बिहार में सबसे ज्यादा कौन जाति के लोग हैं? - bihaar mein sabase jyaada kaun jaati ke log hain?

Bihar Caste Census: बिहार में जातिगत जनगणना के मुद्दे पर ऑल पार्टी मीटिंग बुलाई गई है. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार (Nitish Kumar) की अध्यक्षता में बुधवार को सभी पार्टियों के नेता जुट रहे हैं. ये मीटिंग शाम 4 बजे बुलाई गई है. जातियों की गिनती कैसे होगी? इसी मीटिंग में तय होगा. माना जा रहा है कि इस मीटिंग में जो आम राय निकलकर आएगी, उसके आधार पर प्रस्ताव बनाकर राज्य की कैबिनेट के पास भेजा जाएगा.

मुख्यमंत्री नीतीश कुमार पिछले कुछ महीनों से जातिगत जनगणना कराने की मांग करते रहे हैं, लेकिन बीजेपी इसका विरोध करती रही है. हालांकि, जब नीतीश की जनता दल यूनाइटेड (JDU) और लालू यादव की राष्ट्रीय जनता दल (RJD) इस मुद्दे पर एक हुए तो बीजेपी ने भी जातीय जनगणना कराने का समर्थन देने की बात कही है.

लेकिन बिहार में जातिगत जनगणना की मांग क्यों हो रही है? आखिरी बार कब हुई थी जनगणना? और क्या ऐसा हो सकता है? जानते हैं इस मुद्दे से जुड़े 10 बड़े फैक्ट्स...

1. बिहार में जातीय जनगणना का क्या है मामला?

- बिहार में जातीय जनगणना कराने की मांग तीन साल से हो रही है. नीतीश कुमार अक्सर कहते रहे हैं कि आम जनगणना के साथ जातियों की गिनती भी हो. हालांकि, केंद्र सरकार ऐसा नहीं कराना चाहती.

- नीतीश सरकार 18 फरवरी 2019 और 27 फरवरी 2020 को जातीय जनगणना का प्रस्ताव बिहार विधानसभा और विधान परिषद में पास करा चुकी है. 

- पिछले साल अगस्त में मुख्यमंत्री नीतश कुमार से बिहार विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव ने मुलाकात की. इस मुलाकात में जातीय जनगणना कराने पर सहमति मिले. इसके बाद सभी पार्टियों के नेताओं ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात की और जातीय जनगणना कराने की मांग की.

- इसके बाद सितंबर में सुप्रीम कोर्ट में केंद्र ने हलफनामा दायर कर साफ कर दिया कि 2021 में जातिगत जनगणना नहीं कराई जाएगी. केंद्र ने कहा कि ओबीसी जातियों की गिनती करना लंबा और कठिन काम है. 

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2. भारत में जनगणना का क्या है इतिहास?

- भारत में पहली बार 1881 में जनगणना हुई थी. पहली बार जब जनगणना हुई थी, तब भारत की आबादी 25.38 करोड़ थी. तब से हर 10 साल पर जनगणना हो रही है. 

- 1931 तक जाति के आधार पर भी जनगणना के आंकड़े जुटाए गए. 1941 में भी जातिवार आंकड़े जुटाए गए थे, लेकिन इसे जारी नहीं किया गया था. 

- आजादी के बाद 1951 में जनगणना हुई थी. तब सरकार ने तय किया था कि सिर्फ अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के आंकड़े ही जुटाए जाएंगे. इसके बाद से सिर्फ एससी और एसटी के आंकड़े जारी होते हैं.

3. 1931 में जातियों को लेकर क्या सामने आया था?

- 1931 में आखिरी बार जातिगत जनगणना के आंकड़े जारी हुए थे. उस समय अलग-अलग रियासतों में जातिवार आंकड़े दिए गए थे. उस समय बिहार और ओडिशा एक रियासत थी. यहां 23 से ज्यादा जातियां थीं. 

- सबसे ज्यादा ग्वाला (अहीर) थे. इनकी आबादी 34.55 लाख से ज्यादा थी. इनके बाद 21 लाख से ज्यादा ब्राह्मण थे. वहीं, करीब 9 लाख आबादी भूमिहार ब्राह्मणों की थी. 

- इनके अलावा 14.52 लाख कुर्मी, 14.12 लाख राजपूत, 12.96 लाख हरिजन, 12.90 लाख दोसाध, 12.10 लाख तेली, 10.10 लाख खंडैत और 9.83 लाख जोलाहा थे. 4 लाख से ज्यादा धोबी और 2 लाख से ज्यादा बनिया थे.

4. तो क्या जातियों की गिनती नहीं होती?

- आजादी से पहले तक देश में सभी जातियों की गिनती होती थी, लेकिन आजादी के बाद ऐसा बंद हो गया. अभी सिर्फ अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की गिनती होती है. 

- 2011 में लालू प्रसाद यादव और मुलायम सिंह यादव ने भी ऐसी मांग उठाई थी. तब केंद्र की कांग्रेस सरकार ने सामाजिक आर्थिक जाति जनगणना (SECC) कराने का फैसला लिया था. 

- सामाजिक आर्थिक जाति जनगणना के लिए करीब साढ़े 4 हजार करोड़ रुपये खर्च किए गए. 2016 में मोदी सरकार ने जातियों को छोड़कर बाकी सारा डेटा जारी कर दिया. 

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5. लेकिन जातीय जनगणना की जरूरत क्यों?

- जातिगत जनगणना कराने के पक्ष में तर्क ये है कि 1951 से एससी और एसटी जातियों का डेटा पब्लिश होता है, लेकिन ओबीसी और दूसरी जातियों का डेटा नहीं आता है. इससे ओबीसी की सही आबादी का अनुमान लगाना मुश्किल होता है.

- 1990 में केंद्र की तब की वीपी सिंह की सरकार ने दूसरा पिछड़ा वर्ग आयोग की सिफारिश को लागू किया. इसे मंडल आयोग के नाम से जानते हैं. इसने 1931 की जनगणना के आधार पर देश में ओबीसी की 52% आबादी होने का अनुमान लगाया था.

- मंडल आयोग की सिफारिश के आधार पर ही ओबीसी को 27% आरक्षण दिया जाता है. जानकारों का मानना है कि एससी और एसटी को जो आरक्षण मिलता है, उसका आधार उनकी आबादी है, लेकिन ओबीसी के आरक्षण का कोई आधार नहीं है. 

6. केंद्र क्यों नहीं चाहती जातीय जनगणना?

- इससे देश में 1990 जैसे हालात बन सकते हैं. फिर से मंडल आयोग जैसे किसी आयोग को गठन करने की मांग हो सकती है. इसके अलावा आरक्षण की व्यवस्था में भी फेरबदल होने की संभावना है. 

- अगर जातीय जनगणना हुई और ओबीसी की आबादी घटी तो राजनीतिक पार्टियां इस डेटा पर सवाल उठा सकती हैं. वहीं, अगर आबादी बढ़ी तो फिर और ज्यादा आरक्षण देने की मांग उठ सकती है. 

- इसका एक कारण राजनीति भी है. अभी बीजेपी की जितनी पैठ सवर्ण जातियों में है, उतनी ओबीसी जातियों में नहीं है. अगर जातीय जनगणना हुई तो क्षेत्रीय दल केंद्र से ओबीसी कोटे में बदलाव की मांग कर सकते हैं, जिससे बीजेपी के लिए मुसीबत खड़ी हो सकती है.

7. फिर क्या है रास्ता?

- नीतीश कुमार ने आज ऑल पार्टी मीटिंग बुलाई है. इस मीटिंग में जिस बात पर सहमति बनेगी, उसका प्रस्ताव राज्य की कैबिनेट के पास जाएगा. कैबिनेट से मंजूरी के बाद बिहार में जातीय जनगणना कराने की प्रक्रिया शुरू हो जाएगी.

- पिछले साल नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव ने कहा था कि अगर तकनीकी दिक्कतों का हवाला देते हुए केंद्र सरकार देश में जातीय जनगणना नहीं करा सकती, तो बिहार सरकार अपने खर्चे पर ये करवाए. तेजस्वी की इस बात को कहीं न कहीं नीतीश ने भी माना था.

8. क्या केंद्र सरकार इसे मानेगी?

- अगर बिहार सरकार अपने खर्चे पर राज्य में जातिगत जनगणना करा भी लेती है, तो क्या केंद्र सरकार उसे मानेगी? क्योंकि आखिरी गेंद तो केंद्र के पाले में ही जाएगी.

- जानकार मानते हैं कि कोई भी राज्य अगर अपने स्तर पर जातिगत जनगणना करा लेता है तो भी उसका बहुत महत्व नहीं होगा, क्योंकि केंद्र इसे नहीं मानेगा. इसका एक कारण ये भी है कि जनगणना कराने की जिम्मेदारी केंद्र की है, राज्य सरकार की नहीं.

9. इसके पीछे सियासी गणित क्या है?

- 1990 के दशक में मंडल आयोग के बाद जिन क्षेत्रीय पार्टियों का उदय हुआ, उसमें लालू यादव की RJD से लेकर नीतीश कुमार की JDU तक शामिल है. 

- तेजस्वी यादव जातीय जनगणना की मांग का मोर्चा खोले हुए हैं, ऐसे में नीतीश कैसे पीछे रह सकते हैं. नीतीश नहीं चाहते कि जातिगत जनगणना का सारा सियासी फायदा तेजस्वी ले जाएं, इसलिए वो भी इसके लिए मुखर हो गए हैं.

- इसके अलावा बिहार की राजनीति ओबीसी के इर्द-गिर्द सिमटी हुई है. बीजेपी से लेकर तमाम पार्टियां ओबीसी को ध्यान में रखकर अपनी सियासत कर रहीं हैं. ओबीसी वर्ग को लगता है कि उनका दायरा बढ़ा है, ऐसे में अगर जातिगत जनगणना होती है तो आरक्षण की 50% की सीमा टूट सकती है, जिसका फायदा उन्हें मिलेगा.

- ऐसे में बिहार के सियासी समीकरण को ध्यान में रखते हुए जातिगत जनगणना की मांग तेज हो रही है. शायद यही वजह है कि केंद्र में बीजेपी जातिगत जनगणना का भले ही विरोध कर रही हो, लेकिन बिहार में वो समर्थन में खड़ी हुई है.

10. क्या और किसी राज्य में हो चुका है ऐसा?

- जातीय जनगणना की जब भी बात होती है तो कर्नाटक मॉडल का जिक्र आता है. कर्नाटक में जातिगत जनगणना कराई जा चुकी है, लेकिन इसका डेटा आज तक सार्वजनिक नहीं किया गया.

- 2015 में सिद्धारमैया के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार ने राज्य में जातीय जनगणना करवाई थी. इस पर 162 करोड़ रुपये खर्च हुए थे. लेकिन लिंगायत और वोक्कालिगा समुदाय की नाराजगी से बचने के लिए इस रिपोर्ट को सार्वजनिक नहीं किया गया.

बिहार में सबसे अधिक कौन जाती है?

जनगणना 2011: बिहार में 82% हिंदू, इसमें 51% आबादी ओबीसी की मोटे-मोटे तौर पर यह कहा जाता है कि बिहार में 14.4% यादव समुदाय, कुशवाहा यानी कोइरी 6.4%, कुर्मी 4% हैं। सवर्णों में भूमिहार 4.7%, ब्राह्मण 5.7%, राजपूत 5.2% और कायस्थ 1.5% हैं।

बिहार के दबंग जाति कौन है?

भूमिहार समुदाय ने भारत के किसान आंदोलनों में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 20 वीं शताब्दी में भूमिहार बिहार की राजनीति में अत्यधिक प्रभावशाली थे।

बिहार में सबसे ताकतवर जाति कौन है?

बंगाल सैनिक बिहार व उत्तर प्रदेश के राजपूत, भूमिहार आदि लड़ाकू जतियों से भर्ती होते थे।

बिहार में यादव की जनसंख्या कितना प्रतिशत है?

आज बिहार में यादवों की आबादी 14.60 प्रतिशत है। इनसे अधिक सिर्फ मुसलमान हैं जिनकी आबादी 15.50 प्रतिशत है। बनिया की आबादी 8.2 प्रतिशत और कुशवाहा की आबादी 4.5 प्रतिशत है। कुर्मी 3.3 प्रतिशत और मुसहर 2.3 प्रतिशत हैं।