पर्वतीय क्षेत्रों में सीढ़ीदार खेत क्यों बनाए जाते हैं? - parvateey kshetron mein seedheedaar khet kyon banae jaate hain?

अध्याय 1.                 संसाधन एवं विकास

प्रश्न 2. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर लगभग 30 शब्दों में दीजिए―

उत्तर―काली मृदा का रंग काला होता है। इन्हें रेगर मृदा भी कहते हैं। ये लावाजनक शैलों

से बनती हैं। ये मृदाएँ महाराष्ट्र, सौराष्ट्र, मालवा, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के पठार में

(ii) पूर्वी तट के नदी डेल्टाओं पर किस प्रकार की मृदा पाई जाती है? इस प्रकार की मृदा

उत्तर―पूर्वी तट के नदी डेल्टाओं पर जलोढ़ मृदा पाई जाती है। इस मृदा की तीन मुख्य

विशेषताएँ निम्न प्रकार हैं―

1. जलोढ़ मृदा अधिक उपजाऊ होती है, इसीलिए इस मृदा वाले क्षेत्रों में गहन कृषि की

जाती है।

2. जलोढ़ मृदाएँ पोटाश, फॉस्फोरस और चूनायुक्त होती हैं।

3. इस मृदा में रेत, सिल्ट और मृत्तिका के विभिन्न अनुपात पाए जाते हैं।

(iii) पहाड़ी क्षेत्रों में मृदा अपरदन की रोकथाम के लिए क्या कदम उठाने चाहिए?

उत्तर―मृदा के कटाव और उसके बहाव की प्रक्रिया को मृदा अपरदन कहते हैं। विभिन्न

मानवीय तथा प्राकृतिक कारणों से मृदा अपरदन होता रहता है। पहाड़ी क्षेत्रों में मृदा अपरदन

की रोकथाम के लिए निम्नलिखित कदम उठाए जाने चाहिए-

1. पर्वतीय ढालों पर समोच्च रेखाओं के समानांतर हल चलाने से ढाल के साथ जल

बहाव की गति घटती है। इसे समोच्च जुताई कहा जाता है।

2. पर्वतीय ढालों पर सीढ़ीदार खेत बनाकर अवनालिका अपरदन को रोका जा सकता है।

पश्चिमी और मध्य हिमालय में सोपान अथवा सीढ़ीदार कृषि काफी विकसित है।

3. पर्वतीय क्षेत्रों में पट्टी कृषि के द्वारा मृदा अपरदन को रोका जाता है। इसमें बड़े खेतों

को पट्टियों में बाँटा जाता है। फसलों के बीच में घास की पट्टियाँ उगाई जाती हैं। ये

पवनों द्वारा जनित बल को कमज़ोर करती हैं।

4. पर्वतीय ढालों पर बाँध बनाकर जल प्रवाह को समुचित ढंग से खेती के काम में लाया

जा सकता है। मृदा रोधक बाँध अवनालिकाओं के फैलाव को रोकते हैं।

(iv) जैव और अजैव संसाधन क्या होते हैं? कुछ उदाहरण दीजिए।

उत्तर―जैव संसाधन–वे संसाधन जिनकी प्राप्ति जीवमंडल से होती है और जिनमें

जीवन व्याप्त होता है, जैव संसाधन कहलाते हैं; जैसे—मनुष्य, वनस्पति जगत्, प्राणी जगत,

पशुधन तथा मत्स्य जीवन आदि।

अजैव संसाधन―वे सारे संसाधन जो निर्जीव वस्तुओं से बने हैं, अजैव संसाधन कहलाते

हैं; जैसे―चट्टानें और धातुएँ।

प्रश्न 3. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर लगभग 120 शब्दों में दीजिए―

(i) भारत में भूमि उपयोग प्रारूप का वर्णन करें। वर्ष 1960-61 से वन के अंतर्गत क्षेत्र में

महत्त्वपूर्ण वृद्धि नहीं हुई, इसका क्या कारण है?

उत्तर- भारत में भूमि उपयोग का प्रारूप निम्नलिखित है―

1. वनों के रूप में।

2. कृषि के लिए उपलब्ध भूमि―इसमें बंजर तथा कृषि अयोग्य भूमि तथा गैर-कृषि

प्रयोजनों में लगाई गई भूमि शामिल हैं।

3. परती भूमि के अतिरिक्त अन्य कृषि अयोग्य भूमि―इसमें स्थायी चरागाह, अन्य

गोचर भूमि, विविध वृक्षों, वृक्ष फसलों, उपवनों के अधीन भूमि।

4. परती भूमि―इसमें वर्तमान परती भूमि तथा इसके अतिरिक्त अन्य परती भूमि या

पुरातन परती भूमि शामिल हैं।

5. शुद्ध (निवल) बोया गया क्षेत्र―इसमें वह भूमि शामिल है जिसमें एक या दूसरे

रूप में कृषि कार्य किया जाता है।

स्वतंत्रता से पहले तथा बाद के आरंभिक दिनों में हमारे देश में वनों की अंधाधुंध कटाई की गई। विभिन्न

उद्योगों के विकास, कृषि-कार्य तथा आवास के लिए भूमि निर्माण के उद्देश्य से ऐसा किया गया। इससे कई

तरह की समस्याएँ उत्पन्न हुई। फलत: सरकार द्वारा वनों की सुरक्षा तथा संरक्षण संबंधी अनेक नीतियाँ बनाई

गई। इससे वनों का घटता ग्राफ थम गया। दूसरी तरफ स्थानीय स्तर पर वनों की कटाई कमोबेश होती रही है।

यही कारण है कि वर्ष 1960-61 से वन के अन्तर्गत क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण वृद्धि नहीं हुई है।

(ii) प्रौद्योगिकी और आर्थिक विकास के कारण संसाधनों का अधिक उपभोग कैसे हुआ है?

उत्तर―प्रौद्योगिकी और आर्थिक विकास के कारण संसाधनों का अधिक उपभोग निम्न

प्रकार हुआ―

1. हमारे पर्यावरण में उपलब्ध ऐसी प्रत्येक वस्तु जो हमारी आवश्यकताओं को पूरा करने

में प्रयुक्त की जा सकती है और जिसको बनाने के लिए प्रौद्योगिकी उपलब्ध है, जो

आर्थिक रूप से सम्भाव्य और सांस्कृतिक रूप से मान्य है, एक संसाधन है।

2. प्रौद्योगिकी एवं आर्थिक विकास परस्पर अन्तःसंबंधित हैं।

3. प्रौद्योगिकी विकास हमें अनुकूल व यथायोग्य औजार एवं मशीनें प्रदान करता है,

जिससे उत्पादन में वृद्धि होती है। इसके फलस्वरूप संसाधनों का अधिक प्रयोग होता

है।

4. प्रौद्योगिकी विकास से आर्थिक विकास भी होता है। जब किसी राष्ट्र की आर्थिक स्थिति

में सुधार आता है तो लोगों की आवश्यकताएँ भी बढ़ती हैं। उसके फलस्वरूप फिर

संसाधनों का अधिकाधिक प्रयोग होता है।

5. आर्थिक विकास आधुनिकतम प्रौद्योगिकी विकास हेतु अनुकूल वातावरण प्रदान करता

है। यह हमारे आसपास की विभिन्न वस्तुओं को संसाधन में परिवर्तित करने में मदद

करता है। अंतत: नए संसाधनों का दोहन शुरू हो जाता है।

परियोजना कार्य

प्रश्न 1. व 2. विद्यार्थी स्वयं करें।

प्रश्न 3. वर्ग-पहेली को सुलझाएँः ऊर्ध्वाधर और क्षैतिज छिपे उत्तरों को ढूँदें।

उत्तर―पहेली के उत्तर अंग्रेजी के शब्दों में हैं।

(i) भूमि, जल, वनस्पति और खनिजों के रूप में प्राकृतिक सम्पदा

                                                              ―RESOURCE

(ii) अनवीकरण योग्य संसाधन का एक प्रकार

                                                             ―MINERALS

(iii) उच्च नमी रखाव क्षमता वाली मृदा

                                                    ―BLACK

(iv) मानसून जलवायु में अत्यधिक निक्षालित मृदाएँ

                                                           ―LATERITE

(v) मृदा अपरदन की रोकथाम के लिए बृहत् स्तर पर पेड़ लगाना

                                                               ―AFFORESTATION

(vi) भारत के विशाल मैदान इन मृदाओं से बने हैं

                                                                ―ALLUVIAL

(ख) अन्य महत्त्वपूर्ण प्रश्न

                           बहुविकल्पीय प्रश्न

1. विकास के आधार पर संसाधनों का प्रकार नहीं है―

(क) संभावी

(ख) विकसित

(ग) संचित कोष

(घ) व्यक्तिगत

                  उत्तर―(घ) व्यक्तिगत

2. पवन, संसाधन का एक प्रकार है-

(क) मानवीय

(ख) नवीकरणीय 

(ग) अनवीकरणीय

(घ) जैव

                    उत्तर―(ख) नवीकरणीय

3. रियो डी जेनरियो में पृथ्वी शिखर सम्मेलन का आयोजन किस वर्ष हुआ था?

(क) वर्ष 1972

(ख) वर्ष 1992

(ग) वर्ष 1979

(घ) वर्ष 1998

                     उत्तर―(ख) वर्ष 1992

4. ‘एजेण्डा 21’ का संबंध है―

(क) सतत पोषणीय विकास

(ख) जलवायु परिवर्तन

(ग) वैश्विक तापन नियंत्रण

(घ) ओजोन परत क्षयीकरण

                                      उत्तर―(क) सतत पोषणीय विकास

5. भारत में लैटेराइट मृदा नहीं पाई जाती है―

(क) तमिलनाडु में

(ख) केरल में 

(ग) बिहार में

(घ) झारखंड में

                      उत्तर―(ग) बिहार में

6. मृदा अपरदन के कारण हैं―

(क) जल प्रवाह 

(ख) पवन 

(ग) वनों की कटाई 

(घ) ये सभी

                उत्तर―(घ) ये सभी

                        अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1. मृदा अपरदन किसे कहते हैं?

उत्तर―भूमि की ऊपरी परत के हट जाने की प्रक्रिया को मृदा अपरदन कहते हैं। मृदा अपरदन का

सबसे पहला कारण तेज बहने वाला जल तथा तेज बहने वाली पवनें हैं।

प्रश्न 2. जलोढ़ मृदा भारत के किस भाग में पाई जाती है?

उत्तर― भारत का संपूर्ण उत्तरी मैदान जलोढ़ मृदा से निर्मित है। यह मृदा हिमालय से निकलने वाली

तीन नदी प्रणालियों-सिंधु, गंगा तथा ब्रह्मपुत्र के निक्षेपों से बनी है। एक गलियारे के माध्यम से जलोढ़ मृदा

का मैदान राजस्थान तथा गुजरात तक व्याप्त है। महानदी, गोदावरी, कृष्णा तथा कावेरी नदियों के डेल्टाई

क्षेत्रों में भी जलोढ़ मृदा की प्रधानता है, जो पूर्वी तटीय मैदान का निर्माण करते हैं।

प्रश्न 3. ‘रक्षक मेखला’ किसे कहते हैं?

उत्तर―पवन की गति को नियंत्रित करने के लिए वृक्षों की मेखला का निर्माण किया जाता है। इसे रक्षक

मेखला (Shelter Belt) कहते हैं। पश्चिमी भारत के रेतीले भू-भागों में रक्षक मेखला’ के माध्यम से टीलों

का स्थायीकरण किया जाता है।

प्रश्न 4. देश में कुल क्षेत्रफल के कितने प्रतिशत भाग पर वनों पर होना निर्धारित किया गया है?

उत्तर― भारत में राष्ट्रीय वन नीति-1952 के माध्यम से वनाच्छादित क्षेत्र को कुल भौगोलिक क्षेत्रफल

के 33% भूमि पर होना वांछित माना गया, किन्तु अब भी यह क्षेत्रफल काफी कम है। इंडिया स्टेट ऑफ

फॉरेस्ट रिपोर्ट (ISFR) 2017 के अनुसार, भारत में कुल भौगोलिक क्षेत्रफल के 24.39% भाग पर वन है।

प्रश्न 5. बुण्ड्टलैंड आयोग रिपोर्ट को किस वर्ष जारी किया गया?

उत्तर―ब्रुण्ड्टलैंड आयोग रिपोर्ट को वर्ष 1987 में जारी किया गया।

प्रश्न 6. नवीकरणीय संसाधन क्या है?

उत्तर―वे संसाधन जिन्हें भौतिक, रासायनिक या यांत्रिक प्रक्रियाओं द्वारा नवीकृत किया जा सकता है

या पुनः उपयोगी बनाया जा सकता है, उन्हें नवीकरणीय संसाधन कहते हैं; जैसे—सौर ऊर्जा, जल, वन व

वन्य जीवन।

                                          लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1. स्वामित्व के आधार पर संसाधनों का वर्गीकरण किस प्रकार किया गया है?

उत्तर―स्वामित्व के आधार पर संसाधनों को निम्नलिखित भागों में वर्गीकृत किया गया है―

1. व्यक्तिगत संसाधन―ये संसाधन निजी व्यक्तियों के स्वामित्व में भी होते हैं। बहुत-से किसानों के

पास सरकार द्वारा आवंटित भूमि होती है जिसके बदले में वे सरकार को लगान चुकाते हैं। गाँव में

बहुत-से लोग भूमि के स्वामी भी होते हैं और शहरों में लोग भूखंडों, घरों व अन्य प्रकार की सम्पत्ति

के मालिक होते हैं। बाग, चरागाह, तालाब और कुओं का जल आदि संसाधनों के निजी स्वामित्व के

कुछ उदाहरण हैं।

2. सामुदायिक स्वामित्व वाले संसाधन―ये संसाधन समुदाय के सभी सदस्यों को उपलब्ध होते हैं।

गाँव की चारण भूमि, श्मशान भूमि, तालाब और नगरीय क्षेत्रों के सार्वजनिक पार्क, पिकनिक स्थल

और खेल के मैदान। वहाँ रहने वाले सभी लोगों के लिए उपलब्ध हैं।

3. राष्ट्रीय संसाधन-तकनीकी तौर पर देश में पाए जाने वाले सभी संसाधन राष्ट्रीय हैं। देश की

सरकार को कानूनी अधिकार है कि वह व्यक्तिगत संसाधनों को भी आम जनता के हित में

अधिगृहीत कर सकती है। सभी खनिज पदार्थ, जल संसाधन, वन तथा वन्य जीवन, राजनीतिक

सीमाओं के अंदर सम्पूर्ण भूमि और 12 समुद्री मील’ तक महासागरीय क्षेत्र व इसमें पाए जाने वाले

संसाधन राष्ट्र की संपदा हैं।

4. अंतर्राष्ट्रीय संसाधन-कुछ अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएँ संसाधनों को नियंत्रित करती हैं। तट रेखा से 200

किमी की दूरी से पूरे खुले महासागरीय संसाधनों पर किसी देश का अधिकार नहीं है। इन संसाधनों

को अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं की सहमति के बिना उपयोग नहीं किया जा सकता।

प्रश्न 2. नवीकरणीय तथा अनवीकरणीय संसाधनों में क्या अन्तर है?

उत्तर― नवीकरणीय संसाधन―वे संसाधन जिन्हें भौतिक, रासायनिक या यांत्रिक प्रक्रियाओं द्वारा

नवीकृत या पुन: उत्पन्न किया जा सकता है, उन्हें नवीकरण योग्य अथवा पुन: पूर्ति योग्य संसाधन कहा जाता

है। उदाहरणार्थ―सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा, जल, वन व वन्य जीवन। इन संसाधनों को सतत अथवा प्रवाह

संसाधनों में विभाजित किया गया है।

अनवीकरणीय संसाधन―इन संसाधनों का विकास एक लंबे भू-वैज्ञानिक अंतराल में होता है। खनिज

और जीवाश्म ईंधन इस प्रकार के संसाधनों के उदाहरण हैं। इनके बनने में लाखों वर्ष लग जाते हैं। इनमें से

कुछ संसाधन, जैसे-धातुएँ पुनःचक्रीय हैं और पेट्रोल, डीजल जैसे कुछ संसाधन अचक्रीय हैं। वे एक बार

के प्रयोग के साथ ही समाप्त हो जाते हैं।

प्रश्न 3. सतत पोषणीय विकास से आप क्या समझते हैं?

उत्तर― सतत पोषणीय विकास, आर्थिक विकास की प्रक्रिया है जिसका उद्देश्य प्राकृतिक संसाधनों

तथा पर्यावरण को बिना किसी हानि के वर्तमान विकास और समृद्धि की प्रक्रिया को बनाए रखना है। इसके

साथ ही भविष्य की पीढ़ियों की आवश्यकता की अवहेलना न करते हुए जीवन की गुणवत्ता बनाए रखना

‘सतत पोषणीय विकास’ है।

प्रश्न 4. ‘संचित कोष’ संसाधन को परिभाषित कीजिए।

उत्तर―यह भंडार का ही हिस्सा है जिन्हें तकनीकी ज्ञान के माध्यम से उपयोग में लाया जा सकता है

किन्तु अभी तक उसके उपयोग की ओर अधिक परिपक्वता के साथ ध्यान नहीं दिया गया है। इसका उपयोग

भविष्य में मानवीय आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए किया जा सकता है। उदाहरण के तौर पर, नदियों के

जल को विद्युत उत्पादन के लिए प्रयुक्त किया जा सकता है, जिसका उपयोग वर्तमान में सीमित स्तर पर

किया जाता है।

वन, वनोत्पाद इत्यादि ‘संचित कोष’ की श्रेणी में आते हैं, जिनका उपयोग भविष्य में किया जाना संभावित

हो।

प्रश्न 5. जैव संसाधन से आप क्या समझते हैं?

उत्तर―ऐसे संसाधन जीवमंडल से प्राप्त होते हैं। इन संसाधनों में जीवन होता है और उन्हें सजीव कहा

जाता है। उदाहरण के तौर पर, मनुष्य, वनस्पति प्रजातियाँ, प्राणिजात, पशुधन इत्यादि जैव संसाधन हैं।

                                दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1. संसाधन नियोजन क्यों आवश्यक है? स्पष्ट कीजिए।

उत्तर―‘संसाधन नियोजन’ एक तकनीक है जिसके माध्यम से संसाधनों को अधिक उपयोगी बनाया

जा सकता है। भारत जैसे देश में जहाँ संसाधनों की विविधता है, वहाँ संसाधन नियोजन का महत्त्व और

अधिक बढ़ जाता है।

भारत में ऐसे भी राज्य हैं जहाँ एक प्रकार के संसाधन बड़ी मात्रा में उपलब्ध हैं, जबकि यहाँ अन्य महत्त्वूपर्ण

संसाधनों की कमी है। कई ऐसे राज्य हैं जो संसाधनों की उपलब्धता से संदर्भ में आत्मनिर्भर हैं और कुछ

राज्य संसाधनों की कमी के कारण पिछड़े हैं। उदाहरण के तौर पर-झारखण्ड, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश

इत्यादि राज्यों में खनिज संसाधनों की उपलब्धता अधिक है किन्तु अन्य संसाधनों की कमी है। अरुणाचल

प्रदेश में जल संसाधन का अकूत भंडार है किन्तु मौलिक विकास की कमी है। राजस्थान में पवन और सौर

ऊर्जा की संभाव्यता अत्यधिक है किन्तु यहाँ जल की अत्यधिक कमी है। लद्दाख की शीत मरुभूमि देश के

अन्य हिस्सों से पृथक् है। यह सांस्कृतिक विरासत की भूमि है किन्तु यहाँ जल, आधारभूत संरचना तथा

खनिजों की कमी महसूस की जाती है।

इस स्थिति में राष्ट्रीय, प्रांतीय, प्रादेशिक तथा स्थानीय स्तर पर संतुलित संसाधन नियोजन की जरूरत है।

प्रश्न 2. भारत में भू-उपयोग प्रारूप की प्रक्रिया को समझाइए।

उत्तर―                भारत में भू-उपयोग प्रारूप

भू-उपयोग का तात्पर्य मनुष्य द्वारा धरातल के विविध रूपों को प्रयोग में लाए जाने की प्रक्रिया है।

भारत में भू-उपयोग को निर्धारित करने वाले तत्त्व दो प्रकार के हैं―1. भौतिक कारक तथा 2. मानवीय

कारक।

भौतिक कारकों में भू-आकृति, जलवायु तथा मृदा के प्रकार हैं। मानवीय कारकों में जनसंख्या घनत्व,

प्रौद्योगिकीय क्षमता, संस्कृति तथा परम्पराएँ हैं।

भारत का भौगोलिक क्षेत्रफल 32.8 लाख वर्ग किमी है। देश के 93% भाग के भू-उपयोग आँकड़े उपलब्ध

है। पूर्वोत्तर राज्यों में असम को छोड़कर अन्य राज्यों के भू-उपयोग आँकड़ों की जानकारी नहीं है, जबकि

जम्मू एवं कश्मीर के पाकिस्तान एवं चीन द्वारा अधिकृत क्षेत्रों के भूमि-उपयोग का सर्वेक्षण नहीं किया गया

भारत में स्थायी चरागाहों के अंतर्गत भूमि कम हुई है। चरागाहों के सिकुड़ते जाने का प्रभाव पशुधन को

उपलब्ध होने वाले ‘चारे’ पर हुआ है। पशुधन की वृहद् संख्या को किस प्रकार चारा उपलब्ध कराया

जाएगा? यदि चारा उत्पादन में कमी दर्ज की जाती है तो उसका परिणाम क्या होगा?

वर्तमान परती भूमि तथा अन्य परती भूमि उपजाऊ नहीं हैं और इन पर फसलों की उत्पादन लागत अत्यधिक

होगी, इसी कारण ऐसे भूमि क्षेत्र दो से चार वर्ष की अवधि में बोए जाते हैं। यदि इन क्षेत्रों को देश के शुद्ध

(निवल) बोए क्षेत्रों में शामिल किया जाए तो कुल भौगालिक क्षेत्रफल के 54% हिस्से में कृषि होने का

अनुपात बन सकता है।

शुद्ध बोए गए क्षेत्र का प्रतिशत राज्यवार भिन्न है। पंजाब तथा हरियाणा जैसे राज्यों के 80% क्षेत्र पर कृषि की

जाती है, जबकि अरुणाचल प्रदेश, मिजोरम, मणिपुर और अंडमान-निकोबार द्वीपसमूह में 10% से कम

क्षेत्र में कृषि कार्य किया जाता है।

भारत में राष्ट्रीय वन नीति-1952 के माध्यम से वनाच्छादित क्षेत्र को कुल भौगोलिक क्षेत्रफल के 33% भूमि

पर होना वांछित माना गया, किन्तु अब भी यह क्षेत्रफल काफी कम है। इंडिया स्टेट ऑफ फॉरेस्ट रिपोर्ट

(ISFR) 2017 के अनुसार, भारत में कुल भौगोलिक क्षेत्रफल के 24.39% भाग पर वन है।

वन नीति द्वारा निर्धारित यह सीमा पर्यावरणीय संतुलन बनाए रखने के लिए अनिवार्य है। वन क्षेत्रों का महत्त्व

आजीविका तथा रोजगार अवसरों के लिए भी महत्त्वपूर्ण है।

भू-उपयोग का एक रूप बंजर भूमि तथा दूसरा गैर-कृष्य प्रयोजनों में लगाई गई भूमि है। बंजर भूमि में

पहाड़ी चट्टानें, मरुस्थल, दलदली भाग इत्यादि शामिल हैं।

गैर-कृष्य प्रयोजनों में लगी भूमि पर भवन, सड़कें, रेल लाइनें, उद्योग-धंधे इत्यादि बनाए गए हैं।

भारत में लम्बे समय से भूमि संरक्षण तथा प्रबंधन को गंभीरता से नहीं लिया गया। साथ ही भूमि उपयोग सतत

तथा अव्यावहारिक रूप से करने के कारण भूमि संसाधनों का निम्नीकरण हुआ है। यह समाज तथा

पर्यावरण के लिए एक बड़ा खतरा प्रमाणित हो सकता है।

प्रश्न 3. भूमि निम्नीकरण के कारणों पर प्रकाश डालिए तथा संरक्षण के उपायों की चर्चा कीजिए।

उत्तर―                   भूमि निम्नीकरण एवं संरक्षण के उपाय

भूमि एक ऐसा संसाधन है जिसका उपयोग कई पीढ़ियाँ लगातार करती रही हैं। भोजन, मकान तथा वस्त्र की

मूल आवश्यकताओं सहित दैनिक जीवन की 95% जरूरतें भूमि से पूरी की जाती हैं। मानवीय क्रियाकलापों

से भूमि निम्नीकरण के कारण भूमि अपनी प्राकृतिक शक्ति खो रही है, जिस कारण इसके संरक्षण की चिंता

सामने आई है।

भारत में इस समय 13 करोड़ हेक्टेयर भूमि निम्नीकृत है। इसमें से 50% जल द्वारा अपरदित है, जबकि

28% भूमि वनों द्वारा निम्नीकृत है। शेष निम्नीकृत भूमि लवणीय तथा क्षारीय है। कतिपय मानवीय

क्रियाएँ―खनन, पशुचारण, वनोन्मूलन इत्यादि भूमि निम्नीकरण के लिए अत्यधिक उत्तरदायी हैं।

खदानों को खनन के बाद गहरी खाइयों तथा मलबों के साथ खुला छोड़ दिया जाता है।

अनुपयुक्त खानों की वजह से झारखण्ड, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश तथा ओडिशा में वनोन्मूलन भूमि

निम्नीकरण की प्रक्रिया सामने आई है। खनन के कारण तथा उद्योगों से निकलने वाले धूलकण वायुमंडल में

विसर्जित होते हैं और अंतत: भूमि निम्नीकरण का कारण बनते हैं।

विगत दशकों में औद्योगिक जल तथा अपशिष्टों के कारण जल प्रदूषण और भूमि निम्नीकरण की गति तीव्र हुई है।

गुजरात, मध्यप्रदेश तथा राजस्थान में अति पशुचारण भूमि निम्नीकरण का मूल्य कारण बन चुका है।

महाराष्ट्र में भी भूमि निम्नीकरण का प्रमुख कारण अति पशुचारण है।

अधिक सिंचाई तथा उर्वरकों के अत्यधिक उपयोग से भूमि निम्नीकरण की प्रवृत्ति पंजाब, हरियाणा और

पश्चिमी उत्तर प्रदेश में देखने को मिली है। अति सिंचाई के कारण उत्पन्न जलाक्रांतता भूमि निम्नीकरण के

लिए उत्तरदायी है।

मृदा में लवणीयता और क्षारीयता का बढ़ना भूमि निम्नीकरण का प्रमुख कारक है।

भूमि निम्नीकरण की समस्या का हल निकालने के कई तरीके मौजूद हैं। इसमें वनारोपण चरागाहों का उचित

प्रबंधन, पशुचारण नियंत्रण इत्यादि प्रमुख प्रक्रिया है जिससे भूमि निम्नीकरण को रोका जा सकता है।

वृक्षों की रक्षक मेखला (Shelter Belt ) वस्तुत: भूमि-निम्नीकरण को नियंत्रित करने की प्रभावी प्रक्रिया

है। इससे भूमि कटाव तथा मरुस्थलीय रेत को रोकने में सहायता मिल सकती है।

पशुचारण पर नियंत्रण तथा रेतीले टीलों को काँटेदार झाड़ियों के माध्यम से स्थिर बनाकर भूमि के कटाव को

रोका जा सकता है।

बंजर भूमि के प्रबंधन, खदानों का उचित ट्रीटमेण्ट, उद्योगों से निकलने वाले अपशिष्टों का चक्रण कर

प्रदूषण को नियंत्रित किया जा सकता है।

प्रश्न 4. भारत की मिट्टी के विविध प्रकारों को स्पष्ट कीजिए।

उत्तर― भारत में अनेक प्रकार के उच्चावच, जलवायु, भू-आकृतियाँ और वनस्पतियाँ पाई जाती हैं। इस

कारण अनेक प्रकार की मृदाएँ विकसित हुई हैं―

1. जलोढ़ मृदा―भारत का संपूर्ण उत्तरी मैदान जलोढ़ मृदा से बना है। यह मृदा हिमालय के तीन

महत्त्वपूर्ण नदी तंत्रों–सिंधु, गंगा और ब्रह्मपुत्र नदियों द्वारा लाए गए निक्षेपों से बनी है। जलोढ़ मृदा

में रेत, सिल्ट और मृत्तिका के विभिन्न अनुपात पाए जाते हैं जिस कारण यह बहुत उपजाऊ होती है।

इसमें पोटाश, फॉस्फोरस और चूना होता है। यह मृदा गन्ने, चावल, गेहूँ और अन्य अनाजों तथा

दलहन फसलों की खेती के लिए उपयुक्त होती है।

2. काली मृदा―इस मृदा का रंग काला है। इसे रेंगर मृदा भी कहा जाता है। काली मृदा कपास की

खेती के लिए उचित समझी जाती है। इस प्रकार की मृदा दक्कन पठार क्षेत्र के उत्तर-पश्चिमी भागों

में पाई जाती है। यह मृदा महाराष्ट्र, सौराष्ट्र, मालवा, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के पठार में पाई

जाती है। यह मृदा कैल्शियम कार्बोनेट, मैग्नीशियम, पोटाश और चूने जैसे पौष्टिक तत्त्वों से परिपूर्ण

होती है।

3. लाल और पीली मृदा―इस मृदा में लोहे के कणों की मात्रा अधिक होने के कारण इसका रंग लाल

होता है तथा कहीं-कहीं पर पीला भी होता है। यह मृदा ओडिशा, छत्तीसगढ़, मध्य गंगा मैदान के

दक्षिणी छोर पर और पश्चिमी घाट के तलहटी क्षेत्रों में पाई जाती है।

4. लैटेराइट मृदा―लैटेराइट मृदा उच्च तापमान और अत्यधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में विकसित होती है।

यह भारी वर्षा से अत्यधिक निक्षालन का परिणाम है। इस मृदा में ह्यूमस की मात्रा कम पाई जाती है।

यह मृदा मुख्य तौर पर कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु, मध्य प्रदेश, ओडिशा तथा असम के पहाड़ी

क्षेत्र में पाई जाती हैं। यह मृदा काजू की फसल के लिए अधिक उपयुक्त होती है।

5. मरुस्थलीय मृदा―इन मृदाओं का रंग लाल और भूरा होता है। ये मृदाएँ आम तौर पर रेतीली और

लवणीय होती हैं। शुष्क जलवायु और उच्च तापमान के कारण जल वाष्पन दर अधिक होती है। इन

मृदाओं में ह्यूमस और नमी की मात्रा कम होती है। इस मृदा को सही तरीके से सिंचित करके कृषि

योग्य बनाया जा सकता है, जैसे कि पश्चिमी राजस्थान में हो रहा है।

6. वन मृदा―ये मृदा पर्वतीय क्षेत्रों में पाई जाती हैं जहाँ पर्याप्त वर्षा वन उपलब्ध हैं। इन मृदाओं के

गठन में पर्वतीय पर्यावरण के अनुसार बदलाव आता है। ये मृदाएँ नदी घाटियों में दोमट और

सिल्टदार होती हैं, परंतु ऊपरी ढालों पर इनका गठन मोटे कणों का होता है। हिमालय के

हिमाच्छादित क्षेत्रों में इस मृदा का बहुत अपरदन होता है।

भारत में सीढ़ीदार खेती कहाँ होती है?

उत्‍तराखंड के सीढ़ीदार खेतों में अब इजराइली तकनीक से होगी खेती

कैसे प्राप्त में सीढ़ीदार खेती की जाती है?

सीढ़ीदार खेत, पर्वतीय या पहाड़ी प्रदेशों की ढलवां भूमि पर कृषि के उद्देश्य से विकसित क्षेत्रों को कहते हैं। इन प्रदेशों में मैदानी इलाकों के आभाव में पहाड़ों की ढलानों पर सीढ़ियों के आकार के छोटे छोटे खेत विकसित किए जाते हैं जो, मृदा अपरदन और बारिश के पानी को बहने से रोकने में सहायक होते है।

हिमाचल क्षेत्र में सीढ़ीनुमा खेत मिलते है क्यों?

1 Page 10 पहाड़ो की तेज़ ढलान और अत्यधिक वर्षा के कारण पूर्वी हिमालय में खेती करने में काफी कठिनाई होती है। तेज़ ढलानों पर अगर मिट्टी को खोद कर खेत बनाए जाएं तो ढीली मिट्टी घनघोर वर्षा में बह जाएगी। इस समस्या को हल करने के लिए सीढ़ीनुमा खेत बनाए जाते हैं

अविराम खेती क्या है?

Answer: इसका अभिप्राय उन कृषि क्षेत्रों में की जाने वाली कृषि से है जहाँ वर्षा की मात्रा 50 से०मी० से कम है तथा सिंचाई के साधनों का भी अभाव है ।