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Published in JournalYear: Apr, 2019 Article Details
रचनाकर्ता: मुंशी प्रेमचंदरचनाकार परिचय प्रेमचंद-जीवन परिचय हिन्दी गद्य-साहित्य के पितामह मुन्शी प्रेमचंद का जन्म 31 जुलाई, 1880 को वाराणसी के निकट लमही गाँव में माता आनन्दी देवी व पिता मुंशी अजायबराय के यहाँ हुआ। उनके पिता लमही में डाकमुंशी थे। जीवन की आरम्भिक अवस्था से ही प्रेमचंद को जीवन-संघर्षों से जूझना पड़ा। मात्र सात वर्ष की आयु में उनकी माता तथा चौदह वर्ष में पिता का देहान्त हो गया। गृहस्थी का जुआ पन्द्रह वर्ष की आयु में ही पड़ गया जब उनका पहला विवाह हुआ था जो असफल रहा। बाद में आर्य समाज से अत्यधिक प्रभावित प्रेम चंद ने 1906 में बाल-विधवा शिवरानी देवी से दूसरा विवाह किया जो बहुत सफल रहा तथा इनके यहाँ दो बेटे श्रीपत राय और अमृतराय व एक बेटी कमला देवी हुए। पढ़ने का शौक उन्हें बचपन से ही लग गया था, 13 साल की उम्र में ही उन्होंने 'तिलिस्मे होशरूबा' के साथ उर्दू के जाने-माने रचनाकारों, यथा- रतननाथ 'शरसार', मिरजा रुसबा और मौलाना शरर के उपन्यास पढ़ लिए थे। प्रेम चंद की आरंभी शिक्षा उर्दू, फ़ारसी में हुई। 1898 में मैट्रिक करने के बाद एक स्थानीय विद्यालय में वे शिक्षक के तौर कार्यरत हो गए और साथ ही अपनी शिक्षा भी जारी रखी। 1910 में इंटर पास किया और 1919 में बी. ए. करने के बाद शिक्षा विभाग में इंस्पैक्टर पद पर इनकी नियुक्ति हो गई। तभी इनकी एक पुस्तक 'सोज़े-वतन' प्रकाशित हुई जिस पर सरकार ने जनता को भड़काने का आरोप लगाया तथा इसकी सभी प्रतियां ज़ब्त करके जला दी गई साथ ही उन्हें यह चेतावनी भी दी कि आगे से ऐसा कुछ न लिखें,यदि उन्होंने फिर से ऐसा कुछ लिखा तो जेल भेज दिया जाएगा। तब तक प्रेमचंद अपने मूल नाम धनपत राय से ही लिखते थे। तभी प्रेमचंद के प्रिय मित्र व उर्दू की पत्रिका 'ज़माना' के सम्पादक मुंशी दयानारायण निगम ने उन्हें नए नाम 'प्रेमचंद' से लिखने का परामर्श दिया और तभी से उन्होंने इसी नाम से 'ज़माना’ पत्रिका से ही अपने नए लेखन की शुरुआत की। उनकी साहित्यिक यात्रा का लेख-जोखा करें तो यह 1901 से आरम्भ होकर 1936 तक सतत चलती है। प्रेमचंद की पहली रचना (अनुपलब्ध) एक व्यंग्य लेख थी जो उन्होंने अपने मामा पर लिखा थी और पहला उपलब्ध लेखन उर्दू भाषा में लिखा उपन्यास 'असरारे मआबिद' है, इसके बाद 'हमखुर्मा व हमसवाब' दूसरा उपन्यास भी उर्दू में था जिसका हिंदी रूपांतरण 'प्रेमा' नाम से 1907 में किया गया। उनका पहला कहानी संग्रह 'सोज़े-वतन' जो 1908 में प्रकाशित हुआ और देशभक्ति से ओतप्रोत इस पुस्तक को अंग्रेज़ी सरकार ने न केवल प्रतिबंधित करके सभी प्रतियां नष्ट करवा दी अपितु ऐसा लेखन न करने की चेतावनी दी जिसने एक सशक्त कहानीकार व गद्य लेखक 'प्रेमचंद' को जन्म दिया। इस नाम से उनकी पहली कहानी 'बड़े घर की बेटी' का प्रकाशन 'ज़माना' (उर्दू) पत्रिका के दिसंबर, 1910 के अंक में किया गया। प्रेम चंद ने हिन्दी कहानी को एक ऐसे पड़ाव पर ला खड़ा किया जहाँ से इसकी विविध धाराओं को मापा जा सके। कहानी मूल्यांकन में प्रेमचंद की कहानियाँ मील का पत्थर साबित होती हैं क्योंकि जब भी कथा-साहित्य पर आलोचनात्मक विवेचन किया जाता है तो प्रेमचंद-पूर्व या प्रेमचंद के बाद के तथ्यों को ही आलोचक दृष्टिगत रखते हैं।हिन्दी में उनकी प्रथम कहानी 'सौत' 'सरस्वती' पत्रिका के दिसंबर 1915 अंक में प्रकाशित हुई थी और इसके बाद अक्टूबर 1936 तक की 20 वर्ष की अवधि में उन्होंने कुल 300 से कुछ अधिक कहानियाँ, 15 उपन्यास, 3 नाटक, 10 अनुवाद, 7 बाल-पुस्तकों से हिन्दी साहित्य को अनुपम भेंट देकर समृद्ध किया। वस्तुतः इनके बाद भारतीय साहित्य में जितने भी विविधायामी विमर्श साहित्य-पटल पर उभरे हैं, उनका मूल स्रोत प्रेमचंद साहित्य से ही प्रस्फुटित होता दिखाई पड़ता है। प्रेमचंद आधुनिक गद्य-साहित्य के सुदृढ़ स्तम्भ रहे हैं। 'असरारे मआबिद' उनका पहला व दूसरा 'हमखुर्मा व हमसवाब' उपन्यास उर्दू भाषा में लिखे गए। उनके सम्पूर्ण कथा साहित्य को 'मानसरोवर' श्रृंखला से 8 खंडों में प्रकाशित किया गया। प्रेमचंद भारतीय चेतना के रचनाकार थे जो साहित्य को राजनीति की मार्गदर्शिका मशाल की तरह समझते थे। अपनी राष्ट्रवादी चेतना से अभिभूत हो कर महात्मा गांधी द्वारा युवा शक्ति के आह्वान पर वे 1921 में नौकरी छोड़ कर साहित्य-सेवा में जुट गए। कुछ समय 'मर्यादा' पत्रिका का सम्पादन-कार्यभार संभाला। इसके बाद 'माधुरी' पत्रिका का छः वर्ष सम्पादन किया और 1930 में वाराणसी से मासिक पत्रिका 'हंस' स्वयं आरम्भ की जिसे अपने जीवन की कठिन परिस्थितियों में भी चलाए रखने के सफल प्रयास आजीवन जारी रखे। इसके साथ ही 1932 में एक साप्ताहिक पत्र 'जागरण' भी निकाला। प्रेमचंद ने आरंभ में अध्यापन और बाद में लेखन को ही अपनी जीविका का साधन बनाया। उन्होंने मोहन भवनानी की सिनेमा कंपनी 'अजंता सिनेटोन कंपनी' में कथा लेखन की नौकरी की। 'मजदूर' फ़िल्म की कहानी प्रेम चंद ने लिखी थी जिसके लिए इन्हें एक वर्ष के कांट्रेक्ट पर रखा गया था परन्तु बम्बई के फ़िल्मी माहोल से तालमेल न बैठा पाने की वजह से नौकरी की परवाह किए बिना वेतन छोड़ दो माह पहले ही वाराणसी वापस आ गए और अपनी स्वतन्त्र साहित्य-साधना में संलग्न हो गए। उन्होंने इस साधना में अपने शरीर और स्वास्थ्य की भी अवहेलना की और जीवन के अंतिम दिनों में वे गंभीर रुप से बीमार रहने लगे; जीवन के इन दिनों में ही उनके उपन्यास 'मंगलसूत्र' का लेखन चल रहा था कि 8 अक्टूबर, 1936 को कलम का यह अथक सिपाही ‘मंगलसूत्र’ बीच में अधूरा ही छोड़ कर किसी ऐसी चिर यात्रा पर निकल पड़ा जहाँ से कोई लौट कर कभी नहीं आता, निस्संदेह प्रेम चंद ने हिन्दी साहित्य में अपनी वह गहरी छाप अंकित की जिससे आने वाली अनगिनत पीढ़ियाँ युगों-युगों तक उन्हें अपने हृदय-पटल पर ज़िंदा रखेंगी। प्रेमचंद ने कुल करीब तीन सौ कहानियां, एक दर्जन उपन्यास और कई लेख लिखे। उन्होंने कुछ नाटक भी लिखे और कुछ अनुवाद कार्य भी किया। प्रेमचंद की कई साहित्यिक कृतियों का अंग्रेज़ी, रूसी, जर्मन सहित अनेक भाषाओं में अनुवाद हुआ। 'गोदान' उनकी कालजयी रचना है, 'कफ़न' उनकी अंतिम कहानी मानी जाती है। उन्होंने हिंदी और उर्दू में पूरे अधिकार से लिखा। उनकी कई रचनाएं मूल रूप से उर्दू में लिखी गई हैं लेकिन उनका प्रकाशन हिंदी में पहले हुआ। तैंतीस वर्षों के रचनात्मक जीवन में वे साहित्य की ऐसी विरासत सौंप गए जो गुणों की दृष्टि से अमूल्य है। प्रेमचन्द की रचना धर्मिता बहु आयामी रही है उनकी कलम से उपन्यास, कहानी, नाटक, समीक्षा, लेख, सम्पादकीय, संस्मरण आदि अनेक विधाओं में सशक्त रचनाएँ आई। साहित्य में उनकी प्रसिद्धि कथाकार के तौर पर हुई ही साथ ही उन्हें ‘उपन्यास सम्राट’ की उपाधि से सम्मानित किया गया। कई साहित्यिक पत्रिकाओं का सम्पादन करते हुए कई लेख, सम्पादकीय, भाषण, भूमिका, पाठकों व लेखकों के पत्रों में भी प्रेम चंद की गहन साहित्यिक प्रवृति ही दिखाई पड़ती है। सही मायनों में उनके व्यक्तित्व का आंकलन करें तो पाएंगे कि उनका जीवन समग्र रूप से साहित्य और उसके सरोकारों को ही समर्पित रहा है। प्रगतिशील विचारधारा के पोषक मुन्शी प्रेम चंद देश की दारुण स्थितियों से जन-जन को रूबरू करवाते हुए उन्हें विकट यथास्थिति से जूझने के विकल्प भी अपनी कहानियों व उपन्यासों के ताने-बाने में प्रस्तुत करते रहे हैं। उनकी रचनाशीलता ग़रीब, पिछड़े, उपेक्षित और शोषित वर्ग के लिए तन मन से समर्पित रही। अपने जीवन के अंतिम वर्ष में उन्होंने प्रगतिवादी लेखक संघ की स्थापना की जिसके वे प्रथम अध्यक्ष बने। गद्य साहित्य में उनकी प्रसिद्धि का आधार हिन्दी और उर्दू भाषा के उपन्यास और कहानियाँ ही हैं चाहे उन्होंने नाटक और व्यंग्य भी लिखे। उपन्यास: उनके उपन्यास न केवल हिन्दी साहित्य में अपितु भारतीय भाषाओं के समग्र साहित्य के प्रकाश स्तम्भ हैं। देखने में आता है की कोई भी गद्य रचनाकार कहानी से लेखन आरम्भ करके उपन्यास-लेखन की ओर बढ़ता है किन्तु प्रेम चंद ही ऐसी विलक्षण प्रतिभा के धनी रहे हैं जिन्होंने उपन्यास के बाद कहानी को लिखना शुरू किया और उसे कहानी-कला की उत्कृष्ट ऊंचाइयों पर पहुंचाया। उनके उपन्यास हैं- ‘असरारे मआबिद' उर्फ़ देवस्थान-रहस्य’(अपूर्ण) उर्दू के साप्ताहिक 'आवाज-ए-खल्क़' में 1905 तक धारावाहिक रूप में प्रकाशित, 'हमखुर्मा व हमसवाब' जिसका हिंदी रूपांतरण 'प्रेमा' नाम से 1907 में प्रकाशित, 'सेवासदन' 1918(वैसे इसे मूलतः उर्दू के 'बाजारे-हुस्न' का हिंदी रूपांतरण भी माना गया है।), 'प्रेमाश्रम' 1921(इसे भी पहले उर्दू में 'गोशाए-आफ़ियत की तर्ज़ पर माना गया जो किसान जीवन पर आधारित है।),'रंगभूमि'(1925), 'कायाकल्प'(1926), 'निर्मला' (1927), 'ग़बन' (1931), 'कर्मभूमि'(1932) और उनका कालजयी उपन्यास 'गोदान'(1936) एवं अंतिम उपन्यास मंगलसूत्र अधूरा ही रहा जिसे उनकी मृत्यु के बाद उनके बेटे अमृतराय ने पूरा किया। प्रेमचंद के उपन्यासों में ग्रामीण जीवन को समग्रता में लिया गया है। गोदान को उनकी उपन्यास शैली की उत्कृष्टता माना गया है जिसमें नायक होरी कृषक वर्ग का पूर्णतयः प्रतिनिधित्व करता है। प्रेमचंद का गोदान न केवल भारतीय परिवेश में ही सीमित रहा अपितु यह विश्व की एक कालजयी धरोहर बन गया जिसका भाष्य रूपांतरण विश्व की अनेक भाषाओं में हुआ है। कहानी 'प्रेमचंद कहानी रचनावली' में डॉ. कमलकिशोर गोयनका ने प्रेमचंद की संपूर्ण हिंदी-उर्दू कहानियों को संकलित किया है जिसमें कुल ३०१ कहानियाँ थी इसमें से 3 कहानियाँ अभी अप्राप्य हैं। इसके अतिरिक्त 'मानसरोवर' शीर्षक से 8 भागों में प्रेमचंद की 300 कहानियाँ उनकी मृत्यु के बाद प्रकाशित हुई। उनका पहला कहानी-संग्रह ‘सोज़े वतन' जून 1908 में प्रकाशित हुआ और इसी संग्रह की पहली कहानी 'दुनिया का सबसे अनमोल रतन' को उनकी पहली प्रकाशित कहानी माना जाता है। किन्तु डॉ गोयनका 'ज़माना' के अप्रैल अंक में प्रकाशित कहानी 'इश्के दुनिया और हुब्बे वतन''(सांसारिक प्रेम और देश-प्रेम) को उनकी पहली प्रकाशित कहानी मानते है। प्रेमचंद के अपने जीवन-काल में नौ कहानी-संग्रह प्रकाशित हुए- 'सप्त सरोज', 'नवनिधि', 'प्रेमपूर्णिमा', 'प्रेम-पचीसी', 'प्रेम-प्रतिमा', 'प्रेम-द्वादशी', 'समरयात्रा', 'मानसरोवर' : भाग एक व दो, और 'कफ़न' प्रकाशित हुए। प्रेमचंद की कहानियाँ विविध विषय और शिल्प की हैं। विविध वर्गीय जन-मानस के साथ पशु-पक्षियों को भी कहानियों के पात्र बनाया। भारतीय समाज के यथार्थ चित्रण में उन्होंने किसानों, मज़दूरों, स्त्रियों, दलितों के विभिन्न सरोकारों व समस्याओं को गंभीरता से चित्रित किया। उनकी कहानियाँ समाजसुधार, देशप्रेम, स्वाधीनता संग्राम से संबंधित रही व इनमें ऐतिहासिक तथा प्रेम-संबंधी कहानियाँ काफ़ी चर्चित हुई। उनकी पाठकों के मन-मानस पर अंकित कालजयी कहानियाँ हैं- 'कफ़न', 'ठाकुर का कुआँ', 'सद्गति', 'बूढ़ी काकी', 'दो बैलों की कथा', 'ईदगाह', 'बडे भाई साहब', 'पंच परमेश्वर', 'गुल्ली डंडा','पूस की रात', 'तावान', 'विध्वंस', 'दूध का दाम', 'मंत्र' आदि। इनमें से अधिकतर कहानियां स्कूली पाठ्यक्रम में सम्मिलित हैं। नाटक प्रेमचंद का नाट्य शिल्प भी उत्कृष्ट माना जाता है। उनकी लेखनी जिस भी विधा पर चली समाज कल्याण की उदात्त चेतना को दृष्टिगत रखते हुए नए प्रतिमान पैदा कर गई, बेशक नाटक में भी उनकी उपन्यास शैली का प्रभाव कहीं न कहीं दिखाई पड़ता है। उनके प्रसिद्ध नाटक हैं- 'संग्राम' (1923), 'कर्बला' (1924), और 'प्रेम की वेदी' (1933) लेख/निबंध साहित्य के सजग सिपाही प्रेमचंद के लेख व निबंध सामाजिक एवं साहित्यिक सरोकारों को उजागर करने वाले संवेदनशील कृतिकार की ऐसी अभिव्यक्तियाँ हैं जो सामान्य-जन को यथास्थिति से निजात पाने के लिए प्रेरित करती हैं। ये अधिकतर उन द्वारा संपादित पत्र-पत्रिकाओं में लिखे गए सम्पादकीय अथवा विशिष्ट सन्दर्भों पर लेख आदि हैं। ये अक्सर उन्होंने 'हंस', 'माधुरी', 'जागरण' में जिनका संपादन प्रेमचंद ने किया तथा अन्य साहित्यिक पत्रिकाओं यथा-'चांद', 'मर्यादा', 'स्वदेश' आदि में समय-समय पर प्रकाशित होते रहे हैं, जिन्हें उनके बेटे अमृत राय ने 'प्रेम चंद : विविध प्रसंग' (तीन भाग) में प्रकाशित करवाया। इसके साथ ही प्रेमचंद के लेख प्रकाशन संस्थान से 'कुछ विचार' शीर्षक से भी प्रकाशित हुए हैं। इनमें प्रमुख हैं-'पुराना ज़माना नया ज़माना', 'स्वराज के फ़ायदे', 'कहानी कला' (1,2,3), 'साहित्य का उद्देश्य', 'कौमी भाषा के विषय में कुछ विचार', 'हिंदी-उर्दू की एकता', 'महाजनी सभ्यता', 'उपन्यास', 'जीवन में साहित्य का स्थान' आदि। अनुवाद प्रेमचंद को जितनी साहित्य-लेखन में रूचि थी उतनी ही साहित्य-पठन में भी थी, दूसरी भाषाओं के साहित्य-पठन न केवल उनका शौक था अपितु अन्य भाषा की अच्छी रचनाओं को अनुवादित करके प्रकाशित करना भी उनकी रूचि में शामिल था। उन्होंने जिन कृतियों का अनुवाद किया वे हैं- विदेशी साहित्य में 'टॉलस्टॉय की कहानियां' (1923), गाल्सवर्दी के तीन नाटकों का 'हडताल' (1930), 'चांदी की डिबिया' (1931) और 'न्याय' (1931) और सरशार के उर्दू उपन्यास 'फ़साना-ए-आज़ाद' का हिंदी अनुवाद 'आजाद कथा' के रूप में किया। प्रेम चंद ने हिन्दी कहानी को राजा-रानी के किस्सों से निकाल कर सत्य के कठोर यथार्थ पर ला खड़ा किया। अपने समय की सच्चाइयों में उन्होंने समाज में व्याप्त सांप्रदायिकता, भ्रष्टाचार, ज़मींदारी, कर्ज़खोरी, ग़रीबी, उपनिवेशवाद, और दैन्यता की ऐसी कहानियाँ हैं जिनके नायक समाज में उपेक्षित, अछूत व घृणित माने जाते रहे हैं। वस्तुतः प्रेमचंद एक लेखक या साहित्यिक रचनाकार को प्रगतिशील प्रवृत्ति का मानते हैं और प्रगतिशीलता ही किसी व्यक्ति के लेखक होने की पहचान होती है। ये भाव उन्होंने 1936 में प्रगतिशील लेखक संघ के पहले सम्मेलन की अध्यक्षता करते हुए व्यक्त किए थे। प्रेमचंद ने कथा-कहानी को खास मुहावरा और खुलापन दिया आजीवन ऐसी रचनाएँ की जो आदर्शोन्मुखी यथार्थवाद पर आधारित थी और इसी आदर्शोन्मुखी यथार्थवाद की नई परम्परा ने प्रेमचंद को कथा-साहित्य में अमर बना दिया। प्रेमचंद स्वाभाव से ही प्रगतिशील प्रकृति के थे, उन्होंने उस समय प्रगतिशील रचनाएं की जब हिन्दी साहित्य में केवल किस्से-कहानियाँ व आदर्शवादी रचनाएँ ही लिखी जाती थी, ऐसे में 'गोदान' जैसी विश्व-क्लासिकल रचना प्रेम चंद की इसी मूलभूत प्रवृत्ति की देन ही है। प्रेमचंद को बंगला-साहित्य के बंकिम बाबू, शरतचंद्र और इसके अलावा टॉलस्टॉय जैसे रुसी साहित्यकारों के साहित्य से बहुत लगाव था। मुंशी प्रेम चंद एक ऐसी भारतीय आत्मा थे जो अपनी दिन-दैन्य के अभावों, समस्याओं से जूझते हुए कभी-कभी अपनी रचनाशीलता में दृढ़ता से तोड़ी जानेवाली धारणाओं के साथ समझौता करने पर मजबूर भी हो जाते थे जैसे बेटी की बीमारी पर झाड़-फूँक करवाना और मज़दूर के पक्षधर होते हुए भी कभी न चाहते हुए भी उन्हें अपनी प्रेस मज़दूरों की हड़ताल का सामना करना पड़ता रहा है। (कमलकिशोर गोयनका ने अपनी पुस्तक 'प्रेमचंद : अध्ययन की नई दिशाएं' में) उनके साहित्य में अनुभूत सच्चाइयों का यथार्थ अंकन हुआ है। प्रेमचंद ने हिन्दी में कहानी की एक ऐसी परंपरा को जन्म दिया जो आगामी कई पीढ़ियों की पथ प्रदर्शक बनी। जिस ग्रामीण चित्रण की यथार्थ अभिव्यक्ति गोदान में हुई उसे आंचलिक उपन्यासों में रेणु, नागार्जुन औऱ इनके बाद श्रीनाथ सिंह जैसे रचनाकारों ने आगे बढ़ाया। आज के साहित्य में नारी विमर्श, दलित विमर्श साहित्यिक धाराओं का उद्गम स्रोत प्रेमचंद का कथा-साहित्य ही है। प्रेमचंद हिन्दी साहित्य व भारतीय सन्दर्भों में ऐसे रचे-बसे कि प्रसिद्ध सिने निर्माता सुब्रमण्यम ने 1936 में 'सेवासदन' उपन्यास पर फ़िल्म बनाई,1963 में 'गोदान' और 1966 में 'ग़बन' उपन्यास पर लोकप्रिय फ़िल्में बनीं और सत्यजित राय ने 1977 में शतरंज के खिलाड़ी व 1981 में सद्गति उनकी दो कहानियों पर यादगार फ़िल्में बनाईं। 1977 में मृणाल सेन ने प्रेमचंद की कहानी 'कफ़न' पर आधारित ओका ऊरी कथा नाम से एक तेलुगू फ़िल्म बनाई जिसको सर्वश्रेष्ठ तेलुगू फ़िल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला। 1980 में उनके उपन्यास पर बना टीवी धारावाहिक 'निर्मला' भी बहुत लोकप्रिय हुआ था। वैसे तो कथा-साहित्य में प्रेमचंद का नाम किसी पुरस्कार या सम्मान का मोहताज नहीं है अपितु सम्मान प्रेमचंद के नाम से जुड़ कर महत्त्वपूर्ण हो जाते हैं। प्रेमचंद की स्मृति में भारतीय डाकतार विभाग ने 31 जुलाई 1980 को उनकी जन्मशती के अवसर पर 30 पैसे मूल्य का एक डाक टिकट जारी किया। गोरखपुर के उस स्कूल में साहित्य-संस्थान की स्थापना की गई है जहाँ प्रेमचंद पढ़ाते थे। प्रेमचंद की 125वीं सालगिरह पर सरकार द्वारा लमही गाँव में प्रेमचंद के नाम पर एक स्मारक तथा शोध एवं अध्ययन संस्थान बनाया गया। प्रेमचंद की पत्नी शिवरानी देवी ने 1944 में उनकी जीवनी लिखी जिसमें उनके व्यक्तित्व के अनछुए पहलुओं का समावेश किया गया था जिसका पुनः प्रकाशन 2005 में संशोधित करके उनके नाती प्रबोध कुमार ने किया, बाद में इसका अँग्रेज़ी व उर्दू में अनुवाद भी प्रकाशित किया गया। अमृत राय ने 'कलम का सिपाही' नाम से पिता की जीवनी लिखी है। प्रेम चंद की साहित्यिक कृतियाँ उपन्यास: ‘असरार-ए-मआबिद’ उर्फ़ ‘देवस्थान रहस्य’ उर्दू साप्ताहिक ‘'आवाज-ए-खल्क़'’ में 8 अक्तूबर, 1903 से 1 फरवरी, 1905 तक प्रकाशित,’ 'किश्ना' (अनुपलब्ध,1907), रूठी रानी (1907) 'ज़माना' में धारावाहिक रूप में प्रकाशित, 'वरदान'(1912), 'सेवासदन'(1918), प्रेमाश्रम(1922), रंगभूमि(1925), निर्मला (1925) कायाकल्प(1927), प्रतिज्ञा (1927) ग़बन (1928), कर्मभूमि (1932), गोदान (1936) मंगलसूत्र (अधूरा,1936)| कहानी संग्रह : नौ कहानी संग्रह प्रकाशित हुए- 'सप्त सरोज', 'नवनिधि', 'प्रेमपूर्णिमा', 'प्रेम-पचीसी', 'प्रेम-प्रतिमा', 'प्रेम-द्वादशी', 'समरयात्रा' व 'मानसरोवर' शीर्षक से 8 भागों में 300 कहानियाँ| लघु कथाएँ : 'राष्ट्र का सेवक','दयामय की दया'। नाटक: 'संग्राम' (1923), 'कर्बला' (1924), और 'प्रेम की वेदी' (1933), 'दृष्टि'| जीवनी: 'महात्मा शेख सदी', 'दुर्गादास', 'जीवन सार' (आत्म-कथा)। बाल साहित्य : 'राम चर्चा', 'जंगल की कहानियाँ', 'कुत्ते की कहानी','मनमोदक' लेख व निबंध : 'प्रेम चंद : विविध प्रसंग' (तीन भाग), ‘कलम त्याग और तलवार’| इनमें प्रमुख हैं-'पुराना ज़माना नया ज़माना', 'स्वराज के फ़ायदे', 'कहानी कला' (1,2,3), 'साहित्य का उद्देश्य', 'कौमी भाषा के विषय में कुछ विचार', 'हिंदी-उर्दू की एकता', 'महाजनी सभ्यता', 'उपन्यास', 'जीवन में साहित्य का स्थान' आदि। अन्य: 'घृणा का स्थान', 'पत्र ' अनुवाद : विदेशी साहित्य में 'अहंकार' (1880)फ्रेंच भाषा से अनुवादित 'टॉलस्टॉय की कहानियां' (1923), गाल्सवर्दी के तीन नाटकों का 'हडताल' (1930), 'चांदी की डिबिया' (1931) और 'न्याय' (1931), 'तालस्ताय की कहानियाँ' और सरशार के उर्दू उपन्यास 'फ़साना-ए-आज़ाद' का हिंदी अनुवाद 'आज़ाद कथा'| प्रमुख कहानियाँ: 'आहूति', 'कफ़न', 'एक चिंगारी घर को जला देती है', 'कश्मीरी सेब', 'क्षमा दान', जुर्माना', 'जीवन सार', 'दो वृद्ध पुरुष', 'तथ्य', 'दुनिया का सबसे अनमोल रत्न', 'ध्रुव निवासी रीछ का शिकार', 'दो बहनें', 'नादान दोस्त', 'प्रेम में परमेश्वर', 'पंडित मोटे राम की डायरी', प्रेम की होली', 'पागल हाथी', 'मनुष्य का जीवन आधार क्या है', 'मिट्ठू', 'मेरी पहली कहानी', 'मूर्ख सुमन्त', 'यह भी नशा वह भी नशा', 'रक्षा की हत्या', 'यही मेरा वतन', 'राजपूत क़ैदी', 'शेख मख़मूर', 'लेखक', 'शोक का पुरस्कार', 'दयामय की दया', 'सैलानी बन्दर', सांसारिक प्रेम और देश प्रेम', 'होली का उपहार', 'ठाकुर का कुआँ', 'सद्गति', 'बूढ़ी काकी', 'दो बैलों की कथा', 'ईदगाह', 'बडे भाई साहब', 'पंच परमेश्वर', 'गुल्ली डंडा','पूस की रात', 'तावान', 'विध्वंश', 'दूध का दाम', 'मंत्र'। मुंशी प्रेमचंद की सभी कहानियों के संग्रह का क्या नाम है?उन्होंने सेवासदन, प्रेमाश्रम, रंगभूमि, निर्मला, गबन, कर्मभूमि, गोदान आदि लगभग डेढ़ दर्जन उपन्यास तथा कफन, पूस की रात, पंच परमेश्वर, बड़े घर की बेटी, बूढ़ी काकी, दो बैलों की कथा आदि तीन सौ से अधिक कहानियाँ लिखीं। उनमें से अधिकांश हिन्दी तथा उर्दू दोनों भाषाओं में प्रकाशित हुईं।
प्रेमचंद के कहानी संग्रहों के कितने भाग है?मानसरोवर (कथा संग्रह) प्रेमचंद द्वारा लिखी गई कहानियों का संकलन है। उनके निधनोपरांत मानसरोवर नाम से ८ खण्डों में प्रकाशित इस संकलन में उनकी दो सौ से भी अधिक कहानियों को शामिल किया गया है।
प्रेमचंद के उर्दू कहानी संग्रह का क्या नाम है?उनका पहला उपलब्ध लेखन उनका उर्दू उपन्यास 'असरारे मआबिद' है। प्रेमचंद का दूसरा उपन्यास 'हमखुर्मा व हमसवाब' जिसका हिंदी रूपांतरण 'प्रेमा' नाम से 1907 में प्रकाशित हुआ। इसके बाद प्रेमचंद का पहला कहानी संग्रह सोज़े-वतन नाम से आया जो १९०८ में प्रकाशित हुआ।
मुंशी प्रेमचंद की कुल कितनी रचनाएं हैं?उन्होंने कुल १५ उपन्यास, ३०० से कुछ अधिक कहानियाँ, ३ नाटक, १० अनुवाद, ७ बाल-पुस्तकें तथा हजारों पृष्ठों के लेख, सम्पादकीय, भाषण, भूमिका, पत्र आदि की रचना की। मंगलसूत्र उनकी एक अपूर्ण (अधूरी) रचना है।
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