कौन सरकार की शक्तियों का स्रोत होता है?

इसे सुनेंरोकेंराष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति को एक अप्रत्यक्ष मतदान विधि द्वारा ५ वर्षों के लिये चुना जाता है। प्रधानमन्त्री सरकार का प्रमुख है और कार्यपालिका की सारी शक्तियां उसी के पास होती हैं। इसका चुनाव राजनैतिक पार्टियों या गठबन्धन के द्वारा प्रत्यक्ष विधि से संसद में बहुमत प्राप्त करने पर होता है।

शक्तियों का क्या तात्पर्य है?

इसे सुनेंरोकेंशक्ति विकेन्द्रीकरण भी एक आधारभूत सिद्धान्त है। इसका अधिक प्रयोग एकात्मक शासन प्रणाली में किया जाता है। संघात्मक शासन प्रणाली में शक्ति स्वतः विभाजित होती है और एकात्मक शासन में शक्ति केन्द्र में निहित होती है।

शक्ति पृथक्करण के सिद्धांत का आदर्श उदाहरण कौन सा देश है?

इसे सुनेंरोकेंशक्ति पृथक्करण का सैद्धांतिक विकास मोंटेस्क्यू (Montesquieu), जो कि फ्रांस का एक प्रसिद्ध राजनीतिक दार्शनिक था, को शक्ति पृथक्करण के सिद्धांत का मुख्य शिल्पकार माना जाता है।

3 राष्ट्रपति के विवेकाधीन शक्तियों का क्या तात्पर्य है?`?

इसे सुनेंरोकेंभारत के राष्ट्रपति के पास सजा की डिग्री को कम करने या अपराधियों को क्षमा करने की शक्ति है – यहां तक ​​कि मौत की सजा को अपील पर दोषमुक्त किया जा सकता है।

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मोंटेस्क्यू के सरकार के वर्गीकरण में कितने मूल रूप है?

इसे सुनेंरोकेंमोंटेस्क्यू ने दो प्रकार की सरकारी शक्ति को विद्यमान देखा: संप्रभु और प्रशासनिक । प्रशासनिक शक्तियाँ कार्यपालिका , विधायी और न्यायिक थीं ।

संघात्मक सरकार में शक्तियों का विभाजन कितने स्तरों पर होता है?

इसे सुनेंरोकेंसंघीय प्रशासन में केन्द्र तथा राज्य सरकार सत्ता विभाजन किस प्रकार होता है? उत्तर―संघीय शासन-व्यवस्था के अंतर्गत सरकार दो अथवा दो से अधिक स्तर की हो सकती है।

मांटिस क्यों ने किस ग्रंथ की रचना की?

इसे सुनेंरोकेंउनका ‘द स्पिरिट ऑफ लॉज़’ (The Spirit of the Laws / कानून की आत्मा) नामक निबंध 1748 में छपा और संपूर्ण यूरोप में काफी चर्चित हुआ रहा। उसकी व्याख्या करते उन्होंने व्यवहार्य और स्वतंत्र राजतंत्र में सत्ता विभाजन का सिद्धांत दिया जिसके लिए वे आज तक प्रसिद्ध हैं।

निम्न में से कौन सा सरकार की शक्तियों का स्रोत होता है?

इसे सुनेंरोकेंभारत के संविधान में औपचारिक रूप से संघ की कार्यपालिका शक्तियाँ राष्ट्रपति को दी गई हैं। पर वास्तव में प्रधानमंत्री के नेतृत्व में बनी मंत्रिपरिषद् के माध्यम से राष्ट्रपति इन शक्तियों का प्रयोग करता है। राष्ट्रपति 5 वर्ष के लिए चुना जाता है। राष्ट्रपति पद के लिए सीधे जनता के द्वारा निर्वाचन नहीं होता।

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कौन सा विषय शक्ति और प्राधिकरण से संबंधित है?

इसे सुनेंरोकेंभारत जैसे प्रत्येक लोकातंत्रिक संविधान में उच्चतम न्यायालय देश का सर्वोच्च न्यायालय होता है जिसे संवैधानिक प्रावधानों की व्याख्या करने का अधिकार क्षेत्र एवं शक्ति होती है। इस संबंध में, भारत के उच्चतम न्यायालय को शक्तियां प्रदान की गई हैं।

सरकार के अंग कितने हैं?

इसे सुनेंरोकेंसंघीय (केन्द्रीय) सरकार के तीन अंग हैं- विधायिका (संसद) कार्यपालिका (राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और मंत्री परिषद) और न्यायपालिका (सर्वोच्च न्यायालय)।

इस Editorial में The Hindu, The Indian Express, Business Line आदि में प्रकाशित लेखों का विश्लेषण किया गया है। इस लेख में देश में शासन के विभिन्न अंगों के बीच शक्ति के विभाजन तथा इन संस्थानों के संदर्भ में संविधान में निहित नियंत्रण और संतुलन की व्यवस्था व इससे संबंधित विभिन्न पहलुओं पर चर्चा की गई है। आवश्यकतानुसार, यथास्थान टीम दृष्टि के इनपुट भी शामिल किये गए हैं।

संदर्भ:

हाल ही में गुजरात के केवड़िया में 80वें अखिल भारतीय पीठासीन अधिकारी सम्मेलन (All India Presiding Officers Conference) का आयोजन किया गया। इस सम्मेलन में कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच ‘सामंजस्यपूर्ण समन्वय’ विषय को लेकर  बड़े पैमाने पर कई महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर चर्चा की गई।  

इस सम्मेलन में भारतीय प्रधानमंत्री ने शासन के तीनों अंगों (विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका) के संदर्भ में भारतीय संविधान में निहित नियंत्रण और संतुलन तथा शक्ति के पृथक्करण की व्यवस्था एवं इसके महत्त्व को रेखांकित किया। 

हालाँकि हाल ही में ऐसे कई उदाहरण देखने को मिले हैं जो शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत तथा जाँच और संतुलन की प्रणाली को कमज़ोर करते हैं। इन महत्त्वपूर्ण संस्थानों के प्रति सत्यनिष्ठा में आई कमी के कारण सरकार के कामकाज पर लोगों का विश्वास भी खत्म हो सकता है, जो एक लोकतांत्रिक  व्यवस्था के लिये उचित नहीं होगा।  

शक्ति पृथक्करण का सिद्धांत: 

  • शक्ति के पृथक्करण से आशय सरकार के कार्यों (विधायी, कार्यकारी और न्यायिक) का विभाजन है। 
  • चूँकि किसी भी कानून के निर्माण, उसे लागू करने और प्रशासन के लिये इन तीनों शाखाओं की मंजूरी आवश्यक है, ऐसे में यह व्यवस्था सरकार द्वारा मनमानी या ज़्यादतियों की संभावना को कम करती है।
  • इस व्यवस्था के तहत संवैधानिक सीमांकन के चलते सरकार की किसी भी एक शाखा में शक्ति के एकीकरण को रोका जा सकता है।

नियंत्रण और संतुलन:   

  • विधायिका का नियंत्रण:  
    • न्यायपालिका के संदर्भ में: न्यायाधीशों पर महाभियोग और उन्हें हटाने की शक्ति तथा न्यायालय के ‘अधिकार से परे’ या अल्ट्रा वायर्स घोषित कानूनों में संशोधन करने और इसे पुनः मान्य बनाने की शक्ति।    
    • कार्यपालिका के संदर्भ में: 
      • विधायिका निर्धारित प्रक्रिया के तहत एक अविश्वास मत पारित कर सरकार को भंग कर सकती है।
      • विधायिका को  प्रश्नकाल और शून्यकाल के माध्यम से कार्यपालिका के कार्यों का आकलन करने की शक्ति प्रदान की गई है।
      • साथ ही विधायिका को राष्ट्रपति पर महाभियोग चलाने का भी अधिकार प्राप्त है।
  • कार्यपालिका का नियंत्रण: 
    • न्यायपालिका के संदर्भ में: 
      • मुख्य न्यायाधीश और अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति करना। 
    • विधायिका के संदर्भ में:
      • प्रत्यायोजित कानून के तहत प्राप्त शक्तियाँ। संविधान के प्रावधानों के तहत संबंधित कानूनों के प्रभावी कार्यन्वयन हेतु आवश्यक नियम बनाने का अधिकार।

  • न्याय पालिका का नियंत्रण: 
    • कार्यपालिका के संदर्भ में: 
      • न्यायिक समीक्षा अर्थात् कार्यपालिका के कार्यों की समीक्षा करने की शक्ति, इसका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि कार्यपालिका की कार्रवाई के दौरान संवैधानिक प्रावधानों का उल्लंघन न हो।
    • विधायिका के संदर्भ में:
      • केशवानंद भारती मामले (1973) में उच्चतम न्यायालय द्वारा ‘संविधान की आधारभूत संरचना’ (Basic Structure of the Constitution) के तहत संविधान संशोधन के अधिकार को सीमित किया गया था।

नियंत्रण और संतुलन की कमज़ोर प्रणाली:

  • कमज़ोर विपक्ष: एक लोकतांत्रिक व्यवस्था नियंत्रण और संतुलन के सिद्धांत पर कार्य करती है। यह नियंत्रण और संतुलन व्यवस्था ही है जो एक लोकतांत्रिक व्यवस्था को  बहुसंख्यकवादी व्यवस्था में बदलने से बचाती है।
    • एक संसदीय प्रणाली में यह नियंत्रण और संतुलन का कार्य विपक्षी दल द्वारा किया जाता है।
    • परंतु लोकसभा में एक ही दल को प्राप्त बहुमत ने संसद में एक प्रभावी विपक्ष की भूमिका को कम कर दिया है।  
  • कमज़ोर विधायी समीक्षा:  पीआरएस लेजिस्लेटिव रिसर्च के आँकड़ों के अनुसार,  14वीं लोकसभा में 60% और 15वीं लोकसभा में 71% विधेयकों को संबंधित विभागों की स्थायी समितियों (Department-related Standing Committees- DRSCs) के पास भेजा गया था।  
    • हालाँकि 16वीं विधानसभा में DRSCs को भेजे गए विधेयकों का अनुपात घटकर मात्र 27% ही रह गया।   
    • DRSCs को भेजे गए विधेयकों के अलावा सदनों की चयन समितियों या संयुक्त संसदीय समितियों  को भेजे गए विधेयकों की संख्या भी बहुत कम ही रही है।  
  • न्यायपालिका का हस्तक्षेप: वर्ष 2015 में उच्चतम न्यायालय द्वारा संविधान के 99वें संशोधन को असंवैधानिक एवं शून्य घोषित कर दिया गया था। 
  • गौरतलब है कि यह संशोधन उच्चतम न्यायालय एवं उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिये कॉलेजियम प्रणाली के स्थान पर एक नए निकाय “राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग” (National Judicial Appointments Commission-NJAC) की स्थापना करने का प्रावधान करता है।
    • राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अनुचित राजनीतिकरण से हटकर चयन प्रणाली की स्वतंत्रता की गारंटी प्रदान कर सकता है, जो नियुक्तियों की गुणवत्ता में सुधार के साथ चयन प्रक्रिया की निष्पक्षता सुनिश्चित करने, न्यायपालिका की संरचना में विविधता को बढ़ावा देने तथा चयन प्रणाली के प्रति जनता के विश्वास को मज़बूत करने में सहायक हो सकता है।
  • न्यायिक सक्रियता: हाल में उच्चतम न्यायालय के कई निर्णयों में अतिसक्रियता देखने को मिली और कई मामलों में न्यायालय ने ऐसे निर्णय दिये हैं, जो विधायिका और कार्यपालिका के अधिकार क्षेत्र में हस्तक्षेप के समान प्रतीत होते हैं।  
  • कार्यपालिका का अतिक्रमण: भारत की कार्यपालिका पर सत्ता के अति-केंद्रीकरण, केंद्रीय सूचना आयोग और सूचना का अधिकार (RTI) जैसे सार्वजनिक संस्थानों को कमज़ोर बनाने, राज्य की कानून-व्यवस्था और सुरक्षा को मज़बूत करने परंतु अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाने के लिये कानून पारित करने आदि आरोप लगते रहे हैं।  

आगे की राह:

  • विधायी प्रभाव आकलन: एक व्यापक विधायी प्रभाव आकलन प्रणाली को लागू किया जाना बहुत ही आवश्यक है, जिसके तहत सभी विधायी प्रस्तावों का उनके सामाजिक, आर्थिक, पर्यावरणीय और प्रशासनिक प्रभावों के आधार मूल्यांकन किया जा सके।  
    • विधायी योजना की देख-रेख और समन्वय के लिये संसद की एक नई विधान समिति का गठन किया जाना चाहिये।
    • यह समिति कार्यपालिका द्वारा अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर जाने के ऐसे मामलों की जाँच कर सकती है, जहाँ कार्यपालिका की  कार्रवाई से नागरिकों की स्वतंत्रता को क्षति पहुँचती हो।
  • विपक्ष की भूमिका को मज़बूत करना: विपक्ष की भूमिका को मजबूत करने के लिये भारत में छाया मंत्रिमंडल या ‘शैडो कैबिनेट’ (Shadow Cabinet) के गठन पर विचार किया जा सकता है।
  • छाया मंत्रिमंडल: 
    • ‘शैडो कैबिनेट’ ब्रिटिश कैबिनेट प्रणाली का एक अनूठा संस्थान है।
    • यह विपक्षी दल द्वारा सत्तारूढ़ कैबिनेट को संतुलित करने और भविष्य में मंत्री पद के लिये अपने सदस्यों को तैयार करने हेतु स्थापित किया जाता है।
    • इसके तहत छाया मंत्रिमंडल में प्रत्येक मंत्री अपने विभाग से संबंधित सरकारी मंत्रालय की नीतियों तथा कामकाज की बारीकी से जाँच करता है तथा संबंधित मुद्दे पर अपनी राय रखते हुए वैकल्पिक समाधान प्रस्तुत करता है।
  • न्यायिक पारदर्शिता: उच्चतम न्यायालय संविधान का संरक्षक है जो विधायिका और कार्यपालिका द्वारा अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर हस्तक्षेप करने से जुड़े मामलों की जाँच करता है। ऐसे में न्यायपालिका को कॉलेजियम प्रणाली में पारदर्शिता बनाए रखने पर विशेष ध्यान देते हुए संवैधानिक नैतिकता सुनिश्चित करने का प्रयत्न करना चाहिये।  
    •  जब तक एक बेहतर तंत्र विकसित नहीं किया जाता है, तब तक उच्चतम न्यायालय को कॉलेजियम प्रणाली को और अधिक पारदर्शी तथा जवाबदेह बनाने के लिये आवश्यक कदम उठाना चाहिये जिससे इसकी कार्यप्रणाली को अधिक लोकतांत्रिक बनाया जा सके। 

निष्कर्ष: 

शासन के एक अंग द्वारा दूसरे के कार्यों में बार-बार हस्तक्षेप करना एक लोकतांत्रिक व्यवस्था की अखंडता, गुणवत्ता और दक्षता के प्रति लोगों के विश्वास को कम कर सकता है।  चर्चा कीजिये।

शक्ति पृथक्करण से क्या तात्पर्य है?

शक्तियों के पृथक्करण का सिद्धांत फ्रेंच दार्शनिक मान्टेस्कयू ने दिया था। उसके अनुसार राज्य की शक्ति उसके तीन भागों कार्यपालिका, विधानपालिका, तथा न्यायपालिका मे बांट देनी चाहिये। यह सिद्धांत राज्य को सर्वाधिकारवादी होने से बचा सकता है तथा व्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा करता है।

शक्ति पृथक्करण के सिद्धांत का परीक्षण कीजिए क्या यह सिद्धांत व्यावहारिक है?

शक्ति पृथक्करण का अर्थ (shakti prithakkaran kya hai) विद्वानों का मत है कि सरकार की ये तीनों शक्तियाँ अलग-अलग हाथों मे रहने मे जनता के हितों की सूरक्षा होगी। इस प्रकार शक्ति पृथक्करण सिद्धांत के अनुसार व्यवस्थापिका, कार्यपालिका तथा न्यायपालिका को एक-दूसरे के कार्यों मे हस्तक्षेप नही करना चाहिए।

पृथक्करण के सिद्धांत को और क्या कहते हैं?

IUPAC के अनुसार क्रोमैटोग्रफी पृथक्करण की भौतिक विधि है, जिसमें पृथक किए जाने वाले घटक दो प्रावस्थाओं में बँटते हैं, जिनमें से एक स्थाई होती है जबकि दूसरी एक निश्चित दिशा में गतिशील होती है।

अमेरिकी संविधान में शक्ति पृथक्करण का क्या अर्थ है?

अतः शक्ति पृथक्करण सिद्धान्त को अपनाने के साथ ही वे ऐसी व्यवस्था अपनाना चाहते थे जिससे शासन के तीनों अंगों में सहयोग बना रहे एवं वे एक-दूसरे पर थोड़ा नियन्त्रण भी रख सकें। इसी कारण शक्ति पृथक्करण के साथ ही नियन्त्रण एवं सन्तुलन के सिद्धान्त को भी अपनाया गया।