गुटनिरपेक्षता के आलोचकों, विशेषतया पश्चिमी तथा अपरीकी आलोचकों ने गुटनिरपेक्षता को आदर्शात्मक तथा स्वप्रदर्शी सिद्धान्त माना है और इसका खंडन किया है क्योंकि इसे परिचालित नहीं किया जा सकता। उन्होंने यह मत दिया कि शीत युद्ध से दूर रहना तथा उच्च शक्तियों के बराबर की दूरी बनाये रखने की बात तो की जा सकती है और सैद्धान्तिक रूप में उचित भी हो सकती है परन्तु प्रभावशाली ढंग से व्यावहारिक नहीं हो सकती। आलोचक यह तर्क देते रहे हैं कि अनादिकाल से राजनीतिक गुटबन्दी अन्तर्राष्ट्रीय जीवन का सिद्धान्त रही है तथा यह युद्धोत्तर काल के बाद भी एक वैध सिद्धान्त है। कोई राष्ट्र, विशेषतया निर्धन और अविकसित राष्ट्र दूसरे राष्ट्रों से पर्याप्त तथा वास्तविक सहायता लिए बिना विकास नहीं कर सकता और इसके लिए किसी एक देश अथवा गुट के साथ गुटबन्धी ही उचित नीति है। गुटनिरपेक्षता सभी के साथ मैत्री तथा शान्ति की नीति के रूप में सैद्धान्तिक रूप में तो अच्छी लगती है। परन्तु इसका वास्तविक परिचालन कठिन तथा हानिकारक है। गुटनिरपेक्षता के इर्द-गिर्द जो आदर्शवाद है, जैसा कि इसके उद्देश्यों में प्रतिपादित किया गया है, अर्थात् सभी के साथ समरूप मित्रता, इसे अवास्तविक तथा स्वप्नमयी नीति बनाती है। इस तरह गुटनिरपेक्षता एक आदर्शवादी सिद्धान्त है, जिसे सैद्धान्तिक रूप में तो माना जा सकता है परन्तु व्यावहारिक रूप से यह प्रभावशाली नहीं है। Show गुटनिरपेक्षता मित्रविहीनता का कारण बनती है–आलोचक यह मानते हैं कि विदेशी सम्बन्धों में गुटनिरपेक्षता के कारण वफादार तथा सच्चे मित्र कम मिल पाते हैं। वे भारत का उदाहरण देते हैं। अमरीका की विदेश नीति को शीत-युद्ध तथा संधियों की नीति मानकर भारत द्वारा की गई कड़ी आलोचना के कारण तथा कोरिया तथा वियतनाम समस्या में इसके निर्णयों के कारण इसे अमरीका की वास्तविक तथा शक्तिशाली मित्रता प्राप्त नहीं हो सकी। इसी तरह भारत का साम्यवाद के प्रति भय तथा इस द्वारा भूतपूर्व सोवियत संघ की कुछ नीतियों की आलोचना से सोवियत संघ के साथ ही गहरी मित्रता के रास्ते में रुकावटें खड़ी हो गई थीं। इसलिए आलोचकों ने यह माना कि अपनी गुटनिरपेक्षता के कारण भारत दोनों उच्च शक्तियों की मित्रता प्राप्त करने में असफल रहा। 1962 में चीन के आक्रमण के समय यह असफलता बड़ी उत्तेजनापूर्ण थी। इस संकटकालीन परिस्थिति में भारत सोवियत संघ से ऐच्छिक समर्थन हासिल नहीं कर सका। यहां तक कि अमरीका तथा ब्रिटेन के प्रधानमंत्री मैक-मिलन (Mc-Millan) के व्यक्तिगत विचारों के कारण अधिक थी तथा भारत के साथ अमरीका तथा ब्रिटेन की मित्रता के कारण कम थी। यहां तक बंगलादेश के संकट के समय भी भारत को (भूतपूर्व) सोवियत संघ के साथ मित्रता की संधि करनी पड़ी ताकि वह अपनी नीतियों के लिए विश्वस्त तथा निश्चित समर्थन प्राप्त कर सके। अफगानिस्तान संकट तथा कम्बोडिया संकट के दौरान भी भारत के मित्रों की कमी दृष्टिगत हुई। इसलिए आलोचक गुटनिरपेक्षता के स्थान पर गुटबन्धी के पक्ष में मत देते हैं। उनका विचार रहा है कि “कुछ राष्ट्रों के साथ वास्तविक, गहरी तथा विश्वसनीय मित्रता का होना सभी के साथ सामान्य तथा औपचारिक मित्रता तथा किसी के साथ वास्तविक मित्रता न होने से अच्छा है।” गुटनिरपेक्षता, अकर्मण्यता, तुष्टिकरण और दुर्बलता का सिद्धान्त है-गुटनिरपेक्षता के आलोचक इसे शीत युद्ध में तटस्थता के नाम पर निस्सहायता तथा अकर्मण्यता का सिद्धान्त मानकर इसकी आलोचना करते हैं। गुटनिरपेक्षता के कारण नए राज्य दृढ़ नीति अपनाने से बचते फिरते हैं। वे मध्यवर्गी निर्णय लेकर साफ बच निकलते हैं। “इसी कारण भारत जैसे देश अफगानिस्तान संकट में कोई ठोस कदम उठाने से बचते रहें।” दूसरे शब्दों में, आलोचकों का विचार है कि गुटनिरपेक्षता अकर्मण्यता तथा निष्क्रियता का सिद्धान्त है। गुटनिरपेक्षता वास्तव में दोहरी गुटबन्दी है-गुटनिरपेक्षता के बहुत से आलोचक गुटनिरपेक्ष की नीति को दोहरी गुटबन्दी की नीति कहकर इसकी आलोचना करते हैं। वे यहां तक कह देते हैं कि इसके द्वारा नए राष्ट्र पश्चिमी तथा साम्यवादी देशों से सहायता लेने के लिए दोहरे मापदण्ड अपनाने के प्रयत्न करते रहे हैं। भारत का उदाहरण देते हुए वे लिखते हैं कि भारत, विशेषतया 1971 के बाद से सोवियत संघ के प्रति एक विशेष प्रकार के झुकाव को प्रकट कर रहा था और इसके साथ ही यह अमरीकी सहायता प्राप्त करने का भी प्रयत्न कर रहा था। वे तो यहां तक कहते हैं कि इस नीति में राजनीतिक नैतिकता की कमी है तथा यह कि “तटस्थता का दृष्टिकोण किसी राजनीतिक नैतिकता पर आधारित नहीं है परन्तु व्यक्तिगत शिकायतों तथा राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं पर आधारित है।” गुटनिरपेक्षता अब संगत सिद्धान्त नहीं लगता–गुटनिरपेक्षता के विरुद्ध एक अन्य तर्क यह है कि चाहे नये राज्यों द्वारा दोनों महाशक्तियों के बीच शीत-युद्ध तथा शक्ति-आधारित राजनीति के युग में इस सिद्धान्त को अपनाना उचित था, परन्तु अब परिवर्तित अन्तर्राष्ट्रीय वातावरण में गुटनिरपेक्षता की नीति को बनाए रखना उनके लिए उपयुक्त नहीं है। शीत-युद्ध की समाप्ति के बाद सोवियत संघ के विघटन तथा साम्यवादी गुट के अन्त के कारण जिन परिस्थितियों ने गुटनिरपेक्षता को जन्म दिया था, वे अब समाप्त हो गई हैं। इस तरह गुटनिरपेक्षता के बने रहने की अब कोई उपर्युक्तता नहीं है क्योंकि यह अब लाभदायक तथा संगत सिद्धान्त नहीं रहा है। आज की अन्तर्राष्ट्रीय स्थिति में अब गुटनिरपेक्षता की मांग नहीं है। इन सब आधारों पर आलोचक गुटनिरपेक्षता का खंडन करते हैं। उनके अनुसार इस नीति ने गुटनिरपेक्ष राष्ट्रों को नगण्य लाभ पहुँचाए हैं। गुटनिरपेक्षता की उपयुक्तता(Justification of Non-alignment) गुटनिरपेक्षता के विरुद्ध उपरिलिखित सभी तर्क अवास्तविक लगते हैं तथा आलोचकों ने ये व्यक्तिगत पक्षपाद से प्रभावित होकर दिए हैं।
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