राजनीति क्या है BA 1st year? - raajaneeti kya hai ba 1st yaiar?

राजनीति क्या है?  इस प्रश्न का उत्तर देना सरल नहीं है। ‘राजनीति’ के बारे में आम आदमी की धारणा से इसके तकनीकी अर्थ का पता लगाने में विशेष सहायता नहीं मिलती। फिर, ‘राजनीति’ की चिरसम्मत धारणा से भी इसकी आधुनिक धारणा का पूरा विवरण प्राप्त नहीं होता। परंतु ‘राजनीति’ की आधुनिक धारणा को समझने के लिए इसके बारे में आम आदमी की धारणा और चिरसम्मत धारणा का परिचय प्राप्त कर लेना लाभदायक होगा।

राजनीति के बारे में आम आदमी की धारणा (Layman’s Notion of Politics)

‘राजनीति’ शब्द का प्रयोग हम अपनी दैनिक बातचीत में भी करते हैं और वैज्ञानिक अध्ययन में भी करते हैं। क्या इन दोनों संदर्भो में हमारा तात्पर्य एक-जैसा होता है? शायद नहीं। परंतु ‘राजनीति’ के वैज्ञानिक रूप तक पहुँचने के लिए शुरू-शुरू में इस बात पर विचार कर लेना अत्यंत रोचक होगा कि आम आदमी ‘राजनीति’ की कल्पना किस रूप में करता है? एलेन बाल ने ‘मॉडर्न पॉलिटिक्स एंड गवर्नमेंट’ (आधुनिक राजनीति और शासन) (1988) के अंतर्गत यह संकेत दिया है कि राजनीतिक गतिविधि की आम धारणा को अपना लेने पर दो प्रकार की समस्याएं पैदा हो जाती हैं। पहले, “अक्सर यह मान लिया जाता है कि राजनीति का सरोकार केवल सार्वजनिक क्षेत्र से है, अर्थात् संसदों, चुनावों और मंत्रिमंडलों से; मानवीय गतिविधि के अन्य क्षेत्रों से इसे कुछ लेना-देना नहीं है।’ दूसरे, “इसमें यह ख़तरा रहता है कि राजनीति को निरी दलगत राजनीति के साथ मिला दिया जाता है, जैसे इसका सरोकार कोई राजनीतिक मत रखने से हो, या कम-से-कम इसमें सत्ता-लोलुप राजनीतिज्ञों की साज़िशों और चालबाज़ियों के प्रति घृणा की भावना निहित रहती  है।”

मतलब यह कि आम आदमी ‘राजनीति’ का अर्थ लगाते समय एक छोटे-से दायरे के बारे में सोचता है। वह इसे या तो केवल मंत्रियों और विधायकों की गतिविधि समझ लेता है, या इसे राजनीतिज्ञों की चालबाजियों और चुनाव के पैंतरों के साथ जोड़ने लगता है। वह यह अनुभव नहीं करता कि राजनीति एक व्यापक सामाजिक प्रक्रिया (Social Process) है जो सामाजिक जीवन के अनेक स्तरों पर चलती रहती है। बहुत-से-बहुत वह यह मान लेता है कि राजनीति में सार्वजनिक सभाएं, जलसे-जुलूस, नारेबाज़ी, प्रदर्शन, मांगें, हड़तालें, आंसू गैस और लाठी चार्ज जैसी गतिविधियां आ जाती हैं, या फिर उसका ध्यान चुनावों, प्रचार-अभियानों या रैलियों के उस पक्ष की ओर चला जाता है जिसमें झूठे वादे किए जाते हैं, और उनकी पूर्ति के झूठे समाचार फैलाए जाते हैं। इन्हीं गोल-मोल धारणाओं के परिणामस्वरूप राजनीति को कभी-कभी ‘धूर्तों का अंतिम आश्रय’ (Last resort of scoundrels) कहकर इसकी निंदा की जाती है। अर्नेस्ट बैन ने राजनीति के स्वरूप पर व्यंग्य करते हुए इसे ऐसी कला की संज्ञा दी है जिसमें “पहले तो मुसीबत को ढूंढ़ते हैं, फिर वह जहां हो या न हो, वहां से उसे पकड़ लाते हैं; उसका ग़लत निदान किया जाता है और फिर उसका ग़लत उपचार किया जाता है।” इन अनोखी धारणाओं के आधार पर राजनीति को कभी-कभी ‘घिनौना खेल’ (Dirty Game) कहा जाता है; छात्रों को राजनीति से दूर रहने की सलाह दी जाती है, और न्यायाधीशों तथा अन्य बुद्धिजीवियों से यह आशा की जाती है कि वे अपने-आपको राजनीति से ऊपर रखेंगे।

परंतु यदि हम राजनीति से घृणा करते हुए उससे दूर भागेंगे तो यह डर है कि राजनीति सचमुच ग़लत लोगों के हाथों में चली जाएगी, और सार्वजनिक समस्याओं का समाधान नहीं हो सकेगा। देखा जाए तो प्राचीन यूनानी नगर-राज्यों में राजनीतिज्ञों की आपत्तिजनक गतिविधियों को देखकर ही सुकरात और प्लेटो ने इतनी गहरी चिंता व्यक्त की थी और अपना जीवन राजनीति के ऐसे रूप की तलाश में लगा दिया था जो समाज को कल्याण की ओर ले जा सके। यह तलाश आज भी जारी है। इसके लिए राजनीति के सही रूप की जानकरी ज़रूरी है।

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राजनीति को चिरसम्मत धारणा (Classical Notion of  Politics)

राजनीति के सही रूप को जानने-समझने के लिए उन भ्रांतियों को दूर करना आवश्यक है जो इसकी आम धारणा के साथ जुड़ गई हैं। राजनीति की चिरसम्मत धारणा हमें सही दिशा में सोचने का रास्ता दिखाती है। ‘राजनीति’ का अंग्रेज़ी पर्याय ‘पॉलिटिक्स’ (Politics) है जो ग्रीक भाषा के ‘पोलिस’ (Polis) शब्द से बना है; यह प्राचीन यूनानी नगर-राज्य का द्योतक था। यूनानी नगर-राज्य छोटे-छोटे नगर थे; इनकी एक विशेषता यह थी कि इनके नागरिक बहुधा स्वयं अपना शासन चलाते थे।

ये नागरिक राज्य के सदस्यों और संचालकों के रूप में जो भूमिका निभाते थे, उससे संबंधित गतिविधियों को प्राचीन यूनानी विचारकों ने ‘पॉलिटिक्स’ की संज्ञा दी। इन गतिविधियों के व्यवस्थित अध्ययन को भी उन्होंने ‘पॉलिटिक्स’ नाम दिया।

प्लेटो, अरस्तू और उनके समकालीन यूनानी विचारकों की दृष्टि में ‘पोलिस’ या नगर-राज्य के मामले अत्यंत महत्त्वपूर्ण थे। अरस्तू ने तो इनके अध्ययन को ‘सर्वोच्च विज्ञान’ या ‘परम विद्या’ (Master Science) की संज्ञा दे डाली क्योंकि उसका विचार था कि नागरिक के लिए नगर-राज्य के जीवन में भाग लेना उत्तम जीवन (Good Life) की आवश्यक पाई है।

यूनानी विचारक यह मानते थे कि राज्य मनष्य के “जीवन को चलाने के लिए अस्तित्व में आता है, और सद्जीवन की सिद्धि के लिए बना रहता है” (State comes into existence for the sake of life and continues for the sake of good life.)। अरस्तू ने कहा था कि मनुष्य स्वभाव से राजनीतिक प्राणी है (Man is by nature a political animal.)। जो मनुष्य राज्य में नहीं रहता या जिसे राज्य की आवश्यकता नहीं है, वह या तो निरा पशु (Beast) होगा या अतिमानव (Superman) होगा, अर्थात् वह या तो मनुष्यता के स्तर से बहुत नीचे गिरा होगा या बहुत ऊंचा उठा होगा। राज्य में रहकर ही मनुष्य सही अर्थ में मनुष्य बनता है, अन्यथा उसे मनुष्य रूप में नहीं पहचाना जा सकता।

राज्य में ‘सद्जीवन’ की प्राप्ति के लिए मनुष्य जो जो कुछ करता है, जिन-जिन गतिविधियों में भाग लेता है, या जो-जो नियम, संस्थाएं और संगठन बनाता है, उन सबको अरस्तू ने राजनीति के अध्ययन का विषय माना है। इसे हम राजनीति की चिरसम्मत धारणा कहते हैं। इस युग में मनुष्य के समस्त सामाजिक संबंधों और सामाजिक जीवन के सभी पहलुओं का अध्ययन ‘राजनीति’ के अंतर्गत होता था; अन्य सामाजिक विज्ञान, जैसे कि समाजविज्ञान (Sociology), अर्थशास्त्र (Economics), सामाजिक मनोविज्ञान (Social Psychology), सांस्कृतिक मानवविज्ञान (Cultural Anthropology), इत्यादि उन दिनों स्वतंत्र रूप से विकसित नहीं हुए थे।

अरस्तू ने राजनीति को इसलिए ‘सर्वोच्च विज्ञान’ का दर्जा दिया क्योंकि वह मानव समाज के अंतर्गत विभिन्न संबंधों  को व्यवस्थित करने में निर्णायक भूमिका निभाता है। राजनीति की सहायता से मनुष्य इस धरती पर अपनी नियति को वश में करने का प्रयास करते हैं। अन्य सब ज्ञान-विज्ञान मनुष्य के राजनीतिक जीवन को सँवारने के साधन हैं; राजनीतिशास्त्र समस्त शास्त्रों का सिरमौर है। राजनीति की इस धारणा के अंतर्गत न केवल नागरिकों के कर्त्तव्यों पर विचार किया जाता है, बल्कि उसमें सारे सामाजिक संबंध समा जाते हैं, जैसे कि परिवार में पत्नी पर पति का नियंत्रण, संतान पर पिता का नियंत्रण और दास पर स्वामी का नियंत्रण; शिक्षा, पूजा-पाठ, त्योहार मनाने के तरीके, खेल-कूद, सैनिक संगठन, इत्यादि। परंतु अरस्तू ने इस तर्क का खंडन किया कि राज्य में प्रयुक्त होने वाली सब तरह की सत्ता (Authority) एक-जैसी होती है।

इस तरह राजनीति वैसे तो मनुष्य के संपूर्ण सामाजिक जीवन को अपने अंदर समेट लेती है, परंतु राज्य या शासन के संचालन में जिस सत्ता का प्रयोग किया जाता है वह दास के ऊपर स्वामी की सत्ता से, पत्नी के ऊपर पति की सत्ता से, या संतान के ऊपर पिता की सत्ता से भिन्न होती है। अरस्तू ने यह मान्यता रखी कि राज्य के ढांचे में शासक अपने समकक्ष नागरिकों पर सत्ता का प्रयोग करते हैं (क्योंकि शासकों और साधारण नागरिकों की योग्यता में कोई अंतर नहीं होता)। परंतु परिवार के ढांचे में गृहस्वामी अपने से हीन व्यक्तियों पर सत्ता  का प्रयोग करता है (क्योंकि स्त्रियां, बच्चे या दास योग्यता की दृष्टि से स्वभावतः पति, पिता या स्वामी से हीन होते हैं)।

यह बात ध्यान देने की है कि अरस्तू के समय का समाज आज के समाज की तरह जटिल नहीं था। उन दिनों लोगों का राजनीतिक जीवन और सामाजिक जीवन इतना घुला-मिला था कि इनके पृथक्-पृथक् अध्ययन की आवश्यकता नहीं समझी जाती थी। वैसे अरस्तू ने राज्यप्रबंध को गृह-प्रबंध की तुलना में उच्च कोटि का प्रबंध माना है, तो भी उसने गृह-प्रबंध को राज्य-प्रबंध का अंग मानते हुए उसकी विस्तृत चर्चा की है। फिर, ‘सद्जीवन’ की साधना में राजनीतिक जीवन के साथ-साथ पारिवारिक जीवन का भी अपना महत्त्व है। इस विचार को सामने रखकर अरस्तू ने अपने राजनीतिशास्त्र की रूपरेखा बहुत विराट रखी। वैसे प्राचीन यूनान में राजनीति का प्रयोग-क्षेत्र तो बहुत विस्तृत था, परंतु राजनीति से जुड़े लोगों की संख्या बहुत थोड़ी थी।

किसी भी यूनानी नगर-राज्य की जनसंख्या में स्वतंत्रजनों (Freemen) की संख्या बहुत कम होती थी, और उन्हीं की गतिविधियां राजनीति के दायरे में आती थीं। इनमें भी स्त्रियों को कोई राजनीतिक अधिकार प्राप्त नहीं थे। बाक़ी जनसंख्या में दास (Slaves) या अन्यदेशीय (Aliens) आते थे जिनका राजनीति से कोई सरोकार नहीं था। उदाहरण के लिए, प्लेटो के नगर-राज्य एथेंस में क़रीब चार लाख की जनसंख्या में क़रीब ढाई लाख दास या गैर-नागरिक थे।

मध्य युग में भी राजनीति इने-गिने राजाओं, दरबारियों, सामंत-सरदारों, सेनापतियों, नवाबों, रईसों, महंतों और मठाधीशों की गतिविधि थी; जनसाधारण उनके चाकर थे, या केवल प्रजा थे जिन्हें राजनीति में हिस्सा लेने का अधिकार नहीं था। परंतु आज के युग में राजनीति जनसाधारण के समर्थन पर आश्रित हो गई है, इसलिए यह जनसाधारण के जीवन के साथ निकट से जुड़ गई है। कुछ देशों में किसी-न-किसी तरह की तानाशाही या सैनिक शासन के अधीन जनसाधारण को राजनीतिक अधिकारों से वंचित रखा जाता है, परंतु वहां भी राजनीतिक चेतना अंदर-ही अंदर पनपती रहती है और अवसर पाकर ऐसे आंदोलनों के रूप में प्रस्फुटित होती है कि वह बड़ी-बड़ी तानाशाहियों को हिला देती है। तब जनसाधारण राजनीति में अपनी उपयुक्त भूमिका सँभाल लेते हैं।

 राजनीति की आधुनिक धारणा (Modern Notion of Politics)

राजनीति की चिरसम्मत धारणा के विपरीत, आज के युग में राजनीति का प्रयोग-क्षेत्र तो सीमित हो गया है, परंतु इसमें भाग लेने वालों की संख्या बहुत बढ़ गई है। दूसरे शब्दों में, आज राजनीति के अध्ययन में मनुष्य के सामाजिक जीवन की समस्त गतिविधियों पर विचार नहीं किया जाता, बल्कि केवल उन गतिविधियों पर विचार किया जाता है जो सार्वजनिक नीति (Public Policy) और सार्वजनिक निर्णयों (Public Decisions) को प्रभावित करती हैं। परंतु आज के युग में सार्वजनिक नीतियां और निर्णय इने-गिने शासकों, विधायकों या सत्ताधारियों की इच्छा को व्यक्त नहीं करते बल्कि समाज के भिन्न-भिन्न समूहों की परस्पर-क्रिया (Interaction) का परिणाम होते हैं।

इस तरह राजनीति जनसाधारण की उन गतिविधियों का संकेत देती है जिनके माध्यम से भिन्न-भिन्न समूह अपने-अपने परस्पर विरोधी हितों में तालमेल स्थापित करने का प्रयत्न करते हैं। यह ज़रूरी नहीं कि इससे सचमुच न्यायसंगत समाधान ही निकले। कुछ समूह अधिक संगठित, अधिक साधन-संपन्न, अधिक मुखर  और अधिक व्यवहार-कुशल होते हैं। अतः वे अपने हितों को अन्य समूहों के हितों से ऊपर रखने में सफल हो जाते हैं जिससे सामाजिक जीवन में असंतुलन पैदा हो जाता है। परंतु यह आशा की जाती है कि राजनीति की प्रक्रिया में अन्य समूहों को अपने हितों को संगठित करने और बढ़ावा देने का अवसर मिलता रहेगा जिससे आगे चलकर न्यायसंगत समाधान की संभावना बनी रहेगी।

परंपरागत राजनीतिशास्त्र का मुख्य सरोकार ‘राज्य’ (State) से था, इसलिए इसकी परिभाषा ‘राज्य के विज्ञान (Science of the State) के रूप में दी जाती थी। राजनीतिशास्त्र के परंपरागत विद्वानों और लेखकों ने अपना ध्यान मुख्य रूप से इन समस्याओं पर केंद्रित किया : (क) राज्य के लक्षण, मूलतत्त्व और संस्थाएं क्या हैं; और (ख) ‘सर्वगुणसंपन्न राज्य’ (Perfect State) का स्वरूप कैसा होगा? परंतु आधुनिक लेखक यह अनुभव करते हैं कि ‘राजनीति’ मानव जीवन की एक विशेष गतिविधि है; यह केवल ‘राज्य’ से जुड़ी गतिविधि नहीं है बल्कि संपूर्ण सामाजिक संगठन के साथ जुड़ी हुई गतिविधि है। अतः आज के युग में राजनीति को राज्य की औपचारिक संस्थाओं (Formal Institutions) और उनके कार्यों का समुच्चय नहीं माना जाता, बल्कि एक व्यापक सामाजिक प्रक्रिया (Social Process) के रूप में देखा जाता है। अब यह जानना ज़रूरी है कि यह प्रक्रिया किस प्रकार चलती है?

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 राजनीति मनुष्य की स्वाभाविक गतिविधि है (Politics is the Natural Activity of Man)

अरस्तू ने कहा था कि मनुष्य एक राजनीतिक प्राणी है। इस तरह अरस्तू ने मनुष्य की ऐसी स्वाभाविक क्षमता को मान्यता दी थी जो अन्य प्राणियों में नहीं पाई जाती। इसका अर्थ यह था कि मनुष्य किसी-न-किसी ‘राज्य’ (Polis) के अंतर्गत रहता है, अर्थात् वह एक सामूहिक सत्ता के माध्यम से अपने जीवन को व्यवस्थित करता है ताकि एक नैतिक प्राणी के नाते वह उत्तम जीवन (Good Life) और आत्म-सिद्धि (Self-Realization) प्राप्त कर सके। अतः अरस्तू की दृष्टि में ‘राजनीति’ मनुष्य के संपूर्ण अस्तित्व को समेट लेती है, हालांकि शासन के स्तर पर जिस सत्ता (Authority) का प्रयोग होता है, वह परिवार या संपत्ति जुड़ी सत्ता से भिन्न है।

आधुनिक सिद्धांतकार राजनीति को मनुष्य की स्वाभाविक गतिविधि तो मानता है, परंतु आज के युग में यह उसकी एक विशेष गतिविधि है। मनुष्यों की यह गतिविधि समाज के विभिन्न समूहों के माध्यम से व्यक्त होती है, जैसे कि हित समूहों (Interest Groups) या राजनीतिक दलों (Political Parties) के माध्यम से। हित समूह उन लोगों के समूह हैं जो अपने एक-जैसे हित की सिद्धि के लिए अपना शक्तिशाली संगठन बनाते हैं (जैसे कि मजदूर संघ या वाणिज्य-मंडल, इत्यादि) जबकि राजनीतिक दल अपनी-अपनी विचारधारा के अनुसार सभी तरह के हितों में तालमेल बिठाकर जनसाधारण का समर्थन प्राप्त करने का प्रयत्न करते हैं। राष्ट्रों के मध्य राजनीति से जुडी गतिविधि शांति के समय कूटनीति (Diplomacy) के रूप में व्यक्त होती है, और अशांति के समय युद्ध के रूप में। परंतु यह बात याद रखने की है कि युद्ध राजनीति का उपयुक्त तरीका नहीं है; युद्ध का सहारा तब लिया जाता है जब राजनीति विफल हो जाती हैं। हां, युद्ध के नियमों का पालन राजनीति का विषय अवश्य है। देखा जाए तो राजनीतिक गतिविधि साधारणतः ‘शक्ति के संघर्ष’ (Struggle for Power) के रूप में व्यक्त होती है। यह संघर्ष अनेक राष्ट्रों के बीच भी चल सकता है, और एक ही राष्ट्र के भीतर विभिन्न समूहों के बीच भी चल सकता हैं |

संक्षेप में, दूसरों के साथ प्रतिस्पर्धा (Competition) की स्थिति में, समाज के दुर्लभ संसाधनों (Rare Resources) पर अपना प्रभुत्व और नियंत्रण (Dominance and Control) स्थापित करने के प्रयास को राजनीति की संज्ञा दी जाती है। इस ध्येय की पूर्ति के लिए विशिष्ट युक्ति और कौशल की आवश्यकता होती है; इसमें नैतिक सिद्धांतों को परे रखने की नौबत भी आ सकती है। पर चूंकि यह संघर्ष सभ्य समाज के स्तर पर चलता है-वन्य पशुओं के स्तर पर नहीं इसलिए इसमें नैतिक आदर्शों की दुहाई अवश्य दी जाती है। दूसरे शब्दों में, राजनीति के खिलाड़ी का असली उद्देश्य नैतिक दृष्टि से चाहे कितना ही घिनौना क्यों न हो, वह उसे ऐसे ढंग से प्रस्तुत करेगा जैसे वही नैतिक आदर्शों का मुख्य संरक्षक हो। यहां तक कि युद्ध की घोषणा करते समय भी प्रत्येक राष्ट्र दुनिया को यह दिखाने की कोशिश करता है कि उसे किसी उच्च नैतिक आदर्श की रक्षा के लिए यह कठोर कदम उठाना पड़ा है।

राजनीति में विशेष प्रकार की सत्ता का प्रयोग होता है (Politics Involves Exercise of Special Type of Authority)

राजनीति के अंतर्गत जो निर्णय किए जाते हैं, उन्हें लागू करने के लिए सत्ता का प्रयोग ज़रूरी है। परंतु यह बात ध्यान देने की है कि राजनीति में जिस सत्ता (Authority), प्रभुत्व (Dominance) या नियंत्रण (Control) का प्रयोग होता है, वह अन्य सामाजिक संगठनों की सत्ता से भिन्न है। उदाहरण के लिए, परिवार, मज़दूर संघ या व्यापारिक संगठन के भीतर जिस सत्ता का प्रयोग होता है, वह राजनीति की श्रेणी में नहीं आती। राजनीति के क्षेत्र में वही सत्ता आती है जिसका प्रयोग या तो सरकार स्वयं करती है, या जिसका प्रयोग सरकार को प्रभावित करने के लिए होता है।

अरस्तू ने अपनी प्रसिद्ध कृति ‘पॉलिटिक्स’ में (जो 335-332 ई.पू. में लिखी गई थी) इस तर्क का खंडन किया था कि सब तरह की सत्ता एक-जैसी होती है। उसने यह संकेत किया था कि राजनीतिक संगठन (Polis) के अंतर्गत शासक की सत्ता दूसरी तरह की सत्ता से भिन्न होती है, जैसे कि पत्नी के संदर्भ में पति की सत्ता से और दास के संदर्भ में स्वामी की सत्ता से। अरस्तू ने लिखा है कि पत्नी के संदर्भ में पति की सत्ता प्राकृतिक नियम की देन है क्योंकि प्रकृति ने स्त्री को पुरुष से हीन (Inferior) बनाया है। परंतु शासक की तुलना में कोई भी नागरिक प्राकृतिक रूप से हीन नहीं होता। फिर, दास के संदर्भ में स्वामी की सत्ता निरंकुश (Absolute) होती है क्योंकि दास का जीवन पूरी तरह स्वामी के हाथ में रहता है। परंतु नागरिक के संदर्भ में शासक की सत्ता निरंकुश नहीं हो  सकती, क्योंकि कानून की दृष्टि में सब नागरिक समान हैं, चाहे कोई धनवान् हो या निर्धन हो, चाहे कोई शासक के पद पर कार्यरत हो या साधारण नागरिक हो। यहां अरस्तू ने ‘सब नागरिकों की समानता’ का जो विचार रखा है, वह तो आज के युग में सर्वथा मान्य है; परंतु दासों और स्त्रियों की स्थिति (Status) के बारे में उसने जो मान्यता रखी है, उसे आज कहीं भी स्वीकार नहीं किया जाता।

  राजनीति का संबंध-सूत्र किसी-न-किसी रूप से सत्ता, शासन या शक्ति से जुड़ा रहता है। यह मान्यता आज भी प्रचलित है। उदाहरण के लिए, आधुनिक युग के प्रख्यात जर्मन समाज वैज्ञानिक मैक्स वेबर (1864-1920) ने यह मत प्रकट किया है कि किसी संगठन को राजनीतिक संगठन तभी और वहीं तक मानना चाहिए जब और जहां तक किसी निश्चित भूभाग (Territory) के अंतर्गत उसके आदेशों का निरंतर पालन होता हो, और उनका पालन कराने के लिए प्रशासनिक अधिकारितंत्र ठोस शक्ति का प्रयोग करे, या ऐसा करने का डर दिखाए ।

वर्तमान युग के विख्यात अमरीकी राजनीति-वैज्ञानिक हेरल्ड लासवैल (1902-78) के अनुसार, राजनीति विज्ञान में यह पता लगाते हैं कि शक्ति या सत्ता किस-किस रूप में पाई जाती है, और उसका प्रयोग कौन-कौन, किस-किसके साथ मिलकर करता है? लासवैल का विचार है कि राजनीतिक कृत्य शक्ति के प्रयोग से ही सार्थक होता है।

इस तरह जहां अरस्तू ने सत्ता, शक्ति या शासन को ही राजनीतिक संबंध का आवश्यक लक्षण माना है, मैक्स वेबर ने सत्ता के प्रयोग-क्षेत्र की ओर भी संकेत किया है। पर जहां अरस्तू ने राजनीतिक सत्ता को अन्य सब तरह की सत्ता से अलग करने का सुझाव दिया है, लासवैल ने हर तरह की सत्ता को राजनीति का विषय माना है। उदाहरण के लिए, व्यापारिक या व्यावसायिक संगठन में जिस सत्ता का प्रयोग होता है, लासवैल के अनुसार उसे भी एक तरह का राजनीतिक संबंध मान लेना चाहिए। लासवैल का यह दृष्टिकोण उपयुक्त प्रतीत नहीं होता। यदि सारी सामाजिक संस्थाओं और संगठनों में प्रयुक्त सत्ता को राजनीति विज्ञान का विषय मान लिया जाएगा तो उसका विचारक्षेत्र आवश्यकता से अधिक विस्तृत हो जाएगा और उसकी मुख्य समस्या दब जाएगी।

राजनीति का सरोकार संघर्ष और उसके समाधान से है (Politics Involves Conflict and its Resolution) राजनीति एक विशेष मानवीय क्रिया है। मनुष्य सामाजिक प्राणी है। परंतु उसकी प्रत्येक गतिविधि ‘राजनीति’ के दायरे में नहीं आती। हम यह कह सकते हैं कि एक विशेष स्थिति में मनुष्य जो क्रियाएं करते हैं, वे राजनीति की परिभाषा में आती हैं। इस स्थिति को हम ‘राजनीतिक स्थिति’ (Political Situation) कहते हैं। एलेन बाल ने ‘मॉडर्न पॉलिटिक्स एंड गवर्नमेंट’ (आधुनिक राजनीति और शासन) (1988) के अंतर्गत लिखा है : “राजनीतिक गतिविधि से मतभेदों (Disagreements) की उपस्थिति और उन मतभेदों के समाधान (Reconciliation of Disagreements) के प्रयास का संकेत मिलता है। ‘राजनीतिक स्थिति का सार-तत्त्व संघर्ष (Conflict) और उस संघर्ष का समाधान (Resolution of Conflict) है।” इसी प्रकार स्टीफ़ेन एल. वास्बी ने ‘पॉलिटिकल साइंस-द डिसिप्लिन एंड इट्स डायमेंशन्स एन इंट्रोडक्शन‘ (राजनीति विज्ञान का परिचय अध्ययन-विषय और उसके आयाम) (1973) के अंतर्गत लिखा है : “जहां राजनीति है, वहां कोई-न-कोई विवाद (Controversy) रहता है; जहां कोई-न-कोई समस्याएं होती हैं, वहां राजनीति होती है। जहां कोई विवाद नहीं होता, जहां किन्हीं समस्याओं पर वाद-विवाद नहीं चल रहा होता, वहां राजनीति भी नहीं होती।” जे.डी.बी. मिलर ने ‘द नेचर ऑफ़ पॉलिटिक्स’ (राजनीति का स्वरूप) (1962) के अंतर्गत यह संकेत दिया था कि राजनीतिक स्थिति में संघर्ष के समाधान के लिए शासन या सरकार (Governement) का प्रयोग किया जाता है।

मिलर के शब्दों में, “राजनीतिक गतिविधि मतभेद की स्थिति से पैदा होती है, और इसका सरोकार संघर्ष के समाधान में शासन के प्रयोग से है, चाहे वह कोई परिवर्तन लाने के लिए किया जाए या परिवर्तन को रोकने के लिए। यदि राजनीति को एक सुनिश्चित गतिविधि के रूप में पहचानना हो तो इसके लिए पहले तो विभिन्न पक्षों या व्यक्तियों के बीच कोई आरंभिक मतभेद होना चाहिए, और फिर किसी-न-किसी दिशा में इस मतभेद के समाधान के लिए सरकार भी उपस्थित होनी चाहिए।”

इस तरह, राजनीतिक प्रक्रिया के लिए दो बातें ज़रूरी हैं :

(क) एक तो किन्हीं पक्षों के बीच कोई मतभेद या संघर्ष विद्यमान हो|

(ख) दूसरे, सरकार की सत्ता (Authority) के माध्यम से उस संघर्ष के समाधान का प्रयास किया जाए।

एलेन बाल ने राजनीतिक स्थिति का जो उदाहरण दिया है, वह उपयुक्त उदाहरण प्रतीत नहीं होता। उसने लिखा है : “यदि किसी शिशुगृह में दो बच्चे हों, और एक खिलौना हो, और दोनों बच्चे एक साथ उस खिलौने को पाना चाहते हों तो वहां राजनीतिक स्थिति उपस्थित होगी। ऐसे में दोनों बच्चे मारपीट कर सकते हैं ताकि जो ज़्यादा ताक़तवर हो, वह खिलौना ले जाए, या माता वहां आकर अपनी सत्ता का प्रयोग करते हुए झगड़ा करने वाले बच्चों का फ़ैसला करा सकती है।” इस उदाहरण में दो कमियां हैं। एक तो यह कि इसमें दो बच्चों के निजी संघर्ष (Private Conflict) की ओर संकेत किया गया है जो कि राजनीतिक स्थिति का उपयुक्त उदाहरण नहीं है। इसी तरह के अन्य उदाहरण भी दिए जा सकते हैं जो कि राजनीति की परिधि में नहीं आते-जैसे कि घर में बजट को लेकर पति-पत्नी में होने वाला मतभेद या विवाद ‘राजनीतिक स्थिति’ प्रस्तुत नहीं करता।

केवल ऐसे संघर्ष, मतभेद या विवाद को ही राजनीति का उपयुक्त विषय मान सकते हैं जो ‘सार्वजनिक स्तर’ (Public Level) पर पैदा हो, अर्थात् जो ऐसी सामाजिक स्थिति में पैदा हो कि उसके साथ दो या दो से अधिक प्रमुख समूह जुड़े हों, चाहे वह विवाद स्थानीय स्तर पर पैदा हो, क्षेत्रीय, राष्ट्रीय या अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर; चाहे वह आर्थिक, सांस्कृतिक, भाषाई, धार्मिक, जातीय या ऐसे ही किसी अन्य मुद्दे से जुड़ा हो। दूसरे शब्दों में, राजनीतिक संघर्ष का सरोकार हमेशा सार्वजनिक समस्याओं से होता है, निजी समस्याओं से नहीं; यह ‘सार्वजनिक’ समाधान की मांग करता है, निजी समाधान की नहीं। सामान्य भाषा में हम धार्मिक संगठन, विश्वविद्यालय या कारखाने की राजनीति की बात करते हैं। जब तक यह तथाकथित राजनीति किसी अकेले संगठन तक सीमित रहती है, और सार्वजनिक जीवन पर विशेष प्रभाव नहीं डालती, तब तक हम उसे राजनीति विज्ञान के अध्ययन का उपयुक्त विषय नहीं मानते। परंतु कई बार निजी स्तर के संघर्ष सार्वजनिक सरोकार के विषय बन जाते हैं, और राजनीति के दायरे में आने लगते हैं। जब पति-पत्नी का निजी विवाद परिवार में स्त्रियों की स्थिति या समाज में स्त्रियों के अधिकारों की समस्या बन जाता है तब वह राजनीति का विषय हो जाता है, क्योंकि वह सार्वजनिक समाधान की मांग करने लगता है।

एलेन बाल के उदाहरण में दूसरी कमी यह है कि उसमें बच्चों के संघर्ष के समाधान का एक यह तरीक़ा सोचा गया है कि वे मार-पीट कर सकते हैं, अर्थात् हिंसा (Violence) का सहारा ले सकते हैं। परंतु ‘हिंसा’ या युद्ध का सहारा लेना राजनीतिक समाधान (Political Solution) की कोटि में नहीं आता। इसमें संदेह नहीं कि कुछ राजनीतिक विवादों की परिणति युद्ध के रूप में होती है। परंतु युद्ध राजनीतिक समाधान की विफलता का प्रतीत है। इसके विपरीत, राजनीतिक समाधान में बातचीत (Negoitation), समझाने बुझाने (Persuation), पंच-निर्णय (Arbitration), सुलह समझौते (Compromise), दबाव (Pressure), वोटों की गिनती (Counting of Votes), या जिन नियमों का पालन किया जाता है, वे राजनीति का विषय माने जाते हैं। फिर, युद्ध के बाद संबद्ध पक्षों के बीच समझौते की प्रक्रिया राजनीति का विषय होती है। कुछ भी हो, यह समाधान विवादग्रस्त पक्षों को स्वीकार अवश्य होना चाहिए। किसी विवाद से जुड़े पक्ष सार्वजनिक वस्तुओं और सेवाओं में अपने-अपने हिस्से के बारे में तो मतभेद रखते हैं, परंतु अपने मतभेद को सुलझाने की प्रक्रिया (Procedure) के बारे में उन्हें अवश्य सहमत होना चाहिए। उन्हें यह समझना चाहिए कि अभाव (Scarcity) की स्थिति में सबकी सारी इच्छाएं पूरी नहीं हो सकतीं, अतः उन्हें अपना ‘तर्कसंगत हिस्सा’ (Reasonable Share) प्राप्त करके ही संतोष कर लेना चाहिए। यदि सब पक्ष अपनी-अपनी मांग पर अड़े रहेंगे तो समस्या का कोई समाधान नहीं निकलेगा।

पंच-निर्णय 

(Arbitration) वह कार्रवाई जिसमें किन्हीं दो पक्षों के विवादास्पद विषय को, उन दोनों की सहमति से, किसी तीसरे, तटस्थ पक्ष के पास निर्णय के लिए भेज दिया जाता है। फिर वे दोनों उस निर्णय को स्वीकार करने के लिए बाध्य होते हैं।

जर्मन राजमर्मज्ञ प्रिंस बिस्मार्क (1815-98) ने 1867 में कहा था कि ‘राजनीति संभाव्य की कला है’ (Politics is the art of the possible)। इसका अर्थ यह था कि कोई व्यक्ति अपनी मांग पर अडिग रहकर राजनीति में सफल नहीं हो सकता। उसे दूसरों की आशाओं (Expectations) के प्रति सजग रहना चाहिए और दूसरों की भावनाओं का सम्मान करना चाहिए। उसे यह देखना चाहिए कि तात्कालिक परिस्थितियों में कटु संघर्ष से बचते हुए क्या कुछ प्राप्त कर सकते हैं, और उसकी प्राप्ति पर ही ध्यान केंद्रित करना चाहिए। दूसरे शब्दों में, राजनीतिज्ञ को एक सीमित उद्देश्य लेकर चलना चाहिए, और उसकी पूर्ति होने पर अपना हाथ खींच लेना चाहिए। विरोधी पक्ष को नीचा दिखाकर अपना वर्चस्व स्थापित करने की लालसा स्वस्थ राजनीति का लक्षण नहीं हो सकता।

राजनीति अपनी इच्छा के आगे दूसरों को झुकाने की कला नहीं है, बल्कि यह दूसरों के साथ मिल-जुलकर अपने उद्देश्यों की पूर्ति करने का साधन है। इसमें अपने लिए ‘सर्वोत्तम’ की सिद्धि का हठ नहीं करना चाहिए बल्कि यह देखना चाहिए कि वर्तमान परिस्थितियों में सब पक्षों के लिए सर्वोत्तम क्या होगा? अतः यह ‘सर्वोत्तम के निकटवर्ती को पाने की कला’ (the art of the next best) है। ‘राजनीति’ की इस परिभाषा को आज भी उपयुक्त माना जाता है। यह परिभाषा किसी देश की राजनीति पर भी लागू होती है, अंतर्राष्ट्रीय राजनीति (International Politics) के लिए भी सर्वथा उपयुक्त है।

राजनीति का सरोकार मूल्योंके आधिकारिक आबंटन से है (Politics is Concerned with Authoritative Allocation of Values)

संघर्ष का राजनीतिक समाधान संबद्ध पक्षों को इसलिए स्वीकार होता है क्योंकि यह समाधान आधिकारिक (Authoritative) होता है। डेविड ईस्टन ने ‘पॉलिटिकल सिस्टम : एन इंक्वायरी इंटू द स्टेट ऑफ़ पॉलिटिकल साइंस’ (राजनीतिक प्रणाली : राजनीति विज्ञान की वर्तमान दशा का अन्वेषण) (1953) के अंतर्गत लिखा है कि राजनीति का संबंध समाज में ‘मूल्यों के आधिकारिक आबंटन से है। इस संक्षिप्त किंतु सारगर्भित परिभाषा में तीन महत्त्वपूर्ण शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनका स्पष्ट विवेचन आवश्यक है। ये शब्द हैं: ‘मूल्य’ (Values), आबंटन (Allocation) और आधिकारिक (Authoritative)।

मूल्यों से ईस्टन का अभिप्राय है, समाज में मिलने वाली वे वस्तुएं (लाभ या सेवाएं, सुख-सुविधाएं, इत्यादि) जो दुर्लभ हैं और जिन्हें मूल्यवान् समझा जाता है या जिनकी कामना की जाती है, चाहे वे भौतिक हों या आध्यात्मिक हों। जैसे कि हम सब रोज़गार, स्वास्थ्य सेवा, परिवहन सेवा, शिक्षा और मनोरंजन के अवसरों, मान-सम्मान, इत्यादि की कामना करते हैं, इसलिए ये सब मूल्यों के उदाहरण हैं। दूसरे शब्दों में, मूल्य ऐसी इष्ट वस्तुएं, लाभ या सेवाएं हैं जिन्हें हर कोई पाना चाहता है, परंतु उनकी इतनी कमी (Scarcity) है कि उन्हें कोई-कोई ही पा सकता है। अत: इनके मामले में समाज के अंदर ‘एक अनार सौ बीमार’ वाली कहावत चरितार्थ होती है।

आबंटन से उसका अभिप्राय है, विभिन्न व्यक्तियों या समूहों में इन वस्तुओं का वितरण या बँटवारा, अर्थात् यह निर्णय करना कि किसे क्या मिलेगा? यह कार्य नीति (Policy) के द्वारा संपन्न किया जाता है जिसमें ‘निर्णयों का समुच्चय’ (Web of Decisions) आ जाता है। दूसरे शब्दों में, जैसे बहुत सारे तंतुओं का जाल बुनकर वस्त्र बनाया जाता है, वैसे ही बहुत सारे निर्णयों को मिलाकर नीति तैयार की जाती है,

और समाज में मूल्यवान् वस्तुओं, लाभों या सेवाओं का बँटवारा इस नीति के अनुसार किया जाता है। निर्णय का अर्थ है, अनेक विकल्पों (Alternatives) में से एक का चयन। उदाहरण के लिए, जब बसें थोड़ी हों और बहुत सारी बस्तियों के लोग बस-सेवा की मांग कर रहे हों, तब बसें कहां-कहां से चलाई जाएं-इस बारे में अनेक प्रस्ताव विचाराधीन हो सकते हैं। इनमें से उपयुक्त प्रस्ताव के चुनाव को ‘निर्णय’ कहेंगे। ‘नीति’ में ‘निर्णय’ तक पहुँचना और उसे कार्यान्वित करना भी शामिल है।

अब आधिकारिकशब्द की परिभाषा देना रह जाता है। ईस्टन के शब्दों में, आधिकारिक का अर्थ यह है कि कोई नीति जिन लोगों के लिए बनाई जाती है, लागू की जाती है या वह जिन्हें प्रभावित करती है, वही लोग उसका पालन करना आवश्यक या उचित समझते हों। दूसरे शब्दों में, आधिकारिक सत्ता (Authority) का ध्येय लोगों को बाध्य करना या विवश करना नहीं है। इसका अर्थ है, किसी विशेष निर्णय या कार्रवाई को लागू करने के लिए लोगों से सहर्ष आज्ञापालन कराने की क्षमता।

जब हम राजनीति की परिभाषा ‘मूल्यों के आधिकारिक आबंटन के रूप में देते हैं, तब हम उसे एक सार्वजनीन सामाजिक विषय के रूप में पहचानते हैं। दूसरे शब्दों में, राजनीति एक सर्वव्यापक गतिविधि है। किसी भी समाज में अभीष्ट वस्तुएं, लाभ और सेवाएं, इत्यादि थोड़ी होती हैं और उनकी मांग करने वाले लोग ज्यादा होते हैं। अतः वहां ऐसी आधिकारिक सत्ता की ज़रूरत होती है जो परस्पर विरोधी मांगों को सामने रखकर कोई ऐसा रास्ता निकाल सके जिसे सब लोग स्वीकार कर लें। इसका अर्थ यह नहीं कि सबकी सब मांगें पूरी कर दी जाती हैं, या कोई समाधान हमेशा के लिए स्वीकार कर लिया जाता है। वास्तव में, एक समाधान स्वीकार कर लेने के बाद नई मांगें नए-नए रूपों में प्रस्तुत की जा सकती हैं, और फिर नए समाधान की तलाश शुरू हो जाती है। अतः राजनीति एक निरंतर प्रक्रिया (Continuous Process) है। हम ऐसे किसी समाज की कल्पना नहीं कर सकते जिसमें राजनीति शुरू न हुई हो, या समाप्त हो गई हो। राजनीति के इस दृष्टिकोण को हम साधारणतः उदारवादी दृष्टिकोण (Liberal View of Politics) के रूप में पहचानते हैं। राजनीति का यह एक आधुनिक दृष्टिकोण है।

निष्कर्ष (Conclusion)

राजनीति के परंपरागत दृष्टिकोण के अंतर्गत यह मानकर चलते थे कि सामाजिक जीवन का लक्ष्य या ध्येय पहले से नियत या निर्धारित है, और समाज के सदस्यों को पहले से निश्चित व्यवस्था के भीतर अपने-अपने कर्त्तव्यों का पालन करना चाहिए। किसी को उससे मतभेद प्रकट करने या कोई नया रास्ता सुझाने का अधिकार नहीं था। राजनीति का आधुनिक दृष्टिकोण प्राचीन दृष्टिकोण से इसलिए भिन्न है कि इसमें मतभेद, संघर्ष या द्वंद्व को सामाजिक जीवन का स्वाभाविक लक्षण माना जाता है। इस मतभेद को दबाने पर बल नहीं दिया जाता बल्कि इसका समाधान ढूंढ़ने पर बल दिया जाता है।

राजनीति के आधुनिक दृष्टिकोण के साथ ये मान्यताएं जुड़ी हैं :

(क) समाज में मूल्यवान् वस्तुओं, सेवाओं, लाभों और अवसरों में से अपना-अपना हिस्सा प्राप्त करने के लिए विभिन्न समूहों में मतभेद, खींचातानी और प्रतिस्पर्धा पाई जाती है;

(ख) परंतु इन वस्तुओं का बँटवारा कैसे किया जाए, इसका तरीक़ा क्या हो-इस बारे में सहमति (Consensus) पाई जाती है, अर्थात् समाज के सदस्य ऐसे नियम और कार्यविधि (Rules and Procedure) स्वीकार करने के लिए हमेशा तैयार रहते हैं जिनके अनुसार उनके परस्पर विरोधी दावों को सुलझाया जा सके;

(ग) एक बार जो बँटवारा कर दिया जाता है, लोग उसे स्वीकार करके उसका सम्मान करते हैं; नियम तोड़ने वाले को दंड दिया जाता है, उसका उपहास किया जाता है, या उसकी अंतरात्मा उसे कचोटती है;

(घ) परंतु इस बँटवारे से सब लोग संतुष्ट नहीं हो जाते; नई मांगें प्रस्तुत करने, नए समाधान ढूंढ़ने और नई व्यवस्था स्थापित करने के साधन और अवसर हमेशा विद्यमान रहते हैं।

राजनीति क्या है BA?

राजनीति दो शब्दों का एक समूह है राज+नीति (राज मतलब शासन और नीति मतलब उचित समय और उचित स्थान पर उचित कार्य करने की कला) अर्थात् नीति विशेष के द्वारा शासन करना या विशेष उद्देश्य को प्राप्त करना राजनीति कहलाती है। दूसरे शब्दों में कहें तो जनता के सामाजिक एवं आर्थिक स्तर (सार्वजनिक जीवन स्तर)को ऊँचा करना राजनीति है ।

राजनीति विज्ञान क्या है BA 1st year?

उत्तर :- राजनीतिक विज्ञान एक सामाजिक विज्ञान है अंग्रेजी भाषा में इसको पॉलिटिकल साइंस कहते हैं इसके अंतर्गत सामाजिक जीवन के राजनैतिक संबंध एवं संगठनों का अध्ययन आता है। उत्तर :- राज्य के आवश्यक तत्व (1)जनसंख्या, (2)निश्चित भू-भाग,(3) सरकार,(4.) संप्रभुता है।

राजनीति विज्ञान का जनक कौन है?

राजनीति विज्ञान के जनक अरस्तू को कहा जाता है, जो एक यूनानी दार्शनिक और प्लेटो के शिष्य व सिकंदर के गुरु थे. उनका जन्म 384 ईपू में स्टेगेरिया नामक नगर में हुआ था.

राजनीतिक सिद्धांत का अर्थ क्या होता है?

(२) राजनीतिक सिद्धान्त सामान्यतः मानव जाति, उसके द्वारा संगठित समाजों और इतिहास तथा ऐतिहासिक घटनाओं से संबंधित प्रश्नों के उत्तर देने का प्रयत्न करता है। वह विभेदों को मिटाने के तरीके भी सुझाता है और कभी-कभी क्रांतियों की हिमायत करता है। बहुधा भविष्य के बारे में पूर्वानुमान भी दिए जाते हैं।