UP Board सुमित्रानन्दन पन्त – परिचय – नौका-विहार – परिवर्तन – बापू के प्रति प्रकृति की सुकुमार भावनाओं के कवि सुमित्रानन्दन पन्त का जन्म हिमालय के सुरम्य प्रदेश कूर्मांचल (कुमाऊँ) के कौसानी नामक ग्राम में 20 मई, 1900 को हुआ था। इनके पिता का नाम पण्डित गंगादत्त पन्त तथा माता काbनाम श्रीमती सरस्वती देवी था। कौसानी के वर्नाक्यूलर स्कूल से प्रारम्भिकbशिक्षा पूर्ण कर ये उच्च विद्यालय में अध्ययन के लिए अल्मोड़ा के राजकीय हाईस्कूल में प्रविष्ट हुए। यहीं पर इन्होंने अपना नाम
गसाईं दत्त से बदलकर छायावादी युग के प्रतिनिधि कवि सुमित्रानन्दन पन्त ने सात वर्ष की आयु में ही कविता लेखन प्रारम्भ कर दिया था। इनकी प्रथम रचना 1916 ई. में आई, उसके बाद इनकी काव्य के प्रति रुचि और बढ़ गई। पन्त जी के काव्य में कोमल एवं मृदुल भावों की अभिव्यक्ति होने के कारण इन्हें ‘प्रकृति का सुकुमार कवि’ कहा जाता है। इनकी निम्नलिखित रचनाएँ उल्लेखनीय हैं भाव पक्ष सुमित्रानन्दन पन्त के काव्य में कल्पना एवं भावों की सकमार कोमलता के दर्शन होते हैं। पन्त जी सौन्दर्य के उपासक थे। वे युगद्रष्टा व युगस्रष्टा दोनों ही थे। व असाधारण प्रतिभा सम्पन्न साहित्यकार थे। छायावाद के युग प्रवर्तक कवि के रूप शब्दार्थ
स्निग्ध-तरल, शीतल ज्योत्स्ना-चाँदनी: उज्ज्वल-सफेद: सन्दर्भ प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिन्दी पाठ्यपुस्तक में संकलित सुमित्रानन्दन पन्त द्वारा रचित ‘नौका-विहार’ शीर्षक कविता से उदधत है। प्रसंग प्रस्तुत पद्यांश में कवि पन्त जी ने चाँदनी रात में किए गए नौका-विहार का चित्रण किया है। इसमें कवि ने गंगा की कल्पना नायिका के रूप में की है। व्याख्या कवि कहता है कि चारों ओर शान्त, तरल एवं उज्ज्वल चाँदनी छिटकी हुई है। आकाश टकटकी बाँधे पृथ्वी को देख रहा है। पृथ्वी अत्यधिक शान्त
एवं शब्दरहित है। ऐसे मनोहर एवं शान्त वातावरण में क्षीण धार वाली गंगा बालू के बीच मन्द-मन्द बहती ऐसी प्रतीत हो रही है मानो कोई छरहरे, दुबले-पतले शरीर वाली सुन्दर युवती दूध जैसी सफेद शय्या पर गर्मी से व्याकुल होकर थकी, मुरझाई एवं शान्त लेटी हुई हो। गंगा के जल में चन्द्रमा का बिम्ब झलक रहा है, । जो ऐसा प्रतीत हो रहा है जैसे गंगारूपी कोई तपस्विनी अपने चन्द्र-मुख को अपने ही कोमल हाथों पर रखकर लेटी हुई हो और छोटी-छोटी लहरें उसके वक्षस्थल। पर ऐसी प्रतीत होती है मानों वे लहराते हुए कोमल केश हैं। काव्य सौन्दर्य कला पक्ष शब्दार्थ सत्वर-शीघ्र, तेज; सिकता-बालू, रेत; सस्मित-मुसकराती हुई; पाल-नाव का वेग बढ़ाने हेतु उसके ऊपर लगाई गई चादर; लंगर-नाव को रोके रखने हेतु लोहे का बना भारी काँटा; मृदु-मधुर; सन्दर्भ पूर्ववत्। प्रसंग प्रस्तुत पद्यांश में चाँदनी रात में किए जाने वाले नौका-विहार का मनोरम चित्रण किया गया है। व्याख्या कवि पन्त जी कहते हैं कि वे चाँदनी रात के प्रथम पहर में काव्य सौन्दर्य कला पक्ष शब्दार्थ जल-हिलोर-पानी की लहर; नभ-आकाश; विस्फारित-खुले हुए, विस्तृत;
नयन-आँख; तारक-तारे; ज्योतित-प्रकाशित; अन्तस्तल-हृदय; ओट-आड; अविरल-लगातार; झलमल-चमकीला; पैरती-तैरती, कल- सुन्दर; रुपहरे-श्वेत; कच-केश, बाल; ओझल-गायब; तिर्यक्-टेढ़ा, मुग्धा- रूप-आकर्षण देख मुग्ध होने वाली। सन्दर्भ पूर्ववत्। प्रसंग प्रस्तुत पद्यांश में नौका-विहार करने के दौरान गंगा की अपूर्व छटा का वर्णन किया गया है। व्याख्या गंगा में नौका-विहार करते हुए कवि पन्त जी कहते हैं कि नौका चलने के कारण जल में तरंगें उठती हैं, जिससे जल में प्रतिबिम्बित आकाश इस छोर से उस छोर तक हिलता
हुआ-सा प्रतीत होता है। जल में पड़ती तारों की परछाई को देखकर ऐसा आभास होता है, मानों तारों का दल जल के अन्दर के काव्य सौन्दर्य कला पक्ष शब्दार्थ चपला-नाव: कगार-किनारा: दूरस्थ-बहत-दूर तीर-किनारा; सन्दर्भ पूर्ववत्। व्याख्या कवि की नाव जब गंगा के मध्य धार में पहुँचती है, तो वहाँ से चन्टमा की चाँटनी में चमकते हुए रेतीले तट स्पष्ट दिखाई नहीं देते। कवि को । दर से दिखते दोनों किनारे ऐसे प्रतीत हो रहे हैं, जैसे वे व्याकल होकर गंगा की। धारा रूपी नायिका के पतले कोमल शरीर का आलिंगन करना चाहते हों, जिसके लिए उन्होंने अपनी दोनों बाँहें फैला रखी हैं। दूर क्षितिज पर कतारबद्ध वृक्षों को काव्य सौन्दर्य कला पक्ष शब्दार्थ प्रतनु-हलका, अत्यन्त क्षीण: डॉडा-पतवार; करतल-हाथ; सन्दर्भ पूर्ववत्। व्याख्या बीच धारा में पहुँचने पर अथाह जल होने के कारण नाव के भार में स्वाभाविक रूप से कमी आ जाती है। इसी आधार पर पन्त जी कहते हैं कि जब मेरी नाव गहरे पानी में धारा के मध्य जा पहँची और उसका भार
अत्यधिक कमा हो गया, तब मैंने पतवारों को घमा कर नाव को धारा की विपरीत दिशा में मात्र दिया। पतवारों के चलने से जल में काफी मात्रा में झाग उत्पन्न हो रहा है। इस दृश्य को देख कवि को ऐसा आभास होता है, जैसे पतवार अपनी हथेलियों व फैलाकर उनमें झाग रूपी मोतियों को भर-भर कर तथा तारों रूपी माला तोड़-तोड़कर जल में बिखेर रहे हैं। पतवारों के चलने के कारण नदी के शान्त जल में उठने वाली लहरें चाँदी के । साँपों-सी चमकती हुई आगे की ओर रेंगती हुई प्रतीत हो रही हैं। चन्द्रमा की किरणें लहरों पर पड़कर इस प्रकार
नृत्य करती हुई-सी दिख रही है, जैसे बहते हुए जल में असंख्य सीधी रेखाएँ खिंची हुई हों। एक साथ उठती बहुत-सी लहरों में एक ही चन्द्रमा सौ-सौ चन्द्रमा और एक-एक तारा सौ-सौ तारे बनकर झिलमिला रहे हैं। उन्हें देख ऐसा आभास होता है, जैसे गंगा रूपी खेत में लहरों काव्य सौन्दर्य कला पक्ष शब्दार्थ आलोकित-प्रकाशितः शत-सौ कम सिलसिला, प्रक्रिया; सन्दर्भ पूर्ववत्। प्रसंग प्रस्तुत पद्यांश में कवि ने नौका-विहार के अनुभव का वर्णन व्याख्या प्रस्तुत पद्यांश के माध्यम से कवि कहता है कि जैसे-जैसे हमारी नाका दूसरे किनारे की ओर बढ़ती जाती है, वैसे-वैसे हमारे हृदय में सैकड़ों विचार उठते हैं। ऐसा लगता है मानो इस संसार का क्रम भी इस जलधारा के समान ही है। व्याख्या प्रस्तुत पद्यांश के माध्यम से कवि कहता है कि जैसे-जैसे हमारी। का
दसरे किनारे की ओर बढ़ती जाती है, वैसे-वैसे हमारे हृदय में सैकड़ों विचार उठते हैं। ऐसा लगता है मानो इस संसार का क्रम भी इस जलधारा के समान ही है। जिस प्रकार धारा निरन्तर बहती चली आ रही है, आगे बह चुके जल का स्थान पीछे का जल ले लेता है, उसी प्रकार जीवन का बहाव भी निरन्तर है। जलधारा के समान ही जीवन का विस्तार शाश्वत है। जीवन का क्रम धारा की काव्य सौन्दर्य कला
पक्ष परिवर्तन
शब्दार्थ पूर्ण पुरातन वैभवपूर्ण अतीत; सुवर्ण का काल-स्वर्ण-युग, वैभवपूर्ण समय; भूतियों वैभवों, ऐश्वर्यों: दिगन्त-दिशाओं का अन्तः छवि जाल-ऐश्वर्य का फैला हुआ जाल: ज्योति चुम्बित्-प्रकाश से परिपूर्ण, जगमगाता हुआ; जगत-पृथ्वी; भाल-मस्तक: राशि-राशि-कण-कण: वसुधा-धरती; सुषमा शोभा, साभार- आभार सहित, अभिसार-मिलन: प्रसून फूल; ,शाश्वत-चिरन्तन, कभी न समाप्त होने वाला स्वर्ण भंग-सनहरे भँवरे विहार-भ्रमणः बारम्बार-बार-बार प्रथमोद्गार-पहला उदगार, प्रथम विचार: नग्न-नंगी; सुकुमा-कोमल ओ सिद्धि वैभव और समृद्धि, अपार-अनन्त, अपरिमित; संसृति-सृष्टि, प्रभात-सवेरा, प्रातःकाल: विख्यात प्रसिद्ध दुरित-पाप, दैन्य-दीनता; जर-बुढ़ापा; भू-पा-भौहों का संकेत, शंका व भय से मुक्ति। निन्दी पातगातक में संकलित समिनानन्द सन्दर्भ प्रस्तुत पद्यांश में हमारी हिन्दी पाठ्यपुस्तक में संकलित सुमित्रानन्द पन्त द्वारा रचित ‘परिवर्तन’ शीर्षक कविता से उदधत है। प्रसंग यहाँ कवि ने भारतवर्ष के वैभवपूर्ण और समृद्ध अतीत का उल्लेख करते हुए समय के साथ-साथ देश की भौगोलिक, सामाजिक, सांस्कृतिक परिस्थितियों में होने वाले परिवर्तनों का संकेत भी किया है। व्याख्या भारतवर्ष के वैभवपूर्ण व समृद्धशाली अतीत से वर्तमान की तुलना करते हुए कवि पन्त कहते हैं कि आज हमारी समद्धि और ऐश्वर्य कहाँ विलुप्त हो गए, जो हमारे स्वर्णिम अतीत की पहचान थे? कभी हमारा देश सोने की चिड़िया कहलाता था, वह स्वर्ण युग कहाँ खो गया है? प्राचीन युग में यहाँ चारों दिशाओं में इस छोर से उस छोर तक सुख-समृद्धि का जाल फैला था। ज्ञान के प्रकाश से इस देश का मस्तक हर समय जगमगाता रहता था अर्थात् यहाँ जन-जन में शिक्षा का प्रचार था। धरती का कण-कण हरियाली से परिपूर्ण रहता था। चारों ओर हरी-भरी फसलों से लहलहाते खेतों को देखकर ऐसा प्रतीत होता था, जैसे पृथ्वी अपने यौवन के विस्तार पर हो, पृथ्वी पर चारों ओर फैली हरियाली ऐसी दिखती थी मानो पथ्वी का आभार मान स्वयं स्वर्ग की शोभा ही प्रेम-मिलन हेत यहाँ उतर आई हो। नित तरह-तरह के रंग-बिरंगे और सुगन्धित पुष्प खिलकर पृथ्वी का श्रृंगार करते रहते थे। उन पुष्पों के सुगन्ध से मदमस्त होकर उन पर गंजार करने वाले सुनहले भौरों को देख ऐसा प्रतीत होता था, जैसे सृष्टि भौंरों के रूप में घूम-घूम कर अपने हृदय के प्रथम उद्गार व्यक्त कर रही हो। उस समय धरती पर चहुँओर (चारों और) छाया हुआ सौन्दर्य उन्मुक्त और सुकुमार था। धरती अपूर्व वैभव और सुख-समृद्धि से पूर्ण थी। सचमुच वह वैभवशाली। युग विश्व के स्वर्णिम स्वप्न का युग था। वह युग सृष्टि के प्रथम प्रभात के समान
आशा, उल्लास, सौन्दर्य व जीवन से परिपूर्ण था। काव्य सौन्दर्य कला पक्ष “हम कौन थे क्या हो गए और क्या होंगे अभी
शब्दार्थ मिथ्या झठी सौरभ-सुगन्धः मधुमास-बसन्त का महीना; सन्दर्भ पूर्ववत्। प्रसंग प्रस्तुत पद्यांश के माध्यम से कवि ने अतीत के गौरवपूर्ण समय से वर्तमान समय की तुलना की गई है। व्याख्या अतीत के स्वर्णिम युग को
स्मरण करते हुए पन्त जी कहते हैं कि । वर्तमान समय की दयनीय दशा को देखकर कल के वैभव व समृद्धि का भला कौन । विश्वास करेगा। आज तो अतीत की वे सारी बातें व्यर्थ व झूठी प्रतीत होती हैं। आज तो चारों ओर सुगन्ध बिखेर देने वाला बसन्त, शिशिर अर्थात् जाड़े का रूप धारण कर निर्जनता में गहरी साँसे भर रहा है अर्थात् मानव जीवन की सुख-समृद्धियाँ आज दुःख और दीनता में बदल गई हैं। बसन्त ऋतु में भौंरों के समूहों से गुंजायमान वृक्षों की जो डालियाँ नए-नए पत्तों और मंजरों-फूलों से लदकर झुक जाती थीं, आज वही डालियाँ नव
पत्ते, मंजर व पुष्पों के लिए तरस रही हैं। दूसरों को सुख आनन्द पहुँचाने वाली डालियाँ आज अपने ही जीवन के लिए भार बन गई हैं। इस प्रकार, कवि उक्त उदाहरणों के द्वारा यह स्पष्ट करना चाहता है कि समय परिवर्तनशील है। समय की परिवर्तनशीलता का उल्लेख करते हुए कवि कहते हैं कि आज वर्षा ऋतु में बाढ़ लाकर जो नदियाँ चारों ओर भीषण तबाही मचाती हैं, वही नदियाँ वर्षा ऋतु के बीत जाने के पश्चात्, अपना अस्तित्व बचाने के लिए संघर्ष करती नजर आती हैं और रेत, कचरा, झाड़-झंखाड़ आदि के रूप में बस अपने कुछ चिह्न छोड़ जाती
हैं। सुख के बाद दुःख के आने का दूसरा उदाहरण देते हुए कवि कहते हैं कि सवेरा होने पर सूर्य की प्रथम सुनहली किरणों के कारण समस्त धरती और पूरी प्रकृति सोने के रंग में रंग जाती है, पर दिन चढ़ने पर सूर्य की आग (लाल प्रकाश) उस सुनहले संसार को जला कर भस्म कर देती है। काव्य सौन्दर्य कला पक्ष
शब्दार्थ गात-शरीर; जरा-बुढ़ापा; पात-पत्ता; अज्ञात-जो जाना हुआ न । हो; नयन आँख; नीर-अश्रु, पानी; प्रणय-प्रेम; अधीर-धैर्यहीन; अधर-होंठ; । मदल-मधुर, मीठा; हिमजल हास-ओस की बूंदों के समान निर्मल पवित्र । हँसी: निःश्वास-साँस लेने-छोड़ने के क्रम में प्राण वायु का बाहर निकलना; समीर-वायु, हवा; शरदाकाश-शरद् काल का स्वच्छ आकाश; घन-बादल; विधुर-विकल, व्याकुल; कल्प-क्षण; अपार-अनन्त, अत्यधिक। सन्दर्भ पूर्ववत्। प्रसंग प्रस्तुत पद्यांश में कवि ने विविध उदाहरणों के माध्यम से समय की । परिवर्तनशीलता को स्पष्ट करने की कोशिश की है। व्याख्या प्रस्तुत पद्यांश के माध्यम से कवि कहता है कि आज बचपन का । जो कोमल, सुन्दर शरीर है, वृद्धावस्था आ जाने पर वही शरीर पीले, सूखे, खुरदरे पत्ते के समान हो जाएगा। जीवन में सुख देने वाली चाँदनी रातें हैं और सुख के क्षण बहुत थोड़े समय के लिए ही रहते हैं, शेष जीवन में तो अज्ञात अन्धकार से परिपूर्ण रात्रि मौजूद रहती है और सारे सुख नष्ट हो जाते हैं। दुःख के क्षणों में आँसू इस प्रकार गिरते हैं, जैसे पतझड़ में पेड़ों से पीले पत्ते झड़ते हैं। आँखों से गिरते रहने वाले आँसू, पुष्पों के समान गालों को
इस प्रकार झुलसा देते हैं, जैसे शिशिर की ओस फूल एवं पत्तों को झुलसा देती है। उस समय प्रेमी के अधर प्रणय के चुम्बनों को भूलकर अपने प्रिय के अधरों को भी भूल जाते हैं। काव्य सौन्दर्य कला पक्ष
शब्दार्थ अपलक-बिना पलक झपकाए, निर्निमेष; आठ आँसू रोते-दुःख में फूट-फूट कर रोना; निरुपाय-विवश, साधनहीन; रोओं-रोग समूहः । आलिंगन-गले लगाना; कसक-पीड़ा। सन्दर्भ पूर्ववत्। प्रसंग प्रस्तुत पद्यांश में सांसारिक दुःख की दयनीय तस्वीर प्रस्तुत की गई है। व्याख्या संसार के दु:ख का चित्रण करते हुए पन्त जी कहते हैं कि प्रिय की विरह-वेदना में पथराई आँखें बिना पलक झपकाए फूट-फूट कर रोया करती हैं। उन असहाय आँखों को दु:ख कम करने का कोई उपाय नहीं सूझता। वियोग के दौरान आने वाले दुःखों की कल्पना करके तथा स्वयं को असहाय जानकर व्यक्ति की दशा चिन्ताजनक हो जाती है। भय की आशंका से उसका रोम-रोम | काव्य सौन्दर्य कला पक्ष
शब्दार्थ सोने के सुख साज-सुख समृद्धि, ऋण-उधार, कर्ज; ब्याज-सूद; काल-समय; विपुल-प्रचुर, अत्यधिक छविजाल-सुन्दर जाल; जटा-उलझे। और आपस में चिपके हुए लम्बे बाल; विभव-वैभव, धन-सम्पत्ति विद्यत । ज्वाल-बिजली की ज्वाला; डार-डाली, शाखा; बयार-वायु, हवा। सन्दर्भ पूर्ववत्। प्रसंग प्रस्तुत पद्यांश में सुख-दुःख के चक्र को समय के साथ जोड़कर स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है। व्याख्या प्रस्तुत पंक्तियों में कवि पन्त जी कहते हैं कि सुख मानव का स्थायी साथी नहीं होता। यदि आज किसी को सुख-सुविधाओं के साधन उधार प्राप्त हो भी जाएँ तो समय का चक्र कल उसे इतना कमजोर और दुःखी बना देता है कि उसे प्राप्त सारे साधन ब्याज सहित चुकाने पड़ जाते हैं और उसकी दशा पहले से भी खराब हो जाती है। इस प्रकार यहाँ कवि ने समय को निर्लज्ज महाजन की तरह माना है। कवि कहते हैं कि मानव द्वारा असंख्य मणियों व रत्नों के रूप में संचित सम्पत्ति इन्द्रधनुष की तरह चकाचौंध करने वाली और अत्यन्त मोहक होती है, पर वह उसी क्षण भर में नष्ट हो जाने वाली भी है। जिस प्रकार बिजली की आग अपनी चमक बिखेर कर क्षण-भर में किसी अज्ञात संसार में विलुप्त हो जाता है, उसी प्रकार वैभव व सुख-सम्पत्ति का भी मानव-जीवन में क्षणिक प्रभाव रहता है। जिस प्रकार किसी डाल पर पड़ी मोतियों के समान चमकती मन को मुग्ध कर देने वाली ओस की बूंदें हवा के एक ही झोंके से डाल से अलग होकर धरती पर गिर जाती हैं और डाल को शोभाहीन कर जाती हैं, उसी प्रकार समयरूपी
क्रूर हवा के झोंके क्षणभर में व्यक्ति द्वारा अर्जित किए गए ऐश्वर्य व सुख-समृद्धि के सारे साधनों को अपने साथ उड़ा ले जाती है अर्थात् मानव सुख-सुविधाओं के काव्य सौन्दर्य कला पक्ष 6.खोलता इधर जन्म लोचन शब्दार्थ लोचन-आँख; औ-और; हास-हँसी हलास-उल्लासपूर्ण क्रियाएँ, आनन्द, अवसाद-दुःख; उच्छवास-दुःख की स्थिति में लम्बी-लम्बी साँसें। छोड़ना; अचरिता-क्षणिकता; जगत-संसार; समीर-हवा; पातों-पत्तों; उडगन-नक्षत्रमाला। सन्दर्भ पूर्ववत्। प्रसंग प्रस्तुत पद्यांश में परिवर्तनशील संसार का कारुणिक चित्रण किया गया है। व्याख्या संसार की परिवर्तनशीलता को स्पष्ट करते हुए पन्त जी कहते हैं कि इस मृत्युलोक में जन्म-मरण का चक्र सदा चलता रहता है। एक ओर कितने ही मानव धरती पर जन्म लेकर अपनी आँखों से संसार को देखते हैं, तो दूसरी ओर मृत्यु को प्राप्त होने वाले कितने ही लोग हमेशा के लिए अपनी आँखें मूंद कर इस लोक से विदा हो जाते हैं। इस प्रकार, एक ओर जन्म लेने पर हर्षोल्लास काव्य सौन्दर्य कला पक्ष
शब्दार्थ निष्ठर-कठोर, निर्दयी; ताण्डव नर्तन-प्रलयकारी नृत्य; सन्दर्भ पूर्ववत्। प्रसंग प्रस्तुत पद्यांश में परिवर्तन को विनाशक तथा सौ के राज वासुकि के समान बताया गया है। व्याख्या प्रस्तुत पद्यांश में कवि कहता है कि हे निष्ठुर परिवर्तन! जब तुम प्रलयकारी ताण्डव करते हो, तो उसके भँवर में फँसकर इस विश्व का करुण अन्त हो जाता है। इस संसार में जो उत्थान-पतन होते हैं, क्रान्तियाँ होती हैं, वे मानो तुम्हारे नेत्रों के खुलने और बन्द होने के साथ ही होती है अर्थात् तुम्हारे नेत्र खोलने पर उत्थान और बन्द करने पर पतन होता है। हे सहस्र फनों वाले वासुकि! तुम्हारे लाखों अदृश्य चरण इस संसार के घायल वक्षस्थल पर निरन्तर अपने चिह्न छोड़ते चलते हैं। तुम्हारे विष के झागों से भरी हुई और सारे विश्व को अपनी लपेट में ले लेने। वाली सैकड़ों भयंकर फुकारें इस संसार के मेघों के आकार से परिपूर्ण आकाश को निरन्तर घुमाती रहती हैं। हे परिवर्तनरूपी वासुकि! मृत्यु ही तुम्हारा जहरीला दाँत है, दो कल्पों के बीच का समय ही मानो तुम्हारी केंचुली है, यह समस्त संसार ही मानो तुम्हारे रहने की बाँबी (बिल) है और दिशाओं का घेरा ही माना तुम्हारी गोलाकार कुण्डली है। काव्य सौन्दर्य कला पक्ष बापू के प्रति
शब्दार्थ मांसहीन-जिसके शरीर पर मांस न हो; रक्तहीन खून की कमी का शिकार व्यक्तिः अस्थिशेष-जिसके शरीर पर सिर्फ हड्डियाँ ही शेष हों, काय व्यक्ति; बद्ध-प्रबुद्ध, ज्ञानी; चिर पुराण-परम्परागत संस्कृति के पाषक: चिर नवीन सदैव नई संस्कृति के प्रतीक, असार सारहीन, । तत्त्वरहित; भव-संसार; भावी-भविष्य की; समासीन पुनः प्रतिष्ठिता सन्दर्भ प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिन्दी पाठ्यपुस्तक में संकलित तथा । प्रसंग प्रस्तुत पद्यांश के माध्यम से राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी का गुणगान किया गया है। व्याख्या कवि पन्त जी राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी को नमन करते हुए कहते हैं। कि हे महात्मन! तुम्हारे शरीर में मांस और रक्त का अभाव है। तुम हड्डियों का ढाँचा मात्र हो। तुम्हें देख ऐसा आभास होता है कि तुम्हारा शरीर हड्डियों से रहित है। तुम पवित्रता एवं उत्तम ज्ञान से परिपूर्ण केवल आत्मा हो। हे प्राचीन संस्कृतियों के षोषक! हे नवीन संस्कृति के प्रतीक! तुम्हारे विचारों में प्राचीन व नवीन दोनों आदर्शों का सार विद्यमान है। हे आदर्श पुरुष! तुममें जीवन की सम्पूर्णता झलकती है, जिसमें विश्व की सम्पूर्ण असारता को समा लेने की क्षमता है। तुम्हारे ही आदर्शों से देश की संस्कृति का आधार परिलक्षित होगा और भविष्य की संस्कृति को पुनः प्रतिष्ठित करने में भी तुम्हारे ही जीवन के आदर्श महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाएँगे। काव्य सौन्दर्य कला पक्ष
शब्दार्थ निर्मित बना हुआ; नवयुग-आधुनिक समय; नि:स्व-निःस्वार्थ; वर-श्रेष्ठ; भस्म-काम-कामनाओं को भस्म करे; तन शरीर; रज-धूल; ताना-बाना-कपड़े बुनने के क्रम में लम्बाई व चौड़ाई में प्रयोग किए जाने वाले धागे। सन्दर्भ पूर्ववत्। प्रसंग प्रस्तुत पद्यांश में राष्ट्रपिता को नवयुग के निर्माता के रूप में प्रस्तुत किया गया है। व्याख्या पन्त जी कहते हैं कि हे बापू! तुम नवयुग के आदर्श हो, जिस प्रकार शरीर के निर्माण में मांस, रक्त और अस्थि की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है, उसी प्रकार नवयुग के निर्माण में तुम्हारे सआदर्शों का अमूल्य योगदान है। तुम धन्य हो। तुम्हारे द्वारा निःस्वार्थ भाव से किया गया सर्वस्व त्याग सम्पूर्ण जगत काव्य सौन्दर्य कला
पक्ष
शब्दार्थ पुतला-मिट्टी, कागज आदि से निर्मित आकृति, मनोज-कामदेव; जड़ता-मूर्खता; स्पर्धा-प्रतियोगिता; नम्र ओज-कोमल कान्ति; पंकज-कीचड़ में खिलने वाला कमल; सरोज-सरोवर में खिलने वाला कमल। सन्दर्भ पूर्ववत्। व्याख्या प्रस्तुत पद्यांश के माध्यम से कवि पन्त जी कहते हैं कि हे बापू! प्रायः समस्त प्राणी पृथ्वी पर जन्म लेकर सुख की कामना करते हैं, परन्तु तुमने इस धरती पर सत्य की खोज करने के लिए अवतार लिया। मानव वस्तुतः मिट्टी से निर्मित एक पुतला ही तो होता है। वह मिट्टी से ही निर्मित होता है और मिट्टी में ही मिल जाता है। हे बापू! तुम भी मिट्टी के ही बने थे, परन्तु तुम्हारे मिट्टी से निर्मित शरीर में सत्य आत्मा निवास करती थी तथा तुम मन को प्रसन्न करने वाले कमल के समान थे। आपने मानव की अकर्मण्यता, हिंसा एवं प्रतिद्वन्द्विता को दूर करके उसमें ज्ञान, अहिंसा एवं आत्मिक शक्ति अर्थात् मानवीय सदगुणों को जाग्रत किया है। हे बापू! तुमने मानव-समाज में व्याप्त भेदभाव, जाति-भेद, हिंसा आदि कीचड़ में उत्पन्न कमल को सत्य, अहिंसा, त्याग एवं मानवतारूपी स्वच्छ सरोवर में उत्पन्न कमल के समान बना दिया। काव्य सौन्दर्य कला पक्ष
शब्दार्थकारा-बन्दीगृह, जेल विमुक्ति-मुक्ति, मोक्ष: विद्वेष-द्वेष, ईया: सन्दर्भ पूर्ववत्। प्रसंग प्रस्तुत पद्यांश में कवि ने बापू को ‘जग का उद्धारक’ के रूप में दर्शाया है। व्याख्या पन्त जी राष्ट्रपिता का गुणगान करते हुए कहते हैं कि हे बापू! जब सम्पूर्ण मानव समुदाय पाश्विक शक्ति के कारागृह में कैद होकर बाहि-त्राहि पुकार रहा था, तब तुमने सत्य-अहिंसा का पाठ पढ़ाते हुए उसे आत्मा की मुक्ति का मार्ग दिखाया। प्रेम से घृणा, द्वेष जैसे अवगुणों को जीतने का ऐसा मन्त्र दिया जो कभी निष्फल नहीं जाता। तुमने केवल कहे गए शब्दों के द्वारा अपने विचारों को अभिव्यक्त न कर उन्हें परिश्रम और। तप के बल पर अपने आचरण में उतारा अर्थात् तुम कथनों की अपेक्षा कर्म के द्वारा सन्देश देने को अधिक महत्त्वपूर्ण मानते थे। आसक्ति से विरक्त रहने वाले और विश्व के प्रति सदा अनुराग रखने वाले हे बापू! तुमने सर्वस्व त्याग करके मुक्ति अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति कर ली है। काव्य सौन्दर्य कला पक्ष
शब्दार्थ उर-हृदय; विषय-जनित-वासना से उत्पन्न; विषाद-दुःख, वेदना; गगन-आकाश; निनाद-संगीतमय गूंज; खद्दर-खादी; स्पृहाह्लाद-इच्छा और प्रफुल्लता; मानवी-मनुष्य की; सूत्रधार-निर्माता; हर लिया-दूर कर दिया; प्रवाद-चुनौती। सन्दर्भ पूर्ववत्। प्रसंग प्रस्तुत पद्यांश में कवि ने गाँधीजी को जगत की आत्मा का परिष्कार करने वाला बताया है। व्याख्या कवि गाँधीजी के प्रति श्रद्धा भाव दर्शाते हुए कहते हैं कि हे बापू! तुमने चरखे को महत्त्व देकर न केवल लोगों को भौतिक आवश्यकता की पूर्ति हेतु कर्म में जुड़े रहने की सीख दी, बल्कि अपने हृदयरूपी चरखे के माध्यम से युग-युग से मानव-हृदय में व्याप्त वासनाजन्य विकारों को दूर करने का महत्त्वपूर्ण कार्य भी काव्य सौन्दर्य कला पक्ष
शब्दार्थ बन्दिनी-कैद, पशु-बलाऽक्रान्त-पाश्विक शक्ति से पीडितः । सन्दर्भ पूर्ववत्। प्रसंग प्रस्तुत पद्यांश में कवि ने अंग्रेजी शासन के दौरान भारतवासियों। पर किए जाने वाले अत्याचारों एवं बापू के द्वारा भारत को स्वतन्त्र कराने का उल्लेख किया है। व्याख्या पन्त राष्ट्रपिता को सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि हे बापू! काव्य सौन्दर्य कला पक्ष
शब्दार्थ कारा-कैद, बन्दी; विगत-पिछली, बीती हुई, भित्ति-दीवार; भू-धरती. भूमि; विभक्त-बँटी हुई; मूढ़-विवेकहीन, जड़बुद्धि प्रकृति-काम-प्रकृति का इच्छानुसार संचालन; मिथ्या-झूठा, व्यर्थ; जड़ बन्धन-सांसारिक सम्बन्धः । नानृतं-असत्य, झूठ, जयति-जीत, विजय; मा-मत; भैः-भयभीत। सन्दर्भ पूर्ववत्। प्रसंग प्रस्तुत पद्यांश में राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी द्वारा किए गए महान कार्यों का उल्लेख किया गया है। व्याख्या प्रस्तुत पद्यांश के माध्यम से कवि पन्त जी कहते हैं कि हे बाप! भारतीय संस्कृति विगत कई वर्षों से परतन्त्र थी, कैद थी। यहाँ के लोग धर्म, जाति, अर्थ, शिक्षा, रूप, ख्याति आदि बहुत से बन्धनों में जकड़े हुए थे अर्थात् यहाँ का सामान्य जन-जीवन ही कैद था।
यहाँ की धरती क्षेत्रीयता, भाषावाद जैसे कई आधारों पर बँटी हुई थी। विज्ञान के प्रभाव में आकर यहाँ के लोग अविवेक हो प्रकृति का उपभोग अपनी इच्छा के अनुरूप करना चाहते थे। काव्य सौन्दर्य कला पक्ष पद्यांशों पर अर्थग्रहण सम्बन्धी प्रश्न उत्तरप्रश्न-पत्र में पद्य भाग से दो पद्यांश दिए जाएँगे, जिनमें से किसी एक पर आधारित 5 प्रश्नों (प्रत्येक 2 अंक) के उत्तर देने होंगे। नौका विहार1.शान्त, स्निग्ध ज्योत्स्ना उज्ज्वल! उपर्युक्त पद्यांश को पढ़कर निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए।(i) प्रस्तुत पद्यांश किस कविता से उद्धत है तथा इसके कवि कौन हैं? (ii) प्रस्तत पद्यांश में कवि ने किसका उल्लेख किया है? (iii) प्रस्तुत पद्यांश में कवि ने अपने आसपास कैसे वातावरण का वर्णन किया (iv) गंगा बालू के बीच बहती हुई कैसी प्रतीत हो रही है? (v) नीलाम्बर’ का समास विग्रह करते हए भेद बताएँ। 2. चाँदनी रात का प्रथम प्रहर, उपर्युक्त पद्यांश को पढ़कर निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए।(i) प्रस्तुत पद्यांश में कवि ने किसका चित्रण किया है? (ii) गंगा के तट के सौन्दर्य का वर्णन कवि ने किस प्रकार किया है? (iii) पद्यांश में गंगा का जल कैसा प्रतीत हो रहा है? (iv) ‘कालाकांकर का राजभवन सोया लज में निश्चिन्त’ पंक्ति का आशय स्पष्ट कीजिए। (v) “राजभवन’ का समास विग्रह करते हुए भेद बताइए।
उपर्युक्त पद्यांश को पढ़कर निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए।(i) प्रस्तुत पद्यांश में कवि ने प्राकृतिक दृश्यों का चित्र किस प्रकार किया है? (ii) नौका-विहार के समय कवि को दूर से दिखने वाले तट कैसे प्रतीत हो रहे (ii) कवि को वृक्षों को देखकर कैसा प्रतीत हआ? (iv) गंगा नदी के ऊपर पक्षी को उड़ता देख कवि ने क्या कल्पना की? (v) ‘नयन’ का सन्धि-विच्छेद करते हुए भेद बताइए।
उपर्युक्त पद्यांश को पढ़कर निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए।(i) प्रस्तुत पद्यांश का भाव स्पष्ट कीजिए। (ii) कवि ने जलधारा और जीवन धारा में क्या समानता बताई है? (iii) कवि ने प्रक्रति के किस-किस रूप को शाश्वत रूप में माना है तथा इनको शाश्वता कौन प्रदान करता है? (iv) कवि को क्या अमरत्व प्रदान करता है? (v) अमरत्व’ शब्द में से उपसर्ग, मूल शब्द और प्रत्यय छाँटकर लिखिए। परिवर्तन
उपर्युक्त पद्यांश को पढ़कर निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए।(i) प्रस्तुत पद्यांश किस कविता से अवतरित है तथा इसके रचयिता कौन हैं? (ii) प्रस्तुत पद्यांश के माध्यम से कवि ने किस ओर संकेत किया है? (iii) कवि ने अतीत के
वैभवपूर्ण व समृद्धशाली भारत की तुलना वर्तमान से किस प्रकार की है? (iv) कवि ने स्वर्णिम भारत का चित्रण किस रूप में किया है? (v) “विश्व का स्वर्ण स्वप्न संसृति का प्रथम प्रभात’ पंक्ति में कौन-सा अलंकार है?
उपर्युक्त पद्यांश को पढ़कर निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए।(i) “हाय! सब मिथ्या बात! आज तो सौरभ का मधुमास” से कवि का क्या आशय है? (ii) पद्यांश में कवि ने बसन्त ऋत की परिवर्तनशीलता को किस प्रकार व्यक्त किया है? (iii) कवि ने समय की परिवर्तनशीलता का उल्लेख करते हुए वर्षा ऋतु का वर्णन किस रूप में किया है? (iv) प्रस्तुत पद्यांश के माध्यम से कवि ने क्या सन्देश दिया है? (v) संसार’ और ‘गुंजित’ शब्दों में क्रमशः उपसर्ग और
प्रत्यय के साथ मूल शब्द भी छाँटकर लिखिए।
उपर्युक्त पद्यांश को पढ़कर निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए।(i) प्रस्तुत पद्यांश में कवि द्वारा परिवर्तनशीलता को किस प्रकार स्पष्ट किया गया है? (ii) प्रस्तुत पद्यांश में प्रेमी-प्रेमिका के माध्यम से दःख के समय का वर्णन किस प्रकार
किया गया है? (iii) पद्यांश में कवि ने समय की परिवर्तनशीलता को स्पष्ट करने के लिए युवावस्था और वृद्धावस्था के समय का उल्लेख किस रूप में किया (iv) ‘मिलन का समय अल्प, जबकि वियोग का दीर्घ होता है-स्पष्ट (v) ‘समीर’ के चार पर्यायवाची शब्द लिखिए।
उपर्युक्त पद्यांश को पढ़कर निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए।(i) प्रस्तुत पद्यांश में कवि ने किस बात की अभिव्यक्ति की है। (ii) प्रस्तुत पंक्तियों के आधार पर स्पष्ट कीजिए कि सुख स्थायी नहीं
होता। (iii) सुख को अत्यन्त मोहक रूप में कवि ने किस प्रकार दर्शाया है? (iv) सुख के क्षण अत्यन्त अल्पकालीन होते हैं, स्पष्ट कीजिए। (v) ‘ऋण’ शब्द के चार पर्यायवाची
शब्द लिखिए।
उपर्युक्त पद्यांश को पढ़कर निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए।(i) प्रस्तुत पद्यांश द्वारा कवि ने संसार की परिवर्तनशीलता को किस प्रकार स्पष्ट किया है? (ii) प्रस्तुत पद्यांश में परिवर्तन’ को किसके समान बताया गया है? (iii) प्रस्तुत पद्यांश में एक ओर सुख का वर्णन है तो दूसरी ओर दुःख का। स्पष्ट
कीजिए। (iv) अचरिता देख जगत् की आप’, ‘शून्य भरता समीर निःश्वास’ पंक्ति का आशय स्पष्ट कीजिए। (v) ‘शत-शत फेनोच्छ्वसित, स्फीत फूत्कार भयंकर’ में कौन-सा अलंकार बापू के प्रति
उपर्युक्त पद्यांश को पढ़कर निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए।(i) प्रस्तुत पद्यांश किस कविता से अवतरित है तथा इसके रचयिता कौन (ii) प्रस्तुत पद्यांश के माध्यम से कवि क्या कहना चाहता है? । (iii) कवि राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी को नमन करते हुए क्या कह रहे हैं? । (iv) प्रस्तुत पद्यांश में कवि ने राष्ट्रपिता को नवयुग के रूप में किस प्रकार प्रस्तुत किया है? (v) ‘तन’ शब्द के चार पर्याय लिखिए। 2.सुख भोग खोजने आते संब, उपर्युक्त पद्यांश को पढ़कर निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए।(i) प्रस्तुत पद्यांश के माध्यम से कवि क्या कहना चाहता है? । (ii) प्रस्तुत पद्यांश में कवि गाँधी जी की महिमा का गान करते हुए क्या कहते हैं? (iii) कवि ने गाँधी जी का गुणगान
करते हुए क्या कहा है? (iv) प्रस्तुत पद्यांश में कवि ने बाप को किस रूप में दर्शाया है? (v) ‘विश्वानुरक्त’ का सन्धि विच्छेद करते हुए भेद बताइए। 3.साम्राज्यवाद था कंस, बन्दिनी उपर्युक्त पद्यांश को पढ़कर निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए।(i) प्रस्तुत पद्यांश के माध्यम से कवि ने किसका उल्लेख किया है? (ii) प्रस्तुत पद्यांश में कवि,
गाँधी जी को सम्बोधित करते हुए क्या कहते (iii) कवि ने महात्मा गाँधी द्वारा किए गए महान कार्यों का उल्लेख किस प्रकार किया है? (iv) प्रस्तुत पद्यांश के माध्यम से कवि ने अंग्रेजी साम्राज्य को झुकने पर किस प्रकार विवश कर दिया? (v) ‘निर्मम’ और ‘संस्कृति में कौन-सा उपसर्ग है? UP Board syllabus tags
नौका विहार कविता का केंद्रीय भाव क्या है?हे जगत् और जीवन के अंर्तयामी भगवान जीवन और मरण के आर-पार जीवन का नौका विहार भी शाश्वत है। अर्थात् जन्म के पश्चात् मृत्यु और मृत्यु के पश्चात् जन्म जीवन का अटल धर्म है। नौका विहार के आनन्द में मैं तो अपनी सता को ही भूल बैठा, मुझे अपनी भी सुध नहीं रही, किन्तु यह तो जीवन का चिरन्तन प्रमाण है ।
नौका विहार का मतलब क्या होता है?नौकाविहार का हिंदी अर्थ
नौका पर बैठकर नदी की सैर करना।
नौका विहार कविता में कवि ने गंगा को क्या कहा है?प्रसंग प्रस्तुत पद्यांश में कवि पन्त जी ने चाँदनी रात में किए गए नौका-विहार का चित्रण किया है। इसमें कवि ने गंगा की कल्पना नायिका के रूप में की है। व्याख्या कवि कहता है कि चारों ओर शान्त, तरल एवं उज्ज्वल चाँदनी छिटकी हुई है। आकाश टकटकी बाँधे पृथ्वी को देख रहा है।
नौका विहार के कवि कौन है?चंचल अंचल-सा नीलाम्बर! सिमटी हैं वर्तुल, मृदुल लहर! सन्दर्भ- प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक 'काव्यांजलि' के 'सुमित्रानन्दन पन्त' द्वारा रचित काव्य ग्रन्थ 'गुंजन' से 'नौका विहार' शीर्षक से उद्धृत है ।।
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