इस धारा-सा ही जग का क्रम, शाश्वत इस जीवन का उद्गम, शाश्वत है गति, शाश्वत संगम - is dhaara-sa hee jag ka kram, shaashvat is jeevan ka udgam, shaashvat hai gati, shaashvat sangam

शांत स्निग्ध, ज्योत्स्ना उज्ज्वल! अपलक अनंत, नीरव भू-तल! सैकत-शय्या पर दुग्ध-धवल, तन्वंगी गंगा, ग्रीष्म-विरल, लेटी हैं श्रान्त, क्लान्त, निश्चल! तापस-बाला गंगा, निर्मल, शशि-मुख से दीपित मृदु-करतल, लहरे उर पर कोमल कुंतल। गोरे अंगों पर सिहर-सिहर, लहराता तार-तरल सुन्दर चंचल अंचल-सा नीलांबर! साड़ी की सिकुड़न-सी जिस पर, शशि की रेशमी-विभा से भर, सिमटी हैं वर्तुल, मृदुल लहर। चाँदनी रात का प्रथम प्रहर, हम चले नाव लेकर सत्वर। सिकता की सस्मित-सीपी पर, मोती की ज्योत्स्ना रही विचर, लो, पालें चढ़ीं, उठा लंगर। मृदु मंद-मंद, मंथर-मंथर, लघु तरणि, हंसिनी-सी सुन्दर तिर रही, खोल पालों के पर। निश्चल-जल के शुचि-दर्पण पर, बिम्बित हो रजत-पुलिन निर्भर दुहरे ऊँचे लगते क्षण भर। कालाकाँकर का राज-भवन, सोया जल में निश्चिंत, प्रमन, पलकों में वैभव-स्वप्न सघन। नौका से उठतीं जल-हिलोर, हिल पड़ते नभ के ओर-छोर। विस्फारित नयनों से निश्चल, कुछ खोज रहे चल तारक दल ज्योतित कर नभ का अंतस्तल, जिनके लघु दीपों को चंचल, अंचल की ओट किये अविरल फिरतीं लहरें लुक-छिप पल-पल। सामने शुक्र की छवि झलमल, पैरती परी-सी जल में कल, रुपहरे कचों में ही ओझल। लहरों के घूँघट से झुक-झुक, दशमी का शशि निज तिर्यक्-मुख दिखलाता, मुग्धा-सा रुक-रुक। अब पहुँची चपला बीच धार, छिप गया चाँदनी का कगार। दो बाहों-से दूरस्थ-तीर, धारा का कृश कोमल शरीर आलिंगन करने को अधीर। अति दूर, क्षितिज पर विटप-माल, लगती भ्रू-रेखा-सी अराल, अपलक-नभ नील-नयन विशाल; मा के उर पर शिशु-सा, समीप, सोया धारा में एक द्वीप, ऊर्मिल प्रवाह को कर प्रतीप; वह कौन विहग? क्या विकल कोक, उड़ता, हरने का निज विरह-शोक? छाया की कोकी को विलोक? पतवार घुमा, अब प्रतनु-भार, नौका घूमी विपरीत-धार। ड़ाँड़ों के चल करतल पसार, भर-भर मुक्ताफल फेन-स्फार, बिखराती जल में तार-हार। चाँदी के साँपों-सी रलमल, नाँचतीं रश्मियाँ जल में चल रेखाओं-सी खिंच तरल-सरल। लहरों की लतिकाओं में खिल, सौ-सौ शशि, सौ-सौ उडु झिलमिल फैले फूले जल में फेनिल। अब उथला सरिता का प्रवाह, लग्गी से ले-ले सहज थाह हम बढ़े घाट को सहोत्साह। ज्यों-ज्यों लगती है नाव पार उर में आलोकित शत विचार। इस धारा-सा ही जग का क्रम, शाश्वत इस जीवन का उद्गम, शाश्वत है गति, शाश्वत संगम। शाश्वत नभ का नीला-विकास, शाश्वत शशि का यह रजत-हास, शाश्वत लघु-लहरों का विलास। हे जग-जीवन के कर्णधार! चिर जन्म-मरण के आर-पार, शाश्वत जीवन-नौका-विहार। मै भूल गया अस्तित्व-ज्ञान, जीवन का यह शाश्वत प्रमाण करता मुझको अमरत्व-दान।