भूमि के कणों का अपने मूल स्थान से हटने एवं दूसरे स्थान पर एकत्र होने की क्रिया को भू-क्षरण या मृदा अपरदन कहते हैं ! Show
Ff3h4ggy3 {{ क्षे7णीहीन|date=नवम्बर 2019 Solution : भू-क्षरण एक प्रक्रिया है जिसके द्वारा भूमि कृषि के अयोग्य हो जाती है।. मनुष्यों ने अपने व्यक्तिगत लालच के कारण प्राकृतिक पर्यावरण का क्षरण किया है। मानवीय क्रियाओं ने प्राकृतिक पर्यावरण का क्षरण किया है। मानवीय क्रियाओं ने प्राकृतिक शक्तियों द्वारा भूमि को नुकसान पहुँचाने की गति को तेज कर दिया है। <br> इस समय भारत में लगभग 130 मिलियन हेक्टेयर क्षरित भूमि है। इसमें लगभग 28 प्रतिशत वन क्षरित क्षेत्र है, 56 प्रतिशत जल क्षरित क्षेत्र है तथा शेष क्षारीय प्रभावित क्षेत्र है। कुछ मानवीय प्रक्रियाओं जैसे-वनोन्मूलन, अति चराई, खनन का विस्तार आदि ने भी भू-क्षरण में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। <br> भू-क्षरण को नियंत्रित करने के उपाय-1) वन लगाना-वनों के अधीन । क्षेत्र को बढ़ाना भूमि संरक्षण का सबसे बेहतर उपाय है। पेड़ों की कटाई को रोकना चाहिए तथा नए क्षेत्रों में पेड़ लगाने के प्रयल करने चाहिए। <br> (ii) पशुओं की चराई को सीमित करना-मृदा के अपरदन को रोकने के लिए पशुओं को विभिन्न चरागाहों में ले जाना चाहिए । चारे की फसलों को बड़ी मात्रा में लगाना चाहिए। <br>(iii) बाँधों का निर्माण-नदियों पर बाँधों का निर्माण कर नदी बाढ़ों द्वारा मृदा अपरदन को रोका जा सकता है। इससे जल की गति को नियंत्रित करके भू-क्षरण से रोका जा सकता है। <br> (iv) उचित कृषि तकनीक-(क) फसलों की अदला-बदली-यदि एक खेत में हर वर्ष एक ही फसल उगाई जाए तो मृदा के पौष्टिक तत्त्व समाप्त हो जाते हैं और भूमि अनुपजाऊ हो जाती है। फसलों की अदला-बदली इस प्रकार । के अपरदन को रोक सकती है। <br> (ख) आदिवासी लोगों को स्थायी कृषि करने के लिए प्रेरित कर स्थानांतरी कृषि को कम किया जा सकता है। <br> (ग) सीढ़ीदार तथा समोच्च जुताई मृदा संरक्षण का प्रभावशाली तथा सबसे पुराना तरीका है। पहाड़ी ढलानों को काटकर कई चौड़ी सीढ़याँ बना दी जाती हैं। ढाल वाली भूमि पर समोच्च रेखाएँ बना दी जाती हैं। <br> (घ) पवन की दिशा में भूमि को जोतने से पवन की गति को रोका जा सकता है तथा मृदा की ऊपरी परत को अपरदित होने से रोका जा सकता है। भूमि के कणों का अपने मूल स्थान से हटने एवं दूसरे स्थान पर एकत्र होने की क्रिया को भू-क्षरण या मृदा अपरदन कहते हैं! भूक्षरण या मृदा-अपरदन का अर्थ है मृदा कणों का बाह्य कारकों जैसे वायु, जल या गुरूत्वीय-खिंचाव द्वारा पृथक होकर बह जाना। वायु द्वारा भूक्षरण मुख्यतः रेगिस्तानी क्षेत्रों में होता है, जहाँ वर्षा की कमी तथा हवा की गति अधिक होती है, परन्तु जल तथा गुरूत्वीय बल द्वारा भूक्षरण पर्वतीय क्षेत्रों में अधिक होता है। जल द्वारा भूक्षरण के दो मुख्य चरण होते हैं- पहले सतही भूमि से मृदा कणों का पृथक होना, तथा दूसरे इन मृदा कणों का सतही
अपवाह के साथ बहकर दूर चले जाना। जल द्वारा भूक्षरण के विभिन्न प्रकार निम्नानुसार है। यदि भूक्षरण स्वतः ही प्राकृतिक ढंग से बिना किसी बाह्य हस्तक्षेप के होता रहता है, उसे प्राकृतिक-क्षरण कहते हैं। इस भूक्षरण में मृदा-निर्माण तथा मृदा-ह्रास की प्रक्रियायें साथ-साथ होती रहती हैं जिसके कारण एक प्राकृतिक संतुलन बना रहता है तथा वानस्पतिक विकास निरन्तर चलता रहता है। यह एक धीमा परन्तु लगातार चलने वाला रचनात्मक कार्य है। वास्तव में, यह कोई समस्या नहीं है, बल्कि एक
प्राकृतिक क्रिया है जिसके लिए किसी विशेष उपाय की आवश्यकता नहीं पड़ती है। त्वरित-क्षरण - यदि भूक्षरण की प्रक्रिया मानव तथा जानवरों द्वारा सतही भूमि पर आवश्यकता से अधिक दखल देने के कारण तेजी से होती है, उसे त्वरित-भूक्षरण कहते हैं। यह क्रिया अधिक विनाशकारी होती हैं जिसके उपचार हेतु भूमि संरक्षण के उपाय अत्यावश्यक हैं ताकि मृदा-वनस्पति-पर्यावरण का सम्बन्ध प्रकृति में बना रहे। इसकी शुरूआत भूमि पर तीव्र गति से अवैज्ञानिक ढंग से कृषि-कार्य तथा अन्य एक-तरफा विकास-कार्यो के
अनियंत्रित प्रभाव से होती है जिसके दूरगामी दुष्परिणाम होते हैं। हमारे देश में सामान्यतः कृषि भूमि से अनुमन्य भूक्षरण की दर लगभग 7.5 टन प्रति हैक्टेयर प्रति वर्ष है, परन्तु वर्तमान दर लगभग 20-30 टन प्रति हैक्टेयर प्रति वर्ष तक पहुँच गयी है, जिसमें अधिकतम योगदान पर्वतीय क्षेत्रों का है। यह एक चिन्ता का विषय है जिसके लिए तुरन्त संरक्षण के उपयुक्त उपाय प्रयोग करना अत्यावश्यक है। चूंकि उत्तराखंड में त्वरित भूक्षरण एक गम्भीर समस्या है, अतः इसके विभिन्न कारकों तथा रोकथाम के उपायों की जानकारी आवश्यक है, जो कि निम्नवत् है- (1) जलवायु - इसमें शामिल हैं-वर्षा की मात्रा व तीव्रता, तापमान, वायु, सूर्य की ऊष्मा आदि। यदि वर्षा की तीव्रता अधिक है, तो भूक्षरण भी अधिक होगा। (2) मृदा - इसमें शामिल हैं- मृदा की रचना तथा गठन, घनत्व, जल-धारण क्षमता, कार्बनिक पदार्थ, दृढ़ता आदि। मृत्तिका या चिकनी मिट्टी की अपेक्षा रेतीली मिट्टी का क्षरण अधिक होता है। (3) वनस्पति - इसमें शामिल हैं- वनस्पति का प्रकार, जाति, घनत्व, परिपक्वता-अवस्था आदि। सघन वनस्पति जिसका मूल-तंत्र अच्छा है, उससे भूक्षरण कम होता है। (4) स्थलाकृति - इसमें शामिल हैं- ढाल की मात्रा एवं लम्बाई, जलागम की आकृति एवं आकार आदि। लम्बे व ढालू भूमि की सतह से भूक्षरण अधिक होता है क्योंकि इस पर अपवाह की गति तेज होती है। उत्तल-सतह की अपेक्षा अवतल-सतह से भूक्षरण कम होता है। क्षरण परिभाषा क्या है?स्कन्द का अर्थ होता है- क्षरण अर्थात् विनाश।
भू चरण का क्या अर्थ है?भूमि के कणों का अपने मूल स्थान से हटने एवं दूसरे स्थान पर एकत्र होने की क्रिया को भू-क्षरण या मृदा अपरदन कहते हैं!
क्षरण से आप क्या समझते हैं इसे कैसे रोका जा सकता है?<br> भू-क्षरण को नियंत्रित करने के उपाय-1) वन लगाना-वनों के अधीन । क्षेत्र को बढ़ाना भूमि संरक्षण का सबसे बेहतर उपाय है। पेड़ों की कटाई को रोकना चाहिए तथा नए क्षेत्रों में पेड़ लगाने के प्रयल करने चाहिए। <br> (ii) पशुओं की चराई को सीमित करना-मृदा के अपरदन को रोकने के लिए पशुओं को विभिन्न चरागाहों में ले जाना चाहिए ।
भारत में भूमि क्षरण के क्या कारण हैं?भूमि क्षरण के कारण:
जनसंख्या विस्फोट, औद्योगीकरण, शहरीकरण, वनविनाश, अत्यधिक चराई, झूम कृषि तथा खनन गतिविधियां भूमि संसाधनों के क्षरण के प्रमुख कारण हैं। इनके अतिरिक्त रसायनिक उर्वरकों एवं नाशीजीवनाशकों (पेस्टीसाइड्स) पर आधारित पारम्परिक कृषि भी भूमि क्षरण का एक प्रमुख कारण है।
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