हमारे देश की सबसे प्रमुख धान्य फसल धान है। धान की फसल पर अनेक तरह की समस्याएँ आ सकती हैं, रोग आक्रमण कर सकते हैं तथा इन रोगों के रोगकारक जीव की प्रकृति में विभिन्नता होने के कारण इनकी रोकथाम के उपाय भी भिन्न-भिन्न होते हैं। अतएवः रोगों का निदान एवं उसके प्रबन्धन के विषय में जानकारी अत्यावश्यक है। सबसे पहले हमें स्वस्थ बीज की बात करनी चाहिए क्योंकि अगर किसान भाइयों के पास स्वस्थ बीज उपलब्ध हो तो आधी समस्याएँ स्वतः समाप्त हो जाती हैं। अगर आपके पास स्वस्थ बीज की उपलब्धता नहीं है तो आप बीजोपचार करके आधी से अधिक समस्याओं से निदान पा सकते हैं । आज आवश्यकता इस बात की है की हम प्रमुख धान्य फसलों के प्रबंधन पर ध्यान दें। इसके लिए हम किसानो को धान के कुछ प्रमुख रोगों की विस्तृत जानकारी से अवगत करा रहे है । 1. धान प्रध्वंस (ब्लास्ट) प्रध्वंस रोग मैग्नोपोर्थे ओरायजी द्वारा उत्पन्न होता है। सामान्यतया बासमती एवं सुगन्धित धान की प्रजातियां प्रध्वंस रोग के प्रति उच्च संवेदनशील होती है। लक्षण: रोग के विशेष लक्षण पत्तियों पर दिखाई देते हैं, परन्तु पर्णच्छद, पुष्पगुच्छ, गाठों तथा दाने के छिलको पर भी इसका आक्रमण पाया जाता है। कवक का पत्तियों, गाठों एवं ग्रीवा पर अधिक संक्रमण होता है। पत्तियों पर भूरे रंग के आँख या नाव जैसे धब्बे बनते हैं जो बाद में राख जैसे स्लेटी रंग के हो जाते हैं। क्षतस्थल के बीच के भाग में धूसर रंग की पतली पट्टी दिखाई देती है। अनुकूल वातावरण में क्षतस्थल बढ़कर आपस में मिल जाते हैं, परिणामस्वरुप पत्तियां झ्ाुलस कर सूख जाती है। गाँठ प्रध्वंस संक्रमण में गाँठ काली होकर टूट जाती हैं। दौजी की गाँठों पर कवक के आक्रमण से भूरे धब्बे बनते है, जो गाँठ को चारो ओर से घेर लेते हैं। ग्रीवा (गर्दन) ब्लास्ट में, पुष्पगुच्छ के आधार पर भूरे से लेकर काले रंग के क्षत बन जाते हैं जो मिलकर चारों ओर से घेर लेते हैं और पुष्पगुच्छ वहां से टूट कर गिर जाता है जिसके परिणामस्वरूप दानो की शतप्रतिशत हानि होती है। पुष्पगुच्छ के निचले डंठल में जब रोग का संक्रमण होता है, तब बालियों में दाने नही होते तथा पुष्प और ग्रीवा काले रंग की हो जाती है। प्रबंधनः
2. बकाने रोग यह रोग जिबरेला फ्यूजीकुरेई की अपूर्णावस्था फ्यूजेरियम मोनिलिफोरमे से होता है। लक्षण: बकाने रोग के प्ररूपी लक्षणों में प्राथमिक पत्तियों का दुबर्ल हरिमाहीन तथा असमान्य रूप से लम्बा होना है हालाँकि इस रोग से संक्रमित सभी पौधे इस प्रकार के लक्षण नही दर्शाते हैं क्योंकि संक्रमित कुछ पौधों में क्राउन विगलन भी देखा गया है जिसके परिणामस्वरूप धान के पौधे छोटे (बौने) रह जाते हैं। फसल के परिपक्वता के समीप होने के समय संक्रमित पौधे, फसल के सामान्य स्तर से काफी ऊपर निकले हुए हल्के हरे रंग के ध्वज-पत्र युक्त लम्बी दौजियाँ (टिलर्स) दर्शाते हैं। संक्रमित पौधों में दौजियों की संख्या प्रायः कम होती है और कुछ हफ्तों के भीतर ही नीचे से ऊपर की और एक के बाद दूसरी, सभी पत्तियाँ सूख जाती हैं। कभी-कभी संक्रमित पौधे परिपक्व होने तक जीवित रहते हैं किन्तु उनकी बालियाँ खाली रह जाती है ं संक्रमित पौधों के निचले भागों पर, सफेद या गुलाबी कवक जाल वृद्धि भी देखी जा सकती है। प्रबंधन
3. जीवाणुज पत्ती अंगमारी (जीवाणुज पर्ण झुलसा) यह रोग जैन्थोमोनास ओरायजी पीवी ओरायजी नामक जीवाणु द्वारा उत्पन्न होता है। लक्षण: यह राग मुख्यतः दो अवस्थाओं में प्रकट होता है। पर्ण अंगमारी (पर्ण झ्ाुलसा) अवस्था और क्रेसेक अवस्था। पर्ण अंगमारी (पर्ण झ्ाुलसा) अवस्था: पत्तियों के उपरी सिरो पर जलसिक्त क्षत बन जाते है। पीले या पुआल रंग के ये क्षत लहरदार होते है जो पत्तियों के एक या दोनो किनारों के सिरे से प्रारंभ होकर नीचे की ओर बढ़ते है और अन्त में पत्तियां सूख जाती है। गहन संक्रमण की स्थिति में रोग पौधांे के सभी अंगो जैसे पर्णाच्छद, तना और दौजी को सुखा देता है। क्रेसेक अवस्था: यहसंक्रमण पौधशाला अथवा पौध लगाने के तुरन्त बाद ही दिखाई पड़ता है। इसमें पत्तियां लिपटकर नीचे की ओर झ्ाुक जाती है। उनका रंग पीला या भूरा हो जाता है तथा दौजियां सूख जाती है। रोग की उग्र स्थिति में पौधे मर जाते हैं। प्रबंधन
4. आच्छद झुलसा गुतान झुलसा (शीथ ब्लाइट) यह रोग राइजोक्टोनिया सोलेनी नामक कवक द्वारा उत्पन्न होता है। लक्षण: पानी अथवा भूमि की सतह के पास पर्णच्छद पर रोग के प्रमुख लक्षण प्रकट होते है। इसके प्रकोप से पत्ती के शीथ (गुतान) पर 2-3 सें.मी. लम्बे हरे से भूरे रंग के धब्बे बनतेे हैं जो कि बाद में चलकर भूसे के रंग के हो जाते हैं। धब्बों के चारों तरफ बैंगनी रंग की पतली धारी बन जाती है। अनुकूल वातावरण में क्षतस्थलों पर कवक जाल स्पष्ट दिखते हैं, जिन पर अर्ध अथवा पूर्ण गोलाकार भूरे रंग के स्क्लेरोशिया बनते हैं। पत्तियों पर क्षतस्थल विभिन्न आकृति में होते है। ये क्षत धान के पौधों पर दौजियां बनते समय एवं पुष्पन अवस्था में बनते हैं। प्रबंधन:
5. आभासी कंड यह रोग अस्टीलेजीनोइडिया वायरेंस नामक कवक द्वारा उत्पन्न होता है। लक्षण: रोग के लक्षण बालियों के निकलने के बाद ही दृष्टिगोचर होते है। रोगग्रस्त बाली पहले संतरे रंग की, बाद के भूरे काले रंग की हो जाती है जो आकार में धान के सामान्य दाने से दोगुणा बड़ा होता है। ये दाने बीजायुक्त सतहों से घिरे होते हैं, जिनमें सबसे अंदर का सफेद पीला, बीच का केसरिया पीला तथा सबसे उपर भूरा काला होता है। अधिक संख्या में बीजाणु चूर्ण रुप में होते हैं जो हवा द्वारा वितरित होकर पुष्पों पर पहुंचते हैं और उन्हे संक्रमित करते हैं। प्रबंधन:
6. भूरी चित्ती (भूरे धब्बे) यह रोग हेल्मिन्थोस्पोरियम ओराइजी नामक कवक से उत्पन्न होता हैै। पौधे के जीवन के सभी अवस्थाओं पर यह कवक संक्रमण करता है। लक्षण: यह रोग देश के लगभग सभी हिस्सों मे फैली हुई हैए खासकर पश्चिम बंगालए उड़ीसाए आन्ध्र प्रदेशए तमिलनाडु इत्यादि। भारत मे इस रोग पर पहली बार रिर्पोट चेन्नई के सुन्दरारमण ;1919द्ध द्वारा बनाई गई थी। उत्तर बिहार का यह प्रमुख रोग है। यह एक बीजजनित रोग है। यह रोग हेल्मिन्थो स्पोरियम औराइजी द्वारा होता है। इस रोग मे धान की फसल को बिचड़ा से लेकर दानों तक को नुकसान पहुँचाता है। इस रोग के कारण पत्तियों पर गोलाकार भूरे रंग के धब्बें बन जाते है। यह रोग फफॅूंद जनित है। पौधों की बढ़वार कम होती हैए दाने भी प्रभावित हो जाते हैए जिससे उनकी अंकुरण क्षमता पर भी विपरीत प्रभाव पड़ता है। पत्तियों पर तिल के आकार के भूरे रंग के काले धब्बें बन जाते है। ये धब्बें आकार एवं माप मे बहुत छोटी बिंदी से लेकर गोल आकार का होता है। धब्बों के चारो ओर हल्की पीली आभा बनती है। पत्तियों पर ये पूरी तरह से बिखरे होते है। धब्बों के बीच का हिस्सा उजला या बैंगनी रंग की होती है। बड़े धब्बों के किनारे गहरे भूरे रंग के होते हैए बीच का भाग पीलापन लिए गेंदा सफेद या घूसर रंग का हो जाता है। उग्रावस्था मे पौधों के नीचे से ऊपर पत्तियों के अधिकांश भाग धब्बों से भर जाते है। ये धब्बें आपस मे मिलकर बड़े हो जाते हैए और पत्तियों को सुखा देते है। आवरण पर काले धब्बे बनते है। इस रोग का प्रकोप उपराऊ धान मे कम उर्वरता वाले क्षेत्रों मे मई से सितम्बर माह के बीच अधिक होता है। यह रोग ज्यादातर उन क्षेत्रों मे देखने को मिलता हैए जहाँ किसान भाई खेतों मे उचित प्रबंधन की व्यवस्था नही कर पाते है। इस रोग मे दानों के छिलको पर भूरे से काले धब्बें बनते हैए जिससे चावल बदरंग हो जाता है। बाली मे दाने सिकुडे़ हुए बनते है। उग्र संक्रमण में बालियां बाहर नहीं निकल पाती। प्रबंधन:
7. खैरा रोग यह समस्या जस्ते की कमी के कारण होती है। लक्षण: इसके लगने पर निचली पत्तियां पीली पड़नी शुरू हो जाती हैं और बाद में पत्तियों पर कत्थई रंग के छिटकवां धब्बे उभरने लगते हैं। रोग की तीव्र अवस्था में रोग ग्रसित पत्तियां सूखने लगती हैं। कल्ले कम निकलते हैं और पौधों की वृद्धि रुक जाती है। |