Solution : संत रैदास जी कहते है कि प्रभु आप चंदन हो, जिसके साथ रहकर पानी भी सुंगंधित हो जाता है। रैदास जी प्रभु को बादल के रूप में भी मानते हैं, जिन्हें देखकर मोर नाचने लगता है। रैदास जी ने प्रभु को ' चन्द्रमा ' के रूप में सम्बोधित करते हुए कहा है कि इस चन्द्रमा के रूप को चातक पक्षी देखता ही रहता है और कभी तृप्त नहीं होता । प्रभु को 'दीपक' के रूप में जानकार रैदास जी कहते हैं कि प्रभु एक ऐसा दीपक है जिसकी ज्योति दिन-रात जलती रहती है। रैदास जी कहते हैं कि प्रभु का दुसरा एक रूप सुन्दर चमकदार मोटी की तरह है जिसे एकरूपता के धागे में पिरोया जा सकता है। प्रभु को अनेक रूपों में पाकर रैदास जी थकते नहीं। उन्होंने प्रभु को 'सोने' के रूप में भी देखा है। जिस प्रकार सोने जैसा अमूल्य धन पाकर मनुष्य तृप्त होता है, उसी प्रकार प्रभु रूपी सोने को पाकर, प्रतिमा को पूजकर सुहागा धन्य हो जाता है। अंत में संत रैदास जी ने प्रभु को सारे विश्व के 'स्वामी' के रूप में पाया है, जिनके चरणों के वे खुद को दास समझते हैं। Show
Jharkhand Board JAC Class 9 Hindi Solutions Sparsh Chapter 9 रैदास के पद Textbook Exercise Questions and Answers. JAC Board Class 9 Hindi Solutions Sparsh Chapter 9 रैदास के पदJAC Class 9 Hindi रैदास के पद Textbook Questions and Answersप्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. दूसरे पद ‘ऐसी लाल तुझ बिनु कउनु करै’ में कवि ने अपने आराध्य के दयालु रूप का वर्णन किया है जो ऊँच-नीच, सुवर्ण-अवर्ण, अमीर-गरीब आदि का भेदभाव नहीं जानता। वह किसी भी कुल-गोत्र में उत्पन्न अपने भक्त को सहज भाव से अपनाकर उसे दुनिया में सम्मान दिलाता है तथा उसे सांसारिक बंधनों से मुक्त कर अपने चरणों में स्थान देता है। ईश्वर द्वारा नामदेव, कबीर, त्रिलोचन, सधना, सैन जैसे निम्न जाति में उत्पन्न भक्तों को समाज में उच्च स्थान दिलाने तथा उनका उद्धार करने के उदाहरण देकर कवि ने अपने इस कथन को सिद्ध किया है। योग्यता – विस्तार – प्रश्न 1. प्रश्न 2. JAC Class 9 Hindi रैदास के पद समान Important Questions and Answersप्रश्न 1. जिस प्रकार ‘तूंबा’ जल के ऊपर ही रहता है, उसी प्रकार हमें भी संसार में वैसे ही विचरण करना चाहिए। भक्ति दिखावे का नाम नहीं है। जब तक मनुष्य पूर्ण वैराग्य की स्थिति प्राप्त नहीं करता, तब तक भक्ति के नाम पर की जाने वाली सब साधनाएँ केवल भ्रम और आडंबर है जिनसे कोई लाभ नहीं हो सकता। सोने की शुद्धि का परिचय उसे पीटे, काटे, तपाने या सुरक्षित रखने से नहीं होता बल्कि सुहागे के साथ संयोग से होता है। हमारे हृदय में निर्मलता तभी उत्पन्न होती है, जब परमात्मा से हमारी पहचान हो जाती है। प्रश्न 2. उसमें न कर्म है और न अकर्म; न शुभ है और न अशुभ; न शीत है और न अशीत; न योग है और न भोग। वह शिव – अशिव, धर्म-अधर्म, जरा-मरण, दृष्टि- अदृष्टि, गेय – अगेय आदि के बंधन से परे है। वह एक है। वह अद्वितीय है। वह मूर्ति में नहीं है। जो मूर्ति को पूजते हैं, वे कच्ची बुद्धि वाले हैं। राम तो वह है, जिसका न कोई नाम है और न ही स्थान। वह सबमें व्याप्त है; उसे कहीं बाहर ढूँढ़ने की आवश्यकता नहीं होती। प्रश्न 3. प्रश्न 4. प्रश्न 5. प्रश्न 6. प्रश्न 7. प्रश्न 8. प्रश्न 9. प्रश्न 10. प्रश्न 11. प्रश्न 12. रैदास के पद Summary in Hindiकवि-परिचय : जीवन-परिचय -रैदास अथवा रविदास निर्गुण काव्यधारा के संत कवियों में प्रमुख माने जाते हैं। आदि ग्रंथ के अनुसार इनका जन्म काशी में हुआ था। इनका समय सन् 1388 ई० से लेकर सन् 1518 ई० तक का माना जाता है। ये कबीर के समकालीन थे। इनके गुरु रामानंद थे। गृहस्थी होते हुए भी इनका जीवन संतों के समान था। इन्होंने अपनी रचनाओं में अपने पूर्ववर्ती और समकालीन संत कवियों नामदेव, कबीर आदि की भी चर्चा की है। इनके ज्ञान से प्रभावित होकर मीराबाई ने इन्हें अपना गुरु स्वीकार किया था। तत्कालीन शासक सिकंदर लोदी ने इन्हें दिल्ली भी आमंत्रित किया था। रचनाएँ – रैदास द्वारा रचित दो ग्रंथ – ‘ रविदास की बानी’ और ‘रविदास के पद’ हैं। श्री गुरु ग्रंथ साहब में भी इनके कुछ पद संग्रहीत हैं। इनकी समस्त रचनाएँ ‘रैदास की बानी’ के नाम से उपलब्ध हैं। काव्य की विशेषताएँ – रैदास ने अपनी रचनाओं में निर्गुण निराकार ब्रह्म के प्रति अपनी आस्था व्यक्त की है, किंतु सगुणोपासना से भी इनका कोई विरोध नहीं था। इसलिए इन्होंने अपनी वाणी में निर्गुण-निराकार परमात्मा को स्मरण करने के लिए सगुणोपासना में प्रचलित परमात्मा के माधव, हरि, गोबिंद, राम, केशव आदि शब्दों का निस्संकोच भाव से प्रयोग किया है। इन्होंने एकाग्र मन तथा एकनिष्ठ भाव से प्रभु स्मरण पर बल दिया है। रैदास जातिगत भेदभाव, तीर्थ, व्रत, आडंबरपूर्ण पूजा आदि में विश्वास नहीं रखते थे। वे सहज, सरल तथा आडंबरहीन प्रभु-भक्ति करते थे। इनकी वाणी में आत्मा-परमात्मा की एकता का भाव व्यक्त हुआ है। वे आत्मा को परमात्मा का अभिन्न अंश मानते थे। इनकी वाणी में प्रमुखता लोक-कल्याण का भाव रहा है। रैदास ने अपनी रचनाओं में मुख्य रूप से सरल तथा प्रचलित ब्रजभाषा का प्रयोग किया है; इसमें कहीं-कहीं खड़ी बोली, अवधी, राजस्थानी, अरबी-फ़ारसी तथा उर्दू के शब्दों का प्रयोग भी दिखाई दे जाता है। इनके पद ‘खालिक – सिकस्ता मैं तेरा’ में अरबी, फ़ारसी और उर्दू के शब्दों का बहुत प्रयोग हुआ है। प्रचलित उपमानों तथा नाथों और निरंजनों के सहज, शून्य आदि शब्द भी प्राप्त होते हैं। इन्होंने मुक्तक गेय पदों, दोहा, चौपाई आदि छंदों में अपनी रचनाएँ की हैं। रैदास का काव्य भक्तिभाव से परिपूर्ण है, जिसमें निर्गुण ब्रह्म की आराधना के साथ-साथ गुरु-भक्ति, लोक कल्याण, कर्तव्य पालन, सत्संग, नाम-स्मरण आदि का महत्व प्रतिपादित किया गया है। पदों का सार : पाठ्य-पुस्तक में रैदास द्वारा रचित दो पद संकलित हैं। पहले पद में कवि ने अपने आराध्य की आराधना करते हुए स्पष्ट किया है कि उसे राम-नाम की रट लग गई है, जिसे वह अब छोड़ नहीं सकता। वह अपने प्रभु को चंदन और स्वयं को पानी; उन्हें घनश्याम और स्वयं को मोर; उन्हें चाँद तथा स्वयं को चकोर मानता है। वह अपने प्रभु को दीपक स्वयं को बाती; उन्हें मोती स्वयं को धागा तथा उन्हें स्वामी और स्वयं को उनका दास मानकर उनकी भक्ति करता है। दूसरे पद में कवि ने प्रभु को सबका रक्षक माना है। कवि के अनुसार दुखियों पर दया करने वाला परमात्मारूपी स्वामी उस जैसे व्यक्ति को भी महान बना देता है। संसार जिसे अछूत मानता है, उसी पर परमात्मा द्रवित होकर कृपा करता है। वह किसी से भी नहीं डरता और नीच को भी ऊँचा बना देता है। कवि कहता है कि उसी परमात्मा की कृपा से नामदेव, कबीर, त्रिलोचन, सधना, सैन जैसे निम्न जाति में उत्पन्न व्यक्तियों का भी उद्धार हो गया था। व्याख्या – 1. अब कैसे छूटै राम नाम रट लागी, शब्दार्थ : बास – सुगंध। घन – बादल। बंर – जले। सोनहिं – सोने में। प्रसंग : प्रस्तुत पद रैदास द्वारा रचित है, जोकि हमारी पाठ्यपुस्तक ‘स्पर्श’ (भाग – 1) में संकलित है। इस पद में कवि ने अपने आराध्य के प्रति अपनी अटूट भक्ति का परिचय दिया है। व्याख्या : रैदास कहते हैं कि हे मेरे प्रभु ! अब मुझे राम नाम जपने की रट लग गई है, जो मुझसे किसी प्रकार से भी नहीं छूट सकती। हे प्रभु! आप चंदन के समान हैं और मैं पानी जैसा हूँ। मैं गंध से रहित पानी की तरह था, जिसमें आपके चंदन रूप की सुगंध घुलकर मेरे अंग-अंग में समा गई है। आप घने बादलों का समूह हैं और मैं मोर हूँ। मैं आपको ऐसे देखता हूँ, जैसे चंद्रमा को चकोर देखता है। आप दीपक हैं और मैं उसमें जलने वाली बत्ती हूँ, जिसकी ज्योत दिन-रात जलती रहती है। आप मोती हैं और मैं मोती को पिरोने वाला धागा हूँ। जैसे सोने को सुहागा शुद्ध कर देता है, वैसे ही आपने मुझे पवित्र कर दिया है। हे प्रभु! आप मेरे स्वामी हैं और मैं आपका दास हूँ। ऐसी ही भक्ति रैदास आपकी करता है। 2. ऐसी लाल तुझ बिनु कउनु करै। शब्दार्थ : लाल – स्वामी। गरीब निवाजु – गरीबों पर कृपा करने वाला। गुसईआ – स्वामी। माथै छत्रु धेरै महान बनाना। जाकी जिसकी। छोति – छुआछूत, अस्पृश्यता। ढरै द्रवित होना, दया करना। नामदेव महाराष्ट्र के एक प्रसिद्ध संत; इन्होंने मराठी और हिंदी दोनों – भाषाओं में रचना की है। तिलोचनु (त्रिलोचन ) – एक प्रसिद्ध वैष्णव आचार्य, जो ज्ञानदेव और नामदेव के गुरु थे। सधना – एक उच्च कोटि के संत, जो नामदेव के समकालीन माने जाते हैं। सैनु ये भी एक प्रसिद्ध संत हैं, ‘आदि गुरुग्रंथ साहब’ में संग्रहीत पद के आधार पर इन्हें रामानंद का समकालीन माना जाता है। जीउ – इच्छा। सरै – होना। प्रसंग : प्रस्तुत पद रैदास द्वारा रचित है, जो हमारी पाठ्यपुस्तक ‘स्पर्श’ (भाग – 1) में संकलित है। इस पद में कवि ने स्पष्ट किया है कि परमात्मा के सामने ऊँच-नीच का कोई भेदभाव नहीं है। वह किसी भी कुल, गोत्र, जाति आदि में उत्पन्न अपने भक्त को समान रूप से अपनाकर और उसे समुचित सम्मान देकर उसका उद्धार करता है। व्याख्या : कवि प्रभु की उदारता, कृपालुता तथा दयालुता का वर्णन करते हुए कहता है कि आपके अतिरिक्त गरीबों तथा दीन-दुखियों का स्वामी अथवा रक्षक अन्य कोई नहीं है। आप गरीबों के रक्षक तथा स्वामी हैं। आपने ही मुझ जैसे व्यक्ति को इतनी महानता प्रदान की है। जिनके स्पर्श को भी दुनिया वाले बुरा मानते हैं, ऐसे लोगों पर भी आप दया करते हैं। कवि कहता है कि मेरा गोबिंद तो नीच को भी उच्च बना देता है; वह किसी से डरता नहीं है। उस परमात्मा ने नामदेव, कबीर, त्रिलोचन, सधना और सैन जैसे लोगों की भक्ति से प्रसन्न होकर उनका उद्धार कर दिया। रविदास कहते हैं कि ‘हे संतो ! हरि की इच्छा से सभी कार्य संपन्न हो जाते हैं’। रैदास ने स्वयं को क्या कहा है?कवि ने स्वयं को पानी मानकर प्रभु को चंदन माना है। रैदास के स्वामी निराकार प्रभु हैं। वे अपनी असीम कृपा से नीच को भी ऊँच और अछूत को महान बना देते हैं। रैदास अपने प्रभु के अनन्य भक्त हैं, जिन्हें अपने आराध्य को देखने से असीम खुशी मिलती है।
रैदास ने भगवान से क्या पाने के लिए भक्ति की है?उत्तरः रैदास के पदों से हमें यह संदेश मिलता है कि ईश्वर ही हर असंभव कार्य को संभव करने का सामथ्र्य रखता है। ईश्वर सदैव श्रेष्ठ और सर्वगुण सम्पन्न रहा है। अतः हमें उस भगवान की शरण में जाना चाहिए क्योंकि वही हमें इस संसार रूपी सागर से पार लगा सकता है।
कवि रैदास ने अपने प्रभु को क्या क्या विशेषताएाँ बताई ै?पठित पद से ज्ञात होता है कि रैदास को अपने प्रभु के नाम की रट लग गई है जो अब छुट नहीं सकती है। इसके अलावा कवि ने अपने प्रभु को चंदन, बादल, चाँद, मोती और सोने के समान बताते हुए स्वयं को पानी, मोर, चकोर धाग और सुहागे के समान बताया है। इन रूपों में वह अपने प्रभु के साथ एकाकार हो गया है।
रैदास अपने पदों के माध्यम से हमें क्या प्रेरणा देना चाहते हैं?मित्र रैदास के पदों से हमें सच्चे मन से भगवान की भक्ति करने की शिक्षा मिलती है। ईश्वर हर कण में विद्यमान है। इनके प्रभु बिना किसी भेदभाव के अपने भक्तों पर समान रुप से कृपा बनाए रखते हैं। मनुुष्य को भी जातिगत भेदभाव नहीं करना चाहिए तथा सभी के साथ प्रेमपूर्वक रहना चाहिए।
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