विषयसूची बर्मा का नाम म्यांमार कब रखा गया?इसे सुनेंरोकें1989 में बर्मा का नाम बदल कर म्यांमार रखा गया. वर्मा को भारत में कब मिलाया गया?इसे सुनेंरोकें1824, 1826 और 1852 ई. में आंग्ल-बर्मा युद्ध हुए, जिसके फलस्वरूव म्यांमार को भारत में मिला लिया गया और 1885 ई. में यह भारत का एक प्रान्त बन गया। म्यांमार को भारत से अलग कब किया गया? इसे सुनेंरोकेंआंग सन की सहयोगी यू नू की अगुआई में 4 जनवरी, 1948 में बर्मा को ब्रिटिश राज से आजादी मिली। बर्मा 4 जनवरी 1948 को ब्रिटिश उपनिवेशवाद के चंगुल से मुक्त हुआ और वहाँ 1962 तक लोकतान्त्रिक सरकारें निर्वाचित होती रहीं। म्यांमार का शासक कौन था? इसे सुनेंरोकेंसाल 1988 तक बर्मा ( तब तक इस दक्षिण पूर्व एशियाई देश को इसी नाम से जाना जाता था) में बेहद गोपनीय तरीक़े अपनाने वाले अंधविश्वासी जनरल ने वीन के सैनिक शासन के मिलिट्री शासन को 26 साल हो चुके थे. जनरल विन ने साल 1962 के तख्तापलट में सत्ता पर कब्जा कर लिया था. जनरल सेना के कमांडर थे. म्यांमार की सेना को तामदौ कहा जाता है. कौन सा राज्य म्यांमार की सीमा रेखा पर स्थित नहीं है?इसे सुनेंरोकेंसही उत्तर सिक्किम है। बर्मा को प्राचीन भारत में क्या कहा जाता था?इसे सुनेंरोकेंव्याख्या: बर्मा (आधुनिक म्यांमार) को प्राचीन काल में स्वर्ण भूमि ‘कहा जाता था जातक कथाओं में इसका वर्णन प्रथम बार स्वर्ण भूमि के रूप में मिलता है। इसके अतिरिक्त टॉलेमी ने अपनी पुस्तक’ पेरिप्लस ऑफ इरिथ्रियन सी ‘में बर्मा को स्वर्णभूमि कहा है। भारत और म्यांमार की सीमा को क्या कहते हैं? इसे सुनेंरोकेंइसका उत्तरी– दक्षिणी विस्तार 3214 किमी तथा पूर्व-पष्चिम विस्तार 2933 किमी है। उत्तरी सीमा चीन,नेपाल तथा भूटान देषों से मिलती है। भारत चीन के मध्य की सीमा को मैकमोहन रेखा कहते हैं। जो सिक्किम राज्य से म्यांमार की सीमा तक है। म्यांमार को पहले क्या कहा जाता था? इसे सुनेंरोकेंम्यांमार जम्बूद्वीप, एशिया का एक देश है। इस देश का भारतीय नाम ‘ब्रह्मदेश’ है। पहले म्यांमार का नाम ‘बर्मा’ हुआ करता था। इसका यह नाम यहाँ बड़ी संख्या में आबाद बर्मी नस्ल के नाम पर पड़ा था। भारत और म्यांमार की सीमा रेखा का क्या नाम है?म्यांमार के साथ भारत के कितने राज्य सीमा रेखा साझा करते हैं?इसे सुनेंरोकेंम्यांमार से भारत के चार राज्य सटे हैं. नागालैंड, मणिपुर, मिजोरम और अरुणाचल प्रदेश. बर्मा देश की राजधानी क्या है? नाएप्यीडॉम्यानमार (बर्मा) / राजधानी सब्सक्राइब करे youtube चैनल (myanmar burma country history in hindi) बर्मा या म्यांमार देश का इतिहास राजधानी , जनसंख्या बर्मा ब्रिटिश भारत से कब अलग हुआ किस अधिनियम के फलस्वरूप बर्मा के अंतिम राजा का नाम क्या था ? बर्मा उद्देश्य प्रस्तावना
स्वतंत्रता के बाद, बर्मा ने ब्रिटिश नमूने के संसदीय जनतंत्र का अनुसरण किया। हालांकि राजनैतिक प्रक्रिया पर ए.एफ.पी.एफ.एल. (एण्टी-फासिस्ट पीपुल्स फ्रीडम लीग) का वर्चस्व था, किन्तु उसके बावजूद चुनाव निष्पक्ष एवं स्वतंत्र रहे। किन्तु प्रधानमंत्री उनू के नेतृत्व में सत्ता संभालने के समय से ही, ए.एफ.पी.एफ.एल. का शासन सहजता से कोसों दूर था। स्वयं पार्टी के सम्मुख भी आन्तरिक फूट तथा व्यक्तिगत कलह की वजह से खतरा उपस्थित हो गया था। नागरिक सरकार के सामने पहली चुनौती कम्युनिस्टों द्वारा पेश की गयी जिन्होंने स्वतंत्रता के आरंभिक वर्षों के दौरान ऐसी परिस्थिति पैदा कर दी जिसमें रंगून सरकार का वास्तविक नियंत्रण राजधानी शहर की सीमाओं के बाहर प्रायः समाप्त ही हो गया। भ्रम की स्थिति का फायदा उठाते हुए जातीय अल्पसंख्यकों ने देश में राजनैतिक स्थिति को और अधिक अस्थिर बना दिया। सरकार असंतुष्ट गुटों को शान्त करने में इस कदर उलझी हुई थी कि 1950-52 से पहले तक विकास समस्याओं पर विचार करने के लिए उसके पास समय व ऊर्जा ही नहीं थी। ‘‘बर्मी नमूने का समाजवाद‘‘ नामक एक समन्वयवादी विचारधारा विकसित की गई जिसमें इजारेदार उद्योगों, विदेश-व्यापार, भूमि आदि का राष्ट्रीयकरण तथा मजदूरों, किसानों तथा गरीबों को पूँजीवादी शोषण से संरक्षण देने, जैसे सुझावों को शामिल किया गया। किन्तु उत्तरवर्ती वर्षों में इस दिशा में कोई अमल नहीं किया गया। उनू सरकार का आर्थिक प्रदर्शन असंतोषजनक था। इस अवस्था में, राजनैतिक स्वायत्तता के लिए जातीय अल्पसंख्यकों की मांग ने कहीं अधिक गंभीर राजनैतिक और सुरक्षा संबंधी समस्या खड़ी कर दी। यह जनरल ने विन के नेतृत्व में सैनिक जुण्टा द्वारा 1962 में सत्ता पर कब्जा कर लेने का तथा तब से लगातार सत्ता में बने रहने का एक बहाना बन गया। सैनिक शासन से बर्मा में न तो राजनैतिक स्थिरता कायम हो सकी और न ही आर्थिक खुशहाली आ सकी। राजनैतिक प्रणाली अत्यधिक अधिनायकवादी थी जिसमें तमाम राजनैतिक संस्थाओं का सर्वोच्च नियंत्रण जनरल ने विन तथा उसकी चैकड़ी के हाथों में केन्द्रित था। सरकारी प्रवाहों के माध्यम से होने वाली राजनैतिक गतिविधियों के अलावा अन्य सभी राजनैतिक गतिविधियों पर पाबन्दी लगा दी गई थी। अनेक नागरिक नेताओं को गिरफ्तार करके जेलों में डाल दिया गया था। निजी अखबारों तथा समाचार माध्यमों पर जबर्दस्त पाबंदी थी। सेना द्वारा समर्थित बर्मा सोशलिस्ट प्रोग्राम पार्टी (बी.एस.पी.पी.) द्वारा अपनाई गई ‘‘डंडा और गांजर नीति‘‘ 26 वर्षों तक सैनिक शासन के विरुद्ध किसी प्रमुख लोकप्रिय प्रतिरोध को रोक पाने में सफल रही हालांकि आमतौर पर राजनैतिक रूप से जागृत जनता तथा खासतौर से जातीय समूहों में, कारेन, शान, चिन, तथा काचिन आदि गैर बर्मीयों पर बर्मीयों के, अधिपत्य के सवाल पर, फुसफसाहट भरा असंतोष मौजूद था। किन्तु 80 के दशक के अंत में बिगड़ती आर्थिक स्थिति के चलते इस दिखावटी स्थिरता को एक धक्का लगा और जनरल ने विन को खुले रूप में अपनी आर्थिक नीतियों की विफलता को स्वीकार करने पर मजबूर होना पड़ा। इसने मध्य वर्ग को वाकई आन्दोलित कर दिया जबकि निम्नतर वर्गों में पहले से ही खाद्यान्न की ऊंची कीमतों के कारण असंतोष व्याप्त था। इसका स्वाभाविक नतीजा एक ऐसे जन-उभार के रूप में सामने आया जिसे महज ताकत के बल पर नियंत्रित नहीं किया जा सकता था। इसके फलस्वरूप जनता का विरोध जनतंत्र के एक आन्दोलन के रूप में विकसित हो गया जिसने अंततः बी.एस.पी.पी. शासन का अंत कर दिया। बर्मा में सैनिक शासन को गैर-बर्मी जातीय अल्पसंख्यों द्वारा कभी भी स्वीकार नहीं किया गया, जिन्होंने अपनी स्वायत्तता पर बल देते हुए लम्बे समय तक हथियारबन्द छापामार कार्यवाहियां जारी रखी, किन्तु अब तो बहुसंख्यक बर्मी आबादी के बीच भी निजाम ने अपनी वैधता खो दी थी। यद्यपि जनवादी आन्दोलन के दबाव में बी.एस.पी.पी. शासन समाप्त हो गया किन्तु इसकी जगह एक कहीं अधिक बर्बर सरकार ने ले ली जो कि स्वयं को द स्टेट लॉ एण्ड आर्डर रेस्टोरेशन काउंसिल (एस.एल.ओ.आर.सी.) कहती थी और जिसने न सिर्फ देश में आतंक का राज कायम किया बल्कि 1990 के चुनावों के बाद नेशनल लीग फार । डेमोक्रेसी (एन.एल.डी.) नामक जनतांत्रिक ढंग से निर्वाचित गुट को सत्ता सौंपने से इंकार भी कर दिया। और न ही जनतंत्र की दिशा में एक शान्तिपूर्ण संक्रमण को सहज बनाने के लिए स्यूकी समेत बंदी नेताओं को रिहा ही किया गया। इस तरह से बर्मा अथवा म्यांमार अभी भी प्रभावी ढंग से सैनिक-शासन के अधीन बना हुआ है। ऐतिहासिक पृष्ठभूमि ब्रिटिशों के आगमन से पूर्व सौ वर्षों तक कोनबौंग सल्तनत समूचे बर्मा पर शासन करती रही। इसकी सत्ता का संगठन ‘‘सकेन्द्रित चक्रों’’ की उस व्यवस्था से मिलता-जुलता है, जो कि दक्षिण एशिया की अन्य अनेक बौद्ध राजतंत्रों में विद्यमान थी। इसके मायने यह हुए कि राजसी सत्ता केन्द्र के नजदीक अत्यधिक घनीभूत एवं निरंकुश थी। परिधि की तरफ इसने अधिकाधिक बिखराव वाला चरित्र अख्तियार कर लिया था। राजसी सत्ता का यह बिखराव दक्षिण अथवा निचले बर्मा में सबसे अधिक पिलपिला था, जहां हमें स्थानीय रूप से शक्तिशाली जिला गवर्नर अथवा मियोवन तथा शहरी सरदार अथवा मियोथुगयिस की मौजूदगी देखने को मिलती हैं। केन्द्रीय सत्ता की यह दुर्बलता सीमांत क्षेत्रों में भी देखी जा सकती थी, जहां विभिन्न जातीय अल्पसंख्यकों का वर्चस्व था। 1750 के बाद, विदेश-व्यापार पर राजसी इजारेदारी का ऐलान करके, कोन बाँग राजाओं ने बर्मा को एशियाई समुद्री व्यापार तंत्र से लगभग पूरी तरह अलग कर लिया। कुछ समय तक, बर्मा पश्चिमी साम्राज्यवादी घुसपैठ से बचा रहा। किन्तु 19वीं शताब्दी में, अंग्रेज जो भारत में मजबूती से अपने पांव जमा चुके थे तथा चीनी व्यापार में भाग लेने के लिए उत्सुक थे और बर्मा पर अपनी लालच भरी नजरें डालनी शुरू कर दी थीं। 1852 में, उन्होंने निचले बर्मा पर कब्जा कर लिया। शेष हिस्से, अर्थात् ऊपरी बर्मा को 1886 में मिला लिया गया तथा समूचे देश को ब्रिटिश भारतीय साम्राज्य का एक हिस्सा बना दिया गया। औपनिवेशिक
शोषण तथा राष्ट्रवाद का उदय इस तरह चावल-धारक एकल-संस्कृति के रूप में उदित होने का बर्मा के ग्रामीण समाज पर गंभीर असर पड़ा। ब्रिटिश राजस्व प्रणाली तथा वाणिज्यीकरण ने किसानों के समुदाय को बड़े भूस्वामियों, निजी उत्पादकों, काश्तकारों तथा बढ़ते बटाईदारों के वर्ग में रूपान्तरित कर दिया। भूमि का अलगाव खेतिहरों तथा खासतौर से भारतीय सूदखोरों के लिए एक भयानक समस्या बन गई। इस परिस्थिति ने विदेशी शासन तथा उसके एजेन्टों के खिलाफ रोष पैदा कर दिया। शुरू से ही बर्मा में किसानों द्वारा औपनिवेशिक शासन के खिलाफ प्रतिरोध किया जाता रहा। बढ़ता हुआ ग्रामीण असंतोष 1930-32 के विख्यात साया-सन विद्रोह के समय पूरी तरह से फूट पड़ा। इसके हमलों का मुख्य निशाना यूरोपीय तथा भारतीय सूदखोर थे। इस तरह से इसका उद्देश्य औपनिवेशिक शासन तथा इसके भारतीय वचीनी सहयोगियों द्वारा तैयार की गई शोषणकारी व्यवस्था को उखाड़ फेंकना था। 1932 में साया-सन विद्रोह के कुचले जाने से बर्मा में असंतोष पर काबू नहीं पाया जा सका। बल्कि इस समय तक एक स्वदेशी शिक्षित मध्यम वर्ग द्वारा उसके स्वाधीनता संघर्ष को एक बिलकुल नई दिशा प्रदान की गई। यह राष्ट्रवाद एक ऐसी पृष्टभूमि में विकसित हुआ जबकि स्थानीय आबादी लगभग पूरे तौर पर शोषित जनता से संबद्ध थी तथा उसके उत्पीड़क साम्राज्यवादी एवं पूंजीवादी विदेशी थे। इस कारण से, बर्मी राष्ट्रवाद अपने समाजवादी लक्ष्य निश्चित करने में सफल हो सका। इसने स्थानीय जनता के किसी भी प्रमुख हित अथवा किसी महत्वपूर्ण तबके को अपने से अलग-थलग कर देने का जोखिम नहीं उठाया। एक ऐसी समाजवादी अर्थव्यवस्था की स्थापना करने के विचार, जो कि विदेशी शोषण तथा औपनिवेशिक नियंत्रण से मुक्त हो, शिक्षित युवा लोगों के एक समूह के आन्दोलन द्वारा सुस्पष्ट ढंग से अभिव्यक्त हए, जो कि स्वयं को थाकिन अथवा अपने देश के स्वयं मालिक, कहते थे। धीरे-धीरे इस आन्दोलन से समाज के अन्य वर्ग प्रभावित हो गये जैसे, विद्यार्थी, मजदूर एवं किसान और इस प्रकार राष्ट्रीय आन्दोलन के लिए एक बृहत् आधार तैयार हो गया। परन्तु थाकिनों में शीघ्र ही अपने सिद्धान्तों एवं कार्यक्रमों को लेकर विभाजन हो गया। कुछ समाजवादी थे और उन्होने सन् 1939 में समाजवादी दल का गठन किया था जिसे जन क्रांतिकारी पार्टी कहा जाता था। एक अन्य वर्ग था जो पूर्ण रूप से कम्युनिस्टों का था और उन्होंने सन् 1944 में बर्मा कम्युनिस्ट पार्टी का गठन किया। इसके अलावा एक तीसरा वर्ग राष्ट्रवादियों का था जिनका समाजवादियों के प्रति बहुत झुकाव था। जापान द्वारा कब्जा एवं बर्मा की स्वतंत्रता परन्तु शीघ्र ही जापानियों के साथ मोहभंग होना शुरू हो गया। उनके कब्जे के बाद प्रबल रूप से देश का आर्थिक शोषण शुरू हो गया। बर्मा में एक विजेता का शासन कायम कर दिया गया जिसके अन्तर्गत जापानियों एवं स्थानीय बाशिन्दों के बीच जातीय ध्रवीकरण सम्पूर्ण रूप से था। इन परिस्थितियों में जनवरी 1948 में नू-एटली पैक्ट के द्वारा सना स्थानान्तरण के पश्चात राष्ट्रवादी थानिक न स्वतंत्र बर्मा के पहले प्रधान मंत्री बने। इसके पूर्व सन 1947 के पोगलौंग समझौते द्वारा ओंग सेन ने जातीय अल्पसंख्यकों से बर्मा के संगठन में सम्मिलित होने के लिए सहमति प्राप्त कर ली थी। हमारे लिये राष्ट्रीय आन्दोलन का अध्ययन करना महत्वपूर्ण है क्योंकि इसमें भविष्य के बर्मा के लिये कुछ विशेष महत्व की विरासतें निहित थी। सबसे पहले तो यह कि बर्मी लोगों की राष्ट्रवादिता, यानि बहु संख्यक समुदाय का राष्ट्रवाद, बर्मा-की राजनीति का एक प्रमुख शक्तिशाली अंग बन चुका था। समाजवादियों की विचारधारा में भी एक स्वाभाविक रूप की वैधता आ गई थी क्योंकि इनसे केवल शोषण करने वाले तत्वों के प्रभावित होने की आशा की जाती थी। शेष में इस आन्दोलन के द्वारा एक राष्ट्रीय फौज का निर्माण हुआ और इसने राष्ट्र की स्वाधीनता के संघर्ष में भाग लेकर एक महत्वपूर्ण राजनीतिक भूमिका निभाई । अगले चालीस वर्ष की स्वतंत्रता के काल में बर्मा की राजनीति पर इन सब घटकों का प्रभाव पड़ना था। बोध प्रश्न 1 बोध प्रश्न 1 के उत्तर
संसदीय काल स्वतंत्र बर्मा के लोकतांत्रिक रूप से चुने गये मंत्रिमंडल को शुरुआत में कन्युनिस्टों द्वारा चुनौती का सामना करना पड़ा। वे दो वर्गों में विभाजित थे, लाल झण्डे वाले (ट्रॉट्स्काईट) एवं सफेद झण्डे वाले (स्टेलिनिस्ट) । सफेद झण्डे वाले कम्युनिस्टों ने अपने सैद्धांतिक नेता, एम. एन. घोषाल के प्रतिभा सम्पन्न मार्ग दर्शन में ए.एफ.पी.एफ.एल. सरकार की आलोचना यह कह कर करनी शुरू कर दी थी कि वह ब्रिटिश साम्राज्यवाद के एजेंट हैं। उन्होंने एक सशस्त्र विद्रोह का आह्वान किया जो यथार्थ रूप में नये मंत्रिमंडल के सत्ता ग्रहण करने के चार माह पश्चात हआ । जब बर्मा की सेना का एक वर्ग विद्रोह करके कम्युनिस्टों के साथ मिल गया तो परिस्थिति अत्यधिक संकटपूर्ण लगने लगी। एक समय पर तो रंगून सरकार का राजधानी की सीमाओं के पार नियंत्रण प्रायः समाप्त हो गया। सरकार ने प्रतिआक्रमण किया परन्तु विद्रोह को निर्णायक रूप से कुचलने में असफल रही। एक माह के दीर्घकालिक युद्ध के बाद ही धीरे-धीरे इसका संवेग बनाया पो गया। घबराहट का लाभ उठाकर जातीय अल्पसंख्यकों ने देश की राजनीतिक स्थिति को और अस्थिर कर दिया। सबसे बड़ा खतरा करेनों से उत्पन्न हआ जो एक अलग करेन राज्य चाहते थे। इस उद्देश्य से उन्होंने करेन नेशनल डिफेन्स आर्गनाइजेशन (के.एन.डी.ओ.) नामक सैन्य दल का गठन किया, जिसने सन् 1948 के अन्त में रंगून पर हमला कर दिया। मण्डाले शहर पर कब्जा कर लिया, इन्सीन को तहस-नहस कर दिया और रंगून पर भी कब्जा करने के अनेक असफल प्रयास किये और बर्मा की सेना को अनेक बार परास्त किया। सन् 1950 में जाकर ही कहीं के.एन.डी.ओ. के दलों को सलवीन नदी के पार की पहाड़ियों तक खदेड़ा जा सका। परन्तु फिर भी काफी बड़े क्षेत्र व्यवहार में उनके नियंत्रण में बने रहे। इसी बीच कुछ अन्य प्रांतों से भी समस्या उत्पन्न हो गई थी। पीपुल्स वौलन्टीयर आर्गनाइजेशन (पी.वी.ओ.) के सदस्यों ने, जो कि स्वतंत्रता के पूर्व के दिनों में ए.एफ.पी.एफ.एल. का एक सैन्य दल था, अपने स्वयं के विवर्धन हेतु परिस्थिति का लाभ उठाया। सन् 1949 के मध्य में साम्राज्य के पुलिस दल ने अराकान में विद्रोह कर दिया। अराकान के उत्तरी क्षेत्र में मुजाहिद रंगून सरकार के खिलाफ सर उठाये हुए थे। जब कि अराकान के भीतरी भाग में लाल झन्डे वाले कम्युनिस्ट सक्रिय थे। रंगून में फरवरी सन् 1949 में सरकारी कर्मचारियों ने वेतन में कटौती के खिलाफ हड़ताल कर दी। परिस्थिति सचमुच निराशापूर्ण दिखने लगी और इसने सरकार की ऊर्जा एवं वित्तीय साधनों को सोख लिया। विकासात्मक योजनाएं स्वतंत्रता के शुरू के कुछ वर्षों में अर्थव्यवस्था के असंतोषजनक प्रदर्शन को देखते हुए बदलाव आवश्यक हो गया था। आर्थिक एवं सामाजिक सुधार का आठवें वर्ष का कार्यक्रम जो “पिडावथा‘‘ (कल्याणकारी राज्य) कार्यक्रम के नाम से विख्यात था और जिसको सन 1952 में शुरू किया गया था, उसने अपनी दिशा को समाजवादी बनाये रखा था। सन 1955 तक इसकी असफलता सुस्पष्ट रूप से प्रकट होने लगी एवं पूंजीवादी विरोधी नारों में कमी होने लगी। अब निजी पूंजीवादी उद्यमों को स्वीकारे जाने की अधिक सम्भावना प्रतीत होने लगी थी। सन् 1957 में यू नू द्वारा घोषित अगली चार वर्षीय योजना में बदलाव स्पष्ट रूप से प्रतीत होने लगा था। हालांकि समाज सुधार के लक्ष्य को बनाये रखा गया था परन्तु स्वदेशी एवं विदेशी उद्यमों में निजी सम्पत्ति लगाने पर अधिक बल दिया गया था। इसके बाद बर्मी जीवन की वस्तुस्थितियों में समाजवाद की भूमिका का महत्व कम होना शुरू हो गया। फिर भी परिणामस्वरूप आर्थिक विकास में कोई गतिशीलता नहीं हुई बल्कि आर्थिक एवं राजनीतिक दोनों प्रकार अव्यवस्थाओं का स्थायीकरण हो गया। जातीय
अल्पसंख्यक एवं बर्मीकरण 1990 के चुनाव तथा उसके बाद शुरू में लोग चकमे में आ गए और उन्होंने स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनावों की संभावनाओं के प्रति उत्साह के साथ अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त की। निर्वाचन आयोग में 230 राजनैतिक पार्टियों के पंजीकरण होने के साथ ही राष्ट्रीय एकता पार्टी (अथवा बी.एस.एस.पी.) के विभाजित होने की, आरंभिक संभावना भी शीघ्र समाप्त हो गई। उनमें से 41 ने मिलकर नेशनल लीग फार डेमोक्रेसी नामक एक चुनावी गठबंधन बना लिया। टिन डो उसका अध्यक्ष, तथा औंग सान स्यू की उसको सचिव बनी। दूसरी तरफ औंग ग्यी, एक अन्य यूनियन नेशनल डेमोक्रेसी पार्टी नामक संगठन का मुखिया बना, जो कि कुछ हद तक एस.एल.ओ.आर.सी, के साथ मैत्रीपूर्ण बन गया। बाद में अनेक पार्टियों ने निर्वाचन आयोग से अपने नाम वापस ले लिये। उसे तैयार किया जाना संभव था। जब एन.एल.डी. ग्रामीण अंचल में अपना चुनाव प्रचार शुरू करने वाली थी, जो कि अब तक जनतंत्र समर्थक आंदोलन से लगभग अप्रभावित ही रहा था, तो 17 जुलाई 1989 के देश में सैनिक शासन लागू कर दिया गया। स्यूकी को घर में नजरबंद कर दिया गया जबकि अन्य शीर्ष नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया। करीब 5-6 हजार छात्रों तथा राजनैतिक कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार किया गया। जनसभाओं पर पाबन्दी लगा दी गयी, अर्थात् चुनाव-प्रचार को व्यवहारिक तौर पर समाप्त ही कर दिया गया। विदेशी प्रेस को लगभग देश से बाहर खदेड़ दिया गया ताकि बाहरी दुनिया तक खबरें न पहुंच सके। किन्तु इस तरह की परिस्थितियों में हुए चुनाव के नतीजे काफी विस्मयकारी रहे, जो कि निश्चय ही एक खामोश क्रांति के द्योतक थे। एन.एल.ओ.आर.सी. फिर से विजयी हुई, जिनमें लगभग 70 प्रतिशत सीटों पर उसे स्पष्ट विजय प्राप्त हुई। (485 सीटों पर चुनाव लड़कर इसने 396 सीटें जीतीं)। एस.एल.ओ.आर.सी. ने आधिकारिक तौर पर चुनाव परिणामों को स्वीकार कर लिया, किन्तु जनता के निर्वाचित प्रतिनिधियों को सत्ता हस्तांतरित करने से इंकार कर दिया। यह ऐलान किया गया कि नव निर्वाचित निकाय केवल म्यांमार (बर्मा) के तीसरे संविधान की रचना करेगा। न ही जनतंत्र की ओर शांतिपूर्ण संक्रमण को सहज बनाने के लिए, स्यू की सहित गिरफ्तार नेताओं को रिहा ही किया गया। बर्मा अथवा म्यांमार अभी भी उस सैन्य शासन के प्रभावी नियंत्रण में थे, जिसे 30 वर्ष पहले मार्च 1962 में शुरू किया गया था। बोध प्रश्न 4 बोध प्रश्न 4 के उत्तर 2. क) आन्दोलन शुरू में स्वतः स्फूर्त था, असंगठित एवं नेता-विहीन था सारांश 1989 में, एस.एल.ओ.आर.सी. द्वारा इस दिशा में कुछ और कदम उठाए गए । स्वदेशी निजी निवेशों को प्रोत्साहन देने के लिए 4 संयुक्त क्षेत्र के निगमों की स्थापना की गई। यह उम्मीद की गई कि इससे निजी निवेश को आकर्षित किया। जा सकेगा तथा सरकारी नियंत्रण भी सुनिश्चित हो पायेगा। इसके अलावा एक विदेशी निवेश आयोग भी गठित किया गया। मई 1989 में, इसने यह घोषणा की कि नौ विशेष क्षेत्रों में विदेशी निवेश पर कोई पाबंदी नहीं रहेगी। इन क्षेत्रों के लिए अनेक कर रियायतें भी दी गई। केवल एक ही शर्त थी कि मुनाफों का हस्तांतरण म्यांमार विदेश व्यापार बैंक के जरिये होना चाहिए। हालांकि यह सही है कि कुछ देशों में ऐसी रियायतों के बाद अनुकूल प्रतिक्रियाएं देखने को मिली हैं, किन्तु एस.एल.ओ.आर.सी. की उम्मीदों से विदेशी निवेश की मात्रा कहीं कम रही। इसका परिणाम निरंतर जारी आर्थिक संकट के रूप में सामने आया जो वर्तमान राजनैतिक पृष्ठभूमि में एक और लोकप्रिय जन-विस्फोट का कारण बन सकता था। सैनिक शासकों ने, इसीलिए थाई सीमांत के पास जातीय विद्रोहियों के खिलाफ बगावत विरोधी उपायों को पुनः शुरू करके जनता का ध्यान बँटाने की कोशिश की तथा बंगलादेश की सीमा के पास मुस्लिम रोहिगियाओं पर नये सिरे से दमन शुरू किया। इन दोनों ही हरकतों के कारण एस.एल.ओ.आर.सी. को थाई तथा बंगलादेशी सरकार के साथ विवाद में उलझना पड़ा जिससे बर्मी राष्ट्रवाद को उभारने का उसे अवसर हाथ लगा। किंतु शायद यह रणनीति अंततः जनता के आक्रोश को शान्त करने में सफल होने वाली नहीं थी । बर्मा में जनतंत्र के संकट के सवाल पर विश्व-जनमत जागृत होता दिखाई दे रहा था। 1991 का नोबल शांति पुरस्कार ऑग सेन स्यू की को दिया जाना, जो कि अभी तक घर में नजरबंद हैं, इसका संकेत देता है। इन परिस्थितियों में, विश्व भर में यह उम्मीद की जा रही है कि शीघ्र ही बर्मा के आततायी सैनिक हुक्मरानों को जनता की इच्छा के आगे सिर झुकाने पर बाध्य किया जा सकेगा। शब्दावली कुछ उपयोगी पुस्तकें म्यांमार बर्मा कब बना?आंग सन की सहयोगी यू नू की अगुआई में 4 जनवरी, 1948 में बर्मा को ब्रिटिश राज से आजादी मिली। बर्मा 4 जनवरी 1948 को ब्रिटिश उपनिवेशवाद के चंगुल से मुक्त हुआ और वहाँ 1962 तक लोकतान्त्रिक सरकारें निर्वाचित होती रहीं।
बर्मा का सबसे पुराना नाम क्या है?म्यन्मा अथवा ब्रह्मदेश दक्षिण एशिया का एक देश है। इसका आधुनिक बर्मी नाम 'म्यन्मा' है। बर्मी भाषा में र का उच्चारण य किया जाता है अतः सही उच्चारण म्यन्मा है। इसका पुराना अंग्रेज़ी नाम बर्मा था जो यहाँ के सर्वाधिक मात्रा में आबाद जाति बर्मी के नाम पर रखा गया था।
म्यांमार बर्मा भारत से कब अलग हुआ था?Solution : साइमन कमीशन की रिपोर्ट की सिफारिश पर 1935 में बर्मा अधिनियम के अंतर्गत भारत से अलग बर्मा देश बना था। यह 1937 में ब्रिटिश भारत से वैधि क रूप से अलग हो गया एवं एक पृथक् प्रांत बन गया। बर्मा 1937 तक ब्रिटिश भारतीय प्रांत था।
बर्मा का दूसरा नाम क्या है?ब्रिटिश राज के बाद इस देश को अंग्रेजी में 'बर्मा' कहा जाने लगा। सन् 1989 मे देश की सैनिक सरकार ने पुराने अंग्रेजी नामों को बदल कर पारम्परिक बर्मी नाम कर दिया। इस तरह म्यान्मा को 'म्यन्मा' और पूर्व राजधानी और सबसे बड़े रंगून को यांगून नाम दिया गया।
|