सुदामा जी और भगवान श्री कृष्ण बचपन से ही बड़े पक्के मित्र रहे हैं और मित्रता भी ऐसी कि एक दूसरे के लिए कुछ भी कुर्बान करने से पहले एक पल का भी विचार नहीं करते थे। Show
एक बार एक चोर एक ब्राह्मण के घर से चने की पोटली चुरा लाया लेकिन कुछ लोग उसके पीछे पड़ गए और वह सांदीपनि गुरु के आश्रम से गुजरा और वही भागते भागते उसके हाथ से चने की पोटली गुरु माता की रसोई के बगल में गिर गई। और वह चोर भाग गया जब वह चोर किसी भी प्रकार ब्राह्मणी के हाथ में नहीं आया तो उसने श्राप देते हुए कहा जो भी इस चने को खाएगा वह भयंकर गरीबी का शिकार हो जाएगा। और हुआ भी ऐसा ही उसके अगले दिन गुरु माता ने श्री कृष्ण और सुदामा को जंगल से लकड़ी लाने के लिए कहा और आनजाने में चोरी की हुई चने की पोटली सुदामा को पकड़ते हुए कहा जब भी भूख लगे तो इसे खा लेना। अब दोनों मिलकर जंगल में लकड़ी लेने के लिए गए तभी वहां जोरों की बारिश होने लगी और दोनों बारिश से बचने के लिए पास के दो अलग-अलग पेड़ों के ऊपर चढ़ गए क्योंकि ब्रह्मज्ञानी महात्मा सुदामा जी को यह पहले से पता हो चुका था कि इस पोटली को खाते ही कोई भी गरीब हो जाएगा लेकिन गुरु माता के देवी हुए पोटली को श्रद्धा वश फेंक भी ना सके और मन ही मन श्री कृष्ण के भले के लिए यह विचार करके पूरे चने खा गए कि मैं गरीब हूं तो हूं लेकिन मेरा मित्र गरीब नहीं होना चाहिए। इसी श्राप के फलीभूत होने पर सुदामा जी अत्यंत गरीब हो गए और भगवान कृष्ण, उनके ऐश्वर्य में तो दिन-रात वृद्धि होती गई। वयस्क होने पर दोनों की शादी हो गई जिससे सुदामा अपनी पत्नी के साथ एक झोपड़ी में रहने लगे और भगवान कृष्ण द्वारका के महल में अपनी पत्नियों के साथ। Sudama ji ki kahani सुदामा की कहानीसुदामा जी के स्थिति अब अत्यंत ही दयनीय हो चुकी थी। उन्हें हमेशा कई-कई
दिनों तक भूखा रहना पड़ता था जिसके कारण वे और उनके परिवार वाले बहुत ज्यादा दुबले हो चुके थे। लेकिन सुदामा जी अपने मित्र से कुछ भी मांगने के लिए कतई तैयार ना हुए। सुदामा जी को अपनी पत्नी की यह बात जंच गई और वे कुछ मुट्ठी भर चावल लेकर द्वारिका की यात्रा पर निकल पड़े और करीब 6 महीने तक यात्रा करने के बाद द्वारिकापुरी पहुंच गए और श्री कृष्ण के महल के बाहर खड़े होकर द्वारपाल से श्री कृष्ण को अपना संदेश देने को कहा कि उनका बचपन का मित्र आया हुआ है। सुदामा जी जैसे गरीब ब्राह्मण को देखकर वह द्वारपाल तो तनिक भी विश्वास नहीं कर पा रहा था कि ऐसे व्यक्ति भी भगवान श्री कृष्ण के मित्र हो सकते हैं लेकिन संस्कार और नम्रता बस वह उन्हें कुछ नहीं कहा और सीधा जाकर भगवान कृष्ण को यह संदेश दिया। द्वारपाल के मुख से सुदामा जी के आने की खबर सुनकर श्री कृष्ण खुशी के मारे उछल पड़े और पागलों की तरह दौड़ते दौड़ते सुदामा जी के पास तुरंत ही पहुंच गए और उन्हें देखते ही गले लगा लिया। Krishna sudama ki kahani कृष्ण सुदामा की कहानीइतने वर्षों बाद मिलकर दोनों मित्रों की आंखों से
आंसू छलक पड़े और वे दोनों प्रसन्नता के मारे एक दूसरे से कुछ बोल भी ना पा रहे थे। सुदामा जी विश्राम के नाम पर लेट हो गए लेकिन प्रसन्नता के मारे उन्हें विश्राम में भी तनिक आनंद नहीं आ रहा था और वह हर पर भगवान कृष्ण के साथ रहना चाह रहे थे कुछ समय बाद जब भगवान श्री कृष्ण और सुदामा एक साथ बैठे तो हंसी और ठिठोली का कार्य शुरू हुआ। श्री कृष्ण बार बार सुदामा जी को मजाक मजाक में ही उलाहना देते कि तुम कैसे मित्र हो? अपनी शादी में भी मुझे नहीं बुलाया, तब सुदामा जी कृष्ण को जवाब देते अरे मित्र मेरी तो सिर्फ एक ही शादी हुई है तुम्हारी तो 16108 शादियां हुई है तुमने मुझे भी तो मुझे एक बार भी बुलाने का नहीं सोचा। फिर भगवान श्री कृष्ण ने एक-एक करके अपनी सभी पत्नियों से सुदामा जी को मिलवाया यह करते-करते सुदामा जी इतने थक गए कि थकान और अनिद्रा के कारण से श्री कृष्ण की सभी पत्नियों से मिलने से पहले ही बार बार बिस्तर पर लुढ़क जाते फिर थोड़ा होश आने पर श्री कृष्ण उन्हें फिर से कहते अभी तो तुम मेरी सिर्फ इतनी ही पत्नियों से मिले हो तनिक इनसे भी तो मिलो। भगवान कृष्ण तो भगवान है वे तो कई रूप बनाकर अपनी सभी पत्नियों के साथ रह लेते हैं किंतु एक साधारण सुदामा जी का अपने इतनी सारी भाभियों से मिलकर हाल बेहाल हो गया फिर भी वह बहुत प्रसन्न थे। किसी तरह जब मिलने मिलाने का कार्यक्रम पूरा हुआ तो फिर सुदामा जी विश्राम करने लगे और भगवान श्री कृष्णा
उनके चरण अपनी गोद में रखकर दबाने लगे और इसी बीच माता रुक्मणी बगल में बैठकर सुदामा जी को हवा करने लगी। सुदामा जी को ऐसा आनंद कभी नहीं आया उन्हें ऐसा लग रहा था कि जैसे वे धरती पर नहीं स्वयं वैकुंठ लोक में निवास कर रहे हैं, और ऐसा लगे भी क्यों ना जब स्वयं भगवान श्री कृष्ण और माता रुक्मणी उनके साथ थी तो फिर व्यक्ति को और किस बात की कामना होगी। किसी तरह फिर दिन गुजर गया और सब ने विश्राम किया। बाद में फिर से जब श्री कृष्ण और सुदामा जी एक साथ बैठे तो सुदामा जी को बार-बार याद आ रहा था कि उनकी धर्मपत्नी सुशीला जी ने उन्हें अपने देवर को भेंट करने के लिए कुछ चावल की पोटली दिए थे लेकिन सुदामा जी भगवान कृष्ण को इसे देने से संकोच कर रहे थे क्योंकि यह उनकी नजर में बहुत ही तुच्छ था और वह अपने परम मित्र को स्वादहीन चावल नहीं देना चाहते थे। भगवान श्रीकृष्ण प्रत्येक व्यक्ति के हृदय की सभी बातें जानते हैं वे प्रत्येक व्यक्ति के संकल्पों एवं कामनाओं से अवगत हैं इसलिए वे सुदामा के आने का पूरा कारण जानते थे कि वह अत्यंत दरिद्र हैं और अपनी पत्नी के आग्रह पर ही उनके पास आए हैं और मेरे लिए चावल का यह प्रेम पूर्ण भेंट भी लाए हैं किंतु संकोच बस मुझे देने से हिचक रहे हैं अतः उन्होंने सुदामा को कई बार कहा मित्र भाभी जी ने मेरे लिए कुछ तो अवश्य भेजा होगा जिसे तुम मुझसे छुपा रहे हो और खुद ही पूरा खा लेना चाहते हो लेकिन सुदामा जी बार-बार इस बात को टाल देते कि ऐसा कुछ भी नहीं है। श्री कृष्ण के बार बार संकेत करने पर भी सुदामा ने स्वादिष्ट चावल की पोटली कृष्ण जी को नहीं दी इसी कारण श्रीकृष्ण ने मौका पाते ही सुदामा के कंधे पर लटक रही वह पोटली चुपके से छीन ली और उसे देखते हुए कहा यह क्या है मित्र इससे पहले कि सुदामा कुछ बोल पाता तुरंत ही कृष्ण ने चावल की पोटली खोली और कहा, प्रिय मित्र तुम मेरे लिए इतना बढ़िया स्वादिष्ट चावल लाए हो और मुझसे अभी तक छिपा रहे थे। मुझे विश्वास था कि मेरी भाभीजी ने मेरे लिए कुछ ना कुछ तो अवश्य भेजा होगा। जब श्री कृष्ण सुदामा जी से इस तरह वार्तालाप कर रहे थे तब उन्होंने झट से पोटली में से एक मुट्ठी चावल उठाया और तुरंत मुंह में डाल लिया इसी प्रकार उन्होंने दूसरी बार भी किया भगवान कृष्ण के ऐसा करते ही उन्होंने संपूर्ण संसार की ऐश्वर्य आदि सुदामा जी के घर में स्थापित कर दिया। सबको इसमें से बचाने के लिए भाग्यलक्ष्मी माता रुकमणी देवी ने श्री कृष्ण का हाथ पकड़ लिया और कहा जब से सुदामा जी की शादी हुई है तब से आपकी भाभी मेरी भाभी भी हुई ना तो इस स्वादिष्ट चावल पर सिर्फ आपका हक कैसे हो सकता है यही कहते हुए उन्होंने झट से भगवान कृष्ण के हाथों से वे स्वादिष्ट चावल की पोटली छीन ली और स्वयं ही खा गई। Sudama ji ki story सुदामा जी की स्टोरीअब प्रातः काल सुदामा जी के अपने घर वापस लौटने का समय हो गया और वे अपने मित्र श्री कृष्ण से विदा लेकर चल पड़े किंतु भगवान कृष्ण ने उन्हें विदाई की के समय कुछ भी नहीं दिया। वह बार-बार यही सोच रहे थे कि उन्होंने मेरे समान दरिद्र
ब्राह्मण को अपने गले से लगा लिया जबकि वह रुकमणी देवी के अतिरिक्त किसी अन्य को अपने हृदय से नहीं लगाते। श्री कृष्ण मेरे प्रति इतने उदार थे कि उन्होंने मुझे उसी शैया पर बैठने का अवसर दिया जिस पर स्वयं भाग्य देवी विश्राम करती हैं। उन्होंने श्रीकृष्ण की प्रथम पत्नी के रूप में अपनी श्रेष्ठ स्थिति का कभी ध्यान नहीं किया। इस संपूर्ण ब्रह्मांड के प्रत्येक प्राणी भगवान श्री कृष्ण के चरण कमलों की उपासना अपने सभी भौतिक ऐश्वर्य तथा रहस्य में योगिक सिद्धियों की कामना की पूर्ति के लिए करते हैं लेकिन फिर भी भगवान मेरे प्रति इतने दयालु थे कि उन्होंने मुझे कुछ नहीं दिया क्योंकि उन्हें पता था कि धन की प्राप्ति करने पर मैं खुश हो जाऊंगा और, पागल होकर अपना धर्म भूल जाऊंगा। एक साधारण व्यक्ति की तरह से देखा जाए तो सुदामा जी का कथन बिल्कुल सत्य है कोई भी मनुष्य भगवान से भौतिक ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिए प्रार्थना करता है और जब उसे सब कुछ प्राप्त हो जाता है तो वह तत्काल ही श्री भगवान के प्रति अपनी कृतज्ञता को भूल जाता है। यदि कोई भक्त निष्ठा पूर्वक भगवान की सेवा करता है और भौतिक ऐश्वर्य की कामना करता है तो भगवान उसे तभी सब कुछ देखते हैं जब वह इसमें लिप्त ना हो। इस प्रकार विचार करके सुदामा धीरे-धीरे अपने निवास स्थान पर पहुंच गए किंतु वहां पहुंच कर उन्होंने देखा कि प्रत्येक वस्तु आश्चर्यजनक रूप से बदल चुकी है और उनकी कुटिया के स्थान पर भव्य महल खड़ा है, जिसमें अनेक बहुमूल्य रत्न लगे हुए हैं यह देखकर सुदामा को कुछ भी समझ नहीं आ रहा था और उन्होंने आसपास के लोगों से पूछना शुरू कि यहां पर मेरी कुटिया रहती थी यह था, वह था वह सब कहां गया। महल के सेवकों को कुछ भी ना पता था कि यह व्यक्ति कौन है और कहां से आया है इसलिए उन्होंने इसकी खबर तुरंत ही सुदामा जी की पत्नी सुशीला को दी जो उस महल की मालकिन थी। यह सब सुनकर सुशीला जी अत्यंत खुश हो गई और कहा वह कोई और नहीं बल्कि तुम्हारे महाराज ही हैं और तुम सब जल्दी से उनकी आने स्वागत की तैयारियां करो, तत्पश्चात वे स्वयं अपने हाथों में आरती की थाली लेकर सुदामा जी के सामने आए। पहली बार अपनी पत्नी को गहनों से इतना लदा हुआ देखकर सुदामा जी की आंखें चौंधिया गई और वह समझ नहीं पा रहे थे कि यह कौन देवी है जो स्वयं स्वर्गीय देवियों की तरह दिख रही है सुदामा जी को देखते ही उनकी पत्नी ने उनके चरण पकड़ लिए और अपना परिचय दिया तब जाकर सुदामा जी को पता चला, यह कोई और नहीं बल्कि उनकी स्वयं की पत्नी सुशीला ही है। इसके बाद सुशीला जी, सुदामा जी का हाथ पकड़कर महल के अंदर ले गई और उन्हें अपना निजी भवन दिखाया किंतु उस महल को देखते ही सुदामा जी एक तरफ से अपने परिवार के लिए खुश थे कि उन्हेंउन्हें अब गरीबी का सामना नहीं करना पड़ेगा लेकिन अंदर ही अंदर बहुत दुखी हो रहे थे कि यदि मैं इन सब में लिप्त हो गया तो भगवान के लिए तो समय ही नहीं निकाल पाऊंगा मैं भी आलसी, लोभी हो जाऊंगा। वे सब कुछ समझ गए कि यह किसी और का नहीं बल्कि उनके मित्र श्री कृष्ण का ही सब किया धरा है और इसीलिए उन्होंने मुझे आते समय कुछ भी नहीं दिया कि मार्ग में मुझे परेशानी ना हो, अब सुदामा जी की आंखों से आंसू बहने लगे थे और वे दुखी मन से महल के बाहर निकल आए। और कहने लगे हे भगवान मैं क्या करूंगा इन सब का मुझे तो इन भौतिक वस्तुओं और ऐश्वर्या की तनिक भी चाह नहीं है, मैं तो केवल आपकी भक्ति में ही खुश रहना चाहता हूं मैं इस बड़े महल में नहीं रहना चाहता। सुदामा जी की इस प्रेम पूर्ण भक्ति को देखकर स्वयं श्रीकृष्ण वहां प्रगट हो गए और कहा प्रिय सुदामा तुम तो मेरे सच्चे भक्त हो। तुमने अपने जीवन में बहुत दरिद्रता, गरीबी देखी है किंतु अब मैं चाहता हूं कि तुम अब और बिल्कुल दुख ना सहो। सुदामा जी ने भगवान कृष्ण की इच्छा और आज्ञा का सम्मान किया और उन्हें प्रणाम करके वापस महल में चले गए किंतु महल की चकाचौंध ने उन्हें कभी प्रभावित नहीं किया। यही है सच्ची मित्रता जो एक दूसरे को कभी भी संकट में नहीं देख सकते। कृष्ण ने सुदामा को क्या दिया?जब भगवान श्रीकृष्ण द्वारिका के राजा हुए एक दिन सुदामा की पत्नी सुशीला ने सुदामा से कहा कि आप बताते हैं कि कृष्ण हमारे मित्र हैं तो उनसे जाकर मिलो। सुदामा की पत्नी सुशीला पड़ोसी के यहां से ले जाने के लिए चावल मांग लाईं। जब सुदामा कन्हैया से मिले तो कृष्ण ने उन्हें दो मुठ्ठी चावल खाकर दो लोक का स्वामी बना दिया।
श्री कृष्ण ने सुदामा के स्वागत के लिए क्या क्या किया?एक बार पत्नी के आग्रह करने पर कि आप अपने मित्र कृष्ण के पास जाओ वे अवश्य हमारी सहायता करेंगे। सुदामा जब कृष्ण के पास जाते हैं तो वे उसे सर- आँखों पर बिठाते हैं। उनका आदर सत्कार कर उनकी दीन दशा हेतु व्यथित हो उठते हैं। जब सुदामा वापिस घर जाते हैं तो मार्ग मैं सोचते हैं कि कृष्ण के पास आना व्यर्थ रहा।
सुदामा अपने बगल में चावल की पोटली क्यों दबा रहे थे?सुदामा अपनी बगल में चावलों की पोटली क्यों दबा रहे थे? Solution : सुदामा अपनी बगल में चावलों की पोटली इसलिए दबा रहे थे, क्योंकि द्वारका में श्रीकृष्ण के ठाठ-बाट देखकर वे हीन भावना से ग्रसित हो गये थे। वे उसे अत्यन्त तुच्छ भेंट मान रहे थे।
सुदामा कृष्ण को चावल की पोटली देने में संकोच क्यों कर रहे थे?उत्तर: द्वारका आते समय सुदामा की पत्नी ने कृष्ण के लिए उपहारस्वरूप थोड़े-से चावल एक पोटली में बाँधकर दिए थे। द्वारका पहुँचकर जब सुदामा ने कृष्ण का शाही वैभव तथा एशो-आराम देखा तो उन्होंने कृष्ण जैसे बड़े राजा के लिए चावल जैसा तुच्छ उपहार देना उचित न समझा। इसलिए वे संकोच कर रहे थे।
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