रोजगार के शास्त्रीय सिद्धांत की व्याख्या करें इस सिद्धांत के कमजोर बिंदु क्या हैं? - rojagaar ke shaastreey siddhaant kee vyaakhya karen is siddhaant ke kamajor bindu kya hain?

रोजगार का परंपरावादी सिद्धांत के अनुसार पूर्ण रोजगार एक ऐसी स्थिति है जिसमें उन सब लोगों को रोजगार मिल जाता है जो प्रचलित मजदूरी पर काम करने को तैयार हैं। यह अर्थव्यवस्था की एक ऐसी स्थिति है जिसमें अनैच्छिक बेरोजगारी नहीं पाई जाती।

रोजगार का परंपरावादी सिद्धांत का अर्थ व परिभाषा

रोजगार का परंपरावादी सिद्धांत विभिन्न परंपरावादी अर्थशास्त्रियों के विचारों में समन्वय का परिणाम है। रोजगार का परंपरावादी सिद्धांत पूर्ण रोजगार की धारणा पर आधारित है। इसलिए इस सिद्धांत के अनुसार, “पूर्ण प्रतियोगी पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में पूर्ण रोजगार की स्थिति एक सामान्य स्थिति होती है।”

रोजगार का परंपरावादी सिद्धांत के अनुसार पूर्ण रोजगार एक ऐसी स्थिति है जिसमें उन सब लोगों को रोजगार मिल जाता है जो प्रचलित मजदूरी पर काम करने को तैयार हैं। यह अर्थव्यवस्था की एक ऐसी स्थिति है जिसमें अनैच्छिक बेरोजगारी नहीं पाई जाती।

लरनर के अनुसार, “पूर्ण रोज़गार वह अवस्था है जिसमें वे सब लोग जो मजदूरी की वर्तमान दरों पर काम करने के योग्य तथा इच्छुक हैं, बिना किसी कठिनाई के काम प्राप्त कर लेते हैं।”

रोजगार के परंपरावादी सिद्धांत की मान्यताएं

रोजगार का परंपरावादी सिद्धांत निम्नलिखित मान्यताओं पर आधारित है:

  1. रोजगार का परंपरावादी सिद्धांत इस मान्यता पर आधारित है कि बाजार में पूर्ण प्रतियोगिता पाई जाती है।
  2. रोजगार के परंपरावादी सिद्धांत के अनुसार कीमतों, मजदूरी तथा ब्याज की दर में लोचशीलता पाई जाती है अर्थात् आवश्यकतानुसार परिवर्तन किये जा सकते है।
  3. इस सिद्धांत के अनुसार मुद्रा केवल एक आवरण मात्र है। इसका आर्थिक क्रियाओं पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता।
  4. आर्थिक क्रियाओं में सरकार की ओर से किसी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं है। बाजार मांग और पूर्ति की शक्तियां कीमतों को निर्धारित करने के लिए स्वतन्त्र है।
  5. रोजगार का परंपरावादी सिद्धांत अल्पकाल में लागू होता है।
  6. बचत और निवेश दोनों ही ब्याज की दर पर निर्भर करते है।
  7. यह भी मान्यता है कि अर्थव्यवस्था एक बन्द अर्थव्यवस्था है। इस पर विदेशी व्यापार का कोई प्रभाव नहीं पड़ता।

रोजगार के परंपरावादी सिद्धांत के निष्कर्ष

रोजगार के परंपरावादी सिद्धांत के मुख्य निष्कर्ष है:

  1. पूर्ण रोजगार की स्थिति एक सामान्य स्थिति है।
  2. पूर्ण रोजगार का अर्थ है अनैच्छिक बेरोजगारी की अनुपस्थिति। पूर्ण रोजगार की अवस्था में संघर्षात्मक, ऐच्छिक आदि कई प्रकार की बेरोजगारी पाई जा सकती है।
  3. सन्तुलन की अवस्था केवल पूर्ण रोजगार की दषा में ही सम्भव है।
  4. सामान्य बेरोजगारी सम्भव नहीं है परन्तु अल्पकाल के लिये असाधारण परिस्थितियों में आंशिक बेरोजगारी पाई जा सकती है।

रोजगार के परंपरावादी सिद्धांत पर केन्ज़ की आपत्ति या आलोचनाएं

रोजगार के परंपरावादी सिद्धांत पर केन्ज़ की आपत्तियों या आलोचनाओं को निम्न प्रकार से स्पष्ट किया जा सकता है:

1. ‘से’ का बाजार नियम अवास्तविक है: केन्ज ने परंपरावादी रोजगार सिद्धांत के एक मुख्य आधार ‘से’ के बाजार नियम की कटु आलोचना की है। इस नियम की यह मान्यता अवास्तविक है कि पूर्ति अपनी मांग का स्वयं निर्माण करती है। इसका कारण यह है कि लोग अपनी सारी आय को खर्च नहीं करते और कुछ भाग की बचत कर लेते है। इसके फलस्वरुप, कुल मांग कुल पूर्ति से कम हो जाती है।

2. बचत और निवेश ब्याज सापेक्ष नहीं है:रोजगार के परंपरावादी सिद्धांत की यह धारणा भी भ्रमपूर्ण है कि बचत और निवेष, ब्याज के माध्यम से बराबर हो जाते हैै। केन्ज के अनुसार बचत आय पर तथा निवेष ब्याज की दर और पूंजी की सीमान्त उत्पादकता पर निर्भर करता है। इसलिये यह आवष्यक नहीं है कि ब्याज की दर मे परिवर्तन होने से बचत तथा निवेष दोनों में परिवर्तन हो।

3. मज़दूरी की लोचषीलता तर्क की आलोचना: केन्ज़ ने मज़दूरी की लोचषीलता तर्क की भी आलोचना की है।उनके अनुसार मजदूरी की दर को एक सीमा से अधिक कम करना व्यावहारिक रुप से सम्भव नहीं है।

4. नकद मजदूरी में कटौती करके रोजगार को नहीं बढ़ाया जा सकता: केन्ज ने परंपरावादी रोजगार सिद्धांत की आलोचना इसलिए भी की है क्योंकि इस सिद्धांत के अनुसार नकद मजदूरी में कटौती करके रोजगार को बढ़ाया जा सकता है। केन्ज के अनुसार ऐसा सम्भव नही है।

5. अल्पबेरोजगार सन्तुलन की सम्भावना: इस सिद्धांत का यह निश्कर्श भी सही नहीं है कि अर्थव्यवस्था में सामान्यत: पूर्ण रोजगार की स्थिति पाई जाती है तथा सन्तुलन की स्थिति केवल पूर्ण रोजगार की स्थिति में ही सम्भव है। केन्ज के अनुसार, प्रत्येक अर्थव्यवस्था में अनैच्छिक बेरोजगारी पाई जाती है तथा सन्तुलन की स्थिति में भी बेरोजगारी पायी जा सकती है।

6. अर्थव्यवस्था में स्वयं समन्वय का अभाव: केन्ज के अनुसार रोजगार के परंपरावादी सिद्धांत की यह धारणा भी उचित नहीं है कि आर्थिक प्रणाली स्वयं समायोजित होती है।

7. सरकारी हस्तक्षेप न करने की नीति की अस्वीकृति: केन्ज के अनुसार रोजगार के परंपरावादी सिद्धांत की यह मान्यता वास्तविक नहीं है कि पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में बिना सरकारी हस्तक्षेप के आर्थिक शक्तियां स्वयं ही बेरोजगारी को दूर करने में सफल होगी। 1930 की महामन्दी के अनुभवों के आधार पर केन्ज ने बेरोजगारी के समाधान के लिए परंपरावादी अर्थषास्त्रियों की सरकारी हस्तक्षेप न करने की नीति को अस्वीकार कर दिया।

रोजगार के परंपरावादी सिद्धांत की व्याख्या कीजिए इस सिद्धांत की मुख्य कमियां क्या है?

जॉन मेनार्ड कीन्स ने अपने रोजगार सिद्धांत का प्रतिपादन अपनी प्रसिद्ध पुस्तक जनरल थ्योरी ऑफ इम्प्लॉयमेंट में १९३६ के दौरान किया था। कींस के अनुसार मंदी या अवसाद की स्थिति में बेरोजगारी अर्थव्यवस्था में समग्र माँग या समग्र व्यय की कमी के कारण होती है।

रोजगार के शास्त्रीय सिद्धांत से क्या समझते हैं?

रोजगार के शास्त्रीय सिद्धांत के अनुसार, अन्य चीजें स्थिर होने के कारण, मजदूरी दर लचीलापन यह सुनिश्चित करता है कि, एक प्रतिस्पर्धी बाजार में, पूर्ण रोजगार प्रदान किया जाता है और पूर्ण रोजगार उत्पादन होता है। वास्तविक मजदूरी दर श्रम बाजार में मांग और आपूर्ति की ताकतों द्वारा निर्धारित की जाती है।

रोजगार के सिद्धांत से आप क्या समझते हैं?

कीन्स के रोजगार सिद्धांत के अनुसार अल्पकाल में राष्ट्रीय आय या उत्पादन का स्तर पूर्ण रोजगार के स्तर से कम या उसके बराबर निर्धारित हो सकता है। इसका कारण यह है कि अर्थव्यवस्था में कोई ऐसी स्वचालित व्यवस्था नहीं होती जो सदैव ही पूर्ण रोजगार स्तर को कायम रख सके।

रोजगार के शास्त्रीय और कीन्स सिद्धांत में क्या अंतर है?

इसलिए, कीन्स के अनुसार, रोजगार का स्तर राष्ट्रीय आय और उत्पादन पर निर्भर है। इसके अलावा, कीन्स ने वकालत की कि यदि राष्ट्रीय आय में वृद्धि होती है, तो रोजगार के स्तर में वृद्धि होगी और इसके विपरीत। इसलिए, रोजगार के कीन्स सिद्धांत को रोजगार निर्धारण के सिद्धांत और आय निर्धारण के सिद्धांत के रूप में भी जाना जाता है।