प्रतिवादी धर्म सुधार आंदोलन से आप क्या समझते हैं? - prativaadee dharm sudhaar aandolan se aap kya samajhate hain?

के कारण यूरोप में कैथोलिक धर्म मानने  वालों की संख्या में लगातार कमी होती गई और अंततः उसके संख्या नगण्य  हो गई । इसके बाद अपने आप को सुधारने के लिए कैथोलिक संप्रदाय के अंतर्गत जो प्रयास किए गए। उन्ही  प्रयासों के बारे में इस ब्लॉग में आपको जानकारी दी जाएगी । इसे धर्म सुधार आंदोलन की प्रतिक्रिया के रूप में देखा जाना चाहिए । इसी प्रयास के कारण आज भी ईसाई समुदायों के सबसे बड़े हिस्से का प्रतिनिधित्व कैथोलिक चर्च करता है।

प्रतिवादी धर्म सुधार आंदोलनः-

प्रोटेस्टेन्ट संप्रदाय तेजी से उन्नति करने लगा। जर्मनी, इंग्लैण्ड, स्वीडन, नार्वे, डेनमार्क, हालैण्ड आर स्विट्जरलैण्ड जैसे देशों में उसने अपने पैर जमा लिये। यूरोप के अधिकांश देशों ने कैथोलिक चर्च से  संबंध-विच्छेद कर लिये। प्रोटेस्टेन्टों की प्रगति को रोकने के लिए कैथोलिकों ने अपने धर्म में सुधार कर के प्रयास आरंभ किये, जिन्हें धर्म सुधार प्रतिक्रिया आंदोलन, प्रतिवादी धर्म सुधार आंदोलन, प्रातवा धर्म सुधार आंदोलन जैसे नामों से संबोधित किया जाता है। इस संबंध में प्रो. फिशर की मान्यता है कि की शिक्षाओं के प्रसार से भयभीत होकर रोमन कैथोलिक धर्माधिकारियों ने अपने धर्म के उन बड़ा जिनके कारण कैथोलिक धर्म की सत्ता प्रायः समाप्त हो गई थी, दूर करने के उद्देश्य से कुछ सुधार बनाई।’

धर्म के उन बड़े दोषों को कुछ सुधार योजनाएँ

शैविल के अनुसार ‘धार्मिक प्रतिक्रिया आंदोलन, वास्तव में कैथोलिक धर्म में सुधार के लिये किये गये प्रयासों के नाम हैं।’ लूथर ने कैथोलिक चर्च एवं पोप की बुराईयों के विरुद्ध आवाज उठाकर जनसाधारण के हृदय में उनके प्रति घृणा और द्वेष की भावना का संचार कर दिया था। यह आंदोलन धीरे-धीरे व्यापक रूप ग्रहण करता गया। इससे कैथोलिक धर्म के सम्मान एवं महत्व को अत्यधिक ठेस पहुँची। अतः कैथोलिक सुधारकों ने अपने धर्म को दोषरहित व आडम्बरहीन बनाने की भावना से अनेक प्रयत्न किये। इन सुधारों को पोप पाल तृतीय, पाल चतुर्थ, पायस चतुर्थ; पायस पंचम और ग्रेगरी त्रयोदश जैसे सदाचारी

और चरित्रवान पोपों ने सहायता प्रदान की। अभी तक ग्रामीण अंचलों के लोग नवीन विचारों से अधिक प्रभावित नहीं हुए थे और साथ ही अनेक देश अभी तक कैथोलिक अनुयायी बने हुए थे। प्रतिवादात्मक धर्म सुधार आंदोलन का मुख्य उद्देश्य रोमन कैथोलिक धर्म को नवजीवन प्रदान करना था। कैथोलिक धर्म के दोषों को दूर करने के उद्देश्य से ट्रेन्ट नामक स्थान पर एक सभा का गठन किया गया था। पोप पॉल चतुर्थ ने भी धर्म सुधार प्रतिक्रिया में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

1562 में ट्रेट सभा में अनेक निर्णय लिये गये जैसे- भ्रष्ट धार्मिक अधिकारियों को दण्डित किया जाये, चर्च के अधिकारियों को सरल और पवित्र जीवन व्यतीत करने की प्रेरणा दी जाये। बाइबल के लेटिन भाषा में अनुवाद को प्रामाणिक स्वीकार किया जाये। पोप धार्मिक विषयों में सर्वोच्च समझा जाये आदि। इतिहासकार फिशर ने लिखा है कि ‘काउंसिल ने कैथोलिक चर्च तथा संगठन के अनुशासन में सुधार किया तथा कई दोषों को दूर किया। इस प्रकार इसने पुरातन धर्म की मर्यादा को पुनः स्थापित किया तथा उन सब व्यक्तियों को फिर से रोमन कैथोलिक धर्म स्वीकार करने के लिये प्रेरित किया, जिन्होंने प्रोटेस्टेन्ट धर्म स्वीकार कर लिया था।’

धर्म परिवर्तन करके प्रोटेस्टेन्ट बने लोगों को कैथोलिक पंथ में वापस लाने एवं नये लोगों को उसमें दीक्षित करने के उद्देश्य से एक नये समाज जेसुइट की स्थापना की गई। इसका संस्थापक इग्नेशियस लोयोला था। वह स्पेनवासी था और प्रारंभ में एक सैनिक के रूप में जीवन प्रारंभ करने वाला लोयोला कालान्तर में प्रतिवादात्मक धर्म सुधार आंदोलनों का सबसे सशक्त नेता सिद्ध हुआ। उसके द्वारा स्थापित ‘सोसायटी ऑफ जीसस’ ने, न केवल यूरोप, बल्कि एशिया, अफ्रीका एवं अमेरिका जैसे नवीन क्षेत्रों में कैथोलिक संप्रदाय को फैलाया।

जेसुइट संघ के सदस्यों को कैथोलिक धर्म के प्रचार-प्रसार में बहुत अधिक सफलता मिली। चीन, भारत तथा उत्तरी व दक्षिणी अमेरिका में जेसुइटों के प्रयास से ही अपने पैर जमाये। इनके प्रयासों से प्रोटेस्टेन्ट संप्रदाय की तीव्र प्रगति रुक गई तथा मृतप्रायः कैथोलिक धर्म में नवजीवन का संचार हुआ। इतिहासकार स्वेन ने लिखा है कि ‘प्रतिवादी धर्म सुधार आंदोलन की सफलता से दक्षिणी जर्मनी, फ्रांस, पोलैण्ड, स्विट्जरलैण्ड के कुछ क्षेत्रों आदि में पुनः कैथोलिक धर्म स्थापित हो गया। इटली एवं स्पेन से प्रोटेस्टेन्टवाद को भगा दिया गया। आज भी रोमन कैथोलिक चर्च विश्व के महान धार्मिक

"सभी मनुष्य कला व साहित्य की अपेक्षा धर्म में अधिक रुचि रखते थे। इस आन्दोलन ने मध्ययुगीन कैथोलिक धर्म का परित्याग करने तथा आदिम ईसाई धर्म अर्थात् ईसा मसीह, सेण्ट पॉल और ऑगस्टाइन के उपदेशों की महत्ता को स्वीकार करने पर बल दिया और इस प्रकार आधुनिक विकास के लिए मार्ग प्रशस्त किया। । यह आन्दोलन प्रारम्भ में एक धार्मिक आन्दोलन मात्र था, किन्तु शीघ्र ही इस आन्दोलन में सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक एवं बौद्धिक पहलू भी सम्मिलित हो गए, जिनका धर्म से अत्यन्त दूर का सम्बन्ध था।"

प्रतिवादी धर्म सुधार आंदोलन से आप क्या समझते हैं? - prativaadee dharm sudhaar aandolan se aap kya samajhate hain?


धर्म सुधार आन्दोलन एक द्विउद्देशीय आन्दोलन था, जिसका प्रथम उद्देश्य धार्मिक तथा दूसरा उद्देश्य राजनीतिक था।

धार्मिक उद्देश्य था -  ईसाई जनता के नैतिक एवं आध्यात्मिक जीवन का पुनरुत्थान करना, जबकि राजनीतिक उद्देश्य था - रोम के पोप के व्यापक धर्म सम्बन्धी अधिकारों को समाप्त करना। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि पोप तथा कैथोलिक चर्च के विरोध में यूरोपीय देशों में जो प्रतिक्रिया हुई थी, उसे धर्म सुधार आन्दोलन कहा गया। इस तथ्य को स्पष्ट करते हुए इतिहासकार फर्डिनेण्ड शेविल ने लिखा है

"यथार्थ में यह एक द्विउद्देशीय आन्दोलन था। एक ओर इसका उद्देश्य ईसाइयों के जीवन का मौलिक उत्थान करना था तथा दूसरी ओर पोप की सत्ता को कम करना था।"

मध्य काल के अन्त तक चर्च में अनेकों दोष आ गए थे। चर्च भ्रष्टाचार और विलासिता के केन्द्र बन चुके थे। धार्मिक क्षेत्र में पोप सर्वोपरि था। वह स्वयं को ईश्वर का प्रतिनिधि समझता था। उसकी शक्तियाँ असीमित थीं। वह किसी भी राजा को गद्दी से हटा सकता था तथा किसी भी व्यक्ति को धर्म से बहिष्कृत करके दण्डित कर सकता था। नवीन युग के आगमन तथा यूनानी व लैटिन साहित्य के विकास के फलस्वरूप जनता में बौद्धिक चेतना का उदय हो गया तथा उसकी तार्किक क्षमता बलवती हो गई। कुछ विद्वानों ने धार्मिक क्षेत्र में व्याप्त कुरीतियों, भ्रष्टाचार एवं विलासितापूर्ण वातावरण के विरुद्ध आवाज उठाई। इस प्रकार शताब्दियों से चली आ रही धार्मिक एकता नष्ट हो गई और ईसाई धर्म दो सम्प्रदायों में विभक्त हो गया—(1) रोमन कैथोलिक, और (2) प्रोटेस्टैण्ट । प्रोटेस्टैण्ट सम्प्रदाय का जन्मदाता मार्टिन लूथर था। 'प्रोटेस्टैण्ट' शब्द 'प्रोटेस्ट' (Protest) से बना है, जिसका अर्थ होता है-'विरोध करना'। उन लोगों को जिन्होंने पोप तथा चर्च के विरुद्ध 'प्रोटेस्ट' किया था, प्रोटेस्टैण्ट' कहा गया तथा इस आन्दोलन को धर्म सुधार आन्दोलन' (Protestant Reformation) की संज्ञा दी गई।

धर्म सुधार आन्दोलन के कारण यद्यपि धर्म सुधार आन्दोलन का उदय और विकास धार्मिक क्षेत्र में परिवर्तन करने के उद्देश्य से हुआ था, तथापि इस आन्दोलन की जड़ में तत्कालीन राजनीति, अर्थव्यवस्था, संस्कृति आदि महत्त्वपूर्ण तत्त्व भी भलीभाँति सक्रिय थे। धर्म सुधार आन्दोलन के निम्नलिखित कारण थे

(1) राजनीतिक कारण -

 यद्यपि धर्म सुधार आन्दोलन का प्रारम्भ एक धार्मिक आन्दोलन के रूप में हुआ था, तथापि इस आन्दोलन के राजनीतिक स्वरूप को भी नकारा नहीं जा सकता। 16वीं शताब्दी के प्रारम्भ में कैथोलिक चर्च एक धार्मिक संस्था के साथ-साथ राजनीतिक संस्था के रूप में प्रतिष्ठित हो चुका था। यूरोप के प्रत्येक राज्य में चर्च का अपना स्वतन्त्र अस्तित्व था। इसीलिए

यह कहा जाता था कि प्रत्येक राज्य के अन्दर चर्च भी एक राज्य था। कैथोलिक चर्च के पास अपार सम्पत्ति होने के साथ-साथ पोप एवं पादरी वर्ग की शक्तियाँ भी असीमित थीं। यूरोप के शासक चर्च की सम्पत्ति पर अधिकार करना चाहते थे तथा उसकी शक्तियों पर भी नियन्त्रण लगाना चाहते थे। विभिन्न राष्ट्रों में विकसित हो रही राष्ट्रीयता की भावना के प्रति भी कैथोलिक चर्च का दृष्टिकोण विरोधी था। ऐसी स्थिति में शासकों एवं चर्च के मध्य संघर्ष अनिवार्य हो गया। __

(2) धार्मिक कारण - 

धर्म सुधार आन्दोलन का धार्मिक कारण पोप एवं पादरी वर्ग के भ्रष्ट तथा दुराचारी जीवन से सम्बन्धित था। 15वीं शताब्दी के अन्तिम वर्षों में रोमन कैथोलिक चर्च के अन्तर्गत अनेकों दोषों व बुराइयों का समावेश हो गया था। पोप अपनी असीमित शक्तियों व अधिकारों के अहंकार में अन्धा होकर पथभ्रष्ट हो गया था और उनका दुरुपयोग करने लगा था। कैथोलिक चर्च को पवित्रता और धार्मिक चिन्तन का केन्द्र माना जाता था, किन्तु पोप तथा पादरियों की विलासिता एवं धन की अधिकता के कारण वह भ्रष्टाचार एवं दुराचार का केन्द्र बन चुका था।

पोप अनेक विशेषाधिकारों से युक्त अनियन्त्रित प्रभुतासम्पन्न धर्माध्यक्ष था। वह अपने अधिकारों का दुरुपयोग करके अपनी निरंक को प्रमाणित करता रहता था। अत्यधिक धन एकत्र करने की लालसा में । कैथोलिक चर्च के संगठन सम्बन्धी पदों को बेचना प्रारम्भ कर दिया, जिसके फलस्वरूप लाखों डॉलर की धनराशि पोप के पास जमा हो गई। भ्रष्टाचार का इतना अधिक बोलबाला था कि रिश्वत देकर कोई भी व्यक्ति चर्च के कानूनी प्रतिबन्धों से मुक्त हो सकता था। आधुनिक युग के आगमन के बाद यूरोप की जनता ने पोप के अत्याचारों तथा उसके असीमित अधिकारों का विरोध करना प्रारम्भ कर दिया। पोप के साथ-साथ पादरी वर्ग भी भ्रष्टाचार में डूबा हुआ था। पादरी अपने धार्मिक कर्तव्यों की पूरी तरह अवहेलना करने लगे थे। वे भी पोप की भाँति वर्तन पथभ्रष्ट होकर अनैतिक व सांसारिक बन गए थे। समाज में उनके पास असीमित विशेषाधिकार थे, जिनका दुरुपयोग करते हुए उन्होंने विलासी जीवन व्यतीत करना प्रारम्भ कर दिया था।

इस प्रकार पोप तथा चर्च के सभी पदाधिकारी भ्रष्ट एवं विलासी बन गए थे।चर्च का समस्त वातावरण दूषित हो गया था। चर्च के विभिन्न पदों पर नियुक्तियों का आधार योग्यता के स्थान पर धन हो गया था।

(3) आर्थिक कारण -

धर्म सुधार आन्दोलन के आर्थिक कारण भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। 15वीं शताब्दी के अन्तिम तथा 16वीं शताब्दी के प्रारम्भिक वर्षों में यूरोपीय देशों में पूँजीवादी भावना के विकास के फलस्वरूप रोमन कैथोलिक चर्च में भयंकर आर्थिक दोष उत्पन्न हो गए थे। लोगों की दृष्टि चर्च की गैर-कानूनी ढंग से संचित अपार सम्पत्ति पर अधिकार करने की ओर लगी हुई थी। इसके विपरीत चर्च की सम्पत्ति पर पोप तथा पादरी अपना व्यक्तिगत अधिकार समझते थे। उन्होंने विभिन्न अनैतिक साधनों तथा करों के द्वारा इस सम्पत्ति में अतुलनीय वृद्धि कर ली थी। विभिन्न देशों की जनता इस अनैतिक सम्पत्ति पर अधिकार करना चाहती थी। लोगों की यह धारणा बन चुकी थी कि चर्च की सम्पत्ति का उपयोग सार्वजनिक हितों के लिए होना चाहिए। इसके विपरीत चर्च के पदाधिकारी इस धनराशि को धार्मिक कार्यों पर खर्च न करके अपनी शान-शौकत और विलासिता पर खर्च करते थे। - चर्च की सम्पत्ति के दुरुपयोग तथा जनता से अनैतिक ढंग से धन एकत्र करने की प्रवृत्ति का सर्वत्र विरोध होना स्वाभाविक था। चूँकि विभिन्न देशों की राष्ट्रीय आय का बड़ा भाग रोम के चर्च के कोषागार में चला जाता था, इसलिए यूरोपीय राज्यों के शासकों तथा प्रबुद्ध जनता ने इस अव्यवस्था के विरुद्ध शक्तिशाली आन्दोलन प्रारम्भ करने का निश्चय कर लिया। धर्म सुधार आन्दोलन इसी निश्चय और संकल्प का परिणाम ।

(4) बौद्धिक जागरण - 

धर्म सुधार आन्दोलन को प्रारम्भ करने में तत्कालीन विचारकों एवं साहित्यकारों ने भी महत्त्वपूर्ण सहयोग प्रदान किया था। इरास्मस, थॉमस मूर, जॉन कालेट आदि मानवतावादी विद्वानों ने अपनी लेखनी के माध्यम से चर्च के दोषों पर व्यंग्यात्मक शैली में उपयोगी साहित्य का सृजन किया और जनता का ध्यान इस ओर आकर्षित किया। इन विद्वानों ने अपनी उत्कृष्ट रचनाओं के माध्यम से उस समय प्रचलित ईसाई धर्म के संस्कारों की कटु आलोचना की तथा जनता के समक्ष इस धर्म का सरल, सुबोध एवं सहज स्वरूप प्रस्तुत किया।

धर्म सुधार आन्दोलन के प्रति बौद्धिक जागरण के योगदान की चर्चा करते हुए इतिहासकार एच. ए. एल. फिशर ने लिखा है

"16वीं शताब्दी का बौद्धिक जागरण यद्यपि प्रोटेस्टैण्ट आन्दोलन से भिन्न था, तथापि यह धर्म सुधार अथवा प्रोटेस्टैण्ट आन्दोलन के अनेक कारणों में से एक था। नवीन जागरण ने रोमन चर्च के अनुमोदित विश्वासों, अधिकारों एवं रीति-रिवाजों के प्रति लोगों की परम्परागत श्रद्धा को कम कर दिया। जनता में प्राचीन अनुशासन के प्रति प्रतिक्रिया हुई। चिन्तन तथा प्रतिबन्ध समाप्त हुए। सन्देह, आलोचना तथा विरोध की हजारों पृथक् छोटी-छोटी धाराएँ, जो पीढ़ियों से एकत्र हो रही थीं, अकस्मात् मिलकर एक विरोध रूपी नदी की भाँति बहने लगीं। यूरोप में एक प्रगतिशील बौद्धिक जागृति का उदय हुआ, जिसने परम्परागत ज्ञान तथा पुराने दोषों अथवा अन्धविश्वासों का परिहास एवं निन्दा करते हुए उन्हें चुनौती दी।"

(5) तात्कालिक कारण- 

धर्म सुधार आन्दोलन का तात्कालिक कारण थाचर्च द्वारा खुलेआम 'क्षमापत्रों की बिक्री करना। इन क्षमापत्रों का उद्देश्य किसी पापी को उसके द्वारा किए गए पाप से मुक्त करना था। कोई भी व्यक्ति अपने पापों से मुक्ति पाने के लिए पोप को धन देकर क्षमापत्र खरीद सकता था, क्योंकि पोप ने जनता को यह विश्वास दिला दिया था कि चाहे उनका व्यक्तिगत जीवन कितना ही भ्रष्ट अथवा दूषित क्यों न हो, क्षमापत्रों की प्राप्ति के बाद उन्हें नरक की यातनाएँ नहीं भोगनी पड़ेंगी, अपितु उन्हें स्वर्ग प्राप्त होगा। इन क्षमापत्रों का कोई मूल्य निश्चित नहीं किया गया था, अपितु यह खरीदने वाले की क्षमता पर निर्भर करता था। इस प्रथा का समाज में खुलेआम दुरुपयोग होने लगा। पापों से मुक्ति प्रदान करने के नाम पर चर्च क्षमापत्रों को अधिकाधिक कीमत पर खुले रूप में बेचने लगा। धनी व्यक्ति अधिकाधिक धन देकर इन क्षमापत्रों को खरीदने लगे। पोप ने टिटजेल नामक एजेण्ट को इस कार्य के लिए नियुक्त किया था। टिटजेल ने क्षमापत्रों की बिक्री करके बड़ी मात्रा में धनराशि एकत्र कर ली। जब वह जर्मनी के विटेनबर्ग में क्षमापत्रों की खुलेआम बिक्री करने लगा, तो मार्टिन लूथर ने इस प्रथा का विरोध करने का संकल्प लिया और '95 प्रसंगों के माध्यम से चर्च की इस कुप्रथा के विरुद्ध विद्रोह का झण्डा खड़ा कर दिया।

धर्म सुधार आन्दोलन के परिणाम (प्रभाव)अथवा धर्म सुधार आन्दोलन का महत्त्व

यूरोप में धर्म सुधार आन्दोलन का बड़ा महत्त्व है। इसने सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, धार्मिक व सांस्कृतिक व्यवस्था में क्रान्तिकारी परिवर्तन किए। यूरोप में आधुनिकीकरण की लहर को बढ़ावा देने वाला धर्म सुधार आन्दोलन ही एक कारण था। यदि हम 1517 ई. से लेकर 1618 ई. तक की राजनीतिक या धर्म सम्बन्धी घटनाओं का सिंहावलोकन करें, तो हमें धार्मिक आन्दोलनों के कुछ परिणाम या प्रभाव स्पष्टतया दिखाई पड़ते हैं। संक्षेप में, धार्मिक आन्दोलनों के परिणाम (प्रभाव) निम्नांकित हैं


(1) धर्म सुधार आन्दोलन के फलस्वरूप उत्तरी यूरोप प्रोटेस्टैण्ट हो गया तथा दक्षिणी और पश्चिमी यूरोप पूर्ववत् कैथोलिक बना रहा।


(2) धार्मिक क्षेत्र में कैथोलिकों और प्रोटेस्टैण्टों के मध्य भयंकर मतभेद व पारस्परिक वैमनस्य उत्पन्न हो गया। इन मतभेदों के होते हुए भी प्रोटेस्टैण्टों एवं कैथोलिकों में काफी साम्य था। यह शत्रुतापूर्ण घृणा तीस वर्षीय युद्ध के काल (1618-1648 ई.) में चरम सीमा पर पहुँच गई। जर्मनी में तीस वर्षीय युद्ध बड़ी भयंकरता व निर्दयता के साथ हुआ।


(3) धार्मिक आन्दोलन के परिणामस्वरूप यूरोप के राष्ट्रों में सुदृढ़ राजतन्त्रों का विकास सम्भव हो सका। अपने अधिकारों की वृद्धि एवं सुदृढ़ राष्ट्रीयकरण के उद्देश्यों से प्रेरित होकर राजाओं ने धार्मिक मतभेद या असहिष्णुता का कठोरतापूर्वक दमन किया।


(4) यद्यपि प्रारम्भ में धार्मिक आन्दोलनों के परिणामस्वरूप बड़ी धार्मिक कट्टरता, असहिष्णुता व शत्रुता उत्पन्न हुई, परन्तु कालान्तर में शनैः-शनैः यूरोप के विविध धार्मिक सम्प्रदायों में पारस्परिक सहिष्णुता, उदारता व सद्भावना का संचार हुआ।


(5) इन आन्दोलनों के परिणामस्वरूप ईसाइयों का नैतिक जीवन समुन्नत हुआ। यद्यपि कैथलिक देशों में कला का विकास होता रहा, परन्तु प्रोटेस्टैण्ट देशों में कला की अवनति होने लगी। एक ओर कैथलिक देशों ने 'चुडैल विद्या' (Witch Craft) का परित्याग किया, वहीं दूसरी ओर दुर्भाग्य से प्रोटेस्टैण्ट देशों में 'चुडैल विद्या' के प्रति आस्था बढ़ने लगी। इस अन्धविश्वास के भयंकर दुष्परिणाम हुए।


(6) धार्मिक आन्दोलनों के परिणामस्वरूप सांस्कृतिक क्षेत्र में स्वतन्त्र वातावरण का विकास हुआ। अब स्वतन्त्र विचारों की अभिव्यक्ति होने लगी। इन आन्दोलनों का शिक्षा के विकास पर भी प्रभाव पड़ा।


(7) धार्मिक आन्दोलनों के परिणामस्वरूप लोगों में राष्ट्रीयता की भावना जाग्रत हुई।


(8) कुछ विद्वानों के मतानुसार धार्मिक आन्दोलनों के परिणामस्वरूप आधुनिक लोकतन्त्र का विकास हुआ। इस कथन में आंशिक सत्यता है।।