Solution : लेखक ने फादर कामिल बुल्के की याद को .यज्ञ की पवित्र अग्नि. इसलिए कहा है क्योंकि लेखक फादर बुल्के अग्नि रूपी पवित्र ज्योति की याद में श्रद्धामत है, उनका सारा जीवन देश व देशवासियों के प्रति समर्पित था। जिस प्रकार यज्ञ की अग्नि पवित्र होती है तथा उसके ताप में उष्णता होती है उसी प्रकार फादर बुल्के को याद करना शरीर और मन में ऊष्मा, उत्साह तथा पवित्र भाव भर देता है। अतः फादर की स्मृति किसी यज्ञ की पवित्र आग और उसकी लौ की तरह आजीवन बनी रहेगी। Show
1. लेखक के लिए फादर को देखना किस जल में स्नान करने जैसा है? (क) निर्मल (ख) मृदु (ग) खारा (घ) स्वच्छ ► (क) निर्मल 2. किनसे बात करना लेखक के लिए कर्म के संकल्प से भरना था? (क) माँ से (ख) बच्चों से (ग) लोगों से (घ) फादर से ► (घ) फादर से 3. फादर अपने अभिन्न मित्र डॉ. रघुवंश को क्या दिखाते थे? (क) कपड़े (ख) पुस्तकें (ग) माँ की चिट्ठियाँ (घ) इनमें से कोई नहीं ► (ग) माँ की चिट्ठियाँ 4. फादर के पिता क्या थे? (क) डॉक्टर (ख) व्यवसायी (ग) पुलिस (घ) इंजीनियर ► (ख) व्यवसायी 5. किसकी शादी की चिंता फादर ने व्यक्त की थी? (क) पुत्री की (ख) भाई की (ग) भतीजी की (घ) बहन की ► (घ) बहन की 6. फादर ने ’जिसेट संघ’ में दो वर्ष किसकी पढ़ाई की थी? (क) मेडिकल की (ख) इंजीनियरिंग की (ग) धर्माचार की (घ) इनमें से कोई नहीं ► (ग) धर्माचार की 7. फादर को याद करना लेखक के लिए कैसा संगीत सुनने जैसा अनुभव है? (क) मधुर (ख) कर्कश (ग) उदास शांत (घ) इनमें से कोई नहीं ► (ग) उदास शांत 8. इलाहाबाद की सड़कों पर फादर क्या करते दिखते थे? (क) पैदल चलते हुए (ख) उपदेश देते हुए (ग) बच्चों को पढ़ाते हुए (घ) साइकिल चलाते हुए ► (घ) साइकिल चलाते हुए 9. राष्ट्रभाषा के रूप में फादर किसे देखना चाहते थे? (क) ऊर्दू को (ख) फ़ारसी को (ग) हिंदी को (घ) इनमें से कोई नहीं ► (ग) हिंदी को 10. फादर की चिंता हिंदी को किस रूप में देखने की थी? (क) राज्यभाषा (ख) राष्ट्रभाषा (ग) जनभाषा (घ) इनमें से कोई नहीं ► (ख) राष्ट्रभाषा 11. किसी के दुःख में फादर का व्यवहार कैसा होता था? (क) उपेक्षित (ख) आनंदपूर्ण (ग) कटु (घ) सांत्वनापूर्ण ► (घ) सांत्वनापूर्ण 12. पत्नी और पुत्र की मृत्यु पर लेखक को किसकी बातों से सांत्वना मिली? (क) फादर बुल्के की (ख) माँ की (ग) बहन की (घ) पिता की ► (क) फादर बुल्के की 13. फादर की मृत्यु कहाँ हुई? (क) इलाहाबाद (ख) मुंबई (ग) दिल्ली (घ) इनमें से कोई नहीं ► (ग) दिल्ली 14. लेखक फादर के किस गुण का बहुत सम्मान करते हैं? (क) करूणा (ख) मानवीयता (ग) वात्सल्य (घ) उपर्युक्त सभी ► (घ) उपर्युक्त सभी
फ़ादर कामिल बुल्के (अंग्रेज़ी: Camille Bulcke जन्म: 1 सितम्बर, 1909; मृत्यु: 17 अगस्त, 1982) बेल्जियम से भारत आकर मृत्युपर्यंत हिन्दी, तुलसीदास और वाल्मीकि के भक्त रहे। उन्हें साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में भारत सरकार द्वारा सन् 1974 में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था। फ़ादर कामिल बुल्के का जन्म 1 सितम्बर 1909 को बेल्जियम की फ्लैंडर्स स्टेट के 'रम्सकपैले' गांव में हुआ था। 'यूवेन विश्वविद्यालय' से अभियांत्रिकी की शिक्षा समाप्त करने के बाद वह 1935 में भारत आए। सबसे पहले उन्होंने भारत का भ्रमण किया और भारत को अच्छी प्रकार से समझा। कुछ समय के लिए वह दार्जिलिंग में भी रहे और उसके बाद राँची और उसके बाद झारखंड के गुमला ज़िले के 'इग्नासियस विद्यालय' में गणित विषय का अध्यापन करने लगे। यहीं पर उन्होंने भारतीय भाषाएँ सीखनी प्रारम्भ कीं और उनके मन में हिन्दी भाषा सीखने की ललक पैदा हो गई, जिसके लिए वह बाद में प्रसिद्ध हुए। उन्होंने लिखा है-
परिचयफ़ादर कामिल बुल्के का जन्म 1 सितम्बर, 1909 को बेल्जियम के पश्चिमी फ्लैंडर्स स्टेट के रम्सकपैले नामक गाँव में हुआ था। उनके पास सिविल इंजीनियरिंग में बी.एस.सी डिग्री थी, जो उन्होंने लोवैन विश्वविद्यालय से प्राप्त की थी। 1934 में उन्होंने भारत का संक्षिप्त दौरा किया और कुछ समय दार्जीलिंग में रुके। उन्होंने गुमला (वर्तमान में झारखंड में) में 5 वर्षों तक गणित का अध्यापन किया। यहीं पर उनके मन में हिन्दी भाषा सीखने की ललक पैदा हो गई, जिसके लिए वे बाद में प्रसिद्ध हुए। उन्होंने लिखा है- "मैं जब 1935 में भारत आया तो अचंभित और दु:खी हुआ। मैंने महसूस किया कि यहाँ पर बहुत से पढ़े-लिखे लोग भी अपनी सांस्कृतिक परंपराओं के प्रति जागरूक नहीं हैं। यह भी देखा कि लोग अंग्रेज़ी बोलकर गर्व का अनुभव करते हैं। तब मैंने निश्चय किया कि आम लोगों की इस भाषा में महारत हासिल करूँगा।"[1] नाम का अर्थ'कामिल' शब्द के दो अर्थ माने जाते हैं। एक अर्थ है- 'वेदी-सेवक' और दूसरा अर्थ है- 'एक पुष्प का नाम।' फ़ादर कामिल बुल्के दोनों ही अर्थों को चरितार्थ करते थे। वे जेसुइट संघ में दीक्षित संन्यासी के रूप में 'वेदी-संन्यासी' थे और एक व्यक्ति के रूप में महकते हुए पुष्प। ऐसे पुष्प, जिसकी उपस्थिति सभी के मनों को खुशबू से भर देती है। मलिक मुहम्मद जायसी ने 'पद्मावत' में लिखा है- "फूल मरै पर मरै न बासू।" यह पंक्ति फ़ादर कामिल बुल्के पर पूरी तरह सटीक बैठती है।[2] हिन्दी ज्ञानफ़ादर कामिल बुल्के ने पंडित बदरीदत्त शास्त्री से हिन्दी और संस्कृत की शिक्षा प्राप्त की और 1940 में 'विशारद' की परीक्षा 'हिन्दी साहित्य सम्मेलन', प्रयाग से उत्तीर्ण की। उन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय से संस्कृत में मास्टर्स डिग्री हासिल की (1942-1944) थी। कामिल बुल्के ने 1945-1949 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से हिन्दी साहित्य में शोध किया, उनका शोध विषय था- 'रामकथा का विकास'। 1949 में ही वह 'सेंट जेवियर्स कॉलेज', राँची में हिन्दी व संस्कृत विभाग के विभागाध्यक्ष नियुक्त किए गए। सन 1951 में उन्होंने भारत की नागरिकता ग्रहण की। कामिल बुल्के सन 1950 में 'बिहार राष्ट्रभाषा परिषद' की कार्यकारिणी के सदस्य चुने गए। वह सन 1972 से 1977 तक भारत सरकार की 'केन्द्रीय हिन्दी समिति' के सदस्य रहे। प्रेरणास्रोत 'डॉ. धीरेन्द्र वर्मा'कामिल बुल्के लंबे समय तक रांची के सेंट जेवियर्स कॉलेज में संस्कृत तथा हिन्दी के विभागाध्यक्ष रहे थे, लेकिन बाद में बहरेपन के कारण कॉलेज में पढ़ाने से अधिक उनकी रुचि गहन अध्ययन और स्वाध्याय में होती चली गई। बुल्के का अपने समय के हिन्दी भाषा के सभी चोटी के विद्वानों से संपर्क था। डॉ. धर्मवीर भारती, डॉ. जगदीश गुप्त, डॉ. रामस्वरूप, डॉ. रघुवंश, महादेवी वर्मा आदि से उनका विचार-विमर्श और संवाद होता रहता था। डॉ. धीरेन्द्र वर्मा को अपना प्रेरणा स्रोत मानते हुए वे अपनी आत्मकथा 'एक इसाई की आस्था, हिंदी-प्रेम और तुलसी-भक्ति 2' में लिखते हैं- "सन 1945 में डॉ. धीरेन्द्र वर्मा की प्रेरणा से मैंने एम.ए. के बाद इलाहाबाद से डॉ. माता प्रसाद के निरीक्षण में शोध कार्य किया।" इलाहाबाद के प्रवास को वे अपने जीवन का ‘द्वितीय बसंत’ कहते थे। महादेवी वर्मा को वे ‘दीदी’ और इलाहाबाद के लोगों को वे ‘मायके वाले’ कहते थे। बुल्के जी अपने समय के प्रति सजग एवं सचेत थे। भारत और भारतीयता (भारत की स्वस्थ परंपराओं) के अनन्य भक्त कामिल बुल्के, बौद्धिक और आध्यात्मिक होने के साथ-साथ ईसा के परम भक्त थे। साथ ही गोस्वामी तुलसीदास की रामभक्ति के सात्विक और आध्यात्मिक आयाम के प्रति उनके मन में बहुत आदर था। उनका कहना था[3]-
कामिल बुल्के और 'रामचरितमानस'धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन के लिए बुल्के के पास दर्शन का ज्ञान था। वह भारतीय दर्शन और साहित्य का व्यवस्थित रूप से अध्ययन करना चाहते थे। उन्होंने तुलसीदास के ग्रंथ रामचरित मानस को पढ़ा। वह रामचरित मानस से वह बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने रामचरित मानस का गहन अध्ययन किया। रामचरित मानस में उन्हें नैतिकता और व्यावहारिकता का आकर्षक समन्वय मिला। अत: उन्होंने अपने शोध का विषय 'रामकथा: उत्पत्ति और विकास' चुना। इस विषय पर उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से 'डॉक्टरेट' की उपाधि प्राप्त की। उनका यह कार्य भारत के साथ ही विश्व में प्रकाशित हुआ और इसके बाद पूरा विश्व बुल्के को जानने लगा। उपलब्धिबुल्के के द्वारा प्रस्तुत शोध की विशेषता थी कि यह मूलतः हिन्दी में प्रस्तुत किया गया पहला शोध प्रबंध है। फ़ादर बुल्के जिस समय इलाहाबाद में शोध कर रहे थे, उस समय सभी विषयों में शोध प्रबंध केवल अंग्रेज़ी भाषा में ही प्रस्तुत किए जाते थे। फ़ादर बुल्के ने आग्रह किया कि उन्हें हिन्दी में शोध प्रबंध प्रस्तुत करने की अनुमति दी जाए। इसके लिए शोध संबंधी नियमावली में परिवर्तन किया गया। भाषा ज्ञानबुल्के बहु-भाषाविद् थे। वह अपनी मातृभाषा 'फ्लेमिश' के अतिरिक्त अंग्रेज़ी, फ्रेंच, जर्मन, लैटिन, ग्रीक, संस्कृत और हिन्दी पर भी संपूर्ण अधिकार रखते थे। भारत की नागरिकता1951 में भारत सरकार ने फ़ादर बुल्के को बड़े ही आदर के साथ भारत की नागरिकता प्रदान की। वह हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में प्रचारित करने वाली समिति के सदस्य बने। भारत के नागरिक बनने के बाद वह स्वयं को 'बिहारी' कहकर बुलाते थे। हरिवंशराय बच्चन की कविता[2]
हिन्दी साहित्यानुरागीगजेंद्र नारायण सिंह जो कि फ़ादर कामिल बुल्के के छात्र रहे, वे बताते हैं कि- "मैं संत जेवियर्स कॉलेज में दाखिल हुआ था तो एक दिन समय निकालकर फ़ादर बुल्के से मिलने गया। उनके कमरे के बंद दरवाज़े पर दस्तक लगाते हुए मैंने कहा- 'में आई कम इन फ़ादर।' मेरे इतना कहते ही दरवाज़ा खुला और एक अत्यंत ही शांत, सौम्य, साधु पुरुष गर्दन पर भागलपुरी सिल्क की चादर लपेटे हुए खड़ा था। उन्होंने धीरे से गम्भीर स्वर में कहा- "अभी दरवाज़े पर दस्तक लगाते हुए आपने किसी भाषा का व्यवहार किया? क्या आपकी अपनी कोई बोली या भाषा नहीं है? आप स्वतंत्र राष्ट्र के नागरिक हैं, फिर भी विदेशी आंग्ल भाषा का व्यवहार हिन्दी के एक प्राध्यापक के पास क्यों कर रहे हैं? आपकी मातृभाषा क्या है?" प्रश्नों की झड़ी लगा दी उन्होंने। मैं अवाक स्तम्भ खड़ा रहा। उन्होंने मुझसे पूछा कि- "आपकी मातृभाषा क्या है?" मेरे द्वारा बताये जाने पर कि मैथली है, तो उन्होंने मुझसे निर्विकार भाव से कहा- "आइंदा जब आप मेरे पास आएं तो मैथली या हिन्दी मैं ही बात करेंगे, अंग्रेज़ी में कदापि नहीं।" हिन्दी के प्रति समर्पित ऐसे साहित्याअनुरागी बहुभाषाविद उस विदेशी संत प्राध्यापक की ओर निर्निमेष में ताकता ही यह गया। अपने हिन्दीविद होने के कारण डॉ. बुल्के को देश-विदेश में बहुत सम्मान प्राप्त था। 1950 से ही वे 'बिहार राष्ट्रसभा परिषद' की कार्यकारिणी के सदस्य थे। वे 1972 से ही भारत सरकार की 'केंद्रीय हिन्दी समिति' के भी सदस्य थे। उन्हें 1973 में बेल्जियम की 'रॉयल अकादमी' का सदस्य बनाया गया था। उनके ‘रामकथा’ हिन्दी विषय की उपाधि के लिये हिन्दी में लिखित प्रथम शोध प्रबंध की भाषा के माध्यम के रूप में हिन्दी को पहली बार प्रतिष्ठित कराने का श्रेय उनका है। इसके लिए उन्हें बहुत संघर्ष करना पड़ा था। स्वर्गीय काका कालेलकर ने एक बार कहा था- "फ़ादर बुल्के तुलसी के अधिकाधिक समीप पहुंचने के लिए जीवन भर प्रयत्नशील रहे।" कॉलेज मंच पर भाषण देते हुए उन्होंने कहा था- संस्कृत राजमाता है, हिन्दी बहूरानी है और अग्रेज़ी नौकरानी है। पर नौकरानी के बिना भी काम नहीं चलता। अपने धर्म के प्रति आस्थाएक बार किसी कॉलेज में आयोजित 'तुलसी जयंती' पर कामिल बुल्के आमंत्रित थे। स्वागतकर्ता ने अपने स्वागत भाषण में कहा कि- "डॉ. बुल्के राम के अनन्य भक्त हैं।" इस पर प्रतिकार करते हुए उन्होंने कहा कि- "मैं तो कैथोलिक ईसाई पादरी हूं। मेरे लिए राम ईश्वर रूप नहीं हो सकते। मेरे लिये तो वंदनीय केवल ईसा मसीह हैं।" अपने मज़हब और उसके प्रति अटूट आस्था कामिल बुल्के में थी। बावजूद इस रूढ़ि और कट्टरता के वे 'तुलसी साहित्य' के प्रशंसक और ‘मानस’ के अनुरागी थे। वे अक्सर कहते थे कि- "गोस्वामी तुलसीदास विश्व के महान् कवियों में थे और उनकी रचनाओं में ज्ञान का अक्षय भंडार छिपा है।"[2] 'पद्मभूषण' सम्मानकामिल बुल्के की हिन्दी सेवाओं के लिये 1974 में भारत सरकार ने उन्हें 'पद्मभूषण' की उपाधि दी। उस समय फ़ादर अक्सर कहते थे- "इस उपाधि के बाद बहुत-सा समय लोगों के साथ चला जाता है।" वे एक पल भी बेकार गंवाना पसंद नहीं करते थे। फ़ादर हिन्दी के इतने सबल पक्षधर थे कि सामान्य बातचीत में भी अग्रेज़ी शब्द का प्रयोग उन्हें पसंद नहीं था। उन्हें इस बात का दु:ख था कि हिन्दी वाले अपनी हिन्दी का सम्मान नहीं करते। उनका विचार था- "दुनिया भर में शायद ही कोई ऐसी विकसित साहित्य भाषा हो जो हिन्दी की सरलता की बराबरी कर सके।" उन्हें इस बात का दर्द था की हिन्दीभाषी और हिन्दी संस्थाएं हिन्दी को खा गए। जब भी कोई उनसे अंग्रेज़ी में बोलता था, वे पूछ लेते थे- "क्या तुम हिन्दी नहीं जानते?" रचनाएँबुल्के ने बाइबिल का हिन्दी अनुवाद भी किया। मॉरिस मेटरलिंक के प्रसिद्ध नाटक 'द ब्लू बर्ड' का नील पंछी नाम से बुल्के ने अनुवाद किया। उनकी छोटी-बड़ी कुल मिलाकर उन्होंने क़रीब 29 किताबें लिखीं। उनकी प्रमुख कृतियाँ हैं -
बुल्के आजीवन हिन्दी की सेवा में लगे रहे। हिन्दी-अँगरेजी शब्दकोश के निर्माण के लिए वे सतत प्रयत्नशील रहे। वर्ष 1968 में अंग्रेजी हिन्दी कोश प्रकाशित हुआ जो आज भी सबसे प्रामाणिक शब्दकोष माना जाता है। उन्होंने इसमें 40 हज़ार शब्द जोड़े और इसे आजीवन अद्यतन भी करते रहे। कामिल बुल्के का अंग्रेज़ी-हिन्दी शब्दकोश और बाइबिल का हिन्दी अनुवाद 'नया विधान', हिन्दी के महत्व और उसकी सामर्थ्य को सिद्ध करने के ही उपक्रम हैं। उनके 'अंग्रेज़ी-हिन्दी शब्दकोश' ने अंग्रेज़ी के स्थान पर हिन्दी के प्रयोग की राह को सुगम बनाया है। कथनफ़ादर बुल्के ने कहा - '1938 में मैंने हिन्दी के अध्ययन के दौरान रामचरित मानस तथा
विनय पत्रिका का परिशीलन किया। इस अध्ययन के दौरान रामचरित मानस की ये पंक्तियाँ पढ़कर अत्यंत आंनद का अनुभव हुआ- दिल्ली विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के पूर्व अध्यक्ष प्रोफ़ेसर नित्यानंद तिवारी कहते हैं-
रामकथा मर्मज्ञफ़ादर कामिल बुल्के का दूसरा जग-विख्यात पहलू है कि वे हिन्दी के विद्वान, रामकथा के मर्मज्ञ व विदेश में जन्मे भारतीय थे। उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से 'रामकथा उत्पत्ति और विकास' पर 1950 में पी.एच.डी. की। इस शोध में संस्कृत, पाली, प्राकृत, अपभ्रंश, हिन्दी, बंगला, तमिल आदि समस्त प्राचीन और आधुनिक भारतीय भाषाओं में उपलब्ध राम विषयक विपुल साहित्य का ही नहीं, वरन् तिब्बती, बर्मी, सिंघल, इंडोनेशियाई, मलय, थाई आदि एशियाई भाषाओं के समस्त राम साहित्य की सामग्री का भी इस कथा के अध्ययन के विकास की दृष्टि से अत्यंत वैज्ञानिक रीति से उपयोग हुआ है। तुलसीदास उन्हें उतने ही प्रिय थे, जितने अपनी मातृभाषा फ्लेमिश के महाकवि गजैले या अंग्रेज़ी के महाकवि शेक्यपियर। वे प्राय: कहा करते थे- "हिन्दी में सब कुछ कहा जा सकता है।" इस बात की पुष्टि करने के लिए उन्होंने सबसे पहले दर्शन, धर्मशास्त्र आदि विषयों की परिभाषिक शब्दावली का एक लघुकोश 'ए टैक्नीकल इंगलिश हिन्दी ग्लौसरी' के नाम से प्रकाशित किया। इसके बाद 'अंग्रेज़ी-हिन्दीकोश' को 1967 में तैयार किया और इसका खूब स्वागत हुआ।[2] डॉ. फ़ादर बुल्के शोध सस्थानइलाहाबाद को अपना 'मायका' मानने और कहने वाले फ़ादर बुल्के सचमुच ही गंगा-यमुना-सरस्वती के संगम-तीर्थ थे। उनके पुस्तकालय के द्वार सभी के लिए सदैव खुले रहते थे। उनका पुस्त्कालय उस समय बहुत 'अमीर' माना जाता था। 'अमीर' इस रूप में कि उसमें असंख्य किताबें थीं, जिन्हें फ़ादर बुल्के स्वयं अपने खर्चे पर मंगाया करते थे। आज भी उन पुस्तकों का लाभ रांची के लोग उठा रहे हैं। मनरेसा हाउस, जो अब 'डॉ. फ़ादर बुल्के शोध सस्थान' के रूप में जाना जाता है, वहां बैठकर न जाने कितने विद्यार्थी अध्ययन करते रहते हैं। परम विनोदी स्वभावफ़ादर कामिल बुल्के परम विनोदी थे। अपने विनोदी स्वभाव के कारण वे जीवन का, मित्रों का, संगत का, पारस्परिक मेल-मिलाप का भरपूर आनंद लेते थे। एक बार किसी ने उनसे पूछा- "फ़ादर, आपके सिर के बाल काले और दाढ़ी के सफ़ेद क्यों हैं?" तो फ़ादर कामिल बुल्के ने प्रत्युत्तर में कहा- "मैं सिर पर काला और दाढ़ी पर सफ़ेद खिजाब लगाता हूं।" फिर बोले, "सिर के बाल काले हैं, क्योंकि सिर में कुछ भी नहीं है।" फ़ादर को बच्चे बहुत प्रिय थे। उनके निश्छल बालरूप में उन्हें शायद कभी मरियम की गोद में खेलते-मचलते ईसा दिखाई देते होंगे तो कभी दशरथ के आंगन में ठुमुक-ठुमुक चलते रघुवीर, जिनकी पौजनियां बज रही है। 'ठुमुक चलत बाजत पैंजनियां।'[2] मृत्युफ़ादर कामिल बुल्के की मृत्यु गैंग्रीन के कारण 17 अगस्त, 1982 को दिल्ली में हुई। दिल्ली के 'अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान' के अधिकारियों के असहयोग पूर्ण आचरण और गर्म मौसम के चलते फ़ादर कामिल बुल्के के पार्थिव शरीर को रांची लाना असंभव हो गया तो दिल्ली स्थित जेसुइट मठवासीय साथियों ने उन्हें दिल्ली में ही दफनाने का निर्णय लिया। कश्मीरी गेट स्थित 'निकल्सन सेमेट्री' में अंतिम समाधि में जाने से पूर्व जब उनका ताबूत खोला गया तो बाबा कामिल बुल्के के जुड़े हाथ हृदय पर थे और मुखमण्डल पर चिर-शांति की सौम्यता छाई हुई थी। मृत्यु उनकी सौम्य छवि को मिटा न सकी। पन्ने की प्रगति अवस्था
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फादर कामिल के मित्र का क्या नाम था?Answer: फादर बुल्के के अभिन्न मित्र का नाम हडसन एंड्री था।
फादर कामिल बुल्के के अभिन्न मित्र कौन थे पाठ के आधार पर स्पष्ट कीजिए?रघुवंश जी, जो हिन्दी के उद्भट विद्वान भी थे, वे भारत में फ़ादर कामिल बुल्के के अभिन्न मित्र थे। फ़ादर केवल उन्हें ही अपने मन की व घर-परिवार की सारी बातें बताते तथा अपनी माता जी के पत्र भी उन्हें ही दिखाते।
फादर के परिवार में कौन कौन था और उनसे उनके संबंध कैसे थे?Solution : फार कामिल बुल्के मूल रूप से बेल्जियम के निवासी थे। उनके परिवार में उनके माता-पिता, दो भाई और एक बहन भी थी। उन्होंने बेल्जियम से बी.एस-सी. अंतिम वर्ष तक पढ़ाई की।
फादर बुल्के को कौन सा सम्मान दिया गया था?Explanation: फादर कामिल बुल्के (अंग्रेजी: Father Kamil Bulcke) (1 सितंबर 1909 – 17 अगस्त 1982) बेल्जियम से भारत आये एक मिशनरी थे। भारत आकर मृत्युपर्यंत हिंदी, तुलसी और वाल्मीकि के भक्त रहे। इन्हें साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में भारत सरकार द्वारा सन 1974 में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया।
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