मौर्य साम्राज्य में राज्य का प्रधान कौन होता है? - maury saamraajy mein raajy ka pradhaan kaun hota hai?

राजनीतिक एकीकरण का जो कार्य हर्यक वंशीय नरेशों ने प्रारम्भ किया था, उसे मोर्यों ने पूर्ण किया।

साहित्य

  • ब्राहृमण, बौद्ध तथा जैन साहित्य से मौर्यवंश के इतिहास पर प्रकाश डालते है।
  • ब्राहृमण-साहित्य में पुराण, कौटिल्य का अर्थशास्त्र, विशाखदत्त का मुद्राराक्षस नाटक आदि प्रमुख हैं।
  • बौद्ध ग्रन्थों में दीपवंश, महावंश, महावंश टीका, महाबोधिवंश, दिव्यावदान आदि प्रमुख हैं।
  • जैन ग्रन्थों में प्रमुख हैं – भद्रबाहु का कल्प सूत्र, हेमचन्द्र का परिशिष्ट पर्वन।

विदेशी विवरण

  • मौर्य-साम्राज्य का संस्थापक चन्द्रगुप्त मौर्य था।
  • यूनानी लेखक स्टै्रबो, एरियन, जस्टिन, इसे सैन्ट्रोकोट्स के नाम से पुकारते हैं।
  • एपिअन और प्लूटार्क इसे ऐन्ड्रोकोटस कहते हैं। फिलार्कस के लिये सैण्ड्रोकोप्टस है।
  • सर्वप्रथम सर विलियम जोंन्स ने सन् 1793 में इन नामों का समीकरण, भारतीय साहित्य में उल्लिखित चन्द्रगुप्त (मौर्य) के साथ किया।

ब्राह्मण साहित्य के साक्ष्य (41 B.C.)

  • ब्राह्मण साहित्य में सर्वप्रथम पुराणों का उल्लेख किया जा सकता है। पुराण नन्दों को ‘शुद्र’ कहते हैं।
  • विष्णु पुराण के एक भाष्यकार श्री धर स्वामी ने चन्द्रगुप्त को नन्दराज की पत्नी मुरा से उत्पन्न बताया है। उनके अनुसार मुरा की सन्तान होने के कारण ही, वह मौर्य कहा गया।
  • मुद्राराक्षस में चन्द्रगुप्त को नन्दराज का पुत्र कहा गया है। इसमें जो विवरण मिलता है उससे स्पष्ट हो जाता है, कि चन्द्रगुप्त नन्दराज का वैध पुत्र नहीं था, क्योंकि नाटक में ही नन्दवश को चन्द्रगुप्त का ‘पितृकुलभूत’ अर्थात पितृकुल बनाया गया पद उल्लिखित है।
  • इस ग्रन्थ में चन्द्रगुप्त को ‘वृषल’ तथा ‘कुलहीन’ कहा गया है।
  • जस्टिन ने चन्द्रगुप्त को Humble Origin का बताया है।
  • 11 वीं शदी र्इ. के दो संस्कृत ग्रन्थां सोमदेव कृत कथासरितसागर’ तथा क्षेमेन्द्र की वृहतकथामन्जरी में चन्द्रगुप्त की शुद्र उत्पत्ति के विषय में एक भिन्न विवरण मिलता है।
  • अर्थशास्त्र में चन्द्रगुप्त की जाति के सम्बन्ध में कुछ उल्लेख है तो वह उसकी उज्जजातीयता के ही द्योतक हैं।

बौद्ध साहित्य के साक्ष्य

  • बौद्ध ग्रन्थ मौर्यों को क्षत्रिय-जाति से सम्बन्धित करता हैं। यहां चन्द्रगुप्त ‘मोरिय’ क्षत्रिय वंश का कहा गया है। ये ‘मोरिय’ कपिलवस्तु के शाक्यों की ही एक शाखा थे। यह स्थान मोरों के लिए प्रसिद्ध था, अत: यहाँ के निवासी ‘मोरिय’ कहे गये।
  • महाबोधिवंश उसे राजकुल से सम्बन्धित (नरेन्द्रकुल संभवत) बताता है, जो मोरिय नगर में उत्पन्न हुआ था।
  • महावंश के अनुसार चन्द्रगुप्त ‘मोरिय’ नामक क्षत्रिय वंश में उत्पन्न हुआ था।
  • महापरिनिब्बान सुत्त में मौर्यों को पिप्पलिवन का शासक तथा क्षत्रिय वंश का कहा गया है।

जैन साहित्य का साक्ष्य

  • इसमें हेमचन्द्र का ‘परिशिष्ट पर्वन’ सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। इसमें चन्द्रगुप्त को मयूर पोषकों के ग्राम के ‘मुखिया की पुत्री का पुत्र’ बताया गया है।
  • आवश्यक सूत्र की हरिभद्रिय टीका में भी चन्द्रगुप्त को मयूर पोषकों के ग्राम के मुखिया के कुल में उत्पन्न कहा गया है।
  • इस प्रकार जैन तथा बौद्ध दोनों ही साक्ष्य मौर्यों को मयूर से सम्बन्धित करते हैं।
  • इस मत की पुष्टि अशोक के लौरियानन्दन गढ़ के नीचे के भाग में उत्कीर्ण मयूर की आकृति से भी हो जाती है।
  • सर्वप्रथम गुजनवेडेल महोदय ने यह बताया था, कि मयूर, मौर्यों का राजवंशीय चिन्ह था।
  • इसी कारण मौर्य युग की कलाकृतियों, में मयूरों का प्रतिनिधित्व देखनें को मिलता है।

प्रारम्भिक जीवन

  • चन्द्रगुप्त मौर्य का प्रारम्भिक जीवन अन्धकारपूर्ण है।
  • बौद्ध-ग्रन्थों के अनुसार चन्द्रगुप्त का पिता मोरिय नगर का प्रमुख था। जब वह अपनी माता के गर्भ में था, तभी उसके पिता की किसी सीमांत युद्ध में मृत्यु हो गयी।
  • उसकी माता अपने भाइयों द्वारा, पाटलिपुत्र में सुरक्षा के निमित्त पहुँचा दी गर्इ। यहीं चन्द्रगुप्त का जन्म हुआ। जन्म के साथ ही वह एक गोपालक को समर्पित कर दिया गया।
  • गोपालक ने बढ़ा होने पर, उसे एक शिकारी के हाथों बेच दिया। शिकारी के ग्राम में वह बड़ा हुआ तथा उसे पशुओं की देखभाल के लिए रख दिया गया।
  • अपनी प्रतिभा के कारण उससने शीघ्र ही, अपने समवयस्क बालकों में प्रमुखता हासिल कर ली। वह बालकों की मण्डली का राजा बनकर, उनके आपसी झगड़ों का फैसला किया करता था।
  • एक दिन जब वह ‘राजकीलम’ नामक खेल में व्यस्त था, चाणक्य उधर से जा रहा था। बालक के गुणों का चाणक्य ने अनुमान लगा लिया। उसने शिकारी को 1000 कार्षापण देकर, चन्द्रगुप्त को खरीद लिया।
  • महावंश-टीका का कथन है, कि चाणक्य तक्षशिला निवासी एक ब्राह्मण का पुत्र था। इसका मूल नाम विष्णुगुप्त था।
  • जैन ग्रन्थ परिशिष्टपर्वन और आवश्यक सूत्र के अनुसार उसकी पत्नी का नाम यशोमती था।
  • चन्द्रगुप्त के साथ चाणक्य तक्षशिला आया। तक्षशिला उस समय बिबा का प्रमुख केन्द्र था और चाणक्य वहाँ का आचार्य था, उसने चन्द्रगुप्त को सभी कलाओं तथा विद्याओं की विधिवत् शिक्षा दी।
  • चाणक्य ने जिस कार्य के लिए चन्द्रगुप्त को तैयार किया था उसके दो मुख्य उद्वेश्य थे।
  • यूनानियों के विदेशी शासन से देश को मुक्त कराना।
  • नन्दों के घृणित एवं अत्याचारपूर्ण शासन की समाप्ति करना।
  • चन्द्रगुप्त ने पहले पंजाब तथा सिन्ध को ही विदेशियों की दासता से मुक्त किया था। उसने इस कार्य के लिए एक विशाल सेना का संगठन किया। इस सेना के सैनिक अर्थशास्त्र के अनुसार निम्न वर्गों से लिये गये थे –
  • चोर 2. म्लेच्छ   3. चोर गण    4. आदविक   5.  शरत्रोपजीवी अंग
  • जस्टिन चन्द्रगुप्त की सेना को ‘डाकुओं का गिरोह कहता है।
  • मुद्राराक्षस तथा परिशिष्ट पर्वत से पता चलता है, कि चन्द्रगुप्त को पर्वतक नामक एक हिमालय क्षेत्र के शासक से सहायता प्राप्त हुर्इ थी।
  • 325 र्इसा पूर्व के लगभग ऊपरी सिन्धु के प्रमुख यूनानी क्षत्रप फिलिप द्वितीय की हत्या कर दी गयी।
  • चन्द्रगुप्त ने सर्वप्रथम एक सेना एकत्र कर अपने को राजा बनाया तथा फिर सिकन्दर के क्षत्रपों के विरूद्ध राष्ट्रीय युद्ध छेड दिया। 317 र्इसा पूर्व में पश्चिमी पंजाब का अन्तिम यूनानी सेनानायक यूडेमस भारत छोडने के लिए बाध्य हुआ और इस तिथि तक सम्पूर्ण सिन्ध तथा पंजाब के प्रदेशों पर, चन्द्रगुप्त का अधिकार हो चुका था।

नन्दों का उन्मूलन

  • मगध में इस समय घनन्द का शासन था।
  • घनानन्द सैनिक साधनों तथा सम्पत्ति के बावजूद भी जनता में लोकप्रियता अर्जित कर सकने में असफल रहा। यही उसकी सबसे बड़ी दुर्बलता थी।
  • उसने एक बार चाणक्य को भी अपमानित किया था, जिससे क्रुद्ध होकर, उसने नन्दों को समूल नष्ट कर देने की प्रतिज्ञा की थी।
  • प्लूटार्क के विवरण से पता चलता है, कि नन्दों के विरूद्ध सहायता-याचना के उद्वेश्य से चन्द्रगुप्त पंजाब में सिकन्दर से मिला था। डा. राय चौधरी ने इस कार्य की तुलना मध्ययुगीन भारत के राजपूत शासक राणा संग्राम से की है, जिसने इब्राहीम लोदी का तख्ता पलटने के लिए मुगल सम्राट बाबर को आमन्त्रित किया था।
  • सर्वप्रथम चन्द्रगुप्त ने नन्द-साम्राज्य के केन्द्रीय भाग पर आक्रमण किया, परन्तु सफलता नहीं मिली और उसकी सेना नष्ट भ्रष्ट हो गयी।
  • दूसरी बार सीमान्त प्रदेशों की विजय करते हुए, नन्दों की राजधानी पर धावा बोला। अन्तत: घननन्द मार डाला गया और चन्द्रगुप्त का मगध साम्राज्य पर अधिकार हो गया। यह उसकी दूसरी सफलता थी।

सेल्यूकस के विरूद्ध युद्ध   

  • सिकन्दर की मृत्यु 323 र्इसा पूर्व में हो गयी। इसके बाद उसके सेनापति सेल्यूकस ने शासन संभाला।
  • सेल्यूकस ने 305 र्इसा पूर्व के लगभग भारत पर पुन: चढ़ार्इ की, तथा सिन्ध तक आ पहुँचा। ऐसा संकेत मिलता है, कि सेल्यूकस युद्ध में पराजित हुआ। फलस्वरूप चन्द्रगुप्त तथा सेल्यूकस के बीच एक संधि हुर्इ, जिसकी शर्तें निम्न थीं।
  1. सेल्यूकस ने चन्द्रगुप्त को आराकोसियां (कान्धार) और पेरोपनिसेडार्इ (काबुल) के प्रान्त तथा एरिया (हेरात) एवं जेड्रोसिया की क्षत्रपियों के कुछ भाग दिये।
  2. चन्द्रगुप्त ने सेल्यूकस को 500 हाथी उपहार में दिया।
  3. सेल्यूकस ने अपनी पुत्री का विवाह चन्द्रगुप्त मौर्य से कर दिया। कदाचित यह भारतीय इतिहास का पहला अन्तर्राष्ट्रीय विवाह था।
  4. सेल्यूकस ने मेगस्थनीज नामक अपना एक राजदूत-चन्द्रगुप्त मौर्य के दरबार में भेजा।
  5. इस विजय से चन्द्रगुप्त का साम्राज्य पारसीक साम्राज्य की सीमा को स्पर्श करने लगा। उसके अन्तर्गत अफगानिस्तान का एक बड़ा भाग भी सम्मिलित हो गया।

पश्चिमी भारत की विजय

  • रूद्रदामन के गिरनार अभिलेख (150 र्इसवी) से इस बात की सूचना मिलती है, कि चन्द्रगुप्त मौर्य ने पश्चिमी भारत में सुराष्ट्र (गुजरात) तक का प्रदेश जीतकर अपने प्रत्यक्ष शासन के अन्तर्गत कर लिया था।
  • इस अभिलेख से ज्ञात होता है कि इस प्रदेश में पुष्पगुप्त वैश्य चन्द्रगुप्त मौर्य का राज्यप्पल (राष्ट्रीय) था और उसने वहाँ सुदर्शन नामक झील का निर्माण करवाया था।
  • चन्द्रगुप्त का विशाल साम्राज्य उत्तर-पश्चिम में र्इरान की सीमा से लेकर, दक्षिण में वर्तमान उत्तरी कर्नाटक तक विस्तृत था। पूर्व में मगध से लेकर, पश्चिम में सुराष्ट्र तथा सोपारा तक का सम्पूर्ण प्रदेश उसके साम्राज्य के अधीन था। पाटलिपुत्र इस विशाल साम्राज्य की राजधानी थी।

शासन काल

  • वायु पुराण में चन्द्रगुप्त का शासन-काल 24 वर्ष का बताया गया है।
  • चन्द्रगुप्त का शासन काल 322 र्इ. पू. से 298 र्इ. पू. तक स्थिर होता है। अपने जीवन के अंतिम चरण में, वह जैन हो गया था। उसने भद्रबाहु की शिष्यता ग्रहण कर ली।
  • जग मगध में 12 वर्ष का दुर्भिक्ष पड़ा तो वह अपने पुत्र के पक्ष में सिंहासन त्यागकर भद्रबाहु के साथ श्रवणबेलगोला (मैसूर) में तपस्या करने चला गया। इसी स्थान पर 298 र्इसा पूर्व के लगभग चन्द्रगुप्त मौर्य की मृत्यु हो गयी।

मेगस्थनीज का विवरण

  • मेगस्थनीज ने भारत में जो कुछ देखा-सुना, उसे ‘इण्डिका’ नामक एक पुस्तक के रूपम में लेखबद्ध किया।
  • भोजन में चावल का विशेष महत्व था। मदिरा का प्रयोग एक मात्र यज्ञों के अवसर पर किया जाता था।
  • भारतीय समाज सात जातियों में विभक्त था। दार्शनिक, कृषक, सैनिक, चरवाहे, शिल्पी, न्यायाधिकारी और पार्षद।
  • कृषकों को अपनी उपज का 1/4 भाग, राजकर के रूप में देना पड़ता था।
  • समाज में बहु-विवाह की भी प्रथा थी।
  • एक विवाह प्रणाली के अन्तर्गत मेगस्थनीज ने एक जोड़ा बैल के बदले में, पिता द्वारा अपनी पुत्री के दान का भी उल्लेख किया है। वस्तुत: यह आप विवाह प्रणाली थी।
  • मेगस्थनीज के विवरण में सती-प्रथा का उल्लेख नहीं मिलता।
  • मेगस्थानीज का कथन है, कि शवों के ऊपर छोटी-छोटी समाधियां बनार्इ जाती थीं।
  • मेगस्थनीज का यह कथन है कि, भारतीय लेखन कला से अनभिज्ञ थे, नितान्त असत्य है। उसके पूर्व निआर्कस लिख चुका था, कि भारतीय एक प्रकार के कपड़े पर लिखते थे।
  • मेगस्थनीज ने भारत वर्ष में हिआनीसिअस और हेराक्लीज देवताओं की पूजा का उल्लेख किया है। वास्तव में यह क्रमश: शिव और कृष्ण की पूजा थी।
  • मेगस्थनीज के अनुसार भारत का दण्ड-विधान बडा कठोर था। छोटे-छोटे अपराधों के लिए अंगच्छेद का दंड दिया जाता था। यदि कोर्इ व्यक्ति दूसरे किसी व्यक्ति के किसी अंग को हानि पहुँचाता था, तो उसका भी वही अंग काट दिया जाता था। कारीगर के हाथ या आँख को नष्ट करने के अपराध में मृत्यु दण्ड मिलता था।
  • मेगस्थनीज ने पाटलिपुत्र को पोलिब्रोथा के नाम से पुकारा है। पाटलिपुत्र का प्रबन्ध एक नगर व्यवस्थापिका के द्वारा होता था। उसमें 5-5 सदस्यों की 6 समितियाँ थीं।
  • पहली समिति उद्योग धन्धों की देखभाल करती थी।
  • दूसरी समिति विदेशियों का प्रबन्ध करती थी।
  • तीसरी समिति जन्म-मरण की संख्या का ब्यौरा रखती थी।
  • चौथी समिति व्यापार पर नियन्त्रण रखती थी।
  • पांचवीं समिति का कार्य नर्इ ओर पुरानी वस्तुओं को सम्मिश्रित होने से रोकना था।
  • छठी समिति- बिक्री की वस्तुओं पर कर वसूल करती थी।
  • मेगस्थनीज ने लिखा है कि भारत में दास नहीं थे। मौर्ययुगीन संस्कृति (शासन प्रबन्ध) चन्द्रगुप्त मौर्य
  • साम्राज्य विभाजनउसके पौत्र अशोक के समय में निम्नलिखित प्रान्त थे।
  • उत्तरापथ-इसमें कम्बोज, गान्धार, काश्मीर, अफगानिस्तान, पंजाब आदि प्रदेश थे। इसकी राजधानी तक्षशिला थी।
  • अवन्तिराष्ट्र- इसमें कम्बोज, गान्धार, काश्मीर, अफगानिस्तान, पंजाब आदि प्रदेश थे। इसकी राजधानी तक्षशिला थी।
  • अवन्तिराष्ट्र-इसमें काठियावाड़, गुजरात, मालवा और राजपूताना आदि प्रदेश थे। जिसकी राजधानी उज्जयिनी थी।
  • दक्षिणापथ-विन्ध्याचल के दक्षिण का समस्त प्रदेश इसके अन्तर्गत था। इसकी राजधानी सुर्वणगिरि थी।
  • कलिंग- इसकी राजधानी तोसली थी।
  • मध्यप्रदेश- इसमें उ. प्र. तथा प्राच्य-प्रदेश बिहार और बंगाल सम्मिलित थे। इसकी राजधानी पाटलिपुत्र थी।
  • सम्राट -चद्रगुप्त-मौर्य की शासन-व्यवस्था का स्वरूप राजतन्त्रात्मक था। सम्राट ही राज्य की नीति निर्धारित करता था और अपने अधिकारियों को राजाज्ञाओं द्वारा समय-समय पर निर्देश दिया करता था।
  • मन्त्रिपरिषद – राजा को सहायता देने के लिए, कौटिल्य ने एक मन्त्रिपरिषद की व्यवस्था की थी। मंत्रिपरिषद के सदस्यों का वेतन 12000 पण था। परिषद् के सदस्य स्वय राजा द्वारा मनोनीत होते थे।
  • मन्त्री- दैनिक कार्यों के लिए, राजा कुछ मंत्री नियुक्त करता था। ये मन्त्रिपरिषद् के सदस्यों से पृथक थे। राजदूतों एवं गुप्तचरों की नियुक्ति में ये मन्त्री, राजा को परामर्श देते थे।
  • समाहर्ता-साम्राज्य के जनपद ‘समाहर्ता’ नामक अमात्य के अधीन होते थे। उसका प्रमुख कार्य कर एकत्र करना था। जनपदीय कार्यों में सहायता के ​लिए, समाहर्ता के अधीन शुल्काध्यक्ष (व्यापार सम्बन्धी करों को एकत्र करने वाला) पौतवाध्यक्ष तौल और माप की देख-रेख करने वाला) सीताध्यक्ष (कृषि-विभाग का अध्यक्ष) सुराध्यक्ष, गणिकाध्यक्ष, मुद्राध्यक्ष अश्वाध्यक्ष, पण्याध्यक्ष, (बाजार पर नियन्त्रण रखने वाले) लक्षणाध्यक्ष (मुद्रानीति पर नियन्त्रण रखने वाले) देवताध्यक्ष (मन्दिरों और पूजा की देख-रेख करने वाला) आदि पदाधिकारी कार्य करते थे।
  • केन्द्रीय अधिकारी तन्त्र- प्रत्येक विभाग को तीर्थ कहा जाता था। अर्थशास्त्र में 18 तीर्थो का उल्लेख हुआ है।
  • मन्त्री तथा पुरोहित-प्रधानमंत्री तथा प्रमुख धर्माधिकारी होते थे। चन्द्रगुप्त मौर्य के समय, में, ये दोनों ही विभाग कौटिल्य के अधीन थे।
  • समाहर्ता- राजस्व विभाग का प्रधान अधिकारी था।
  • सन्निधाता- राजकीय कोषाधिकरण का प्रमुख अधिकारी होता था।
  • सेनापति-युद्ध विभाग का मंत्री था।
  • युवराज- राजा का उतराधिकारी होता था।
  • प्रदेष्टा- फौजदारी न्यायालय का न्यायाधीश था।
  • नायक- सेना का संचालक था।
  • कर्मान्तिक- देश के उद्योग-धन्धों का प्रधान निरीक्षक था।
  • व्यावहारिक- दीवानी-न्यायालय का न्यायाधीश था।
  • मंत्रीपरिषवाध्यक्ष- मन्त्रिपरिषद् का अध्यक्ष था।
  • दण्डपाल-सेना की सामग्रियों को जुटाने वाला प्रधान अधिकारी था।
  • अन्तपाल- सीमावर्ती दुर्गों का रक्षक था।
  • दुर्गपाल- देश के भीतर दुर्गों का प्रबन्धक था।
  • नागरक-नगर का प्रमुख अधिकारी था।
  • प्रशास्ता–राजकीय कागजातों को सुरक्षित रखने वाला तथा राजकीय आज्ञाओं को लिपिबद्ध करने वाला प्रधान अधिकारी था।
  • दौवारिक- राजमहलों की देख-रेख करने वाला प्रधान अधिकारी था।
  • आन्तर्वेशिक-सम्राट की अंगरक्षक सेना का प्रधान तथा आटविक वन-विभाग का प्रधान अधिकारी होता था।
  • अमात्य और अध्यक्ष- वस्तुत: राज्य के समस्त कार्यकारिणी और न्याय-विभाग के उच्च पदाधिकारी अमात्य कहलाते थे।
  • अध्यक्ष राज्य की दूसरी श्रेणी के पदाधिकारी थे। स्ट्रेबो इन्हें मजिस्ट्रेट के नाम से पुकारता है। मजिस्ट्रेटों में कुछ के नियन्त्रण में बाजार, कुछ के नगर और अन्य के नियंत्रण में सेना का प्रबन्ध रहता है।

मण्डल, जिला तथा नगर  प्रशासन

  • प्रदेष्टा नामक अधिकारी मण्डल का प्रधान होता था।
  • मण्डल का विभाजन जिलों में हुआ था। जिन्हें ‘विषय कहा जाता था।
  • जिले के नीचे स्थानीय होता था, जिसमें 800 ग्राम थे।
  • स्थानीय-800 ग्राम
  • द्रोणमुख-400 ग्रमा
  • खार्वटिक- 200 ग्राम
  • संग्रहण-10 ग्राम
  • स्थानीय के अन्तर्गत दो ‘द्रोणमुख’ थे। प्रत्येक में चार-चार सौ ग्राम होते थे।
  • द्रोणमुख के नीचे खार्वटिक तथा खार्वटिक के अन्तर्गत 20 संग्रहण होते थे।
  • प्रत्येक खार्वटिक में दो-सौ ग्राम तथा प्रत्येक संग्रहण में 10 ग्राम थे।
  • संग्रहण का प्रधान, अधिकारी ‘गोप’ कहा जाता था।
  • मेगस्थनीज जिले के अधिकारियेां को एग्रोनोमोर्इ कहता है।,
  • नगर के लिए एक सभा होती थी। जिसका प्रमुख’ नागरक’ कहा जाता था।

ग्रामों का प्रबन्ध

  • ग्राम साम्राज्य की सबसे छोटी प्रशासनिक इकार्इ थी। इसका प्रबन्ध ग्रामिक करता था। प्रत्येक ग्राम में राज्य की ओर से भृत्य नामक पदाधिकारी होता था।
  • 5-10 ग्रामों का प्रबन्ध करने के लिए गोप होता था। 800 ग्रामों के स्थानीय का अधिकारी स्थानिक होता था।

न्याय व्यवस्था

  • ग्राम-संघ साम्राज्य का सबसे छोटा न्यायालय होता था। यह गाँव के मुकदमें का निर्णय करता था। उसके ऊपर संग्रहण, द्रोणमुख और जनपद में न्यायालय होते थे।
  • देश का सर्वोच्च न्यायालय स्वय राजा था।
  • साम्राज्य के सम्पूर्ण न्यायालयों को दो कोटियों में विभक्त किया गया है।
  • जो न्यायालय मनुष्यों के पारस्परिक मुकदमों पर निर्णय देते थे, वे धर्मस्थनीय न्यायालय कहलाते थे। (दीवानी अदालत)
  • इसके विरूद्ध अन्य मुकदमें ऐसे होते थे। जो व्यक्ति और राज्य के बीच होते थे। ऐसे मुकदमों को सुनने वाले न्यायालय कण्टक शोधन न्यायालय-फौजदारी न्यायालय कहलतो थे।

गुप्तचर विभाग

  • यह विभाग एक पृथक अमात्य के अधीन रखा गया था जिसे ‘महामात्यापसर्प’ कहा जाता था। गुप्तचरों को अर्थशास्त्र में ‘गूढ पुरूष’ कहा गया है। एरियन इन्हें ओवरसियर और स्ट्रैबो ने इंस्पेक्टर के नाम से पुकारा है।
  • कौटिल्य ने दो प्रकार के गुप्तचरों का वर्णन किया है।
  1. संस्था – जो स्थायी रूप से, एक स्थान पर रहकर कार्य करते थे।
  2. संचारा – जो भ्रमणशील थे।
  • नर गुप्तचरों को सन्ती, विष्णा, सरद कहा जाता था। स्त्री गुप्तचरों को वृपली, भिक्षुकी, परिव्राजक कहा जाता था।
  • भूमिकर – साम्राज्य में दो प्रकार की भूमि थी- एक तो वह जो राज्य के प्रत्यक्ष अधिकार में थी, दूसरी वह जो किसानों के पास थी।
  • राज्यको अपनी प्रत्यक्ष भूमि से जो आय होती थी उसे ‘सीता’ कहते थे।
  • किसानों के अधीन भूमि की उपज से राज्य को जो कर मिलता था उसे ‘भग’ कहते थे। यह ‘भग’ उपज का 1/5 या 1/4 या 1/2 होता था।
  • भूमि से उत्पन्न होने वाली अन्य वस्तुओं पर भी कर लगाये जाते थे।
  • सेतु-फल, फूल, मूल और तरकारियों पर लगने वाला कर
  • बनकर – वनों के ऊपर राज्य का अधिकार था। अत: उसकी उपज पर भी विभिन्न कर थे।
  • प्रणय नामक आपातकालीन कर भी लगाया जाता था।
  • आयात और निर्यात कर आयात कर को ‘प्रवेश्य’ और निर्यात कर को निष्क्रम्य’ कहते थें
  • साधारण आयात कर 20% होता था। निर्यात कर की कर ज्ञात नहीं है।
  • बिक्रीकर- कोर्इ भी वस्तु अपने उत्पत्ति स्थान पर बेची अथवा खरीदी नहीं जा सकती थी। सर्वप्रथम वह शुल्काध्यक्ष के सम्मुख प्रस्तुत की जाती थी और उस चुंगी लगार्इ जाती थी। चुंगी की दर तीन थी।
  1. गिन कर बेची जाने वाली वस्तुओं पर – 91/2%
  2. तौल कर बेची जाने वाली वस्तुओं प – 5%
  3. नाप कर बेची जाने वाली वस्तुओं पर – 61/4%

सेना का प्रबन्ध

  • चन्द्रगुप्त की सेना में 6 लाख पैदल, 30 हजार अश्वारोही, 9 हजार हाथी तथा संभवत: 800 रथ थे।
  • सैनिकों को नगद वेतन दिया जाता था।
  • सेनापति सेना का सर्वोच्च अधिकारी होता था। उसे 48000 पण वार्षिक वेतन दिया जाता था।
  • युद्ध-क्षेत्र में सेना का संचालन करने वाला अधिकारी ‘नायक’ कहा जाता था।
  • राजा के शरीर की रक्षा का भार शस्त्रास्त्रयुक्त ‘समरानुरांगिनी’ अंगरक्षिकाओं पर था।
  • मोर्यो के पास शक्तिशाली नौ-सेना भी थी। अर्थशास्त्र में ‘नवाध्यक्ष’ नामक पदाधिकारी का उल्लेख हुआ है।

नगरों से आय- नगरों से अनेक प्रकार की आय होती थी। इस आय को ‘दुर्ग कहते थे।

  1. शराब बनाने वालों पर
  2. नमक बनाने वालों पर
  3. शिल्पकारों पर
  4. कसाइयों पर
  5. वेश्याओं पर
  6. जुआरियों पर
  7. अधिक आमदनी पर
  8. मन्दिर पर आदि वस्तुओं एवं व्यवसायियों पर राज्य कर लगाता था। जिससे अनुमान होता है कि राज्य कर के रूप में काफी धन संग्रह करता रहा होगा।

बिन्दुसारअमित्रघात’ (298 र्इसा पूर्व)

  • 298 र्इसा पू. में चन्द्रगुप्त के पश्चात उसका पुत्र, बिन्दुसार अपने पिता के विशाल राज्य का उत्तराधिकारी हुआ। यूनानी लेखों के अनुसार उसका नाम अमित्रकेटे था।
  • जैन साहित्य के अनुसार उसकी माता का नाम दुर्धरा था महावंश टीका में उसकी पत्नी का बम्मा दिया है। परन्तु अशोकावदान में उसे सुभद्रागी कहा गया है।
  • तिब्बती लामा तारानाथ तथा जैन-अनुश्रुति के अनुसार चाणक्य बिन्दुसार का मंत्री था।
  • स्टै्रबों के अनुसार सेल्यूकस के उत्तराधिकारी एण्टियोकस प्रथम ने अपना राजदूत डायमेकस बिंदुसार के दरबार में भेजा।
  • प्लिनी के अनुसार मिश्र के राजा टालमी द्वितीय फिलाडेल्फा (285-247 र्इ. पू.) ने ‘डाइनोसियस’ नामक अपना ………… राजदूत मौर्य दरबार में भेजा था।
  • उसने प्रत्येक प्रान्त में कुमार (उपराजा) नियुक्त किये।
  • प्रशासनिक कार्यों के लिए, अनेक महामात्रों की भी नियुक्ति की गयी।
  • दिव्यावदान के अनुसार, अवन्ति राष्ट्र का उपराजा अशोक था।
  • बिन्दुसार की सभा में 500 सदस्यों वाली एक मन्त्रिपरिषद भी थी। जिसका प्रधान खल्लाटक था।
  • दिव्यावदान की एक कथा के अनुसार, आजीवक परिव्राजा बिन्दुसार की सभा को सुशोभित करते थे।
  • सम्भवत: उसने 25 वर्षो तक राज्य किया। उसकी मृत्यु 27 र्इसा पूर्व के लगभग हुर्इ।
  • थेरवाद परम्परा के अनुसार बिन्दुसार ब्राह्मण धर्म का अनुयायी था।
  • भारतीय राजाओं में सर्वप्रथम बिन्दुसार ने ही कुशल प्रशासक की आवश्यकता पर बल दिया।
  • दिव्यावदान के अनुसार, अपने तक्षशिला प्रान्त के प्रथा विद्रोह को शान्त करने के लिए, बिन्दुसार ने अपने पुत्र अशोक को भेजा (तक्षशिला)।
  • दूसरे विद्रोह के दमन हेतु बिन्दुसार ने कुमार सुसीम को भेजा था। (तक्षशिला)
  • स्ट्रैबो के कथन से प्रगट होता है कि पश्चिमी एशिया के यूनानी शासक ऐण्टियोकस ने सैन्ट्रोकोट्स के पुत्र एलिट्रोचेड की सभा में डायमेकस नाम राजदूत भेजा था।
  • डियानीसिअस बिन्दुसार की सभा में आया था।
  • यूनानी बिन्दुसार को अमिट्रोचेट्स के नाम से पुकारते हैं।

अशोक प्रियदर्शी (273-230 र्इसा पूर्व)

  • दिव्यावदान – अवदान का अर्थ होता है सत्कर्म। अत: दिव्यावदान से दिव्य सत्कर्मों का बोध होता है। अशोक-विषयक अनेकानेक बातों का उल्लेख है।
  • अशोकावदानमाला- यह महायान सम्प्रदाय का ग्रन्थ है। और श्लोकों के रूप में लिखा गया है। इसके प्रथम-भाग में अशोक के सम्बन्ध में कथाएं है।
  • आर्य मंजूश्रीमूल कल्प- यह महायान सम्प्रदाय का ग्रन्थ है। का पुत्र। इनमें आद्यि-व्याधि के निवार्णार्थ महात्मा बुद्ध के बताये हुए यन्त्र है।
  • अशोक के अभिलेख- 1750 में टीफेन्थैलर महोदय ने सर्वप्रथम दिल्ली में अशोक स्तम्भ का पता लगाया था।
  • अन्तिम शिलालेख की खोज सन् 1950 में बीडनं महोदय ने मास्की में की थी।
अशोक के समय 5 प्रान्त थे –
1.      उत्तरापथ – तक्षशिला
2.      अवन्ति राष्ट्र- उज्जयिनी।
3.      कलिंग प्रान्त- तोसली
4.      दक्षिणापथ- सुवर्णगिरि
5.      प्राशी या प्राथी (पूर्वी प्रदेश) पाटलिपुत्र
  • प्रारम्भ में अभिलेखों की लिपि को पढ़ने का कार्य जेम्स प्रिंसेप ने किया था।
  • गिरनार का अभिलेख- यह अभिलेख रूद्रदामन का है। इसकी तिथि 72 शक संवत् अथवा 150 र्इसवी है।
  • नागार्जुनी गुहा लेख- इसमें अशोक के उत्तरगामी मौर्य नरेश, देवानॉप्रिय दशरथ का उल्लेख है।
  • बिन्दुसार की मृत्यु के पश्चात उसका सुयोग्य पुत्र अशोक विशाल मौर्य साम्राज्य की गद्दी पर बैठा।
  • दीपवंश और महावंश में बिन्दुसार की 16 रानियों तथा उसके 10 पुत्रों का उल्लेख है।
  • महावंश में उसके सबसे बड़े पुत्र का नाम सुमन मिलता है। परन्तु दिव्यावदान में सुसीम को सबसे बड़ा पुत्र कहा गया है।
  • अशोकावदानमाला में अशोक की माँ को सुभद्रांगी कहा गया। महाबोधिवंश में उसे धम्मा, कहा गया है।

पिता- बिन्दुसार

माता- ब्राह्मण कन्या- दिव्यावदान के अनुसार

सुभद्रांगी- अशोकावदानमाला के अनुसार

धम्मा- महाबोधिवंश के अनुसार

यूनानी राजकुमारी-टार्न आदि कतिपय विद्वानों के अनुसार भार्इ-सुमन

तिष्य- सुसीम और विगतशोक

बहिन- कुमार अग्रिब्रह्म की माता

पत्नी

  1. देवी
  2. आसन्दिमित्रा
  3. तिष्यरक्षिता
  4. पद्मावती
  5. कारूवाकी जालौक राजतरंगिणी में उल्लिखित

 पुत्र

  1. महेन्द्र -देवी से
  2. तीवर-कारूवाकी से और
  3. कुणाल पद्मावती से

पुत्री

  1. संघमित्रा – देवी से,
  2. चारूमती – देवपाल की पत्नी

पौत्र

  1. दशरथ
  2. सम्प्रति- कुणाल का पुत्र,
  3. सुमन – संघमित्रा
  • अशोक 273 र्इ. पू. के लगभग मगध के सिंहासन पर बैठा। उसके अभिलेखों में सर्वत्र उसे ‘देवानाम् पिय’ देवानाम् पियदर्शि तथा ‘राजा’ आदि की उपाधियों में सम्बोधित किया गया है।
  • मास्की तथा गुर्जरा के लेखों में उसका नाम अशोक मिलता है।
  • पुराणों में उसे ‘अशोक वर्धन’ कहा गया है।
  • अपने अभिषेक के आठवें वर्ष (261-260 र्इ. पू.) में उसने कलिंग के विरूद्ध युद्ध छेड़ दिया। (रोमिला थापर के अनुसार)
  • कलिंग का प्राचीन राज्य वर्तमान दक्षिणी उड़ीसा में स्थित था।
  • राज्याभिषेक के 8 वें वर्ष में, अशोक ने कलिंग पर विजय प्राप्त की। इसका पता अशोक के 13 वें अभिलेख से प्राप्त होता है।
  • तोसली ने इस प्रान्त की इसकी राजधानी बनार्इ गर्इ।
  • मगध का सम्राट बनने के बाद, यह अशोक का प्रथम तथा आखिरी युद्ध था।
  • प्रारम्भिक वर्षों में अशोक ब्राह्मण-धर्म का अनुयायी था।
  • दीपवंश और महावंश के अनुसार अशोक को उसके शासन के चौथे वर्ष ‘न्यग्रोध नामक सात वर्षीय भिक्षु ने बौद्ध मत में दीक्षित किया।
  • दिव्यावदान के अनुसार अशोक को बौद्ध धर्म में दीक्षित करने का श्रेय ‘उपगुप्त’ नामक भिक्षु को प्रदान करता है।
  • बौद्ध धर्म ग्रहण करने के पश्चात् सर्वप्रथम बोध गया की यात्रा की।
  • अभिषेक के 20 वें वर्ष वह लुम्बिनी गया। वहां पत्थर की दृढ़ दीवार बनवार्इ। वहाँ शिला-स्तम्भ खड़ा किया। वहाँ का भूमि-कर भी घटाकर 1/3 कर दिया। लुम्बिनी को धार्मिक कर से मुक्त कर दिया।
  • अशोक ने नेपाल की तरार्इ में स्थित निग्लीबा में कनकमुनि के स्तूप को संवद्धित एवं द्विगुणित कराया। (14 वे वर्ष में) 20 वें वर्ष में स्वयं उस पवित्र स्थल पर गया और वहां पूजा उपासना की।
  • अशोक को 84,000 स्तूपों का निर्माणकर्ता कहा गया है।
  • अशोक के समय तक सन्यास की प्रथा पर्याप्त दृढ हो चुकी थी।

अशोक का धर्म

  • नवें शिलालेख में वह मानव जीवन के विभिन्न अवसरों पर, किये जाने वाले मंगलों का उल्लेख करता है।
  • ग्यारहवें शिलालेख में, अशोक धर्मदान को साधारण-दान से अधिक उत्तम बताता है।
  • बारहवें शिलालेख में उसने सब धर्मों के सार के वृद्धि की कामना की है।
  • अपने सातवें शिलालेख में वह घोषित करता है, कि सर्वत्र ही सब धर्म वाले बसें।
  • आठवें शिलालेख् से प्रगट होता है, कि अपनी धर्मयात्राओं में, अशोक ब्राह्मणों और धमणं का दर्शन करता था, और उन्हें दान देता था। उसने बिहार यात्राओं का परित्याग कर दिया, जिसमें मृगया आदि हिंसात्मक मनोरंजन होते थे।
  • अपने प्रथम शिलालेख में उसने कहा है, कि ‘समाज नहीं करना चाहिए’।

धम्म प्रचार के उपाय

  • अशोक ने बौद्ध धर्म का प्रचार अपनी धर्म-यात्राओं से प्रारम्भ किया। वह अपने अभिषेक के दूसवें वर्ष) बोधगया की यात्रा पर गया। यह पहली धर्म यात्रा थी।
  • अपने अभिषेक के 13 वें वर्ष बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए अशोक ने पदाधिकारियों का एक नवीन वर्ग-बनाया, जिसे ‘धम्ममहामात्र’ कहा गया।
  • सातवें स्तम्भ लेख में वह हमें बताता है, कि ‘मार्गों में मेरे द्वारा वह वृक्ष लगवाये गये’।
  • अशोक के 17 वें वर्ष राज्यकाल में, पाटलिपुत्र में बौद्ध धर्म की तृतीय संगीति हुर्इ। इसकी अध्यक्षता मोग्गलिपुत्ततिस्स नामक प्रसिद्ध बौद्ध भिक्षु ने की थी। इस संगीति की समाप्ति के पश्चात भिन्न-भिन्न देशों में बौद्ध धर्म के प्रचारार्थ भिक्षु भेजे गये।
  1. अन्तियोक (सीरियार्इ-नरेश)
  2. तुरमाय (मिश्री नरेश)
  3. अन्तिकिनि (मेसीडोनियन राजा)
  4. मक (एपिरस)
  5. अलिक सुन्दर (सिरीन) धर्म प्रचारक भेजे गये।
  6. अशोक हीनयान धर्म से सम्बन्धित था।
  7. धर्मप्रचारक देश
  8. मझन्तिक कश्मीर तथा गान्धार
  9. महारक्षित यवन देश
  10. मज्झिम-हिमालय देश
  11. धर्मक्षित-अपरान्तक
  12. महाधर्म रक्षित-महाराष्ट्र
  13. महादेव-महर्षिमण्डल (मैसूर अथवा मान्धाता)
  14. रक्षित वनवासी (उत्तरी कन्नड़)
  15. सोन तथा उत्तर सुर्वणभूमि
  16. महेन्द्र तथा संघमित्रा लका
  • अशोक के पुत्र महेन्द्र ने लंका के शासक तिस्म को बौद्ध धर्म में दीक्षित कर लिया तथा तिस्स ने सम्भवत: इसे राजधर्म बना लिया। अशोक के अनुकरण पर उसने ‘देवानाम् पिय’ की उपाधि ग्रहण कर ली।
  • कल्हण अशोक को कश्मीर का प्रथम मौर्य शासक बताता है।
  • अशोक ने अपने पड़ोसियों के साथ शान्ति एवं सह-अस्तित्व के सिद्धानतों के आधार पर अपने सम्बन्ध किये।

कर प्रणाली : एक नजर में

·        राजा ‘भाग’ के अतिरिक्त अन्य कर भी लेता था जो ‘बलि’ कहलाता था।

·        संकट कालीन अवस्था में कौटिल्य ने राजा को ‘प्रणय’ वसूल करने का अधिकार दिया था।

·        पिण्डकर- इसे राजा पूरे गाँव से वर्ष में एक बार वसूल करता था।

·        सेनाभक्तकर- सेना के प्रयाण के समय प्रजा से तेल और चावल के रूप में लिया जाता था।

·        औपायनिक-विशेष अवसरों पर राजा को दी जाने वाली भेंट।

·        पाश्र्व-अधिक लाभ होने पर व्यापारियों से लिया जाता था।

·        कौष्ठेयक- सरकारी जलाशयों के नीचे की भूमि पर लगाया जाने वाला कर।

·        परिहीनक- सरकारी भूमि पर पशुओं द्वारा की गयी हानि के बदले में हर्जाने के रूप में लिया जाता था।

·        धु्रवाधिकरण- भूमिकर संग्रहकर्ता था।

·        रज्जु- भूमि की नाप के समय जो कर लिया जाता था।

·        बिवीत- पशुओं की रक्षा के लिए लिया जाता था।

·        सेतु – फल-फूल पर लिया जाने वाला कर।

·        भाग- किसानों की भूमि से लिया जाने वाला भूमिकर।

  • पुराणों के अनुसार अशोक ने कुल 37 वर्षो तक शासन किया। उसकी मृत्यु लगभग 236 र्इसा पूर्व में हुर्इ।
  • सर्वप्रथम …………….. र्इ. में जेम्स प्रिंसेप नामक विद्वान ने अशोक के लेखों का उद्धारण दिया।
  • 1915 र्इ. में मास्की से प्राप्त लेख में, ‘अशोक’ नाम भी पढ़ लिया गया।
  • अशोक के 8 शिलालेख तथा 14 लघु शिलालेख है।
  • स्तम्भ लेखों की संख्या 7 है।
  • अशोक के बाद दशरथ ने 8 वर्षों तक शासन किया। दशरथ कुणाल का पुत्र था।
  • उसकी मृत्यु के बाद, उसका पुत्र सम्प्रति शासक हुआ। जैनग्रन्थों में उसे जैन-धर्म का संरक्षक कहा गया है। जिसने हजारों जैन तीर्थकरों के मन्दिरों का निर्माण करवाया था। वह पाटलिपुत्र का राजा था।
  • सम्प्रति के बाद शालिशूक राजा हुआ। उसे धार्मिक के रूप में अधार्मिक धूर्त एवं झगड़ालू शासक बताया गया है।
  • शालिशूक के पश्चात देवधर्मन, फिर शतधन्नव, अंततोगत्वा वृहद्रथ मौर्य वंश का राजा हुआ। वह मौर्य वंश का अन्तिम शासक था।
  • उसके सेनापति पुष्यमित्र ने ……………. र्इ. पू. के लगभग अपने स्वामी बृहद्रथ की सेना का निरीक्षण करते समय धोखे से हत्या कर दी।

मौर्य वंश के पतन के कारण

  1. धार्मिक नीति (पतन का मुख्य कारण)
  2. अयोग्य तथा निर्बल उततराधिकारी
  3. प्रान्तीय शासकों के अत्याचार
  4. राष्ट्रीय चेतना का अभाव
  5. करों की अधिकता।
  • रोमिला थापर ने प्रशासन के संगठन तथा राष्ट्र की अवधारणा को ही, मौर्य साम्राज्य के पतन के कारणों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण बताया है।
  1. कलिंग युद्ध- अभिषेक के 8वें वर्ष
  2. बौद्ध धर्म का ग्रहण ……………………………………. 9 वे वर्ष
  3. निष्क्रियता काल ………………………… 10 वें वर्ष के प्रारम्भ तक
  4. सक्रियता काल का प्रारम्भ …………………… 10 वें वर्ष
  • अशोक को बौद्ध सिद्ध करने के लिए भावू अभिलेख अपरिहार्य है।
  • मारनाथ, प्रयाग और सांची के स्तम्भ लेख मिले है। जो निर्विवाद रूप से अशोक को बौद्ध सिद्ध करते हैं।
  • अशोक के समय में वैशाली की द्वितीय बौद्ध संगीति के समय बौद्ध संघ में 10 बातों को लेकर विवाद खड़ा हुआ था।
  • अशोक के पाँचवें लेख से विदित होता है, कि अपने अभिषेक के 20 वें वर्ष के पश्चात उसने उन जीवों की हत्या करना बन्द करवा दिया। जो न किसी उपयोग में आते थे, और न खाये जाते थे।
  • अशोक ने पशु-बलि और समाज की प्रथा की समाप्ति कर दी।
  • तीसरे शिलालेख के अनुसार राजुकों, प्रादेशिकों और युक्तों को आज्ञा थी, कि वे प्रति पाचवें वर्ष राज्य में दौरा किया करें और अपने सामान्य कार्य के अतिरिक्त, जनता में धर्मोपदेश दिया करें।
  • सातवें स्तम्भ लेख से प्रगट होता है, कि समय-समय पर अशोक जनता को धर्मोप्रदेश देता था। ये धर्म श्रावण कहलाते है।
  • धार्मिक-सहिष्णुता मूल मंत्र था। (आधुनिक इतिहासकारों के अनुसार)
  • अहिंसा अशोक के धम्म का मूल मन्त्र था। वी. सी. पाण्डेय
  • अशोक के धर्म-प्रचार के पीछे लोक कल्याण की भावना थी, आत्मा-श्लाघा की नहीं।
  • अशोक अपने द्वितीय लघु शिलालेख में कहता है, कि माता-पिता की उचित सेवा, सर्व-प्राणियों के प्रति आदरभाव तथा सत्यता गुरूतर सिद्धान्त हैं। इन धर्म-गुणों की वृद्धि होनी चाहिए। इसी भांति शिष्यों को गुरूओं का आदर करना चाहिए।
  • ग्यारहवें शिलालेख में अशोक अपने धम्म के अन्यान्य तन्त्रों का उल्लेख करता है। दास और भृत्यों तथा वेतनभोगी सेवकों के साथ उचित व्यवहार, माता-पिता की सेवा, मित्रों, परिचितों, सम्बन्धियों, ब्राह्मणों, श्रमणों और साधुओं के प्रति उदारता, प्राणियों में संयम पशु-बलि से विरक्तता।
  • आत्म निरीक्षण के लिए अभिलेखों में परीक्षा शब्द का प्रयोग हुआ है। अपने प्रथम स्तम्भ लेख में अशोक कहता है, कि धर्म-कामना, परीक्षा, सेवा, पाप में भय तथा परम उत्साह के बिना इहलोक और परलोक में सुखप्राप्ति दुग्साध्व है।
  • पांचवें स्तम्भ लेख से प्रगट होता है, कि अशोक प्रति वर्ष अपने अभिषेक दिवस पर इन्द्रियों को मुक्त कर देता था।
  • प्रथम शिलालो से विदित होता है, कि अशोक ने अपनी राजधानी में समस्त बलि पशुओं की हत्या बन्द करवा दी थी। यह सुधार उसकी अहिसात्मक बौद्ध-नीति की ओर सकेत करता है।
  • राजतंरगिणी का कथन है, कि अशोक के पश्चात् जालोक कश्मीर का शासक हुआ।
  • बुनियादी सिद्धान्तों में अशोक ने सबसे ज्यादा बल सहिष्णुता पर दिया, जो उसके अनुसार दो प्रकार की थी। इसमें व्यक्तियों की सहिष्णुता और साथ-ही उनके विचारों तथा विश्वासों की सहिष्णुता।
  • अशोक के बौद्ध-धर्म स्वीकार करने की बात भावू्र लघु शिलालेख में मिलती है।
  • बौद्धों की तृतीय समिति इसलिए महत्वपूर्ण है, कि अपेक्षाकृत कट्टर सम्प्रदायवादियों, थेरवाद के अनुयायियों ने यहाँ बहुमत विरोधियों और संशोधन वादियों दोनों को बौद्ध संघ में बहिष्कृत करने का अंतिम प्रयत्न किया था। एक प्रकार से इसी रवैये के कारण बाद में बौद्ध धर्म का विभाजन हो गया।
  • यह निर्णय भी इसी सभा में लिया गया, कि उपमहाद्वीप के विभिन्न भागों में धर्म प्रचारक भेज जायें। जो विभिन्न धर्मावलम्बियों का धर्म-परिवर्तन कराने में सक्रिय हों।
  • यूनान-राज्यों में अशोक ने जो शिष्टमंडल भेजे, जिन्होंने यूनानी जगत को भारतीय जीवन से परिचित कराया और भारतीय वस्तुओं के प्रति कौतूहल पैदा किया। यूनानी राज्यों में निकटतम सेल्यूसिह का साम्राज्य था।
  • श्रीनगर का निर्माण अशोक ने कराया था।
  • तमिल (धुर दक्षिण की प्राचीनतमक साहित्यिक भाषा) में सर्वप्रथम काव्य रचना तीसरी या दूसरी शताब्दी र्इ. पू. में विदेशी अप्रवासियों द्वारा की गर्इ थी और पाषाण लेखों की भी स्थापना उन्ही लोगों ने की थी।
  • सम्राट अशोक ने श्रीलंका के राजा तिस्सा के पास मूल पीपल वृक्ष की एक शाखा भेजी, जिसके नीचे बुद्ध को ज्ञान हुआ था।
  • रोमिला थापर का विचार है, कि धम्म अशोक का अपना आविष्कार था।
  • अशोक की राजकीय यात्रा दश वार्षिक थी। एक यात्रा राज्याभिषेक के 10 वर्ष बाद और दूसरी 20 वर्ष के बाद हुर्इ थी। दूसरी यात्रा के क्रम में सम्राट ने शाक्यमुनि और पहले के एक बुद्ध (कनकमुनि) के जन्म स्थानों को देखा था उसने इन पवित्र स्थानों पर पूजा की।

(321-185 र्इ. पू.)

  • (तीसरी शताब्दी र्इ. पू.) तक उत्तरी-भारत की अर्थव्यवस्था मुख्यत: कृषि प्रधान हो गर्इ थी। भूराजस्व सरकार की आय को सर्वमान्य स्त्रोत बन चुका था।
  • शासन-प्रणाली का मुख्य कार्य दक्षता के साथ कर संग्रह करना था।
  • भूराजस्व दो प्रकार का था भूमि के उपभोग पर लगान तथा उपज पर करारोपणा भूमि की उपज के छठे हिस्से से लेकर 1/4 तक होती थी।
  • करारोपण प्रत्येक व्यक्तिगत कृषक द्वारा प्रयुक्त भूमि के आधार पर होता था।
  • पण्य वस्तु के मूल्य का पाचवाँ भाग चुंगी के रूप में निर्धारित किया जाता था और इसके अतिरिक्त चुंगी का पाँचवा भाग व्यापार कर होता था।
  • बैंकिग प्रणाली नहीं थी लेकिन रूपया ब्याज पर देने की प्रथा थी। उधार लिये गये रूपये पर 15 % प्रति वर्ष ब्याज की दर सर्वमान्य थी।
  • मौर्य शासन प्रणाली में नौकरशाही का बहुत ज्यादा केन्द्रीकरण था।

अशोक के प्रशासनिक सुधार

  • सम्राट तथा मन्त्रिपरिषद अशोक साम्राज्य का एकछत्र शासक था। उसने ‘देवानामु पिय्’ की उपाधि ग्रहण की।
  • परिषा-अर्थशास्त्र की मन्त्रिपरिषद थी। अशोक का प्रधानमंत्री राज गुप्त था।

प्रान्तीय शासन

  • अशोक का पुत्र कुणाल तक्षशिला का राज्य पाल था।
  • उसने अपने छोटे भार्इ ‘तिष्य’ को उपराजा नियुक्त किया था।
  • यवनजातीय तुपास्प काठियावाड़ प्रान्त में अशोक का राज्यपाल था।

प्रशासनिक पदाधिकारी

  • उपपदाधिकारियों के नाम लिखते हैं। युक्त, राजुक, प्रादेशिका

युक्त- ये जिले के अधिकारी होते थे जो राजस्व वसूल करते तथा उसका लेखा-जोखा रखते थे और सम्राट की सम्पत्ति का भी प्रबन्ध करते थे।

राजुक-इस प्रकार के पदाधिकारी भूमि की पैमाइश करने के लिए अपने पास रस्सी रखते थे। वे आजकल के ‘बदोबस्त अधिकारी’ की भांति होते थे।

प्रादेशिक- यह मंडल का प्रधान अधिकारी होता था। उसका कार्य आजकल के संभागीय आयुक्त जैसा था।

  • बारहवें शिलालेख में और पदाधिकारिओं के नाम मिलते है।
  • धम्ममहामात्र- इनका कार्य विभिन्न सम्प्रदायों के बीच सामजस्य बनाये रखना, राजा तथा उसके परिवारों के सदस्यों से धम्म दान प्राप्त करना और उसकी समुचित व्यवस्था करना होता था।

मौर्यकालीन सिक्के

·        व्यापार व व्यवसाय में नियमित रूप से सिक्कों का प्रचलन हो चुका था।

·        सोने के सिक्के को ‘निष्क या सुवर्ण’ कहा जाता था।

·        चाँदी के सिक्कों को कार्षापण या धरण कहा जाता था।

·        ताँबे के सिक्के मापक कहलाते थे।

·        ताँबे के छोटे सिक्कों को काकणी कहा जाता था।

·        ये सिक्के शासकों, सौदागरों एवं निगमों द्वारा प्रचलित किए जाते थे, तथा इन पर स्वामित्व सूचक चिह् लगाये जाते थे।

·        अर्थशास्त्र के अनुसार वार्षिक ब्याजदर 15 %  होती थी।

  • रूयाध्यक्ष – यह महिलाओं के नैतिक आचरण की देख-रेख करने वाला अधिकारी होता था।
  • ब्रजभूमिक- यह गोचर भूमि में बसने वाले गोपों की देख-रेख करने वाला अधिकारी था।
  • राजुक – ग्रामीण जनपदों की देखभाल के लिए कर संग्रह के साथ-साथ न्यायिक शक्तियां भी थी।
  • प्रादेशिक – जिला अधिकारी
  • महामात्र – उच्च अधिकारी, नगर प्रशासन के सम्बन्धित
  • युक्त- क्लर्क में।
  • लिपिक – लेखक
  • प्रतिवेदक – इनका कार्य सम्राट को विभिन्न सूचना देना था।

सामाजिक वशा

  • वर्ग कठोर होकर जाति के रूप में बदल गये जिसका आधार जन्म था।
  • कोर्इ भी व्यक्ति न तो अपनी जाति के बाहर विवाह कर सकता था और न उससे भिन्न पेशा ही अपना सकता था।
  • दार्शनिक समाज के बुद्धिजीवी वर्ग थे। राज्य अपने राजस्व का एक भाग दार्शनिकों के भरण-पोषण पर व्यय करता था।
  • कृषकों के बाद संख्या में सबसे अधिक क्षत्रिय वर्ग के लोग थे। वे केवल सैनिक कार्य किया करते थे,
  • समाज में दासों की स्थिति संतोषजनक थी। उन्हे सम्पत्ति रखने तथा बेचने का अधिकार प्राप्त था। (पहली बार दासों को कृषि कार्यों में लगाया गया)
  • कृषि पशुपालन एवं वाणिज्य को शूत्र का धर्म बताया गया है। शूद्र कर्थक’ का भी उल्लेख मिलता है। जिसका अर्थ है शूद्र किसानों उन्हें सेना में भर्ती होने तथा     सम्पत्ति रखने का अधिकार था।

रीति

  • अन्तर्जातीय विवाह और अन्नपान निषिद्ध थे।
  • समाज में ब्राहृमण सबसे अधिक सम्मानित थे।

विवाह

  • समाज में संयुक्त परिवार की प्रथा थी।
  • लड़कों के लिए वयस्कता की आयु 16 वर्ष तथा कन्याओं के लिए 12 वर्ष होती थी।
  • स्मृतिओं में वर्णित विवाह के आठों प्रकार इस समय समाज में प्रचलित थे।
  • तलाक की प्रथा थी। तलाक पति-पत्नी की सम्पत्ति से संभव था।
  • पति की मृत्यु हो जाने पर स्त्री अपना पुर्नविवाह कर सकने के लिए स्वतन्त्र थी। सती प्रथा योद्धा वर्ग में प्रचलित।
  • कुलीन परिवारों में बहुविवाह की प्रथा थी। समाज में अन्र्तजातीय विवाह का भी प्रचलन था।
  • उच्च जाति के व्यक्ति का अपने नीचे की जाति में विवाह अनुलोम तथा उच्चजातीया कन्या का निम्नजातीय वर के साथ विवाह प्रतिलोभ कहा जाता था।
  • स्त्रियाँ सम्राट की अगरक्षिका नियुक्त की जाती थी।
  • समाज में पर्दा-प्रथा प्रचलित थी। कौटिल्य ने स्त्रियों के लिए उच्च शिक्षा वर्जित       बतायी है।
  • स्त्री हत्या का अपराध ब्रह्म हत्या की भाँति ही भंयकर माना जाता था।
  • नियोग-प्रथा का भी प्रचलन था।

सामाजिक अवस्था

  • दास प्रथा – अर्थशास्त्र में दास-प्रथा का विस्तृत वर्णन मिलता है। दास प्राय: अनार्य होते थे जो बेचे और खरीदे जा सकते थे।
  • तत्कालीन समाज में दासों के साथ अच्छा व्यवहार किया जाता था। उन्हें पीटना अथवा गाली देना भी गैर कानूनी था। उनका अपनी तथा अपने माता-पिता की सम्पत्ति पर अधिकार था।
  • यदि दास स्वयं अथवा उनके सम्बन्धी मूल्य अदा कर दें तो उन्हें दासत्व से स्वतन्त्रता मिल सकती थी।
  • भोजनपान- अर्थशास्त्र में औदनिका’ (पका चावल बेचने वाला) आप्तापि का (रोटी बेचने वालों) पक्वान्नपक्या: (पक्वान बेचने वालों)
  • आमोद-प्रमोद – बिहार यात्रा के अतिरिक्त अशोक के अभिलेखों में ‘समाज’ का उल्लेख है। समाज में अनेक प्रकार के आमोद-प्रमोद होते थे। इसमें मनुष्यों और पशुओं के मल्ल युद्ध प्रमुख थे। हिंसात्मक होने के कारण अशोक ने इन्हें बन्द करवा दिया था।
  • रथदौड़ का भी आयोजन होता था। साधारण जनता में प्रेक्षायें (तमाशे) बडे़ लोकप्रिय होते थे।
  • गांव में शालायें होती थीं जहाँ अन्यान्य प्रकार के खेल-कूद संगठित होते थे।
  • नैतिक स्तर- अशोक के धर्म-प्रचार ने मनुष्य के नैतिक पक्ष पर बहुत अधिक महत्व दिया था। वह वाहृय आडम्बर के स्थान पर अन्त:शुद्धि का ही प्रमुख प्रचारक       था।
  • भारतीयों की दृष्टि में योग्यता वय की अपेक्षा अधिक महत्वपूर्ण एवं आदरणीय थी।
  • सौन्दर्य प्रेम- अर्थशास्त्र में वर्णित वस्त्राभरणों एवं प्रसाधन सामग्री से भी भारतीयों की सौन्दर्य प्रियता सिद्ध होती है।

   आर्थिक व्यवस्था

  • मौर्य काल में भी भारत एक कृषि प्रधान देश था। मेगास्थनीज लिखता है कि दूसरी जाति कृषकों की है जो संख्या में सबसे अधिक है।
  • मौर्यकाल में स्त्री-पुरूष सभी आभूषण पहनते थे। धनी लोग अपने कानों में हाथी दाँत के उच्च कोटि के आभूषण पहनते थे।
मौर्य शासन व्यवस्था कुछ विशेष तथ्य
समाहर्ता- राजस्व विभाग का प्रधान अधिकारी। यह एक प्रकार से आधुनिक गृहमंत्री और वित्तमंत्री था।
सन्निघाता यह कोषाध्यक्ष होता था।
प्रदेष्टा- फौजदारी न्यायलय का न्यायाधीश था।
नायक- सेना का संचालक।
कर्मान्तिक- उद्योग धन्धों का प्रधान निरीक्षक।
व्यावहारिक दीवानी न्यायालय का न्यायधीश।
दण्डपाल सेना की सामग्रियों को जुटाने वाला प्रधान अधिकारी।
अन्तपाल सीमावर्ती दुर्गों का रक्षक।
नागरक नगर का प्रमुख अधिकारी।
प्रशास्तु राजकीय कागजातों को सुरक्षित रखने वाला तथा राजकीय आज्ञाओं को लिपिबद्ध करने वाला प्रधान अधिकारी।
दौवारिक राजमहल की देखभाल करने वाला।
अन्तर्वेशिक सम्राट की अंगरक्षक सेना का प्रधान।
आटविक- वन विभाग का प्रधान अधिकारी।
पौर- राजधानी का शासक।
  • बडे़-बडे़ सुनारों की दुकानों पर ध्यापक (भट्टी धौकने वाले) और पाँशुवातक गर्द साफ करने वाले रहते थे।
  • मुद्राध्यक्ष के निरीक्षण में समुद्र में विविध मणि, मुक्ता रत्न, सीप आदि निकालने का काम होता था। इन सब का भी प्रयोग, आभूषण निर्माण में होता था।
  • आयुधागाराध्यक्ष के निरीक्षण में धातुओं से युद्ध के अस्त्र-शस्त्र बनते थे।
  • सुरा का व्यवसाय भी काफी उन्नत अवस्था में था- अर्थशास़् में 6 प्रकार की सुराओं भेद्रक, प्रसन्न, आसव, अरिष्ट, मैरेय और मधु का उल्लेख करता है।
  • सुरा के निर्माण और प्रयोग पर सुराध्यक्ष का पूर्ण नियन्त्रण रहता था।
  • कौटिल्य ने स्वतन्त्र व्यवसाय और राज-संचालित व्यवसाय के बीच में मध्यम मार्ग अपनाया था।
  • पाटलिपुत्र से पश्चिमोत्तर प्रदेश को जाने वाला मार्ग 1500 कोस लम्बा या दूसरा महत्वपूर्ण मार्ग है हैमवतपथ था।
  • आन्तरिक व्यापार देश की नदियों के मार्ग से भी होता था। छोटी नदियों में ‘क्षुद्रका नाव: (छोटी नौकायें)’ और बड़ी नदियों में ‘महानाव’ (बड़ी नौकायें) चलती थी। इनके अतिरिक्त ‘प्लब’ (डोंगी) का भी प्रयोग होता था।
  • मिश्र नरेश टालमी ने लाल सागर के तट पर बरनिस नाम का एक बन्दरगाह स्थापित करवाया था।
  • स्त्रियां सैनिक शिक्षा प्राप्त करती थी। महिला अगरक्षिकायें चन्द्रगुप्त का रक्षा करती थीं।
  • समाज में वैश्यावृति भी प्रचलित थी। वेश्याओं का काफी सम्मान होता था। वे राज्य के लिए, महत्वपूर्ण आय की साधन होती थी।

भोजन पान

  • भोजन में अन्न, फल, दूध, तथा मांस सम्मिलित थे। अन्नों में गेहूं, चावल, जौ का प्रयोग होता था।
  • समाज में मदिरा का भी प्रयोग होता था। कुछ मदिरालयों, में वेश्याएं भी रहती थी।

आमोदप्रमोद

  • विहार, यात्रा का प्रमुख अंग शिकार होता था। रथदौड़ भी होते थे।
  • साधारण जनता में प्रेक्षायें (तमाशे) बड़े लोकप्रिय होते थे।

आर्थिक अवस्था

  • राज्य की अर्थव्यवस्था कृषि, पशुपालन, और वाणिज्य व्यापार पर आधारित थीं।
  • इनकों सम्मिलित रूप से वार्ता कहा गया है। अर्थात वृत्ति का साधन, इन व्यवसायों में कृषि मुख्य था।
  • खेती हल-बैल की सहायता से होती थी।
  • इस काल में ही मूंठदार कुल्हाड़ियों, फाल, हंसियें आदि का कृषि कार्यों के लिए, बडे-बडे़ पैमाने पर प्रयोग प्रारम्भ होता था।
  • गेहूं, जौ, चना, चावल, र्इख, तिल, सरसों, मसूर, शाक आदि प्रमुख फसलें थी।
  • पशुओं में गाय, बैल, भेंड़, बकरी, भैस, गधे, ऊँट, सुअर, कुत्ते आदि प्रमुख रूप से पाले जाते थे।

उद्योग धन्धे

  • सूती कपड़े के व्यवसाय के लिए काशी, वत्स, अपरान्त, बंग और मथुरा विशेष प्रख्यात थे।
  • देश में कपास की खेती प्रचुरता में होती थी। काशी और मगध अपने सत के बने कपड़ों के लिए प्रसिद्ध थे। इस समय चीन का रेशमी वस्त्र भारत में आता था।
  • इस समय बंगाल अपने मलमल के व्यवसाय का लिए प्रसिद्ध था।

धातुकर्म

  • राज्य की ओर से होने वाले खानों के कार्य का अध्यक्ष आकाराध्यक्ष कहलाता था।
  • सोना, चाँदी, ताँबा, लोहा, शीशा, टीन, पीतल, कांसा आदि धातुओं से विभिन्न प्रकार के अस्त्र-शस्त्र, बर्तन, आभूषण तथा उपकरण बनाये जाते थे।
  • लोग धातुओं को गलाने तथा शुद्ध करने की कलाओं से भी परिचित थे।
  • पाषाण तरासने का उद्योग भी अच्छी अवस्था में था।
  • हाथी-दाँत से भी सुन्दर एवं आकर्षक उपकरण तैयार किये जाते थे।

व्यापार

  • मार्ग निर्माण का एक विशेष अधिकारी था, जो एग्रोनोमार्इ कहलाता था। ये लड़कों की देख-रेख करते थे।
  • इस समय भारत का बाहृा व्यापार सीरिया मिश्र, तथा अन्य पश्चिमी देशों के साथ होता था। यह व्यापार पश्चिमी भारत में भूगुकच्छ तथा पूर्वी भारत में ताम्रलिप्ति के बन्दरगाहों के द्वारा किया जाता था।
  • कश्मीर, कोशल, बिदर्भ, और कलिंग, हीरे के लिए प्रख्यात थे।
  • हिमालय प्रदेश चमडे़ के लिए प्रसिद्ध था।
  • मगध और सुवर्ण कुड्य वक्षों के रेशों से बने हुए वस्त्रों के लिए तथा ताम्रपर्णि और केरल अपने मोतियों के लिए दूर-दूर तक प्रसिद्ध थे।
  • व्यापारिक जहाजों का निर्माण इस काल का, एक प्रमुख उद्योग था।
  • समुद्र के जलमार्गों को कौटिल्य ने संयानपथ के नाम से पुकारा है। समुद्र में आने-वाले जहाज प्रवहण कहलाते थे। नवाध्यक्ष नामक पदाधिकारी व्यापारिक जहाजों का नियन्त्रण करता था।
  • पश्चिमी तट पर सोपारा महत्वपूर्ण बन्दरगाह था। रोमिला थापर के अनुसार अशोक द्वारा कलिंग की विजग्र का एक कारण, व्यापार की दृष्टि से कलिंग का महत्व था।
  • भारत से आने वाली विदेशी सामग्री में चीनपट्ट और कार्बनिक मुक्त का विशेष मान था।
  • भारत और मिस्त्र के बीच होने वाला व्यापार भी उन्नत था। इस व्यापार को और अधिक प्रोत्साहन देने के लिए मिस्त्र-नरेश टालमी ने लाल सागर के तट पर थरनिस नाम का एक बन्दरगाह स्थापित करवाया था।
  • भारत में मिश्र की हाथीदांत, कछुए सीपियां, मोती रंग नील और बहुमूल्य लकड़ी निर्यात होती थी।
  • पण्याध्यक्ष बिक्री की वस्तुओं का सूक्ष्मता से निरीक्षण करता था। व्यापारी स्थानीय वस्तुओं पर 5 % तथा विदेशी वस्तुओं पर 10 % का मुनाफा कमा सकते थे।
  • उद्योग-धन्धों की संस्थाओं को श्रेणी कहा जाता था। जातक ग्रन्थों में 18 प्रकार की श्रेणियों का उल्लेख हुआ है। श्रेणियों के अपने-अपने न्यायालय होते थे जो व्यापार व्यवसाय सम्बन्धी झगड़ों का निपटारा किया करते थे। श्रेणी न्यायालय का प्रधान ‘महाश्रेष्ठि’ कहा जाता था।
  • बेफीकर न देने वालों के लिए मृत्युदण्ड था।
  • भड़ौंच पूर्व का सबसे बड़ा व्यापारिक केन्द्र था।

मुद्रा

  • सुवर्ण-सोने का, ……….. या पण धरण- चांदी का
  • माषम तांबे का काकणी तांबे का।
  • अर्थशास्त्र में राजकीय टकसाल का भी उल्लेख मिलता है, जिसका अधीक्षक लक्षणाध्यक्ष होता था।
  • मौर्य काल में जनगणना के निमित्त एक स्थायी विभाग की स्थापना की गयी थी।
  • उधार दिये जाने वाले धन पर ब्याज की दर 15 % थी।

लिपि

  • इस काल में दो लिपियां प्रयोग में लार्इ जाती थीं। ब्राहृी लिपि तथा खरोष्ठी लिपि।
  • केवल मानसेरा और शहाबाजगढ़ी के शिलालेख खरोष्ठी लिपि में हैं।
  • खरोष्ठी लिपि अशोक के उत्तर-पश्चिमी सीमान्त प्रदेशों में प्रचलित थी। खरोष्ठी लिपि दार्इ से बायीं ओर लिखी जा थी।
  • ब्राह्मी लिपि सम्पूर्ण भारत में प्रचलित थी। यह लिपि बायें से दायें लिखी जाती थी।
  • मौर्य काल में साधारण जनता की भाषा पाली थी।
  • इस समय भोग्गलिपुत्र तिस्स ने ‘कथावत्थु’ नामक अभिधम्मपिटक के प्रसिद्ध ग्रन्थ तथा भद्रबाहु ने कल्पसूत्र की रचना की थी।
  • कौटिल्य का अर्थशास्त्र इस कला की सर्वाधिक प्रसिद्ध कृति है। यह हिन्दू राज्यतन्त्र पर प्राचीनतम उपलब्ध रचना है। मार्गों पर स्तम्भ गड़े होते थे जिन पर दूरी-सूचक चिन्ह उत्कीर्ण रहते थे।

शिक्षा और साहित्य

  • इस समय तक्षशिल उचतम शिक्षा का एक प्रसिद्ध केन्द्र था। कौशल का राजा प्रसेनजितु यहाँ पढ़ चुका था। बिम्बिसार के राजवैद्य ने भी तक्षशिला में ही शिक्षा पायी थी।
  • प्रथम प्रकार के विद्यार्थी सामान्यतया धनी वर्ग के होते थे और आचार्य को फीस देते थे। ये दिन भर पढ़ते थे। इन्हें ‘आचारियाभागदायक’ कहते थे।
  • द्वितीय प्रकार के विद्यार्थी साधारणत: निर्धन होते थे। निश्चित फीस न दे सकने के कारण ये लोग उसके बदले में दिन भर आचार्यों की सेवा करते थे और एक साथ रात को पढ़ते थे इन्हें ‘धम्मन्तेवासि’ कहते थे। शूद्रों का प्रवेश निपिद्ध था।
  • कात्यापन ने पाणिनी की अष्टाध्यायी पर अपने वार्तिक इसी समय लिखे।
  • सुबंधु जो बिन्दुसार का मंत्री था, ने ‘वासवदत्ता नाट्यधारा’ नामक प्रसिद्ध विद्वान भी इसी समय हुआ।
  • वात्स्यायन ने ‘कामसूत्र’ नामक ग्रन्थ की रचना की।
  • इसी समय जैन धर्म का प्रसिद्ध भिक्षु भद्रबाहु हुआ। अन्य जैन विद्वान जम्बू स्वामी, प्रभव और स्वयभम्भव भी इसी काल में हुए।
  • जैन धर्म के आचारांगसूत्र भगवती सूत्र, समवायांगसूत्र आदि की रचना अधिकाँशत: इसी समय हुर्इ।

धार्मिक अवस्था

  • इस समय के मुख्य धर्म एवं सम्प्रदाय वैदिक, बौद्ध जैन, आजीवक आदि थे।
  • निगलिवा स्तम्भ लेख में महात्मा-बुद्ध से पूर्व हुए बोधिसत्वों की पूजा का उल्लेख मिलता है।
  • आजीवक ब्राह्मण धर्म से पृथक सम्प्रदाय था। आजीवक का मुख्य व्यक्ति गोसाल था। आजीवकों नग्र सन्यासी की भाति जीवन व्यतीत करते थे। ये लोग इन्द्रिय-निग्रह को धर्म का एक भाग न मानते थे।
  • गोसाल का सिद्धान्त था कि प्रत्येक वस्तु तथा घटना एक नियति के अनुसार होती है और मनुष्य इस नियति का दास होता है। अशोक ने आजीवक सन्यासियों के लिए बराबर की गुफाओं को समर्पित कर आजीवक, सम्प्रदाय की प्रमुखता को माना था।
  • निर्ग्रन्थ (जैन) महावीर के अनुगामी थे। अशोक के काल में जैन धर्म एक प्रमुख धर्म था। अशोक का पौत्र संप्रति जैन-धर्म को मानने वाला था।
  • सन्यासियों को जगम कहा जाता था।
  • ब्राह्मण धर्म के अन्तर्गत बहुदेवाद प्रचलित था। अर्थशास्त्र अपराजित, अप्रतिहत, अयन्त, बैजन्त, शिव, बैजग्ग्, अश्विन, श्री तथा दिग्देवताओं का उल्लेख करता है।
  • मेगस्थनीज प्रमुख देवताओं में शिव और कृष्ण का नाम लेता है।
  • बासुदेव पूजा का उल्लेख पाणिनी ने किया है।
  • देवमूर्तियों को बनाने वाले शिल्पी, देवताकारू कहलाते थे। मौर्य काल में शिव स्कन्ध, और विशाख की मूर्तियां बेची जाती थी।
  • मेगस्थनीज के गंगा को सबसे अधिक पवित्र बताया है।
  • सिकन्दर ने ‘मेण्डनिस नामक एक अनिच्छुक ब्राह्मण को मृत्युदण्ड की धमकी देकर अपनी राजसभा में बुलाने का निष्पक्ष, प्रयास किया।
  • अशोक के काल में यद्यपि बौद्ध धर्म का बहुत अधिक विकास हुआ फिर भी देश में धार्मिक सहिष्णुता थी।
  • वैदिक काल का यज्ञ धर्म सबसे अधिक प्रबल था। साधारण जनता यज्ञ, हवन, बलि आदि कराती थी तथा इनसे सम्बन्धित अनेक प्रकार के मंगल भी मनाती थी।
  • अशो के समय में बुद्ध की मूर्ति-पूजा का कोर्इ चिन्ह नहीं मिलता।
  • बलि के पशु को छूरी घुसेड़कर नहीं मारते, वरन गला घोंटकर मारते है।
  • तीर्थकर भी लिया जाता था।
  • दार्शनिक पक्ष निर्माण प्राप्ति को मनुष्य का परम लक्ष्य बताता था परन्तु लौकिक पक्ष में स्वर्ग की प्राप्ति ही उसका अभीष्ट था।
  • चाणक्य वर्णाश्रम धर्म का कट्टर पक्षपाती था।
  • अर्थशास्त्र से प्रगट होता है कि निवृतिमार्गी पाखण्डों को नगर के बाहर रखने की व्यवस्था की गयी थी।
  • चीन में बौद्ध धर्म को ले जाने का श्रेय कश्यप मातंग नामक भिक्षु को दिया जाता है।
  • महायान के मूलगत विचारों का निर्माण सातवाहन काल के एक दार्शनिक नागार्जुन के द्वारा हुआ कहा जाता है। बौद्धों का कथावस्तु, भद्रबाहु का कल्पसूत्र, आविर्भाव मौर्यकाल में।
  • जैनों का सूत्र कृतांग स्पष्टत: छातरंज (अष्टारत) का उल्लेख करता है।
  • निरीक्षक तथा सभासद नामक दो अधिकारियों की जातियों का अभ्युदय इस काल की एक अपनी विशेषता थी।
  • स्त्रियों का क्रध-विक्रय स्वीकार किया गया है।
  • लक्षणाध्यक्ष- मुद्रा अथवा टकसाल का अध्यक्ष
  • पौतबाध्यक्ष- नाप, तौल, बाट, तराजू आदि से सम्बन्धित विषयों का अध्ययन
  • शुल्काध्यक्ष- राजकीय धन जुर्माने इतयादि कार्यों का अध्यक्ष
  • सीताध्यक्ष- राजकीय कृषि का प्रबन्धक
  • विवीताध्यक्ष- चारागाहों का अधिकारी
  • नवाध्यक्ष- पशु निरीक्षक
  • पतनाध्यक्ष-बन्दरगाहों का अधिकारी
  • गणिकाध्यक्ष- वेश्यालयों का निरीक्षक
  • संस्थाध्यक्ष- व्यापार का प्रबन्धक
  • कुणयाध्यक्ष- वन सम्बन्धी कार्यों का अध्यक्ष
  • उपधा-परीक्षण- वह क्रिया थी, जिसके द्वारा राजा मुख्यमंत्रियों तथा पुरोहितों की नियुक्ति से पूर्व इनका चारित्रिक परीक्षण करता था।

कला और स्थापत्य

  • इस युग में कला के दो रूप मिलते है। एक दो राजलक्षकों द्वारा निर्मितकला, जो कि मौर्य-प्रासाद और अशोक के स्तम्भों में पायी जाती है। दूसरा वह रूप जो परखम के यक्ष दीदारंगज की चामरग्रहिणी और वेसनगर की यक्षिणी में देखने को मिलता है और उसे लोक-कला कहा जा सकता है। राजसभा से सम्बन्धित कला की प्रेरणास्त्रोत स्वयं सम्राट था।
  • स्तम्भअशोक के स्तम्भ एकाश्मक अर्थात एक ही पत्थर से तराशकर बनाये गय हैं।
  • अशोक स्तम्भों के शीर्ष पर पशुओं की आकृतियां है।
  • अशोक के स्तम्भ सपाट मिलते है।
  • अशोक के स्तम्भ नीचे से ऊपर की ओर क्रमश: पतले होते गये हैं।
  • अशोक के कुल 17 स्तम्भ है।
  • स्तम्भों की यष्टि एक ही पत्थर को तराशकर बनार्इ गयी है।
  • स्तम्भों की लम्बार्इ 35 से 50 फीट तक का प्रत्येक वजन लगभग 50 टन है।
  • स्तम्भ शीर्षों में सारनाथ के स्तम्भ का सिंहशीर्ष सर्वोत्कृष्ट है इसके पलक पर चार सजीवसिंह पीठ से पीठ सटाये हुए चारों दिशाओं की ओर मुहं किये हुए दृढ़तापूर्वक बैठे हैं। सिंहों के मस्तक पर एक महाधर्मचक्र स्थापित था जिसमें मूलत: 32 तीलियां थीं।
  • सिंहों के नीचे की फलकों पर चारों दिशाओं में, चार चक्र बने हुए हैं जो धर्मचक्र प्रवर्तन के प्रतीक हैं। इसी पर चार पशुओं गज, अश्व, बैल, सिंह, की आकृतियां उत्कीर्ण हैं। इनमें हाथी बुद्ध के स्वप्र और विचार का बैल उसके जन्म का, अश्व गृहत्याग का तथा सिंह सार्वभौम सत्ता का प्रतीक है।
  • स्तूप स्तूप का निर्माण की प्रथा बुद्ध काल के पूर्व की ओर है।
  • स्तूप का उल्लेख सर्वप्रथम श्रृग्वेद में प्राप्त होता है। स्तूप जिन समाधियों में रखे जाते थे, उन्हें ‘चैत्यगृह’ कहा जाता था।
  • बौद्ध परम्परा अशोक को 84000 स्तूपों के निर्माण का श्रेय प्रदान करती है। सांची तथा भरहुत के स्तूपों का निर्माण मूलरूप में अशोक ने ही करवाया था।
  • गुहा-विहार- पवतो को काटकर गुहा-ग्रहों को निर्माण करने की कला का प्रारम्भ मौर्य काल से ही हुआ। जिसने आगे चलकर अजन्ता और ऐलोरा की गुहा कला के रूप में पूर्ण विकास पाया।
  • अशोक के समय बराबर पहाड़ी की गुफाओं में सुदामा की गुफा’ तथा ‘कर्ण चौपार’ नामक गुफा सर्वप्रसिद्ध है। प्रथम का निर्माण अशोक ने अपने शासन काल के 12 वे वर्ष तथा द्वितीय का 19 वे वर्ष में करवाया था।
  • दशरथ के समय बनी गुफाओं लोमष भृषि नाम की गुफा उल्लेखनीय है। यह बराबर समूह की सबसे प्रसिद्ध गुफा है।
  • नागार्जुनी समूह में ‘गोपिका गुफा’ महत्वपूर्ण है जिसे दशरथ ने अपने अभिषेक वर्ष में बनवाया था।
  • अशोक की समस्त कला कृतियां में सबसे अधिक महत्वपूर्ण हैं उसे पाषाण स्तम्भ इनकी संख्या 30-40 है। इनका निर्माण चुनार के बलुआ पत्थर से किया गया था।

मूर्तिकला

  • दीदारगंज से मिली चामरग्राहिणी यक्षी को मूर्ति सारनाथ से मिले हुए दो पुरूष मूर्तियों के मस्तक आदि विशेष रूप से उल्लेखनीय है।
  • पत्थर पर शीशे की तरह चमकीली पालिश लगाने की कला मौर्य कलाकारों ने अखामनियों से सीखी थी।
  • पाषाण का प्रयोग अत्यधिक कुशलता और प्रचुरता के साथ किया गया है।
  • अशोक के समय में कश्मीर के श्रीनगर और नेपाल के ललितपाटन नामक नगरों का निर्माण हुआ।
  • समस्त पाषाण स्तम्भों में सारनाथ का पाषाण स्तम्भ सबसे अधिक सुन्दर है।
  • ऐतिहासिक काल में पक्की र्इटों और मंडल कूपों का प्रयोग सर्वप्रथम सबसे पहले इसी काल में दृष्टिगोचर होता है।
मौर्यकालीन राज्य
राज राजधानी
कलिंग तोसली
अंवन्ति उज्जयिर्न
प्राशी पाटलिपुत्र
दक्षिणापथ सुवर्णगिरि
उत्तरापथ तक्षशिला
अशोक के शिलालेखों के प्राप्ति स्थान
शिलालेख (Rock Edicts) लघु शिलालेख
1.      कालसी (उत्तर प्रदेश के देहरादून जिले में) 1.      गुजर्रा (मध्य प्रदेश के दतिया जिले में)
2.      शाहबाज गढ़ी (पेशावर जिले में) 2.      मास्की (हैदराबाद के रायचूर जिलें में)
3.      गिरनार (गिरनार पहाड़ी काठियावाड़) 3.      रूपनाथ (मध्य प्रदेश के जबलपुर जिले में)
4.      मानसेहरा (हजारा जिले में ) 4.      सासाराम (बिहार के शाहाबाद जिले में)
5.      जौगढ़ (उड़ीसा के गंजाम जिले में) 5.      भात्रू्र (राजस्थान के उदयपुर जिले में
6.      धौली (उड़ीसा के पुरी जिले में) 6.      जटिंग रामेश्वर (ब्रह्मगिरि के पास)
7.      एरागुडि (आन्ध्र प्रदेश के कुर्नूल जिले में 7.      सिद्धपुर (ब्रह्मगिरि के पास)
8.      सोपारा (महाराष्ट्र के थाना जिले में) 8.      ब्रह्मगिरि (मैसूर के चित्तलदुर्ग जिले में)
9.      गोविमठ (मैसूर के कोपबल के समीप)
10.  एर्रगुडि (आन्ध्र प्रदेश के कर्नूल जिले में)
11.  रजुल मंडगिरि (आन्ध्र प्रदेश के कर्नूल जिले में)
12.  पालकिगुण्डु (गोविमड के  समीप)
13.  अहरौरा (उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर जिले में)

मौर्य साम्राज्य में राज्य का प्रधान कौन होता था ?)?

चक्रवर्ती सम्राट अशोक के राज्य में मौर्यवंश का वृहद स्तर पर विस्तार हुआ। सम्राट अशोक के कारण ही मौर्य साम्राज्य सबसे महान एवं शक्तिशाली बनकर विश्वभर में प्रसिद्ध हुआ।

मौर्य साम्राज्य में कितने राज्य हैं?

शाही राजधानी पाटलिपुत्र के साथ मौर्य साम्राज्य चार प्रांतों में विभाजित था।

मौर्य वंश का सबसे बड़ा राजा कौन है?

अशोक सबसे प्रसिद्ध मौर्य शासक था। वह लोगों तक अपना संदेश पहुंचाने के लिए शिलालेखों का उपयोग करने वाला पहला शासक था। अशोक के अधिकांश शिलालेख प्राकृत में थे और ब्राह्मी लिपि में लिखे गए थे।

मौर्य काल में जिले को क्या कहा जाता था?

मौर्यकाल में जिलों को विषय कहा जाता थाजिले का सर्वोच्च अधिकारी/प्रशासक विजय पति होता था। प्रादेशिक - यह क्षेत्र में दौरा करता था तथा जिले व गांव के अधिकारियों का विवरण समाहर्ता को देता था